वो अफ़्साना जिसे अंजाम तक लाना न हो मुमकिन उसे इक ख़ूबसूरत मोड़ दे कर छोड़ना अच्छा साहिर लुधियानवी का ये शेर न जाने कितनी ही अधूरी प्रेम कहानियों का दर्द बयां करता है, ख़ामोशी के नीचे दबे उस मशहर की दास्ताँ बयां करता है जो हर आशिक़ ने हिज्र के बाद महसूस की। अधूरे इश्क़ का हश्र दर्शाता ये शेर कहीं न कहीं खुद इसके लिखने वाले की कहानी को भी बयां करता है। एक ऐसी कहानी जो शुरू तो हुई मगर मंजिल तक न पहुंची, एक ऐसी कहानी जो ज़माने की खींची गई लकीरों से अलहदा थी, एक ऐसी कहानी जो आधी जली सिगरेट और चाय के झूठे प्याले तक सिमट कर रह गई । ये कहानी है उर्दू के मशहूर शायर साहिर लुधियानवी और पंजाब की पहली बाघी कवियत्री अमृता प्रीतम की। अधूरी मोहब्बत का ये वो मुक्कमल फ़साना है जिसके जैसा दूसरा ढूंढ पाना मुश्किल है, वो फ़साना जो मुकाम तक पहुँचने से पहले लड़खड़ाया ज़रूर मगर इसका तास्सुर फीका नहीं पड़ा । 16 साल की उम्र में अमृता की करवा दी गयी शादी अमृता एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थी जहां धर्म के धागे इंसान की किस्मत तय किया करते थे। जहां उनकी नानी मां अन्य समुदाय से ताल्लुक रखने वाले लोगों के बर्तन भी अलग रखती थी, जहां शादी का मतलब जिंदगी भर का साथ होता था। ऐसे परिवार में जन्मी थी वो बेख़ौफ़ कवियत्री जिसने अपनी जिंदगी में दो लोगों से प्यार किया जिनमे से एक मुस्लमान था। ज़ाहिर है की अमृता प्रीतम वो महिला थी जो अपने दौर से बहुत आगे थी। अमृता जब 16 साल की थीं, तो उनकी शादी प्रीतम सिंह से करवा दी गई। शादी के बाद वे अमृता कौर से अमृता प्रीतम बन गई। अमृता ने अपने पति का नाम तो अपनाया लेकिन वो उनकी अभिन्न अंग नहीं बन पाई। शायरी बनीं साहिर से मिलने की वजह वो बात 1944 की है जब इस कहानी के किरदार एक दूसरे से पहली बार मिले, जगह थी लाहौर और दिल्ली के बीच स्थित प्रीत नगर। साहिर जुनुनी और आदर्शवादी थे, अमृता बेहद दिलकश अपनी खूबसूरती में भी और अपनी लेखनी में भी। दोनों एक मुशायरे में शिरकत के लिए प्रीत नगर पहुंचे थे। मद्धम रोशनी वाले एक कमरे में दोनों मिले और बस प्यार हो गया। साहिर से मिलने के बाद अमृता ने उनके लिए एक कविता भी लिखी। 'अब रात गिरने लगी तो तू मिला है, तू भी उदास, चुप, शांत और अडोल। मैं भी उदास, चुप, शांत और अडोल। सिर्फ- दूर बहते समुद्र में तूफान है…' शायद उस समय की मोहब्बत ख़ामोशी से शुरू हुआ करती होगी, वैसे भी जहां इश्क़ ब्यां करने के लिए लफ़्ज़ों की ज़रूरत पड़े वो मोहब्बत कैसी। अमृता ने लिखा, "मुझे नहीं मालूम की वो साहिर के लफ्जो की जादूगरी थी, या उनकी खामोश नज़र का कमाल था, लेकिन कुछ तो था जिसने मुझे अपनी तरफ खींच लिया, आज जब उस रात को आँखें मूंद कर देखती हूँ तो ऐसा समझ आता है कि तकदीर ने मेरे दिल में इश्क़ का बीज डाला जिसे बारिश की फुहारों ने बढ़ा दिया, उस दिन बारिश हुई थी। आत्मकथाओं में लिखे मोहब्बत के किस्से साहिर और अमृता की प्रेम कहानी के अंश इन दोनों की आत्मकथाओं में मिलते है, अपनी आत्मकथा रसीदी टिकट में अमृता प्रीतम ने साहिर के साथ हुई मुलाकातों का जिक्र किया है। वो लिखती है कि, "वो खामोशी से सिगरेट जलाता और फिर आधी सिगरेट ही बुझा देता, फिर एक नई सिगरेट जला लेता। जब तक वो विदा लेता, कमरा सिगरेट की महक से भर जाता। मैं इन सिगरेटों को हिफाजत से उठाकर अलमारी में रख देती और जब कमरे में अकेली होती तो उन सिगरेटों को एक-एक करके पीती। मेरी उंगलियों में फंसी सिगरेट, ऐसा लगता कि मैं उसकी उंगलियों को छू रही हूं। मुझे धुएं में उसकी शक्ल दिखाई पड़ती। ऐसे मुझे सिगरेट पीने की लत पड़ी।" अमृता लिखती है यह आग की बात है तूने यह बात सुनाई है यही ज़िन्दगी की वहीं सिगरेट है जो तूने कभी सुलगायी थी चिंगारी तूने दी थी ये दिल सदा जलता रहा वक्त कलम पकड़ कर कोई हिसाब लिखता रहा ज़िन्दगी का अब गम नहीं इस आग को संभाल ले तेरे हाथ की खेर मांगती हूँ अब और सिगरेट जला ले। वैसे साहिर भी कुछ कम नहीं थे, साहिर की जिंदगी से जुड़ा एक किस्सा है। जब साहिर और संगीतकार जयदेव एक गाने पर काम कर रहे थे तो साहिर के घर पर एक जूठा कप उन्हें दिखा। उस कप को साफ करने की बात जब जयदेव ने कही तो साहिर ने कहा कि इसे छूना भी मत, अमृता जब आखिरी बार यहां आई थी तो इसी कप में चाय पी थी। अमृता प्रीतम और साहिर की मोहब्बत की राह में कई रोड़े थे, जिस समय अमृता साहिर से मिली वे विवाहित थी हालाँकि वे उस रिश्ते में कभी भी खुश नहीं रही और दूसरी तरफ साहिर लुधियानवी में किसी नए रिश्ते की चाह नहीं थी, लेकिन वो अमृता ही थीं जिसने साहिर के दिल में जगह बनाई। साहिर की जीवनी, साहिर: ए पीपुल्स पोइट, लिखने वाले अक्षय मानवानी कहते हैं कि अमृता वो इकलौती महिला थीं, जो साहिर को शादी के लिए मना सकती थीं। एक बार अमृता साहिर की माँ से मिलने दिल्ली आई थी, जब वे गई तो साहिर ने अपनी माँ से कहा था, 'वो अमृता प्रीतम थी वो आप की बहू बन सकती थी।' मगर साहिर ने ये बात कभी अमृता से नहीं की और शायद साहिर की ये चुप्पी ही थी जिसने अमृता के दिल में इमरोज़ के लिए जगह बनाई। कैसे मिले इमरोज़ अमृता इमरोज़ से 1958 में मिले, मिलते ही इमरोज़ को अमृता से इश्क़ हो गया। इमरोज़ एक चित्रकार थे साहिर और अमृता की मुलाकात तो यूं हीं संयोग से हो गई थी, लेकिन इमरोज़ से तो अमृता की मुलाकात करवाई गई थी। एक दोस्त ने दोनों को मिलवाया था। इमरोज़ ने तब अमृता का साथ दिया जब साहिर को कोई और मिल गया था। इमरोज़ के साथ अमृता ने अपनी जिंदगी के आखिरी 40 साल गुजारे, इमरोज़ अमृता की पेंटिंग भी बनाते और उनकी किताबों के कवर भी डिजाइन करते। इमरोज़ और अमृता एक छत के नीचे ज़रूर रहे मगर एक दूसरे के साथ नहीं। उनकी जिंदगी के ऊपर एक किताब भी है 'अमृता इमरोज़: एक प्रेम कहानी। एक ही छत के नीचे दो अलग कमरे इन दोनों का बसेरा बना। अपने एक लेख "मुझे फिर मिलेगी अमृता" में इमरोज़ लिखते है की कोई रिश्ता बांधने से नहीं बंधता न तो मैंने कभी अमृता से कहा कि मैं तुमसे प्यार करता हूँ न कभी अमृता ने मुझसे। मैं तुम्हे फिर मिलूंगी कविता में शायद अमृता ने इमरोज़ के लिए यही लिखा था मैं तुझे फिर मिलूंगी कहां, कैसे पता नहीं शायद तेरी कल्पनाओं की प्रेरणा बन तेरे कैनवास पर उतरूंगी या तेरे कैनवस पर एक रहस्यमयी लकीर बन खामोश तुझे देखती रहूंगी मैं तुझे फिर मिलूंगी कहाँ, कैसे पता नहीं मैं तुझे फिर मिलूंगी। इमरोज़ अमृता से बेइन्तिहाँ मोहब्बत करते थे मगर अमृता के दिलो दिमाग पर साहिर का राज था। किस्सा तो यह भी है कि इमरोज के पीछे स्कूटर पर बैठी अमृता सफर के दौरान ख्यालों में गुम होतीं तो इमरोज की पीठ पर अंगुलियां फेरकर 'साहिर' लिख दिया करती थीं। ये मोहब्बत अधूरी रही और इस मोहब्बत के गवाह बने आधी जली सिगरेट के टुकड़े, चाय का झूठा प्याला और ढेर सारे खुतूत।
मुक़्तदा हसन निदा फ़ाज़ली या मात्र निदा फ़ाज़ली हिन्दी और उर्दू के अज़ीम शायर हैं। उन्होंने सीधी ज़ुबान के ज़रिए लोगों तक अपने कलाम पहुंचाए। न सिर्फ़ ग़ज़लें, नज़्में हीं बल्कि दोहे भी लिखे। हिंदी-उर्दू काव्य प्रेमियों के बीच अति लोकप्रिय और सम्मानित निदा फ़ाज़ली समकालीन उर्दू साहित्य के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर थे। उन्होंने बॉलीवुड को कभी न भूलने वाले ऐसे गाने और गज़ले दी जो आज भी लोग गुनगया करते है। उनके तमाम कलामों में से पेश हैं उनकी लिखी कुछ मशहूर गज़ले कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता बुझा सका है भला कौन वक़्त के शोले ये ऐसी आग है जिसमें धुआँ नहीं मिलता तमाम शहर में ऐसा नहीं ख़ुलूस न हो जहाँ उमीद हो सकी वहाँ नहीं मिलता कहाँ चिराग़ जलायें कहाँ गुलाब रखें छतें तो मिलती हैं लेकिन मकाँ नहीं मिलता ये क्या अज़ाब है सब अपने आप में गुम हैं ज़बाँ मिली है मगर हमज़बाँ नहीं मिलता चिराग़ जलते ही बीनाई बुझने लगती है खुद अपने घर में ही घर का निशाँ नहीं मिलता जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है ज़ुबाँ मिली है मगर हमज़ुबा नहीं मिलता तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो जहाँ उम्मीद हो इस की वहाँ नहीं मिलता इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी (पाकिस्तान से लौटने के बाद ) इन्सान में हैवान यहाँ भी है वहाँ भी अल्लाह निगहबान यहाँ भी है वहाँ भी | खूँख्वार दरिंदों के फ़क़त नाम अलग हैं शहरों में बयाबान यहाँ भी है वहाँ भी | रहमान की कुदरत हो या भगवान की मूरत हर खेल का मैदान यहाँ भी है वहाँ भी | हिन्दू भी मज़े में हैमुसलमाँ भी मज़े में इन्सान परेशान यहाँ भी है वहाँ भी | उठता* है दिलो-जाँ से धुआँ दोनों तरफ़ ही ये 'मीर' का दीवान यहाँ भी है वहाँ भी | दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है मिल जाये तो मिट्टी है खो जाये तो सोना है अच्छा-सा कोई मौसम तन्हा-सा कोई आलम हर वक़्त का रोना तो बेकार का रोना है बरसात का बादल तो दीवाना है क्या जाने किस राह से बचना है किस छत को भिगोना है ग़म हो कि ख़ुशी दोनों कुछ देर के साथी हैं फिर रस्ता ही रस्ता है हँसना है न रोना है ये वक्त जो तेरा है, ये वक्त जो मेरा हर गाम पर पहरा है, फिर भी इसे खोना है आवारा मिज़ाजी ने फैला दिया आंगन को आकाश की चादर है धरती का बिछौना है अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं पहले हर चीज़ थी अपनी मगर अब लगता है अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं वक़्त के साथ है मिट्टी का सफ़र सदियों तक किसको मालूम कहाँ के हैं किधर के हम हैं चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं गिनतियों में ही गिने जाते हैं हर दौर में हम हर क़लमकार की बेनाम ख़बर के हम हैं बेनाम-सा ये दर्द बेनाम-सा ये दर्द ठहर क्यों नहीं जाता जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता सब कुछ तो है क्या ढूँढ़ती रहती हैं निगाहें क्या बात है मैं वक़्त पे घर क्यों नहीं जाता वो एक ही चेहरा तो नहीं सारे जहाँ में जो दूर है वो दिल से उतर क्यों नहीं जाता मैं अपनी ही उलझी हुई राहों का तमाशा जाते हैं जिधर सब, मैं उधर क्यों नहीं जाता वो ख़्वाब जो बरसों से न चेहरा, न बदन है वो ख़्वाब हवाओं में बिखर क्यों नहीं जाता होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है होश वालों को ख़बर क्या बेखुदी क्या चीज़ है इश्क़ कीजे फिर समझिए ज़िंदगी क्या चीज़ है उनसे नज़रें क्या मिलीं रोशन फ़िज़ाएं हो गईं आज जाना प्यार की जादूगरी क्या चीज़ है खुलती ज़ुल्फ़ों ने सिखाई मौसमों को शायरी झुकती आँखों ने बताया मैकशी क्या चीज़ है हम लबों से कह न पाए उनसे हाल-ए-दिल कभी और वो समझे नहीं ये ख़ामोशी क्या चीज़ है
मुनव्वर राणा, उर्दू भाषा के मशहूर साहित्यकार हैं। इनके द्वारा रचित एक कविता शाहदाबा के लिये उन्हें सन् 2014 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। भारत-पाकिस्तान बंटवारे के समय उनके बहुत से नजदीकी रिश्तेदार और पारिवारिक सदस्य देश छोड़कर पाकिस्तान चले गए। लेकिन साम्प्रदायिक तनाव के बावजूद मुनव्वर राना के पिता ने अपने देश में रहने को ही अपना कर्तव्य माना। राना ने ग़ज़लों के अलावा संस्मरण भी लिखे हैं। उनके लेखन की लोकप्रियता का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि उनकी रचनाओं का ऊर्दू के अलावा अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हुआ है। प्रस्तुत है मुन्नवर राणा के लिखे कुछ बेहतरीन शेर : 1 तुम्हारी आँखों की तौहीन है ज़रा सोचो तुम्हारा चाहने वाला शराब पीता है 2 आप को चेहरे से भी बीमार होना चाहिए इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए 3 अपनी फजा से अपने जमानों से कट गया पत्थर खुदा हुआ तो चट्टानों से कट गया 4 बदन चुरा के न चल ऐ कयामते गुजरां किसी-किसी को तो हम आंख उठा के देखते हैं 5 झुक के मिलते हैं बुजुर्गों से हमारे बच्चे फूल पर बाग की मिट्टी का असर होता है 6 कोई दुख हो, कभी कहना नहीं पड़ता उससे वो जरूरत हो तलबगार से पहचानता है 7 एक क़िस्से की तरह वो तो मुझे भूल गया इक कहानी की तरह वो है मगर याद मुझे 8 भुला पाना बहुत मुश्किल है सब कुछ याद रहता है मोहब्बत करने वाला इस लिए बरबाद रहता है 9 हम कुछ ऐसे तेरे दीदार में खो जाते हैं जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं 10 अँधेरे और उजाले की कहानी सिर्फ़ इतनी है जहाँ महबूब रहता है वहीं महताब रहता है 11 किसी को घर मिला हिस्से में या कोई दुकाँ आई मैं घर में सब से छोटा था मेरे हिस्से में माँ आई 12 मिट्टी में मिला दे कि जुदा हो नहीं सकता अब इस से ज़यादा मैं तेरा हो नहीं सकता 13 वो बिछड़ कर भी कहाँ मुझ से जुदा होता है रेत पर ओस से इक नाम लिखा होता है 14 मैं भुलाना भी नहीं चाहता इस को लेकिन मुस्तक़िल ज़ख़्म का रहना भी बुरा होता है 15 ये हिज्र का रस्ता है ढलानें नहीं होतीं सहरा में चराग़ों की दुकानें नहीं होतीं 16 नये कमरों में अब चीजें पुरानी कौन रखता है परिंदों के लिए शहरों में पानी कौन रखता है 17 मोहाजिरो यही तारीख है मकानों की बनाने वाला हमेशा बरामदों में रहा 18 तुझसे बिछड़ा तो पसंद आ गयी बे-तरतीबी इससे पहले मेरा कमरा भी ग़ज़ल जैसा था 19 तुझे अकेले पढूँ कोई हम-सबक न रहे मैं चाहता हूँ कि तुझ पर किसी का हक न रहे 20 सिरफिरे लोग हमें दुश्मन-ए-जां कहते हैं हम तो इस मुल्क की मिट्टी को भी माँ कहते हैं
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्र कवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति,एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्र कवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के बारे में एक कहानी है जिसका पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन ये कहानी अक्सर आपके कानों में कहीं न कहीं से आ ही जाती होगी। लाल किले पर एक कवि सम्मेलन हुआ था जिसकी अध्यक्षता ‘दिनकर’ कर रहे थे। इस सम्मेलन में उस वक़्त के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी शामिल थे। पंडित नेहरू सीढ़ियों से ऊपर चढ़ कर मंच की ओर बढ़ रहे थे कि तभी उनका पैर लड़खड़ा गया। देर होती इससे पहले दिनकर ने उन्हें पकड़ लिया। जब नेहरू मंच पर बैठने लगे तो उन्होंने दिनकर का शुक्रिया अदा किया। दिनकर ने हंसते हुए कहा कि “इसमें शुक्रिया की क्या बात है जब जब राजनीति लड़खड़ाई है उसे कविताओं ने ही सम्भाला है।” प्रस्तुत है उनकी लिखी एक ऐसी कविता जो भारत के सबसे बड़े आंदोलनों में से एक जे पी आंदोलन की आवाज़ बनी । सिंहासन खाली करो कि जनता आती है सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली। जनता? हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में। लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह,समय में ताव कहां? वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है। अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार बीता गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं। सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो। आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में। फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है; दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
भारत का एक ऐसा कवि जिसे सवतंत्रता के बाद राष्ट्रकवि की ख्याती प्राप्त हुई , ऐसा कवि जिसकी कविताओं में एक ओर ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति, एक ऐसा कवि जो साहित्य का वह सशक्त हस्ताक्षर हैं जिसकी कलम में दिनकर यानी सूर्य के समान चमक थी। हम बात कर रहे है राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की। दिनकर ने कुछ ऐसी कविताएं लिखी है जो मन को आंदोलित कर दे और उसकी गूंज सालों तक सुनाई दे। रामधारी सिंह दिनकर केवल राष्ट्रकवि ही नहीं बल्कि जनकवि है। उनकी कविताएं हर वर्ग के व्यक्ति को मंत्रमुग्ध कर देती है। प्रस्तुत है उनकी लिखी कुछ मशहूर कविताएं : समर शेष है ढीली करो धनुष की डोरी, तरकस का कस खोलो , किसने कहा, युद्ध की बेला चली गयी, शांति से बोलो? किसने कहा, और मत बेधो हृदय वह्रि के शर से, भरो भुवन का अंग कुंकुम से, कुसुम से, केसर से? कुंकुम? लेपूं किसे? सुनाऊँ किसको कोमल गान? तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान। फूलों के रंगीन लहर पर ओ उतरनेवाले! ओ रेशमी नगर के वासी! ओ छवि के मतवाले! सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है, दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है। मखमल के पर्दों के बाहर, फूलों के उस पार, ज्यों का त्यों है खड़ा, आज भी मरघट-सा संसार। वह संसार जहाँ तक पहुँची अब तक नहीं किरण है जहाँ क्षितिज है शून्य, अभी तक अंबर तिमिर वरण है देख जहाँ का दृश्य आज भी अन्त:स्थल हिलता है माँ को लज्जा वसन और शिशु को न क्षीर मिलता है पूज रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज सात वर्ष हो गये राह में, अटका कहाँ स्वराज? अटका कहाँ स्वराज? बोल दिल्ली! तू क्या कहती है? तू रानी बन गयी वेदना जनता क्यों सहती है? सबके भाग्य दबा रखे हैं किसने अपने कर में? उतरी थी जो विभा, हुई बंदिनी बता किस घर में समर शेष है, यह प्रकाश बंदीगृह से छूटेगा और नहीं तो तुझ पर पापिनी! महावज्र टूटेगा समर शेष है, उस स्वराज को सत्य बनाना होगा जिसका है ये न्यास उसे सत्वर पहुँचाना होगा धारा के मग में अनेक जो पर्वत खडे हुए हैं गंगा का पथ रोक इन्द्र के गज जो अड़े हुए हैं कह दो उनसे झुके अगर तो जग मे यश पाएंगे अड़े रहे अगर तो ऐरावत पत्तों से बह जाऐंगे समर शेष है, जनगंगा को खुल कर लहराने दो शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो पथरीली ऊँची जमीन है? तो उसको तोडेंगे समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे समर शेष है, चलो ज्योतियों के बरसाते तीर खण्ड-खण्ड हो गिरे विषमता की काली जंजीर समर शेष है, अभी मनुज भक्षी हुंकार रहे हैं गाँधी का पी रुधिर जवाहर पर फुंकार रहे हैं समर शेष है, अहंकार इनका हरना बाकी है वृक को दंतहीन, अहि को निर्विष करना बाकी है समर शेष है, शपथ धर्म की लाना है वह काल विचरें अभय देश में गाँधी और जवाहर लाल तिमिर पुत्र ये दस्यु कहीं कोई दुष्काण्ड रचें ना सावधान! हो खड़ी देश भर में गाँधी की सेना बलि देकर भी बली! स्नेह का यह मृदु व्रत साधो रे मंदिर औ' मस्जिद दोनों पर एक तार बाँधो रे समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध कलम आज उनकी जय बोलो जला अस्थियाँ बारी-बारी चिटकाई जिनमें चिंगारी, जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर लिए बिना गर्दन का मोल कलम, आज उनकी जय बोल। जो अगणित लघु दीप हमारे तूफानों में एक किनारे, जल-जलाकर बुझ गए किसी दिन माँगा नहीं स्नेह मुँह खोल कलम, आज उनकी जय बोल। पीकर जिनकी लाल शिखाएँ उगल रही सौ लपट दिशाएं, जिनके सिंहनाद से सहमी धरती रही अभी तक डोल कलम, आज उनकी जय बोल। अंधा चकाचौंध का मारा क्या जाने इतिहास बेचारा, साखी हैं उनकी महिमा के सूर्य चन्द्र भूगोल खगोल कलम, आज उनकी जय बोल। सिंहासन खाली करो की जनता आती है सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी, मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । जनता ? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही, जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली, जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली । जनता ? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम, "जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।" "सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?" 'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?" मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं, जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में; अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में । लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं, जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती, साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है, जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ? वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है । अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं; यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं । सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा, तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है, तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो । आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख, मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ? देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे, देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में । फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं, धूसरता सोने से शृँगार सजाती है; दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो, सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । कलम या कि तलवार दो में से क्या तुम्हे चाहिए कलम या कि तलवार मन में ऊँचे भाव कि तन में शक्ति विजय अपार अंध कक्ष में बैठ रचोगे ऊँचे मीठे गान या तलवार पकड़ जीतोगे बाहर का मैदान कलम देश की बड़ी शक्ति है भाव जगाने वाली, दिल की नहीं दिमागों में भी आग लगाने वाली पैदा करती कलम विचारों के जलते अंगारे, और प्रज्वलित प्राण देश क्या कभी मरेगा मारे एक भेद है और वहां निर्भय होते नर -नारी, कलम उगलती आग, जहाँ अक्षर बनते चिंगारी जहाँ मनुष्यों के भीतर हरदम जलते हैं शोले, बादल में बिजली होती, होते दिमाग में गोले जहाँ पालते लोग लहू में हालाहल की धार, क्या चिंता यदि वहाँ हाथ में नहीं हुई तलवार रोटी और स्वाधीनता (1) आजादी तो मिल गई, मगर, यह गौरव कहाँ जुगाएगा ? मरभुखे ! इसे घबराहट में तू बेच न तो खा जाएगा ? आजादी रोटी नहीं, मगर, दोनों में कोई वैर नहीं, पर कहीं भूख बेताब हुई तो आजादी की खैर नहीं। (2) हो रहे खड़े आजादी को हर ओर दगा देनेवाले, पशुओं को रोटी दिखा उन्हें फिर साथ लगा लेनेवाले। इनके जादू का जोर भला कब तक बुभुक्षु सह सकता है ? है कौन, पेट की ज्वाला में पड़कर मनुष्य रह सकता है ? (3) झेलेगा यह बलिदान ? भूख की घनी चोट सह पाएगा ? आ पड़ी विपद तो क्या प्रताप-सा घास चबा रह पाएगा ? है बड़ी बात आजादी का पाना ही नहीं, जुगाना भी, बलि एक बार ही नहीं, उसे पड़ता फिर-फिर दुहराना भी।
मिर्ज़ा असद-उल्लाह बेग ख़ां उर्फ “ग़ालिब” उर्दू एवं फ़ारसी भाषा के वो महान शायर जिनकी शायरी के बगैर हर मोहब्बत अधूरी है , वो शायर जिन्हे उर्दू भाषा का सर्वकालिक महान शायर माना गया है, वो शायर जिसे फ़ारसी कविता के प्रवाह को हिन्दुस्तानी जबान में लोकप्रिय करवाने का श्रेय भी दिया जाता है। ग़ालिब को मुख्यतः उनकी उर्दू ग़ज़लों को लिए याद किया जाता आज। पेश है मिर्ज़ा ग़ालिब की लिखी सबसे ज़ादा ख़ूबसूरत पंक्तियाँ : ग़ैर लें महफ़िल में बोसे जाम के हम रहें यूं तिश्ना-लब पैग़ाम के ख़स्तगी का तुम से क्या शिकवा कि ये हथकण्डे हैं चर्ख़-ए-नीली-फ़ाम के ख़त लिखेंगे गरचे मतलब कुछ न हो हम तो आशिक़ हैं तुम्हारे नाम के दिल को आंखों ने फंसाया क्या मगर ये भी हल्क़े हैं तुम्हारे दाम के शाह के है ग़ुस्ल-ए-सेह्हत की ख़बर देखिए कब दिन फिरें हम्माम के इश्क़ ने 'ग़ालिब' निकम्मा कर दिया वरना हम भी आदमी थे काम के
अहमद फ़राज़, असली नाम सैयद अहमद शाह, एक ऐसे शायर जिनका जन्म पाकिस्तान के नौशेरां शहर में हुआ , एक ऐसे शायर जो आधुनिक उर्दू के सर्वश्रेष्ठ रचनाकारों में गिने जाते हैं, एक ऐसे शायर जिन्होंने मोहब्बत में छिपे दर्द को अपने शब्दों में कुछ ऐसे उकेरा की उनकी नज़्में ,उनकी गज़ले हर आशिक के हम सोहबत हो गए। आइये आपको पढ़ते है उनके लिखे कुछ उम्दा शेर : 1 सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 2 रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ 3 अब दिल की तमन्ना है तो ऐ काश यही हो आँसू की जगह आँख से हसरत निकल आए 4 अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिले जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 5 आँख से दूर न हो दिल से उतर जाएगा वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जाएगा 6 आज एक और बरस बीत गया उस के बग़ैर जिस के होते हुए होते थे ज़माने मेरे 7 आशिक़ी में 'मीर' जैसे ख़्वाब मत देखा करो बावले हो जाओगे महताब मत देखा करो 8 एक नफरत ही नहीं दुनिया में दर्द का सबब फ़राज़ मोहब्बत भी सकूँ वालों को बड़ी तकलीफ़ देती है 9 माना कि तुम गुफ़्तगू के फन में माहिर हो फ़राज़ वफ़ा के लफ्ज़ पे अटको तो हमें याद कर लेना 10 अपने ही होते हैं जो दिल पे वार करते हैं फ़राज़ वरना गैरों को क्या ख़बर की दिल की जगह कौन सी है. 11 उस शख्स से बस इतना सा ताल्लुक़ है फ़राज़ वो परेशां हो तो हमें नींद नहीं आती 12 बच न सका ख़ुदा भी मुहब्बत के तकाज़ों से फ़राज़ एक महबूब की खातिर सारा जहाँ बना डाला 13 इस तरह गौर से मत देख मेरा हाथ ऐ फ़राज़ इन लकीरों में हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं 14 वो रोज़ देखता है डूबे हुए सूरज को फ़राज़ काश मैं भी किसी शाम का मंज़र होता 15 वो बारिश में कोई सहारा ढूँढता है फ़राज़ ऐ बादल आज इतना बरस की मेरी बाँहों को वो सहारा बना ले 16 दीवार क्या गिरी मेरे कच्चे मकान की फ़राज़ लोगों ने मेरे घर से रास्ते बना लिए 17 दोस्ती अपनी भी असर रखती है फ़राज़ बहुत याद आएँगे ज़रा भूल कर तो देखो 18 फुर्सत मिले तो कभी हमें भी याद कर लेना फ़राज़ बड़ी पुर रौनक होती हैं यादें हम फकीरों की 19 कितना आसाँ था तेरे हिज्र में मरना जाना फिर भी इक उम्र लगी जान से जाते-जाते 20 मोहब्बत के अंदाज़ जुदा होते हैं फ़राज़ किसी ने टूट के चाहा और कोई चाह के टूट गया 21 किस किस से मुहब्बत के वादे किये हैं तूने फ़राज़ हर रोज़ एक नया शख्स तेरा नाम पूछता है 22 मैं अपने दिल को ये बात कैसे समझाऊँ फ़राज़ कि किसी को चाहने से कोई अपना नहीं होता 23 कांच की तरह होते हैं गरीबों के दिल फ़राज़ कभी टूट जाते हैं तो कभी तोड़ दिए जाते हैं 24 मुझको मालूम नहीं हुस्न की तारीफ फ़राज़ मेरी नज़रों में हसीन वो है जो तुझ जैसा हो 25 ज़माने के सवालों को मैं हंस के टाल दूं फ़राज़ लेकिन नमी आंखों की कहती है 'मुझे तुम याद आते हो' 26 वहाँ से एक पानी की बूँद ना निकल सकी “फ़राज़” तमाम उम्र जिन आँखों को हम झील लिखते रहे 27 वो शख्स जो कहता था तू न मिला तो मर जाऊंगा “फ़राज़” वो आज भी जिंदा है यही बात किसी और से कहने के लिए 28 और 'फ़राज़' चाहिए कितनी मोहब्बतें तुझे मांओं ने तेरे नाम पर बच्चों का नाम रख दिया 29 वो बात बात पे देता है परिंदों की मिसाल साफ़ साफ़ नहीं कहता मेरा शहर ही छोड़ दो 30 तुम्हारी एक निगाह से कतल होते हैं लोग फ़राज़ एक नज़र हम को भी देख लो के तुम बिन ज़िन्दगी अच्छी नहीं लगती
अबुल हसन यमीनुद्दीन अमीर ख़ुसरो, खड़ी बोली हिंदी के वो पहले कवि जिन्होंने अपनी लेखनी से सबको मंत्रमुग्ध कर दिया । वे दिल्ली के रहने वाले एक प्रमुख कवि, शायर, गायक और संगीतकार थे, जिनके लिखे सूफियाना दोहे आज तक गुनगुनाए जाते है । अमीर खुसरो प्रथम मुस्लिम कवि थे जिन्होंने हिंदी शब्दों का खुलकर प्रयोग किया है I वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने हिंदी, हिन्दवी और फारसी में एक साथ लिखा I वे अपनी पहेलियों और मुकरियों के लिए भी जाने जाते हैं। वे फारसी के कवि भी थे। उनको दिल्ली सल्तनत का आश्रय मिला हुआ था। उनके ग्रंथो की सूची लम्बी है। साथ ही इनका इतिहास स्रोत रूप में महत्त्व है। अमीर खुसरो को हिन्द का तोता कहा जाता है। पढ़िए अमीर खुसरो के वो दोहे जिन्हे आज भी याद किआ जाता है खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग। तन मेरो मन पियो को, दोउ भए एक रंग।। खुसरो बाजी प्रेम की मैं खेलूं पी के संग। जीत गयी तो पिया मोरे हारी पी के संग।। खीर पकायी जतन से, चरखा दिया जला। आया कुत्ता खा गया, तू बैठी ढोल बजा।। गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस। चल खुसरो घर आपने, सांझ भयी चहु देस।। अंगना तो परबत भयो, देहरी भई विदेस। जा बाबुल घर आपने, मैं चली पिया के देस।। खुसरो दरिया प्रेम का, उल्टी वा की धार। जो उतरा सो डूब गया, जो डूबा सो पार।। साजन ये मत जानियो तोहे बिछड़त मोहे को चैन। दिया जलत है रात में और जिया जलत बिन रैन।। खुसरो सरीर सराय है क्यों सोवे सुख चैन। कूच नगारा सांस का, बाजत है दिन रैन।। संतों की निंदा करे, रखे पर नारी से हेत। वे नर ऐसे जाऐंगे, जैसे रणरेही का खेत।। खुसरो पाती प्रेम की बिरला बाँचे कोय। वेद, कुरान, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय।। अपनी छवि बनाई के मैं तो पी के पास गई। जब छवि देखी पीहू की सो अपनी भूल गई।। रैन बिना जग दुखी और दुखी चन्द्र बिन रैन। तुम बिन साजन मैं दुखी और दुखी दरस बिन नैंन।। नदी किनारे मैं खड़ी सो पानी झिलमिल होय। पी गोरी मैं साँवरी अब किस विध मिलना होय।। रैनी चढ़ी रसूल की सो रंग मौला के हाथ। जिसके कपरे रंग दिए सो धन धन वाके भाग।। उज्जवल बरन अधीन तन एक चित्त दो ध्यान। देखत में तो साधु है पर निपट पाप की खान।। खुसरो ऐसी पीत कर जैसे हिन्दू जोय। पूत पराए कारने जल जल कोयला होय।। चकवा चकवी दो जने इन मत मारो कोय। ये मारे करतार के रैन बिछोया होय।। देख मैं अपने हाल को रोऊं, ज़ार-ओ-ज़ार। वै गुनवन्ता बहुत है, हम हैं औगुन हार।। वो गए बालम वो गए नदिया पार। आपे पार उतर गए, हम तो रहे मझधार।।