कभी दो बैलों की जोड़ी था चुनाव चिन्ह, जाने कैसे पंजा बना कांग्रेस की पहचान
देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस 135 साल की हो चुकी है। आजादी के बाद पहली बार 1951-52 के पहले लोकसभा चुनावों में कांग्रेस उतरी। ये चुनाव तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस ने लड़ा था और उस वक्त कांग्रेस का चुनाव चिंह पंजा नहीं था बल्कि दो बैलों की जोड़ी थी। तब किसानों और ग्रामीण भारत को जहन में रखकर कांग्रेस ने ये चुनाव चिन्ह चुना था, ताकि बैलों के जरिए वोटरों से कनेक्ट किया जा सके। पर तब से अब तक कांग्रेस कई बार अपना चुनाव चिन्ह बदल चुकी है।
1952 में कांग्रेस ने भारी बहुमत से चुनाव जीता और इसके बाद 1957, 1962 के चुनाव में भी पार्टी विजयी रही। इस दौरान पंडित नेहरू के निधन के बाद लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने पर उनकी ताशकंद में हुई मृत्यु के बाद इंदिरा गांधी की बतौर प्रधानमंत्री एंट्री हुई। तब कांग्रेस का नियंत्रण के कामराज के नेतृत्व एक सिंडीकेट के हाथों में था। इंदिरा को प्रधानमंत्री बनाए जाने के खिलाफ कांग्रेस में एक गुट मजबूत होता जा रहा था। यानी इंदिरा की एंट्री के बाद कांग्रेस की लोकप्रियता में गिरावट और विभाजन का दौर शुरू हो गया था। 1967 के आमचुनाव में कांग्रेस को पहली बार कड़ी चुनौती मिली और पार्टी 520 में 283 सीटें जीत पाई जो उसका सबसे खराब प्रदर्शन था। किसी तरह इंदिरा प्रधानमंत्री तो बनी रहीं लेकिन कांग्रेस की अंर्तकलह खुलकर सामने आ गई और आखिरकार 1969 में कांग्रेस टूट गई। मूल कांग्रेस की अगुवाई कामराज और मोरारजी देसाई कर रहे थे और इंदिरा गांधी ने कांग्रेस (आर) के नाम से नई पार्टी बनाई। हालांकि तब अधिकांश सांसद इंदिरा के साथ थे।
कांग्रेस टूटने के साथ पार्टी के चुनाव चिन्ह पर कब्जे को लेकर भी विवाद शुरू हो गया। कांग्रेस में दो गुट बने, कांग्रेस (ओ) यानि कांग्रेस ओरिजनल और कांग्रेस (आर)। ये दोनों गुट दोनों बैलों की जोड़ी के चुनाव चिंह पर अपना दावा जता रहे थे। मामला भारतीय चुनाव आयोग के पास पहुंचा तो उसने बैलों की जोड़ी का कांग्रेस का सिंबल कांग्रेस (ओ) को दिया। और इंदिरा के कब्जे वाली कांग्रेस के लिए गाय-बछड़ा का चुनाव चिन्ह मिला। इसके बाद1971 के आम चुनाव में इंदिरा की कांग्रेस (आर) गाय - बछड़ा चुनाव चिन्ह के साथ लोकसभा चुनावों में उतरी और उसे 352 सीटें हासिल हुईं। वहीं कांग्रेस के दूसरे गुट को महज 16 सीटें मिलीं। इन नतीजों ने इंदिरा की कांग्रेस ने असली कांग्रेस का रूतबा दिया। इसके बाद इंदिरा गाँधी ने देश में आपातकाल लगा दिया और 1977 का आम चुनाव आते-आते कांग्रेस की स्तिथि बदतर हो गई। 1977 के आम चुनाव में भी कांग्रेस का सिंबल गाय - बछड़ा ही था और इस चुनाव में इंदिरा गांधी को बुरी शिकस्त मिली। कांग्रेस में एक बड़े गुट को लगने लगा कि इंदिरा अब खत्म हो चुकी है, लिहाजा फिर कांग्रेस में फिर इंदिरा गांधी के खिलाफ विद्रोह की स्थिति बन आई।
राजनैतिक हालात को भांपते हुए इंदिरा गाँधी ने जनवरी 1978 में कांग्रेस को फिर तोड़ते हुए नई पार्टी बनाई, जिसे कांग्रेस (आई) का नाम दिया। इंदिरा ने इसे असली कांग्रेस बताया। यानी कांग्रेस फिर दो हिस्सों में विभाजित हो गई। इस विभाजन के बाद इंदिरा गांधी ने चुनाव आयोग से नए चुनाव चिन्ह की मांग की। दरअसल तब गाय-बछड़े का चुनाव चिन्ह देशभर में कांग्रेस के लिए नकारात्मक चुनाव चिन्ह के रूप में पहचान बन गया था। विरोधी गाय को इंदिरा और बछड़े को संजय गांधी करार दे रहे थे माना जाता है कि इंदिरा खुद अब चुनाव चिंह से छुटकारा चाहती थीं। सो जब उन्होंने कांग्रेस को 1978 में तोड़ा तो चुनाव आयोग ने इस सिंबल को फ्रीज कर दिया। इसके बाद इंदिरा की कांग्रेस को हाथ का सिंबल मिला जो हिट साबित हुआ। 1980 के चुनाव में इंदिरा भारी बहुमत से चुनाव जीतकर फिर सत्ता में लौटीं। तब से अब तक कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ ही है।
इंदिरा ने क्यों चुनाव हाथ का चुनाव चिन्ह
कांग्रेस के वर्तमान चुनाव चिन्ह की कहानी भी दिलचस्प है। 1977 में देश से इमरजेंसी खत्म होने के बाद रायबरेली से इंदिरा गांधी चुनाव हार गई। इसके बाद इंदिरा कांचि कामकोटि के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी चन्द्रशेखरेन्द्र सरस्वती से मिलने गईं। कहते है वह काफी देर तक शंकराचार्य से अपनी बात कहती रहीं। पर शंकराचार्य ने उनकी एक भी बात का जवाब नहीं दिया। अंततः इंदिरा ने विदा होने से पहले हाथ जोड़ कर जैसे ही अपना सिर उनके आगे झुकाया शंकराचार्य ने दाहिना हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। बताते हैं कि गांधी ने तत्काल इसी हाथ (पंजा) को अपना चुनाव चिन्ह बनाने का फैसला कर लिया। इंदिरा और शंकराचार्य की इस मुलाकात के बारे में आंध्र प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री एन भास्करराव ने भी अपनी जीवनी में बहुत विस्तार से उल्लेख किया है। उनके अनुसार यह 1978 की बात है। उस समय आंध्र समेत चार राज्यों का चुनाव हो रहे थे। गांधी ने उस समय कांग्रेस-आई की स्थापना की थी और उन्हें चुनाव आयोग में अपना चुनाव चिन्ह बताना था। आंध्र के दौरे पर गई गांधी ने शंकराचार्य से मिलने की इच्छा जताई थी। शंकराचार्य उस समय मदनपल्लै में थे। गांधी भास्कर राव के साथ मदनपल्लै गई। उन्होंने शंकराचार्य से आशीर्वाद मांगा। साथ ही, पार्टी सिंबल के लिए सुझाव भी। शंकराचार्य ने दाहिना हाथ हिलाया। गांधी ने इसे उनका इशारा मान कांग्रेस के झंडे में पंजे को शामिल करने का निर्देश दे दिया। यही बाद में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह बन गया। वहीं इसको लेकर एक कहानी और भी है। कहते है हार के बाद इंदिरा गाँधी भी उत्तर प्रदेश के देवरिया में देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा का आशीर्वाद देने का तरीका निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो जाता था। पर बाबा ने इंदिरा को हाथ उठाकर पंजे से आशीर्वाद दिया। कहते है ये बाबा का इशारा था जिसे इंदिरा समझ गई और वहां से लौटने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा ही तय किया।
अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक का सिंबल था हाथ
कांग्रेस का चुनाव चिन्ह हाथ का सिंबल पहले चुनाव में अखिल भारतीय फॉरवर्ड ब्लॉक (रुईकर ग्रुप) के पास था। किन्तु उसके बाद से इसका इस्तेमाल किसी पार्टी ने नहीं किया था। इसी लिए ये सिंबल कांग्रेस को मिल पाया।