‘मेजर’ –‘केवल’:- सरवीन शाहपुर में मेजर का रोल माइनर
अरविंद शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट
शाहपुर विधान सभा क्षेत्र, नाम इतना शाही है कि जुबाँ पर आते ही इसके शाही होने का आभास होता है! सियासत में शाहपुर के हिस्से जो शाही नाम आते हैं वह भी काफ़ी शाही रसूख़ रखते हैं, कांग्रेस से पहले एक नाम ‘चलता’ था मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ़ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता है, मेजर का पॉलिटिकल करेक्टर ऐसा रहा है कि जनता दल के बाद जब उनका नाम बहुजन समाज पार्टी की कसौटी पर कसा था तो जनता को इसमें खोट ही नज़र आया बस कांग्रेस के टिकट की कसौटी पर मेजर खरा सोना साबित हुए थे, कांग्रेस छोड़ने के बाद जब भी मेजर ने कोई पारी खेली तो वह सरवीन की तेज़ गेंदों पर अपनी विकेट को उखड़ते देखने पर मजबूर हो गए, यहाँ इन दोनो के बाद तीसरा नाम आता है कांग्रेस के केवल पठानिया का, मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल कांग्रेस के ‘हाथ’ पर भाग्य आज़माते हुए बीते नौ वर्षों से अपनी ही क़िस्मत से लड़ रहे हैं, सियासी तौर पर अगर शाहपुर की कुर्सी के ग्रह-गोचर देखे जाएँ तो यूँ कहना ग़लत ना होगा कि मेजर मनकोटिया -केवल पठानिया दोनो एक दूसरे की सियासी कुंडलियों में साढ़सत्ती लिए बैठे हैं जो कि हर बार पिछले कई वर्षों से सरवीन के लिए शाहपुर के सिहाँसन का योग बनाते आए है।
हर बार एक दूसरे के लिए धूमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं, इस फेर में केवल एक बार अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे तो फिर दोबारा हार के हार पहनने को मजबूर हो गए, अगर सियासतन शाहपुर की फ़िज़ाओं की स्वरलहरियों की बात की जाए तो सरवीन के सुरमई सियासी संगीत की बीण पर कांग्रेस के हालात साँप की तरह नाचते नज़र आए हैं और जिनकी फुँकार ने कांग्रेस को ही फूँका है !
मेजर शांत नहीं हुए और केवल से भिड़ते रहे नतीजा यह हुआ ना मेजर ख़ुद जीत पाए ना केवल को जीतने दिया, एक बार मेजर जब बसपा की टिकेट पर धर्मशाला भी शिफ़्ट हुए तो अपनी जगह अपने अनन्य भक्त ओंकार राणा को केवल के सामने छोड़ गए, मेजर ख़ुद तो धर्मशाला से हार गए मगर शाहपुर में ओंकार राणा दूसरे नम्बर पर रहे!
शाहपुर में कांग्रेस मत-भिक्षुओं के रोल में जितनी ख़ाली कटोरा लेकर घूमती है, भाजपा अकेले अपने कटोरे को शाहपुर में भारी रूप से भरने में कामयाब रहती है, अगर सामान्य लहजे में कहें तो शाहपुर में कांग्रेस की साँझी हार में भाजपा अपनी अकेली जीत सुनिशिच्त करती आ रही है जबकि यह भी हक़ीक़त है की इतने बड़े-बड़े नामों के बावजूद शाहपुर का वजूद बहुत छोटा बन के रह जाता है, विकास के नाम पर शाहपुर को वही मिलता आ रहा है जो साथ लगते विधान सभा क्षेत्रों से बचा-खुचा रह जाता है,
शाहपुर के रहनुमाओं के बिना किसी संघर्ष के चलते किराए की कोख में पल रहे कुपोषित केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्थाई कैंपस जिसे ना जाने कब कौन छीन ले जाए के अलावा शाहपुर की झोली में कोई सौग़ात नहीं नज़र आती , सड़कों के नाम पर जर्जर रास्तों से रोज़ गुज़रने वाले बोह -दरिणी -कनोल -सल्ली -नोहली -करेरी-घेरा -चमियारा के बाशिंदे अभी तक सही सड़कों जैसी मूलभूत सुविधाओं से जूझ रहे हैं !
ज़्यादा चर्चा में ना जाया जाए तो वर्षों से तीन की तिकड़ी के तिकड़मों में पिसती और मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित शाहपुर की जनता इस बार आने वाले चुनावों में क्या हेर-फेर करती है !
ख़ैर ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा !
लेकिन इस बार मेजर और केवल का हाथ बँटाते हुए आम आदमी पार्टी भी कहीं सरवीन के सियासी हालात फिर से बेहतरीन ना कर दे !