सवर्ण आंदोलन : ये इब्दिता न जाने क्या गुल खिलाएंगी
प्रदेश की जयराम सरकार भले ही सवर्ण आयोग के गठन को मंजूरी दे चुकी हो लेकिन ये मसला आसानी से हल होता नहीं दिखता। सवर्ण आयोग का गठन देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा द्वारा चलाये गए आंदोलन की सिर्फ एक मांग है। आर्थिक आधार पर आरक्षण और एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट को समाप्त करने जैसी कई अन्य मांगे भी है जिन्हें लेकर सवर्ण समाज का एक तबका आवाज उठा रहा है। 2022 चुनावी साल है और ऐसे में मुमकिन है कि विरोध में उठ रही आवाजें और बुलंद हो। जिस सामान्य वर्ग आयोग (सवर्ण आयोग) के गठन को जयराम सरकार ने मंजूरी दी है उसकी रूपरेखा भी अभी स्पष्ट नहीं है, ऐसे में जानकार मानकर चल रहे है कि टकराव अभी बाकी है। उधर, जानकारों को देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा के सुर अभी से सियासी लग रहे है। जिस तरह इन संगठनों ने उपचुनाव में नोटा को लेकर मुहिम चलाई थी, उसे देखते हुए लगता है कि 2022 में भी इस आंदोलन का राजनैतिक असर देखने को मिलेगा। यहाँ गौर करने लायक बात ये भी है कि ये संगठन भाजपा -कांग्रेस दोनों के खिलाफ मुखर दिखे है। शिमला ग्रामीण विधायक और कांग्रेस नेता विक्रमादित्य सिंह इकलौते ऐसे नेता है जिनसे इन संगठनों को कोई शिकवा नहीं है। अब ऐसा क्यों है और इसके क्या मायने है, इसे लेकर सबका अपना-अपना विश्लेषण है। बहरहाल, 2022 विधानसभा चुनाव की बात करें तो सवर्ण समाज का आंदोलन दोनों मुख्य राजनैतिक दलों के समीकरण बना - बिगाड़ सकता है। विशेषकर, अर्की सहित कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा का खासा प्रभाव दिखता है। अर्की उपचुनाव की भी बात करें तो 2.63 प्रतिशत नोटा दबाया गया था। मंडी संसदीय क्षेत्र उपचुनाव में भी नोटा की संख्या में इजाफा हुआ था। जाहिर है ऐसे में दोनों ही राजनैतिक दल सवर्ण समाज के इस आंदोलन को हल्के में लेने की भूल नहीं कर सकते। एक शगूफा ये भी है कि देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा सीधे तौर पर चुनाव में भी अपना भाग्य आजमा सकते है।
देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा द्वारा सवर्ण आयोग के गठन की मुहिम प्रदेश का बड़ा सियासी मुद्दा बन जाएगी, ये शायद किसी ने नहीं सोचा था। सरकार हो या विपक्ष, सब हल्के में लेते रहे और ये आंदोलन अपनी जड़े जमाता गया। करीब एक वर्ष पहले शुरू हुई यह मुहिम आहिस्ता-आहिस्ता नेताओं के जी का जंजाल बन गई। दरअसल हिमाचल प्रदेश में 70 फीसदी आबादी सामान्य वर्ग की है और इस वर्ग का एक बड़ा तबका लम्बे समय से सवर्ण आयोग की मांग कर रहा था। जब देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा के रूप में इस वर्ग को मजबूत आवाज मिली तो सियासी गलियारों का तापमान तो बढ़ना ही था। पहली दफा देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा ने अपनी ताकत का अहसास 20 अप्रैल 2021 को करवाया गया था जब सामान्य संयुक्त मोर्चे ने राज्य सचिवालय का घेराव किया था। करीब तीन घंटे तक छोटा शिमला में चक्का जाम किया गया। मांग थी कि प्रदेश की करीब 70 फीसदी सामान्य वर्ग की आबादी के हित के लिए जातिगत आरक्षण को खत्म किया जाए। दूसरा, सरकार आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू करे। तीसरी मुख्य मांग एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन करने की थी। चौथी मांग थी कि बाहरी राज्यों के लोगों को सामान्य वर्ग के कोटे में सरकारी नौकरियों में सेंध लगाने से रोकने के लिए एससी और एसटी की तर्ज पर हिमाचली बोनाफाइड होने की शर्त लगायी जाएं। पांचवी और सबसे बड़ी मांग थी सवर्ण आयोग के गठन की।
तब सरकार ने 3 महीने की मोहलत मांगी, लेकिन जब तीन महीने के इंतज़ार के बाद भी मांग पूरी नहीं हुई तो सवर्ण समाज द्वारा उपचुनाव में नोटा दबाने की चेतावनी दी। उपचुनाव में नोटा का खासा प्रभाव देखने को भी मिला, खासतौर पर अर्की विधानसभा क्षेत्र में। पर सरकार लगातार इस मांग को नजरअंदाज करती रही और आंदोलन प्रखर होता रहा। सच तो ये है कि सरकार ने कभी इस वर्ग के साथ एक सशक्त संवाद स्थापित करने की शायद जरुरत ही नहीं समझी। उधर, देवभूमि क्षत्रिय संगठन और देवभूमि सवर्ण मोर्चा के सयुंक्त तत्वाधान में आंदोलन मजबूत होता गया। कभी सवर्ण संगठनों द्वारा जातिगत आरक्षण, एट्रोसिटी एससी-एसटी एक्ट और अन्य सवर्ण समाज विरोधी नीतियों की शवयात्रा निकाली गई, तो कभी 800 किलोमीटर लम्बी पदयात्रा की गई। ये पदयात्रा 10 दिसंबर 2021 को धर्मशाला में खत्म हुई और यात्रा के खत्म होने पर जो हुआ वो इतिहास है। विधानसभा सत्र के पहले दिन तपोवन में परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि हजारों के हुजूम और बेइंतहा दबाव के बीच सरकार को झुकना पड़ा। इसे सवर्ण समाज के संघर्ष और हौंसले की जीत समझ लीजिये या फिर दबाव में आकर जयराम सरकार का ऐलान, प्रदेश में अब सवर्ण आयोग के गठन की घोषणा हो चुकी है।
ऐसा प्रदर्शन कभी नहीं हुआ
10 दिसंबर 2021 को जो धर्मशाला में हुआ वैसा हिमाचल में कभी नहीं देखा गया। 'जय भवानी' के उद्घोष के साथ हजारों प्रदर्शनकारियों की भीड़ ने पूरी सरकार को मानो बंधक बना लिया। बाहर जाने वाले एकमात्र रास्ते को बंद कर दिया गया। प्रदर्शनकारी बैरिकेड्स तोड़कर परिसर में घुस गए, गाड़ियों के शीशे तोड़े गए और शंखनाद हुए। सरकारी सम्पति को भी नुकसान पहुंचा और पुलिस कर्मियों पर पत्थर भी बरसे। सरकार इस कदर घेरी गई कि आनन -फानन में सवर्ण आयोग के गठन की घोषणा करनी पड़ी।
कैसी होगी सवर्ण आयोग की रूपरेखा
सरकार ने सवर्ण आयोग के गठन को अनुमति ज़रूर दी है मगर अभी तक इसकी रूपरेखा स्पष्ट नहीं हो सकी है। यह साफ नहीं है कि सरकार आयोग का अलग से चेयरमैन नियुक्त करेगी या मुख्यमंत्री को ही इसका अध्यक्ष बनाया जाएगा। साथ ही इसके क्षेत्राधिकार और काम की भी व्याख्या होनी बाकी है। अलबत्ता आयोग के गठन को सरकार की हरी झंडी मिली हो लेकिन सवर्ण समाज की कई अन्य मांगे भी है। जाहिर है आर्थिक आधार पर आरक्षण और एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन करने जैसी मांगों का जल्द पूरा होना मुमकिन नहीं लगता। ऐसे में आगामी वक्त में टकराव होना तय है।
हिमाचल प्रदेश में करीब 70 फीसदी आबादी सामान्य वर्ग की है और इस वर्ग का एक बड़ा तबका लम्बे समय से सवर्ण आयोग की मांग कर रहा था। अब सरकार ने दबाव में आकर सामान्य वर्ग आयोग के गठन को तो हरी झंडी दे दी है लेकिन एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन करने व आर्थिक आधार पर आरक्षण जैसी कई मांगों को लेकर आंदोलन जारी है। अमूमन हर विधानसभा क्षेत्र में इस आंदोलन को कम या ज्यादा समर्थन मिल रहा है। ऐसे में 2022 के विधानसभा चुनाव में ये एक बड़ा फैक्टर होगा। न सिर्फ सत्तारूढ़ भाजपा बल्कि कांग्रेस भी इनके निशाने पर है।
- मुख्य मांग
- सामान्य वर्ग की आबादी के हित के लिए जातिगत आरक्षण को खत्म किया जाए
- आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू हो
- एससी-एसटी एट्रोसिटी एक्ट में संशोधन किया जाए
- बाहरी राज्यों के लोगों को सामान्य वर्ग के कोटे में सरकारी नौकरियों में सेंध लगाने से रोकने के लिए एससी और एसटी की तर्ज पर हिमाचली बोनाफाइड होने की शर्त लगायी जाएं
- सवर्ण आयोग का गठन हो