मध्यकालीन वास्तुकला का अनोखा नमूना है कोर्णाक स्थित सूर्य मंदिर
भारत रहस्यों का गढ़ है। ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य मंदिर के साथ जुड़े तथ्य भी रहस्यमयी है। ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य देव का कोणार्क मंदिर अपनी पौराणिकता और आस्था के लिए विश्व भर में मशहूर है। इसके साथ ही और भी कई कारण हैं, जिसकी वजह से इस मंदिर को देखने के लिए दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां आते हैं। ये मंदिर ओडिशा की मध्यकालीन वास्तुकला का अनोखा नमूना है और इसी वजह से साल 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल घोषित किया है। कोर्णाक मंदिर के गर्भगृह में स्थापित किए गए सूर्य भगवान के साक्षात दर्शन करने का सौभाग्य कम ही लोग को मिल पाता है। कहा जाता है कि इस मंदिर में 52 टन का विशालकाय चुंबक लगा हुआ था। हिन्दू मान्यता के अनुसार, सूर्य देवता के रथ में बारह जोड़ी पहिए मौजूद हैं। साथ ही 7 घोड़े भी हैं जो रथ को खींचते हैं। यह 7 घोड़े 7 दिन के प्रतीक हैं। वहीं, 12 जोड़ी पहिए दिन के 24 घंटों के प्रतीक हैं। कई लोग तो यह भी कहते हैं कि यह 12 पहिए साल के 12 वर्षों के प्रतीक हैं। इनमें 8 ताड़ियां भी मौजूद हैं जो दिन के 8 प्रहर का प्रतीक है। यह मंदिर सूर्य देवता के रथ के आकार का ही बनाया गया है। कोर्णाक मंदिर में भी घोड़े और पहिए हैं। यह मंदिर बेहद खूबसूरत और भव्य है। यहां पर दूर-दूर से पर्यटक आते हैं। माना जाता है कि कोणार्क मंदिर को पहले समुद्र के किनारे में बनाया गया था लेकिन समंदर धीरे-धीरे कम होता गया और मंदिर भी समंदर के किनारे से थोडा दूर हो गया और मंदिर के गहरे रंग के लिये इसे काला पगोडा कहा जाता है और नकारात्मक ऊर्जा को कम करने के लिये इसका प्रयोग किया जाता है। कहा जाता है कि सूर्य देव की आराधना मात्र से सकारात्मक ऊर्जा का विकास होता है। इसके अतिरिक्त रविवार को सूर्यदेव की पूजा से समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इनकी भक्ति करने से जीवन में सुख, शांति, सफलता, अच्छी सेहत व यश की प्राप्ति होती है।
राजा नरसिंह देव ने करवाया था मंदिर का निर्माण :
ओडिशा के कोर्णाक में स्थित सूर्य मंदिर का निर्माण राजा नरसिंह देव ने 13वीं शताब्दी में करवाया था। अपने विशिष्ट आकार और शिल्पकला के लिए यह मंदिर पूरे विश्व में जाना जाता है। मान्यता है कि मुस्लिम आक्रमणकारियों पर सैन्य बल की सफलता का जश्न मनाने के लिए राजा नरसिंह देव ने कोणार्क में सूर्य मंदिर का निर्माण कराया था, लेकिन 15वीं शताब्दी में मुस्लिम सेना ने यहां लूटपाट मचा दी थी। इस समय सूर्य मंदिर के पुजारियों ने यहां स्थापित मूर्ति को पुरी में ले जाकर रख दिया था, लेकिन मंदिर नहीं बच सका। पूरा मंदिर काफी क्षतिग्रस्त हो गया था। फिर धीरे-धीरे मंदिर पर रेत जमा होती रही और मंदिर पूरा रेत से ढक गया। फिर 20वीं सदी में ब्रिटिश शासन के अंतर्गत रीस्टोरेशन का काम हुआ और इसी में सूर्य मंदिर खोजा गया।
कोणार्क सूर्य मन्दिर का पौराणिक महत्व:
यहां के बाशिंदे इस मंदिर को बिरंचि नारायण भी कहते थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब, उनके श्राप से कोढ़ रोगी बन गए थे। साम्ब ने कोणार्क के मित्रवन में चंद्रभागा नदी के सागर संगम पर करीबन बारह वर्षों तक तपस्या की। उन्होंने सूर्यदेव को प्रसन्न किया। सूर्यदेव ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर साम्ब के रोग का भी निवारण कर दिया। फिर साम्ब ने सूर्य भगवान का एक मंदिर बनवाया। अपने रोगों से मुक्ति पाने के बाद वह चंद्रभागा नदी में स्नान करने गया। वहां उसे एक सूर्यदेव की मूर्ति मिली। इस मूर्ति को सूर्यदेव के शरीर के ही भाग से बनाया गया था। इसे भगवान विश्वकर्मा ने बनाई थी। साम्ब ने इस मूर्ति को अपने बनवाए मित्रवन में स्थापित किया था।
कोणार्क मंदिर के चुंबकीय पत्थर का राज :
दंतकथाओं के अनुसार सूर्य मंदिर के शीर्ष पर एक चुंबकीय पत्थर रखा हुआ है। कहा जाता है कि चुंबकीय पत्थर का इतना प्रभाव है कि समुंद्र में गुजरने वाली प्रत्येक पानी की जहाज, इस मंदिर की ओर अपने आप ही खींची चली आती थी। इस वजह से पानी के जहाजों को भारी नुकसान उठाना पड़ता था और वह अक्सर अपने रास्ते से भटक जाया करते थे। कहा जाता है कि जो भी समुंद्र नाविक अपने जहाज को लेकर मंदिर के रास्ते से होकर गुजरते थे, उनका चुंबकीय दिशा सूचक यंत्र अपनी दिशा को सही से नहीं बताता था और वह दिशा से भटक जाते थे। इसलिए कहा जाता है कि कुछ नाविकों इस पत्थर को निकाल कर अपने साथ लेकर चले गए थे।
आज भी सुनाई देती है पायलों की झंकार !
कुछ स्थानीय लोगों के अनुसार, आज भी इस मंदिर में पायलों की हल्की सी झंकार सुनाई देती है। पुराने समय में सूर्य देव की आराधना के तौर पर नर्तकियां नृत्य किया करती थीं, जिनकी पायलों की आवाज आज भी प्रांगण में सुनाई देती है। हालाँकि हम इस बात की पुष्टि नहीं करते।
ऐसे ध्वस्त हुआ मंदिर !
माना जाता है कि यह मंदिर अपने वास्तु दोषों के कारण मात्र 800 वर्षों में ही ध्वस्त हो गया। कहते है यह इमारत वास्तु-नियमों के विरुद्ध बनी थी। मंदिर का निर्माण रथ आकृति होने से पूर्व दिशा, एवं आग्नेय एवं ईशान कोण खंडित हो गए। कोणार्क मंदिर के गिरने से संबंधी एक कथा कालापहाड से जुड़ी है। ओडिशा के इतिहास के अनुसार कालापहाड़ ने सन 1508 में यहां आक्रमण किया, और कोणार्क मंदिर समेत ओडिशा के कई हिन्दू मंदिर ध्वस्त कर दिये। हालांकि कोणार्क मंदिर की 20-25 फीट मोटी दीवारों को तोड़ना असम्भव था, पर उसने किसी प्रकार से दधिनौति को हिलाने का प्रयोजन कर लिया, जो कि इस मंदिर के गिरने का कारण बना। उसने यहां की अधिकांश मूर्तियां और कोणार्क के अन्य कई मंदिर भी ध्वस्त कर दिए थे।
नहीं होती पूजा :
आश्चर्य की बात है कि इस मंदिर में आजतक पूजा नहीं हुई, एक तरफ़ जिसे मंदिर कहा जाये वहीं पूजा न हो ये भी किसी अचम्भे से कम नहीं है। यहां के स्थानीय लोगों की अगर माने तो आज तक इस मंदिर में कभी पूजा नहीं हुई। कहा जाता है कि मंदिर के प्रमुख वास्तुकार के पुत्र ने राजा द्वारा उसके पिता के बाद इस निर्माणाधीन मंदिर के अंदर ही आत्महत्या कर ली जिससे बाद से इस मंदिर में पूजा या किसी भी धार्मिक अनुष्ठान पर पूर्णतः प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
यूनेस्को द्वारा मिली मान्यता:
कलिंग शैली में निर्मित यह मंदिर अपनी अद्भुत स्थापत्य कला व पत्थरों पर की गई उत्कृष्ट नक्काशी से हर किसी को आश्चर्य में डाल देता है। इन सभी विशेषताओं के कारण वर्ष 1984 में यूनेस्को ने इसे विश्व धरोहर स्थल का दर्जा दिया था। आज कोणार्क मंदिर न केवल आस्था का केंद्र बना हुआ है बल्कि पर्यटकों के लिए भी मनपसंद स्टेशन के तौर पर उभरा है।