15 दिन का वादा कर लौटी थी पाटिल, एक महीने में भी नहीं बना संगठन

वही पुराने दावे और वही सुस्त चाल, हिमाचल कांग्रेस को नई प्रभारी तो मिल गई, मगर कांग्रेस की व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं दिखा। ठीक एक महीने पहले हिमाचल कांग्रेस प्रभारी रजनी पाटिल यह दावा कर दिल्ली लौटी थीं कि 15 दिन में संगठन का गठन कर दिया जाएगा। जब दावा किया गया था, तो कार्यकर्ताओं में उम्मीद भी जगी—उम्मीद यह कि प्रदेश प्रभारी बदलने के साथ शायद सुस्त कांग्रेस में कुछ चुस्ती दिखे और तेज़ गति से संगठन का गठन हो। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। हां, ज़िला अध्यक्षों की नियुक्ति को लेकर कुछ सुगबुगाहट ज़रूर हुई, लेकिन निष्कर्ष की बात करें तो वही ढ़ाक के तीन पात।
अब कांग्रेस भले ही इस विलंब का कारण विधानसभा के बजट सत्र की व्यस्तता बताए या कोई और बहाना दे, लेकिन सत्य यह है कि इसी दौरान पार्टी के कई नेता आलाकमान से मिलने दिल्ली भी पहुंचे थे। वहीं, प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह तो खुद सदन का हिस्सा भी नहीं हैं। तो फिर सवाल बनता है कि आखिर संगठन के गठन में ऐसी कौन-सी उलझन है, जिसे कांग्रेस अब तक सुलझा नहीं पाई?
यह सवाल अब इसलिए भी बड़ा है क्योंकि करीब चार महीने बीत चुके हैं और हिमाचल में कांग्रेस बिना संगठन के है। बीती 6 नवंबर को आलाकमान ने प्रदेश कांग्रेस की राज्य, ज़िला और ब्लॉक इकाइयां भंग कर दी थीं, तब से अकेली पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह ही पद पर बनी हुई हैं। राजीव शुक्ला के रहते संगठन के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई थी और फिर एक महीने पहले अपने दो दिन के हिमाचल दौरे में रजनी पाटिल ने कांग्रेस नेताओं के साथ बैठकें कीं। पाटिल ने नाराज़ नेताओं की शिकायतें सुनीं, वरिष्ठ नेताओं के सुझाव लिए और जल्द संगठन गठन का वादा किया। इसके बाद पीसीसी चीफ प्रतिभा सिंह ने अपनी लिस्ट आलाकमान को सौंपी, सीएम सुक्खू और डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री भी दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं के साथ चर्चा करने पहुंचे, लेकिन अब तक संगठन का गठन नहीं हुआ।
राजनीतिक माहिर मानते हैं कि इस विलंब का कारण कुछ और नहीं, बल्कि कांग्रेस की वही आंतरिक कलह है, जिसे ढांकने की जद्दोजहद में पार्टी अक्सर लगी रहती है। दरअसल, कांग्रेस को विभिन्न गुटों के बीच संतुलन स्थापित कर नया संगठन खड़ा करना है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू, उपमुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री और होली लॉज—जाहिर है, तीनों ही गुट संगठन में अपने लोगों को एडजस्ट करना चाहते हैं। तीनों के लिए कम-ज्यादा की कोई गुंजाइश नहीं और यह वर्चस्व का सवाल भी है। लाजिमी है कि ऐसे में संतुलन बनाना आलाकमान के लिए सिरदर्द बना हुआ है।
उधर, आलाकमान के इस लेट-लतीफ रवैये का खामियाजा निश्चित तौर पर पार्टी भुगत रही है। कार्यकर्ता दिशाहीन हैं और कई वरिष्ठ नेता भी इस देरी पर खुलकर आवाज़ उठा चुके हैं। इस बीच, बीते कल सीएम सुक्खू के दिल्ली पहुंचने के बाद फिर अटकलों का बाज़ार गर्म है। क्या अब संगठन गठन को लेकर कोई ठोस कदम उठाया जाएगा, या यह इंतज़ार और लंबा खिंचेगा? फिलहाल, सबकी नज़रें इसी पर टिकी हैं।