आकर्षक हैं टेराकोटा शैली के बिश्नुपुर मंदिर
पश्चिम बंगाल के शांत और खूबसूरत शहर बिश्नुपुर को टेराकोटा मंदिरों के लिए जाना जाता है। ये जगह पर्यटकों के बीच सांस्कृतिक संगीत, वास्तुकला और सुंदर हस्तशिल्प के लिए मशहूर है। मान्यता है कि यहां पर स्थित शानदार टेराकोटा मंदिरों को 17वीं से 18वीं शताब्दी में मल्ला राजाओं द्वारा बनवाया गया था। ये मल्ला शासक भगवान विष्णु के उपासक थे और इसी वजह से इस स्थान को बिश्नुपुर नाम मिला है। कहा जाता है कि टेराकोटा शैली में निर्मित इन मंदिरों के परिसर में किसी ज़माने में रासलीला भी हुआ करती थी। लोग कृष्ण भक्ति में लीन रहा करते थे। हर साल दिसंबर माह में यहां बिश्नुपुर मेला जरूर लगता है, जिसे देखने विदेशों से भी पर्यटक आते हैं। यह मेला कला व संस्कृति का अनोखा संगम है। यहां दूर-दूर से अपना हुनर दिखाने कलाकार आते हैं और उनकी कला के पारखी पर्यटक भी यहां आते हैं।
टेराकोटा बिश्नुपुर की पहचान है। यहां इससे बने बर्तनों के अलावा सजावट की चीजें भी मिलती है। मेले में तो एक सिरे से यही दुकानें नज़र आती हैं। इसके अलावा पीतल के बने सामान भी यहां खूब बनते व बिकते हैं। इन चीजों के अलावा यहां बनी बालूचरी साड़ियां देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मशहूर हैं। इन साड़ियों पर महाभारत व रामायण के दृश्यों के अलावा कई अन्य दृश्य कढ़ाई के जरिए उकेरे जाते हैं। बालूचरी साड़ियां किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं। देश ही नहीं बल्कि विदेशों में भी इन साड़ियों ने अपनी अलग पहचान कायम की है। साल के आखिरी सप्ताह के दौरान पूरा शहर उत्सव के रंगों में रंग जाता है। मल्ला राजाओं के नाम पर इसे 'मल्लभूमि' भी कहा जाता था। जानकारों के मुताबिक बिश्नुपुर में मल्ल राजवंश की स्थापना ईसा पूर्व 694 में हुई थी।
17 वीं और 18वीं शतब्दी में बिश्नुपुर एक आध्यात्मिक शहर माना जाता था। समुद्र गुप्त जैसे नामी हिंदू राजाओं ने बिश्नुपुर को आध्यात्मिक नगर बनाने में काफी योगदान दिया था। कहते है की कुछ समय बाद मुगलकालीन शासन में बिश्नुपुर का पतन हुआ। फिर, जब अंग्रेज आए तो बिश्नुपुर की सांस्कृतिक-आध्यात्मिक महत्ता को पहचान कर इसके साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं हुई। कहते हैं कि बिश्नुपुर के राजा रघुनाथ सिंह देव के जमाने में यहां की बात ही निराली थी। फिर, वीर सिंह देव ने जब सत्ता संभाली, यहां का संगीत अपने चरमोत्कर्ष पर था। पुराने लोगों को मालूम है की हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में बिश्नुपुर घराने का अपना रुतबा था। तब बिश्नुपुर स्कूल आफ पेंटिंग की भी ख्याति थी। बिश्नुपुर का डोकरा शिल्प और बालुचुरी साड़ी अब भी विश्वविख्यात हैं। इसके शौकीन लोग अब भी इसे खरीदने बिश्नुपुर पहुंचते है । यहां के मंदिरों की यह शान अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के हाथ में है। वे ही लोग मंदिरों की देख-रेख करते हैं। वर्ष 1997 से बिश्नुपुर यूनेस्को के विश्व धरोहर में शामिल हैं। हर समय बिश्नुपुर में चहल-पहल बनी रहती है। यहां के मंदिरों को दूर से ही देखने पर लगता है कि यहां का अतीत कितना गौरवशाली रहा होगा। एक जमाने में बिश्नुपुर बंगाल का सांस्कृतिक केंद्र भी होता था। बिश्नुपुर के रासमंच मंदिर, जोड़ बांग्ला मंदिर, मदन मोहन मंदिर, रघुनाथ जीऊ मंदिर, नूतन महल, बिश्नुपुर हवा महल आदि को देखने पर यहां की खूबसूरती का अनुभव होता है।
पाथोर दरवाज़ा
पाथोर दरवाजे को बिष्णुपुर साम्राज्य का प्रवेश द्वार कहा जाता है। बिष्णुपुर, सातवीं सदी में मलभूम राजाओं की राजधानी रही है। और इसे पश्चिम बंगाल के साम्राज्यों में से एक सांस्कृतिक केंद्र होने का गौरव प्राप्त है। इसका निर्माण लेटराइट पत्थरों से किया गया है। इसलिए इसे पाथोर दरवाज़ा या विशाल दरवाज़ा भी कहा जाता है। दिलचस्प बात यह है कि इसमें ऊपर सशस्त्र सैनिकों के लिए कैबिन भी बने हुए हैं। संभवतः सैनिक यहाँ से राज्य में प्रवेश करने वाले लोगों पर नज़र रखा करते थे।
पंच रत्न मंदिर
पंच रत्न मंदिर 1643 ई में मल्ला राजा, रघुनाथ सिंह द्वारा निर्मित इस मंदिर का शिखर अष्टकोण आकार में बना है , जबकि बाकी का मंदिर चौकोर आकार का है। इस मंदिर की टेराकोटा नक्काशी पर भगवान कृष्ण के जीवन को दर्शाया गया है। इस अनूठे और खूबसूरत मंदिर को देखकर आपको बंगाली संस्कृति को जानने का मौका मिलेगा।
मदन मोहन मंदिर
मदन मोहन मंदिर बिश्नुपुर के सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है मदन मोहन मंदिर। ये मंदिर रत्न यानि एक स्तंभ पर टिका हुआ है। मंदिर की दीवारों पर रामायण, महाभारत और अन्य पौराणिक कथाओं का वर्णन किया गया है।
लालजी मंदिर
लालजी मंदिर राधा और कृष्ण को समर्पित है। इस मंदिर की स्थापना 1658 ईस्वी में हुई थी। ये मंदिर चौकोर आधार पर स्थित है और इसमें गुंबद के आकार का शिखर है। इसकी दीवारों पर पुराणों के जीवन को फूलों और चित्रों द्वारा दर्शाया गया है।
कलाचंद मंदिर
कलाचंद मंदिर 1656 ईस्वीं में इस शानदार मंदिर को राजा रघुनाथ सिंह ने एकरत्न शैली में बनवाया था। ये मंदिर लेटराइट के पत्थरों से बना है। इस मंदिर में भगवान कृष्ण को कलाचंद के रूप में पूजा जाता था। हालांकि, वर्तमान समय में इस मंदिर में किसी भी देवी-देवता की पूजा नहीं होती है। इस मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी से कृष्ण लीलाओं और रामायण के बारे में जान सकते हैं।
जोर मंदिर
जोर मंदिर तीन मंदिरों का संगम है जोर मंदिर। इसे मल्ला राजा कृष्ण सिंह द्वारा 1726 ईस्वीं में बनवाया गया था। ये मंदिर टेराकोटा वास्तुशिल्प में बना है। इस मंदिर और इसकी दीवारों को देखकर आपको अपने बिशनुपर आने का कारण पता चल जाएगा।
राधा माधव मंदिर
राधा माधब मंदिर इस मंदिर का शिखर रेखा शैली में बना है और से षट्कोण आकार का है। इस मंदिर के तीन दरवाज़े हैं। इस मंदिर की कुछ दीवारें क्षतिग्रस्त हो चुकी हैं। मंदिर की दीवारों और मेहराबों पर खूबसूरत नक्काशी की गई है जिन पर रामायण और कृष्ण लीलाओं का वर्णन मिलता है। इस मंदिर के खोए सौंदर्य को वापस लाने में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भरपूर प्रयास कर रही है।
नंदलाल मंदिर
नंदलाल मंदिर बिश्नुपुर के सात एक रत्नों में से एक है नंदलाल मंदिर जोकि हरे-भरे बगीचों से घिरा हुआ है। किसी को नहीं पता कि इस मंदिर का निर्माण किसने करवाया था। हालांकि, माना जाता है कि इस मंदिर को 17वीं शताब्दी में बनवाया गया था। दक्षिण की ओर मुख किए इस मंदिर का आधार चौकोर है। बिश्नुपुर का ये एकमात्र ऐसा मंदिर है जिसे बाहर से सजाया नहीं गया है। वर्तमान समय में इस मंदिर में किसी देवी-देवता की पूजा नहीं होती है।
राधा गोविंदा मंदिर
राधा गोविंदा मंदिर इस एक रत्न शैली में बने मंदिर को कृष्ण सिंह के पुत्र गोपाल सिंह द्वारा 1729 ईस्वी में बनवाया गया था। राधा गोविंदा मंदिर की दीवारों को भित्ति चित्रों से सजाया गया है जिनमें फूलों की आकृति, पौराणिक दृश्य आदि शामिल हैं। मंदिर के सामने एक छोटा सा रथ भी है और मानव निर्मित प्राचीन तालाब भी है। ये तालाब पर्यटकों को खूब आकर्षित करता है। ये मंदिर राधा-कृष्ण की प्रेम कहानी का जीवंत उदाहरण है।
रासमंच
यहां स्थित रासमंच पिरामिड की शक्ल में ईंटों से बना सबसे पुराना मंदिर है। 16वीं सदी में राजा वीर हंबीरा ने इसका निर्माण कराया था। उस समय रास उत्सव के दौरान पूरे शहर की मूर्तियां इसी मंदिर में लाकर रख दी जाती थीं और दूर-दूर से लोग इनको देखने के लिए उमड़ पड़ते थे। इस मंदिर में टेराकोटा की सजावट की गई है जो आज भी पर्यटकों को लुभाती है। इसकी दीवारों पर रामायण, महाभारत व पुराणों के श्लोक खुदाई के जरिए लिखे गए हैं। इसी तरह 17वीं सदी में राजा रघुनाथ सिंघा के बनवाए जोरबंगला मंदिर में भी टेराकोटा की खुदाई की गई है। शहर में इस तरह के इतने मंदिर हैं कि इसे मंदिरों का शहर भी कहा जा सकता है।
झिलमिली
झिलमिली को 'दार्जिलिंग ऑफ साउथ बंगाल' के रूप में भी जाना जाता है। झिलमिली, पुरुलिया, बांकुरा और मिदनापुर की सीमा पर स्थित है और बांकुरा शहर से सिर्फ 70 किमी दूर है। बंगाली भाषा में स्पार्कल या ट्विंकल करने का शाब्दिक अनुवाद, इस क्षेत्र में घने हरे-भरे जंगल हैं जो लुभावनी सुंदरता रखते हैं। यह जगह अलग-अलग ऊंचाइयों पर एक पहाड़ी और घने जंगलों के बीच स्थित है। कांग्सबाती, इस जंगल से होकर बहती है और इसके किनारे पिकनिक के लिए एक आदर्श स्थान है। इसके अलावा, यहां की मिट्टी सूक्ष्म है, जो इस जगह की सुंदरता को और निखारती है। यहाँ का वॉच टॉवर आसपास के अद्भुत दृश्य प्रस्तुत करता है। इस भूमि की आकर्षक सुंदरता के साथ संयुक्त रूप से बहने वाली हवा का शांत प्रतिबंध केवल कंगसबाती नदी के पानी के तेज बहाव से दूसरे आयाम तक बढ़ जाता है।