चुनाव चाहे पंच का हो या प्रधानमंत्री का, महंगाई हमेशा मुद्दा
हिमाचल प्रदेश में बीते दिनों हुए उपचुनाव में महंगाई का मुद्दा हावी रहा। चारों चुनावी क्षेत्रों में जगह-जगह 68 चुनावी जनसभाएं करने के बावजूद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी जनता को लुभा नहीं पाए। हालात यह रहे कि उनकी गृह लोकसभा क्षेत्र मंडी की सीट पर भी कांग्रेस काबिज हो गई। हार के पोस्टमार्टम में महंगाई को एक बड़ा कारण माना गया। खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने भी माना कि महंगाई उपचुनाव में मुद्दा बनी। जनता ने हार का दिवाली गिफ्ट दिया तो सरकार को पेट्रोल डीजल के दामों में कटौती कर रिटर्न गिफ्ट देना पड़ा। विपक्ष ने इस पर जमकर चुटकी भी ली। बहरहाल उपचुनाव में जो हुआ सो हुआ, पर यदि महंगाई नियंत्रण में नहीं आई तो आगामी विधानसभा चुनाव में भी सत्तारूढ़ दल को इसका खामियाजा भुगतान पड़ सकता है। इतिहास भी इस बात की तस्दीक करता है कि चुनाव चाहे पंच का हो या प्रधानमंत्री का, महंगाई ऐसा विषय है जिसने हमेशा मतदाता को प्रभावित किया है।
"आमदनी अठन्नी खर्चा रुपैया " हिंदी का यह मुहावरा अब सिर्फ एक मुहावरा ही नहीं रह गया बल्कि आम आदमी के जीवन की वास्तविकता बन गया है। पहले कोरोना महामारी ने आम आदमी की कमर तोड़ी और अब ये दिन दोगुनी रात चौगुनी तरक्की करती महंगाई आम आदमी की जान लेने पर तुली है। महंगाई की मार रसोई के तड़के से लेकर गैराज में खड़ी गाड़ी तक पहुँच गई है। हर तरफ हाहाकार है। सरसों तेल, आलू-प्याज, टमाटर, सब्जियां, रसोई गैस और पेट्रोल-डीजल की बढ़ी कीमतें आम-आदमी के जीवन को बुरी तरह प्रभावित कर रही हैं। हर चीज की कीमत दोगुनी होने से जनजीवन त्रस्त है। कोरोना काल के बाद सभी क्षेत्रों में बढ़ती महंगाई ने आम जनता की कमर तोड़ दी है। आम आदमी की आमदनी तो वहीं ठहरी है, लेकिन जीवन यापन के लिए आवश्यक वस्तुओं के दाम आसमान छूते जा रहे है। इस पर बेरोजगारी जनता की परेशानियों का एक बड़ा कारण बन गई है। सरकार से पूछा जाए तो 'इस पर हमारा नियंत्रण नहीं है' कह कर नेता अपना पल्ला झाड़ लेते है और विपक्ष इस महंगाई को आम आदमी की समस्या से ज्यादा चुनावी मुद्दे की तरह देखता है। यानी चुनाव के दौरान तो पेट्रोल और बाकी के दाम पर बड़े बड़े भाषण दिए जाते है परन्तु बाद में इसके समाधान पर चर्चा तक नहीं की जाती। हालांकि ये स्वाभाविक है कि यदि आम जनता महंगाई से त्रस्त हो तो फायदा विपक्ष को होता है। हिमाचल प्रदेश में इसी वर्ष के अंत में विधानसभा चुनाव होने है और तब तक यदि महंगाई की ताप बरकरार रही तो निसंदेह भाजपा की मुश्किलें बढ़ने वाली है और कांग्रेस इस मुद्दे का लाभ लेने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी।
पाँच राज्यों में भी महंगाई मुद्दा
महंगाई सिर्फ राज्य का मसला नहीं है अपितु इसके लिए काफी हद तक केंद्र सरकार जिम्मेदार समझी जाती है जहां भी भाजपा सत्तासीन है। 10 फरवरी से पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने है जिनमें उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर शामिल है। इन राज्यों में भी कांग्रेस महंगाई को लेकर भाजपा को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ रही, ठीक वैसे ही जैसे हिमाचल के उपचुनाव में देखने को मिला था।
उपचुनाव में कांग्रेस को हुआ लाभ
हर चुनाव में महंगाई एक बड़ा मुद्दा बनकर सामने आती है। हाल ही में हिमाचल प्रदेश में हुए उपचुनाव में भी बढ़ती महंगाई को भाजपा की हार का एक बड़ा कारण माना गया। इन उपचुनावों में कांग्रेस ने क्षेत्रीय मुद्दों के साथ साथ महंगाई और बेरोजगारी के मुद्दे को खूब भुनाया जिसका लाभ भी कांग्रेस को मिला। हालांकि महंगाई पूरी तरह से प्रदेश नहीं बल्कि केंद्र सरकार का मुद्दा है फिर भी इसका प्रभाव प्रदेश के चुनाव में रहता है ।
दिसंबर में भी महंगाई बेलगाम
साल 2021 के दिसंबर महीने के खुदरा महंगाई के आंकड़े हाल ही में जारी हुए हैं। राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग के द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक पिछले महीने की खुदरा महंगाई दर 5.59 प्रतिशत पर थी। यह पिछले छह महीनों में खुदरा महंगाई दर का सबसे ऊंचा स्तर था। खुदरा महंगाई दर का यह आंकड़ा इतना ऊंचा है कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया द्वारा निर्धारित 6 प्रतिशत की महंगाई की सहनशील सीमा को छू रहा है। सरल शब्दों में समझें तो यह कि अगर खुदरा महंगाई दर 6 प्रतिशत को पार कर जाती है तो इसका मतलब है कि पानी सर से ऊपर निकल गया है। महंगाई मालिक को मुनाफा देने की बजाय मालिक को घाटा देने की तरफ बढ़ती जा रही है। अर्थव्यवस्था के लिए नुकसानदेह साबित होती जा रही है। खुदरा महंगाई दर उन सामानों और सेवाओं की कीमत के आधार पर निकाली जाती है जिसे ग्राहक सीधे खरीदता है। कंज्यूमर प्राइस इंडेक्स का इस्तेमाल किया जाता है। सरकार कुछ सामानों और सेवाओं के समूह के कीमतों का लगातार आकलन कर खुदरा महंगाई दर निकालती है। सरकार ने इसके लिए फार्मूला फिक्स किया है जिसके अंतर्गत तकरीबन 45 प्रतिशत भार भोजन और पेय पदार्थों को दिया है और करीबन 28 फीसदी भार सेवाओं को दिया है। यानी खुदरा महंगाई दर का आकलन करने के लिए सरकार जिस समूह की कीमतों पर निगरानी रखती है उस समूह में 45 प्रतिशत हिस्सा खाद्य पदार्थों का है, 28 फीसदी हिस्सा सेवाओं का है। यह दोनों मिल कर के बड़ा हिस्सा बनाते हैं।
बाकी हिस्से में कपड़ा, जूता, चप्पल, घर, इंधन बिजली जैसे कई तरह के सामानों की कीमतें आती है। दिसंबर महीने में खुदरा महंगाई दर पिछले महीने के 4.91 फीसदी से बढ़कर 5.59 फीसदी पर जा पहुंची है। दरअसल खाने के तेल, महंगी साग-सब्जियों और महंगे पेट्रोल, डीजल, बिजली के चलते खुदरा महंगाई दर में बढ़ोतरी देखी जा रही है। सांख्यिकी मंत्रालय ने ये आंकड़े जारी किये हैं। दिसंबर 2020 में रिटेल महंगाई दर 4.59 फीसदी रही थी। सांख्यिकी मंत्रालय द्वारा जारी किए आंकड़े के मुताबिक खाद्य महंगाई दर दिसंबर महीने में 4.47 फीसदी पर जा पहुंची है, जबकि नवंबर महीने में खाद्य महंगाई दर 1.87 फीसदी रही थी। ईंधन और बिजली महंगाई दर 10.95 फीसदी रही। ये अभी भी दहाई अंक में है। हालांकि नवंबर 2021 के मुकाबले ईंधन और बिजली के महंगाई में कमी आई है। कपड़े और जूते-चप्पल महंगे हुए हैं। कपड़ों और जूते-चप्पल की महंगाई दर 8.30 फीसदी रही जबकि नवंबर में ये 7.94 फीसदी रही थी। दरअसल नवंबर महीने में केंद्र सरकार ने पेट्रोल डीजल पर एक्साइज ड्यूटी में कमी की थी वहीं कई राज्यों में सरकारों ने वैट घटाया था। खुदरा महंगाई में उछाल आया है लेकिन ये अभी भी आरबीआई के महंगाई दर से 2 से 6 फीसदी रहने के लक्ष्य के भीतर है ।
बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी भी है कारण
बेकाबू महंगाई के पीछे एक तर्क ये दिया जा रहा है कि पिछले साल मानसून कमजोर रहा या पर्याप्त बारिश नहीं हुई, जिसके चलते खाद्य सामग्री के दाम बढ़े है। पर सवाल ये है कि क्या इसका असर सभी चीजों पर एकसाथ पड़ा है। कीमत इतनी ज्यादा होने के बावजूद बाजार में किसी भी आवश्यक वस्तु का अकाल-अभाव दिखाई नहीं पड़ता, पर जब आपूर्ति कम होती है तो बाजार में चीजें दिखाई नहीं पड़ती हैं और उनकी कालाबाजारी शुरू हो जाती है। मूल सवाल ये है कि क्या बेहिसाब-बेलगाम मुनाफाखोरी ही तो बेकाबू महंगाई का कारण नहीं है। मसलन जो सब्जी किसान बाजार में 10 रुपये किलोग्राम की दर से बेचता है उसकी कीमत आम आदमी तक पहुँचते -पहुँचते 40 -50 रुपये हो जाती है। सरकार को बाजार पर योजनाबद्ध तरीके से अंकुश लगाना चाहिए। उत्पादन लागत के आधार पर चीजों के विक्रय दाम तय होने चाहिए। सवाल ये भी है कि जब सरकार कृषि उपज के समर्थन मूल्य तय कर सकती है तो वह बाजार में बिकने वाली चीजों की अधिकतम कीमत क्यों नहीं तय कर सकती?
बेरोजगारी : हर साल दो करोड़ रोजगार देने का था वादा
बढ़ती महंगाई के साथ साथ बढ़ती बेरोज़गारी भी एक बड़ा मसला है। राजनीतिक दल चुनाव के दौरान बेरोज़गारी खत्म करने के कई दावे करते है परन्तु असल में ऐसा हो नहीं पाता। बढ़ती बेरोजगारी शिक्षित युवाओं को परेशान कर रही है। जनसंख्या अनुसार रोजगार के अवसर जितने सृजित किए जाने की आवश्यकता है, उतने नहीं हो पा रहे हैं। नतीजतन युवा वर्ग बेरोजगारी की चक्की में पिसकर अपने लक्ष्यों से भटकता जा रहा है। युवा देश की रीढ़ की हड्डी की तरह होते हैं, जिन्हें राष्ट्र और समाज के पुनर्निर्माण के लिए अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होती है। देश में हर साल दो करोड़ लोगों को रोजगार देने का वादा कर भाजपा सत्ता में आई थी। शहरों में बेरोजगार लोगों की तादाद में लगातार इजाफा हो रहा है। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि शहरों में बेरोजगारी दर चार माह के शीर्ष पर पहुंच चुकी है। सीएमआईई की हालिया रिपोर्ट में यह दावा किया गया है।
हिमाचल में 13.6 फीसदी बेरोजगारी दर
गौरतलब है कि सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई), ने दिखाया कि 29.3 प्रतिशत के साथ हरियाणा बेरोजगारी में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में शीर्ष पर है। इसके बाद जम्मू और कश्मीर 21.4 प्रतिशत के साथ दूसरे, जबकि 20.4 प्रतिशत के साथ राजस्थान तीसरे स्थान पर है। इसके अलावा बिहार (14.8 फीसदी), हिमाचल प्रदेश (13.6 फीसदी), त्रिपुरा (13.4 फीसदी), गोवा (12.7 फीसदी) और झारखंड (11.2 फीसदी) उन राज्यों में शामिल है, जहां दिसंबर में बेरोजगारी दहाई अंक में है। दिल्ली में बेरोजगारी दर 9.3 फीसदी दर्ज की गई है।
इतिहास गवाह है, महंगाई ने मचाई है राजनीतिक उथल-पुथल
इतिहास गवाह है कि असाधारण रूप से महंगाई जब भी बढ़ी है राजनीतिक उथल-पुथल मची है। 1973 में, हॉस्टल मेस के बकाए को लेकर गुजरात में एक कॉलेज का विरोध प्रदर्शन बढ़ती महंगाई के खिलाफ एक आंदोलन में बदल गया, जिसकी वजह से राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री को इस्तीफा देना पड़ा। इस इस्तीफे के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के खिलाफ जेपी नारायण के राष्ट्रव्यापी आंदोलन को पंख मिल गए। आखिरकार इसी वजह से इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी। आपातकाल के बाद के चुनावों में गांधी ने सत्ता खो दी, लेकिन उसके बाद बनी सरकार भी कीमतों को नीचे लाने में विफल रही। जब 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो विपक्ष में बैठी इंदिरा गांधी के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं था जिससे वो सरकार पर हमलावर हो सके। पर तभी अचानक प्याज की कीमतें आसमान छूने लगी और बैठे बिठायें इंदिरा गाँधी को एक मुद्दा मिल गया।
कांग्रेस ने इस मुद्दे का बेहद नाटकीय ढंग से इस्तेमाल किया। प्याज की बढ़ती कीमतों की तरफ ध्यान खींचने के लिए कांग्रेस नेता सीएम स्टीफन तब संसद में प्याज की माला पहन कर गए। देखते -देखते इस मुद्दे का जादू लोगों के सिर चढ़ कर बोलने लगा। 1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी प्याज की माला पहनकर प्रचार करने गईं। चुनावी नारा भी बना कि ' जिस सरकार का कीमत पर जोर नहीं, उसे देश चलाने का अधिकार नहीं।' चुनावी नतीजे आए तो जनता पार्टी की हार हुई और कांग्रेस ने सरकार बनाई। माना जाता है कि जनता पार्टी की सरकार भले ही अपनी वजहों से गिरी हो, लेकिन कांग्रेस की सत्ता वापसी में प्याज का भी अहम् योगदान रहा। हालांकि सत्ता में लौटी कांग्रेस भी इसकी कीमतों का बढ़ना नहीं रोक पाई और एक साल बाद फिर प्याज ने रुलाना शुरू कर दिया। इस बार विपक्ष ने प्याज का नाटकीय इस्तेमाल किया। तब लोकदल नेता रामेश्वर सिंह प्याज का हार पहन कर राज्यसभा में गए, पर बात नहीं बनी और सभापति एम हिदायतुल्ला ने उन्हें खरी-खोटी सुना दी।
1998 में दिल्ली में सुषमा स्वराज की सरकार भी प्याज की बढ़ी कीमतों की बलि चढ़ गई। इसके अलावा 2014 में मोदी के सत्ता में आने से पहले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के अंतिम सालों के दौरान मूल्य वृद्धि के खिलाफ जनमत जुटाने में अरुण जेटली समेत भाजपा के कई नेताओं की भूमिका रही। भाजपा नेताओं ने यूपीए सरकार में महंगाई को मुद्दा बनाया था, सिलेंडर और सब्जियां लेकर प्रदर्शन किया था। वर्तमान सरकार में मंत्रालय संभाल रहे सभी बड़े नेता उस समय सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे थे। 2014 के चुनाव में भाजपा ‘बहुत हुई महंगाई की मार,अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे के साथ चुनाव में उतरी। ऐसे कई अन्य उदाहरण है जो तस्दीक करते है कि महंगाई को कम आंकना ठीक नहीं।