हावी महत्वकांक्षाएं : कहीं न खुदा मिले, न विसाल-ए-सनम
रुझान आने शुरू हो गए है। मुख्यमंत्री पद पर जिला कांगड़ा का दावा आ चुका है। बाकी भी पूरी तैयारी में दिख रहे है। वीरभद्र सिंह का निधन प्रदेश कांग्रेस के लिए बड़ी आपदा है, और राजनीति में आपदा में अवसर तलाशना कोई नई बात नहीं है। ये अलग बात है कि सिर्फ तलाशने से कुछ नहीं मिलता। ये अलग बात है कि मुख्यमंत्री बनने के लिए पहले पार्टी को सत्ता में लाना होगा। पर फिलवक्त, तो डर यही है कि नेताओं की निजी महत्वकांक्षाएं कहीं इतनी हावी न हो जाएं कि न खुदा मिले, न विसाल-ए-सनम।
पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह बेशक बीते दो-तीन साल से अधिक सक्रिय नहीं थे फिर भी पार्टी का चेहरा वीरभद्र सिंह ही रहे। उनके रहते कई नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षा दबी सी रही, कोई सियासी शूरवीर ऐसा नहीं दिखा जो उनके वर्चस्व के आगे ठहर पाया हो। यानी बेशुमार गुटबाजी के बावजूद वीरभद्र सिंह पार्टी के सर्वमान्य नेता बने रहे। पर अब पुराने निष्ठावानों का महत्वाकांक्षी होना तो जायज है, पर कई दूसरी -तीसरी पंक्ति के नेता भी सीएम बनने का ख्वाब संजोये बैठे है। वीरभद्र सिंह के निधन से उपजे शून्य में ये गुटबाजी पार्टी की नैया डुबाने के लिए काफी है। अगर समय रहते आलाकमान ने पार्टी की दशा सुधारने हेतु उचित दिशा तय नहीं की तो 2022 में डगर बेहद मुश्किल होने वाली है। दरअसल, कांग्रेस में ऐसे कई चेहरे है जो सीएम बनने के इच्छुक माने जाते है या जिनके समर्थक अभी से उन्हें बतौर मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट करना शुरू कर चुके है। 2017 से ही इनमें से कुछ के सितारे अच्छे चल रहे है तो कुछ हाशिए पर है, पर वीरभद्र सिंह के निधन के उपरांत सारा गुणा भाग बदल गया है। वीरभद्र के बाद कौन, फिलवक्त ये ही यक्ष प्रश्न है।
संगठन मेक ओवर नहीं हुआ तो सत्ता का टेक ओवर मुश्किल :
बीते कुछ वक्त में कांग्रेस का जनाधार तेजी से घटा है। इस पर गुटबाजी और अंतर्कलह ने पार्टी की परेशानी में और इजाफा किया है। इसका सबसे बड़ा कारण है लचर और प्रभावहीन नेतृत्व। प्रदेश नेतृत्व से लेकर जिला और ब्लॉक तक नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे है। ऐसे में समय रहते संगठन का मेक ओवर नहीं होता है तो 2022 में सत्ता का टेक ओवर मुश्किल होगा। वैसे जानकार मानते है कि वर्तमान प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर को अब तक वीरभद्र सिंह की गुड बुक्स में होने का लाभ मिलता रहा, पर अब उन्हें बदले जाने को लेकर सुर तेज हो सकते है। प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी से सीएम की कुर्सी तक का सफर आसान हो सकता है, ऐसे में माना जा रहा है कि कई चाहवानों की नजर राठौर की कुर्सी पर टिकी है। पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू के चाहवान उन्हें फिर से प्रदेश संगठन की कमान दिए जाने की मांग करने लगे है। वीरभद्र सिंह उन्हें ख़ास पसंद नहीं करते थे और ये ही सुक्खू के अपदस्थ होने का मुख्य कारण भी था। पर अब बदले समीकरण में सुक्खू का दावा कमतर नहीं होगा।
पहला दावा कांगड़ा का, पर बाली या सुधीर !
सीएम पद के लिए खुलकर पहला दावा जिला कांगड़ा का आया है। या यूं कहे कि जिले के नाम पर ही सही पर पूर्व मंत्री जीएस बाली ने मुख्यमंत्री पद के लिए दावा ठोक दिया है। बीते दिनों बाली ने कहा कि जिला कांगड़ा का मुख्यमंत्री की सीट पर पूरा अधिकार है। सूबे की सियासत की गाड़ी यहीं से निकलती है, तभी वह शिमला पहुंचती है। बाली की बात ठीक भी है, इतिहास तस्दीक करता है कि हिमाचल प्रदेश में सत्ता सुख उसी राजनैतिक दल का नसीब होता हैं जिसपर जिला कांगड़ा की कृपा बरसती हैं। जो कांगड़ा फ़तेह नहीं कर पाता उसे सत्ता विरह ही मिलता है। वर्ष 1985 से ऐसा ही ट्रेंड है। 1985, 1993, 2003 और 2012 में कांग्रेस पर कांगड़ा का वोट रुपी प्यार बरसा तो सत्ता भी कांग्रेस को ही मिली। वहीं 1990, 1998, 2007 और 2017 में कांगड़ा में भाजपा इक्कीस रही और प्रदेश की सत्ता भी भाजपा को ही मिली।
असल सवाल तो ये है कि अगर कांगड़ा को सीएम पद मिल भी जाता है तो क्या बाली ही सर्वमान्य चेहरा है ? दरअसल कांगड़ा में एक और कांग्रेसी पंडित भी है जो फिलवक्त अपनी सियासी जमीन समतल करने की जद्दोजहद में लगे है। पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के करीबी माने जाने वाले सुधीर शर्मा पिछली सरकार में नंबर दो माने जाते थे और सीएम फेस के लिए उनका दावा भी बाली से कम नहीं होने वाला। ये भी जगजाहिर है कि कांगड़ा के ये दोनों दिग्गज एक दूसरे की जमीन खोदते आ रहे है। इसी खींचतान का नतीजा है कि पिछले विधानसभा चुनाव में ये दोनों ही धराशाई हो गए थे। अब इन दोनों में से कोई भी एक दूसरे के नाम पर सहमत होगा, ऐसा नहीं लगता। और इन दोनों के बिना कांगड़ा फ़तेह हो सकता है, ऐसा भी नहीं लगता। बाकी राजनीति में कुछ भी मुमकिन है, दूरियां कब नजदीकियों में बदल जाए मालूम नहीं।
मंडी भी कम नहीं, कौल सिंह का दावा तय !
जिला कांगड़ा के बाद सबसे ज्यादा सियासी वजन जिला मंडी का है जिसमें 10 विधानसभा सीटें आती है। यहां का सियासी मिजाज भी जिला कांगड़ा जैसा ही है, जिस भी राजनैतिक दल ने मंडी जीता वही सत्ता पर काबिज हुआ। मंडी में अगर कांग्रेस की बात करें तो कौल सिंह ठाकुर इस वक्त सबसे बड़ा चेहरा है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वे सीएम पद के दावेदार थे, हालांकि तब उनके अरमान अधूरे रहे। फिर 2017 में वे खुद भी चुनाव हारे और उनकी बेटी चंपा ठाकुर भी, जो कौल सिंह ठाकुर के लिए बड़ा झटका था। पर बीते कुछ समय से कौल सिंह ठाकुर की सक्रियता बढ़ी है और उनके समर्थक वीरभद्र सिंह के जीवित रहते भी उन्हें बतौर सीएम प्रोजेक्ट करते रहे है। अलबत्ता वे 2017 में हार गए थे लेकिन उनकी जमीनी पकड़ पर कोई संशय नहीं है। जानकार मानते है कि सीएम पद के लिए कौल सिंह ठाकुर का दावा भी तय है।
कौल सिंह ठाकुर बीते वर्ष लंच डिप्लोमेसी को लेकर भी चर्चा में रहे थे। तब पूर्व प्रदेश अध्यक्ष सुखविंद्र सुक्खू के साथ उनके सहभोज ने नए समीकरणों को हवा दी थी। अब माहिर मानते है कि सत्ता शीर्ष पर पहुंचने के लिए कौल सिंह ठाकुर व कुछ अन्य नेता एक साथ आ सकते है। माना जा रहा है कि आगामी कुछ वक्त में कांग्रेस में कई आंतरिक गठबंधन बनते बिगड़ते दिखेंगे।
संगठन की कमान मिली तो आसान हो सकती है राह !
2017 में सत्ता गंवाने के बाद मुकेश अग्निहोत्री नेता प्रतिपक्ष बने। वास्तव में तब कौल सिंह ठाकुर, जीएस बाली, सुधीर शर्मा सहित कई नेता जीतकर सदन में ही नहीं पहुंचे थे, सो अग्निहोत्री की नेता प्रतिपक्ष बनने की राह ज्यादा कठिन नहीं थी। इस पर उन्हें वीरभद्र सिंह की कृपा भी प्राप्त रही। समर्थक लगातार उन्हें भावी सीएम प्रोजेक्ट करते आ रहे है और अग्निहोत्री एक मंझे हुए नेता की तरह नाप तोल कर सियासत कर रहे है। पर अग्निहोत्री की स्वीकार्यता अब तक पूरे प्रदेश में नहीं दिखी है। उनकी राजनीति शिमला और ऊना तक ही सीमित रही है, बाकी जिलों में न तो उनके निष्ठावानों की ब्रिगेड दिखती है और न ही उनकी खास दखल। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद अग्निहोत्री की डगर भी मुश्किल होगी। माना जाता है कि मुकेश अग्निहोत्री भी उन नेताओं में है जो संगठन की कमान अपने हाथ में चाहते है। निसंदेह यदि ऐसा करने में अग्निहोत्री सफल हुए तो समीकरण उनके पक्ष में बनने लगेंगे, पर फिलवक्त तो उन्हें कई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा।
आशावान है आशा के समर्थक :
आशा कुमारी भी उन नेताओं में से है जिन्हें सत्ता वापसी की स्थिति में सीएम पद का दावेदार माना जाता है। समर्थक अभी से उन्हें प्रदेश की भावी सीएम और प्रदेश की होने वाली पहली महिला मुख्यमंत्री करार देने लगे है। आशा कुमारी निसंदेह तेजतर्रार भी है और अच्छी वक्ता भी। सदन में भी सक्रिय दिखती है और जब शिमला में होती है तो सरकार को घेरने में भी पीछे नहीं रहती। इस पर गांधी परिवार से उनकी नजदीकी भी उनका दावा जरूर मजबूत करेगी। पर अतीत के कई विवाद आशा कुमारी का पीछा आसानी से नहीं छोड़ेगे। इस पर पार्टी में व्याप्त अंतर्कलह भी उनके रास्ते में आएगी। उनकी स्तिथि भी मुकेश अग्निहोत्री जैसी है, शिमला और अपने जिले में तो ठीक है पर पूरे प्रदेश में उन्हें अपनी स्वीकार्यता सिद्ध करनी होगी।
गुटबाजी से दूर, डार्क हॉर्स है कर्नल शांडिल
कर्नल धनीराम शांडिल; दो बार सांसद, दो बार विधायक, पूर्व मंत्री और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के पूर्व सदस्य रहे है । शांडिल गांधी परिवार के करीबी है और बेदाग़ छवि उनका दावा और मजबूत करती है। विपक्ष में रहते हुए जब भाजपा कांग्रेस के मंत्रियों के खिलाफ चार्जशीट लाई थी तो उसमें भी कर्नल शांडिल का नाम नहीं था। यानी कह सकते है कि भाजपा भी उन्हें ईमानदार मानती रही है। पर कर्नल शांडिल का सबसे बड़ा प्लस पॉइंट ये है कि वे किसी गुट में नहीं है। गुटबाजी से ये दूरी उन्हें सीएम की रेस में डार्क हॉर्स साबित कर सकती है। हालांकि राजनीति के लिहाज से शांडिल बहुत बेहतर वक्ता नहीं है और न ही उनकी पकड़ सोलन के बाहर दिखती है, पर विरोधी भी अक्सर कर्नल धनीराम को किस्मत का धनी कहते है।