अडानी, आयात या गुणवत्ता फैक्टर, आखिर क्यों गिरे सेब के दाम ?
पहले मौसम की मार ने सेब की गुणवत्ता पर असर डाला, फिर रही सही कसर निजी कंपनियों ने सेब खरीद के कम दाम तय कर पूरी कर दी। इस पर कम दामों पर आयात हो रहे सेब से तो बाजार के सेंटीमेंट ही बिगड़ गए। निराश बागवानों को सरकार से हौंसला चाहिए था, पर मिले हताश करने वाले बयान। आखिर समस्या कहां है, कोई चूक हुई है, या खामी व्यवस्था की है ? इससे भी बड़ा सवाल ये है कि ये सिर्फ आज का मसला है या भविष्य के लिए एक चेतावनी है। गिरे सेब के दामों के मसले को फर्स्ट वर्डिक्ट ने हर पहलु से जानने-समझने का प्रयास किया, ताकि सही तस्वीर सामने आ सके। पेश है विशेष रिपोर्ट .....
हिमाचल सेब के दाम बाजार में गिर गए हैं जो बागवानों के लिए चिंता का विषय बना हुआ है। बीते वर्ष की अपेक्षा इस बार सेब के दामों में करीब तीस फीसद की गिरावट दर्ज की जा रही है जिसका एक बड़ा कारण निजी कंपनियों द्वारा गिराए गए सेब के दाम बताया जा रहा है। अडानी कंपनी ने पिछले साल की तुलना में सेब के दाम प्रति किलो 16 रुपए कम तय किए है। बागवान मानते है कि कंपनी ने जैसे ही सेब खरीद मूल्य सार्वजनिक किये पूरे बाजार में सेब के दाम गिर गए। कंपनी 80 से 100 फीसदी रंग वाला एक्स्ट्रा लार्ज सेब 52 रुपए प्रति किलो जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल सेब 72 रुपए प्रति किलो की दर पर खरीद रही है। बीते साल एक्स्ट्रा लार्ज सेब 68 जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल सेब 88 रुपए प्रति किलो निर्धारित किया गया था। अडानी के बाद मंडियों के रेट भी कम होने से बागवान नाराज हैं। इस सीजन में 60 से 80 फीसदी रंग वाला एक्स्ट्रा लार्ज सेब 37 रुपए किलो जबकि लार्ज, मीडियम और स्मॉल आकार का सेब 57 रुपए प्रति किलो की कीमत पर खरीदा गया। 60 फीसदी से कम रंग वाले सेब की खरीद 15 रुपए प्रति किलो की कीमत पर हो रही है, जबकि पिछले साल ऐसा सेब 20 रुपए किलो खरीदा गया था। बागवानों के अनुसार अडानी कंपनी ने इस साल 10 साल पुराने रेट खोले हैं। 2011 में अडानी ने 65 रुपये प्रति किलो रेट पर सेब खरीद की थी। बागवान लगातार ये आरोप लगा रहे है कि अडानी ने हिमाचल आकर पहले सेब के दाम बढ़ाए जिससे छोटे कारोबारी खत्म हो गए और अब जब कम्पटीशन कम हो गया और बागवानों के पास बहुत कम अन्य विकल्प बचे है, तो दाम घटा दिए गए। अडानी के बाद सेब खरीद करने आई देवभूमि कोल्ड चेन प्राइवेट लिमिटेड ने भी बागवानों को झटका दिया है। इस कंपनी ने भी बीते साल के मुकाबले सेब के रेट 14 रुपये तक कम किए हैं।
प्रोग्रेसिव ग्रोवर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष लोकेंद्र सिंह बिष्ट सेब की मौजूदा मार्केट, किसान के हालात और अदानी एग्री फ्रेश द्वारा खोले गए रेट का असर बताते हुए कहते है कि अगर कोई बागवान 1000 पेटी सेब पैदा करता है तो उसमें 300 पेटी सेब प्रीमियम होता है बाकी 400-500 अच्छी क्वालिटी का और बाकी सेब कटा फटा बोरी में बेचने वाला होता है। बिष्ट कहते हैं, "सबसे अच्छी क्वालिटी का रेट 72 रुपए और सबसे निचली क्वालिटी के सेब का रेट सिर्फ 12 रुपए किलो ही है। बाग में तो हर तरह का सेब निकलता है, ऐसे में पूरी फसल का औसत रेट 30-50 रुपए किलो का बैठता है।" वो आगे कहते हैं, "किसान से 50 रुपए औसत में खरीदे गए इसी सेब को अदानी 3-4 महीने बाद 150 से 200 रुपए में बेचता है। अगर प्रति किलो पर कोल्ड स्टोरेज का 20-25 रुपए किलो का खर्च भी मान ले तो कंपनी को दोगुना-तिगुना मुनाफा होता है। अडानी की कंपनी अगर सेब की खरीद के वक्त 4-5 रुपए का अच्छा रेट दे देती तो उसके मुनाफे पर फर्क नहीं पड़ता लेकिन बागवान के लिए ये रकम बड़ी हो जाती।"
वैसे इसमें भी कोई संशय नहीं है कि इस बार सेब की कीमतों में गिरावट का एक बड़ा कारण मौसम की मार भी है। सालभर सेब की फसल पर मौसम के विपरीत प्रभावों के बाद अब जब बाजार में बेचने का समय आया तो सीजन की शुरुआत तो अच्छे दामों से हुई, लेकिन फिर प्रति पेटी सेब के दामों में पांच सौ से हजार रुपये की कमी आ गई है। पहले सूखा और फिर अप्रैल में हुई बेमौसमी बर्फबारी व मई माह में हुई ओलावृष्टि व तूफान ने ऊपरी शिमला के अधिकतर स्थानों में सेब की फसल पर विपरीत असर डाला है, जिससे सेब की गुणवत्ता पर बुरा प्रभाव पड़ा है। वहीं इस साल ज्यादा फसल होने के साथ सेब का साइज भी छोटा है, जिससे मंडी में आ रही फसल में हर बागवान की खेप में अच्छी दर नहीं होने से सेब के दाम कम मिल रहे हैं। बागवान ये तो मानते है कि ओलावृष्टि से काफी फसल खराब हुई है, पर उनके अनुसार इसकी आड़ में आढ़तियों, व्यापारियों और कॉरपोरेट घरानों ने गुणवत्तापूर्ण सेब के भी रेट गिरा दिए। उधर, आढ़तियों का कहना है कि इस बार रेट कम मिलने का मुख्य कारण ओलावृष्टि से फसल का बहुत ज्यादा प्रभावित होना है। खराब सेब आ रहा है, ओलों का दागी सेब जो एचपीएमसी को बोरियों में जाना चाहिए, वह भी पेटियों में जा रहा है, जिस वजह से दाम गिरे है।
ईरान और टर्की का सेब भी बना आफत
हिमाचल की करीब साढ़े चार हजार करोड़ रुपये की सेब की आर्थिकी के लिए ईरान और तुर्की का सेब चुनौती बन गया है। पिछले साल की अपेक्षा सेब के दाम करीब तीस फीसदी तक कम मिलने का एक कारण ये भी है। बाजार में इस बार ईरान का सेब हिमाचली सेब को पछाड़ रहा है। ईरान का सेब रंग और स्वाद में श्रीनगर और किन्नौर की सेब की बराबरी करता है, जबकि वह एक हजार से 1500 रुपये प्रति पेटी तक उपलब्ध है। यह सेब मई से आना शुरू हो जाता है। वही मौसम की मार के चलते हिमाचल से आ रहा करीब 65 से 70 फीसदी सेब दागी और छोटे आकार का है। बड़े प्रदेशों और प्रमुख शहरों में बड़े आकार के सेब की मांग रहती है, इसलिए कम मांग के कारण भी दाम प्रभावित हुए हैं। बागवानों के अनुसार भारत में अफगानिस्तान के रास्ते ईरान और तुर्की से सेब का अनियंत्रित और अनियमित आयात हो रहा है जो बागवानों के लिए परेशानी का कारण बना हुआ है। बागवान वाणिज्य मंत्रालय को पत्र लिखकर ईरान और तुर्की से सेब आयात पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने की मांग भी कर चुके है। इनका मानना है कि भारी मात्रा में इन देशों से सेब का आयात होने के बाद मार्केट में हिमाचली सेब की मांग कम हुई है। चिंता की बात यह है कि ईरान और तुर्की से आयात होने वाले सेब पर किसी भी प्रकार का नियंत्रण नहीं है, जिसके चलते हिमाचल के सेब कारोबार पर इसका नकारात्मक असर पड़ा है।
दरअसल अफगानिस्तान साफ्टा (SAFTA) दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र का हिस्सा है और यहां से सेब के आयात पर कोई शुल्क नहीं लगता है। ईरान इस समझौते का हिस्सा नहीं है और माना जा रहा है कि इसलिए ईरान अपना सेब अफगानिस्तान से पाकिस्तान के रास्ते अटारी बॉर्डर से भारत भेजता हैं। ऐसा हो रहा है तो एक कंटेनर पर आठ लाख के करीब आयात शुल्क की चोरी हो रही है। इसके कारण ईरान का सेब सस्ता बिकता है। यदि ये सेब ईरान के रास्ते आए तो इसमें पंद्रह प्रतिशत एक्साइज ड्यूटी और 35 प्रतिशत सेस लगेगा।
नैफेड से खरीद क्यों नहीं ?
हिमाचल के बागवानों का मानना है की उनकी स्थिति इतनी बुरी नहीं होती अगर हिमाचल में भी कश्मीर की तरह नैफेड जैसी कोई केंद्रीय संस्था बागवानों का सेब खरीदती। दरअसल कश्मीर में केंद्रीय कैबिनेट द्वारा जम्मू कश्मीर के सेब उत्पादकों और व्यापारियों की मदद के लिए बाजार हस्तक्षेप योजना (एमआइएस) को मंजूरी दी गई है। एमआइएस के तहत नेशनल एग्रीकल्चर कोआपरेटिव मार्केटिग फेडरेशन ऑफ इंडिया (नैफेड) किसानों और व्यापारियों से सीधे सेब खरीदती है। सेब की कीमत उसकी ग्रेडिंग के आधार पर होती है। इसका भुगतान सीधे बागवानों के बैंक खाते में होता है। इस योजना के तहत तीनों ग्रेड का सेब बागवानों से खरीदा जाता है। एमआइएस के तहत सेब खरीद की प्रक्रिया में ग्रामीण आबादी के लिए रोजगार के अवसर भी पैदा होते है। सेबों की पैकिंग, गाड़ियों में उनकी लदाई-ढुलाई और मंडियों तक पहुंचाने के काम में कई लोगों को रोजगार मिलता है और बागवानों को सेब के अच्छे दाम मिलते है। परन्तु हिमाचल में अब तक ऐसा कुछ भी नहीं है। इसीलिए हिमाचल के बागवान मांग कर रहे है कि जम्मू कश्मीर की तर्ज पर हिमाचल में भी सेब की खरीद की जाए। बागवानों ने सरकार काे तीन अलग अलग श्रेणियों में बांट कर अलग-अलग रेट भी सुझाएं है। बागवानों की मांग के बाद सरकार भी एक्शन में है। बागवानी विभाग ने नैफेड और जम्मू-कश्मीर के बागवानी विभाग से ग्रेड सिस्टम काे लेकर जानकारी जुटानी शुरू कर दी है। विभाग यह जानने में जुट गया है कि बाजार में सेब के दामों गिरावट आने के बाद कैसे उसे स्थिर किया जाए साथ ताकि बागवानाें काे नुकसान न हाे। साथ ही ग्रेड के आधार किस तरह से सेब की खरीद की जाए।
मंडी मध्यस्थता योजना में सुधार की दरकार
हिमाचल में एचपीएमसी द्वारा भी 'सी' कैटेगरी के सेब को पूरी तरह से बाजार से बाहर नहीं किया जा रहा। मार्किट इंटरवेंशन स्कीम के तहत जो 'सी' कैटेगरी का सेब उठाया जाता है उसे भी एचपीएमसी पूरी तरह इस्तेमाल करने के बजाए उसका ऑक्शन कर देता है। ऑक्शन के बाद जो लोग इस सेब को खरीद रहे है वो इसे फिर मार्किट में ले आते है जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। मौजूदा समय में 'सी' ग्रेड सेब भी मार्केट में पहुंच रहा है। इस कारण अच्छे सेब को भी बढ़िया रेट नहीं मिल पा रहे । बागवानों के अनुसार 'सी' ग्रेड सेब को मार्केट में जाने से रोकने के लिए कदम उठाने की जरूरत है। जब मार्केट में ‘ए' और 'बी’ ग्रेड सेब ही पहुंचेगा तो रेट में सुधार आएगा। मंडी मध्यस्थता योजना में सरकार 9.50 पैसे प्रति किलो की दर से सेब खरीद रही है। पर बागवानों की माने तो निम्न गुणवत्ता वाले इस सेब को परवाणू में बोली के बाद डेढ़ से ढाई रुपये प्रति किलो के दाम पर बेचा जाता है, जिसके बाद यह सेब दोबारा मार्केट में पहुंच जाता है। ऐसे में अच्छे सेब की मार्केट भी गिर रही है। बागवानों का सुझाव है कि इस सेब को बागवानों से खरीदने के बाद नष्ट कर दिया जाए और सी ग्रेड के सेब को बोरी के स्थान पर पेटी में पैक कर जूस और जैम बनाने के लिए प्रोसेसिंग प्लांट तक पहुंचाया जाए तो फायदेमंद रहेगा। मौजूदा समय में बागवान सी ग्रेड सेब को पेटियों में पैक कर मंडियों में भेज रहे हैं। गुणवत्ता सही न होने के कारण मंडियों में ऐसे सेब को सही दाम नहीं मिल रहे साथ ही अच्छे सेब के रेट भी प्रभावित हो रहे हैं। अगर यह व्यवस्था लागू होती है तो सरकार का सी ग्रेड सेब स्टोर करने और ऑक्शन का खर्च भी बचेगा।
अडानी और लदानी के बीच नेक्सस, तय हो दाम : विक्रमादित्य सिंह
शिमला ग्रामीण विधायक विक्रमादित्य सिंह खुद एक बागवान भी है। विक्रमादित्य सिंह कहते है कि " सेब के दाम लगातार गिरने से प्रदेश के बागवान परेशान है। सरकार को इन बागवानों की मदद के लिए आगे आना चाहिए। सेब के दामों को नियंत्रित करने के लिए और बागवानों की मदद के लिए एक कमिटी का गठन किया जाना चाहिए। अडानी और लदानी के बीच में जो नेक्सस बना हुआ है, और जो बड़े निजी घराने है जो सेब को जमा करने में लगे है, इनके लिए भी दाम तय किये जाने चाहिए। इसके साथ सेब की विभिन्न ग्रेड की उचित तरीके से श्रेणियां बनाई जानी चाहिए। सेब हिमाचल की आर्थिकी का बड़ा हिस्सा है और हम इस मुसीबत के समय में किसानों बागवानों के साथ खड़े है।"
लॉन्ग टर्म प्लानिंग की जरूरत : बरागटा
भाजपा नेता चेतन बरागटा भी एक बागवान है और इनका कहना है कि इस बार हिमाचल का सेब ओलावृष्टि के कारण काफी अधिक प्रभावित हुआ है, जिसकी वजह से सेब की कीमतों में गिरावट आई है। परन्तु जो अच्छी गुणवत्ता का सेब है वो अब भी 2000 से अधिक कीमत पर बिक रहा है। बरागटा मानते है कि सेब के दामों पर नियंत्रण के लिए एक लॉन्ग टर्म प्लानिंग चाहिए, एक रात में कुछ भी नहीं बदलने वाला है। फ़ूड प्रोसेसेसिंग यूनिट्स चाहिए, सीए स्टोर्स चाहिए, सेब की प्रोडक्शन में गुणवत्ता का ध्यान रखने की ज़रूरत है, ऐसी बहुत सी चीज़ें है जिनके लिए किसी ने तैयारी नहीं की। अगर इन पर काम नहीं किया गया तो ये समस्या आने वाले कई सालों तक सामने आती रहेगी। तीन अलग क्षेत्र है जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है। पहला है सेब की प्रोडक्शन, दूसरा है सप्लाई चेन और तीसरा है मार्केटिंग। इन तीनों में ही बहुत सी खामियां है जिन्हें दूर करने की ज़रूरत है। बागवानों और सरकार को मिलकर काम करना होगा। कांग्रेस बार -बार कह रही है की सरकार की नाकामियों की वजह से दाम कम हो गए, पिछले साल जब सेब के दाम अच्छे थे तब क्या उन्होंने सरकार की सराहना की थी।
अडानी के दाम गिराने से प्रभावित हुए दाम : मुंगटा
बागवान एवं जिला परिषद् सदस्य कौशल मुंगटा मानते है कि हिमाचल में सेब के दाम गिरने का सबसे बड़ा कारण अडानी द्वारा कम किये गए सेब के दाम है। बीते साल के मुकाबले इस बार प्रति किलो के हिसाब से 16 रुपए कम रेट तय किए गए हैं। अडानी हिमाचल के सेब का सिर्फ 2 प्रतिशत ही खरीदता है, परन्तु फिर भी उनके दाम गिराने से हिमाचल में सेब के दाम प्रभावित हुए है। इनका आरोप है कि सेब मंडी में अडानी के इंटरफेरेंस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है। हिमाचल में सेब पर एमएसपी भी नहीं है। कश्मीर में जिस तरह नैफेड के तहत सरकार सेब खरीदती है अगर ऐसी कोई व्यवस्था हिमाचल में भी हो तो बेहतर होगा।
अफगानिस्तान के रास्ते बिना ड्यूटी भारत आ रहा सेब : बिष्ट
प्रोग्रेसिव ग्रोवर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष लोकिन्दर सिंह बिष्ट के अनुसार इस बार सिर्फ बाजार के कारणों की वजह से ही सेब के दाम कम नहीं हुए है, बल्कि मौसम ने भी काफी काम बिगाड़ा है। इस साल शुरुआत में काफी सूखा पड़ा और बाद में ओला वृष्टि हुई ,जिसके कारण सेब की क्वालिटी प्रभावित हुई है। इस बार काफी छोटा सेब आया है। इसी का फायदा उठा कर आढ़तियों ने और बड़े कॉर्पोरेट्स ने सेब का दाम गिरा दिए। जहां दाम 400 से 500 तक गिराया जाना था वहां दाम 1000 रूपए तक गिरा दिया गया। इसके अलावा पिछले तीन सालों से तुर्की और ईरान का सेब भी भारत आ रहा है ये सेब उसी सीजन में आता है जब हिमाचल के सेब का पीक सीजन होता है। अफगानिस्तान के रास्ते ये सेब बिना ड्यूटी के भारत आ रहा है। ये सेब बहुत सस्ते दामों पर यहां आता है तो लदानी इसे खरीदते है जो हमारे सेब के दामों को प्रभावित करता है।
बागवानों का खून चूस रही है निजी कंपनियां : पांजटा
हिमालयन सोसाइटी फॉर हॉर्टिकल्चर एंड एग्रीकल्चर डेवलपमेंट के अध्यक्ष डिंपल पांजटा मानते है कि जो दूसरे और तीसरे ग्रेड का सेब बाजार में जा रहा है वो सेब के दाम कम होने का बड़ा कारण है। सरकार या एपीएमसी को चाहिए कि वो इस सेब को खरीद कर फ़ूड प्रोसेसेसिंग यूनिट्स में या किसी भी तरह बाजार से बाहर भिजवा दे। पांजटा मानते है कि इसके अलावा जो निजी कंपनियां जैसे अडानी या कोई अन्य भी यदि अपने रेट्स कम निकालते है तो भी दाम गिरते है। इस बार भी अडानी ने दाम बहुत कम किये है। मंडियों में जिस तरह सेब के रेट गिरे हैं, यह पूरी तरह सरकारी तंत्र की विफलता है। बागवान भी जागरूक नहीं है। निजी कंपनियां बागवानों का खून चूस रही है, इनपर लगाम होनी चाहिए। इन पर भी एमएसपी लागू की जानी चाहिए। नियमों की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। बागवानों को निजी कंपनियों का बहिष्कार करना चाहिए। नैफेड के तहत हिमाचल का सेब भी खरीदा जाना चाहिए जिसकी कवायद हिमाचल सरकार द्वारा शुरू कर दी गई है।
मंडियों में रेट गिरे, रिटेल में जस के तस : सुरेंद्र सिंह
यंग एंड यूनाइटेड ग्रोवर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष सुरेंद्र सिंह का कहना है कि संकट के समय में सेब बागवानों को राहत देने में राज्य सरकार पूरी तरह विफल साबित हुई है। मंडियों में रेट गिर रहे हैं लेकिन रिटेल में रेट जस के तस हैं। एपीएमसी को बाहरी राज्यों की एपीएमसी के साथ तालमेल बैठा कर सेब के लिए सही मार्केट उपलब्ध कराना चाहिए। बागवानों को सरकार से अब कोई उम्मीद नहीं है, कारण है बागवानी मंत्री का बेतुका बयान। मंत्री जी कहते है बोरियों में सेब ले जाओ, जिस मंत्री की ये मानसिकता हो उससे क्या उम्मीद की जा सकती है। दूसरा सुरेश भारद्वाज जी के पास अगर किसान जाते है तो वे कहते है की मैं कुछ नहीं कर सकता, मैं कोई विशेषज्ञ नहीं हूँ। इन मंत्रियों को मार्किट इंटरवेंशन स्कीम का ही पता नहीं है। इन हालातों में मुझे नहीं पता कि क्या होगा।
अच्छे माल को दाम मिलेंगे : हरीश ठाकुर
पराला, ढली और भट्ठाकुफर आढ़ती एसोसिएशन के अध्यक्ष एवं हरीश फ्रूट एजेंसी (एचएफए) के मालिक हरीश ठाकुर बिट्टू ने कहा कि रेट कम मिलने का मुख्य कारण ओलावृष्टि से फसल का बहुत ज्यादा प्रभावित होना है। खराब सेब आ रहा है। ओलों का दागी जो सेब एचपीएमसी को बोरियों में जाना चाहिए, वह भी पेटियों में जा रहा है। सेब के दाम मांग और आपूर्ति पर निर्भर करते हैं। रेट गिरे हैं, लेकिन अब लोग तुड़ान भी कम कर रहे हैं। लोग आढ़ती पर आरोप लगाते हैं। अडानी की बड़ी बातें हुईं, वह तो बढ़िया माल की पेटी भी 1400 रुपये ले रहे हैं, हम तो अच्छे माल के उससे भी ज्यादा दे रहे हैं। अच्छे माल को दाम मिलेंगे। आढ़ती और लदानी की सांठगांठ के आरोप गलत लगते हैं। पराला और भट्टाकुफर मंडियों की बात करें तो यहां ऐसा कुछ भी नहीं है। अगर कोई आढ़ती ऐसा करता भी है तो किसान उसके पास नहीं जाएगा।