संतों को भा रही सियासत की गलियां
संत चले चुनाव लड़ने !
तीन राज्यों में 8 साधू -संत और धर्मगुरु चुनावी मैदान में
सत्ता से पुराना है संतों का नाता
राजस्थान में अब तक भाजपा -कांग्रेस ने दिए 4 टिकट, एक कतार में
मध्य प्रदेश से तीन संत मैदान में
बुधनी में सीएम शिवराज चौहान को चुनौती दे रहे मिर्ची बाबा
कहीं कोई बीच सड़क से गुजर रहे साधू संतों को दंडवत प्रमाण कर रहा है तो कहीं साधु संत ही जनता के दरबार में पहुंच कर वोट की कृपा मांग रहे है। ये ही जमूरियत की ख़ूबसूरती है, पांच साल में ही सही लेकिन यहाँ जनता का दरबार जरूर सजता है। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में साधू संतों और धर्म गुरुओं के मैदान में उतरने से सियासत और लोकतंत्र की एक नई तस्वीर सामने आई है। यूँ तो साधू संतों और धर्म गुरुओं का सियासत में आना नई बात नहीं है, लेकिन ऐसा पहली बार है जब विधानसभा चुनाव में साधू संतों की इतनी तादाद में एंट्री हुई है। इन तीन राज्यों में अब तक आठ साधू संत और धर्मगुरु मैदान में है और इसमें अभी और इजाफा तय माना जा रहा है।
वर्तमान से पहले बात अतीत की करते है। सत्ता का मोह संतों को सियासत में ले आया हो, हिंदुस्तान की सियासत में ये कोई नया किस्सा नहीं है। इसका कारण सिर्फ संतों का सत्ता मोह नहीं है बल्कि राजनैतिक दलों को भी संतों में जिताऊ चेहरा दिखा है। साल 1971 के आम चुनाव में सबसे पहले कांग्रेस इस इस फॉर्मूले को आजमाया और ये प्रयोग सफल भी रहा। तब कांग्रेस ने बिजनौर से स्वामी रामानन्द शास्त्री और हमीरपुर से स्वामी ब्रह्मानंद को मैदान में उतारा था। इसके बाद हर राजनैतिक दाल ने इस फॉर्मूले का खूब प्रयोग किया है, विशेषकर भाजपा ने। 1990 के आसपास मंडल-कमंडल की लड़ाई के बाद भारी संख्या में संतों की सियासत में एंट्री हुई। इसी दौर में राम जन्भूमि आंदोलन में भारी संख्या में साधुसंत जुड़े और फिर सियासत की डगर पर आगे बढ़ते गए। भाजपा ने 1991 के लोकसभा चुनाव में स्वामी चिन्मयानदं को बंदायूं मैदान में उतारा और इसके बाद ये सिलसिला चल पड़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने आधा दर्जन साधुसंतों को टिकट दिया और सभी जीते। 2019 में भी भाजपा टिकट पर सभी साधू संत जीते। पर विधानसभा चुनाव में कभी इस फॉर्मूले का इस कदर प्रयोग नहीं हुआ। हालांकि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ खुद गोरखनाथ मंदिर के महंत है और आज यूपी की सत्ता के शीर्ष पर विराजमान है। वहीँ मध्य प्रदेश की मुख्यमंत्री रही उमा भारती भी सीएम बनते बनते भगवा धारण कर चुकी थी। यानी सत्ता से संतों का नाता पुराना है।
अब तीन राज्यों की बात करते है और शुरुआत करते है 200 सीटों वाली राजस्थान से जहाँ 4 धर्मगुरु मैदान में उतर चुके हैं, तो कई उतरने की तैयारी में हैं। राजस्थान में कांग्रेस और बीजेपी दोनों संतों की लोकप्रियता को भुनाने की रणनीति पर आगे बढ़े है। अब अटक बीजेपी ने महंत बालकनाथ,ओटाराम देवासी और महंत प्रताप पुरी को टिकट दिया है, तो कांग्रेस ने मुस्लिम धर्मगुरु सालेह मोहम्मद को टिकट दिया है। अब कांग्रेस सिंधी समाज की एक और धर्मगुरु को टिकट दे सकती है। साध्वी अनादि सरस्वती भी टिकट की दावेदार हैं, जिन्हें अजमेर के किसी सीट से टिकट दिया जा सकता है। यानी अब तक जो आंकड़ा चार है वो पांच हो सकता है।
विस्तार से बात करने तो तिजारा सीट से बीजेपी उम्मीदवार महंत बालकनाथ योगी वर्तमान में अलवर लोकसभा सीट से सांसद भी हैं और बालकनाथ नाथ संप्रदाय के योगी है। नाथ संप्रदाय का हरियाणा और राजस्थान बॉर्डर के कई जिलों में मजबूत दबदबा है। महंत बालकनाथ को राजस्थान में बीजेपी के भीतर सीएम दावेदार भी माना जा रहा है। वहीं महंत प्रताप पुरी की बात की जाए, तो वे तारातारा मठ के प्रमुख हैं। प्रताप पुरी 2018 में भी पोखरण सीट से चुनाव लड़ चुके हैं, लेकिन तब उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। वहीँ देवासी समुदाय से आने वाले ओटाराम देवासी को सिरोही से भाजपा ने टिकट दिया है और वे भी सियासत के पुराने खिलाड़ी है।
कांग्रेस की बता करें तो पोखरण सीट पर महंत प्रताप पुरी को मात देने के लिए पिछली बार कांग्रेस ने सालेह मोहम्मद को मैदान में उतारा था। मोहम्मद भी मुस्लिम धर्मगुरू हैं। सालेह के पिता को जैसलमेर इलाके में गाजी फकीर कहते हैं। यह सिंधी मुस्लिम समुदाय के धर्मगुरु का पद है। सालेह वर्तमान में अशोक गहलोत सरकार में मंत्री भी थे और फिर मैदान में है। वहीँ साध्वी अनादी सरस्वती सिंधु समुदाय की धर्मगुरु है और कांग्रेस उन्हें अजमेर की किसी सीट से चुनाव लड़वा सकती हैं।
वहीँ मध्य प्रदेश में तीन संत इस बार खुलकर ताल ठोक रहे हैं। इनमें सबसे ज्यादा चर्चा बुधनी सीट से लड़ने वाले मिर्ची बाबा की है जो समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार है। मिर्ची बाबा का किस्सा बड़ा रोचक है। मिर्ची बाबा को 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा दिया गया था। 2019 में मिर्ची बाबा ने भोपाल सीट से दिग्विजय सिंह के चुनाव हारने पर जल समाधि लेने की घोषणा की थी। फिर 2020 में जब कांग्रेस की सरकार गई तो बाबा की मुश्किलें भी बढ़ गई। उन पर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया था, जिसकी वजह से उन्हें 13 महीने जेल में रहना पड़ा। हालांकि, कोर्ट ने उन्हें इस मामले में बरी कर दिया। इसके बाद से ही बाबा ने मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को निशाने पर लेना शुरू कर दिया। बुधनी सीट से कांग्रेस ने टिकट नहीं दिया, तो बाबा अखिलेश से मिलने लखनऊ चले गए और टिकट ले आएं।
मिर्ची बाबा की तरह ही रीवा सीट पर सबके महाराज नाम से मशहूर सुशील सत्य महाराज मैदान में हैं। वे 2018 में भी इसी सीट से चुनाव लड़ चुके हैं। महाराज का दवा है कि पारिवारिक विरक्तियों की वजह से वे हिमालय पर चले गए, जहां उन्होंने 10 वर्षों की घनघोर तपस्या की। रीवा का विनाश उनसे देखा नहीं गया, इसलिए चुनाव में उतर गए।
वहीँ रायपुर सीट से महंथ रामसुंदर दास कांग्रेस से मैदान में है। महंथ रामसुंदर दास बीजेपी के बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ चुनाव लड़ रहे हैं। यह सीट भी बीजेपी का गढ़ है।
छत्तीसगढ़ की बात करें तो रायपुर सीट से चुनाव लड़ रहे रामसुंदर दास दूधाधारी मठ के प्रमुख हैं। कहते है कि मठ के प्रमुख वैष्णवदास रामसुंदर दास के ज्ञान से खूब प्रसन्न हुए थे, जिसके बाद उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। रामसुंदर दास गौसेवा बोर्ड के चेयरमैन हैं और छत्तीसगढ़ सरकार से उन्हें राज्यमंत्री का दर्जा मिला हुआ है। वे पहले भी विधायक रह चुके हैं।