दिलचस्प है हिमाचल का सियासी 'सफरनामा'
सिर्फ चार संसदीय सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में सियासत हमेशा किंग साइज रही है। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर इसी हिमाचल प्रदेश से सांसद थी। आपातकाल के बाद 1977 में इसी हिमाचल प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जो 1980 में दल बदल की भेंट चढ़ गई। 1992 में हिमाचल भी उन चार राज्यों में शामिल था, जहाँ 6 दिसंबर को हुए बाबरी विध्वंस के बाद कानून व्यवस्था का हवाला देकर सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था। यानी हिमाचल प्रदेश की सियासत में हमेशा रोमांच भरपूर रहा है।
हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का गौरव अब तक 6 लोगों को मिला है। पहले मुख्यमंत्री डॉ वाईएस परमार जिला सिरमौर से थे। ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह जिला शिमला से, शांता कुमार जिला कांगड़ा से, प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर से और जयराम ठाकुर जिला मंडी से है। यानी प्रदेश के पांच जिलों को अब तक सीएम पद मिला है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को ये तय होगा कि अगली सरकार किसकी बनेगी। यदि प्रदेश में भाजपा सरकार रिपीट करती है तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री भी जयराम ठाकुर ही होंगे। वहीं अगर कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो सीएम पद के दावेदारों की फेहरिस्त लंबी है। कांग्रेस से अब तक सीएम रहे तीनों दिग्गज नेता अब इस दुनिया में नहीं है, सो ये तय है कि कांग्रेस सरकार बनी तो प्रदेश को बतौर सीएम नया चेहरा मिलेगा।
हिमाचल प्रदेश में आखिरी बार 1985 में सरकार रिपीट हुई थी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। उनके बाद कोई रिपीट नहीं कर पाया। हालांकि 1998 में वीरभद्र सिंह ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी लेकिन बहुमत न होने के चलते उनको इस्तीफा देना पड़ा। प्रदेश में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा है, एक बार 1977 में और एक बार 1992 में। 1977 में शांता कुमार के नेतृत्व में पहली बार गठबंधन सरकार बनी लेकिन पांच साल चली नहीं। 1990 में भी भाजपा और जनता पार्टी गठबंधन की सरकार बनी, पर वो भी पांच साल नहीं चली। फिर 1998 में बनी भाजपा -हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार वो पहली गठबंधन सरकार है जो पांच साल चल सकी।
हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर निगाह डालें तो आजादी के बाद 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल अस्तित्व में आया। 26 जनवरी 1950 को हिमाचल को पार्ट सी स्टेट का दर्जा मिला। तब देश में दस पार्ट सी स्टेट थे जिनमें हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर, दोनों शामिल थे। फिर 1 जुलाई 1954 को बिलासपुर हिमाचल का हिस्सा बना। इसके बाद 1 नवंबर 1956 को हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। तदोपरांत 1 नवंबर 1966 को पंजाब के कई हिस्से कांगड़ा समेत हिमाचल में शामिल हुए। 18 दिसंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश एक्ट पास किया गया और आखिरकार 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला।
पार्ट सी स्टेट बनने के बाद 1952 से 1957 तक यशवंत सिंह परमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि इस बीच हिमाचल प्रदेश नवंबर 1956 में टेरिटोरियल काउंसिल बन चुका था। 1957 में हुए चुनाव में कांग्रेस फिर बहुमत के साथ लौटी और ठाकुर करम सिंह टेरिटोरियल काउंसिल के चेयरमैन चुने गए। 1962 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1967 में हुए अगले चुनाव में भी ये कर्म जारी रहा। 1972 का चुनाव आते -आते हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल चुका था और उस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने।
1977 में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार
1977 के विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 53 सीटें जीती थी और यशवंत सिंह परमार फिर मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि 1977 आते -आते हालात बदल चुके थे। देश में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस को लेकर पूरे देश में गुस्सा था और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था। वहीँ चुनाव से कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस ने यशवंत सिंह परमार को हटाकर ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। तब तक प्रदेश में शांता कुमार की अगुवाई में जनता पार्टी भी अपने पाँव मजबूत कर चुकी थी। नतीजन विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को महज 9। उस चुनाव में 6 निर्दलीय जीते थे। चुनाव के बाद शांता कुमार और रणजीत सिंह को बराबर विधायकों का समर्थन प्राप्त था और तब अपने ही वोट से शांता कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने।
1980 में अल्पमत में आ गई शांता सरकार
1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। तब जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार ने इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था जुगनू। तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। इस तरह 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौटी और ठाकुर रामलाल दूसरी बार सीएम बने।
पहले ही चुनाव में टक्कर दे गई भाजपा
1982 के चुनाव से पहले भाजपा का गठन हो चुका था। जनसंघ और आरएसएस विचारधारा के अधिकांश नेता अब भाजपा का चेहरा थे , जिनमें शांता कुमार भी शामिल थे। 1982 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में जबरदस्त टक्कर देखने को मिली। कांग्रेस ने उस चुनाव में 31 सीटें जीती जबकि भाजपा को 29 सीट मिली। जनता पार्टी 2 पर सिमट गई और 6 निर्दलीय विधायकों के हाथ में सत्ता की चाबी आ गई। ठाकुर रामलाल का गुणा भाग फिर काम कर गया और सत्ता कांग्रेस के पास ही रही।
1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट
1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई।
1990 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा
1990 आते -आते भाजपा मजबूत हो चुकी थी और प्रदेश में वीरभद्र सरकार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी व्याप्त थी। देश में राम मंदिर आंदोलन के स्वर भी उठ रहे थे। तब प्रदेश में भाजपा ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा और इस गठबंधन को प्रचंड जीत मिली। भाजपा गठबंधन 57 सीटें जीतने में कामयाब रहा, जबकि कांग्रेस को महज 9 सीटें मिली। चुनाव के बाद शांता कुमार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। हालांकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने तब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारों को कानून व्यवस्था का हवाला देकर बर्खास्त कर दिया था, जिसमे शांता कुमार की सरकार भी थी।
1993 में कर्मचारी लहर भाजपा पर पड़ी भारी
1993 में कांग्रेस के लिए सत्ता की राह आसान थी। दरअसल मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार ने 'नो वर्क नो पे' का फरमान जारी कर प्रदेश के कर्मचारियों से पन्गा ले लिया था। जैसा अपेक्षित था कर्मचारी लहर में भाजपा टिक नहीं सकी और उसे महज आठ सीटों से संतोष करना पड़ा। खुद शांता कुमार चुनाव हार गए। उधर कांग्रेस को 52 सीटें मिली थी। तब पंडित सुखराम भी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के सियासी तिलिस्म के आगे उनका अरमान पूरा नहीं हुआ।
हिमाचल के इतिहास का सबसे रोचक चुनाव
1998 में वीरभद्र सिंह सत्ता वापसी को लेकर आश्वस्त थे और इसलिए उन्होंने समय से कुछ पहले ही चुनाव करवा दिए। उधर, तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह भी अलग हो चुकी थी और पंडित सुखराम अपनी अलग पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन कर चुके थे। पंडित जी को कम आंकना ही शायद वीरभद्र सिंह की भूल थी। जब नतीजा आया तो पंडित सुखराम किंग मेकर की भूमिका में थे। तब तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण चुनाव नहीं हुए थे। कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और हिमाचल विकास कांग्रेस के पास चार विधायक थे। बहुमत का आंकड़ा 33 था और कांग्रेस के पास 31 विधायक थे। उधर पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा को छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। कहानी में ट्विस्ट अभी बाकी था। कहते है रमेश धवाला जब शिमला की तरफ आ रहे थे तो उनका एक तरह से अपहरण हो गया। फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं और उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया। इसके बाद वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया और रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह चौथी बार सीएम बन गए। वीरभद्र सिंह ने जैसे -तैसे सरकार बना तो ली लेकिन सरकार चली नहीं। तब रमेश धवाला को मंत्री पद भी दिया गया और कहते है धवाला को मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। तब भाजपा के प्रभारी थे नरेंद्र मोदी। कहते है धवाला को सीएम हाउस के एक कर्मचारी के जरिये सन्देश भेजा गया और सचिवालय जाते वक्त धवाला गाड़ी के उतर कर भाजपा खेमे में चले गए। सब कुछ तय रणनीति के अनुसार फिल्मी अंदाज में हुआ। इसके बाद भाजपा ने सरकार बनने का दावा पेश किया। राज्यपाल ने पहले तो बीजेपी को मना कर दिया, पर कुछ दिन बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया और सरकार बनाने को आमंत्रित किया। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया जिसमें रमेश धवाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। वीरभद्र सिंह भी समझ चुके थे कि बाजी उनके हाथ से जा चुकी है। जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह राज्य में प्रेम कुमार धूमल की सरकार बन गई। मौसम साफ होने के बाद प्रदेश की तीन सीटों पर चुनाव हुआ और एक सीट पर उपचुनाव। इनमें से तीन सीटें भाजपा जीती और एक हिमाचल विकास कांग्रेस। ऐसे में कांग्रेस की रही -सही उम्मीद भी खत्म हो गई।
2003 : मैडम दिल्ली में थी, शिमला में विधायकों की परेड हो गई
2003 आते -आते प्रदेश के सियासी समीकरण बदल चुके थे। प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर थी और हिमाचल विकास कांग्रेस और भाजपा के बीच भी दूरियां दिखने लगी थी। उस चुनाव में कांग्रेस 43 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी जबकि 16 सीटों पर सिमट कर रह गई। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस 49 सीटों पर चुनाव तो लड़ी लेकिन सिर्फ मंडी सदर सीट पर उसे जीत मिली थी। इस तरह कांग्रेस आसानी से सत्ता में लौटी। दिलचस्प बात ये है कि तब 1993 की तरह ही एक बार फिर कांग्रेस में सीएम पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। माना जाता है तब विद्या स्टोक्स पार्टी आलाकमान के करीब थी और नतीजों के बाद सीएम पद के लिए लॉबिंग भी शुरू कर चुकी थी। प्रदेश में माहौल बना कि शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाएं। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और इधर वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमे से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका।
2007 में भी कायम रहा परिवर्तन का रिवाज
2007 के विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बरकरार रहा। भाजपा तब प्रो प्रेम कुमार धूमल के चेहरे पर चुनाव लड़ी तो कांग्रेस वीरभद्र सिंह के। सत्ता में आने पर दोनों ही तरफ सीएम फेस को लेकर कोई संशय नहीं था। तब सत्ता मिली भाजपा को और पार्टी 41 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं कांग्रेस 23 सीटें ही जीत सकी। उस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भी दमखम से लड़ी। 67 सीटों पर चुनाव लड़ बहुजन समाज पार्टी ने सात प्रतिशत से ज्यादा वोट लिए। हालांकि पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली, पर कई सीटों पर पार्टी ने कांग्रेस का खेल जरूर खराब किया। इस तरह प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक बार फिर केंद्र की सियासत का रुख किया। वीरभद्र सिंह मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े और सांसद बन गए। इसके बाद उन्हें केंद्र में मंत्री पद भी मिला।
इस तरह रिकॉर्ड छठी बार सीएम बने वीरभद्र सिंह
2012 का चुनाव आते -आते वीरभद्र सिंह केंद्र से मंत्री पद त्याग कर प्रदेश में लौट आएं थे। जाहिर है वीरभद्र सिंह की नजर फिर सीएम पद पर थी। उधर कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका था। ठाकुर कौल सिंह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और प्रदेश में कांग्रेस की अगुवाई कर रहे थे। माना जाता है कांग्रेस आलाकमान भी बदलाव के मूड में था। पर वीरभद्र सिंह हार मानने वाले नहीं थे। इस खींचतान का असर कांग्रेस के प्रचार अभियान में भी दिख रहा था। फिर चुनाव से कुछ दिन पहले देखने को मिला वीरभद्र सिंह का मास्टर स्ट्रोक। शिमला में पत्रकार वार्ता कर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। उन्होंने कहा सोनिया गांधी चाहे तो सात दिन में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो सकती है। तब वीरभद्र सिंह ने कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' इशारा साफ था और आलाकमान भी समझ गया। आखिरकार आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। तब कांग्रेस 36 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2012 के बाद से ही देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा। हालांकि 2013 में हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह जीत गई लेकिन 2014 की मोदी लहर में कांग्रेस लोकसभा की सभी चार सीटें हारी।
भाजपा को तो जीता दिया पर धूमल हार गये
18 दिसंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आये और 44 सीटों के साथ भाजपा की सरकार बनी। पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो. प्रेम कुमार धूमल 1911 वोटों से परास्त हो गए। कहते है इस चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी के चलते 30 अक्टूबर को राजगढ़ की रैली में अमित शाह ने धूमल को सीएम फेस घोषित किया। धूमल ने भाजपा को तो जीता दिया लेकिन जनता ने धूमल को ही हरा दिया। इस चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के पांच मंत्री हारे थे। नतीजों के बाद आई मुख्यमंत्री चुनने की बारी। धूमल का दावा हार का बावजूद मजबूत था। कई विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर रहे थे। किन्तु भाजपा आलाकमान बदलाव चाहता था और मौका मिला जयराम ठाकुर को। पांच बार के विधायक और वरिष्ठ नेता जयराम ठाकुर को लेकर कोई विद्रोह नहीं हुआ। इसके बाद कैबिनेट चुनते वक्त भी धूमल की राय को कुछ तवज्जो मिली। पर आहिस्ता-आहिस्ता जयराम ठाकुर मजबूत होते गए और धूमल गुट की उपेक्षा की खबरें सामने आने लगी। बहरहाल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को नतीजे सामने होंगे। अगली सरकार को लेकर अटकलों का दौर जारी है।1985 के बाद से चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलता है या बरकरार रहता है, यह देखना रोचक होगा।