तीन बार सीएम बने, तीनों बार तिकड़म से
हिमाचल का ये नेता जब भी मुख्यमंत्री बना, अपनी सियासी तिकड़म से बना। एक बार अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ यशवंत सिंह परमार को हटाकर सीएम पद कब्जाया, तो अगली बार शांता कुमार की जनता पार्टी के विधायकों को अपनी तरफ मिला लिया और कुर्सी हथिया ली। तीसरे मौके पर बहुमत नहीं था, तो निर्दलीयों को साध कर अपनी राजनीतिक कुशलता साबित कर दी। हम बात कर रहे है ठाकुर रामलाल की। वही ठाकुर राम लाल जो 1957 से 1998 तक 9 बार जुब्बल कोटखाई से विधायक चुने गए। उन्हें विरोधियों ने देवदार के पेड़ खाने वाला सीएम तक कहा। फिर ये ही ठाकुर रामलाल जब आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने तो विरोधियों ने उन्हें लोकतंत्र खाने वाला राज्यपाल कहा।
ठाकुर रामलाल ही वो नेता थे जिन्होंने 18 साल सीएम रहे डॉ यशवंत सिंह परमार की राजनीतिक विदाई का ताना बाना बुना और उन्हें हिमाचल का तिकड़मबाज सीएम कहा गया। ठाकुर को हिमाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीति का जनक कहा जाता है। पहली बार रामलाल ने ही सूबे में राजनीतिक दांव-पेंच दिखाया था और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। साल 1957 में पहली बार ठाकुर रामलाल जुब्बल कोटखाई से विधायक बने। ठाकुर साहब 9 बार विधानसभा पहुंचे और हर बार उन्होंने जुब्बल कोटखाई का प्रतिनिधित्व किया। रामलाल ने हर बार बड़े अंतर से चुनाव में जीत हासिल की। साल 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी और कई दिग्गज चुनाव हार गए थे। उस वक्त भी ठाकुर रामलाल ने जुब्बल कोटखाई से 60 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर जीत हासिल की थी।
28 जनवरी 1977 को हिमाचल निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार इस्तीफा दे देते है। इसे डॉ परमार की समझ कहे या ठाकुर राम लाल की पॉलिटिकल मैनेजमेंट, कि खुद डॉ परमार पार्टी आलाकमान का रुख भांपते हुए ठाकुर रामलाल के नाम का प्रस्ताव देते है। उसी दिन शाम को ठाकुर रामलाल पहली बार हिमाचल के सीएम पद की शपथ लेते है। ऐसा अकस्मात नहीं हुआ था। दरअसल इससे करीब एक सप्ताह पहले ठाकुर रामलाल 22 विधायकों की परेड प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष करवा चुके थे। वैसे भी इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय गांधी के करीबी हो चुके थे। रामलाल, डॉ परमार की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे और उन्होंने संजय के नसबंदी अभियान को अपने क्षेत्र में पूरे जोर- शोर के साथ चलाया था। इसका लाभ भी उन्हें मिला। इस तरह ठाकुर रामलाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। पर करीब तीन माह बाद ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया और बतौर मुख्यमंत्री उनका पहला टर्म समाप्त हुआ।
आपातकाल के बाद देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी और शांता कुमार अगले मुख्यमंत्री बने। पर शांता भी सत्ता का सुख ज्यादा नहीं भोग पाए। फरवरी 1980 में ठाकुर रामलाल ने एक बार फिर अपनी तिकड़मबाजी दिखाई और शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के साथ हो लिए। रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी और ठाकुर रामलाल फिर मुख्यमंत्री बन गए। 1982 में फिर चुनाव हुए और हिमाचल में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को 31 सीटें मिली जो बहुमत से चार कम थी और 6 निर्दलीय विधायक भी चुन कर आये थे। तब तक भाजपा का गठन भी हो चुका था और भाजपा भी शांता कुमार की अगुवाई में सरकार बनाने की जद्दोजहद में जुट गई। तब भाजपा को 29 सीटें मिली थी और दो सीटें जनता पार्टी ने जीती थी। नतीजन सारा दारोमदार निर्दलीय विधायकों पर था। तब एक बार फिर ठाकुर रामलाल की राजनीतिक करामात कांग्रेस के काम आई और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से रामलाल तीसरी बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने।
एक गुमनाम पत्र ने गिरा दी कुर्सी
सीएम ठाकुर रामलाल के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था। इसी बीच जनवरी 1983 में हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश को एक गुमनाम पत्र मिलता है। पत्र में लिखा गया था कि ठाकुर रामलाल के दामाद पद्म सिंह, बेटे जगदीश और उनके मित्र मस्तराम द्वारा जुब्बल-कोटखाई व चौपाल इलाके में सरकारी भूमि से देवदार की लकड़ी काटी जा रही है, जिसकी कीमत करोड़ों में है। न्यायाधीश ने जांच बैठाई, जिसके बाद ठाकुर रामलाल पर खुले तौर पर टिम्बर घोटाले के आरोप लगने लगे। शायद ठाकुर रामलाल इस स्थिति को भी संभाल लेते लेकिन उनसे एक और चूक हो गई जिसका खामियाजा उन्हें सीएम की कुर्सी गंवा कर चुकाना पड़ा। दरअसल ठाकुर रामलाल ने दिल्ली में पत्रकार वार्ता कर ये कह दिया कि उन्हें राजीव गांधी ने आश्वासन दिया है कि उन्हें टिम्बर घोटाले को लेकर परेशान नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजीव गांधी पर आरोप लगने लगे कि वे भ्रष्टाचार के आरोपी का बचाव कर रहे है। नतीजन ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देना पड़ा। दिलचस्प बात ये रही कि जिस तरह डॉ यशवंत सिंह परमार ने इस्तीफा देकर ठाकुर रामलाल का नाम प्रस्तावित किया था, उसी तरह ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव देना पड़ा।
राज्यपाल बनकर भी रहे विवादों में
ठाकुर रामलाल के बतौर मुख्यमंत्री सफर पर तो वीरभद्र सिंह के सत्ता संभालने के बाद ही विराम लग गया था, किन्तु अभी तो ठाकुर रामलाल पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगना बाकी था। कांग्रेस ने रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया था। आंध्र में 1983 में चुनाव हुए थे जिसमें एन टी रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान अगस्त 1983 में एन टी रामाराव उपचार के लिए विदेश चले गए। ठाकुर रामलाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी बाकी थी, सो रामलाल ने कांग्रेस नेता विजय भास्कर राव को बिना विधायकों की परेड के ही सीएम बना दिया। वे इंदिरा के दरबार में अपनी कुव्वत बढ़ाना चाहते थे, पर हुआ उल्टा। एनटी रामाराव वापस वतन लौटे और व्हील चेयर पर बैठ दिल्ली में 181 विधायकों के साथ जुलूस निकाला। कांग्रेस की जमकर थू-थू हुई और रातों रात ठाकुर रामलाल के स्थान पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बना दिया गया। इसके बाद रामलाल ने कांग्रेस छोड़ी, वापस भी आये पर स्थापित नहीं हो पाए।
वीरभद्र को चुनाव हराने वाला नेता
हिमाचल की सियासत में वीरभद्र सिंह से बड़े कद का नेता शायद ही दूसरा कोई हो। वीरभद्र अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे है और उनको हराने वाले थे ठाकुर रामलाल। जब ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से हटाया गया तो वो हिमाचल प्रदेश की सियासत में लौटे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और जनता दल का दामन थाम लिया। साल 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर ने जुब्बल कोटखाई से पर्चा भरा। उनके खिलाफ कांग्रेस ने दिग्गज नेता और सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह मैदान में उतरे। उस विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने वीरभद्र सिंह को चुनाव हराकर साबित कर दिया था कि उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ। दिलचस्प बात ये है कि सीएम बनने के बाद वीरभद्र सिंह इसी सीट से 1983 का उपचुनाव जीते थे और 1985 में इसी सीट से जीतकर दूसरी बार सीएम बने थे।
विरासत को संभाल रहे रोहित ठाकुर
1990 के चुनाव के बाद ठाकुर रामलाल कांग्रेस में वापस लौट आएं। वे 1993 और 1998 का विधानसभा चुनाव फिर जुब्बल कोटखाई सीट से लड़े और जीते भी। साल 2002 में ठाकुर रामलाल का निधन हो गया। उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके पोते रोहित ठाकुर संभाल रहे है। 2003 हुए चुनाव में रोहित ठाकुर पहली बार जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतरे और चुनाव जीते भी। पर साल 2007 का चुनाव रोहित ठाकुर भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र बरागटा से हार गए। साल 2012 में रोहित ने नरेंद्र बरागटा को फिर हराया लेकिन साल 2017 में बाजी पलटी और नरेंद्र बरागटा फिर रोहित ठाकुर को हराकर विधानसभा पहुंचे। हालांकि नरेंद्र बरागटा के स्वर्गवास के बाद पिछले साल हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर ने एक बार फिर जीत दर्ज की। इस बार भी रोहित ठाकुर ने ही जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा है।