सोलन में हर सीट पर रोमांच, सही टिकट आवंटन ही जीत का मंत्र
कहीं बदलते समीकरण, तो कहीं बदलती निष्ठाएं। कहीं अंतर्कलह, कहीं हावी निजी महत्वकांक्षाएं। कमोबेश जिला सोलन की पांचों विधानसभा सीटों का ये ही सूरत - ए- हाल है। सत्ता में होने के बावजूद भाजपाई जोश फीका है तो विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस में धार नहीं दिख रही। वहीं आम आदमी पार्टी कोशिश तो कर रही है पर कुछ ज्यादा फर्क पड़ा हो, ऐसा नहीं लगता। अलबत्ता, जिला कांगड़ा और मंडी के बराबर न सही, लेकिन सोलन का सियासी वजन इतना जरूर है कि विधानसभा चुनाव में ये जिला मिशन रिपीट या डिलीट के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। वर्तमान में सोलन जिला की पांच सीटों में से तीन पर कांग्रेस काबिज है और दो पर भाजपा का कब्ज़ा है। सोलन, अर्की और नालागढ़ में कांग्रेस तथा कसौली और दून निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के विधायक है। जिला सोलन में जयराम राज में भाजपा का प्रदर्शन फीका रहा है। सोलन नगर निगम चुनाव में भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। इसके पहले परवाणु नगर परिषद् चुनाव में भाजपा हारी तो बद्दी और नालागढ़ में नतीजों के बाद जोड़ -तोड़ से पार्टी के अध्यक्ष बने। नगर पंचायत अर्की चुनाव भी पार्टी हारी, हालांकि कंडाघाट नगर पंचायत चुनाव भाजपा जीती। वहीँ इसके बाद हुए अर्की उपचुनाव में भी पार्टी को शिकस्त मिली। जिला सोलन में दोनों ही पार्टियों के संगठन को लेकर भी सवाल उठते रहे है। कांग्रेस संगठन की अगुवाई शिव कुमार कर रहे है, तो भाजपा की आशुतोष वैद्य। बतौर जिला अध्यक्ष दोनों ही नेता अब तक छाप छोड़ने में कामयाब नहीं दिखे है। कांग्रेस जिला अध्यक्ष के तो गृह बूथ पर भी कांग्रेस बेहतर करती नहीं दिखी है। अमूमन पुरे कांग्रेस संगठन का हाल ही ऐसा दिखा है लेकिन जिला अध्यक्ष को लेकर अक्सर पार्टी के भीतर भी सवाल उठे है। विशेषकर जिला मुख्यालय सोलन में ब्लॉक और शहरी कांग्रेस के साथ उनका तालमेल नहीं दिखता। माना जा रहा था कि प्रदेश में हुए बदलाव के बाद कांग्रेस संगठन को धार देने के लिए जिला स्तर पर बदलाव करेगी, किन्तु अब तक ऐसा नहीं हुआ है। वहीं आशुतोष तो लेकर भाजपा संगठन में स्वीकार्यता की कमी उजागर होती है। जानकार मानते है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं -कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन कर सके, ऐसी झलक आशुतोष में नहीं दिखती।
नालागढ़ : संभवतः राणा और ठाकुर में होगा मुकाबला, दोनों तरफ अंतर्कलह
न कोई कम, न कोई ज्यादा। नालागढ़ निर्वाचन क्षेत्र की सियासत का हाल कुछ ऐसा ही है। कांग्रेस-भाजपा दोनों यहाँ बराबर है और इस पर अब आम आदमी पार्टी की एंट्री ने सियासत में उबाल ला दिया है। अलबत्ता अभी विधानसभा चुनाव में करीब 6 माह का वक्त है लेकिन आधा दर्जन से ज़्यादा भावी उम्मीदवार मैदान में उतर चुके है। कांग्रेस से वर्तमान विधायक लखविंदर राणा मोर्चा संभाले हुए है तो भाजपा से पूर्व विधायक के एल ठाकुर भी ताव में है। जबकि नए नवेले आम आदमी हुए पूर्व जिला परिषद् अध्यक्ष धर्मपाल चौहान दोनों के अरमानों पर झाड़ू फेरने की ताक में है। हालांकि धर्मपाल अभी तक तो मानो औपचारिकता पूरी करते ही दिख रहे है। भाजपा की वर्तमान स्थिति की बात करें तो पिछली बार खेल खराब करने वाले हरप्रीत सैनी का इरादा इस बार भी मैदान में उतरने का लग रहा है। भाजपा के जिला अध्यक्ष आशुतोष वैद्य का नाम भी चर्चा में है। पर दावा के एल ठाकुर का ही मजबूत है। उधर कांग्रेस से लखविंद्र राणा के अलावा एक और चेहरा है जिस पर निगाहें टिकी है, वो है बावा हरदीप सिंह। बावा पिछले चुनाव में कांग्रेस के बागी थे और पार्टी में वापसी के बाद इस बार भी टिकट के लिए दावा ठोक रहे है। दिलचस्प बात ये है कि राणा सुखविंद्र सिंह सुक्खू के ज़्यादा करीबी है तो बावा होलीलॉज कैंप से आते है। नालागढ़ निर्वाचन क्षेत्र के अतीत में झांके तो भाजपा से हरि नारायण सिंह सैनी ने लगातार तीन बार कमल खिलाया था। वे वर्ष 1998, 2003 व 2007 में विधायक रहे। उनके निधन के बाद 2011 में हुए उपचुनाव में कांग्रेस के लखविंद्र सिंह राणा ने बाज़ी मारी। पर एक ही साल में जनता का राणा से मोह भंग हो गया और 2012 के विधानसभा चुनाव में राणा को शिकस्त का सामना करना पड़ा। वहीं भाजपा उम्मीदवार के एल ठाकुर पहली बार विधायक बने। 2017 के चुनाव की बात करें तो नालागढ़ से एक बार फिर लखविंदर सिंह राणा और के एल ठाकुर आमने -सामने थे। हालांकि यहाँ राणा ने बाज़ी मारी किन्तु बेहद रोचक मुकाबला देखने को मिला। कांग्रेस का टिकट न मिलने पर बाबा हरदीप सिंह ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और साढ़े सात हज़ार वोट लेकर तीसरे स्थान पर रहे। जबकि भाजपा के बागी हरप्रीत सैनी ने करीब दो हज़ार वोट हासिल कर ठाकुर का खेल खराब कर दिया था। वर्तमान में लखविंदर सिंह राणा ही नालागढ़ कांग्रेस का मुख्य चेहरा है। राणा इस सीट से पांच चुनाव लड़ चुके है। उन्होंने पहली बार वर्ष 2003 में बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा था। इसके बाद हुए तीन विधानसभा चुनाव और एक उपचुनाव में कांग्रेस ने उन्हें ही टिकट दिया है जिसमें से दो बार उन्हें जीत मिली है।
कसौली : क्या हरमेल फैक्टर का इलाज निकाल पाएंगे डॉक्टर !
कसौली निर्वाचन क्षेत्र में एक तरफ मिस्टर क्लीन इमेज वाले वर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के साथ भाजपा की पूरी टीम जीत का चौका लगाने के लिए मैदान में है, तो दूसरी तरफ कांग्रेस जीत का सूखा खत्म करने की फिराक में। और इन दोनों का खेल बिगाड़ने की जुगत में मैदान में आम आदमी पार्टी की एंट्री भी हो चुकी है। कसौली निर्वाचन क्षेत्र हिमाचल प्रदेश के ऐसे निर्वाचन क्षेत्रों में से है जो हमेशा आरक्षित रहे है। ऐसे में इस क्षेत्र के कई कद्दावर नेताओं की विधायक - मंत्री बनने की हसरत कभी पूरी नहीं हुई। कुछ की उम्र संगठन की सेवा में बीत गई, तो कुछ को सत्ता सुख के नाम पर बोर्ड - निगमों में एडजस्ट कर दिया गया। ऐसा भी माना जाता है कि सामान्य वर्ग से आने वाले कई नेताओं ने कई मौकों पर अपनी पार्टी प्रत्याशी की राह में ही कांटे डाले ताकि उनकी कुव्वत बनी रहे। कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अरसे तक कांग्रेस का गढ़ रहा। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। 2003 में प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सरकार में रघुराज मंत्री बने। मंत्री बनने के बाद कसौली के लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी और शायद इसी का खामियाजा रघुराज को 2007 में उठाना पड़ा, जब वे चुनाव हार गए। तब जमीनी स्तर पर रघुराज के खिलाफ नाराज़गी दिखी थी। उन्हें हराने वाले थे भाजपा के डॉ राजीव सैजल। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था, पर कसौली की जनता ने रघुराज पर युवा सैजल को वरीयता दी और वे चुनाव जीत गए। तब पहला चुनाव जीतने वाले सैजल वर्तमान में प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री है। अब तक सैजल जीत की हैट्रिक लगा चुके है और अब जीत का चौका लगाने की तैयारी में है। हालांकि उनकी राह ज़रा भी आसान नहीं दिख रही। इसमें कोई संशय नहीं है कि मामूली अंतर से बीते दो चुनाव जीतने वाले सैजल को इस बार भी एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ेगा। भाजपा की मुश्किलें बढ़ाने के पीछे हरमेल धीमान का भी बड़ा हाथ है। बीते दिनों कसौली भाजपा के वरिष्ठ नेता व भाजपा एससी मोर्चा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष हरमेल धीमान ने भाजपा छोड़ आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया। वह पिछले चुनाव के दौरान टिकट की मांग कर रहे थे लेकिन टिकट राजीव सैजल को ही मिला। पिछली बार भी पूर्व सीएम प्रेम कुमार धूमल के मनाने पर उन्होंने डॉक्टर राजीव सैजल के लिए चुनाव में काम किया था । हरमेल धीमान खुद तो आप में गए ही लेकिन साथ ही वे भाजपा के पूर्व मंडल अध्यक्ष देवराज ठाकुर व मंडल के पूर्व उपाध्यक्ष व जिला परिषद सदस्य जगदीश पंवर समेत अन्य समर्थकों को भी आम आदमी पार्टी में ले गए। ज़ाहिर है इन निष्ठावान सिपाहियों की निष्ठा में परिवर्तन का नुक्सान भाजपा को भारी पड़ सकता है। वहीं लगातार तीन चुनाव हारने के बाद कांग्रेस के लिए ये चुनाव काफी महत्वपूर्ण है और शायद यही कारण है कि विनोद सुल्तानपुरी अभी से प्रो एक्टिव दिख रहे है। सुल्तानपुरी बीते एक साल से जनता के बीच है भी और उनकी सुन भी रहे है। अगर परवाणु को छोड़ दिया जाए तो बीते साढ़े तीन साल में कांग्रेस हर जगह बैकफुट पर दिखी है। जाहिर है पिछले दो चुनाव में मामूली अंतर से हारने वाले सुल्तानपुरी इस बार कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। माना जाता है कि कांग्रेस का भीतरघात पिछले चुनावों में उन पर भारी पड़ा, पर अब सुल्तानपुरी सक्रिय भी है और निरंतर लोगों के बीच भी। वहीं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता कि पार्टी अब पूरी तरह एकजुट हो लेकिन कांग्रेस में विनोद सुल्तानपुरी विरोधी खेमे का दमखम अब पहले से कुछ कम जरूर दिखता है। ये सुल्तानपुरी के लिए राहत की बात जरूर होगी। यहाँ ये बताना भी जरूरी है कि टिकट दावेदारों में भी विनोद सुल्तानपुरी के समकक्ष कोई मजबूत दावेदार नहीं दिखता।
सोलन : कांग्रेस में कर्नल, तो भाजपा में कोई सर्वमान्य नेता नहीं !
सोलन निर्वाचन क्षेत्र में वर्ष 2000 में उपचुनाव हुआ था। तब अप्रत्याशित तौर पर पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत का टिकट काट कर भाजपा ने डॉ राजीव बिंदल को टिकट दिया था, और पहली बार बिंदल विधायक बने थे। इसके बाद डॉ बिंदल ने 2003 और 2007 में भी जीत दर्ज की। 2007 से 2012 तक बिंदल मंत्री भी रहे और सोलन की राजनीति में उनका खूब डंका बजा। किन्तु धूमल सरकार के जाते -जाते भ्रष्टाचार के आरोप के चलते उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। 2012 में सोलन सीट आरक्षित हो गई तो डॉ राजीव बिंदल नाहन चले गए। इसके बाद से सोलन में भाजपा का कोई चेहरा स्थापित नहीं हो पाया। सोलन भाजपा की राजनीति में बिंदल की दखल और असर दोनों दिखते रहे। 2012 में कुमारी शीला को टिकट दिलवाना और 2017 में शीला का टिकट कटवाकर डॉ राजेश कश्यप की एंट्री करवाना भी बिंदल के असर का ही परिणाम समझा जाता रहा है। पर माना जाता है कि 2017 के चुनाव में डॉ बिंदल के कुछ निष्ठावानों ने डॉ राजेश कश्यप का साथ नहीं दिया, सो चुनाव में हार के बाद डॉ राजेश कश्यप महेंद्र नाथ सोफत के साथ हो लिए। इस बीच जब डॉ राजीव बिंदल प्रदेश भाजपा अध्यक्ष बने तो डॉ राजेश कश्यप फिर साइडलाइन होने लगे लेकिन बिंदल को स्वास्थ्य घोटाले के चलते इस्तीफा देना पड़ा और इसके बाद नगर निगम चुनाव में भी उनका जादू नहीं चला, तो अब उनका दखल सोलन में शायद न दिखे। वहीं इस वक्त टिकट को लेकर भाजपा में एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। बेशक डॉ राजेश कश्यप प्रो एक्टिव दिख रहे हो लेकिन दावेदारों की फेहरिस्त में तरसेम भारती और कुमारी शीला के साथ -साथ पूर्व सांसद और डॉ कश्यप के बड़े भाई प्रो. वीरेंदर कश्यप का नाम भी है। वीरेंदर कश्यप दो बार सांसद रहे है और पार्टी के आदेश पर चुनाव लड़ने की बात भी कह चुके है। ऐसे में जानकार मानते है कि डॉ राजेश के विरोधी भी प्रो. वीरेंदर कश्यप के नाम को आगे बढ़ा सकते है। कांग्रेस की बात करें तो 2012 में पहली बार कर्नल धनीराम शांडिल ने विधानसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। शांडिल चुनाव जीतते ही कैबिनेट मंत्री बन गए। 2017 के चुनाव में शांडिल दूसरी बार विधायक बने। कर्नल शांडिल का कोई विकल्प फिलहाल कांग्रेस के पास नहीं दिख रहा। हालांकि वीरभद्र गुट को शांडिल ख़ास रास नहीं आते। जनवरी में हुए जिला परिषद चुनाव और अप्रैल में हुए नगर निगम चुनाव में भी टिकट वितरण को लेकर ये खींचतान स्पष्ट देखने को मिली। बावजूद इसके शांडिल ही सोलन में कांग्रेस का प्राइम फेस है। दरअसल, शांडिल की ताकत ये है कि वे गुटबाजी से हमेशा फासला रखते है। हालांकि कर्नल विरोधी मेयर पूनम ग्रोवर का नाम भी आगे कर रहे है लेकिन ये मात्र हवाई कयास ही लग रहे है। ग्राउंड रियलिटी की बात करें तो कर्नल ही एकमात्र ऐसा चेहरा है।
दून विधानसभा : कांग्रेस के राम तो भाजपा में टिकट को कोहराम !
बीते तीन दशक में दून निर्वाचन हलके की राजनीति बेहद दिलचस्प रही है। 1990 की शांता लहर में जनता दल के टिकट पर चौधरी लज्जा राम विधायक चुन कर आये थे। पर 1993 आते -आते चौधरी लज्जा राम ने पार्टी बदल ली और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1993, 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में चौधरी लज्जा राम यहाँ से विधायक रहे। पर 2007 के चुनाव में उन्हें भाजपा की विनोद चंदेल ने परास्त कर पहली बार कमल खिलाया। फिर आया 2012 का बेहद रोचक चुनाव। कांग्रेस ने चौधरी लज्जा राम के पुत्र राम कुमार को मैदान में उतारा, तो वहीँ भाजपा ने विनोद चंदेल को ही टिकट थमाया। इस मुकाबले में विजय राम कुमार चौधरी की हुई, पर दिलचस्प बात ये रही कि भाजपा चौथे पायदान पर रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों से बागी उम्मीदवार भी मैदान में थे। भाजपा के बागी दर्शन सिंह जहाँ 11 हज़ार से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे, तो कांग्रेस के बागी परमजीत सिंह पम्मी भी 10 हज़ार से ज्यादा वोट ले गए और तीसरे स्थान पर रहे। इस बीच ज्योति हत्याकांड में विधायक राम कुमार चौधरी का नाम खूब उछला। उधर राम कुमार के रहते परमजीत सिंह पम्मी को कांग्रेस में भविष्य नहीं दिख रहा था। सो पम्मी ने भाजपा का दामन थाम लिया। जैसा अपेक्षित था 2017 में भाजपा ने पम्मी को मैदान में उतारा और कांग्रेस से एक बार फिर राम कुमार चौधरी मैदान में थे। इस मुकाबले में पम्मी ने जीत दर्ज की। अब फिर दून की सियासत गरमाई हुई है। जैसे - तैसे जोड़ -तोड़ कर भाजपा ने स्थानीय निकाय पर बेशक कब्ज़ा कर लिया हो लेकिन कांग्रेस भी यहाँ कमजोर नहीं दिखती। राम कुमार चौधरी पूरी तरह सक्रीय भी है और कांग्रेस का प्राइम फेस भी। उधर भाजपा में परमजीत सिंह पम्मी को दर्शन सिंह सैनी और बलविंद्र ठाकुर से चुनौती मिलती दिख रही है। माहिर मान रहे है कि भाजपा में टिकट के लिए कोहराम की स्थिति से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
अर्की : कांग्रेस से अवस्थी, ठाकुर का ऐलान और भाजपा को चेहरे की तलाश
अर्की में राजा वीरभद्र सिंह के जाने के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के संजय अवस्थी ने जीत हासिल की। यहां भाजपा में चल रहे भारी अंतर्कलह का फायदा स्पष्ट तौर पर कांग्रेस को मिलता हुआ दिखाई दिया। हालाँकि इस बार भाजपा मिशन रिपीट के लिए कोई रिस्क लेती नज़र नहीं आ रही है तो ज़ाहिर है कांग्रेस को भी और कड़ी मेहनत करनी होगी। लगातार दो चुनाव हारने के बाद भाजपा इस दफा भी रतन सिंह पाल पर भरोसा जताएगी, इसकी सम्भावना कम ही है। हालाँकि रतन सिंह पाल अब भी पूरी तरह मैदान में डटे हुए है। 2017 के चुनाव में पार्टी ने गोविंद राम शर्मा का टिकट काट कर यहां रतन सिंह पाल को मैदान में उतारा था तब कांग्रेस से वीरभद्र सिंह ने रतन सिंह पाल को हरा कर अर्की पर राज किया। उपचुनाव में भी पार्टी ने रतन सिंह पाल को ही टिकट दिया। उस दौरान भी भाजपा का एक धड़ा रतन पाल का खुलकर विरोध कर रहा था। नतीज़न भारी अंतर्कलह के कारण भाजपा को उपचुनाव में हार का सामना करना पड़ा। अब कयास है की इस बार अर्की निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा किसी नए चेहरे पर भी दांव खेल सकती है। क्षेत्र में एक नए चेहरे को लेकर सुगबुगाहट भी तेज़ हो गयी है।वहीं कांग्रेस की बात करें तो प्रतिभा सिंह के प्रदेश कांग्रेस की कमान संभालने के बाद अर्की निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस के लिए भी सियासी समीकरण बदलने के आसार है। उपचुनाव में पार्टी ने सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबी और 2012 में पार्टी प्रत्याशी रहे संजय अवस्थी को अपना उम्मीदवार बनाया था। इसके बाद होलीलॉज के करीबी रहे राजेंद्र ठाकुर ने अपने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दी थी। हालांकि ठाकुर ने बतौर निर्दलीय चुनाव तो नहीं लड़ा लेकिन पार्टी के लिए काम भी नहीं किया। तब से अब तक ठाकुर कांग्रेस से बाहर है। राजेंद्र ठाकुर इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुके है।