तवा फाड़ के निकली ज्वाला, अकबर शीश नवाया
देवभूमि हिमाचल में ऐसे कई रहस्यमयी मंदिर है जिसके आगे विज्ञान भी फैल है। ऐसा ही एक प्रसिद्ध शक्तिपीठ है हिमाचल प्रदेश के जिला काँगड़ा में स्थित श्री ज्वालामुखी मंन्दिर। इस मंदिर को ज्योता वाली माता के मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। यह मंदिर माता के अन्य मंदिरों की तुलना में काफी अनोखा है क्योंकि यहां पर किसी मूर्ति की पूजा नहीं होती है बल्कि पृथ्वी के गर्भ से निकल रही नौ ज्वालाओं की पूजा होती है। ज्वाला देवी मंदिर में बिना तेल और बाती के नौ ज्वालाएं दिन रात जलती रहती है। इन्हे माता के नौ स्वरूपों का प्रतीक माना हैं। मंदिर में जल रही सबसे बड़ी ज्वाला को माता ज्वाला माना जाता है और अन्य आठ ज्वालाओं के रूप में मां अन्नपूर्णा, मां विध्यवासिनी, मां चण्डी देवी, मां महालक्ष्मी, मां हिंगलाज, मां सरस्वती, मां अम्बिका देवी एवं मां अंजी देवी स्थापित हैं। कहा जाता है कि बादशाह अकबर ने भी इस ज्वाला को बुझाने की कोशिश की थी लेकिन वो नाकाम रहे थे। इतना ही नहीं वैज्ञानिकों ने भी इस ज्वाला के लगातार जलने का कारण खोजने की कोशिश की लेकिन वे भी इसके पीछे का रहस्य नहीं जान पाए हैं। यह सब बातें सिद्ध करती हैं कि यहां ज्वाला प्राकृतिक रूप से ही नहीं चमत्कारी रूप से भी निकलती है।
51 शक्तिपीठों में से एक है ज्वाला देवी मंदिर
पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है। ज्वाला देवी मंदिर इन शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। इन सभी शक्तिपीठों की उत्पत्ति की कथा एक ही है। पौराणिक कथाओं के अनुसार यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंथ के अनुसार इन सभी स्थलों पर देवी सती के अंग गिरे थे। दरअसल भगवान शिव के ससुर राजा दक्ष ने अपनी राजधानी में यज्ञ का आयोजन किया था जिसमे उन्होंने भगवान शिव और माता सती को आमंत्रित नही किया। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। जब यज्ञ स्थल पर माता सती पहुंची तो वहां उनके पिता द्वारा शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और हवन कुण्ड में कूद गई। जब यह बात भगवान शंकर को पता चली तो यज्ञ स्थल पर पहुंचकर उन्होंने सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करना शुरू कर दिया। इस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि ज्वालाजी में माता सती की जीभ गिरी थी।
श्री ज्वालामुखी मन्दिर का इतिहास
श्री ज्वालामुखी मन्दिर के निर्माण को लेकर एक अन्य कथा प्रचलित है। इस कथा के अनुसार सतयुग में सम्राट भूमिचन्द्र ने ऐसा अनुमान किया कि सती की जिह्वा भगवान् विष्णु के चक्र से कटकर हिमालय के धौलाधार पर्वतों पर गिरी है। काफी प्रयत्न करने के बाद भी वह उस स्थान को ढूंढ़ने में असफल रहे। तदोपरान्त उन्होंने नगरकोट काँगड़ा में एक छोटा-सा मन्दिर भगवती सती के नाम से बनवाया। इसके कुछ वर्षों के बाद किसी ग्वाले ने सम्राट भूमिचन्द्र को सूचना दी कि उसने अमुक पर्वत पर ज्वाला निकलती हुई देखी है, जो ज्योति के समान निरन्तर जलती है। महाराज भूमिचन्द्र ने स्वयं आकर इस स्थान के दर्शन किए और घोर वन में मन्दिर का निर्माण किया। मन्दिर में पूजा के लिए शाक-द्वीप से भोजक जाति के दो पवित्र ब्राह्मणों को लाकर यहाँ का पूजन-अधिकार सौंपा गया। इन पंडितों के नाम पंडित श्रीधर तथा पंडित कमलापति थे। उन्हीं भोजक ब्राह्मणों के वंशज आज तक श्री ज्वालामुखी देवी की पूजा करते आ रहे हैं। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसार चंद ने 1835 में इस मंदिर का निर्माण पूरा करवाया। एक अन्य किवंदती के अनुसार कहा जाता है कि पांडवों ने ज्वालामुखी की यात्रा की थी तथा उन्होंने ज्वाला माता के मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था।
गोरख-डिब्बी की कथा
ज्वालामुखी तीर्थ का दूसरा महत्वपूर्ण पूजा स्थान गोरख-डिब्बी है। यहाँ पर डिब्बी का अर्थ जलकुण्ड से है। ज्वाला दवी शक्तिपीठ में माता की ज्वाला के अलावा एक अन्य चमत्कार देखने को मिलता है। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है। इस जलकुण्ड का सम्बन्ध नाथ संप्रदाय के प्रमुख आचार्य योगीराज गोरखनाथ से है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये। इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब से माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, लेकिन तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी।
माता ज्वाला ने तोड़ा था अकबर का घमंड
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार कहा जाता हैं कि मुग़ल बादशाह अकबर को जब ज्वालामुखी में माता के इस चमत्कार के बारे में पता चला तो उसने नई ज्योतियों को बुझाने का प्रयास किया था। अकबर ने ज्योति को बुझाने के लिए नहर का निर्माण किया और सेना से पानी डलवाना शुरू कर दिया, लेकिन नहर के पानी से मां की ज्योतियां नहीं बुझीं। इसके बाद अकबर ने मां से माफी मांगी और पूजा कर सोने का सवा मन का छत्र चढ़ाया । कहा जाता है कि घमंड में चढ़ाया हुआ ये सवा मन भारी शुद्ध सोने का छत्र खंडित हो गया था। माता ने उसका छत्र स्वीकार नहीं किया था। यह छत्र सोने का न रहकर किसी दूसरी धातु में बदल गया था। इसके बाद वह कई दिन तक मंदिर में रहकर क्षमा मांगता रहा, लेकिन माता ने उसकी क्षमा स्वीकार नहीं की। कहते हैं कि इस घटना के बाद ही अकबर के मन में हिंदू देवी-देवताओं के लिए श्रद्धा पैदा हुई थी। अकबर का चढ़ाया गया छत्र किस धातु में बदल गया, इसकी जांच के लिए साठ के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री पं.जवाहर लाल नेहरू की पहल पर यहां वैज्ञानिकों का दल पहुंचा। छत्र के एक हिस्से का वैज्ञानिक परीक्षण किया तो चौंकाने वाले नतीजे सामने आए। वैज्ञानिक परीक्षण के आधार पर इसे किसी भी धातु की श्रेणी में नहीं माना गया। जो भी श्रद्धालु शक्तिपीठ में आते हैं, वे अकबर के छत्र और नहर देखे बगैर यात्रा को अधूरा मानते हैं। आज भी छत्र ज्वाला मंदिर के साथ भवन में रखा हुआ है। मंदिर के साथ नहर के अवशेष भी देखने को मिलते हैं।
श्री ज्वालामुखी तीर्थ के दर्शनीय स्थल
सेजा-भवन : ज्वालामुखी के मुख्य मन्दिर के सामने सेजा भवन बनाया गया है। यह भगवती ज्वाला देवी का शयन-स्थान है। भवन में प्रवेश करते ही बीचों-बीच संगमरमर का चबूतरा बना हुआ है, जिसके ऊपर चांदनी लगी हुई है। रात 10 बजे शयन आरती के उपरान्त माँ भगवती के शयन के लिए कपड़े एवं शृंगार के सामान के साथ पानी का लोटा और दांतुन आदि रखी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि माँ भगवती यह रात्रि एक समय शयन के लिए आती है। सेजा-भवन में चारों ओर दस महाविद्याओं तथा महाकाली, महालक्ष्मी व महासरस्वती की मूर्तियां बनी हैं। श्री गुरु गोविन्द सिंह द्वारा रखवाई गई श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की हस्तलिखित प्रतिलिपि भी सेजा-भवन में सुरक्षित है।
वीर कुण्ड: मंदिर के निकट ही योगिनी खर्पर तथा वीर कुण्ड है। इस खर्पर का पूजन वार्षिक होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि यदि वंध्यानारी इस कुण्ड में श्रद्धापूर्वक स्नान करे तो वंध्यापन दूर होकर उन्हें संतान सुख प्राप्त होता है।
श्री राधा-कृष्ण मन्दिर: गोरख-डिब्बी के समीप ही राधा कृष्ण जी का एक छोटा-सा मन्दिर है। विश्वास किया जाता है कि यह प्राचीन मन्दिर कटोच राजाओं के समय में बनवाया गया था।
शिव-शक्ति : गोरख-डिब्बी से लगभग 15 सीढ़ियाँ ऊपर चढ़कर शिव-शक्ति नामक स्थान है। यहाँ पर शिवलिंग के साथ ज्योति के दर्शन किये जाते है।
काली-भैरव मन्दिर : काली-भैरव मन्दिर काफी प्राचीन मन्दिर है। कहा जाता है कि शरीर में किसी भी प्रकार की पीड़ा हो, वह केवल इसके दर्शन मात्र से ही दूर हो जाती है।
सिद्ध नागार्जुन : यह रमणीक स्थान लाल-शिवालय से ऊपर लगभग एक फर्लांग सीढ़ियाँ चढ़कर आता है। यहाँ पर डेढ़ हाथ ऊँचे काले पत्थर की मूर्ति है। इसी को सिद्ध-नागार्जुन कहते हैं। कहा जाता है कि जब गुरु गोरखनाथ जी खिचड़ी लाने गए और बहुत देर हो जाने पर भी वापिस न लौटे, तब उनके शिष्य सिद्ध-नागार्जुन पहाड़ी पर चढ़कर उन्हें देखने लगे कि गुरु जी कहाँ निकल गए। वहाँ से इन्हें अपने गुरु तो दिखाई नहीं दिए, परन्तु यह उन्हें स्थान इतना मनोहर लगा कि नागार्जुन वहीं समाधि लगाकर बैठ गए।
अम्बिकेश्वर महादेव : सिद्ध नागार्जुन से एक फर्लांग पूर्व की ओर यह मन्दिर है। इस स्थान को उन्मत्त भैरव भी कहते हैं तथा इस मन्दिर का पौराणिक महत्व है। श्री शिव महापुराण की पीछे लिखी कथा के अनुसार, जहाँ- जहाँ भी सती के अंग-प्रत्यंग गिरे, वहीं वहीं पर शिवजी ने किसी-न-किसी रूप में निवास किया था। इसी तरह ज्वालामुखी में शिवजी उन्मत्त भैरव रूप में स्थित हुए। यह मंदिर मन्दिर अम्बिकेश्वर महादेव के नाम से प्रसिद्ध है।
टेढ़ा मन्दिर: अम्बिकेश्वर से लगभग एक फर्लांग की चढ़ाई चढ़ने के बाद इस प्राचीन मन्दिर में सीताराम के दर्शन होते हैं। कहा जाता है कि भूचाल आने से यह मन्दिर बिल्कुल टेढ़ा हो गया था, फिर भी देवी के प्रताप से यह मंदिर गिरा नहीं। देखने में अब भी यह मन्दिर टेढ़ा अर्थात् एक ओर को झुका हुआ है। इसलिए इसे टेढ़ा मन्दिर के नाम से जाना जाता है।