कुष्ठ रोगियों के लिए मसीहा बन कर आगे आये थे बाबा आमटे
विविधता में भारत के मुकाबले में शायद ही कोई दूसरा देश हो। भारत में जाति, लिंग भेदभाव और धार्मिक नजरिए से ऊपर उठकर देश को आगे बढ़ाने और समाज सेवा में कई महान हस्तियों ने अपना योगदान दिया है। देश के महान हस्तियों में एक व्यक्ति बाबा आमटे भी थे, जिन्होंने अपना पूरा जीवन कुष्ठ रोगियों और जरूरतमंदों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया। आज भले ही शिक्षित समाज में कुष्ठ रोगियों के प्रति व्यवहार में सुधार देखने को मिला है लेकिन आजादी से पूर्व कुष्ठ रोगियों के प्रति व्यवहार बेहद दुखद था।
लोगों की धारणा होती थी कि जिस व्यक्ति को कुष्ठ रोग हुआ है वो बड़ा पाप का भोगी है। उस वक्त में कुष्ठ रोगियों की संख्या काफी ज्यादा थी और बीमारी को ठीक करने के लिए संभावनाएं और जागरूकता बेहद कम। उस दौर में बाबा आमटे ने जमीनी स्तर पर काम किया और समाज के नजरिये को बदलने में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
समाजसेवी बाबा आमटे का जन्म 26 दिसंबर, 1914 को महाराष्ट्र के वर्धा जिले के हिंगनघाट में हुआ था। बाबा आमटे के पिता देवीदास ब्रिटिश भारत के प्रशासन में शक्तिशाली नौकरशाह और जिले के धनी जमींदार थे। बाबा आमटे की माता का नाम लक्ष्मीबाई आमटे था। बाबा आमटे का पूरा नाम मुरलीधर देवीदास आमटे था, लेकिन उनके माता पिता व परिवार के अन्य सदस्य उन्हें बाबा कहकर बुलाते थे। आगे चलकर ही ये नाम उनकी पहचान बनी। एक जमीदार परिवार के होने के नाते बाल्यावस्था में उनके पास किसी चीज की कमी नहीं थी और उनकी हर जिद्द को तुरंत पूरा किया जाता था।
बाबा आमटे की शिक्षा और शादी
बाबा आमटे की प्रारंभिक पढ़ाई नागपुर के क्रिश्चियन मिशन स्कूल में हुई। इसके बाद बाबा आमटे ने नागपुर यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई की और वकालत शुरू कर दी। समृद्ध परिवार से आने के कारण उनके पास काम की कभी कमी नहीं रही, वे अपने पैतृक शहर में भी वकालत की और काफी सफल वकील बने। बाबा आमटे ने साल 1946 में साधना गुलशास्त्री से शादी की थी। बाबा आमटे की पत्नी साधना गुलशास्त्री उनके सामाजिक कार्यों में मदद करती थीं और वह मानवता में विश्वास करती थीं। साधना गुलशास्त्री ताई के नाम से लोकप्रिय थीं। उनकी दोनों ही संतानें डॉक्टर हैं और गरीबों की मदद करने के माता-पिता के नक्शेकदम पर चले।
बाबा आमटे की भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में भूमिका
सब कुछ होने के बाद भी बाबा आमटे का मन लोगों की सेवा में लगा रहता था। बाबा आमटे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और विनोबा भावे से बहुत प्रभावित थे, इसलिए वे उनके साथ हो लिए। बाबा आमटे ने इनके साथ मिलकर पूरे भारत का दौरा किया और देश के गांवों मे अभावों में जीने वालें लोगों की असली समस्याओं को समझने की कोशिश की थी। बाबा आमटे ने देश के स्वतंत्रता संग्राम में भी खुलकर हिस्सा लिया और हवालात भी गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय 8 अगस्त, 1942 में जब भारत छोड़ो आंदोलन शुरू हुआ था। इस आन्दोलन के दौरान बाबा आमटे ने पूरे भारत में बंद लीडर का केस लड़ने के लिए वकीलों को संगठित किया था।
कुष्ठरोगी को देखकर समाज सेवा में उतरे
बाबा आमटे को लेकर कहा जाता है कि उनकी जिंदगी में बड़ा बदलाव उस वक्त आया जब उन्होंने एक कुष्?ठरोगी को देखा था। इसके बाद उन्होंने 35 साल की उम्र में ही अपनी वकालत को छेड़कर समाजसेवा शुरू कर दी थी। इसके बाद उन्होंने कुष्ठ रोगियों के बारे में जानकारी इकट्ठा की और एक आश्रम स्थापित किया जिसका नाम आनंनद भवन रखा गया, यहां पर कुष्ठ रोगियों की सेवा अब भी नि:शुल्क की जाती है। जो रोगी कभी समाज से अलग-थलग होकर रहते भीख मांगते थे उन्हें बाबा आमटे ने श्रम के सहारे समाज में सर उठाकर जीना सीखाया।
कई कुष्ठरोगी सेवा संस्थानों की स्थापना की
बाबा आमटे ने कई कुष्ठरोगी सेवा संस्थानों जैसे, सोमनाथ, अशोकवन आदि की स्थापना की है, जहां हजारों रोगियों की सेवा की जाती है और उन्हें रोगी से सच्चा कर्मयोगी बनाया जाता है। बाबा आमटे ने राष्ट्रीय एकता को बढ़ावा देने के लिए 1985 में कश्मीर से कन्याकुमारी तक और 1988 में असम से गुजरात तक दो बार भारत जोड़ो आंदोलन चलाया। नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बांध निर्माण और इसके फलस्वरूप हजारों आदिवासियों के विस्थापन का विरोध करने के लिए 1989 में बाबा आमटे ने बांध बनने से डूब जाने वाले क्षेत्र में निजी बल नामक एक छोटा आश्रम बनाया।
साहित्य के क्षेत्र में भी किया काम
बाबा आमटे ने सामाजिक कार्य के साथ साहित्य के क्षेत्र में भी योगदान दिया। उन्होंने ज्वाला आणि फुले नाम से काव्य संग्रह और उज्ज्वल उद्यासाठी नाम से काव्य लिखा। बाबा आमटे को उनके द्वारा किए गए सेवा कार्यों के लिए कई सारे पुरस्कारों से नवाजा गया था। बाबा आमटे को 1971 में पद्मश्री, 1978 में राष्ट्रीय भूषण, 1986 में पद्म विभूषण और 1988 में मैग्सेसे पुरस्कार मिला था।