अतुल्य हिमाचल : यह चम्बा नहीं अचम्भा है यह रुमाल नहीं कमाल है
चंबा रुमाल का नाम अचानक सुने तो लगता है कि यह महज़ एक आम सा रुमाल होगा, लेकिन "चंबा रुमाल सही मायनों में कमाल है" यह कोई मामूली रुमाल नहीं बल्कि विश्व विख्यात व कढ़ाई हस्तशिल्प से निर्मित और बेहद ख़ूबसूरत रुमाल है। अनूठी हस्तकला के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध चंबा रूमाल किसी पहचान का मोहताज नहीं है। चम्बा रुमाल की हस्तकला का बोलबाला रियासतकाल से चल रहा है । वैसे तो हिमाचल प्रदेश में कला की कई तकनीक हैं जो यहां की समृद्ध शैली की परिचायक हैं, लेकिन चंबा रुमाल ने हिमाचल प्रदेश को विश्व भर में एक अलग ही पहचान दिलाई है। अंतरराष्ट्रीय मिंजर मेले में भी चंबा रूमाल की बड़ी बिक्री होती है। चंबा रूमाल की ख़ास बात ये है कि इसे रेशम व सूती कपड़े पर कढ़ाई कर इसे तैयार किया जाता है। ये रुमाल कितना ख़ास है आप इस बात से समझ सकते है कि इस रूमाल को बनाने में एक सप्ताह से दो महीने का समय लग जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में चम्बा रुमाल खरीदना आसान नहीं होता है। इसे चंबा आकर खरीदना या फिर मंगवाना पड़ता है। चंबा के संपन्न परिवार बेटी की शादी में विदाई के समय इस रूमाल का प्रयोग करते हैं। वर्तमान में ही नहीं बल्कि ब्रिटिश काल में भी अधिकारियों व पड़ोसी रियासतों के राजाओं को रूमाल उपहार के रूप में दिया जाता था। इतना ही नहीं जर्मन व इग्लैंड संग्रहालयों में भी चंबा रूमाल मौजूद है।1965 में चम्बा रूमाल बनाने वाली कारीगर महेश्वरी देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा गया और अब ऐसे कलाकारों की कमी नहीं, जो कई दिनों की कड़ी मेहनत के बाद इसे तैयार करते हैं।
नीडल पेंटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है चम्बा रुमाल
पहाड़ी लघु चित्र और भित्ति चित्रों को अगर कपड़े पर सूई के माध्यम से बहुत ही बारीकी से कढ़ाई करके उकेरा जाए तो वह कपड़ा किसी कलात्मक तस्वीर से कम नहीं लगता है। इसका सही मायनों में उदहारण चंबा का रुमाल है। प्रसिद्ध चम्बा के रुमाल को ‘नीडल पेंटिंग’ के नाम से भी जाना जाता है। चंबा रुमाल रेशम एवं सूती कपड़े पर दोनों ओर समान कढ़ाई कर तैयार किया जाता है। विशेष तौर पर कढ़ाई का काम औरतें करती हैं और यह कला आमतौर पर रुमाल, टोपी, हाथ के पंखे, चोली आदि पर भी की जाती है।
आम रुमाल नहीं ,उपहार में दिया जाता है चम्बा का रुमाल
चम्बा रुमाल पर की गई कढ़ाई को चंबा साम्राज्य के पूर्व शासकों के संरक्षण में पनपने का मौका मिला था। यह अपनी अद्भुत कला और शानदार कशीदाकारी के कारण निरंतर प्रसिद्धि की नई इबारत लिखता रहा है। चंबा का रुमाल वास्तव में कोई जेब में रखने वाला रुमाल नहीं है, बल्कि कढ़ाईदार "वॉल पेटिंग " होती है। चूंकि इससे बना रुमाल चौकोर आकार में नहीं होता है , इसलिए इसे कभी वॉल पेंटिंग की तरह सजाया जाता है तो कभी उपहार में दिया जाता है। चंबा के रुमाल के बारे में एक रोचक बात यह है कि दूर से देखने पर बेशक ये बहुत आकर्षक न लगे पर जब पास से देखते हैं तो देखने वाले को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होता है।
शाही परिवार भी करता था चंबा रुमाल की कढ़ाई
चंबा रुमाल को यह नाम हिमाचल प्रदेश के हिल स्टेशन चंबा से मिला है। रुमाल पर की जाने वाली इस कला का काम सदियों से चला आ रहा है। चम्बा रुमाल का वर्णन सबसे पहले सोलहवीं शताब्दी में आता है, जब बेबे नानकी ( गुरु नानक देव जी की बहन थीं) उन्होंने इसे बनाया था। वह रुमाल आज भी होशियारपुर के एक गुरुद्वारे में धरोहर के रूप में रखा हुआ है। इसके बाद 17वीं सदी में राजा पृथ्वी सिंह ने चम्बा रुमाल की कला को बहुत अधिक संवारा और रुमाल पर ‘दो रुखा टांका’ कला शुरू की। कहा जाता है कि उनके समय में चंबा रियासत में आम लोगों के साथ-साथ शाही परिवार भी चंबा रुमाल की कढ़ाई किया करता था। 18वीं शताब्दी में चंबा रुमाल की लोकप्रियता बहुत अधिक और बहुत दूर-दूर तक फैली हुई थी। बहुत से कारीगर इस कला से जुड़े हुए थे। उस समय के राजा उमेद सिंह ने इस कला और कारीगरों को संरक्षण देकर चंबा रुमाल को विदेशों तक पहुंचाया। हिमाचल के चम्बा जिला से शुरू कि गई इस कलाकारी को विदेश में पहचान मिली और इसे लंदन के विक्टोरिया अल्बर्ट म्यूजियम में रखा गया। आज भी चंबा का रुमाल अपने महान इतिहास के दर्शन करवाता है जिसे चंबा के राजा गोपाल सिंह ने 1883 में ब्रिटिश सरकार के नुमाइंदों को भेंट किया था। जिसमें कुरुक्षेत्र युद्ध की कृतियों को उकेरा गया है। 1911 में चंबा के राजा भूरी सिंह ने भी इस हुनर को बहुत सम्मान दिया और कला को उन्नत बनाने में मदद की। दिल्ली दरबार में उन्होंने ब्रिटेन के राजा को चंबा के रुमाल की कलाकृतियां तोहफे में दी थीं। चूंकि भारत में मुगलों का साम्राज्य था तो इस कढ़ाई के कार्य की विषय वस्तु मुगलों से प्रभावित थी परंतु मुगलों के पतन के साथ ही बहुत से कारीगर हिमाचल के पर्वतीय क्षेत्रों में जाकर बस गए जिनकी सहायता चंबा के राजा उमेद सिंह ने की।
कढ़ाई को जीवंत बनाने के लिए आकृतियां बनानी हुई शुरू
स्थानीय लोगो का कहना है कि चम्बा रुमाल पर हाथ की कढ़ाई दोनों ओर से की जाती है। एक जमाने में जब शाही परिवारों में बेटी की शादी होती थी तो शगुन के थाल को इस रुमाल से ढका जाता था। उस समय इनमें लोककला ज्यादा झलकती थी, धीरे-धीरे इनमें आकृतियां और फूल-पत्तियां बनानी शुरू की ताकि कढ़ाई अधिक जीवंत लगे। रेशम के धागे से सूती कपड़े पर कढ़ाई होती थी, पर अब शॉल, दुप्पटों और सिल्क फैब्रिक पर भी ये की जाती है। इसमें डबल साटन स्टिच (दो रुख टांका) का प्रयोग किया जाता है, जिसकी वजह से कपड़े के दोनों तरफ कढ़ाई उभर आती है जो एक समान लगती है। इसके धागे को पट्टू कहा जाता है।
दो तरह से की जाती है चंबा रुमाल पर कढ़ाई
चंबा रुमाल मुख्यता वर्गाकार या आयताकार बनाए जाते हैं। हालांकि अभी भी दो तरह से कढ़ाई चंबा रुमाल पर हो रही है। एक में लोकशैली झलकती है, जिसके विषय सीमित हैं, रंग चटकीले और टांकों में समानता नहीं है। जबकि दूसरी शैली में एक संतुलित संयोजन है, जिसमें हलके व सौम्य रंग के धागों का इस्तेमाल किया जाता है दो रुख टांके से जिसमें एक टांका लंबा तो दूसरा छोटा होता है, जब कढ़ाई की जाती है तो कपड़े के उलटी तरफ भी समान कढ़ाई बन जाती है। चंबा रुमाल बनाने के लिए कलाकार पहले किसी भी पौराणिक दृश्य या घटना को चित्रित करता है, उसके पश्चात पेंसिल या चारकोल की सहायता से रूपरेखा तैयार करता है। इसके बाद ब्रश द्वारा वांछित रंग, जो बहुत नाम मात्र का होता है, भरता है और इस सब के बाद सिल्क के रंग-बिरंगे धागों को सुई में पिरो कर दोहरे टांके की कढ़ाई करते हुए एक अविस्मरणीय कृति का निर्माण करता है। चंबा रुमाल पर ड्राइंग कभी भी ट्रेस करके नहीं बनाई जाती है, वरन इतनी फुर्ती से की जाती है कि लाइन टूटे न।
रुमाल तैयार करने में लगता है दस दिन से दो महीने का समय
एक प्रशिक्षित कलाकार थीम को देखकर खादी के कपड़े पर चारकोल से एक रूपरेखा तैयार करता है। कढ़ाई के लिए रंगों का चुनाव पहले ही तय कर लेता है, फिर महिला शिल्पकार कढ़ाई के लिए रेशम के धागे के दो तारों का उपयोग करती है और बिना गांठ लगाए डबल-साटन स्टिच करती है रुमाल पर मुख्य मोटिफों की कढ़ाई करने के बाद, फिर बैक स्टीचिंग की जाती है जिसके द्वारा मोटिफ की आउटलाइन बनाई जाती है। अंत में, वे रुमाल के किनारों को एक समान करने के लिए तुरपाई करती हैं। इसकी आउटलाइन काले धागे से बनाई जाती है, जो चंबा रुमाल की एक खास विशेषता है। चंबा रुमाल को तैयार करने में दस दिन से दो महीने का समय लगता है।
हर रुमाल में कि जाती है अलग कहानी चित्रित
पहाड़ी चित्रकला का प्रभाव भी इन रुमालों पर बहुत गहराई से देखने को मिलता है। साथ ही गुलेर, कांगड़ा, बसोहाली, जम्मू, नूरपुर और मंडी क्षेत्रों के चित्रों व भित्ति चित्रों की झलक भी दिखती है। इन रुमालों पर पहाड़ी चित्रकला के समान ही प्रचलित कहानियों, परंपराओं व पौराणिक विषयों के दृश्यों को भी उकेरा जाता है। साथ ही कृष्ण, रामायण, महाभारत और पुराण के कहानियों, नायक-नायिकाओं के प्यार के किस्सों व राग-रागिनी जैसे विषय भी इनके आधार हैं जो इन्हे अलग बनाता है। दिलचस्प बात ये है कि हर रुमाल में एक अलग कहानी चित्रित की जाती है, जिसके कारण इस कला में अत्यधिक विविधता देखने को मिलती है। आकार में बड़े होने के कारण ये रुमाल दीवारों पर वॉल पेंटिंग की तरह सजाए जाते हैं और कपड़े की पूरी सतह पर ही कढ़ाई किए जाने के कारण ये अत्यंत सजीव लगते हैं।
डंडी टांका का किया जाता था प्रयोग
इसकी आउटलाइन काले धागे से बनाई जाती है, जो चंबा रुमाल की एक खास विशेषता है। आकृतियों में रंग-बिरंगे धागे भरने के बाद, फिर से काले धागे से डंडी-टांका करते हुए उसकी महीन आउटलाइन बनाई जाती है। यह तरीका पहाड़ी चित्रकला से प्रेरित होकर ही अपनाया गया है। इसी तरह क्रिस क्रॉस स्टिच द्वारा, जिसमें दो बराबर आकार के टांकों को क्रॉस का आकार देते हुए रुमालों पर उकेरा जाता है। यह टांका ज्यादातर लाल रंग के धागे से लगाया जाता है। हालांकि आजकल इस टांके का प्रयोग कम किया जा रहा है।
पचास हजार से लेकर पांच लाख तक होती है कीमत
चम्बा रुमाल बेहद ही ख़ास माना जाता है क्योंकि हर रुमाल पर अलग तरह का डिज़ाइन इसकी विशेषता को चार चाँद लगा देता है। प्रदेश के साथ साथ विदेश में भी चम्बा रुमाल कि बहुत अधिक डिमांड रहती है। अंतर्राष्ट्रीय मिंजर मेले में भी रूमाल को खरीदने के लिए कनाडा, आस्ट्रेलिया, दिल्ली, चंडीगढ़, भोपाल, पटना तथा अन्य राज्यों के लोग काफी उत्सुक रहते हैं। यही इस रुमाल की खासियत है कि इसकी कीमत पचास हजार से लेकर पांच लाख तक हो सकती है।राष्ट्रीय अवार्ड विजेता और चम्बा रुमाल बनाने वाली कलाकार दिनेश कुमारी का कहना है कि चम्बा रुमाल में ज़्यादातर वे भगवान कृष्ण से जुड़ी कलाकृतियां या कहानियां बनती है। दिनेश कुमारी 1977 से ये रुमाल बना रही है। दिनेश कुमारी बताती है कि वे रास समंदर, अष्टनायका, कृष्ण डांडिया, कृष्ण नाग संहार, चौसर खेल, शिकार रुमाल और इस तरह कि कई कहानियों पर आधारित रुमाल बनाती है जो बेहद आकर्षक और ख़ूबसूरत है। इस कला को संजोए रखने के लिए दिनेश कुमारी को भीमराव आम्बेडकर राष्ट्रीय अवार्ड जैसे कई अन्य पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है।
चंबा रुमाल पर राष्ट्रपति अवार्ड से सम्मानित ललिता वकील का कहना है कि प्रदेश कि आगे की पीढ़ी को भी चम्बा रुमाल को बनाना सीखना चाहिए ताकि ये चम्बा रुमाल कि प्रतिभा विदशों में पहुँच पाए। उनका कहना है कि इसे बनाना बेहद कठिन है और इसे सीखना बहुत कठिन है, लेकिन हमारी सरकार ने इसे बढ़ावा दिया है।