बद्रीनाथ धाम, हिन्दुओं के चार धामों में से एक, भगवान विष्णु का निवास स्थल है। यह उत्तराखंड राज्य में अलकनंदा नदी के बाएं तट पर नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब भगवान विष्णु ध्यान योग के लिए स्थान खोजते-खोजते नीलकंठ पर्वत और अलकनंदा नदी के तट पर पहुंचे, तो यह स्थान उन्हें पसंद आया। पहले से शिवभूमि होने के कारण उन्होंने बाल रूप धारण किया और रोने लगे। माता पार्वती और शिवजी उनके समक्ष प्रकट हुए और बालक ने ध्यान योग के लिए यह स्थान मांग लिया। विष्णु ने शिव-पार्वती से रूप बदलकर यह पवित्र स्थल प्राप्त किया, जो बद्रीविशाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ। एक बार विष्णु तपस्या में लीन थे और हिमपात होने लगा। लक्ष्मी ने बेर के वृक्ष का रूप धारण कर उन्हें बचाया। विष्णु ने लक्ष्मी के तप को देखकर उन्हें साथ पूजनीय बनाया और 'बदरी के नाथ' कहलाए। इस प्रकार भगवान विष्णु का नाम और इस मंदिर का नाम बद्रीनाथ पड़ा। मान्यता है कि इस मंदिर में मांगी गई हर मुराद पूरी होती है । आज यह मंदिर धार्मिक और अंतरराष्ट्रीय महत्व का केंद्र बना हुआ है, जिसे हर साल लाखों श्रद्धालु देखने आते हैं।
आज देशभर में शिवरात्रि महोत्सव मनाया जा रहा है। इस पर्व को भगवान शिव व माता पार्वती के विवाह के उपलक्ष्य में मनाया जाता है। देवों की भूमि हिमाचल में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। यहां हर गांव व हर कस्बे और शहर में इसे मनाया जाता है। हिमाचल में मंडी में मनाये जाने वाले शिवरात्रि महोत्सव को अंतरराष्ट्रीय दर्जा मिला हुआ है। अपने 81 मंदिरों से त्योहार में आमंत्रित देवताओं और देवियों की बड़ी संख्या को ध्यान में रखते हुए मंडी शहर को 'पहाड़ियों की वाराणसी' यानी छोटी काशी का खिताब मिला है। मंडी में मनाये जाने वाले शिवरात्रि महोत्सव के विषय में अनेक मान्यताएं हैं। एक मान्यता के अनुसार मंडी के राजा शिवमान सिंह की मृत्यु के समय उसका बेटा ईश्वरी सेन केवल पांच वर्ष का था। सन 1788 में 5 वर्ष की आयु में ही ईश्वरी सेन को मंडी राज्य का राजा नियुक्त कर दिया गया। कांगड़ा के राजा संसार चंद ने इस बात का फायदा उठाया और मंडी पर आक्रमण कर दिया और ईश्वरी सेन को कांगड़ा ले गया। वहां 12 वर्ष तक नादौन में बंदी बनाकर रखा। सन् 1806 में गोरखों ने ईश्वरी सेन को आजाद करवाया। कहा जाता है कि राजा ईश्वरी सेन शिवरात्रि के कुछ दिन पहले ही लंबी कैद से मुक्त होकर मंडी वापस लौटे थे। इसी खुशी में ग्रामीण भी अपने देवताओं को राजा से मिलाने के लिए मंडी नगर की ओर चल पड़े। राजा व प्रजा ने मिलकर यह जश्न मेले के रूप में मनाया। महाशिवरात्रि का पर्व भी इन्हीं दिनों था तथा इस तरह से शिवरात्रि पर हर वर्ष मेले की परंपरा शुरू हो गई। भूतनाथ मंदिर के निर्माण की कहानी भूतनाथ मंदिर, भगवान शिव की अभिव्यक्ति की मूर्ति के साथ, 1520 के दशक का एक प्राचीन मंदिर, मंडी का पर्याय है। यह शहर के मध्य में है। नंदी, शिव की सवारी, अलंकृत दोहरे धनुषाकार प्रवेश द्वार से देवता का सामना करती है। शिवरात्रि का त्योहार इस मंदिर का प्रमुख आयोजन है, जो मंदिर में सात दिन तक मनाया जाता है। भूतनाथ मंदिर के निर्माण के बारे में एक किंवदंती बताई जाती है। ऐसा कहा जाता है कि, 1526 में, राजा अजबर सेन ने मंडी के एक जंगल में एक गाय द्वारा अपनी इच्छा से एक विशेष पत्थर पर दूध चढ़ाने की कहानी सुनी थी। ऐसा कहा जाता है कि राजा के सपने में भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने उस स्थान पर दबे हुए शिव लिंग को बाहर निकालने का निर्देश दिया। इसके बाद, राजा को संकेतित स्थान पर शिव लिंग मिला, जिसे उन्होंने 1526 में एक मंदिर में स्थापित किया, उसी स्थान पर जहां यह पाया गया था। उन्होंने इसे भूतनाथ मंदिर कहा और मंडी में शिवरात्रि उत्सव मनाने की शुरुआत की। इस घटना के साथ-साथ, राजा ने अपनी राजधानी भिउली से मंडी स्थानांतरित कर दी। शिवरात्रि में माधोराय ही क्यों करते हैं शोभा यात्रा का नेतृत्व कहा जाता है कि मंडी के पहले राजा बाणसेन शिव भक्त थे, जिन्होंने अपने समय में शिव महोत्सव मनाया। राजा अजबर सेन ने 1527 में मंडी कस्बे की स्थापना की और भूतनाथ में विशालकाय मंदिर निर्माण के साथ-साथ शिवोत्सव मनाया। राजा अजबर सेन के समय यह उत्सव एक या दो दिन ही मनाया जाता था। परंतु राजा सूरज सेन (1664-1679) के समय इस उत्सव को नया आयाम मिला। ऐसा माना जाता है कि राजा सूरज सेन के 18 पुत्र थे जो उसके जीवनकाल में ही मर गए। उत्तराधिकारी के रूप में राजा ने एक सुनार 'भीमा' से एक चांदी की प्रतिमा बनवाई जिसे माधोराय नाम दिया गया। राजा ने अपना साम्राज्य माधोराय को दे दिया। इसके बाद शिवरात्रि में माधोराय ही शोभा यात्रा का नेतृत्व करने लगे। राज्य के समस्त देव शिवरात्रि में आकर पहले माधोराय व फिर राजा को हाजिरी देने लगे।
नैसर्गिक सौंदर्य से परिपूर्ण हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से भी जाना जाता है। यहां अनगिनत धार्मिक स्थल हैं। इस पहाड़ी राज्य के कण-कण में देवी-देवताओं का वास है। ऐसा कोई ही गांव होगा, जहां किसी देवी या देवता को पूजा न जाता हो। यहां की संस्कृति देव संस्कृति है। राज्य के कांगड़ा जिले में ऐसे कई धार्मिक स्थल हैं, जहां हर साल देश-विदेश से हजारों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं। ऐसा ही एक घार्मिक स्थल है मसरूर का रॉक कट टैंपल, जिसे हिमाचल का अजंता-एलोरा भी कहा जाता है। यह एक ऐसा धार्मिक स्थल है, जहां एक ही चट्टान को काटकर करीब 15 मंदिर बनाए गए हैं। मंदिरों का यह समूह कांगड़ा जिले के विकास खंड नगरोटा सूरियां के तहत पड़ते गांव मसरूर में स्थित है। कब और किसने किया निर्माण ... ऐसा माना जाता है कि इनका निर्माण पांडवों द्वारा तब किया गया था, जब वे इन पहाड़ों में यात्रा कर रहे थे। ऐतिहासिक रूप से इन्हें 7वीं और 8वीं शताब्दी का बताया जाता है। साथ ही यह भी कहा जाता है कि संभवत: इसका निर्माण कटोच राजवंश ने कराया होगा, हालांकि उपलब्ध जानकारी बहुत सीमित है। वास्तुशिल्प का अनूठा नमूना.. ये मंदिर सच्चे वास्तुशिल्प चमत्कार हैं, और इन पर बारीकी से नक्काशी की गई है। ये सूर्य, शिव, इंद्र, कार्तिकेय सहित विभिन्न देवताओं को चित्रित करने वाली अविश्वसनीय रूप से विस्तृत मूर्तियों से सुशोभित हैं, और आपको कई देवी रूप भी मिलेंगे।मंदिरों की खोज करते समय, कोई भी इन पवित्र दीवारों के भीतर होने वाले अनुष्ठानों और समारोहों की कल्पना करके समय में पीछे जाने से खुद को रोक नहीं सकता है। वातावरण शांत है, आसपास की पहाड़ियां एक सुरम्य पृष्ठभूमि प्रदान करती हैं, जो इस स्थल की आध्यात्मिक आभा को बढ़ाती है।
** देश-दुनिया में काफी मशहूर है महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले का यह गांव भारत वर्ष में अनेकों मंदिर है। हर मंदिर की अपनी विशेषता और महत्व है। ऐसा ही एक मंदिर महाराष्ट्र के अहमदनगर जिला के शिंगणापुर गांव में भगवान शनि को समर्पित है। इस मंदिर को शनि शिंगणापुर मंदिर के नाम से जाना जाता है। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है लेकिन इस गांव के किसी भी घर या दुकान में दरवाजा नहीं है। बीते कुछ समय में यह गांव अपनी इसी खासियत से देश-दुनिया में काफी मशहूर हुआ है। यहां जाने वाले आस्थावान लोग केसरी रंग के वस्त्र पहनकर ही जाते हैं। कहते हैं मंदिर में कथित तौर पर कोई पुजारी नहीं है, भक्त प्रवेश करके शनि देव जी के दर्शन करके सीधा मंदिर से बाहर निकल जाते हैं। रोजाना शनि देव की स्थापित मूर्ति पर सरसों के तेल से अभिषेक किया जाता है। मंदिर में आने वाले भक्त अपनी इच्छानुसार यहां तेल का चढ़ावा भी देते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जो भी भक्त मंदिर के अंदर जाता है तो उसे केवल सामने की ओर देखते हुए ही जाना चाहिए। उसे पीछे से कोई भी आवाज लगाए तो मुड़कर नहीं देखना चाहिए। शनि देव को माथा टेककर सीधा बाहर आ जाना है, यदि पीछे मुड़कर देखा तो बुरा प्रभाव होता है। पौराणिक कथा पौराणिक कथाओं के अनुसार कहा जाता है कि एक बार इस गांव में काफी बाढ़ आ गई थी, गांव में जलस्तर इतना बढ़ गया था कि सब कुछ डूबने लगा था। लोग मानते है कि उस भयंकर बाढ़ के दौरान कोई दैवीय ताकत पानी में बह रही थी। जब पानी का स्तर कुछ कम हुआ तो एक व्यक्ति ने पेड़ की झाड़ पर एक बड़ा सा पत्थर देखा। वह पथर बेहद अजीबोगरीब था, लालचवश उस व्यक्ति ने उस पत्थर को नीचे उतारा और उसे तोड़ने के लिए जैसे ही उसमें कोई नुकीली वस्तु मारी उस पत्थर में से खून बहने लगा। यह देखकर वह व्यक्ति दंग रह गया और वहां से भाग गया। गांव वापिस लौटकर उसने सब लोगों को यह बात बताई। सभी दोबारा उस स्थान पर गांववासी पहुंचे, पर पत्थर को देखकर सभी भौचक्के रह गए। उनकी समझ में यह नहीं आ रहा था कि आखिरकार इस चमत्कारी पत्थर का क्या करें। उसी रात गांव के एक शख्स के सपने में भगवान शनि आए और बोले 'मैं शनि देव हूं। जो पत्थर तुम्हें आज मिला उसे अपने गांव में लाओ और मुझे स्थापित करो।Ó अगली सुबह होते ही उस शख्स ने गांव वालों को सारी बात बताई, जिसके बाद सभी उस पत्थर को उठाने के लिए वापस उसी जगह लौटे। बहुत से लोगों ने पत्थर को उठाने का प्रयास किया, किंतु वह पत्थर अपनी जगह से एक इंच भी न हिला। काफी देर तक कोशिश करने के बाद गांव वालों वापस गांव लौटकर आये और उन्होंने निर्णय किया कि अगली सुबह पत्थर को उठाने आएंगे। उस रात फिर से शनि देव उस शख्स के सपने में आए और उसे यह बताया कि वह पत्थर कैसे उठाया जा सकता है। उन्होंने बताया कि उन्हें उस स्थान से केवल सगे मामा भांजा ही उठा सकते है। इसके बाद सगे मामा भांजे ने उस पत्थर को उठाकर एक बड़े से मैदान में सूर्य की रोशनी के तले स्थापित किया। तभी से यह मान्यता है कि इस मंदिर में यदि मामा-भांजा दर्शन करने जाते है तो अधिक फायदा होता है। गांव में नहीं होती चोरी शनिदेव के इस मंदिर में अद्भुत चमत्कार होते है। इस गांव के बारे में कहा जाता है कि यहां रहने वाले लोग अपने घरों में ताला नहीं लगाते हैं और आज तक के इतिहास में यहां किसी ने चोरी नहीं की और नहीं किसी के घर में चोरी हुई है। ऐसी मान्यता है कि बाहरी या स्थानीय लोगों ने यदि यहां किसी के भी घर से चोरी करने का प्रयास किया तो वह गांव की सीमा के पार नहीं जा पाता है, उसके गांव से निकलने से पूर्व ही शनि देव का प्रकोप उस पर हावी हो जाता है। उक्त चोर को अपनी चोरी कबूल भी करनी पड़ती है और शनि भगवान के समक्ष उसे माफी भी मांगनी पड़ती है। छाया पुत्र को नहीं जरूरत छाया की शनि शिंगणापुर की खास बात यह है कि यहां भगवान शनि मंदिर में विराजमान नहीं है। न ही उन ऊपर कोई छत्र है। यहां भगवान शनि देव मूर्ति के रूप में नहीं, बल्कि एक काले लंबे पत्थर के रूप में विराजमान हैं। शनि भगवान की स्वयंभू मूर्ति काले रंग की है। 5 फुट 9 इंच ऊंची व 1 फुट 6 इंच चौड़ी यह मूर्ति संगमरमर के एक चबूतरे पर धूप में ही विराजमान है। यहां शनिदेव अष्ट प्रहर धूप हो, आंधी हो, तूफान हो या जाड़ा हो, सभी ऋतुओं में बिना छत्र धारण किए खड़े हैं। मूर्ति के आसपास वृक्ष है, लेकिन उनसे छाया नहीं आती। शनिवार के दिन आने वाली अमावस को तथा प्रत्येक शनिवार को यहां शनि भगवान की विशेष पूजा और अभिषेक होता है। प्रतिदिन प्रात: 4 बजे एवं सायंकाल 5 बजे यहां आरती होती है। शनि जयंती पर जगह-जगह से प्रसिद्ध ब्राह्मणों को बुलाकर लघु रुद्राभिषेक कराया जाता है। यह कार्यक्रम प्रात: 7 से सायं 6 बजे तक चलता है। बॉम्बे हाई कोर्ट ने महिलाओं को भीतरी गर्भगृह में जाने का दिया अधिकार पहले महिलाओं को शनि शिंगणापुर मंदिर के गर्भगृह में जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन 26 जनवरी 2016 को तिरुपति देसाई (सामाजिक कार्यकर्ता) के नेतृत्व में 500 से अधिक महिलाओं के एक समूह ने मंदिर तक मार्च किया। वे मंदिर के गर्भगृह में प्रवेश करना चाहती थीं, लेकिन पुलिस ने रोक लिया, लेकिन 30 मार्च 2016 को बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार को मंदिर के आंतरिक गर्भगृह में महिलाओं के प्रवेश की अनुमति देने का आदेश दे दिया।
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में पहला ज्योतिर्लिंग भारतवर्ष के पश्चिमी छोर पर गुजरात राज्य में एक अत्यंत प्राचीन व ऐतिहासिक शिव मंदिर है। यह मंदिर भारतीय इतिहास और हिंदू धर्म के महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। इसे भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में पहले ज्योतिर्लिंग के रूप में माना व जाना जाता है। गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र के वेरावल बंदरगाह में स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण स्वयं चंद्रदेव ने किया था, जिसका उल्लेख ऋग्वेद में स्पष्ट रूप से किया गया है। इस मंदिर का नाम है 'सोमनाथ मंदिर'। हिंदू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक यह मंदिर हिंदू धर्म के उत्थान-पतन के इतिहास का प्रतीक रहा है। मंदिर के वर्तमान भवन का पुनर्निर्माण भारत की स्वतंत्रता के बाद सरदार वल्लभ भाई पटेल ने करवाया और एक दिसंबर 1955 को भारत के राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा ने इस मंदिर को राष्ट्र को समर्पित किया। लोक कथाओं के अनुसार यहीं श्रीकृष्ण ने भी देहत्याग किया था। इस कारण इस क्षेत्र का और भी महत्व बढ़ गया। इसके अलावा यहां तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का महासंगम होता है। इस त्रिवेणी स्नान का विशेष महत्व है। ऐसे पड़ा सोमनाथ नाम प्राचीन हिन्दू गं्रथों के अनुसार अनुसार सोम अर्थात चंद्र ने, दक्षप्रजापति राजा की 27 कन्याओं से विवाह किया था। लेकिन उनमें से चंदर रोहिणी नामक अपनी पत्नी को अधिक प्यार व सम्मान दिया करते थे। उनके इस कृत्य से दक्ष प्रजापति की अन्य कन्याएं बहुत अप्रसन्न रहती थी। उन्होंने अपनी यह व्यथा-कथा अपने पिता को सुनाई। दक्ष प्रजापति ने इसके लिए चंद्रदेव को अनेक प्रकार से समझाया किंतु रोहिणी के वशीभूत उनके हृदय पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इस अन्याय को देख क्रोध में आकर दक्ष ने चंद्रदेव को श्राप दे दिया कि अब से हर दिन उनका तेज क्षीण होता रहेगा। फलस्वरूप हर दूसरे दिन चन्द्र का तेज घटने लगा। श्राप से विचलित और दुखी सोम ने भगवान शिव की आराधना शुरू कर दी। उन्होंने घोर तपस्या करते हुए दस करोड़ बार मृत्युंजय मंत्र का जप किया। अंतत: शिव प्रसन्न हुए और सोम के श्राप का निवारण किया। श्राप मुक्त होकर चंद्रदेव ने भगवान से प्रार्थना की कि वह माता पार्वती जी के साथ सदा के लिए प्राणों के उद्धारार्थ यहां निवास करें। भगवान शिव उनकी इस प्रार्थना को स्वीकार करके ज्योतिर्लिंग के रूप में माता पार्वती जी के साथ तभी से यहां रहने लगे। सोम के कष्ट को दूर करने वाले प्रभु शिव का स्थापन यहां करवाकर उनका नामकरण हुआ सोमनाथ। कई बार तोड़ा और पुनर्निर्मित किया गया सोमनाथ मंदिर का अस्तित्व सर्वप्रथम ईसा पूर्व में था, जिस जगह पर द्वितीय बार मंदिर का पुनर्निर्माण सातवीं सदी में वल्लभी के मैत्रक राजाओं ने किया। अत्यंत वैभवशाली होने के कारण इतिहास में कई बार यह मंदिर तोड़ा तथा पुनर्निर्मित किया गया। आठवीं सदी में सिंध के अरबी गवर्नर जुनायद ने इसे नष्ट करने के लिए अपनी सेना भेजी। उसके बाद गुर्जर प्रतिहार राजा नागभट्ट ने 815 ईस्वी में इसका तीसरी बार पुनर्निर्माण किया। इस मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल-बरुनी ने अपने यात्रा वृतांत में इसका विवरण लिखा था, जिससे प्रभावित होकर महमूद गजनवी ने सन 1024 में सोमनाथ मंदिर पर हमला कर दिया और मंदिर की संपत्ति लूट कर मंदिर को नष्ट कर दिया। उस वक्त मंदिर में काफी संख्या में लोग पूजा अर्चना कर रहे थे, महमूद गजनवी ने उन सभी का कत्ल कर दिया था। महमूद के मंदिर तोड़ने और लूटने के बाद गुजरात के राजा भीमदेव और मालवा के राजा भोज ने इसका पुनर्निर्माण कराया। 1093 में सिद्धराज जयसिंह ने भी मंदिर निर्माण में सहयोग दिया। 1168 में विजयेश्वर कुमार पाल और सौराष्ट्र के राजा खंगार ने भी सोमनाथ मंदिर के सौंदर्यीकरण में योगदान किया था। सन् 1297 में जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति नुसरत खां ने गुजरात पर हमला किया तो उसने सोमनाथ मंदिर को दुबारा तोड़ दिया और सारी धन-संपदा लूटकर ले गया। मंदिर को फिर से हिन्दू राजाओं ने बनवाया। पर सन 1395 में गुजरात के सुल्तान मुजफ्फर शाह ने मंदिर को फिर से तुड़वाकर सारा चढ़ावा लूट लिया। इसके बाद 1412 में उसके पुत्र अहमद शाह ने भी यही किया। इसके उपरांत मुस्लिम क्रूर बादशाह औरंगजेब के काल में सोमनाथ मंदिर को दो बार तोड़ा गया, पहली बार 1665 ईस्वी में और दूसरी बार 1706 ईस्वी में। 1665 में मंदिर तुड़वाने के बाद जब औरंगजेब ने देखा कि हिन्दू उस स्थान पर अभी भी पूजा-अर्चना करने आते हैं तो उसने वहां एक सैन्य टुकड़ी भेजकर कत्लेआम करवाया। जब भारत का एक बड़ा हिस्सा मराठों के अधिकार में आ गया तब 1783 में इंदौर की रानी अहिल्याबाई द्वारा मूल मंदिर से कुछ ही दूरी पर पूजा-अर्चना के लिए सोमनाथ महादेव का एक और मंदिर बनवाया गया। भारत की आजादी के बाद गृह मंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने समुद्र का जल लेकर नए मंदिर के निर्माण का संकल्प लिया। उनके संकल्प के बाद 1950 में मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। हवा में स्थित था शिवलिंग पुरानी मान्यताओं के अनुसार कहा जाता है कि सोमनाथ के मंदिर में शिवलिंग हवा में स्थित था। यह एक कौतुहल का विषय था। जानकारों के अनुसार यह वास्तुकला का एक नायाब नमूना था। इसका शिवलिंग चुम्बक की शक्ति से हवा में ही स्थित था। कहते हैं कि महमूद गजनबी इसे देखकर हतप्रभ रह गया था।
दक्षिणेश्वर काली मंदिर पश्चिम बंगाल के हुगली नदी तट पर बेलूर मठ के दूसरी तरफ स्थित है। यह बंगालियों के अध्यात्म का प्रमुख केंद्र है। यह काली मंदिर 51 शक्तिपीठों में से एक माना जाता है। मान्यता है कि यहां पूजा करने वालों को मां काली कभी निराश नहीं करती, मां अपने भक्तों की मुराद जरूर पूरी करती हैं। कहा जाता है कि इस स्थान पर माता सती के दाएं पैर की चार अंगुलियां गिरी थीं। इस मंदिर में देवी काली की मूर्ति की जिह्वा खून से सनी है और देवी नरमुंडों की माला पहने हुए हैं। कहा जाता है कि कभी श्री रामकृष्ण परमहंस यहां पुजारी थे। यहां देश-विदेश से हजारों श्रद्धालु मां काली के दर्शनों के लिए आते हैं। काली मां का ये मंदिर नवरत्न की तरह निर्मित है और यह 46 फुट चौड़ा तथा 100 फुट ऊंचा है। मंदिर के भीतरी भाग में चांदी से बनाए गए कमल के फूल जिसकी हजार पंखुड़ियां हैं, पर मां काली शस्त्रों सहित भगवान शिव के ऊपर खड़ी हुई हैं। इस मंदिर में 12 गुंबद हैं। यह मंदिर हरे-भरे, मैदान पर स्थित है। इस विशाल मंदिर के चारों ओर भगवान शिव के बारह मंदिर स्थापित किए गए हैं।दक्षिण की ओर स्थित यह मंदिर तीन मंजिला है। ऊपर की दो मंजिलों पर नौ गुंबद समान रूप से फैले हुए हैं। गुंबदों की छत पर सुंदर आकृतियां बनाई गई हैं। मंदिर के भीतरी स्थल पर दक्षिणा माँ काली, भगवान शिव पर खड़ी हुई हैं। देवी की प्रतिमा जिस स्थान पर रखी गई है उसी पवित्र स्थल के आसपास भक्त बैठे रहते हैं तथा आराधना करते हैं। रानी रासमणि ने करवाया मंदिर निर्माण दक्षिणेश्वर काली मंदिर के बारे में जो कथा प्रचलित है उसके अनुसार बंगाल की रानी रासमणि मां काली की बहुत बड़ी भक्त थी। कोलकाता में मां काली का सिद्ध मंदिर नहीं होने की वजह से रानी समुद्र के रास्ते काशी में स्थित मां काली के मंदिर दर्शन के लिए जाती थी। कहते हैं कि एक दिन रानी अपने सगे-संबंधियों के साथ काली मंदिर जाने की तैयारी कर रही थी। तभी रात उन्हें मां काली ने स्वप्न में दर्शन दिए और इसी स्थान पर मां काली का मंदिर बनवाने के लिए कहा। देवी के बात सुनकर रानी ने 1847 ई. में यहां मंदिर का निर्माण करवाना शुरू किया जो साल 1855 में बनकर तैयार हुआ। मंदिर परिसर 25 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। इस मंदिर में मां काली की मूर्ति दक्षिण-पूरब के ओर स्थापित की गई है। दक्षिणेश्वर मंदिर मां काली के लिए ही बनाना गया है। मंदिर के भीतरी भाग में बनाया गया कमल का फूल हजार पंखुड़ियों वाला है जिस पर मां काली शस्त्र सहित भगवान शिव के ऊपर खड़ी हैं। कहते हैं कि तभी से यह स्थान मां काली के सिद्ध धाम से प्रसिद्ध हुआ। रासमणि के द्वारा करवाया गया मंदिर का निर्माण कार्य करीब 8 वर्षों तक चला। उस जमाने में दक्षिणेश्वर मंदिर को बनवाने में 9 लाख रुपए खर्च हुए थे। उस स्थान पर मंदिर तो बन गया लेकिन एक नयी समस्या सामने आ गई। दरअसल तब कोई पुजारी इस मंदिर में पूजा करवाने को तैयार नहीं हुआ। एक शूद्र स्त्री द्वारा मंदिर का निर्माण करवाया जाना तत्कालीन समाज के मानदंडों के विरुद्ध था। रामकृष्ण परमहंस को हुए थे साक्षात दर्शन माना जाता है कि इस स्थान पर रामकृष्ण परमहंस को मां काली ने साक्षात दर्शन दिए थे। कहा जाता है कि रामकृष्ण परमहंस को विश्वास था कि कठोर साधना से मां काली के साक्षात दर्शन किये जा सकते है। इस कारण इन्होंने पूरी निष्ठा के साथ मां काली की पूजा-अर्चना किया करते थे। इनकी भक्ति को देखते हुए उन्हें दक्षिणेश्वर काली मंदिर का पुजारी बनाया गया था। कहते हैं कि 20 वर्ष की आयु में रामकृष्ण परमहंस ने अपनी अनवरत साधना के बल पर मां काली के साक्षात दर्शन किए। रामकृष्ण ने काली माता की आराधना करते हुए ही परमहंस की अवस्था प्राप्त की थी। रामकृष्ण खाना पीना छोड़कर आठों पहर माता काली को निहारते रहते थे। मां काली के दर्शन न पाकर दुखी रामकृष्ण अपना सिर काटने के लिए तैयार हो गए पर माना जाता है कि स्वयं मां काली ने उनका हाथ पकड़ उन्हें ऐसा करने से रोक दिया। इस मंदिर से लगा हुआ परमहंस देव का एक कमरा है। इसमें उनका पलंग और कुछ स्मृति चिन्ह हैं। 51 शक्तिपीठों में से एक है दक्षिणेश्वर काली मंदिर देवी पुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन मिलता है। शास्त्रों की मानें तो जहां-जहां देवी सती के अंग के टुकड़े, उनके वस्त्र या आभूषण गिरे, वहां-वहां शक्तिपीठ का उदय हुआ। इस तरह देशभर में माता के 51 शक्तिपीठ माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि जब विष्णु भगवान ने अपने चक्र से मां सती के शरीर के टुकड़े किए थे तो उनके दाएं पैर की कुछ उंगलियां इसी जगह पर गिरी थी। काली मां के भक्तों के लिए यह दुनिया के सबसे बड़े और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। तांत्रिक गतिविधियों के लिए प्रसिद्ध है यह मंदिर दक्षिणेश्वर काली मंदिर के दर्शन के लिए सालभर भक्तजनों की भीड़ लगी रहती है। मां काली का यह मंदिर तांत्रिकों के लिए काफी महत्वपूर्ण तीर्थ है और उनका यहां साल भर आना-जाना लगा रहता है। वहीं यहां सैकड़ों तांत्रिक पूरे भारत से आ कर काली मां की पूजा करते हैं। दीपावली की रात कार्तिक अमावस्या के अवसर पर यहां विशेष आयोजन होता है। रात भर मंदिरों का पट खुला रहता है। तंत्र-मंत्र साधना के लिए देश के कोने-कोने से साधक और तंत्र विद्या से जुड़े लोग पहुंचते हैं।
** साल में केवल एक बार ही खोले जाते हैं इस मंदिर के द्वार देवभूमि हिमाचल प्रदेश में कई रहस्मयी मंदिर हैं, जिससे लोगों का भरोसा जुड़ा है, आस्था जुड़ी है। ऐसा ही एक मंदिर है, हिमाचल के जिला मंडी में स्थित माता हत्या देवी मंदिर। इस मंदिर के द्वार साल में केवल एक बार ही खोले जाते हैं। मंडी जिला का नाम रियासत काल में सुकेत था। इस रियासत को बंगाल के राजा रूपसेन के तीन बेटों में से एक वीरसेन ने बसाया था। सुकेत को ही मंडी का उद्गम भी कहा जाता है। 765 ईसी से लेकर 1248 तक सुकेत रियासत की राजधानी पांगणा रही। मनोरम पहाड़ों के बीच बसे सुंदर छोटे से गांव पागंणा में ही महामाया देवी कोट का मंदिर है। यहां दशकों से लोग हत्या देवी की पूजा पूरी श्रद्धा से करते हैं। हत्या देवी की एक गांव पर असीम कृपा है, जबकि एक अन्य गांव के लोग यहां जाने से भी डरते हैं। कहते हैं सुकेत रियासत के राजा रामसेन की बेटी यानि राजकुमारी चंद्रावती बचपन से ही शिव पार्वती की अनन्य भक्त थी। सर्दियों के मौसम में राजकुमारी चंद्रावती सुंदरनगर स्थित महल में सहेलियों के साथ खेल रही थी। खेलते समय उनकी एक सहेली पुरुष रूप धारण किए थी। इसी दौरान राज पुरोहित उस कक्ष से गुजरा और उन्हें प्रतीत हुआ कि चंद्रावती किसी युवक के साथ खेल रही है। वे तुरंत राजा के पास गए और उन्हें पूरी बात बता दी, जिससे राजा क्रोधित हो गए। लोकलाज की चिंता से राजा ने राजकुमारी चंद्रावती को पांगणा भेज दिया। चंद्रावती ने खुद को पवित्र साबित करने के लिए रती नाम का विषैला बीज एक शिला पर पीसकर खा लिया, जिससे उसकी मौत हो गई। कहा जाता है की यह शिला आज भी पांगणा में यथास्थिती मौजूद है। राजकुमारी के प्राण त्यागने के बाद देवी चद्रावंती उसी रात राजा रामसेन के स्वप्न में आई और उन्हें पूरी बात सुनाई। उन्होंने राजा रामसेन से कहा कि मेरे मृत शरीर को महामाया देवी कोट मंदिर पांगणा के परिसर में दबाया जाए। फिर छह माह बाद शरीर को दोबारा से जमीन से बाहर निकालना। अगर मैं पवित्र हूं तो मेरा शरीर उस समय भी पूरी तरह से यथावत रहेगा और यदि पवित्र नहीं तो यह पूरी तरह से गल कर सड़ जाएगा। यदि शरीर सुरक्षित रहे तो आप इसका विधि-विधान से अंतिम संस्कार चंदपुर में करना। अगली सुबह राजा ने राज पुरोहित सहित रियासत के ज्योतिषियों को बुलाया और अपने सपने के बारे में बताया। ज्योतिषियों के परामर्श पर राजा तुरंत पांगणा के लिए रवाना हुए। स्वपन के अनुसार ही वहां पहुंचने पर उन्हें पता चला कि चंद्रावती ने आत्महत्या कर ली है। इसके बाद राजा ने चंद्रावती के कहे अनुसार उनके शरीर को महामाया मंदिर के परिसर में ही दबा दिया। इसके छह माह के बाद जब राजा व अन्य लोगों ने वहीं पहुंचकर वह जमीन खोदी और देखा की राजकुमारी का शरीर पूरी तरह से सुरक्षित था। अत: सिद्ध हो गया कि चंद्रावती पवित्र थी और पुरोहित की बात गलत थी। राजा को अपने किए का घोर पछतावा हुआ और राजकुमारी चंद्रावती की इच्छा के अनुसार उनके शव को पांगणा के समीप चंदपुर स्थान पर अंतिम संस्कार किया गया। इसी स्थान पर शिव-पार्वती का मंदिर भी बनाकर शिवलिंग की स्थापना की गई, जिसे आज दक्षिणेश्वर महादेव के नाम से जाता जाता है। मंदिर में प्रवेश नहीं करते पुरोहित के वंशज राजकुमारी की सत्यता प्रमाणित होने के उपरांत राजा रामसेन उन्माद से पीड़ित हो गए और उनकी इससे मौत हो गई। मगर इससे पहले उन्होंने झूठी शिकायत करने वाले पुरोहित को सजा के तौर पर राजधानी से बाहर निकालकर चुराग नामक स्थान पर भेज दिया, जहां पर पानी से लेकर हर वस्तु का अभाव था। पुरोहित के वशंज आज इस क्षेत्र में लठूण कहे जाते हैं। कहते हैं आज तक पुरोहित के वशंज माता के कोप के डर से महामाया देवी कोट मंदिर में प्रवेश नहीं करते। उन्हें डर है कि कहीं देवी चंद्रावती उनके पूर्वजों द्वारा किए गए कृत्य की सजा उन्हें न दें। नवरात्रों में भी नहीं खुलता मंदिर दशकों से महामाया देवी कोट मंदिर पांगणा के भवन के भूतल भाग में वामकक्ष यानि बाईं तरफ बने मंदिर में देवी चंद्रावती की हत्यादेवी के रूप में पूजा की जाती है। हालांकि यह मंदिर साल भर बंद ही रहता है और विशेष उपलक्ष्य में ही इसे खोला जाता है। ये पुजारी पर ही निर्भर करता है। हालांकि मंदिर में नवरात्रों में अन्य देवी देवताओं की पूजा 9 दिन तक नियमित रूप से होती है, पर इसे नवरात्रों में भी नहीं खोला जाता। आज भी सुकेत राजवंश पर देवी की अपार कृपा है।
देवभूमि हिमाचल प्रदेश को साक्षात देवी-देवताओं का वास माना जाता है। यहां हजारों की संख्या में मंदिर हैं और हर मंदिर की अपनी एक अनोखी कहानी है। ऐसा ही एक मंदिर जिला चंबा के भरमौर में स्थित है, जिसे लोग चौरासी मंदिर के नाम से जानते हैं। मान्यता है कि यह दुनिया का इकलौता मंदिर है, जहां साक्षात यमराज विराजमान हैं। यहीं से यह तय होता है स्वर्ग और नर्क का रास्ता मंदिर में चार अलग-अलग धातु के अदृश्य दरवाजे जिला चंबा के भरमौर में 84 मंदिर हैं। इनमें एक मंदिर में यमराज का स्वयं वास करते हंै। माना जाता है कि यहां यमराज की अदालत लगती है। यहीं से यह तय होता है कि व्यक्ति मृत्यु के बाद स्वर्ग लोक जाएगा या नर्क लोक। मंदिर बाहर से देखने में बिलकुल आम नजर आता है, लेकिन इसकी मान्यता सबसे अनूठी है। इस मंदिर में चार अलग-अलग धातु के अदृश्य दरवाजे भी हैं। यह द्वार सोना, चांदी, तांबे और लोहे से बने हुए हैं। गरुड़ पुराण में भी है इसका ज्रिक व्यक्ति की मृत्यु के बाद यमदूत आत्मा को इसी मंदिर में यमराज के द्वार पर ले जाता है। यहां यमराज व्यक्ति की आत्मा का भविष्य का रास्ता तय करते हैं। इस बात का जिक्र गरुड़ पुराण में भी किया गया है। भाई दूज को यमराज से मिलने आती हैं बहन यमुना हिंदू धर्म में विशेष मान्यता रखने वाले भाई दूज के त्योहार के दिन यहां भक्तों की भारी भीड़ लगती है। भाई-बहन का यह पवित्र पर्व भाई दूज हर साल कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। मान्यता है कि इस दिन यमराज से मिलने उनकी बहन यमुना इस मंदिर में आती हैं। पौराणिक कथाओं में यमराज और यमुना को भगवान सूर्य की संतान बताया गया हैं। इस खास मौके पर भक्तों की यहां भारी भीड़ लगती है। कुछ लोग इसे सिर्फ कहानी मात्र ही मानते हैं और कुछ लोगों का समानता पर अटूट विश्वास है।
** डिप्टी सीएम ने पालकी उठाकर किया शोभा यात्रा का आगाज ** बोले, मंदिरों की भव्यता और विस्तारीकरण के लिए सरकार उठा रही विशेष कदम हिमाचल के डिप्टी सीएम मुकेश अग्निहोत्री ने आज ऊना में बाबा बाल जी महाराज के आश्रम पहुंचकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त किया और शोभा यात्रा की पालकी उठाकर यात्रा का आगाज किया। मीडिया से रूबरू होते हुए मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि बाबा बाल जी महाराज का आश्रम उत्तर भारत में काफी प्रसिद्ध है। उत्तर भारत के कोने-कोने से श्रद्धालु बाबा बाल जी महाराज के आश्रम पहुंचकर उनका आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। आज मुझे भी जहां पर आने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। उन्होंने कहा कि हिमाचल में अनेक मंदिर व शक्तिपीठ हैं। सरकार मंदिरों की भव्यता व विस्तारीकरण को लेकर अनेक कदम उठा रही है। एचआरटीसी द्वारा धार्मिक स्थलों के लिए 175 के करीब विशेष रूट चलाए जा रहे हैं। शक्तिपीठों तक पहुंचने के लिए साइन बोर्ड व अन्य होर्डिंग लगाए जा रहे हैं, ताकि बाहर से आने वाले श्रद्धालुओं को किसी भी प्रकार की असुविधा न हो। हिमाचल सरकार द्वारा अयोध्या व खाटू श्याम के लिए भी बसें चलाई जा रही हैं।
रामेश्वरम मंदिर हिंदुओं का एक पवित्र तीर्थ स्थल है। यह तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले में स्थित है। यह तीर्थ हिंदुओं के चार धामों में से एक है। इसके अलावा यहां स्थापित शिवलिंग बारह द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक माना जाता है। रामेश्वरम चेन्नई से लगभग सवा चार सौ मील दक्षिण-पूर्व में है। यह हिंद महासागर और बंगाल की खाड़ी से चारों ओर से घिरा हुआ एक सुंदर शंख आकार द्वीप है। बहुत पहले यह द्वीप भारत की मुख्य भूमि के साथ जुड़ा हुआ था, परंतु बाद में सागर की लहरों ने इस मिलाने वाली कड़ी को काट डाला, जिससे वह चारों ओर पानी से घिरकर टापू बन गया। माना जाता है कि यहां भगवान राम ने लंका पर चढ़ाई करने से पूर्व पत्थरों के सेतु का निर्माण करवाया था, जिसपर चढ़कर वानर सेना लंका पहुंची व वहां विजय पाई। बाद में श्री राम ने विभीषण के अनुरोध पर धनुषकोटि नामक स्थान पर यह सेतु तोड़ दिया था। आज भी इस 48 किमी लंबे आदि सेतु के अवशेष सागर में दिखाई देते हैं। माता सीता को छुड़ाने के लिए प्रभु राम ने यहीं से की थी लंका पर चढ़ाई रामेश्वरम के विख्यात मंदिर की स्थापना के बारे में कई रोचक कथाएं प्रचलित हैं। मान्यता है कि सीताजी को छुड़ाने के लिए श्री राम ने लंका पर यही से चढ़ाई की थी। उन्होंने युद्ध के बिना सीताजी को छुड़वाने का बहुत प्रयत्न किया, पर रावण के न मानने पर विवश होकर उन्होंने युद्ध करना पड़। इस युद्ध हेतु राम को वानर सेना सहित सागर पार करना था, जो अत्यधिक कठिन कार्य था। तब श्री राम ने, युद्ध कार्य में सफलता और विजय के पर्श्चात कृतज्ञता हेतु उनके आराध्य भगवान शिव की आराधना के लिए समुद्र किनारे की रेत से शिवलिंग का अपने हाथों से निर्माण किया, तभी भगवान शिव स्वयं ज्योति स्वरुप प्रकट हुए और उन्होंने इस लिंग को श्री रामेश्वरम की उपमा दी। इस युद्ध में रावण के साथ, उसका पुरा राक्षस वंश समाप्त हो गया और अन्तत: सीताजी को मुक्त करवाकर श्रीराम वापिस लौट आए। रावण भी कोई साधारण राक्षस नहीं था। वह महर्षि पुलस्त्य का वंशज, वेदों का महाज्ञानी औरभगवान शिव का सबसे बड़ा था। श्रीराम को उसे मारने के बाद बड़ा खेद हुआ। ब्रह्मा-हत्या के पाप प्रायस्चित के लिए श्री राम ने युुद्ध विजय पर्श्चात भी यहां रामेश्वरम जाकर पूरा की। रावण का वध करने के बाद भगवान राम अपनी पत्नी देवी सीता के साथ रामेश्वरम के तट पर कदम रखकर भारत लौटे थे। एक ब्राह्मण को मारने के दोष को खत्म करने के लिए भगवान राम शिव की पूजा करना चाहते थे। चूंकि द्वीप में कोई मंदिर नहीं था, इसलिए भगवान शिव की मूर्ति लाने के लिए श्री हनुमान को कैलाश पर्वत भेजा गया था। जब हनुमान समय पर शिवलिंग लेकर नहीं पहुंचे तब देवी सीता ने समुद्र की रेत को मु_ी में लाकर शिवलिंग बनाया और भगवान राम ने उसी शिवलिंग की पूजा की। बाद में हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग को भी वहीं स्थापित कर दिया गया था। इसके बाद 15वीं शताब्दी में राजा उडैयान सेतुपति एवं नागूर निवासी वैश्य ने 1450 ई. में इसके 78 फीट ऊंचे गोपुरम का निर्माण करवाया था। फिर सोलहवीं शताब्दी में मंदिर के दक्षिण में दूसरे हिस्से की दीवार का निर्माण तिरुमलय सेतुपति ने करवाया था। मंदिर के द्वार पर ही तिरुमलय एवं इनके पुत्र की मूर्ति विराजमान है। सोलहवीं शताब्दी में मदुरै के राजा विश्वनाथ नायक के एक अधीनस्थ राजा उडैयन सेतुपति कट्टत्तेश्वर ने नंदी मंडप का निर्माण करवाया था। माना जाता है कि वर्तमान समय में रामेश्वरम मंदिर जिस रूप में मौजूद है, उसका निर्माण सत्रहवीं शताब्दी में कराया गया था। जानकारों के अनुसार राजा किजहावन सेठुपति या रघुनाथ किलावन ने इस मंदिर के निर्माण कार्य की आज्ञा दी थी। मंदिर के निर्माण में सेठुपति साम्राज्य के जफ्फना राजा का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। जो श्रद्धा से गंगाजल चढ़ाता है, उसे होती है मोक्ष की प्राप्ति रामेश्वरम मंदिर एक हजार फुट लंबा और 650 फुट चौड़ा है। चालीस फुट ऊंचे दो पत्थरों पर इतनी ही बराबरी के एक लंबे पत्थर को लगाकर इसका निर्माण किया गया है जो आकर्षण का केंद्र है। माना जाता है कि रामेश्वरम मंदिर के निर्माण में लगे पत्थरों को श्रीलंका से नावों द्वारा लाया गया था। रामेश्वरम का गलियारा विश्व का सबसे लंबा गलियारा है। यह उत्तर-दक्षिण में 197 मीटर एवं पूर्व-पश्चिम 133 मीटर है। इसके परकोटे की चौड़ाई छह मीटर एवं ऊंचाई नौ मीटर है। मंदिर के प्रवेशद्वार का गोपुरम 38.4 मीटर ऊंचा है। यह मंदिर लगभग छह हेक्टेयर में बना हुआ है। जानकारों के अनुसार रामेश्वर मंदिर परिसर के भीतर के सभी कुओं को भगवान राम ने अपने अमोघ बाणों से तैयार किया था। उन्होंने इन कुओं में कई तीर्थों का जल छोड़ा था। मान्यता है कि जो व्यक्ति ज्योतिर्लिंग पर पूरी श्रद्धा से गंगाजल चढ़ाता है उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है। चूंकि भगवान राम से हत्या दोष से मुक्ति पाने के लिए यहां शिव की पूजा की थी, इसलिए मान्यता है कि ज्योतिर्लिंग की विधि विधान से पूजा करने से व्यक्ति ब्रह्म हत्या जैसे पापों से मुक्त हो जाता है। रामेश्वरम मंदिर के अंदर 22 तीर्थ हैं, जो अपने आप में प्रसिद्ध हैं। मंदिर के पहले और सबसे मुख्य तीर्थ को अग्नि तीर्थं नाम से जाना जाता है। रामेश्वरम मंदिर का प्रवेश द्वार 40 फीट ऊंचा है जो भारतीय निर्माण कला का एक आकर्षक नमूना है। मंदिर में सैकड़ों विशाल खंभे हैं और प्रत्येक खंभे पर अलग अलग तरह की बारीक कलाकृतियां बनी है। इस मंदिर का निर्माण द्रविण स्थापत्य शैली में किया गया है। मंदिर में लिंगम के रूप में प्रमुख देवता रामनाथस्वामी यानि शिव को माना जाता है। मंदिर के गर्भगृह में दो शिव लिंग हैं, एक सीता द्वारा रेत से निर्मित जिन्हें कि मुख्य देवता माना जाता है और इन्हें रामलिंगम नाम दिया गया है। जबकि दूसरा लिंग हनुमान द्वारा कैलाश पर्वत से लाया गया, जिसे विश्वलिंगम के नाम से जाना जाता है। भगवान राम के आदेशानुसार हनुमान द्वारा लाए गए शिवलिंग अर्थात् विश्वलिंगम की पूजा आज भी सबसे पहले की जाती है।
श्री कृष्ण के कलयुगी अवतार के रूप में माने जाते है बाबा खाटू श्याम बाबा खाटू श्याम को भगवान श्री कृष्ण के कलयुगी अवतार के रूप में जाना जाता है। ऐसा कहे जाने के पीछे एक पौराणिक कथा है। माना जाता है बाबा खाटू श्याम का संबंध महाभारत काल से है। यह पांडुपुत्र भीम के पौत्र थे। ऐसी कथा है कि खाटू श्याम की अपार शक्ति और क्षमता से प्रभावित होकर श्री कृष्ण ने इन्हें कलियुग में अपने नाम से पूजे जाने का वरदान दिया। बाबा का मंदिर राजस्थान के सीकर जिले में स्थित है, जहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं। लोगों का विश्वास है कि बाबा श्याम सभी की मुरादें पूर करते हैं और रंक को भी राजा बना सकते हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाभारत काल में लाक्षागृह की घटना में प्राण बचाकर वन-वन भटकते पांडवों की मुलाकात हिडिंबा नाम की राक्षसी से हुई जो भीम को पति रूप में प्राप्त करना चाहती थी। माता कुंती की आज्ञा से भीम और हिडिंबा का विवाह हुआ जिससे घटोत्कच का जन्म हुआ। घटोत्कच का पुत्र हुआ बर्बरीक जो अपने पिता से भी शक्तिशाली था। बर्बरीक देवी का उपासक था। देवी के वरदान से उसे तीन दिव्य बाण प्राप्त हुए थे जो अपने लक्ष्य को भेदकर वापस लौट आते थे। इनकी वजह से बर्बरीक अजेय हो गया था। महाभारत के युद्ध के दौरान बर्बरीक युद्ध देखने के इरादे से कुरुक्षेत्र जा रहे थे। श्री कृष्ण ने जब उनसे पूछा कि वो युद्ध में किसकी तरफ हैं, तब उन्होंने कहा था कि जो पक्ष हारेगा वो उसकी तरफ से लड़ेंगे। ऐसे में श्री कृष्ण युद्ध का परिणाम जानते थे और उन्हें डर था कि ये कहीं पांडवों के लिए उल्टा न पड़ जाए। ऐसे में श्री कृष्ण ने बर्बरीक को रोकने के लिए दान की मांग की। दान में उन्होंने उनसे शीश मांग लिया। दान में बर्बरीक ने उनको शीश दे दिया, लेकिन आखिर तक उन्होंने अपनी आंखों से युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की। श्री कृष्ण ने इच्छा स्वीकार करते हुए उनका सिर युद्ध वाली जगह पर एक पहाड़ी पर रख दिया। युद्ध के बाद पांडव लड़ने लगे कि जीत का श्रेय किसको जाता है, इसमें बर्बरीक कहते हैं कि श्री कृष्ण की वजह से उन्हें जीत हासिल हुई है। श्री कृष्ण इस बलिदान से काफी खुश हुए और उन्हें कलियुग में श्याम के नाम से पूजे जाने का वरदान दे दिया। इस मंदिर में भक्तों की गहरी आस्था है। बाबा श्याम, हारे का सहारा, लखदातार, खाटूश्याम जी, मोर्विनंदन, खाटू का नरेश और शीश का दानी इन सभी नामों से खाटू श्याम को उनके भक्त पुकारते हैं। खाटूश्याम जी मेले का आकर्षण यहां होने वाली मानव सेवा भी है। बड़े से बड़े घराने के लोग आम आदमी की तरह यहां आकर श्रद्धालुओं की सेवा करते हैं। कहा जाता है ऐसा करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। इस तरह श्री कृष्ण ने ली थी परीक्षा श्री कृष्ण ने बर्बरीक की परीक्षी लेनी चाही और कहा की वो अपने दिव्य बाण से पेड़ के सारे पत्तों में छेद कर दे। इसी दौरान श्री कृष्ण ने पेड़ का एक पत्ता तोड़कर अपने पांव के नीच छिपा लिया। बर्बरीक ने एक बाण चलाया जिससे पीपल के पेड़ के सारे पत्तों में छेद हो गया। एक पत्ता श्री कृष्ण के पैर के नीचे था इसलिए बाण पैर के ऊपर ठहर गया। श्रीकृष्ण बर्बरीक की क्षमता से हैरान थे और किसी भी तरह से उसे युद्ध में भाग लेने से रोकना चाहते थे। इसके लिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक से कहा कि तुम तो बड़े पराक्रमी हो मुझ गरीब को कुछ दान नहीं दोगे। बर्बरीक ने जब दान मांगने के लिए कहा तो श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से उसका शीश मांग लिया। रात भर भजन-पूजन कर फाल्गुन शुक्ल द्वादशी को स्नान पूजा करके, बर्बरीक ने अपने हाथ से अपना शीश श्री कृष्ण को दान कर दिया। शीश दान से पहले बर्बरीक ने श्रीकृष्ण से युद्ध देखने की इच्छा जताई थी, इसलिए श्री कृष्ण ने बर्बरीक के कटे शीश को युद्ध अवलोकन के लिए, एक ऊंचे स्थान पर स्थापित कर दिया। बर्बरीक ने बताया, युद्ध में श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चला महाभारत के युद्ध में विजय श्री प्राप्त होने पर पांडव विजय का श्रेय लेने हेतु वाद-विवाद कर रहे थे। तब श्री कृष्ण ने कहा की इसका निर्णय बर्बरीक का शीश कर सकता है। बर्बरीक के शीश ने बताया कि युद्ध में श्री कृष्ण का सुदर्शन चक्र चल रहा था जिससे कटे हुए वृक्ष की तरह योद्धा रणभूमि में गिर रहे थे। द्रौपदी महाकाली के रूप में रक्त पान कर रही थीं। श्री कृष्ण ने प्रसन्न होकर बर्बरीक के उस कटे सिर को वरदान दिया कि कलयुग में तुम मेरे श्याम नाम से पूजित होंगे तुम्हारे स्मरण मात्र से ही भक्तों का कल्याण होगा और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति होगी। ऐसे मिले बाबा खाटू, थन से अपने आप बहने लगा था दूध ऐसा कहा जाता है कि कलयुग की शुरुआत में राजस्थान के खाटू गांव में उनका सिर मिला था। कहते हैं ये अद्भुत घटना तब घटी जब वहां खड़ी गाय के थन से अपने आप दूध बहने लगा था। इस चमत्कारिक घटना के बाद जब जमीन को खोदा गया तो यहां खाटू श्याम जी का सिर मिला। अब लोगों के बीच में ये दुविधा शुरू हो गई कि इस सिर का क्या किया जाए। बाद में उन्होंने सर्वसम्मति से एक पुजारी को सिर सौंपने का फैसला किया। इसी बीच क्षेत्र के तत्कालीन शासक रूप सिंह को मंदिर बनवाने का सपना आया। इस प्रकार रूप सिंह चौहान के कहने पर इस जगह पर मंदिर निर्माण शुरू किया गया और खाटू श्याम की मूर्ति स्थापित की गई। 1027 ई. में रूप सिंह द्वारा बनाए गए मंदिर को मुख्य रूप से एक भक्त द्वारा मॉडिफाई किया गया था। दीवान अभय सिंह ने 1720 ई. में इसका निर्माण कराया था। इस प्रकार मूर्ति को मंदिर के मुख्य गर्भगृह में स्थापित किया गया।
** मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले के ओरछा में है यह प्रसिद्ध मंदिर ** मध्य प्रदेश पुलिस सुबह-शाम देती है गार्ड ऑफ ऑनर मध्य प्रदेश के निवाड़ी जिले के ओरछा में भगवान राम का प्रसिद्ध मंदिर है। यह एक मात्र ऐसा मंदिर है, जहां श्रीराम, 'भगवान और राजाÓ दोनों ही रूपों में पूजे जाते हैं। यह मंदिर करीब 400 साल पुराना बताया जाता है। इस मंदिर के बारे में बहुत सी कहानियां प्रसिद्ध हैं। माना जाता है प्रभु श्रीराम को यह मंदिर इतना पसंद है कि वह रात में अयोध्या रुकते हैं और सुबह होते ही बाल रूप में यहां आकर विराजमान हो जाते हैं। कई मान्यताओं के अनुसार अयोध्या के रामलला का वास्तविक विग्रह (प्रतिमा) ओरछा में ही विराजमान है। भले ही ओरछा का महत्व अयोध्या के समान न हो, लेकिन उससे कम भी नहीं है। मंदिर का इतिहास ओरछा में राजा रामचंद्र के मंदिर की स्थापना का इतिहास दो भक्तों की ईश्वर भक्ति से जुड़ा हुआ है। बुंदेलखंड क्षेत्र के तत्कालीन शासक मधुकर शाह महान कृष्ण भक्त थे, लेकिन दूसरी ओर उनकी पत्नी महारानी कुंवरि गणेश हमेशा ही श्री राम की भक्ति में लीन रहती थी। दोनों के बीच अपने आराध्य को सर्वश्रेष्ठ साबित करने की होड़ लगी रहती थी। एक बार राजा ने महारानी से वृंदावन चलने के लिए कहा लेकिन महारानी ने प्रस्ताव ठुकराते हुए अयोध्या जाने की जिद कर ली। इस पर राजा ने व्यंग्य करते हुए कहा कि अगर महारानी राम की इतनी ही बड़ी भक्त हैं तो उन्हें अयोध्या से ओरछा लाकर दिखाएं। महारानी ने चुनौती स्वीकार कर ली और निकल पड़ी अयोध्या के लिए। ऐसा माना जाता है कि 21 दिनों तक महारानी कुंवरि गणेश ने अयोध्या में भगवान राम की तपस्या की, लेकिन जब उन्हें भगवान राम का कोई संकेत नहीं प्राप्त हुआ तो उन्होंने सरयू नदी में छलांग लगा दी। नदी में छलांग लगाने के बाद उनकी गोद में भगवान श्री राम प्रकट हो गए। महारानी ने उनसे ओरछा चलने की प्रार्थना की। श्री राम इसके लिए तैयार हो गए, लेकिन उन्होंने शर्त रखी कि वो पुष्य नक्षत्र के दिन ही चलेंगे और जहां उन्हें विराजमान कर दिया जाएगा, वहां से दोबारा उठेंगे नहीं। महारानी ने उनकी दोनों शर्तें मान लीं। ओरछा के रामराजा मंदिर में जड़े शिलालेख के अनुसार महारानी, भगवान राम को विक्रम संवत 1631 (सन् 1574) में चैत्र शुक्ल की नवमी को ओरछा लेकर आईं। ऐतिहासिक तथ्यों के अनुसार महारानी, भगवान राम को अयोध्या से लेकर ओरछा तक पुष्य नक्षत्र में कुल 8 माह 28 दिनों तक पैदल चलीं। इसके बाद उनकी योजना भगवान राम को सन् 875 में बने चतुर्भुज मंदिर में स्थापित करने की थी, लेकिन उन्होंने भगवान राम के विग्रह को उस स्थान पर रख दिया, जहां आज रामराजा मंदिर का निर्माण किया गया है। भगवान राम अपनी शर्त के अनुसार वहीं स्थापित हो गए, जिसके कारण उसी स्थान पर मंदिर का निर्माण किया गया। भगवान राम ने रखी थी ये दो शर्तें प्रभु राम ओरछा चलने को राजी तो हो गए लेकिन उन्होंने रानी के समक्ष 2 शर्ते रख दी। पहली शर्त यह थी कि हम जहां विराजमान होंगे, वहां से हमें कोई हिला नहीं पाएगा और दूसरी शर्त ओरछा के राजा हम ही होंगे। रानी उनकी सारी शर्तें मानकर उन्हें अपने महल में ले आईं। चूंकि मूर्ति को कोई हिला नहीं सकता था, इसलिए रानी के महल को ही मंदिर में तब्दील कर दिया गया और फिर यहां के राजा हो गए भगवान राम। मंदिर को लेकर एक अन्य मान्यता ऐसा कहा जाता है कि जब अयोध्या में इस्लामिक आक्रांताओं का आक्रमण हुआ और मंदिर को तोड़ दिया गया तो साधु-संतों ने भगवान राम के वास्तविक विग्रह को सरयू नदी में बालू के नीचे दबा दिया था। बाद में भगवान राम का यही वास्तविक विग्रह महारानी कुंवरि गणेश की गोद में प्रकट हुआ। अकबर के शासनकाल में बुंदेलखंड के राजा मधुकर शाह ही ऐसे शासक थे, जिन्होंने अपनी हिंदू पहचान को गर्व से धारण किया। इतिहास में इस बात का प्रमाण है कि जब अकबर ने अपने दरबार में तिलक लगाने को प्रतिबंधित किया था, तब मधुकर शाह ने इस निर्णय का पूरा विरोध किया था और मधुकर शाह के विरोध के कारण ही अकबर को निर्णय वापस लेना पड़ा। इसके बाद साधुओं को यह भरोसा हुआ कि मधुकर शाह भगवान राम के विग्रह को भली-भांति सुरक्षित रख पाएंगे। इसी कारण अंतत: भगवान राम ओरछा में विराजमान हुए। यहां कोई भी वीआईपी नहीं जाता है कि ओरछा में कोई भी वीआईपी नहीं है। अगर कोई वीआईपी है, तो वह राजा रामचंद्र हैं। मध्य प्रदेश पुलिस के जवानों के द्वारा सूर्यास्त और सूर्योदय के समय राजा रामचंद्र को बंदूकों की सलामी अर्थात गार्ड ऑफ ऑनर दिया जाता है। ओरछा में यह गार्ड ऑफ ऑनर बाकी किसी को भी नहीं दिया जाता। ऐसा माना जाता है कि त्रेतायुग में राजा दशरथ अपने पुत्र श्रीराम का राज्याभिषेक नहीं कर सके, ऐसे में राजा मधुकर शाह ने अपना कर्तव्य निभाया और राजा रामचंद्र का राज्याभिषेक किया एवं अपना राज्य राजा रामचंद्र को सौंप दिया। यह परंपरा आज भी चली आ रही है। धूमधाम से मनाया जाता है रामनवमी का त्योहार ओरछा के रामराजा मंदिर में श्रीरामनवमी का त्यौहार बड़ी ही भव्यता के साथ मनाया जाता है। इसके अलावा विवाह पंचमी को उनके राज्याभिषेक की वर्षगांठ भी बड़ी धूमधाम से मनाई जाती है। इसके अलावा दशहरा, दीपावली और नवरात्रि भी रामराजा मंदिर के प्रमुख त्योहारों में से एक है। दीपावली के दिन मंदिर को इस प्रकार सजाया जाता है, जिसका वर्णन शब्दों में किया ही नहीं जा सकता है।