मशीन गन से बरस रही थी गोलियां... खून से लथपथ इस कैप्टेन ने रेंगते हुए उड़ा दिए थे 4 पाकिस्तानी बंकर
कैप्टन मनोज कुमार पांडेय, यूपी का 24 साल का लड़का, जो जन्म से गोरखा नहीं था लेकिन जब भारतीय सेना की गोरखा रेजिमेंट में बतौर कैप्टन पोस्टेड हुआ तो उसमें मौत का खौफ़ मानों ग़ायब हो गया। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ कहते थे कि "अगर कोई आदमी कहता है कि वह मरने से नहीं डरता है, तो वह झूठ बोल रहा है। या फिर वह गोरखा है"...फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ के इन शब्दों को कारगिल युद्ध के दौरान शहीद कैप्टन मनोज कुमार पांडे ने चरितार्थ किया। दुश्मन की गोलियों से बुरी तरह जख्मी होने के बावजूद जंग के मैदान में उनकी उंगलियां बंदूक से नहीं हटी। उन्होंने अकेले ही दुश्मन के तीन बंकर ध्वस्त किए। 24 साल की छोटी सी उम्र में अपने देश पर न्योछावर होने वाले कैप्टन मनोज ने पहले ही कहा था कि 'अगर मेरे खून को साबित करने से पहले मेरी मौत हो जाती है, तो मैं वादा करता हूं, मैं मौत को मार दूंगा ..' (If death strikes before I prove my blood, I promise (swear), I will kill death.) कारगिल युद्ध में कैप्टन मनोज कुमार पांडेय ने अपने इस कहे को करके दिखाया। कारगिल में 'खालुबार टॉप' को जीतने के लिए उनका जोश, जज़्बा और जूनून इतना था कि माथे पर गोलियों की बौछार से घायल होने के बावज़ूद उन्होंने दुश्मन की पोज़िशन को ग्रेनेड से उड़ा दिया। परिणाम स्वरूप भारत के इस विरले सपूत को मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था।
उत्तर प्रदेश के सीतापुर जिले में रुधा नाम का एक गांव है। मनोज 25 जून 1975 को यही के एक ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए। मनोज एक गरीब परिवार में पैदा हुए थे उनके पिता लखनऊ के हसनगंज चौराहे पर पान की दुकान लगाया करते थे। मनोज ने गरीबी देखी थी इसलिए वो हमेशा अपने छोटे भाइयों को भी यही समझाते थे कि पापा के पैसों और उनकी मेहनत को व्यर्थ न जाने देना। मनोज का दिमाग बचपन से ही तेज़ था वो हमेशा से ही सेना में जाना चाहते थे। आठवीं कक्षा तक लखनऊ के रानी लक्ष्मी बाई स्कूल में पड़ने के बाद मनोज आर्मी स्कूल में भर्ती हुए। उसके बाद तो जैसे उनके जूनून को एक दिशा मिल गई। सैनिक स्कूल में उन्होंने खुद को सेना के लिए तैयार करना शुरू कर दिया। 12वीं की परीक्षा पास करते ही वह एनडीए की परीक्षा में भी सफल रहे।
इंटव्र्यू में बोले, परमवीर चक्र जीतने के लिए सेना में आना है:
कहते हैं की एनडीए के इंटरव्यू में जब मनोज से पूछा गया था कि वो सेना में क्यों जाना चाहते हैं, तो मनोज का जवाब था, "परमवीर चक्र जीतने के लिए।" अफसर ने उनसे पूछा की तुम जानते हो वो कैसे मिलता है तो उन्होंने कहा था जी हाँ, ज़्यादातर सैनिकों को ये मरणोपरांत मिलता है पर आप मुझे मौका दीजिए मैं इसे जीवित लेकर आऊंगा "। एनडीए में चयन के बाद मनोज प्रशिक्षण के लिए पुणे के पास खड़कवासला में मौजूद राष्ट्रीय रक्षा अकादमी में पहुंचे, जहां एक कड़ी ट्रेनिंग के बाद उन्हें 11 गोरखा राइफल्स रेजीमेंट की पहली वाहनी में तैनाती मिली, जोकि उस वक्त जम्मू-कश्मीर में अपनी सेवाएं दे रही थी। अपनी तैनाती के पहले दिन से ही मनोज ने हमले की योजना बनाना, हमला करना और घात लगा कर दुश्मन को मात देने जैसी सभी कलाओं को सीखना शुरू कर दिया था। जल्द ही एक दिन उन्हें अपने सीनियर के साथ एक सर्च ऑपरेशन में जाने का मौका मिला। यह पहला मौका था, जब उनका दुश्मन से सीधा मुकाबला हुआ। वह इस परीक्षा में पास रहे। अपनी टीम के साथ उन्होंने घुसपैठ की कोशिश करने वाले आतंकियों को मार गिराया था। यह उनके लिए बड़ी उपलब्धि थी, मगर वह खुश नहीं थे। दरअसल, इस संघर्ष में उन्होंने अपने सीनियर अधिकारी को खो दिया था।
'पीस पोस्टिंग' छोड़ कारगिल में संभाला मोर्चा :
देखते-देखते समय बीतता गया और मनोज अपनी यूनिट के साथ जम्मू-कश्मीर के अलग-अलग इलाकों में गए। कारगिल की जंग से पहले उनकी बटालियन सियाचिन में मौजूद थी। 11 गोरखा राइफल्स की पहली बटालियन ने सियाचिन में तीन महीने का अपना कार्यकाल पूरा किया था और सारे अफसर और सैनिक पुणे में 'पीस पोस्टिंग' का इंतज़ार कर रहे थे। बटालियन की एक 'एडवांस पार्टी' पहले ही पुणे पहुंच चुकी थी। सारे सैनिकों ने अपने जाड़ों के कपड़े और हथियार वापस कर दिए थे और ज्यादातर सैनिकों को छुट्टी पर भेज दिया गया था। तभी अचानक आदेश आया कि बटालियन के बाकी सैनिक पुणे न जा कर कारगिल में बटालिक की तरफ़ बढ़ेगें, जहाँ पाकिस्तान की भारी घुसपैठ की ख़बर आ रही थी। मनोज तो जैसे इस मौके के इंतजार में बैठे ही थे। उन्होंने आगे बढ़ कर नेतृत्व किया और करीब दो महीने तक चले ऑपरेशन में कुकरथाँग, जूबरटॉप जैसी कई चोटियों को विरोधियों के कब्ज़े से आज़ाद करवाया।
'हीरो ऑफ बटालिक' थे कैप्टन पांडेय :
कारगिल युद्ध में खोलाबार सबसे मुश्किल लक्ष्य था। इस पर चारों तरफ से पाकिस्तान का कब्जा था। पाकिस्तानी ऊंचाई पर तैनात थे। यह चोटी इसलिए अहम थी, क्यों कि यह दुश्मन का कम्युनिकेशन हब था। इसपर कब्जा करने का मतलब था, कि पाकिस्तानी सैनिकों तक रसद और अन्य मदद में कटौती होना। इससे लड़ाई को अपने हक में किया जा सकता था।
जब भारतीय सैनिकों ने इस पर चढ़ाई करना शुरू की तो पाकिस्तानियों ने गोलियां बरसानी शुरू कर दीं। इससे भारतीय जवान तितर बितर हो गए। इतना ही नहीं, पाकिस्तानियों ने तोप से गोले और लॉन्चर भी बरसाए। कमांडिंग अफसर के निर्देश के मुताबिक, दो टुकड़ियों ने रात में ही चढ़ाई करने की योजना बनाई। एक बटालियन मनोज पांडे को दी गई। मनोज को चोटी पर बने चार बंकर उड़ाने का आदेश दिया गया। जब मनोज ऊपर पहुंचे तो उन्होंने बताया कि ऊपर चोटी पर 6 बंकर हैं। हर बंकर में 2-2 मशीन गन तैनात थीं। ये लगातार गोलियां बरसा रहीं थीं। मनोज पांडे जब एक बंकर में घुस रहे थे तो उनके पैर में गोली लगी, इसके बावजूद वे आगे बढ़े और हैंड-टू-हैंड कॉम्बैट में दो दुश्मनों को मार गिराया। यहां उन्होंने पहला बंकर नष्ट कर दिया। इसके बाद दुश्मनों ने धावा बोल दिया। लहूलुहान होने के बावजूद मनोज पांडे रेंगते हुए आगे बढ़े उन्होंने दो और बंकरों को तबाह कर दिया। इसके बाद एक और बंकर बचा था, जिसे नष्ट करने का उन्हें आदेश मिला था। जैसे ही मनोज पांडे उसे नष्ट करने के लिए आगे बढ़े, दुश्मन की ओर से उन्हें चार गोलियां लगीं लेकिन उन्होंने इसके बावजूद उस बंकर को भी उड़ा दिया। कुछ पाकिस्तानी सैनिक वहां से भागने लगे, तो उनके मुंह से आखिरी शब्द निकला, 'ना छोड़नूं' (किसी को छोड़ना नहीं)। इसके बाद भारतीय जवानों ने उन्हें भी ढेर कर दिया। कैप्टन पांडे की बटालियन ने खालूबार पर कब्जा कर लिया। अंतत: खालूबार पर शान से भारतीय तिरंगा लहराया। उस समय कैप्टेन मनोज पांडेय की उम्र थी 24 साल और 7 दिन।
अद्वितीय वीरता के लिए कैप्टन मनोज कुमार पांडे को मरणोपरांत परमवीर चक्र दिया गया। 26 जनवरी, 2000 को तत्कालीन राष्ट्रपति के आर नारायणन ने हजारों लोगों के सामने देश का सबसे बड़ा वीरता सम्मान परमवीर चक्र मनोज के पिता गोपी चंद पांडे को सौंपा था। इस अभियान में कर्नल ललित राय के पैर में भी गोली लगी और उन्हें भी वीर चक्र दिया गया। इस जीत के लिए भारतीय सेना को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
आदरणीय पिता जी,
सोनू से कहना कि वह पीसीएम की कोचिंग करना चाहे तो अच्छी बात है। पर उसके साथ लखनऊ विश्वविद्यालय में बीएससी में एडमिशन की भी कोशिश करे। एनडीए में हो जाता है तो बहुत अच्छा। अपना ख्याल रखना। कोई सामान की जरूरत हो तो बाजार से खरीद लेना। यहां काफी ठंड है, पर दिन में बर्फ न पड़ने से मौसम ठीक रहता है। आप लोग चिट्ठी अवश्य डालना, क्योंकि लड़ाई के मैदान में बीच में चिट्ठी पढ़ना कैसा लगता है शायद आप लोग इसका अनुभव नहीं कर सकते। मेरी चिंता मत करना।
-आपका बेटा मनोज