MAMTA BANERJEE : खेली, जीती और दिखा दिया....
कुछ किरदार ऐसे होते है जिन्हें आप पसंद करें या नहीं, लेकिन आप नकार नहीं सकते। इनकी अपनी शैली -अपना अंदाज इन्हें भीड़ से अलग लाकर खड़ा करता है। हिन्दुस्तान की सियासत में ऐसा ही एक किरदार है ममता बनर्जी। बंगाल की शेरनी, लोगों की 'दीदी' और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी साल 2011 से पश्चिम बंगाल की सत्ता पर काबिज है। ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री हैं। वाम दलों को सत्ता को उखाड़कर बंगाल पर राज करने वाली दीदी एक मिसाल है।
ममता बनर्जी के राजनीतिक सफर की कहानी बेहद रोचक है। महज 15 साल की कम उम्र में ही ममता राजनीति में उतर आईं थी। तब उन्होंने 15 साल की उम्र में जोगमाया देवी कॉलेज में छात्र परिषद यूनियन की स्थापना की थी जो कांग्रेस (आई) की स्टूडेंट विंग थी। इसने वाम दलों की ऑल इंडिया डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्स ऑर्गेनाइजेशन को हराया था। ये पश्चिम बंगाल में एक नए सूर्य के उदय होने का संकेत था। इसके बाद ममता ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
1970 में कांग्रेस के साथ राजनैतिक सफर आहिस्ता आहिस्ता आगे बढ़ता गया। 1975 में वे पश्चिम बंगाल में महिला कांग्रेस की जनरल सेक्रेटरी बनी। साल 1983 में प्रणब मुखर्जी की मुलाकात ममता बनर्जी से अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की बैठक के दौरान हुई थी। प्रणव दा ने उसी समय ममता में छुपी प्रतिभा को पहचान लिया था। ममता बनर्जी के लिए उनकी राजनीतिक जिंदगी का सबसे अहम पल उस समय तब आया जब कांग्रेस ने उन्हें लोकसभा चुनाव में उतारा। ये एक ऐसा फैसला था जिसने ममता बनर्जी की जिंदगी बदल दी। दरअसल उनका मुकाबला सीपीएम के सोमनाथ चटर्जी से था, जिन्हें हराना किसी भी नए राजनेता के लिए उस समय नामुमकिन ही माना जाता था। किन्तु ममता बनर्जी ने 1984 के चुनाव में जादवपुर लोकसभा सीट से उन्हें हराकर ये कर दिखाया और वो उस समय की सबसे युवा सांसद बनी।
तब प्रणब मुखर्जी ने खुद उनके लिए कैंपेनिंग में हिस्सा लिया था लेकिन ममता बनर्जी की अपने चुनाव के लिए खुद की गई मेहनत को देखकर उन्होंने उसी समय कह दिया था कि ये लड़की आगे चलकर राजनीति के शिखर पर पहुंचेगी। उनकी बात सही साबित हुई और वो लड़की आज पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री हैं।
ममता बनर्जी 1991 में वो दोबारा लोकसभा की सांसद बनी और इस बार उन्हें केंद्र सरकार में मानव संसाधन विकास जैसे महत्वपूर्ण विभाग में राज्यमंत्री भी बनाया गया। इसके बाद 1996 में ममता एक बार फिर सांसद बनी, लेकिन 1997 में उन्होंने कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़कर अपनी पार्टी तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। पार्टी गठन के शुरुआती दिनों में ममता बनर्जी तब बीजेपी के सबसे बड़े नेता रहे अटल बिहारी वाजपेयी की करीबी रही। इसके अलावा उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में रेलमंत्री के रूप में भी काम किया। 2002 में ममता बनर्जी ने रेलवे के नवीनीकरण की दिशा में बड़े फैसले लिए।
ममता वामपंथी सरकार का पश्चिम बंगाल में खुला विरोध करती रही। सीपीएम के नेतृत्व वाली इस सरकार के मुखिया पहले ज्योति बसु और फिर बड़े वामपंथी नेता बुद्धदेव भट्टाचार्या थे। 2005 में भट्टाचार्य की सरकार के जबरन भूमि अधिग्रहण के फैसले का विरोध शुरू किया। इसके बाद सिंगूर और नंदीग्राम के हिस्सों में ममता बनर्जी ने सरकार की नीतियों के खिलाफ जमकर आंदोलन किए। 1998 में पार्टी के गठन के बाद 13 साल की अल्प यात्रा में ही 2011 में तृणमूल कांग्रेस पहली बार 34 वर्षीय सत्ता वाली वामपंथी सरकार को सत्ता से हटाने में कामयाब हो गई। 2016 और 2021 में भी वे सत्ता में वापस लौटी।
2019 के लोकसभा चुनाव में भी ममता बनर्जी का दल पश्चिम बंगाल का सबसे बड़ा राजनीतिक दल बनकर उभरा। टीएमसी ने 22 सातों पर जीत दर्ज की। मोदी विरोध के लिए ममता बनर्जी हमेशा बीजेपी के खिलाफ रही है। हालांकि ये वही ममता बनर्जी है, जो कि कभी एनडीए की सबसे प्रमुख सहयोगी रही थी। सीएए, एनआरसी, जीएसटी, नोटबंदी और किसान आंदोलन तक ममता ने मोदी सरकार के तमाम फैसले का विरोध किया हैं।
बनी देश की पहली महिला रेल मंत्री
लंबे समय तक कांग्रेस में अलग-अलग पदों पर कार्यरत होने के बाद साल 1998 में ममता बनर्जी ने अपनी अलग पार्टी बनाई थी। तब ममता एनडीए में शामिल हुई और अटल सरकार में 1999 में ममता देश की पहली महिला रेल मंत्री बनी। हालांकि यह सरकार कुछ ही समय में गिर गई। इसके बाद साल 2001 से 2003 तक ममता उद्योग मंत्रालय की सलाहकार समिति की सदस्य में रहीं थी। इसके बाद साल 2004 में ममता कोयला और खानों की की केंद्रीय पद पर काम किया।
बंगाल की पहली महिला मुख्यमंत्री
लंबे समय तक राजनीति में अहम किरदार निभाने के बाद आखिरकार साल 20 मई 2011 को ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी, इसके बाद 19 मई 2016 को दोबारा चुनाव हुए, तब भी भारी जीत के साथ ममता दीदी मुख्यमंत्री के पद पर काबिज रहीं। इसके बाद साल 2021 में तीसरी बार मुख्यमंत्री पद के चुनाव हुए, तब भी भारी मतों के साथ ममता जीत गईं।
आखिर क्यों ममता ने छोड़ी थी कांग्रेस?
1997 में ममता बनर्जी और सोनिया गांधी के बीच आखिर ऐसा हुआ था कि ममता ने कांग्रेस छोड़ अपनी पार्टी बना ली ? उस दौर में पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी कांग्रेस की बेहद लोकप्रिय युवा नेता थी। वामपंथियों के खिलाफ मज़बूती से अगर कांग्रेस का कोई नेता लड़ाई लड़ रहा था, तो वो थी ममता बनर्जी। कहते है लेफ्ट कार्यकर्ताओं के हमले में ममता की जान बाल -बाल बची थी, पर ममता झुकी नहीं। राजीव गांधी उन्हें खूब पसंद करते थे और ममता को प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बनाना चाहते थे। फिर 1991 में राजीव गांधी की मौत के बाद जब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने ममता को केंद्र में मंत्री बना दिया। पर ममता का मन तो बंगाल में था। 1992 में उन्होंने कांग्रेसी नेताओं के विरोध के बाद भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़ा और हार गईं। फिर केंद्र में अपनी ही सरकार के टाडा कानून के विरोध में संसद में जमकर हंगामा किया और मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। ये शुरुआत थी ममता और कांग्रेस के बीच खाई की। 1995 के आखिर में उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से भी इस्तीफा दे दिया, और 1996 आते-आते कांग्रेस में ममता बनर्जी के दुश्मनों की एक लंबी फेहरिस्त हो गई थी।
इसी बीच 1996 का कांग्रेस लोकसभा चुनाव हार चुकी थी और नरसिम्हा राव पर घोटाले के आरोप लगे थे। आरोप सिद्ध होने से पहले ही राव ने राष्ट्रीय अध्यक्ष पद की कुर्सी से इस्तीफा दे दिया था। सीताराम केसरी कांग्रेस के नए अध्यक्ष बन चुके थे और केंद्र में कांग्रेस देवगौड़ा के नेतृत्व की संयुक्त मोर्चा की सरकार को बाहर से समर्थन दे रही थी। इस बीच 1997 में ममता ने फिर से प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने की कोशिश की, तब पश्चिम बंगाल में प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे सोमेंद्र नाथ मित्रा। ममता बनर्जी और सोमेन मित्रा के बीच 36 का आंकड़ा था। ममता खुलकर कहती थी कि सोमेन मित्रा लेफ्ट के लिए ही काम करते हैं। इतना ही नहीं दीदी सोमेन मित्रा को तरबूज भी कहती थीं, क्योंकि तरबूज अंदर से लाल होता है और वामपंथी दलों की पहचान भी लाल रंग से होती है। बहरहाल प्रदेश अध्यक्ष का चुनाव ममता बनर्जी 27 वोटों से हार गईं। ममता की हार के साथ ही बंगाल कांग्रेस के नेता दो धड़ों में बंट गए। नरम दल के नेताओं का नेतृत्व सोमेन मित्रा के हाथ में था, जबकि गरम दल का प्रतिनिधित्व ममता बनर्जी कर रही थी।
उधर सीताराम केसरी और प्रधानमंत्री देवगौड़ा के बीच की तल्खी इतनी बढ़ गई कि कांग्रेस ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। देवगौड़ा को इस्तीफा देना पड़ा और इससे ममता बनर्जी और नाराज हो गईं। ममता ने कहा कि जब कांग्रेसी समर्थक उनसे पूछेंगे कि एक सेक्युलर सरकार से समर्थन वापस क्यों लिया गया तो वो क्या जवाब देंगी। ममता का गुस्सा तब ज्यादा बढ़ गया जब एक हफ्ते के अंदर ही सीताराम केसरी ने फिर से संयुक्त मोर्चा की सरकार का समर्थन कर दिया।
इस बीच सीताराम केसरी ने घोषणा कर दी कि कांग्रेस का राष्ट्रीय अधिवेशन कोलकाता में होगा। तारीख तय हुई 8, 9 और 10 अगस्त 1997। उधर ममता बगावत का मन बना चुकी थी और उन्होंने तय किया कि 9 अगस्त को वो भी कोलकाता में एक बड़ी रैली करेंगी। तब ये तय हुआ था कि कोलकाता के ही अधिवेशन में सोनिया गांधी आधिकारिक तौर पर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करेंगी। जाहिर है ऐसे में कोलकाता का अधिवेशन कांग्रेस के लिए बेहद महत्वपूर्ण था। कांग्रेस नेताओं को लग रहा था कि सोनिया गांधी के आने से ममता की रैली पिट जाएगी। हालांकि ममता को रोकने की एक कोशिश की गई और जीतेंद्र प्रसाद और अहमद पटेल ने ममता को मनाने की कोशिश की। पर ममता नहीं मानी।
दिलचस्प बात ये है कि जब कांग्रेसी नेताओं ने ममता से कहा कि रैली से सोनिया गांधी को बुरा लगेगा, तो ममता बनर्जी ने सोनिया गांधी को भी अपनी रैली में बुलाने के लिए निमंत्रण भेज दिया। खेर कांग्रेस का अधिवेशन भी हुआ और ममता की रैली भी। ममता की रैली में करीब 3 लाख लोग जुटे, जो कांग्रेस अधिवेशन वाली जगह से महज 2 किलोमीटर दूर हो रही थी। ये संकेत था कि पश्चिम बंगाल में आने वाला समय ममता बनर्जी का होगा।
उस रैली में ममता ने कहा था, अब इंदिरा जी नहीं हैं...राजीव जी नहीं हैं....तो अब कांग्रेस में बचा क्या है। भीड़ ने चिल्लाकर ममता का समर्थन किया। ममता ने कहा कि अब मैं कांग्रेस को दिखाउंगी कि कांग्रेस में निष्पक्ष चुनाव कैसे होते हैं। हालांकि तब ममता ने ये नहीं कहा था कि वो अपनी अलग पार्टी बनाएंगी, पर समझने वाले समझ चुके थे। ममता के साथ लोग थे, लिहाजा कांग्रेस ममता के आगे मजबूर थी। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष सीताराम केसरी ने कहा था- 'ममता मेरी बेटी की तरह हैं। उनको कांग्रेस से निकालने पर फायदा सीपीएम को ही होगा। वो भी उन्हीं ताकतों के खिलाफ लड़ रही हैं, जिनके खिलाफ मैं लड़ रहा हूं। वो जब भी मेरे पास आएंगी और किसी भी पद के लिए कहेंगी, मैं उन्हें दूंगा.'
इस बीच सीताराम केसरी ने 29 नवंबर, 1997 को इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व वाली संयुक्त मोर्चा की सरकार से समर्थन वापस ले लिया। इसके बाद कई कांग्रेसी नेता भी केसरी से खफा हो गए। तब खुद प्रणब मुखर्जी ने कहा था कि सीताराम केसरी खुद प्रधानमंत्री बनना चाहते थे। केसरी से नाराज नेताओं ने सोनिया गांधी से कहा कि वो कांग्रेस का नेतृत्व करें और कांग्रेस में 'सोनिया लाओ, देश बचाओ' का नारा गूंजने लगा।
इस बीच ममता बनर्जी ने नारा दिया, ,केसरी भगाओ, कांग्रेस बचाओ'। कहते है ममता बनर्जी खुलकर सोनिया गांधी के साथ खड़ी हो गईं। इस बीच 12 दिसंबर, 1997 को सोनिया ने ममता को दिल्ली बुलाया। कहते है ममता ने उनसे कहा कि उन्हें पार्टी का नेतृत्व अपने हाथ में लेना चाहिए, पर तब सोनिया ने खुद को विदेशी मूल का बताकर नेतृत्व से इन्कार कर दिया। तब सोनिया ने ममता और सोमेन मित्रा दोनों से कहा कि वो मिलकर बंगाल के लिए काम करें। उधर, ममता को उम्मीद थी कि सोनिया के हस्तक्षेप से चीजें उनके पक्ष में हो जाएंगी। सोनिया भी चाहती थी कि ममता कांग्रेस से अलग हो। इसके लिए सोनिया ने एआईसीसी के महासचिव ऑस्कर फर्नांडीज से एक नोट तैयार करने को कहा, जो पश्चिम बंगाल के प्रभारी भी थे। कहते है ऑस्कर फर्नांडीज ने नोट तैयार किया, लेकिन उन्होंने ममता से मुलाकात नहीं की। ममता उग्र हो गई और उन्होंने आरोप लगाया कि प्रणब मुखर्जी, प्रियरंजन दास मुंशी और सोमेन मित्रा ने ऑस्कर फर्नांडिस को इतना उलझा दिया कि ऑस्कर ममता से मिल ही नहीं सके।
ममता ने मन बना लिया था की वो अपनी पार्टी बनाएगी। निर्वाचन आयोग से मुलाकात का वक्त भी तय कर लिया। तभी कांग्रेस से आश्वासन मिला कि वे अपनी मुलाकात को रद्द कर दें और अगले 24 घंटे इंतजार करें। ममता मान गईं और वे खुद निर्वाचन आयोग नहीं गई लेकिन उन्होंने दूसरे नेताओं के हाथ नई पार्टी बनाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज निर्वाचन आयोग को भिजवा दिए थे। कहते है इस बात की जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी, खुद ममता बनर्जी, मुकुल रॉय और रतन मुखर्जी। फिर ममता और सोनिया की मुलाकात हुई और तय हुआ कि ममता बनर्जी बंगाल की चुनाव प्रभारी बनेंगी। कहते है इसके तहत ममता को आगामी लोकसभा चुनाव की जिम्मेदारी मिलनी थी और साथ ही लोकसभा की 42 में से 21 सीटों पर ममता अपनी पसंद के उम्मीदवार उतार सकती थीं। 19 दिसंबर की रात सोनिया गांधी ने ममता से मुलाकात की और आश्वासन के बाद ममता बनर्जी 20 दिसंबर को दिल्ली से कोलकाता के लिए निकल गईं।
21 दिसंबर को हैदराबाद में सीताराम केसरी ने घोषणा की कि ममता बनर्जी इलेक्शन कैंपेन कमिटी की कन्वेनर होंगी लेकिन वो सिर्फ प्रचार का काम देखेंगी। प्रत्याशियों के चयन में उनका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। इसके बाद 22 दिसंबर को ममता बनर्जी ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाई और घोषणा की कि वो और उनके समर्थक ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी के तौर पर चुनाव लड़ेंगे। प्रेस कॉन्फ्रेंस खत्म भी नहीं हुई थी और खबर आई कि उन्हें कांग्रेस से छह साल के लिए बाहर कर दिया गया है।
कांग्रेस के लोगों को लगा था कि ममता पार्टी नहीं बना पाई हैं और वो कांग्रेस के झांसे में आकर पार्टी बनाने से चूक गई हैं, लेकिन ऐसा नहीं था। पार्टी बन चुकी थी। बात जब सिंबल की आई तो निर्वाचन आयोग में बैठे-बैठे ममता ने कागज पर जोड़ा घास फूल बना दिया और इस तरह से 1 जनवरी, 1998 को नई पार्टी अस्तित्व में आई जिसका नाम हुआ ऑल इंडिया तृणमूल कांग्रेस।
राजीव का सम्मान, पर बेटे राहुल से दूरी !
कभी गांधी परिवार से ममता बनर्जी की खूब करीबी थी। ममता, सोनिया गांधी को साड़ी गिफ्ट किया करती थी। ये रिश्ते पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के समय से थे। दरअसल राजीव ने ही ममता को संसद की चौखट तक पहुंचाया। लेफ्ट के कार्यकर्ताओं से भिड़ंत में जब 1991 में उन्हें चोट आई तो राजीव ने ही उनके इलाज का खर्च उठाया। ममता भी सार्वजनिक तौर पर इस बात को स्वीकार करती है। फिर बीते कुछ सालों में तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस की दूरियां इतनी कैसे बढ़ गईं, ये अहम सवाल है। ममता बनर्जी पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की मुरीद थी। उन्होंने राजीव को 'दिलों को जीतने वाला नेता' बताया था। यही नहीं जब उन्हें राजीव गांधी की हत्या की खबर मिली तो वह एक हफ्ते तक बंद कमरे में रोती रही थी। आत्मकथा में ममता बनर्जी लिखती हैं, 'मैं एक बार फिर पूरी तरह अनाथ हो गई थी, मेरे पिता की मौत के बाद यह दूसरी बार था। मैं खुद को एक कमरे में बंद रखती थी और रोती रहती थी।' ममता कहती हैं कि राजीव की मौत के इतने साल बाद भी वह उनकी मौजूदगी महसूस करती हैं। ममता ने अपनी आत्मकथा में लिखा, 'पूर्व प्रधानमंत्री और उनके परिवार के लिए उनके मन में हमेशा प्रबल भावनाएं हैं।'
बावजूद इसके ममता भला राहुल पर आक्रमक क्यों है, ये समझना जरूरी है।दरअसल राहुल का झुकाव वाम दलों की तरफ रहा है और ये ही ममता से कांग्रेस की दूरी बढ़ने की सबसे बड़ी और पहली वजह है। राहुल खुलकर सीताराम येचुरी को अपना मार्गदर्शक बताते हैं। लेफ्ट को पसंद करने वाला कोई भी हो , वो टीएमसी का भी दुश्मन है। ममता इसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकती हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस ने वाम दलों के गठबंधन में शामिल होकर ममता के खिलाफ चुनाव लड़ा था। ऐसे में ममता भला कांग्रेस के साथ कैसे जाएँ ?
वहीँ बंगाल में कांग्रेस के मुख्य फेस अधीर रंजन चौधरी को ममता का आलोचक माना जाता है। माना जाता है वो अधीर ही थे जिन्होंने सबसे पहले बंगाल चुनाव में राहुल गांधी को लेफ्ट के साथ गठजोड़ की सलाह दी थी। ये भी ममता की नाराजगी की वजह है।