तो शायद प्रधानमंत्री होते प्रणब दा...
31 अक्टूबर 1984 । ये वो दिन है जब तत्कालीन प्रधानमंत्री और हिंदुस्तान की राजनीति की आयरन लेडी इंदिरा गाँधी की उन्ही के अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई। इंदिरा की हत्या से पुरे देश में मातम का माहौल था। दुःख और अवसाद के बीच कांग्रेस थिंक टैंक के सामने देश को अगला प्रधानमंत्री देने की चुनौती भी थी। चुनौती इसलिए भी विकट थी क्यों कि कुछ समय पहले ही संजय गाँधी भी दुनिया से रुक्सत कर चुके थे। कई नाम रेस में थे और कई नेता इस उम्मीद में थे कि वरिष्ठता और परफॉरमेंस के आधार पर उन्हें पार्टी देश का नेतृत्व करने का ज़िम्मा देगी। पर जैसा कांग्रेस में रिवाज़ है, पीएम की कुर्सी पर ताजपोशी हुई राजीव गाँधी की।
कई नेताओं ने इसका आंतरिक विरोध किया और कई बगावत पर उतर आए। इन्ही बगावत करने वालों में से एक थे प्रणब मुखर्जी। वही प्रणब मुखर्जी जो इंदिरा गाँधी की सरकार में वित्त मंत्री थे। वही प्रणब मुखर्जी गांधी के सबसे भरोसेमंद लेफ्टिनेंट कहा जाता था। वही प्रणब मुखर्जी जिनके लिए इंदिरा गाँधी कहती थी 'प्रणब मुखर्जी के मुँह से सिर्फ पाइप का धुआं निकल सकता है, मेरा या कांग्रेस का राज़ नहीं।'
मुखर्जी को राजनीति में टिकट तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने दिया था, पर उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे राजीव गाँधी ने प्रणब के पॉलिटिकल ग्राफ पर ब्रेक लगा दी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनाव के बाद राजीव गांधी की समर्थक मण्डली ने उन्हें मंत्रिमंडल में शामिल नहीं होने दिया। कुछ समय के लिए उन्हें कांग्रेस पार्टी से निकाल दिया गया। प्रणब को उस समय समझ नहीं आया क्या प्रतिक्रिया दें। उस दौरान उन्होंने अपने राजनीतिक दल राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का गठन किया। शुरुआत में लगा की शायद कांग्रेस का ये धड़ा मजबूत होगा पर मार्च 1987 में हुए बंगाल के चुनाव में प्रणव को मुँह की खानी पड़ी। राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस का इन चुनावों में खाता ही नहीं खुला। यहाँ से ही प्रणव का सबसे बुरा वक्त शुरू हो गया। जो अच्छे वक्त में परछाई हुआ करते थे, वो भी अब दूर दूर रहने लगे।
कहते है की उस दौरान प्रणब दा अपने कार्यालय में अकेले बैठे फाइलों के पन्ने पलटते रहते व पाइप पीते रहते। प्रणब भी शायद समझ चुके थे कि पार्टी से राह अलग करना उनका गलत फैसला था। उस वक्त उन्हें याद आए अपने पुराने मित्र संतोष मोहन देव। कई महीनो की जद्दोजहद के बाद संतोष मोहन देव व शीला दीक्षित, राजीव गाँधी को समझाने में सफल हुए की प्रणब को विरोधी खेमे में रख कर कोई फायदा नहीं है। कुछ इस तरह प्रणव की कांग्रेस में वापसी प्रशस्त हुई। हालाँकि राजीव के रहते उनकी किसी बड़े पद पर नियुक्ति नहीं हुई।
1989 में राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस चुनाव हार गई। दो साल बाद 1991 में राजीव गांधी की हत्या हो गई। राजनीति करवट ले चुकी थी, समय बदला, कांग्रेस का वनवास खत्म हुआ और सत्ता में वापसी हुई। प्रधानमंत्री बने पीवी नरसिम्हा राव। वही नरसिम्हा राव जो कभी प्रणब के जोड़ीदार हुआ करते थे। प्रणब को लगा शायद उन्हें कैबिनेट में जगह मिल जाए, पर किस्मत को कुछ और ही मज़ूर था। प्रणब को खली हाथ, हताश ही लौटना पड़। पर कुछ ही दिनों के बाद उन्हें नरसिम्हा राव का फ़ोन आया और उन्हें योजना आयोग का उपाध्यक्ष नियुक्त किया गया। अपने पूरे कार्यकाल में प्रणब ने ध्यान रखा कि वह राव के विश्वासपात्र तो बने रहे पर इतने करीबी न दिखें कि गाँधी परिवार उन्हें फिर शक की निगाहों से देखने लगे। राव का दौरा सम्पत हुआ और करीब 8 साल कांग्रेस फिर सत्ता से दूर रही।
इस दरमियान कांग्रेस की भागदौड़ एक बार फिर गाँधी परिवार के हाथ में जा चुकी थी। अब कांग्रेस के सारे दरवाजे सोनिया गाँधी के बंगले 10 जनपथ पर जाकर खुलते थे।
2004 में जब कांग्रेस के नेतृत्व वाला संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सत्ता में आया, तो लगा इंदिरा की बहु सोनिया गाँधी प्रधानमंत्री होगी। किन्तु सोनिया ने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर दिया। ये वो पहला मौका था जब शायद प्रणव मुखर्जी प्रधानमंत्री बनते बनते रह गए। सोनिया गाँधी ने मनमोहन सिंह पर भरोसा जताया। वही मनमोहन सिंह जिन्हे भारत के आर्थिक सुधारों का जनक कहा जाता है।
खैर प्रणब दा प्रधानमंत्री नहीं बन सके लेकिन यूपीए शासन में वे एक ताकतवर मंत्री के तौर पर अपनी सेवाएं देते रहे।
फिर साल आया 2012 का। कांग्रेस को राष्ट्रपति चुनाव के लिए प्रत्याशी घोषित करना था। 2012 आते-आते वैसे भी जनता का कांग्रेस शासित सरकार से मोह भंग हो चूका था। पार्टी को भी इस बात का एहसास था। मनमोहन सिंह के नाम पर एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर का ठप्पा लग चूका था।
बताया जाता है की उस दौरान कांग्रेस का एक गट चाहता था की मनमोहन सिंह को राष्ट्रपति भवन भेज दिया जाए और बचे और वक्त में सत्ता भी बागदौड प्रणव दा को सौप दी जाए। पर हुआ वही जो 10 जनपथ का फरमान था। प्रणब मुखर्जी राष्ट्रपति बने। इसके साथ ही न सिर्फ उनका प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न अधूरा रह गया बल्कि उनकी सक्रीय राजनीति से सदा के लिए विदाई भी हो गई।
प्रणब मुखर्जी का राजनीतिक अनुभव
- उनका राजनितिक करियर 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में शुरू हुआ था।
- 1973 में वे औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मन्त्री के रूप में मन्त्रिमण्डल में शामिल हुए।
- 1982 -1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे।
- 1984 में भारत के वित्त मंत्री बने।
- 1991 योजना आयोग का उपाध्यक्ष बने।
- 1995 -1996 तक विदेश मन्त्री के रूप में कार्य किया।
- 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया।
- 2004 में लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया।
- 2009 में देश का वित्त मंत्री चुने गए।
- 2012 में देश के राष्ट्रपति बने।