असल इम्तिहान अभी बाकी है
साढ़े तीन साल का कार्यकाल और 6 उपचुनाव। 2017 में भाजपा की सरकार बनी जरूर मगर इस सरकार ने अब तक सत्ता सुख के साथ -साथ निरंतर चुनौतियों का सामना किया है। जयराम ठाकुर को मुख्यमंत्री की कुर्सी भले ही आराम से मिल गई हो मगर उसके बाद से उनके लिए कुछ भी आसान नहीं रहा। एक किस्म से भाग्य और काबिलियत की कॉकटेल ने उन्हें सीएम तो बना दिया पर उसके बाद भाजपा में बढ़ी गुटबाज़ी और कोरोना काल ने उनका जमकर इम्तिहान लिया। खुद को सर्वमान्य नेता साबित करने की उनकी जद्दोजहद हमेशा जारी रही है। विरोधी हर मोड़ पर उन्हें सेटल करने की फिराक में रहे, पर जयराम ठाकुर हर चुनौती का डट कर सामना करते रहे। हर मोड़ पर खुद को साबित किया। उनके कार्यकाल में पहले भाजपा ने लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया, फिर पच्छाद और धर्मशाला में हुए उपचुनाव में शानदार जीत दर्ज की। तदोपरांत इसी साल जनवरी में हुए पंचायत और स्थानीय निकाय चुनाव में भी भाजपा का प्रदर्शन बेहतर रहा। पर फिर सरकार ने पार्टी सिंबल पर नगर निगम चुनाव करवाने की सियासी भूल कर दी। भूल हुई तो खामियाजा भी भुगतना ही था, नगर निगम चुनाव में कांग्रेस भाजपा से इक्कीस साबित हुई। इस आंशिक जीत से जहां कांग्रेस में जान फूंक गई, वहीं जयराम विरोधियों को भी मौका मिल गया। इन साढ़े तीन सालों में काफी सियासी खींचतान देखने को मिली पर अपने शांत और सहज अंदाज से जयराम ठाकुर ने सभी विरोधियों को पटखनी दी। पर अब अनचाहे ही 4 उपचुनाव आ गए जो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के लिए सबसे बड़ी चुनौती होंगे। जयराम ठाकुर पर आगामी चारों उपचुनाव किसी भी हालत में जीतने का दबाव है। हर कदम फूंक फूंक रखा जा रहा है। यहाँ कुछ भी प्रतिकूल रहा तो हार का ठीकरा मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के सर ही फूटेगा। ऐसी परिस्थिति में पार्टी के भीतर उनके विरोधियों के सुर तेज होना स्वाभाविक होगा। दूसरी तरफ अनुराग ठाकुर का निरंतर बढ़ता कद जयराम ठाकुर के समक्ष विराट चुनौती है। हालही में मोदी कैबिनेट में अनुराग को राज्य मंत्री से प्रमोट करके कैबिनेट मंत्री का दर्जा दिया गया है। केंद्र की सियासत में अनुराग ठाकुर का कद बढ़ते ही धूमल समर्थक भी प्रोएक्टिव दिख रहे है। जाहिर है लम्बे समय से हाशिये पर चल रहे धूमल समर्थकों की महत्वकांक्षाएं अब दोबारा बढ़ने लगी है। अब धूमल के निष्ठावानों को अनुराग में भावी सीएम दिखने लगा है। ऐसे में जानकार मानते है कि यदि उपचुनाव के इम्तिहान में जयराम फेल हुए तो अनुराग की प्रदेश की राजनीति में एंट्री संभव है।
शांत पड़े थे विरोधी, पर अब स्तिथि अलग
2017 में सत्ता मिलने का बाद मुख्यमंत्री का चेहरा बदलने के साथ- साथ संभावित कैबिनेट भी बदल गया था। जयराम कैबिनेट में धूमल गुट के कई बड़े चेहरों को जगह नहीं मिली थी। फिर निगम और बोर्डों की नियुक्ति में भी धूमल गुट हाशिये पर ही रहा। बदलती सियासत में कई नेताओं ने तो निष्ठा बदल ली लेकिन अधिकांश तटस्थ रहे। इस बीच जयराम ठाकुर सरकार के मुखिया तो रहे ही, संगठन पर भी उनका असर दिखने लगा। संगठन पर जयराम की पकड़ तब और मज़बूत हो गई जब तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल ने स्वास्थ्य घोटाले के चलते इस्तीफा दिया और सुरेश कश्यप ने संगठन के अध्यक्ष के रूप में कमान संभाली। शांत स्वभाव के जयराम की सियासी सूझबुझ के आगे विरोधी शांत पड़ गए। आहिस्ता - आहिस्ता बेहद नियोजित ढंग से भाजपा का टीम प्ले, वन मैन शो बन गया, और किसी को खबर भी नहीं हुई। मगर अब स्थिति अलग है। विशेषकर आसाम और उत्तराखंड में पार्टी आलाकमान के साहसिक निर्णयों से सुगबुगाहट शुरू हो गई है कि मिशन रिपीट के लिए पार्टी हिमाचल में भी हरसंभव निर्णय ले सकती है।
साथ -साथ पर दूर - दूर
बाहरी तौर पर भाजपा भले ही एकजुट दिखती हो मगर कई घाव अब भी हरे है, जो गिले शिकवे मिटने नहीं देते। कई मौके ऐसे आये है जहां अनुराग ठाकुर और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के बीच की दूरी स्पष्ट दिखी। पहले डॉ राजीव बिंदल की बतौर प्रदेश अध्यक्ष ताजपोशी में, जब सीएम हाथ बढ़ाते रह गए और जाने -अनजाने अनुराग आगे बढ़ गए। दूसरा जब सेंट्रल यूनिवर्सिटी धर्मशाला के मुद्दे पर एक समारोह में अनुराग ने खुलकर प्रदेश सरकार की कार्यशैली पर सवाल उठाये। यानी झलकियों में ही सही तल्खियां दिखती आ रही है।
इस्तेमाल होगा असम फार्मूला !
पार्टी आलाकमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर से संतुष्ट बताया जाता है, विशेषकर उनकी क्लीन इमेज और शांत स्वभाव उनकी सबसे बड़ी ताकत है। पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा का आशीर्वाद भी जयराम को प्राप्त है। आमजन के बीच भी सीएम की स्वच्छ छवि है, बावजूद इसके भाजपा का एक गुट विशेष अभी से अनुराग का राग गाने लगा है। ऐसे में पल-पल बदलती सियासत में ऊंट किस करवट बैठेगा इस पर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी। जानकार मानते है कि उत्तराखंड की तर्ज पर सीएम बदलने का फार्मूला हिमाचल में नहीं लागू होगा क्यों कि खुले तौर पर जयराम ठाकुर को लेकर कोई असंतोष नहीं है। पर मुमकिन है कि पार्टी असम की तरह ही बगैर सीएम फेस घोषित करें चुनाव में उतरे, ऐसे में सस्पेंस बरकरार रखकर दोनों गुटों की खींचतान और संभावित भीतरघात को कम किया जा सकेगा।
जो हाशिये पर रहे, अब खतरा न बन जाएं
जयराम कैबिनेट में कई बड़े चेहरों को स्थान नहीं दिया गया, तो कुछ को उम्मीद से कम मिला। माना जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री प्रो प्रेमकुमार धूमल से नजदीकी इन्हें भारी पड़ी। इन तमाम चेहरों की अनदेखी भाजपा के लिए खतरा बन सकती है। मसलन पहले डॉ राजीव बिंदल को माननीय विधानसभा अध्यक्ष बनाकर मंत्रिमंडल से बाहर रखा गया। फिर जैसे - तैसे बिंदल प्रदेश अध्यक्ष बने तो उन्हें स्वास्थ्य घोटाले के नाम पर इस्तीफा देना पड़ा। फिलवक्त बिंदल हाशिये पर है। इसके अलावा रमेश चंद ध्वाला को भी मंत्रिमंडल में स्थान नहीं मिला। स्व नरेंद्र बरागटा को भी मंत्री पद नहीं दिया गया था। ऐसा ही एक नाम चंबा जिले के भटियात से विधायक बिक्रम सिंह जरयाल का है जिन्हें हालहीं में हिमाचल प्रदेश विधानसभा में सरकारी मुख्य सचेतक नियुक्त किया गया है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने चम्बा जिला की पांच में से चार सीटों पर कब्जा किया था। तब बिक्रम सिंह जरयाल को मंत्रिपद की दौड़ में सबसे आगे माना जा रहा था लेकिन प्रो प्रेमकुमार धूमल के खुद चुनाव हारने के बाद समीकरण बदल गए और जयराम राज में जरयाल अब तक हाशिये पर ही दिखे। इसी तरह दो बार मुख्यमंत्री रहे प्रो प्रेम कुमार धूमल के गृह जिला हमीरपुर को भी जयराम कैबिनेट में स्थान नहीं मिला था। अब भोरंज विधायक कमलेश कुमारी को उप मुख्य सचेतक नियुक्त किया गया है। ऐसे नेताओं की फेहरिस्त बहुत लम्बी है। अब सरकार निगम बोर्डों में कुछ नेताओं को एडजस्ट करके स्तिथि बैलेंस करने का फार्मूला जरूर तलाश रही है लेकिन ये कितना कारगार होगा ये देखना रोचक होगा।