कांगड़ा से मिलता है 'सत्ता सुहागन' का आर्शीवाद, यहां से ही जाता है ओकओवर का रास्ता
कहते है कांगड़ा वो जिला है जो सत्ता तक पहुंचाने की ही नहीं, बल्कि नेताओं की खाट खड़ी करने की भी कुव्वत रखता है। कांगड़ा की सियासी बैटल फील्ड में बड़े-बड़ो के नाक से धुंआ निकल जाता है। इतिहास तस्दीक करता है कि जो काँगड़ा को न भाया, उसका प्रदेश की सत्ता से पांच साल का वनवास तय समझो। आबादी के हिसाब से सबसे बड़े जिले काँगड़ा से चुनकर आए 15 विधायक सरकार बनाने और गिराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, ये बात सभी राजनीतिक दल बखूबी जानते है और इसीलिए काँगड़ा की सियासी रणभूमि में सेंधमारी की तैयारी अभी से शुरू हो गई है। काँगड़ा में सत्ता वापसी को कांग्रेस प्रयासरत है, तो भाजपा सत्ता को अनवरत रखने के लिए। वहीं आम आदमी पार्टी भी भरपूर प्रयास का रही है। पिछले कुछ समय से काँगड़ा में मुख्यमंत्री के ताबड़तोड़ दौरे हो रहे है और आगामी कुछ वक्त में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित अन्य बड़े नेता भी काँगड़ा पहुंचेंगे। काँगड़ा का हर विधानसभा क्षेत्र ज़रूरी है और इसके लिए हर राजनीतिक दल अलग-अलग माइक्रो प्लान तैयार कर रहा है।
पिछले चुनाव की बात करें तो जिला की 15 में से 11 सीटों पर भाजपा ने कब्ज़ा जमाया था। कांग्रेस को सिर्फ तीन सीटें मिली थी और एक सीट पर निर्दलीय प्रत्याशी ने जीत दर्ज की थी। अब मिशन रिपीट के लिए भाजपा को पुराना प्रदर्शन दोहराना होगा, वहीँ कांग्रेस को अगर सत्ता वापसी करनी है तो उसे भी कांगड़ा में दमखम दिखाना होगा।
2017 के विधानसभा चुनाव में जिला कांगड़ा की 11 सीटें जीतने के बाद जिला को चार कैबिनेट मंत्री पद मिले। विपिन सिंह परमार को स्वास्थ्य, किशन कपूर को खाद्य आपूर्ति, सरवीण चौधरी को शहरी विकास और विक्रम सिंह को उद्योग मंत्रालय मिला। यानी जयराम कैबिनेट में जिला कांगड़ा को दमदार महकमे मिले। इसके बाद 2019 में किशन कपूर सांसद बनकर लोकसभा चले गए। जबकि विपिन सिंह परमार से मंत्री पद लेकर उन्हें माननीय विधानसभा स्पीकर बना दिया गया। तदोपरांत 2020 में हुए मंत्रिमंडल विस्तार में सरवीन चौधरी से शहरी विकास जैसा महत्वपूर्ण महकमा लेकर उन्हें सामाजिक न्याय मंत्रालय का ज़िम्मा दे दिया गया। वहीँ राकेश पठानिया की कैबिनेट में वन, युवा एवं खेल मंत्री के तौर पर एंट्री हुई। विक्रम सिंह ही एकमात्र ऐसे मंत्री है जो शुरू से जयराम कैबिनेट में बने हुए है और जिनका वजन भी बढ़ा है। मंत्रिमंडल विस्तार में उनके पोर्टफोलियो में परिवहन जैसा महत्वपूर्ण महकमा भी जोड़ दिया गया। वर्तमान में तीन मंत्रिपद और विधानसभा स्पीकर का पद कांगड़ा के हिस्से में है। सियासी माहिर मानते है कि स्वास्थ्य और शहरी विकास जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय छीनने की टीस जरूर कहीं न कहीं कांगड़ा में मन में रह सकती है।
कांग्रेस की ओबीसी वोट पर निगाहें :
जिला कांगड़ा में ओबीसी वोट बैंक का अच्छा प्रभाव है। अमूमन हर सीट पर ओबीसी वोट जीत -हार का अंतर पैदा कर सकता है। काजल को मजबूत करके कांग्रेस की नज़र इसी वोट बैंक पर है। ओबीसी वर्ग की बात करें तो कांग्रेस के पास चौधरी चंद्र कुमार के रूप में भी एक मजबूत चेहरा हैं और पवन काजल भी उन नेताओं में शुमार है जिनके समर्थक हर क्षेत्र में है। ऐसे में पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाना कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध हो सकता है।
कांगड़ा किसी को नहीं बक्शता, यहां दिग्गज धराशाई होते है !
जो कांगड़ा फ़तेह नहीं कर पाता उसे सत्ता हासिल नहीं होती। वर्ष 1985 से ये सिलसिला चला आ रहा हैं। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली। यानी 1985 से 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव में प्रदेश की सत्ता में जिला कांगड़ा का तिलिस्म बरकरार रहा हैं। इससे पहले 1982 के चुनाव में भाजपा को 10 सीटें मिली थी लेकिन प्रदेश में सरकार कांग्रेस की बनी थी।
जिला कांगड़ा का सियासी मिजाज समझना बेहद मुश्किल हैं। कांगड़ा वालों ने मौका पड़ने पर किसी को नहीं बक्शा, चाहे मंत्री हो या मुख्यमंत्री। जो मन को नहीं भाया उसे कांगड़ा वालों ने घर बैठा दिया। अतीत पर नज़र डाले तो 1990 में जब भाजपा - जनता दल गठबंधन प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हुआ तब शांता कुमार ने जिला कांगड़ा की दो सीटों से चुनाव लड़ा था, पालमपुर और सुलह। जनता मेहरबान थी शांता कुमार को दोनों ही सीटों पर विजय श्री मिली थी। पर 1993 का चुनाव आते -आते जनता का शांता सरकार से मोहभंग हो चूका था। नतीजन सुलह सीट से चुनाव लड़ने वाले शांता कुमार खुद चुनाव हार गए। वहीँ पिछले चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के दो दमदार मंत्री सुधीर शर्मा और जीएस बाली को भी हार का मुँह देखना पड़ा।
भारी पड़ा था माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा :
2012 में भाजपा की प्रेम कुमार धूमल सरकार के मिशन रिपीट में कांगड़ा बाधा बना था। तब भाजपा तीन सीटें ही जीत पाई थी। तब प्रो धूमल ने माइनस कांगड़ा सरकार बनाने का दावा किया था, जो बड़ी चूक साबित हुई। तब भाजपा को प्रदेश में 26 सीटें मिली थी और कांगड़ा में बेहतर कर कांग्रेस का आंकड़ा 36 पर पहुंचा था।
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जिसका कांगड़ा, उसकी सत्ता :
वर्ष कुल सीट कांग्रेस भाजपा अन्य
1985 16 11 3 2
1990 16 1 12 3 ( जनता दल जिसका भाजपा के साथ गठबंधन था )
1993 16 12 3 1
1998 16 5 10 1
2003 16 11 4 1
2007 16 5 9 2
2012 15 10 3 2
2017 15 3 11 1
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पालमपुर : क्या भाजपा भेद पाएगी बुटेल परिवार का बुलेटप्रूफ किला
पालमपुर यूँ तो भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार का गृह क्षेत्र है, मगर मौजूदा समय में यहां भाजपा की स्थिति सहज नहीं दिखती। 1990 में यहां शांता कुमार विधानसभा का चुनाव जीते थे लेकिन उसके बाद 1993 से लेकर साल 2007 तक ये सीट कांग्रेस के बृज बिहारी लाल बुटेल के नाम रही। फिर 2007 में जनता ने एक मौका भाजपा को दिया पर, अगली बार फिर बुटेल परिवार की वापसी हुई। 2012 से 2017 तक फिर बृज बिहारी लाल बुटेल विधायक रहे। जबकि वर्तमान में उनके बेटे आशीष बुटेल पालमपुर से विधायक है।
भाजपा की कोई भी सियासी बुलेट फिलवक्त बुटेल परिवार के इस किले को भेदती नहीं दिख रही। पालमपुर में बुटेल परिवार के वर्चस्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2017 में पहला चुनाव लड़े आशीष ने भाजपा की वरिष्ठ नेता व वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी को 4324 मतों से हराया था। इसके बाद पालमपुर नगर निगम चुनाव में भी भाजपा को यहां करारी शिकस्त मिली। अब भी पालमपुर में भाजपा सहज नहीं दिखाई देती। स्थानीय भाजपा नेताओं की आपसी खींचतान जगजाहिर है। वर्तमान में वूल फेडरेशन के चेयरमैन त्रिलोक कपूर यहां से भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार है, जबकि कांग्रेस में आशीष बुटेल ही प्राइम फेस है।
बैजनाथ : पंडित संतराम के गढ़ में वापसी की जद्दोजहद में कांग्रेस
90 के दशक में काँगड़ा की सियासत में बैजनाथ विधानसभा क्षेत्र की तूती बोला करती थी। ये वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे दिग्गज नेता पंडित संत राम का गढ़ रहा है। पहले यहां पंडित संत राम का बोल बाला रहा और फिर उनके बेटे और कांग्रेस नेता सुधीर शर्मा का। हालाँकि 2012 ये सीट रिज़र्व हो गई और सुधीर शर्मा ने धर्मशाला का रुख किया। 2012 में कांग्रेस नेता किशोरी लाल ग्राम पंचायत प्रधान से विधायक बने, पर पांच साल बाद 2017 में ही जनता का मोहभंग हो गया और भाजपा के मुल्कराज विधायक बने। बैजनाथ की ज़मीनी स्थिति की बात करें तो संभव है यहां भाजपा टिकट बदलने पर विचार करें। वैसे मुल्कराज का दावा भी कमजोर नहीं माना जा सकता। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस से पूर्व विधायक किशोरी लाल पूरी तरह मैदान में डटे हुए दिखाई दे रहे है, हाल ही में उन्हें पीसीसी का उपाध्यक्ष भी बनाया गया है। हालाँकि यहां कांग्रेस टिकट को लेकर त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिल सकता है। किशोरी लाल के भतीजे ऋषभ पांडव और पूर्व भाषा अधिकारी व सुधीर शर्मा के करीबी त्रिलोक सूर्यवंशी भी चुनाव लड़ने के लिए तैयार दिख रहे है। दोनों का ही जनसम्पर्क अभियान जारी है।
जयसिंहपुर : अगर अंतर्कलह से बची तो ही जीत पाएगी कांग्रेस
2008 में परिसीमन बदलने के बाद अस्तित्व में आया ये विधानसभा क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित है। 2012 में यहां कांग्रेस नेता यदविंदर गोमा विधायक बने तो, 2017 में भाजपा नेता रविंद्र धीमान ने गोमा को 10 हजार से अधिक मतों से हराया। वर्तमान में भी रविंदर धीमान ही जयसिंहपुर से भाजपा का मुख्य चेहरा है। हालंकि यहां कांग्रेस को इस बार टिकट आवंटन में कठिनाई हो सकती है। कांग्रेस की ओर से यहां पूर्व विधायक यादविंद्र गोमा तो मैदान में है ही, पर कांग्रेस के ओर नेता सुशील कॉल भी चुनाव लड़ने के इच्छुक दिखाई दे रहे है। यदि कांग्रेस अंतर्कलह से बच पाई तो ही जयसिंहपुर में बेहतर कर पाएगी। वहीं कुछ समय से आम आदमी पार्टी भी इस क्षेत्र में खूब एक्टिव दिखाई दे रही है।
सुलह : यहां की जनता को परिवर्तन पसंद , इस बार क्या होगा ?
1998 के बाद से सुलह विधानसभा क्षेत्र की सत्ता भी प्रदेश की सत्ता के साथ बदलती रही है। 1998 के बाद से अब तक सुलह में हर पांच साल में परिवर्तन हुआ है। पिछले 24 सालों में यहां कभी विधायक भाजपा नेता विपिन सिंह परमार रहे तो कभी कांग्रेस नेता जगजीवन पाल। सबसे बड़े विधानसभा क्षेत्र का गौरव लिए सुलह की आबादी पौने दो लाख है। वर्तमान में विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार सुलह से विधायक है, हालांकि ये भी एक सत्य है कि अब तक सुलह की जनता मंत्री पद लिए जाने के गम को भूला नहीं पाई है। 2017 में विपिन सिंह परमार चुनाव जीते तो उन्हें स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया, हालाँकि 2019 में उन्हें मंत्री पद से हटाकर विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया। विपिन सिंह परमार अपने क्षेत्र में प्रोएक्टिव ज़रूर है लेकिन सियासी माहिरों का मानना है कि मंत्री पद वापस लेना भाजपा को चुनाव में भारी पड़ सकता है। यहां ये जहन में रखना भी जरूरी है कि इस क्षेत्र में करीब 35 फीसद तबका ओबीसी वर्ग का है। ऐसे में यहां ओबीसी वोट निर्णायक है।
नगरोटा बगवां : अब बाली पुत्र से होगा कुक्का का मुकाबला
'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर' , 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। अब खुद बाली दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके पुत्र रघुवीर बाली कांग्रेस की अगुवाई करते दिख रहे है। वहीँ अरुण कुमार कुक्का भाजपा का प्राइम फेस बने हुए है। ऐसे में आगामी चुनाव में संभवतः जूनियर बाली और कूका के बीच टक्कर देखने को मिले। नगरोटा बगवां विधानसभा क्षेत्र का विकास प्रदेश भर में चर्चा का विषय रहा है। टांडा मेडिकल कॉलेज, राजीव गांधी राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, परिवहन निगम का डिपो व आरएम कार्यालय, सिविल अस्पताल और ऐसे अन्य कई बड़े काम स्वर्गीय जीएस बाली की फेहरिस्त में शामिल हैं। अब उनके पुत्र रघुवीर अपने पिता द्वारा कराए गए कार्यों के सहारे उनकी सियासी विरासत सँभालते दिख रहे है। उधर भाजपा की बात करे तो अरुण कुमार कुक्का ही भाजपा का प्राइम फेस है। 2012 जीएस बाली ने कुक्का को 2743 वोटों से हराया था। फिर 2017 में कुक्का ने बाजी पलटी और भाजपा टिकट पर चुनाव लड़ बाली को पटकनी दी।
कांगड़ा : कांग्रेस के पास काजल का नूर, भाजपा की तलाश जारी
कांगड़ा विधानसभा क्षेत्र ओबीसी बाहुल होने के कारण हर चुनाव में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इस क्षेत्र में घिरथ जाति का खासा प्रभाव रहा है और यह इस क्षेत्र की हकीकत है कि जिस प्रत्याशी ने इनको साध कर अपनी रणनीति बनाई है , वो चुनाव जीतने में सफल रहा। हालांकि इस विधानसभा क्षेत्र में राजपूत और ब्राह्मण मतदाता भी हैं, लेकिन दोनों ही समुदाय चुनाव मैदान में गठजोड़ पर विफल रहे हैं।
वर्तमान में इस क्षेत्र में विधायक पवन काजल का ही प्रभाव दिखाई दे रहा है। पवन काजल अपने क्षेत्र में तो लोकप्रिय है ही, कांग्रेस संगठन में भी उनका कद लगातार बढ़ रहा है। खास बात ये है कि अब काजल कांगड़ा में कांग्रेस का प्राइम फेस बनते दिख रहे है। वहीं भाजपा में टिकटार्थियों की लम्बी फेहरिस्त काँगड़ा में है। यहां से पूर्व विधायक संजय चौधरी, कांग्रेस छोड़ भाजपा में शामिल हुए पूर्व विधायक सुरेंदर काकू और जयराम ठाकुर के करीबी मुनीश शर्मा भी भाजपा टिकट के तलबगार है।
देहरा : होशियार असरदार, दोनों तरफ कई तलबगार
देहरा में दोनों ही मुख्य राजनैतिक दलों में टिकट को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। वर्तमान में निर्दलीय होशियार सिंह यहां से विधायक है और वे कई मौकों पर खुलकर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की शान में कसीदे पढ़ते रहे है। होशियार सिंह भाजपा से टिकट चाहते है लेकिन स्थानीय भाजपा का एक गुट उनके विरोध में है। हालांकि क्षेत्र में होशियार सिंह की पकड़ को लेकर कोई संशय नहीं है। पूर्व विधायक और भाजपा के वरिष्ठ नेता रविंद्र सिंह रवि को भी संभावित उम्मीदवार के रूप में देखा जाता है पर देहरा में उठ रहा धरतीपुत्र का नारा जरूर उनकी राह में रोड़ा बन सकता है। वहीं, पार्टी के संगठनात्मक जिला देहरा के जिला अध्यक्ष संजीव शर्मा, पूर्व एचपीएमसी के निदेशक रहे विवेक पठानिया, वन निगम बोर्ड के निदेशक नरेश चौहान, प्रवक्ता अमित राणा, भाजपा प्रदेश कार्यसमिति सदस्य डॉक्टर सुकृत सागर भी भाजपा से टिकट चाहवानों की इस पंक्ति में शुमार हैं। बात करें कांग्रेस की तो पिछली बार कांग्रेस की वरिष्ठ नेता विप्लव ठाकुर ने देहरा विधानसभा से चुनाव लड़ा था, पर वह अपनी जमानत तक नहीं बचा पाई थी। इसी बीच उनकी बेटी के भी यहां से चुनाव लड़ने की चर्चा थी, पर इसे उन्होंने सीधे तौर पर नकार दिया । वे देहरा कांग्रेस ब्लॉक अध्यक्ष हरिओम शर्मा की पैरवी करती दिख रही है। वहीं कांग्रेस के ही दिग्गज नेता योगराज इस चुनावी रण में एक बार फिर उतरने को तैयार दिख रहे हैं। देहरा में एक नाम और चर्चा में है, वो है प्रदेश कांग्रेस के कोषाध्यक्ष डॉ राजेश शर्मा का। क्षेत्र में डॉ राजेश की बढ़ती सक्रियता को उनकी दावेदारी से जोड़ कर देखा जा रहा है।
शाहपुर: एक दूसरे के लिए धूमकेतु मेजर -केवल, सरवीन के लिए कुर्सी - सेतु
शाहपुर विधानसभा क्षेत्र की सियासत भी शाही है। कांग्रेस से पहले यहां मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता था। मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल पठानिया की कांग्रेस में एंट्री हुई। कहते है कि यहां केवल और मेजर की आपसी लड़ाई में बाज़ी हर बार सरवीन जीत लेती है। हर बार एक दूसरे के लिए धूमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल, सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं, इस फेर में केवल एक बार अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे तो फिर दोबारा हार के हार पहनने को मजबूर हो गए। अब इस बार फिर यहां त्रिकोणीय घमासान के आसार है, हालांकि मेजर अगर धर्मशाला का रुख करें तो कांग्रेस को कुछ सुकून मिल सकता है।
फतेहपुर : विरोधियों के लिए आसां नहीं होगा भवानी की जय रोकना
कांग्रेस के दिग्गज नेता सुजानसिंह पठानिया का गढ़ रहे फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र की कमान अब उनके बेटे भवानी सिंह पठानिया के हाथ में है। उपचुनाव जीतकर भवानी ने ये साबित कर दिया कि वो सिर्फ वित्तीय समझ ही नहीं बल्कि सियासी सूझबूझ भी रखते है। भारी अंतर्कलह के बावजूद भवानी ने न सिर्फ उपचुनाव जीतकर सीट कांग्रेस की झोली में डाली, बल्कि अब वो अपनी कार्यशैली से भी प्रभावित करते दिख रहे है। वहीं फतेहपुर भाजपा में अब भी अंतर्कलह भरपूर है। यहां उपचुनाव के दौरान पार्टी ने पूर्व राज्यसभा सांसद रहे कृपाल परमार का टिकट काट बलदेव ठाकुर को टिकट दिया, और वो चुनाव हार गए। इस बार कयास लग रहे है कि पार्टी पुनः कृपाल परमार को टिकट देने पर विचार कर सकती है। वहीं कांग्रेसी और भवानी विरोधी रहे चेतन चंबियाल अब आप में शामिल हो चुके है। कुल मिलकर यहां भवानी की जय रोकना विरोधियों के लिए मुश्किल होगा।
ज्वाली : कांग्रेस से चौधरी चंद्र कुमार, भाजपा से कौन ?
2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। इससे पहले नीरज भारती 2007 में भी विधायक चुने गए थे। इस बार फिर से चौधरी चंद्र कुमार कांग्रेस की ओर से मैदान में हो सकते है। अगर पिछले चुनाव यानी 2017 की बात की जाए तो यहाँ भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की थी। ज्वाली विधानसभा हलके में भाजपा के टिकट के लिए दो सशक्त दावेदार मैदान में है। 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी के पक्ष में चुनाव न लड़ने वाले संजय गुलेरिया तब से न सिर्फ भाजपा संगठन में बने हुए है, बल्कि पिछले साढ़े चार वर्षों में उन्होंने ख़ुद को इस विधानसभा क्षेत्र में और मज़बूत किया है। जबकि अर्जुन ठाकुर विधायक तो है, पर उनकी राह की असल चुनौती पार्टी में ही उनका विरोधी खेमा है।
धर्मशाला : नेहरिया- सुधीर दौड़ में आगे, क्या मेजर भी धर्मशाला आएंगे ?
धर्मशाला प्रदेश की दूसरी "कागजी" राजधानी है। कहते है धर्मशाला में सियासत कभी थमती नहीं। वर्तमान में यहां न तो कांग्रेस की टिकट तय मानी जा रही है न ही भाजपा की। स्व. मेजर बृजलाल से शुरू हुआ भाजपा का सफर वाया किशन कपूर होता हुआ अब विशाल नैहरिया तक पहुंच चुका है। धर्मशाला में भाजपा की टिकट कभी गैर गद्दी के हाथ नहीं चढ़ पाई। मौजूदा विधायक विशाल नेहरिया है, और फिर टिकट के प्रबल दावेदार भी। टिकट के कई चाहवान और है, चर्चा कई दिग्गजों की भी है जिनके निर्वाचन क्षेत्र बदल कर धर्मशाला आने के कयास लग रहे है। पर फिलवक्त मैदान में नेहरिया ही एक्टिव दिख रहे है ।
कांग्रेस से भी टिकट के दावेदारों की संख्या में लगातार इजाफा हो रहा है। इस फेहरिस्त में पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा, पूर्व मेयर देवेंद्र जग्गी और 2019 के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी रहे विजय करण के नाम प्रमुख है। वहीं एक ख़ास नाम और है, वो है चंद्रेश कुमारी का। हालांकि दावा सुधीर का ही मजबूत माना जा रहा है। सिर्फ कांग्रेस और भाजपा ही नहीं धर्मशाला के सियासी मैदान में आप से राकेश चौधरी और बतौर निर्दलीय मेजर विजय सिंह मनकोटिया भी मैदान में हो सकते है। अगर मेजर मनकोटिया धर्मशाला से मैदान में उतरते है, तो इसका सीधा असर न सिर्फ धर्मशाला पर पड़ेगा बल्कि शाहपुर पर भी पड़ेगा।
इंदौरा : मुमकिन है इस बार मनोहर हर ले भाजपा का टिकट !
इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब 6 माह पूर्व ही मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में है। अब यदि भाजपा फिर रीता धीमान को टिकट देती है, तो मनोहर धीमान का क्या रुख रहता है ये नतीजे तय कर सकता है। माना जा रहा है कि मनोहर इस बार चुनाव लड़ने के मूड में है, पार्टी टिकट पर या टिकट के बगैर। उधर, कांग्रेस में फिलवक्त चेहरे को लेकर ही स्थिति स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस के कमल किशोर को इस बार टिकट मिलना मुश्किल दिख रहा है। कमल किशोर लगातार कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रूप में दो चुनाव हार चुके है।
जसवां परागपुर : मंत्री बिक्रम प्रो एक्टिव, तो कांग्रेस अब भी सुस्त सी
जसवां परागपुर विधानसभा क्षेत्र भाजपा सरकार में मंत्री बिक्रम ठाकुर का गढ़ है। बिक्रम ठाकुर यहां से तीसरी बार विधायक बने है। भाजपा की ओर से इस बार भी बिक्रम ठाकुर का टिकट तय माना जा रहा है, हालांकि कैप्टेन संजय पराशर भी यहां से भाजपा टिकट की मांग कर रहे है। वहीं कांग्रेस में टिकट के कई तलबगार है जिनमे सुरेंद्र मनकोटिया, बिक्रम सिंह, संजय कालिया और राजेंद्र शर्मा प्रमुख नाम है।
मंत्री बिक्रम ठाकुर के लिए इस बार का चुनाव आसान नहीं होने वाला और जाहिर है इसे भांपते हुए मंत्री अभी से क्षेत्र में प्रो एक्टिव है। जबकि कांग्रेस अब भी सुस्त सी ही है। पार्टी की ये सुस्ती मंत्री बिक्रम के लिए वरदान सिद्ध हो सकती है।
ज्वालामुखी : रह-रह कर भड़की है ध्वाला की ज्वाला, अब आगे क्या ?
ज्वालामुखी में 'ध्वाला की ज्वाला' से भाजपा काफी असहज रही है, मगर ध्वाला की सियासी पकड़ का कोई तोड़ यहां नज़र नहीं आता। हालाँकि इस बार ध्वाला के अलावा राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी और रविंदर रवि भी यहां से चुनाव लड़ने के इच्छुक है। वहीं कांग्रेस की ओर से संजय रत्न व नरदेव सिंह कँवर का नाम आगे है।
भाजपा की जमीनी स्थिति की बात करें तो कांगड़ा में भाजपा का बड़ा ओबीसी चेहरा माना जाने वाले ध्वाला को कैबिनेट रैंक तो मिली लेकिन पद नहीं। इतना ही नहीं पार्टी संगठन के साथ उनकी खींचतान भी जगजाहिर है। कई मौकों पर ध्वाला ने खुलकर अपनी ही सरकार काे घेरने से भी गुरेज नहीं किया। हालांकि अब तक ध्वाला सीएम के खिलाफ खुलकर बोलने से बचते दिखे है, पर उनके मन की टीस साफ दिखती है। चुनाव आते -आते ध्वाला की ज्वाला और भड़कती है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होगा। इसी तरह क्या भाजपा की 2022 योजना में उनके लिए स्थान है या नहीं, ये भी बड़ा सवाल है।
नूरपुर : भाजपा के कलेश में जीत तलाशती कांग्रेस !
टिकट की दौड़ ने नूरपुर में भाजपा के दो नेताओं को आमने -सामने ला खड़ा किया है। ये जयराम सरकार के कैबिनेट मंत्री राकेश पठानिया का निर्वाचन क्षेत्र है। पठानिया दमदार और आक्रामक छवि के नेता है और उन चुनिंदा चेहरों में से एक है जो अक्सर विधानसभा में जमकर गरजते है। पर अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में, अपनी ही पार्टी के एक नेता रणवीर निक्का ने पठानिया के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है। इन दोनों नेताओं की आपसी खींचतान में कांग्रेस यहां जीत तलाश रही है। कांग्रेस के जिला अध्यक्ष और पूर्व विधायक अजय महाजन यहां से पार्टी के प्राइम फेस है। वहीँ आम आदमी पार्टी भी यहां मौजूदगी दर्ज करवाने को प्रयासरत है।
1998 में पहला विधानसभा चुनाव जीतने वाले राकेश पठानिया तब से एक चुनाव जीतने के बाद एक हारते आ रहे है। 2007 में वे निर्दलीय जीते, तो 2012 में निर्दलीय चुनाव लड़कर दूसरे स्थान पर रहे। तब भाजपा ने रणवीर सिंह निक्का को टिकट दिया था, पर निक्का को जनता का ज्यादा साथ नहीं मिला। 2017 में भाजपा ने फिर राकेश पठानिया को टिकट दिया और पठानिया तीसरी बार विधानसभा पहुंचे। जयराम कैबिनेट में पहले राकेश पठानिया को स्थान नहीं मिला था लेकिन 2020 में हुए कैबिनेट विस्तार में उन्हें वन, खेल एवं युवा सेवा मंत्री का दायित्व मिला। अपनी बेबाक शैली के चलते राकेश पठानिया हमेशा चर्चा में रहते है और जयराम कैबिनेट के उन मंत्रियों में शुमार है जिनकी अफसरशाही पर अच्छी पकड़ मानी जाती है, लेकिन उनके अपने निर्वाचन क्षेत्र में ही फिलहाल रणवीर निक्का ने उनकी चिंता जरूर बढ़ाई होगी। उधर दो भाजपाई नेताओं के आपसी टकराव में कांग्रेस को जीत की महक जरूर आ रही है, पर जमीनी स्तर पर कांग्रेस को जल्द प्रो एक्टिव होने की जरूरत है।