दिन को गुजरात और रात को उज्जैन में विराजती है ये देवी
धर्म ग्रंथों के अनुसार माता सती के अंग जहां-जहां गिरे, वहां शक्तिपीठ के रूप में उनकी उपासना की जाती है। हिंदू धर्म में कुल 51 शक्तिपीठों की मान्यता है। इन्ही में से एक हैं उज्जैन स्थित माँ हरिसिद्धि, जहां माता सती की कोहनी गिरी थी। माता के 51 शक्तिपीठों में से एक ऐसा चमत्कारी शक्तिपीठ है उज्जैन स्थित हरसिद्धि माता मंदिर। इस स्थान पर देवी सती की कोहनी गिरी थी, जिसके बाद यहां शक्तिपीठ स्थापित हो गया। मंदिर में लोगों की आकर्षण का केंद्र यहां प्रांगण में मौजूद 2 दीप स्तंभ हैं। यह स्तंभ लगभग 51 फीट ऊंचे हैं, दोनों दीप स्तंभों में मिलाकर लगभग 1 हजार 11 दीपक हैं। इस मंदिर में दीप स्तंभों की स्थापना राजा विक्रमादित्य ने करवाई थी। यदि अनुमान लगाया जाए तो दीप स्तंभ 2 हजार साल से अधिक पुराने हैं क्योंकि राजा विक्रमादित्य का इतिहास भी करीब 2 हजार साल पुराना है।
कहा जाता है कि इस स्तंभों पर दीप जलाना बहुत ही कठिन है। हरसिद्धि देवी के मंदिर की विशेषता यह है कि इसमें देवी का कोई विग्रह नहीं है, बल्कि सिर्फ कोहनी ही है, जिसे हरसिद्धि देवी के रूप में पूजा जाता है। मंदिर के मुख्य गर्भगृह में माता हरसिद्धि के आस-पास महालक्ष्मी और महासरस्वती भी विराजित हैं। यह अद्भुत शक्तिपीठ मध्य प्रदेश के उज्जैन जिले में हरसिद्धि मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। वैसे तो हर समय ही यहां भक्तों की भीड़ रहती है किन्तु नवरात्रि के समय और खासकर यहां आश्विन नवरात्रि के अवसर पर अनेक धार्मिक आयोजन होते हैं। रात्रि को आरती में एक उल्लासमय वातावरण होता है। इसलिए नवरात्रि के पर्व पर यहां खासा उत्साह देखने को मिलता है। मंदिर महाकाल मंदिर से कुछ ही दूरी पर स्थित हैं। रात के समय हरसिद्धि मंदिर के कपाट बंद होने के बाद गर्भगृह में विशेष पर्वों के अवसर पर विशेष पूजा की जाती है। श्रीसूक्त और वेदोक्त मंत्रों के साथ होने वाली इस पूजा का तांत्रिक महत्व बहुत ज्यादा है। भक्तों की मनोकामनाओं को पूरा करने के लिए यहां विशेष तिथियों पर भी पूजन करवाया जाता है।
गुजरात स्थित पोरबंदर से करीब 48 किमी दूर मूल द्वारका के समीप समुद्र की खाड़ी के किनारे मियां गांव है। खाड़ी के पार पर्वत की सीढ़ियों के नीचे हर्षद माता (हरसिद्धि) का मंदिर है। मान्यता है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य यहीं से आराधना करके देवी को उज्जैन लाए थे। तब देवी ने विक्रमादित्य से कहा था कि मैं रात के समय तुम्हारे नगर तथा दिन में इसी स्थान पर वास करूंगी। इस कारण आज भी माता दिन में गुजरात और रात में मध्य प्रदेश के उज्जैन में वास करती हैं। माता हरसिद्धि की साधना से समस्त प्रकार की सिद्धियां प्राप्त होती हैं। हरसिद्धि देवी की आराधना करने से शिव और शक्ति दोनों की पूजा हो जाती है। ऐसा इसलिए कि ये एक ऐसा स्थान है, जहां महाकाल और मां हरसिद्धि के दरबार हैं।
मंदिर का दरवाजा अपने आप हो गया था पश्चिम में
माँ हरसिद्धि मंदिर से जुड़ी कई मान्यताएं एवं इतिहास है। बताया जाता है कि मंदिर का निर्माण उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के भांजे वियजसिंह ने करवाया था। जब विजय सिंह यहां के राजा थे तब वे माँ हरसिद्धि के अनन्य भक्त थे और प्रतिदिन माँ हरसिद्धि के दर्शन करने के लिए में उज्जैन के हरसिद्धि मंदिर जाते थे। उनकी इस भक्ति को देखकर माँ हरसिद्धि ने राजा विजय सिंह को सपने में दर्शन देकर कहा कि ' मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हुई हूं। तुम बीजा नगरी में ही मेरा मंदिर बनवाओ और उस मंदिर का दरवाजा पूर्व दिशा में रखना।' राजा विजय सिंह ने ऐसा ही किया एवं मंदिर निर्माण करवाया। जिसके बाद माता ने पुनः राजा को सपना दिया और कहां कि 'मैं तुम्हारे बनाए हुए मंदिर में विराजमान हो गई हूँ। तुमने मंदिर का दरवाजा पूर्व में रखा था अब वह पश्चिम में हो गया है।' राजा जब सुबह उठकर मंदिर पहुंचा तो उसने देखा की मंदिर का दरवाजा पश्चिम में हो गया है, जिसके बाद से मंदिर पर कई चमत्कार हुए है। वर्तमान में माँ हरसिद्धि का यह मंदिर पुरातत्व विभाग के अधीन है।
मन्नता धारी बनाते है उल्टा स्वास्तिक
माँ हरसिद्धि मंदिर पर नवरात्रि में लाखों श्रद्धालु दर्शन करते है। मन्नत लेने वाले श्रद्धालु गोबर से उल्टा स्वास्तिक मंदिर पर बनाते है। मन्नत पूरी हो जाने के बाद पुनः मंदिर में आकर सीधा स्वास्तिक बनाते है। चमत्कारिक मंदिर में विराजित मां हरसिद्धि दिन भर में तीन रूप में नजर आती है। यहां पहुंचने वाले श्रृद्धालुओं के अनुसार माँ हरिसिद्धि सुबह बचपन, दोपहर को जवानी और शाम को बुढ़ापे के रूप में दिखाई देती है। माता के तीना रूप में दर्शन करने के लिए यहां श्रृद्धालुओं की भीड़ लगी रहती है।
विक्रमादित्य ने 11 बार चढ़ाया सिर
हरसिद्धि माता के इस पावन धाम से जुड़ी एक कहानी है, जिसके अनुसार सम्राट विक्रमादित्य माता के अनन्य भक्त थे, हर बारहवें वर्ष देवी के मंदिर पर आकर अपना शीश माता के चरणों में अर्पित कर देते थे, लेकिन हरसिद्धि देवी की कृपा से उन्हें हर साल एक नया सिर मिल जाता था। मान्यता है कि जब बारहवीं बार उन्होंने अपना सिर चढ़ाया तो सिर फिर वापस नहीं आया और उनका जीवन समाप्त हो गया था।
शिव-शक्ति के प्रतीक हैं ये दीप स्तंभ
हरसिद्धि माता के मंदिर की चारदीवारी में चार प्रवेश द्वार हैं। मंदिर के पूर्व द्वार पर सप्तसागर तालाब है और दक्षिण-पूर्व कोने में कुछ ही दूरी पर एक बावड़ी है, जिसमें एक स्तंभ है। माता के पावन धाम में दो और स्तंभ है। इन दो विशालकाय दीप-स्तंभ को नर-नारी का प्रतीक माना जाता है। इसमें दाहिनी ओर का स्तंभ बड़ा है, जबकि बांई ओर छोटा स्तंभ है। हालांकि कुछ लोग इसे शिव-शक्ति का प्रतीक भी मानते हैं। दोनों स्तंभ पर 1100 दीप हैं, जिन्हें जलाने के लिए तकरीबन 60 किलो तेल लगता है। दोनों स्तंभ के दीप जलाए जाने के बाद ये स्तंभ अत्यंत आकर्षक लगते हैं। शाम के समय इस दीपमालिका को देखने के लिए लोग बड़ी दूर दूर से यहां पर पहुंचते है।
इसलिए पड़ा हरसिद्धि नाम
स्कंदपुराण में कथा है कि एक बार जब चंड-प्रचंड नाम के दो दावन जबरन कैलास पर्वत पर प्रवेश करने लगे तो नंदी ने उन्हें रोक दिया। असुरों ने नंदी को घायल कर दिया। इस पर भगवान शिव ने भगवती चंडी का स्मरण किया। शिव के आदेश पर देवी ने दोनों असुरों का वध कर दिया। प्रसन्न महादेव ने कहा, तुमने इन दानवों का वध किया है, इसलिए आज से तुम्हारा नाम हरसिद्धि प्रसिद्ध होगा।
ऐसे हुई माँ के इस रूप की उत्पत्ति
शिव पुराण की मान्यता के अनुसार जब सती बिना बुलाए अपने पिता के घर गई और वहां पर दक्ष के द्वारा अपने पति का अपमान सहन न कर सकने पर उन्होंने अपनी काया को अपने ही तेज से भस्म कर दिया। भगवान शंकर यह शोक सह नहीं पाए और उनका तीसरा नेत्र खुल गया, जिससे चारों ओर प्रलय मच गया। भगवान शंकर ने माता सती के पार्थिव शरीर को कंधे पर उठा लिया और जब शिव अपनी पत्नी सती की जलती पार्थिव देह को दक्ष प्रजापति की यज्ञ वेदी से उठाकर ले जा रहे थे, तब विष्णु ने सती के अंगों को अपने चक्र से 52 भागों में बांट दिया, उज्जैन के इस स्थान पर सती की कोहनी का पतन हुआ था इसी लिए यहाँ कोहनी की पूजा होती है।