'चाचा' के दांव से ही 'चाचा' को चित करने निकले है अजित
एनसीपी में बगावत के बाद अब चाचा शरद पवार और भतीजे अजित पवार के बीच पार्टी पर कब्जे की लड़ाई छिड़ चुकी है। 83 साल के शरद पवार मैदान में है और हुंकार भर रहे है कि इस बाजी को थोड़े समय में ही पलट कर रख देंगे। उधर अजित के साथ प्रफुल्ल पटेल और छगन भुजबल जैसे शरद पवार के ख़ास सिपहसलहार भी है। जो लोग शरद पवार को जानते है, उनकी राजनीति समझते है, वो कहते है कि शरद पवार के सियासी पैंतरों को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। ये ही कारण है की अब भी कई माहिर और विरोधी कह रहे है कि साहेब दो नांव की सवारी कर रहे है। बहरहाल जो दिख रहा है वो ही अगर हो भी रहा है तो ये कहना गलत नहीं होगा कि अपने चाचा के दांव से ही अजित पवार अपने चाचा को चित करने निकले है। अब चाचा के पास इसका तोड़ है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होने वाला है। "
साल था 1977 का। आपातकाल के चलते कांग्रेस के भीतर भी विद्रोह था। कांग्रेस दो गुटों इंदिरा की कांग्रेस (आई) और रेड्डी की कांग्रेस (यू) में बंट गई थी। शरद पवार ने कांग्रेस (यू) चुनी और उसमें शामिल हो गए।
अगले साल 1978 में जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव हुए तो दोनों कांग्रेस आमने -सामने थी। नतीजे आये तो जनता पार्टी कुल 288 में से 99 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, पर बहुमत से 46 सीटें पीछे रह गई। जबकि इंदिरा की कांग्रेस को 62 और रेड्डी कांग्रेस को 69 सीटें मिलीं। जनता पार्टी को सत्ता से दूर रखते हुए कांग्रेस (आई) और कांग्रेस (यू) ने साथ मिलकर सरकार बनाई और मुख्यमंत्री बने वसंतदादा पाटिल। उस सरकार में नासिकराव तिरपुडे डिप्टी सीएम थे। उस सरकार में उद्योग मंत्री थे शरद पवार। गठबंधन मजबूती का था सो जाहिर है सरकार के बनने के साथ ही कई नेताओं में असंतोष भी बढ़ने लगा।
सरकार बने करीब साढ़े चार महीने हो चुके थे और कहते है इसी बीच जुलाई 1978 में मुख्यमंत्री वसंतदादा पाटिल ने शरद पवार को घर पर खाने के लिए बुलाया। शरद पवार सीएम आवास पहुंचे, कई मुद्दों पर चर्चा हुई और दोनों ने खाना खाया। जब पवार जाने लगे तो उन्होंने सीएम वसंतदादा पाटिल के सामने हाथ जोड़े और कहा- दादा अब मैं चलता हूं, कोई भूल चूक हो तो माफ करना। वसंत दादा पाटिल कुछ समझे नहीं। पवार उन्हें क्या कह गए थे शाम होते होते उन्हें इसका इल्म हुआ। राज्य सरकार में बगावत की खबरें सामने आने लगी थी। शरद पवार ने 40 विधायकों के साथ बगावत कर दी थी। तब देश में दल बदल कानून नहीं था।
38 साल के शरद पवार की महत्वाकांक्षा सीएम बनने की थी। उन्होंने अपनी 'सोशलिस्ट कांग्रेस' की ओर से जनता दल के साथ सरकार बनाने की पहल की।18 जुलाई 1978 में शरद पवार 38 साल की उम्र में 'प्रोग्रेसिव डेमोक्रेटिक पार्टी' की सरकार बनने के साथ महाराष्ट्र के सबसे कम उम्र के मुख्यमंत्री बने। हालांकि ये सरकार ज्यादा दिन नहीं चली और जनता पार्टी में फुट के बाद इंदिरा गांधी की सिफारिश पर डेढ़ साल बाद ही महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू किया गया।
पवार की पहली सरकार बर्खास्त होने के बाद कई साल वे सत्ता से दूर रहे। 1980 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद राजीव गाँधी कांग्रेस में सर्वेसर्वा हो गए। सरकार और संगठन दोनों की कमान राजीव संभल रहे थे। कहते है राजीव तो चाहते थे लेकिन तब महाराष्ट्र और कांग्रेस के कुछ नेता पवार की वापसी के खिलाफ थे। तब इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद देश में कांग्रेस की प्रचंड लहर थी, इसके बावजूद पवार 1984 में पहली बार बारामती से लोकसभा चुनाव लड़े और सांसद बने।
साल 1986 में राजीव गांधी के कहने पर शरद पवार की कांग्रेस में घर वापसी हुई और वे महाराष्ट्र में फिर से सक्रिय हो गए। साल 1988 में राजीव गांधी ने तत्कालीन सीएम शंकरराव चव्हाण को अपने केंद्रीय मंत्रिमंडल में शामिल किया और शरद पवार दूसरी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने। ये दूसरा मौका था जब पवार ने अपना तिलिस्म दिखाया।
साल 1995 आते-आते महाराष्ट्र में भाजपा -शिवसेना गठबंधन सरकार बन चुकी थी, जिसके बाद पवार ने एक बार फिर से केंद्र दिल्ली का रुख कर लिया।
1990 के दशक में देश में क्षेत्रीय दलों का दबदबा बढ़ने लगा था और ये गठबंधन सरकारों का दौर था। कहते है शरद पवार भी अब पीएम बनने के अरमान पाल चुके थे।1996 के लोकसभा चुनाव में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी, लेकिन उसका पास संख्या बल नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तब महज 13 दिन में गिर गई थी। उधर कांग्रेस ने भाजपा को सत्ता से दूर रखने के लिए तीसरे मोर्चे को समर्थन दिया। कांग्रेस के समर्थन से सरकारें बन रही थी और गिर रही थी। फिर 1998 और 1999 में भाजपा फिर सब बड़ी पार्टी बनी और सरकार भी भाजपा की ही बनी, पर ये गठबंधन सरकारें थी।
शरद पवार राजनीति को देख रहे थे, समझ रहे थे।
उधर सोनिया गांधी के सक्रिय राजनीति में आने का फैसला ले लिया था और कांग्रेस के अंदर का गणित भी बदल गया। कांग्रेस के अंदर मौजूद एक बड़े वर्ग की राय थी कि सोनिया को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। कहते है सोनिया के आने के बाद पवार समझ चुके थे कि अब उनका पीएम बनने का सपना पूरा नहीं होगा। ऐसे में शरद पवार ने सोनिया के विदेशी मूल का मुद्दा उठाया और पीए संगमा और तारिक अनवर के साथ मिलकर 1999 में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी बनाई। कांग्रेस से पवार की यह दूसरी बगावत थी।
अब अजित पवार ने अपने चाचा शरद पवार को उन्हीं के राजनैतिक दांव से पटकनी दी है । हालांकि अजित का साथ छोड़कर कई नेता तो अभी से शरद पवार की सरपरस्ती में वापस आ चुके है। अब भतीजे के इस दांव की काट क्या चाचा के पास है या शरद पवार की जमीन खिसक चुकी है, ये तो आने वाला वक्त ही बातयेगा।