असम में स्थित मां कामख्या देवी का मंदिर के तीन बार दर्शन करने से मिलती है बंधनों से मुक्ति
51 शक्तिपीठों में एक है मंदिर, अंबूचावी पर्व का है विशेष महत्व
भारत धर्म प्रधान देश है। यहां हर स्थान पर देवी-देवताओं का वास है। शायद ही कोई ऐसा कोना हो जहां देवी-देवता वास न करते हों। यहां श्रद्धा चरम पर होती है। भारत का नाम ही आस्था के आधार पर पड़ा है। समय-समय युग पुरुष महात्माओं और महान पुरुषों ने इस धरा पर पांव रखकर इस धरा को पावन किया है। यहीं पर वेदों की रचना हुई। यहीं पर मनिषियों ने प्रकृति पर आधारित ग्रंथों की रचना की। यहीं पर अभिमानी रावण का वध कर श्री राम ने असत्य पर सत्य की जीत का संदेश भी दिया। यहीं पर कुरुक्षेत्र की धरती पर महाभारत जैसा युद्ध हुआ जिसने समस्त विश्व को संदेश दिया कि अधर्म कभी भी जीत नहीं सकता। किसी का जायज हक रखना उचित नहीं है। आज फस्र्ट वर्डिक्ट के सुधी पाठकों को असम की राजधानी दिसपुर में स्थित कामख्या मंदिर के बारे में जानकारी देगा। यह मंदिर गुवाहाटी से 8 किलोमीटर दूर कामाख्या में है।
कामाख्या से भी 10 किलोमीटर दूर नीलाचल पर्वत पर स्थित है। यह मंदिर शक्ति सती का है। मंदिर पहाड़ी पर बना है और बहुत ही विहंगम दृश्य प्रस्तुत करता है। यानी कि प्राकृतिक सौंदर्य और आस्था दोनों का ही यहां समावेश होता है। बताया जाता है कि इस मंदिर का तांत्रिक महत्व भी है। प्राचीन काल से सतयुगीन तीर्थ कामाख्या वर्तमान में तंत्र सिद्धि का सर्वोच्च स्थल है।
51 शक्तिपीठों में से एक है मंदिर : पूर्वोत्तर के मुख्य द्वार कहे जाने वाले असम राज्य की राजधानी दिसपुर से 6 किलोमीटर की दूरी पर स्थित नीलांचल अथवा नीलशैल पर्वतमालाओं पर स्थित मां भगवती कामाख्या का सिद्ध शक्तिपीठ सती के 51 शक्तिपीठों में सर्वोच्च स्थान रखता है। यहीं भगवती की महामुद्रा (योनि-कुंड) स्थित है। देश भर मे अनेकों सिद्ध स्थान है, जहां माता सूक्ष्म स्वरूप में निवास करती है प्रमुख महाशक्तिपीठों में माता कामाख्या का यह मंदिर सुशोभित है।हिंगलाज की भवानी, कांगड़ा की ज्वालामुखी, सहारनपुर की शाकम्भरी देवी, विन्ध्याचल की विन्ध्यावासिनी देवी आदि महान शक्तिपीठ श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र एवं तंत्र-मंत्र, योग-साधना के सिद्ध स्थान है। यहां मान्यता है कि जो भी बाहर से आए भक्तगण जीवन में तीन बार दर्शन कर लेते हैं, उनके सांसारिक भव बंधन से मुक्ति मिल जाती है।
अंबूचावी पर्व माना जाता है वरदान : विश्व के सभी तांत्रिकों, मांत्रिकों एवं सिद्ध-पुरुषों के लिए वर्ष में एक बार अम्बूवाची योग पर्व होता है। यह पर्व एक वरदान ही माना जाता है। यह अम्बूवाची पर्व भगवती (सती) का रजस्वला पर्व होता है। पौराणिक शास्त्रों के अनुसार सतयुग में यह पर्व 16 वर्ष में एक बार, द्वापर में 12 वर्ष में एक बार, त्रेता युग में 7 वर्ष में एक बार तथा कलिकाल में प्रत्येक वर्ष जून माह (आषाढ़) में तिथि के अनुसार मनाया जाता है। यह एक प्रचलित धारणा है कि देवी कामाख्या मासिक धर्मचक्र के माध्यम से तीन दिनों के लिए गुजरती है। इन तीन दिनों के दौरान कामाख्या मंदिर के द्वार श्रद्धालुओं के लिए बंद कर दिए जाते हैं। इस बार अम्बूवाची योग पर्व जून की 22, 23, 24 तिथियों में मनाया गया।
पौराणिक कथा : पौराणिक सत्य है कि अम्बूवाची पर्व के दौरान मां भगवती रजस्वला होती हैं और मां भगवती की गर्भ गृह स्थित महामुद्रा (योनि-तीर्थ) से निरंतर तीन दिनों तक जल प्रवाह के स्थान से रक्त प्रवाहित होता है। कामाख्या के अनन्य भक्त ज्योतिषी एवं वास्तु विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा ने बताया कि अम्बूवाची योग पर्व के दौरान मां भगवती के गर्भगृह के कपाट स्वत ही बंद हो जाते हैं और उनका दर्शन भी निषेध हो जाता है। इस पर्व की महत्ता का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पूरे विश्व से इस पर्व में तंत्र-मंत्र-यंत्र साधना हेतु सभी प्रकार की सिद्धियां एवं मंत्रों के पुरश्चरण हेतु उच्च कोटियों के तांत्रिकों-मांत्रिकों, अघोरियों का बड़ा जमघट लगा रहता है। तीन दिनों के उपरांत मां भगवती की रजस्वला समाप्ति पर उनकी विशेष पूजा एवं साधना की जाती है।
कामाख्या मन्दिर परिसर : कामाख्या के शोधार्थी एवं प्राच्य विद्या विशेषज्ञ डॉ. दिवाकर शर्मा कहते हैं कि कामाख्या के बारे में किंवदंती है कि घमंड में चूर असुरराज नरकासुर एक दिन मां भगवती कामाख्या को अपनी पत्नी के रूप में पाने का दुराग्रह कर बैठा था। कामाख्या महामाया ने नरकासुर की मृत्यु को निकट मानकर उससे कहा कि यदि तुम इसी रात में नील पर्वत पर चारों तरफ पत्थरों के चार सोपान पथों का निर्माण कर दो एवं कामाख्या मंदिर के साथ एक विश्रामगृह बनवा दो, तो मैं तुम्हारी इच्छानुसार पत्नी बन जाऊंगी और यदि तुम ऐसा न कर पाये तो तुम्हारी मौत निश्चित है। गर्व में चूर असुर ने पथों के चारों सोपान प्रभात होने से पूर्व पूर्ण कर दिए और विश्राम कक्ष का निर्माण कर ही रहा था कि महामाया के एक मायावी कुकुट (मुर्गे) द्वारा रात्रि समाप्ति की सूचना दी गई। इस पर नरकासुर ने क्रोधित होकर मुर्गे का पीछा किया और ब्रह्मपुत्र के दूसरे छोर पर जाकर उसका वध कर डाला। यह स्थान आज भी विख्यात है। बाद में मां भगवती की माया से भगवान विष्णु ने नरकासुर असुर का वध कर दिया। नरकासुर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र भगदत्त कामरूप का राजा बना। भगदत्त का वंश लुप्त हो जाने से कामरूप राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और सामंत राजा कामरूप पर अपना शासन करने लगा। नरकासुर के नीच कार्यों के बाद एवं विशिष्ट मुनि के अभिशाप से देवी अप्रकट हो गई थीं और कामदेव द्वारा प्रतिष्ठित कामाख्या मंदिर ध्वंसप्राय हो गया था। पं. दिवाकर शर्मा ने बतलाया कि आद्य-शक्ति महाभैरवी कामाख्या के दर्शन से पूर्व महाभैरव उमानंद, जो कि गुवाहाटी शहर के निकट ब्रह्मपुत्र नद के मध्य भाग में टापू के ऊपर स्थित है। यहां दर्शन करना आवश्यक है। यह एक प्राकृतिक शैलदीप है, जो तंत्र का सर्वोच्च सिद्ध सती का शक्तिपीठ है। इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है।
सर्वोच्च कौमारी तीर्थ : सती स्वरूपिणी आद्यशक्ति महाभैरवी कामाख्या तीर्थ विश्व का सर्वोच्च कौमारी तीर्थ भी माना जाता है। इसीलिए इस शक्तिपीठ में कौमारी-पूजा अनुष्ठान का भी अत्यंत महत्व है। यद्यपि आद्य-शक्ति की प्रतीक सभी कुल व वर्ण की कौमारियां होती हैं। किसी जाति का भेद नहीं होता है।
कामाख्या मंदिर मे योनि(गर्भ) की पूजा :
पौराणिक कथा के अनुसार जब देवी सती अपने योगशक्ति से अपना देह त्याग दी तो भगवान शिव उनको लेकर घूमने लगे उसके बाद भगवान विष्णु अपने चक्र से उनका देह काटते गए तो नीलाचल पहाड़ी में भगवती सती की योनि (गर्भ) गिर गई, और उस योनि (गर्भ) ने एक देवी का रूप धारण किया, जिसे देवी कामाख्या कहा जाता है। योनी (गर्भ) वह जगह है जहां बच्चे को 9 महीने तक पाला जाता है और यहीं से बच्चा इस दुनिया में प्रवेश करता है। और इसी को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना जाता है।
कामाख्या मंदिर का समय : कामाख्या मंदिर के दर्शन का समय भक्तों के लिए सुबह 8:00 बजे से दोपहर 1:00 बजे तक और फिर दोपहर 2:30 बजे से शाम 5:30 बजे तक शुरू होता है। सामान्य प्रवेश नि: शुल्क है, लेकिन भक्त सुबह 5 बजे से कतार बनाना शुरू कर देते हैं, इसलिए यदि किसी के पास समय है तो इस विकल्प पर जा सकते हैं। आम तौर पर इसमें 3-4 घंटे लगते हैं। वीआईपी प्रवेश की एक टिकट लागत है, जिसे मंदिर में प्रवेश करने के लिए भुगतान करना पड़ता है, जो कि प्रति व्यक्ति रुपए 501 की लागत पर उपलब्ध है। इस टिकट से कोई भी सीधे मुख्य गर्भगृह में प्रवेश कर सकता है और 10 मिनट के भीतर पवित्र दर्शन कर सकता है।