करसोग : सरही गाँव में धूमधाम से मनाया गया शणचा मेला
मंडी जिले की उप-तहसील पांगणा के मुख्यालय से लगभग 11 किलोमीटर दूर पश्चिम दिशा की ओर सरही गांव पहाड़ी टीले पर स्थित है। सुकेत संस्कृति साहित्य एवं जन कल्याण मंच पांगणा के अध्यक्ष डाक्टर हिमेन्द्र बाली हिम का कहना है कि सुकेत रियासत के पहले शासक राजा वीर सेन ने सन् 765 में ज्यूरी के पास सतलुज नदी को पार कर यहाँ के राजपूत और ठाकुरों की छोटी-छोटी रियासतों को जीतकर अपने अधीन कर लिया था। इस दौरान सरही गांव के ठाकुरो के अधीन पड़ने वाले बहुत बड़े भू-भाग पर अपना वर्चस्व स्थापित कर पागणा को सुकेत की पहली राजधानी बनाया। सरही यानी गींहनाग जी की तपोस्थली, नाग देवता जी यहाँ गेहूं के भण्डार में एक बड़े नाग के रूप में प्रकट हुए थे। सदियों से गींहनाग जी अपनी अलग-अलग मान्यताओं और परंपराओं की वजह से भक्तों की अटूट आस्था का केन्द्र बने हैं। ग्रामीण क्षेत्रों में रचनात्मक गतिविधियों के लिए जिला युवा पुरस्कार से सम्मानित सरही निवासी ओम प्रकाश ठाकुर का कहना है कि गींहनाग मंदिर सरही में तीन दिवसीय शणचा / शणचा मेला धूम-धाम से मनाया गया। प्राचीन काल से मनाया जाने वाला यह मेला आज भी लोगों को पुरानी देव संस्कृति और परंपराओं से जोड़े हुए है। वहीं -सरही, सूईं-कुफरीधार, पांगणा, जाच्छ-काण्ढा, झुंगी, गलयोग-सीणी, कटवाची, मशोगल पंचायत क्षेत्र के अराध्य देवता गींहनाग जी के मंदिर में आयोजित शणचा / शणाच मेले में हजारों लोगों ने शिरकत की। वहीं-सरही निवासी साहित्यकार किशोरी लाल शर्मा का कहना है कि खेतों से काम से मुक्त होकर सावन महीने में लोग मेलों का आगाज़ करते हैं। पारंपरिक पोशाकों में सज-धज कर मेलों का खूब आनंद उठाते हैं। सरही का शणचा/ शणाच मेला संभवतः गीहनाग जी के जन्म/ प्रकटोत्सव से जुड़ा है। मेले के पहले दिन गींहनाग जी के देवरथ का देवकोठी में श्रृंगार कर दैविक शक्ति से गींहनाग जी और नागदेव के गणों का आवाहन किया गया। गुरो के माध्यम से नाग देवता जी ने भक्तों को अपना आशीर्वाद दिया। फिर देव वाद्यो व मधुरी धुनों के साथ नाग देव की कोठी से/ गींहनाग देओरे/ मंदिर की ओर शोभा यात्रा का प्रस्थान हुआ। इस अवसर पर महिलाओं ने पारंपरिक गीत गाकर वातावरण को भक्ति बना दिया। नाग देवता जी के देओरे के ऊपरी भाग पर बने मैदान /सौह में पहुंचकर देवरथ नृत्य के साथ श्रद्धालुओं ने पारंपरिक सुकेती नाटी नृत्य किया। लगभग एक-डेढ़ घण्टे के नृत्य के बाद देवरथ को देवधुनो के साथ देओरे को लाया गया। यहाँ पुनः देव नृत्य के बाद संध्या आरती की गई। गींहनाग जी की हार के सभी लोगों ने सामुहिक रात्रि भोज के बाद भजन संकीर्तन "देव बेड़",देव शयन के बाद पुनःश्रद्धालुओं सुकेती नाटी का अर्धरात्रि तक खूब आनंद लिया। अगले दिन देवता को प्रातः चार बजे देव जागृत करने के साथ सुबह की वेड़, स्नान, श्रृगार /"कड़या"-भोग"छैड़ी" गायन होता है। जिसमें कुंडली जागरण के तुल्य पाताल से स्वर्ग तक की गाथाओं का गायन होता है। फिर "झाड़े" में देवगूरो व देव गणों के गूरो ने दैविक शक्तियों से भक्तों की समस्याओं का समाधान किया तथा भक्तों को आशीर्वाद दिया। "नवाके" के झाड़े,"छेवापूरा" (चिल्हड़े-रोट-हलवा) देव गणो को अर्पित किया गया। फिर देवनृत्य के बाद दिन के सामुहिक भोज का आयोजन किया गया। इसी तरह तीन दिनों तक गींहनाग जी की शणचा/ शणाच देव परंपराओं का निर्वहन कर देवगूरो ने "द्वारपाड़ा" कर अपने "सत्त" के "साते-पाणे"(आशीर्वाद) दिया। इसी के साथ रथ यात्रा ने भयाणा गढ़ के लिए प्रस्थान किया। गींहनाग समिति सरही के प्रधान सुंदर सिंह ठाकुर, महता चेतराम ठाकुर, कुठियाला धर्मसिह ठाकुर, चार किरदारों का कहना है कि सदियों से हमारी देव सांस्कृतिक भावधारा में शणचा / शणाच का गींहनाग देवता जी के जन्म व देव हार(प्रजा) की भावनात्मक एकता से काफी महत्व रहा है। हमारी देव संस्कृति सहकारिता, प्रेम, सदभाव, एकता और भाईचारे को कायम रखती है। गींहनाग जी की सच्चे मन से पूजा और आराधना वंश वृद्धि, रोक-शोक, भूत-प्रेत ग्रहादि निवारक, चारों पुरुषार्थ धर्म, अर्थ, काम मोक्ष देने वाली है। संस्कृति मर्मज्ञ डाक्टर जगदीश शर्मा का कहना है कि गींहनाग जी की सरही क्षेत्र में शैव, शाक्त, नाग परंपरा के संयोजन से यह प्रमाणित होता है कि लोक और देव संस्कृति किसी देश की सही तस्वीर जानने का आधार है।सरही क्षेत्र में आर्येतर और वैदिक काल से सास्कृतिक जीवन उन्नत और प्रख्यात है। फिलहाल तीन वर्षों बाद होने वाला यह शणचा/ शणाच मेला हर आयुवर्ग के लिए आकर्षण का केन्द्र बना रहा।