क्या धूमल को उनकी पार्टी ने ही ठिकाने लगाया था !
हिमाचल प्रदेश में 2017 विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर था। कांग्रेस मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी, पर भाजपा ने अभी सीएम फेस डिक्लेअर नहीं किया था। भाजपा की सारी राजनीति धूमल बनाम नड्डा के नाम के कयासों के इर्दगिर्द घूम रही थी। इसका असर भी दिख रह था। भाजपा का कंफ्यूज कार्यकर्ता वीरभद्र के आगे कुछ हल्का दिख रहा था। 9 नवंबर को वोटिंग होनी थी और 30 अक्टूबर तक भाजपा ने सीएम फेस की घोषणा नहीं की थी। कांग्रेस भी भाजपा को बिना दूल्हे की बरात कहकर खूब चुटकी ले रही थी।
माना जाता है कि प्रो प्रेम कुमार धूमल भाजपा आलाकमान की पसंद नहीं थे, लेकिन वीरभद्र की कांग्रेस को टक्कर देने वाला कोई और दिख भी नहीं रहा था। सो, सारे गुणा भाग करके आखिरकार 31 अक्टूबर को पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सिरमौर के पच्छाद में हुई रैली में प्रो प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। धूमल के नाम की घोषणा होते ही मानो भाजपा में जान सी आ गई, देखते-देखते समीकरण बदले और भाजपा ने बेहद मजबूती से चुनाव लड़ा। 18 दिसंबर को जब नतीजे आये तो भाजपा ने 44 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में शानदार वापसी की। पर इन 44 सीटों में सुजानपुर की सीट नहीं थी, इन 44 सीटों में प्रो प्रेम कुमार धूमल की सीट नहीं थी। भाजपा तो जीत गई थी, पर भाजपा को जीताने वाले धूमल खुद चुनाव हार बैठे। एक कहावत है... हाथ में आया, पर मुँह न लगा ! हिंदुस्तान की राजनीति में प्रो. प्रेम कुमार धूमल से बेहतर ये कहावत शायद ही किसी पर सटीक बैठती हो।
क्या सुजानपुर से टिकट देना सिर्फ इत्तेफ़ाक़ था !
प्रो प्रेम कुमार धूमल का चुनाव हारना आसान नहीं था और ये यूँ ही नहीं हो गया था। दरअसल प्रो धूमल की सीट थी हमीरपुर, पर पार्टी ने उन्हें टिकट दिया सुजानपुर से। उसी सुजानपुर से जो जहाँ कभी उनके करीबी रहे राजेंद्र राणा का ख़ासा प्रभाव था। पर राणा की निष्ठा अब वीरभद्र सिंह और कांग्रेस में थी। कहते है राणा से बेहतर धूमल की कमजोरियों को कोई नहीं जानता, आखिर राणा ने राजनीति भी तो धूमल से ही सीखी थी। भाजपा में धूमल विरोधी भी इस बात से वाकिफ थे और चाहते थे कि धूमल को घर में ही ठिकाने लगा दिया जाए। हुआ भी यही। धूमल 1919 वोट से चुनाव हार गए और उनका तीसरी बार सीएम बनने का स्वप्न पूरा नहीं हो सका।
प्रोफेसर से मुख्यमंत्री तक का सफर
राजनीति में प्रो धूमल का कद रातों रात नहीं बढ़ा था और यूँ ही कोई धूमल बन भी नहीं सकता। सियासत में आने के लिए धूमल ने प्रोफेसर की नौकरी छोड़ी और शुरुआत की भाजपा के युवा संगठन से। 1980-82 में धूमल भाजयुमो के प्रदेश सचिव रहे। पर चर्चा में आये 1989 में जब उन्होंने हमीरपुर सीट पर हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की और लोकसभा पहुँच गए। इससे पहले 1984 का चुनाव वे हार चुके थे। इसके बाद 1993-98 में वो हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रहे। इस बीच 1996 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। पर धूमल ने लम्बी छलांग लगाईं और इसके बाद वो दो बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने।
1998 में सरकार बनाने के लिए सुखराम के पांचो विधायकों को बनाया मंत्री
1998 का चुनाव आते-आते भाजपा बदली चुकी थी और प्रदेश के समीकरण भी। नरेंद्र मोदी प्रदेश के प्रभारी थे, जो इस बात को समझ चुके थे कि 'नो वर्क नो पे वाले' सीएम रहे शांता कुमार के नाम पर चुनाव लड़ना और जीतना बेहद मुश्किल है। धूमल तब मोदी के करीबी थे और प्रदेश की राजनीति में भी उनका ठीक ठाक कद था। सो, मोदी ने पार्टी आलाकमान को मनाया और चुनाव से पहले ही धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। हालांकि नतीजों के बाद कांग्रेस और भाजपा दोनों 31-31 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरे लेकिन बहुमत किसी के पास नहीं था। कांग्रेस में अपनी उपेक्षा से नाराज़ पंडित सुखराम ने तब नई पार्टी बना कर चुनाव लड़ा था, जिसका नाम था हिमाचल विकास कांग्रेस। पंडित सुखराम की पार्टी के खाते में पांच सीटें आई थी और सरकार किसकी बनेगी, ये उन्हें ही तय करना था। वीरभद्र से मतभेद के चलते सुखराम ने धूमल को समर्थन दिया और धूमल ने पुरे पांच साल सरकार चलाई। हालांकि इसके बदले सुखराम के पांचो विधायकों को मंत्री बनाया गया। भाजपा के कई नेता, खासतौर से शांता गुट के कई नेता अब भी इसे गलत करार देते है।
बने सड़क वाले मुख्यमंत्री
जब प्रो धूमल पहली बार सीएम बने तो केंद्र में एनडीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। उस दौर में देशभर में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से सड़कों का जाल बिछाया गया था और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। पहाड़ी राज्य होने के चलते हिमाचल में ये ये कार्य आसान नहीं था लेकिन धूमल सरकार ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। इसीलिए धूमल सड़क वाले मुख्यमंत्री के तौर पर भी जाने जाते है।
2007 में बने दूसरी बार सीएम
2003 के विधानसभा चुनाव में प्रो धूमल एक बार फिर भाजपा के सीएम फेस थे लेकिन भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। इसके बाद उनके नेतृत्व में 2007 का चुनाव लड़ा गया जिसमें भाजपा ने फिर सत्ता कब्जाई और धूमल दूसरी बार सीएम बने। दूसरी बार वे एक जनवरी 2008 से 25 दिसंबर 2012 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। प्रेम सिंह धूमल के दो बेटे हैं- अरुण ठाकुर और अनुराग ठाकुर। अनुराग ठाकुर राजनीति में काफी सक्रिय हैं। वे बीसीसीआई के चेयरमैन भी रह चुके है। इसके अलावा मौजूदा समय में हमीरपुर लोकसभा से सांसद हैं और केंद्र सरकार में वित्त राज्य मंत्री भी।
उपचुनाव लड़ने की चर्चा मात्र से सियासी खलबली :
इन दिनों प्रो प्रेम धूमल फिर चर्चा में है। दरअसल, लोकसभा चुनाव 2019 के बाद अब हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जिला के धर्मशाला तथा सिरमौर जिला के पच्छाद विधानसभा क्षेत्रों में उपचुनाव होने हैं। धूमल की धर्मशाला सीट से विधानसभा उपचुनाव लड़ने की चर्चाओं ने सभी के कान खड़े कर दिए हैं। धूमल के चुनाव लड़ने की चर्चा मात्र से ही भाजपा के अंदर गुणा-भाग शुरू हो गया है। माना जाता है कि अब भी धूमल की इतनी कुव्वत है कि भाजपा उन्हें हलके में नहीं ले सकती। वहीँ बीते दिनों धूमल का पीएम मोदी से मिल कर लम्बी चर्चा करना, रमेश धवाला और पवन राणा प्रकरण, इन्दु गोस्वामी का इस्तीफ़ा, पत्र बम जैसे कई तथाकथित सियासी इत्तेफाकों ने धूमल नाम को फिर सुर्ख़ियों में ला दिया है। प्रदेश में 21 अक्टूबर को उपचुनाव होने है। भाजपा का एक वर्ग धूमल को टिकट देने की मांग कर रहा है। कांगड़ा हमेशा हिमाचल की राजनीति का भविष्य तय करता रहा है और धूमल का क्षेत्र हमीरपुर भी कभी कांगड़ा जिला की तहसील हुआ करती थी। ऐसे में पुराने कांगड़ा के धूमल कोई सियासी गुल खिला पाते है या नहीं, देखना दिलचस्प होगा।