महाश्वेता देवी : '1084 की माँ'
''एक लंबे अरसे से मेरे भीतर जनजातीय समाज के लिए पीड़ा की जो ज्वाला धधक रही है, वह मेरी चिता के साथ ही शांत होगी।'' यह उदगार बांग्ला की सुप्रसिद्ध लेखिका महाश्वेता देवी की है जिन्होंने अपना पूरा जीवन और साहित्य भारतीय जनजातीय समाज को समर्पित कर दिया। वह जीवन भर लिखती रहीं, उन लोगों के लिए जिनके हक़ में खड़ा होना जरूरी था। अपनी कृतियों में महाश्वेता देवी ने आधुनिक भारत के उस इतिहास को जीवंत किया, जिसकी तरफ कम साहित्यकारों का ध्यान गया।
महाश्वेता देवी का नाम ध्यान में आते ही उनकी कई-कई छवियां आंखों के सामने प्रकट हो जाती हैं। दरअसल उन्होंने मेहनत व ईमानदारी के बलबूते अपने व्यक्तित्व को निखारा। उन्होंने अपने को एक पत्रकारीका, लेखिका, साहित्यकारीका और आंदोलनधर्मी के रूप में विकसित किया।
महाश्वेता ने कम उम्र में लेखन का शुरू किया और विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं के लिए लघु कथाओं का महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका पहला उपन्यास, "नाती", 1957 में अपनी कृतियों में प्रकाशित किया गया था। ‘झाँसी की रानी’ महाश्वेता देवी की प्रथम गद्य रचना है जो 1956 में प्रकाशन में आई। स्वयं उन्हीं के शब्दों में, "इसको लिखने के बाद मैं समझ पाई कि मैं एक कथाकार बनूँगी।" इस पुस्तक को महाश्वेता ने कलकत्ता में बैठकर नहीं बल्कि सागर, जबलपुर, पुणे, इंदौर, ललितपुर के जंगलों, झाँसी ग्वालियर, कालपी में घटित तमाम घटनाओं यानी 1857-58 में इतिहास के मंच पर जो हुआ उस सबके साथ-साथ चलते हुए लिखा। अपनी नायिका के अलावा, लेखिका ने क्रांति के तमाम अग्रदूतों और यहाँ तक कि अंग्रेज अफसर तक के साथ न्याय करने का प्रयास किया है।
इनकी कई रचनाओं पर फ़िल्म भी बनाई गई। इनके उपन्यास 'रुदाली ' पर कल्पना लाज़मी ने 'रुदाली' तथा '1084 की माँ' पर इसी नाम से 1998 में फिल्मकार गोविन्द निहलानी ने फ़िल्म बनाई। इन्हें 1979 में साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1986 में पद्मश्री ,1997 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। ज्ञानपीठ पुरस्कार इन्हें नेल्सन मंडेला के हाथों प्रदान किया गया था। इस पुरस्कार में मिले 5 लाख रुपये इन्होंने बंगाल के पुरुलिया आदिवासी समिति को दे दिया था।
महाश्वेता देवी ने अपना पूरा जीवन गरीब असहायों के हक के लिए लिखा और लड़ाई की। उन्होंने 18 जुलाई 2016 में अपनी आखिरी सांस ली, लेकिन वह अपना नाम हमेशा के लिए इतिहास में दर्ज कर चुकी हैं।