सुनकर भी अनसुना करते हुक्मरान और हक की लड़ाई लड़ते करुणामूलक आश्रित
प्रदर्शन के तरीके बदल लिए, चीख-चिल्ला लिए, भूखे रहकर भी देख लिया और नारे लगाकर भी, पर सरकार है के सुनकर भी अनसुना कर देती है। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में धरने पर बैठे करुणामूलक आश्रितों की। वो करुणामूलक आश्रित जिन्हें क्रमिक अनशन करते करीब चार माह हो गए है। वो आश्रित जिन्हें कायदे से कई सालों पहले नौकरी मिलनी थी मगर अब भी अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे है। लगातार अनशन पर बैठे रहने के बाद, अनगिनत रैलियों और प्रदर्शनों के बाद भी सरकार ने इनकी सुध नहीं ली। हाल फिलहाल में ही करुणामूलक संघ ने प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार की अध्यक्षता में सरकार के खिलाफ रोष रैली भी निकाली गई, पर स्थिति जस की तस है। उपचुनाव में मिले झटके के बाद सरकार कर्मचारियों पर मेहरबान ज़रूर है, परन्तु ये मेहरबानी इन करुणामूलक आश्रितों पर नज़र नहीं आ रही। ये जद्दोहद कितनी लम्बी चलेगी कुछ स्पष्ट नहीं कहा जा सकता परन्तु हिमाचल के हर अन्य कर्मचारी की तरह इन करुणामूलक आश्रितों के लिए भी जेसीसी की बैठक एक बड़ी उम्मीद है।
संघ के प्रदेशाध्यक्ष अजय कुमार का कहना है कि लगभग चार माह से यह करुणामूलक परिवार कालीबाड़ी मंदिर के पास एक वर्षा शालिका में क्रमिक भूख हड़ताल पर बैठे हैं परंतु सरकार इनके प्रति उदासीन है, सरकार इनके हक में कोई फैसला नहीं ले पा रही है। अजय कुमार ने कहा कि प्रदेश भर में 4500 परिवार ऐसे हैं जो करूणामूलक आधार पर नौकरी मिलने का इंतजार कर रहे हैं। विधानसभा चुनावों के समय सभी मामलों को एकमुश्त नौकरी देने का वादा सरकार ने किया था, लेकिन सरकार बनने के बाद केवल आश्वासन ही मिले हैं। उनका कहना है कि ऐसा कोई जनमंच नहीं है जहां पर इन्होंने आवाज न उठाई हो। वर्तमान सरकार के मंत्रियों से लेकर मुख्यमंत्री के समक्ष भी इन करुणामूलक परिवारों की पीड़ा को उजागर किया गया, परंतु आश्वासनों के सिवा इन परिवारों को कुछ नहीं मिला। करूणामूलक संघ ने प्रशासन व प्रदेश सरकार से आग्रह किया है कि आगामी कैबिनेट में करुणामूलक नौकरियों पर सरकार उचित फैसला लें। प्रभावित परिवार करीब 15 साल से नौकरी का इंतजार कर रहें हैं। करूणामूलक संघ के पदाधिकारियों के कहना है कि अब धैर्य जवाब दे रहा है और सरकार को जहन में रखना चाहिए कि एक आँसू भी हुकूमत के लिए खतरा होता है ...
साल 1990 में बनी थी नीति
साल 1990 में सरकारी कर्मचारियों के सुरक्षित भविष्य के लिए एक नीति बनाई गई। इस नीति के अंतर्गत यदि किसी भी सरकारी कर्मचारी की नौकरी के दौरान मृत्यु हो जाती है तो, मानवीय संवेदनाओं को ध्यान में रखकर आर्थिक रूप से कमजोर मृतक कर्मचारियों के आश्रितों को उनकी शैक्षणिक योग्यता के आधार पर नौकरी दी जाती है ताकि कर्मचारी के परिवार को उसके जाने के बाद किसी भी तरह की दिक्क्तों का सामना न करना पड़े। सरकार ने इसके लिए वार्षिक आय सीमा का मापदंड तय किया हुआ है। इस आधार पर नौकरी के लिए कोई इंटरव्यू और लिखित परीक्षा नहीं देनी पड़ती। पर ये जितना आसान दिखता है उतना है नहीं, करुणामूलक आधार पर नौकरी पाने की प्रक्रिया बेहद जटिल है। इसके लिए आवेदक को हर जिले में विभाग संबंधित डिवीज़न में आवेदन करना पड़ता है, फिर फाइल चीफ़ ऑफिस होकर सर्कल कार्यालय पर जाती है। उसके बाद विभाग के हेड ऑफिस शिमला पहुंचती है। आम तौर पर कई ऑब्जेक्शन लगते है व फाइल वापिस आ जाती है। ऐसे में फाइनल फाइल शिमला पहुँचते-पहुँचते एक डेढ़ साल लग जाता है। आश्रित की आधी उम्र तो फिर निदेशक द्वारा स्क्रीनिंग कमेटी बिठाई जाती है जहां ज्यादातर मामलों को स्क्रीनिंग कमेटी द्वारा कुछ न कुछ ऑब्जेक्शन लगाकर बाहर का रास्ता दिखाया जाता है, कुछ बचे हुए मामलों को अप्रूवल के लिए संबंधित विभाग वित्त विभाग को भेजते हैं। जैसी व्यवस्था है उसमें वित्त विभाग के पास नौकरी की यह फाइल कई सालों तक लटकी रहती है। वित्त विभाग कोई ऑब्जेक्शन लगाता है तो दोबारा यह फाइल उसी रूट से होते हुए वापस पहुंचती है। सवाल ये है कि ऐसी नीतियों को बनाने का क्या मतलब जिसे सार्थक करने में सरकार असफल रहे।
ये चाहता है करूणामूलक संघ
- समस्त विभागों, बोर्डों, निगमों में लंबित पड़े करुणामूलक आधार पर दी जाने वाली नौकरियों के मामले जो 7/03/2019 की पॉलिसी में आ रहे हैं उनको वन टाइम सेटलमेंट के तहत एक साथ नियुक्ति दी जाएं।
- करुणामूलक आधार पर नौकरी की पॉलिसी में संशोधन किया जाए व उसमें 62500 रुपये प्रति सदस्य सालाना आय सीमा शर्त को पूर्ण रूप से हटा दिया जाए।
- योग्यता के अनुसार आश्रितों को बिना शर्त के सभी श्रेणियों में नौकरी दी जाएं।
- 5% कोटा शर्त को हटा दिया जाए ताकि विभाग अपने तौर पर नियुक्तियां दे सके।
- जिन आवेदकों की आयु निकल गई है उन्हें वन टाइम सेटलमेंट दिया जाए।