कई सीटों पर निर्दलीयों ने बढ़ाई दोनों दलों की धुकधुकी
हिमाचल प्रदेश चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चूका है और प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो गई है। किसकी सरकार बनेगी और किसकी नहीं, इस सवाल के साथ-साथ एक और सवाल भी सियासी गलियारों में गूंज रहा है। ये सवाल है कि क्या इस बार सरकार बनाने में निर्दलीय अहम भूमिका निभाएंगे ? दरअसल, इस बार 412 प्रत्याशियों में से 99 प्रत्याशी बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। इन 99 निर्दलीयों में से मुख्य तौर पर करीब एक दर्जन चेहरों पर फिलवक्त दोनों मुख्य राजनैतिक दलों की निगाह टिकी है। निर्दलीयों की लम्बी फेहरिस्त में कम से कम एक दर्जन नाम ऐसे है जो अपने-अपने क्षेत्रों में चुनाव जीतने की स्थिति में दिखाई दे रहे है। इनमें से कितने जीतते है, ये तो आठ दिसम्बर को पता चलेगा, लेकिन इनमें से किसी को कम नहीं आँका जा सकता। दोनों पार्टियां यदि स्पष्ट बहुमत नहीं ले पातीं तो निर्दलीय चुनाव जीते नेता निश्चित तौर पर निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे।
बता दें की इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले बागियों में दो सीटिंग विधायक और 6 पूर्व विधायक शामिल है। पिछले चुनाव बतौर निर्दलीय जीत कर इस चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए बने देहरा विधायक होशियार सिंह और भाजपा की ज्यादा नहीं बनी और उन्हें फिर निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा। जबकि आनी से मौजूदा विधायक किशोरी लाल का टिकट भाजपा ने काटा तो वे भी निर्दलीय मैदान में उतर गए। इनके अलावा 6 पूर्व विधायकों ने भी निर्दलीय चुनाव लड़ा है। इनमें कांग्रेस से गंगूराम मुसाफिर, सुभाष मंगलेट, जगजीवन पाल का नाम शामिल है, तो भाजपा से तेजवंत नेगी, केएल ठाकुर और मनोहर धीमान बागी होकर चुनाव लड़ रहे है। जाहिर है निर्दलीय मैदान में उतरे इन आठ विधायकों और पूर्व विधायकों को कम नहीं आँका जा सकता। ये सभी वो चेहरे है जो फिर विधानसभा पहुंचने का दमखम रखते है। वहीं यदि कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला होता है तो इनमें से जीतने वालों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो सकती है।
इन आठ के अलावा कई निर्दलीय उम्मीदवार ऐसे है जो इस चुनाव में उलटफेर करने का दमखम रखते है। इनमें प्रमुख नाम है अर्की से राजेंद्र ठाकुर, हमीरपुर से आशीष शर्मा और ठियोग से इंदु वर्मा। राजेंद्र ठाकुर पूर्व कांग्रेसी है और अर्की उपचुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। अब राजेंद्र ठाकुर खुलकर कह रहे है कि अगर वे विधायक बने तो वे उसके साथ जायेंगे जिसकी सरकार बनेगी। वहीं आशीष शर्मा ने चुनाव के दौरान कांग्रेस ज्वाइन की और दो दिन में छोड़ भी दी। आशीष ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और हमीरपुर में उनका दावा मजबूत है। वहीँ ठियोग से इंदु वर्मा पुरे दमखम से चुनाव लड़ी है। बड़सर से भाजपा के बागी संजीव शर्मा और जसवां परागपुर से निर्दलीय कैप्टन संजय पराशर को भी कम नहीं आँका जा सकता।
अभी से जुटे दोनों राजनैतिक दल
आठ दिसम्बर को नतीजे आएंगे और उससे पहले दोनों मुख्य राजनैतिक दल निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले नेताओं से संपर्क में है ताकि जरुरत पड़ने पर उनको साथ लिया जा सके। हिमाचल प्रदेश की सियासी अतीत पर निगाह डाले तो 1998 में एक निर्दलीय विधायक के हाथ में सत्ता की चाबी थी। जाहिर है कि ऐसे में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल अभी से उन संभावित निर्दलीय उम्मीदवारों को साधने में जुट गए है जो विधानसभा की दहलीज लांघ सकते है।
तब ध्वाला बने थे भाजपा के लिए हीरो
साल 1998 के चुनाव में भी एक निर्दलीय ने प्रदेश की सियासत की स्थिति बेहद दिलचस्प बना दी थी। तब भाजपा के लिए निर्दलीय उम्मीदवार रमेश ध्वाला हीरो बनकर उभरे थे। रमेश ध्वाला को भाजपा ने टिकट नहीं दिया था, वह बागी बनकर बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीते थे। इस चुनाव में न तो भाजपा को बहुमत मिला और न ही कांग्रेस को। सरकार बनाने की जोर आजमाइश जारी थी। ध्वाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाए। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने बीजेपी को समर्थन दे दिया था। इस तरह बीजेपी के साथ भी विधायकों की संख्या 32 हो गई। हालांकि वो अब भी बहुमत के आंकड़े से पीछे थी। अब ध्वाला बतौर निर्दलीय उम्मीदवार अपना समर्थन देने के लिए शिमला की ओर चल पड़े। कहते है की ध्वाला जैसे ही शिमला पहुंचे, उन्हें कांग्रेस नेताओं ने अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें सीधे होली लॉज ले गए। वीरभद्र सिंह समेत तमाम नेताओं ने उन्हें कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए समर्थन देने का आग्रह किया। तमाम तरह के प्रलोभन भी दिए गए। कहा जाता है की धवला को डराया धमकाया भी गया था। ध्वाला ये सब खुद स्वीकार कर चुके हैं। फिर अचानक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ध्वाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं। उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया था। वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया। रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह की सरकार बन गई। रमेश ध्वाला को सरकार में मंत्री पद भी दिया गया।
हालाँकि ये कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, ध्वाला भाजपा के बागी थे और कांग्रेस को डर था की वे समर्थन वापस ले सकते है, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। कुछ दिनों बाद नरेंद्र मोदी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि रमेश ध्वाला को हम वापस लाएंगे और कांग्रेस की सरकार गिरेगी। कहा जाता है कि सीएम आवास में काम करने वाले एक कर्मचारी के ज़रिये नैपकिन पर रमेश धवाला के लिए एक संदेश लिखकर भेजा गया। फिर उसी कर्मचारी के जरिये ध्वाला ने भी मैसेज भेजा कि उन्हें सीएम आवास से निकाला जाए, तो वे बीजेपी के साथ आ जाएंगे। ध्वाला वहां से निकले और सीधे नरेंद्र मोदी के पास पहुंचे। फिर नरेंद्र मोदी ने राज्यपाल को फोन कर बताया कि सरकार का एक विधायक उन्हें समर्थन दे रहा है, इसलिए बीजेपी को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाए। कहा जाता है की उस वक्त राज्यपाल ने बीजेपी को मना कर दिया। परन्तु कुछ समय बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। तब राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया कि आइए और सरकार बनाने का दावा पेश कीजिए। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया। रमेश ध्वाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। दूसरी ओर वीरभद्र सिंह दावा करते रहे कि उनके पास अब भी रमेश ध्वाला का समर्थन है। अंत में जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार गिर गई।