लैवेंडर की खेती से महकेंगे खेत, मुनाफे से चहकेंगे किसान
सलूणी घाटी में लैवेंडर की खेती को बढ़ावा देने के लिए 30 एकड़ के क्षेत्रफल में लैवेंडर की खेती की जाएगी।हिमालयन जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के साथ ज़िला में किसानों-बागवानों की आर्थिकी को सशक्त बनाने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों और जलवायु के आधार पर नगदी फसलों को बढ़ावा देने के लिए कार्य योजना को तैयार किया गया है । बता दें कि हिमालयन जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान के साथ गत वर्ष साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए गए थे। इसके तहत ज़िला में सुगंधित पौधों की खेती को बढ़ावा देने के लिए किसानों को तकनीकी जानकारियां उपलब्ध करवाने के साथ विभिन्न फसलों की पौध, डिस्टलेशन यूनिट और तैयार उत्पाद की बिक्री के लिए बाजार भी उपलब्ध करवाना शामिल किया गया है। वर्तमान में संस्थान द्वारा ज़िला में विभिन्न स्थानों में 13 डिस्टलेशन यूनिट (सघन तेल आसवन इकाई) स्थापित किए जा चुके है। सलूणी घाटी में लैवेंडर की खेती को बढ़ावा देने के लिए संस्थान के माध्यम से 30 एकड़ के क्षेत्रफल को लैवेंडर खेती के तहत लाने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस लक्ष्य को पूरा करने में जिला प्रशासन द्वारा हर संभव सहायता उपलब्ध करवाई जाएगी।
कैसे होती हैं खेती ---
लैवेंडर की खेती करने की तकनीक बिल्कुल लेमन ग्रास की ही तरह ही है। लैवेंडर की खेती बीज और पौधों दोनों तरीके से की जा सकती हैं। लेकिन पौध लगाने से इसकी पैदावार अच्छी मिलती हैं। नवम्बर और दिसम्बर माह में इसकी नर्सरी तैयार की जाती है। इसकी पौध तैयार करने के लिए कटिंग के माध्यम से इसके एक या दो साल पुराने पौधों की शाखाओं का उपयोग किया जाता है। उन शाखाओं को नर्सरी में उर्वरक देकर तैयार की गई क्यारियों में 5 सेंटीमीटर की दूरी पर लगाकर पौध तैयार करते हैं। लैवेंडर की खेती के लिए सिंचाई की ज्यादा जरूरत होती हैं। इसके पौधों को खेत में लगाने के तुरंत बाद उनकी सिंचाई कर देनी चाहिए। उसके बाद खेत में नमी बनाए रखने के लिए आवश्यकता के अनुसार पानी देते रहना चाहिए। इसके पौधों में पानी अधिक मात्रा में नही देना चाहिए। ज्यादा समय तक जल भराव रहने की वजह से पौधों को कई तरह के रोग लगने की संभावना बढ़ जाती हैं।
साल में दो बार खिलते हैं फूल
विशेषज्ञों के अनुसार लैवेंडर के फूल साल में दो बार खिलते हैं। इसके पौधे को एक बार रोपने पर इसकी उम्र कम से कम पंद्रह साल तक रहती है। खास बात यह है कि इसे बंजर, ढलान और पथरीली जमीन पर भी उगाया जा सकता है। विशेषज्ञों के अनुसार अप्रैल में रोपने के बाद जून में और फिर अक्टूबर, नवंबर में फूल खिलते हैं। अधिकतर फूल जून महीने में ही खिलते हैं।
रोग और उनकी रोकथाम
इसकी पौध में कई तरह के कीटों का प्रकोप होता है, जिसकी वजह से पौधों के विकास और उत्पादन में कमी आ सकती है। इन सभी तरह के कीटों का जैविक तरीके से नियंत्रण करने के लिए पौधों पर नीम के तेल या अन्य जैविक कीटनाशकों का छिड़काव करना चाहिए। इसके अलावा इसमें जलभराव की वजह से पौध की जड़ में गलन का रोग भी होता है, इसलिए इसकी रोकथाम के लिए जड़ों में बोर्डो मिश्रण का छिड़काव करना चाहिए।
किसानों और बागवानों की आय को दोगुना करने के लिए कुछ अलग तरह की खेती शुरू करना चाहते हैं, जिससे किसानों को अधिक से अधिक लाभ हो सके। इसके लिए जिला प्रशासन ने सीएसआईआर आईएचबीटी के साथ एक एमओयू साइन किया था।किसानों-बागवानों के लिए बीते दिनों प्रशिक्षण शिविर का आयोजन भी हुआ है। हमारा प्रयास है कि आने वाले समय में किसानों बागवानों को लैवेंडर से अधिक से अधिक मुनाफा हो , इसलिए जिला प्रशासन द्वारा भी हर संभव सहायता की जाएगी।
-डीसी राणा, उपायुक्त, चंबा
जिले में औषधीय और सुगंधित पौधों की खेती के लिए अनुकूल जलवायु उपलब्ध है । परंपरागत फसलों से हटकर संस्थान द्वारा जिला में लैवेंडर, जंगली गेंदा, केसर और हींग के उत्पादन के लिए किसानों को तकनीकी जानकारी के साथ उच्च गुणवत्ता युक्त बीज और पौधे भी उपलब्ध करवाए जा रहे हैं । किसानों को डिस्टलेशन यूनिट स्थापित करने के साथ बाजार के साथ भी जोड़ा जा रहा हैं। बीते दिनों आयोजित शिविर में किसानों-बागवानों को 13 हजार लैवेंडर के पौधे भी वितरित किए गए ।
- डॉ संजय कुमार, निदेशक, सीएसआईआर- हिमालयन जैव संपदा प्रौद्योगिकी संस्थान