दुनिया छोड़ी तो बैंक में थे 563 रुपये और 30 पैसे
25 जनवरी 1971, कड़कड़ाती ठंड के बावजूद शिमला का रिज मैदान लोगों से खचाखच भरा था। बर्फ के फाहे गिर रहे थे, मगर जनता अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थी। इंतजार था देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का। इंतजार था हिमाचल प्रदेश के भारतीय गणराज्य के 18वां राज्य बनने का। ठंड थी, तो लगा शायद मैडम आज न पहुँच पाए। पर जोश इतना कि लोग इंतज़ार करते रहे और आखिरकार मैडम प्राइम मिनिस्टर आई भी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वहां पहुंची और बर्फ के फाहों के बीच हिमाचल प्रदेश के पूर्ण राज्यत्व की घोषणा राजधानी शिमला के रिज मैदान के टका बैंच से की।
हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए एक शख्स ने कड़ी मेहनत की थी। ये वो इंसान था जो अंग्रेज़ो से भी लड़ा और अपने ही देश के रियासती शासकों से भी। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश के निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार की। कहते है अगर डॉक्टर परमार न होते तो हिमाचल, हिमाचल न होता। डा. परमार ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने प्रदेश का इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल कर रख दिया था। इसका जीता जागता प्रमाण पूर्ण राज्य के रूप में प्रदेशवासियों के सामने है। वो परमार ही थी जिनके बूते प्रदेश की सीमाओं को और बड़ा कर दिया गया था, वो भी उस वक्त जब प्रदेश को पंजाब में मिलाने की पुरजोर बात चल रही थी। अंग्रेजों और रियासती शासन के खिलाफ मुखर रहने वाले डॉ. परमार पहाड़ और पहाड़ियों के हितों के लिए भी हमेशा संजीदगी के साथ सक्रिय रहे। बात चाहे हिमाचल के गठन की हो या फिर पूर्ण राज्यत्व का दर्जा दिलाने की, उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता।
कहते है सियासत महाठगिनी है, ये कब किस ओर पलट जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। डॉ परमार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 28 जनवरी 1977 के दिन सियासत का पहिया घूमा और प्रदेश निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार को बतौर मुख्यमंत्री अपना त्याग पत्र देना पड़ा। जो शख्स चंद मिनटों पहले मुख्यमंत्री था, जिसने हिमाचल के निर्माण में अमिट योगदान दिया था, या यूँ कहे कि जिसकी वजह से हिमाचल का गठन संभव हो पाया था वो प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं रहे। इसके बाद यशवंत सिंह परमार शिमला बस स्टैंड पहुंचे, वहां खड़ी सिरमौर जाने वाली एचआरटीसी की बस में बैठे, टिकट लिया और अपने गांव बागथन के लिए रवाना हो गए। 18 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद इस्तीफा देकर बस से वापस घर लौटने वाला सीएम, शायद ही हिन्दुस्तान में दूसरा कोई होगा। डॉ यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा, कि उनके अंतिम समय में उनके बैंक खाते में महज 563 रुपये और 30 पैसे थे। प्रदेश निर्माण करने वाले मुख्यमंत्री ने न तो खुद के लिए कोई मकान बनवाया, न कोई वाहन खरीदा और न ही अपने पद और ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की नौकरी लगवाई।
जज की नौकरी त्यागी और प्रजामण्डल आंदोलन में हुए शामिल
रजवाड़ा शाही के दौर में सिरमौर रियासत के राजा के वरिष्ठ सचिव हुआ करते थे शिवानंद सिंह भंडारी। उन्हीं भंडारी के घर चार अगस्त 1906 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम खुद राजा द्वारा यशवंत सिंह रखा गया। उनका जन्म बागथन क्षेत्र के चन्हालग गांव में हुआ था। यह गांव अब ग्राम पंचायत लानाबांका के तहत आता है। बचपन से ही यशवंत पढ़ाई में तेज थे। डॉ. परमार की माता का नाम लक्ष्मी देवी था। कहते है कि लोक संस्कृति और पारंपरिक खानपान के प्रति डॉ. यशवंत सिंह परमार का विशेष लगाव रहा तो यह उनकी मां से मिले संस्कार की बदौलत संभव हुआ। डॉ. परमार की शुरुआती शिक्षा शमशेर हाई स्कूल नाहन से हुई। क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिए कोई कॉलेज नहीं था, तो उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज दाखिला लिया। 1928 में बीए ऑनर्स किया। पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से डिग्री लेने के बाद उन्होंने कैनिंग कॉलेज लखनऊ में प्रवेश लिया। लखनऊ के इस कॉलेज से समाज शास्त्र में एमए किया। इसके बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री हासिल की। साथ ही डॉक्ट्रेट भी की। डॉक्ट्रेट का विषय था 'द सोशल एंड इकोनॉमिक बैक ग्राउंड ऑफ द हिमालयन पॉलिएड्री', यानी बहुपति प्रथा। खेर, शिक्षा पूर्ण करने के बाद परमार वापस अपने गृह क्षेत्र सिरमौर आ गए, जहां उन्हें सिरमौर रियासत में बतौर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। 1937 से 1940 तक परमार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालते रहे। वर्ष 1941 में डॉ. परमार ने राज्य की सेवाओं से इस्तीफा दे दिया। दरअसल सिरमौर रियासत के सब-जज और बाद में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति मिलने के बावजूद परमार ने गलत को गलत कहने से गुरेज़ नहीं किया। परमार ने रियासत के विरुद्ध ही एक क्रांतिकारी एवं निर्भीक निर्णय पारित किया जिसके कारण 1941 में सात वर्ष के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया। ये वो दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत के दिन ढलने लगे थे और आज़ादी का आंदोलन प्रखर हो रहा था। परमार भी आजादी के मतवालों के संपर्क में आ गए। इस दौरान शिमला हिल स्टेट्स प्रजामंडल का भी गठन हुआ, जिसमें परमार भी सक्रिय रूप से शामिल हो गए। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को हिन्दुस्तान स्वतंत्र हो गया, किन्तु पहाड़ी रियासतों का हिन्दुस्तान में विलय नहीं हुआ। पंजाब हिल स्टेट के तहत पड़ने वाली पाँच बड़ी रियासतों-चम्बा, मंडी, बिलासपुर, सिरमौर और सुकेत के अलावा शिमला हिल स्टेट के नाम से जानी जाने वाली 27 छोटी रियासतों में गुलामी का अंधकार छाया रहा। परमार हमेशा चाहते थे कि इन रियासतों का भी विलय हो। यह उनकी दूरदर्शी सोच ओर अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि 26 जनवरी 1948 को शिमला में आयोजित हुई सार्वजनिक सभा में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व से अनुरोध किया गया कि यहां की सभी पहाड़ी रियासतों को इकट्ठा करके, एक नए राज्य का गठन किया जाए।
इसलिए कहलाते है प्रदेश निर्माता
28 जनवरी 1948 को सोलन के दरबार हॉल में 28 रियासतों के राजाओं की बैठक हुई जिसमें सभी ने पर्वतीय इलाकों को रियासती मंडल बनाने का प्रस्ताव पारित कर इसे 'हिमाचल' का नाम अनुमोदित किया गया। हालांकि डॉ परमार प्रदेश का 'हिमालयन एस्टेट' नाम रखना चाहते थे, किन्तु बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह व अन्य कुछ राजा 'हिमाचल' नाम पर अड़ गए, जिसके बाद प्रदेश का नाम हिमाचल प्रदेश रखा गया। ये नाम पंडित दिवाकर दत्त शास्त्री द्वारा सुझाया गया था। बैठक के प्रजा मंडल का प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिला और आखिरकार 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों को मिलाकर हिमाचल राज्य का गठन हुआ। तब इसे मंडी, महासू, चंबा और सिरमौर चार जिलों में बांट कर प्रशासनिक कार्यभार एक मुख्य आयुक्त को सौंपा गया। बाद में इसे 'सी' केटेगरी राज्य बनाया गया। पर डॉ परमार का सपना अभी अधूरा था। डॉ. परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना चाहते थे, जिसके लिए अब वह अपने साथियों के साथ राजनीतिक संघर्ष में जुट गए।
1977 तक रहे सीएम
देश के पहले आम चुनाव के साथ ही वर्ष 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसके बाद डॉ परमार प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और वर्ष 1977 तक मुख्यमंत्री रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. परमार ने हिमाचल के चहुँमुखी विकास के लिए रात-दिन एक कर दिया। उठते-बैठते, सोते-जागते उन्हें इस पर्वतीय क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने के साथ ही इसे एक सुदृढ़ रूप-आकार देने की धुन सवार रहती थी। इसी क्रम में उन्हें अपने ही प्रदेश के चम्बा जिला और महासू जिले के सोलन क्षेत्र में जाने के लिए दूसरे प्रदेश से होकर जाने की मजबूरी बहुत पीड़ा देती थी। इसके अतिरिक्त वे पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, शिमला तथा हिन्दीभाषी पर्वतीय क्षेत्रों के अपूर्ण विकास के प्रति भी अत्यधिक चिन्तित रहते थे। जहाँ चाह हो वहाँ राह न निकले, यह नहीं हो सकता। फलस्वरूप 1965 में हिमाचल तथा पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकरण करते हुए पंजाब राज्य पुनर्गठन का प्रस्ताव लाया गया, लेकिन पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र को हिमाचल में शामिल किये जाने के विरुद्ध थे। अंततः पंजाब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ। इसके अनुसार पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जिलों के साथ ही अंबाला जिले का नालागढ़ उप-मंडल, जिला होशियारपुर की ऊना तहसील का कुछ भाग और जिला गुरुदासपुर के डलहौजी व बकलोह क्षेत्र को हिमाचल में शामिल कर दिया गया। इस बीच नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों का भी हिमाचल में विलय हुआ और वर्तमान हिमाचल का गठन हुआ। आखिरकार 25 जनवरी,1971 का दिन आया और डॉ परमार का स्वप्न पूरा हुआ। तब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी और उस दिन काफी बर्फबारी हो रही थी। इंदिरा गांधी बर्फबारी के बीच शिमला के रिज मैदान पहुंची और हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की। डॉ. परमार 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने प्रदेश के विकास के लिए काफी काम किया। हिमाचल में सड़कों का जाल बिछाने का श्रेय यशवंत परमार को ही जाता है। वो सड़कों को पहाड़ की भाग्य रेखा कहते थे। इसके अलावा भी कई ऐसे काम किए जो हिमाचल के विकास और निर्माण में सहायक हुए।
हिमाचलियों के हितों की रक्षा के लिए लागू की 118
आजकल धारा 118 को लेकर हिमाचल में खूब बवाल मचा है। धारा 118 डॉ परमार की ही देन है। डॉक्टर परमार से कुछ ऐसे लोग मिले थे, जिन्होंने अपनी जमीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसके चलते उन्हें डर था कि अन्य राज्यों के धनवान लोग हिमाचल में भूस्वामी बन जाएंगे और हिमाचल प्रदेश के भोले भाले लोग अपनी जमीन खो देंगे। इसलिए 1972 में हिमाचल प्रदेश में एक विशेष कानून बनाया गया था, ताकि ऐसा न हो। हिमाचल प्रदेश टेनंसी एंड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस एक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड’ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक’ है।
सिर्फ तीन प्राथमिकताएं, सड़क , सड़क और सड़क
डॉ. यशवंत सिंह परमार दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी थे। मुख्यमंत्री रहते उनसे जब केंद्र सरकार ने पूछा कि हिमाचल के लिए उनकी तीन प्राथमिकताएं क्या-क्या हैं तो वह बोले-सड़क, सड़क और सड़क। परमार मानते थे कि जब तक राज्य के गांवों की कनेक्टिविटी नहीं होगी, तब तक यहां पर विकास संभव नहीं है। सड़कें ही पहाड़ी राज्य में लाइफलाइन है और विकास के लिए पहली जरूरत भी।
संजय गांधी की राजनीति में फिट नहीं बैठे डॉ परमार
डॉ यशवंत सिंह परमार प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के करीबी थे। किन्तु कहा जाता है संजय गाँधी की राजनीति में वे फिट नहीं बैठे। वहीं इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय के करीबी हो गए, ऐसा इसलिए भी था क्योंकि संजय के नसबंदी अभियान में ठाकुर रामलाल ने बढ़चढ़ कर योगदान दिया था। इमरजेंसी हटने के बाद ठाकुर रामलाल ने अपने समर्थक विधायकों की परेड दिल्ली दरबार में करवा दी। इसके बाद डॉ परमार भी समझ गए कि अब बतौर मुख्यमंत्री उनका सफर समाप्त हो चुका है और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। 2 मई 1981 को डॉ परमार ने अपनी अंतिम सांस ली।
राजनीतिक सफर पर एक नजर
1946 में डॉ. परमार हिमाचल हिल्स स्टेटस रिजनल कॉउन्सिल के प्रधान चुने गए। 1947 में ग्रुपिंग एंड अमलेमेशन कमेटी के सदस्य व प्रजामंडल सिरमौर के प्रधान रहे। उन्होंने सुकेत आंदोलन में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया और प्रमुख कार्यों में से एक रहे। 1948 से 1950 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। 1950 में हिमाचल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। अपने सक्षम नेतृत्व के बल पर 31 रियासतों को समाप्त कर हिमाचल राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आज पहाड़ी राज्यों का आदर्श बनने की ओर अग्रसर है। डॉ. परमार 1952 में प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। 1956 में वे संसद सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। 1962 में दोबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 24 जनवरी, 1977 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इसके चार वर्ष पश्चात 2 मई, 1981 को हिमाचल के सिरमौर डॉ. परमार ने दुनिया को अलविदा कह दिया।
लेखक भी थे परमार
राजनीति के अलावा डॉ. परमार को साहित्य में दिलचस्पी थी। वो न सिर्फ़ किताबें पढ़ना पसंद करते थे, बल्कि ख़ुद भी एक लेखक थे। उन्होंने अपने जीवन में 8 किताबें लिखी। इनमें पालियेन्डरी इन द हिमालयाज, हिमाचल पालियेन्डरी इटस शेप एण्ड स्टेटस, हिमाचल प्रदेश केस फार स्टेटहुड और हिमाचल प्रदेश एरिया एण्ड लैंग्वेजेज जैसी नामक शोध आधारित पुस्तकें भी शामिल है। वह पर्यावरण प्रेमी थे। एक भाषण मे उन्होंने कहा था .. "वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है, सरमाया है। इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल में करनी है, नंगे पहाड़ों को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हो, जो पशुओं को चारा दे, उनसे बालन मिले और बड़े होकर इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी दे। वानिकी से पूरे प्रदेश मे संपन्नता आएगी।"
ये है परमार का सत्यानंद स्टोक्स से कनेक्शन
डॉ यशवंत सिंह परमार ने दो शादियां की। 26 जनवरी 1924 को चंद्रावती चौहान से उनका विवाह हुआ। उनके चार पुत्र है, जितेंद्र सिंह परमार, जयपाल सिंह परमार, लव परमार और कुश परमार थे। कुश परमार नाहन से विधायक रह चुके हैं। 1969 में चंद्रावती का निधन हो गया। इसके बाद वर्ष 1974 में डॉ यशवंत सिंह परमार ने सत्यवती डांग से दूसरी शादी की। सत्यवती हिमाचल में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बेटी थी। वे भी विवाहिता थी और पहली शादी से उन्हें दो बेटियां थी। सत्यवती डांग भी कांग्रेस में सक्रिय थी और वे राज्यसभा सांसद भी रही है।