देवों के देव महादेव की लीला अपरंपार है, यही कारण है कि कई भक्त महादेव के दीवाने हैं। हमारे देश भारत में भगवान शिव के कई शिवलिंग स्थित हैं और इससे जुड़े कई रहस्य है। आज जिस शिवधाम के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं वो कई रहस्यों का सागर है। ऐसा कहा जाता है की इस धाम की यात्रा इंसान अपने जीवन में सिर्फ एक बार ही कर पाने की हिम्मत रखता है। यह शिव धाम हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित है। यह समुन्द्र तल से 24 हज़ार फीट की ऊंचाई पर है। किन्नर कैलाश पर्वत पर स्थित शिवलिंग 79 मीटर की ऊंचाई पर सीना ताने खड़ा है। इस स्थान को भगवान शिव का शीतकालीन प्रवास स्थल भी माना जाता है। किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग अपने कई रहस्यों के लिए जाना जाता है। शिवलिंग से जुड़ी पौराणिक कथा किन्नर कैलाश के बारे में कई कथाएं कही जाती हैं। कुछ धार्मिक विद्वान ये बताते हैं की महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वत था और यहां भगवान शिव और अर्जुन के बीच युद्ध हुआ था। ये भी कहा गया है की पांडवों ने अपने वनवास का अंतिम समय यही पर गुज़ारा था। किन्नर कैलाश को वाणासुर का कैलाश भी कहा जाता है। कहा जाता है की किन्नर कैलाश के आगोश में श्री कृष्ण के पोते का विवाह हुआ था। यहाँ शिवलिंग दिन में कई बार बदलता है रंग यहाँ पर स्थित शिवलिंग की एक चमत्कारी बात है कि यह दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाती है और फिर क्रमश:पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काली हो जाती है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। शिवलिंग की परिक्रमा करना बहुत ही मुश्किल किन्नर कैलाश को हिमाचल का बद्रीनाथ भी कहा जाता है। इस विशाल शिवलिंग की परिक्रमा करना बहुत ही मुश्किल काम है जहाँ कई भक्त स्वयं को रस्सियों से बांधकर परिक्रमा पूरी करते हैं। इस पुरे पर्वत का एक चक्कर पूरा करने में 7 से 10 दिन तक का समय लग जाता है। ये कहा जाता है की किन्नर कैलाश पर्वत की यात्रा करने से सारी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। रास्ते पर स्थित है चमत्कारी पार्वती कुंड गणेश पार्क से तक़रीबन 500 मीटर की दुरी पर पार्वती कुंड स्थित है। इसके बारे में ये कहा जाता है की अगर पूरी सच्ची श्रद्धा के साथ इसमें सिक्का डाला जाएं तो मन की मुराद ज़रूर पूरी होती है। किन्नर कैलाश जाने वाले भक्त इस कुंड में स्नान करने के बाद तक़रीबन 24 घंटे का कठिन सफर पार कर किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग के दर्शन कर पाते हैं। विशेषताएं यह हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित है। किन्नर कैलाश को हिमाचल का बद्रीनाथ भी कहा जाता है। किन्नर कैलाश पर्वत पर शिवलिंग स्थित है। इस शिवलिंग से जुड़ा एक रहस्य ये है की इसका रंग दिन के हर पल के साथ बदलता रहता है जो की अपने आप में एक गुत्थी है। सावन का महीना शुरू होते ही किन्नर कैलाश यात्रा शुरू हो जाती है। इस यात्रा के लिए देश भर से लाखों भक्त किन्नर कैलाश के दर्शन के लिए आते हैं। रास्ते पर स्थित पार्वती कुंड के बारे में मान्यता है कि इसमें श्रद्धा से सिक्का डाल दिया जाए तो मुराद पूरी होती है। इस धाम से लौटते वक़्त भक्त ब्रह्मकमल और औषधीय फूल प्रसाद के रूप में ले जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश करोड़ों देवी- देवताओं के वास के लिए प्रसिद्ध है और शायद यही वजह है कि स्थानीय लोगों सहित बाहरी राज्यों के लोगों में भी इन देवी- देवताओं के प्रति अपार श्रद्धा है। इन देवी- देवताओं से जुड़े हर मंदिरों में लोगों की गहरी आस्था है और आज ऐसे ही एक मंदिर के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। यह मंदिर है, तरंण्डा देवी मंदिर। हिमाचल प्रदेश जिला किन्नौर के एनएच-5 के किनारे स्थित इस मंदिर की मान्यता है कि यहां से गुज़रने वाले हर भक्त को मंदिर में माथा टेकना चाहिए,ऐसा न करने पर उसके साथ कुछ अनहोनी हो सकती है। यह मंदिर जिला शिमला रामपुर से करीब 40 किमी दूरी पर स्थित है। पौराणिक कथा कहा जाता है कि 1962 में जब भारत,चीन के बीच युद्ध हुआ तो सेना ने यहां के रास्ते से रोड़ बनाने की सोची ताकि बॉर्डर तक सेना को गोला बारूद और अन्य सामान पहुंचाया जा सके क्यूंकि पहले रोड़ सिर्फ रामपुर तक ही था। 1963 में सेना के GREF विंग ने यहां सड़क बनाने का काम शुरू किया लेकिन तरंण्डा के आगे रोड़ बनाना मुश्किल हो गया। उन दिनों यहां चट्टानें गिरने से आए दिन किसी न किसी मज़दूर की मौत हो जाती थी। ऐसे में परेशान सेना के लोग, गांव के लोगों के साथ गांव में बने मंदिर मां चंद्रलेखा के पास पहुंचे। सेना ने माता के समक्ष सारी व्यथा सुनाई। देवी ने बताया कि यहां पर किसी शक्ति का प्रकोप है। उससे बचने के लिए मुझे इस जगह स्थापित करो। मैं इस जगह स्थापित होना चाहती हूं। यहां मेरे नाम से मंदिर एक बनाओ सब कुछ ठीक हो जाएगा। बस फिर क्या था सेना के लोगों ने 1965 में मां का मंदिर यहां स्थापित करवाया और फिर सब कुछ ठीक हो गया। विशेषताएं यह मंदिर ज़िला शिमला के रामपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर किन्नौर ज़िले के एनएच-5 के किनारे स्थित है। मंदिर की देखरेख सेना करती है। सेना के जवान यहां पूजा-पाठ का काम संभालते हैं। यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी मंदिर में रुकती है। सब लोग तरंण्डा मां के इस मंदिर में माथा टेकते हैं फिर आगे बढ़ते हैं ताकि कोई अनहोनी न हो। मंदिर बनने के बाद आज तक वह कोई अनहोनी नहीं हुई। यह मंदिर दिखने में बहुत ही आकर्षित लगता है। हर नवरात्रो में सेना द्वारा यहाँ भण्डारा दिया जाता है।
आज हम आपको उत्तरी भारत के इकलौते सूर्य मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। यह मंदिर देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश के जिला शिमला रामपुर से 18 किलोमीटर दूर नीरथ गांव का एक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। यह स्थान शिमला से रामपुर की ओर आते रास्ते में ही पड़ता है जो कि उत्तर भारत व हिमाचल प्रदेश का एकमात्र मंदिर है। पौराणिक कथा जानकारों की मानें तो जब भगवान परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका की हत्या कर दी थी। इसके बाद मातृ दोष से मुक्त होने के लिए उन्हें हिमालय के तराई वाले क्षेत्रों में पांच मंदिरों की स्थापना करने को कहा गया था। इसके बाद उन्होंने नीरथ में सूर्य नारायण मंदिर, करसोग में कामाक्षा देवी मंदिर और मवेल महादेव, दत्तनगर में दत्तात्रे स्वामी और निरमंड में अंबिका माता मंदिर की स्थापना की थी। तब से लेकर आज तक यह उत्तरी भारत का एक मात्र सूर्य नारायण मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। विशेषताएं यह मंदिर शिमला ज़िले के निरथ में स्तिथ है। यह मन्दिर उत्तर भारत का एकलौता सूर्य मन्दिर भी है। मंदिर की स्थापना सम्भवत: परशुराम ने की थी। इस मंदिर का उलेल्ख 1908 में मार्शल ने किया था। मंदिर के गर्भगृह में पाषाण सूर्य प्रतिमा 3 फुट ऊँची और 4 फुट चौड़ी है। मन्दिर में कई शिवलिंग भी है। मन्दिर का क्षेत्रफ़ल 300 वर्ग गज है। इस मंदिर में पत्थरों पर नक्काशी की गई है, जो शायद ही देश के दूसरे मंदिरों में होगी। मन्दिर के निर्माण में पत्थर व लकड़ी का मिलाजुला रुप दिखायी देता है। मंदिर में नृत्य मग्न गणेश,शिव-पार्वती और अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां है। मंदिर के बाहरी दीवार पर बारह अवतार,लक्ष्मी नारायण,आठ भुजाओं वाले गणेश और ब्रम्हा की मूर्तियां स्थापित हैं। मध्य भाग में चारों तरफ सूर्य की प्रतिमाएं और सिंह की प्रतिमाएं निर्मित है। प्रत्येक वर्ष शरद ऋतु के आरम्भ में यहाँ एक मेले का आयोजन किया जाता है। राहुल सांस्कृत्यान ने अपनी पुस्तक में इस मंदिर का उलेल्ख किया है।
इन दिनों देश भर में गणेश उत्सव की धूम देखने को मिल रही है। जगह-जगह भगवान गणेश की महिमाओं का गुणगान हो रहा है तो चलिए हम आज आपको एक ऐसे गणेश मंदिर के बारे में बताते है जो तांत्रिक शक्तियों से परिपूर्ण है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश की छोटी काशी के नाम से विख्यात मंडी ज़िले में स्थित है। यह मंदिर उत्तरी भारत का इकलौता सिद्ध मंदिर है। पौराणिक कथा इस मंदिर में जो भगवान गणेश की मूर्ति है। उसे 1686 ई में मंडी रियासत के तत्कालीन राजा सिद्ध सेन ने स्थापित करवाया था। राजा, तंत्र विद्या में काफी रूचि रखते है इसीलिए उन्होंने इस मूर्ति की सिद्धि करवाई और इसे ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए तांत्रिक शक्तियों से परिपूर्ण किया गया। बताया जाता है की पश्चिम बंगाल की तरफ भगवान गणेश के ऐसे अनेको मंदिर विराजमान है लेकिन उत्तरी भारत में यह इकलौता है। साँप का तंत्र विद्या से पर्याप्त महत्व है। इसी के चलते जब राजा ने मूर्ति का निर्माण करवाया तो इसमें नाग देवता की छवि को भी उभरा गया, जिसके बाद इसकी सिद्धि करके इसे सिद्ध गणपति का नाम दिया गया। जानकारी के मुताबिक मंडी में सेन वंशज पश्चिम बंगाल से आए थे और वंशज के राजा सिद्धसेन ने एक अन्य राज्य पर जीत का परचम लहराने की मनोकामना मांगी थी। विशेषताएं ये मंदिर हिमाचल के मंडी ज़िले में स्तिथ है। मंदिर के इतिहास पर विधायक दीनानाथ शास्त्री किताब लिख चुके है। इस मंदिर में गणेश जी की मूर्ति पर सिंदूर से लेप किया गया है। यहाँ पर लगातार 21 बुधवार आकर पूजा अर्चना करने पर मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। हर वर्ष यहाँ गणेश उत्सव बड़ी ही धूम धाम से मनाया जाता है। तांत्रिक शक्तियों वाला हिमाचल में यह इकलौता मंदिर है। गणेश उत्सव के दौरान प्रशासनिक अधिकारों से लेकर मंत्री भी यहाँ आते है। मूर्ति के गले में हर वक़्त नाग देवता भी विराजमान रहते है।
आज हम बात कर रहे है मुंबई के सिद्दिविनायक मंदिर की। इस मंदिर की अपनी एक अलग ही पहचान हैं। यहाँ देश-विदेश से लोग श्रीगणेश भगवान के एक दर्शन पाने के लिये आते हैं। इस मंदिर के नाम के पीछे भी एक वाकया है इसका नाम सिद्दिविनायक इसलिये पड़ा क्योंकि भगवान गणेश के सूड दाई ओर मुड़ी होती हैं तथा वे सिद्धि पीठ से जुड़ी होती हैं। गणेश के शरीर से ही सिद्दिविनायक नाम पड़ा। इस मंदिर के प्रति लोगो में अटूट विश्वास है। पौराणिक कथा भारत के प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 19 नवंबर 1801 को एक लक्ष्मण विथु पाटिल नाम के एक स्थानीय ठेकेदार द्वारा किया गया था। बहुत कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि इस मंदिर के निर्माण में लगने वाली राशी एक कृषक महिला ने दी थी, जिसकी कोई संतान नहीं थी। वो इस मंदिर को बनवाने में मदद करना चाहती थी, ताकि भगवान के आशीर्वाद से कोई भी महिला बांझ न हो, सबको संतान प्राप्ति हो। इतिहासकारों की मानें तो सिद्दिविनायक मंदिर के पीछे कुछ इतिहासकार बताते हैं की इस मंदिर की स्थापना सन 1692 में हुई थीं तथा सरकारी खबर से इसका निर्माण 1801 में हुआ था। शुरू में यह मंदिर छोटा था लेकिन बाद में इसका कई बार निर्माण हो चुका हैं जिस कारण अब मंदिर काफी बड़ा हैं। विशेषताएं सिद्दिविनायक मंदिर महाराष्ट्र के मुंबई शहर में स्थित है। इस मंदिर की एक अलग विशेषता हैं जो की चतुभुर्जी विग्रह गणेश जी की मूर्ति पर उपरी दाहिने हाथ में कमल के फूल और बाएँ हाथ में अंकुश हैं तथा नीचे हाथ में मोतियों की माला और बाएँ हाथ में लड्डूओं से भरा कटोरा हैं। गणेश जी की दोनों पत्नियाँ रिद्धि और सिद्धि मौजूद इस मंदिर के प्रांगण में मौजूद हैं जो की धन, सफलता और मनोकामनाओं को पूरा करने का एक प्रतीक हैं। मंदिर के अंदर चांदी से बनी चूहों की दो बड़ी मूर्तियां मौजूद हैं, माना जाता है कि उनके कानों में भक्त अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं तो उनकी इच्छाएं गणेश अवश्य पूर्ण करते हैं। भक्तों का मानना है यहाँ मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है। इस मंदिर के द्वार हर धर्म जाति के लोगों के लिए खुले हैं। सिद्धी विनायक मंदिर अपनी मंगलवार की आरती के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर की इमारत 5 मंजिला हैं। इस मंदिर में प्रवचन के लिये अलग से हाल है। मंदिर के दूसरी मंजिल पर अस्पताल है जहाँ पर रोगियों का निशुल्क उपचार किया जाता हैं। इस मंदिर में लिफ्ट लगे हुए हैं। इस मंदिर में एक अलग से लिफ्ट है जहाँ पर पुजारी लोग गणेश जी के लिये पूजा की सामग्री, प्रसाद तथा लड्डू आदि लाते है। खासकर गणेश चतुर्थी के दौरान यहां भक्तों का भारी जमावड़ा लगता है। इस दौरान मंदिर में भव्य आयोजन किए जाते हैं। यहां दर्शन करने के लिए बॉलीवुड स्टार से लेकर नेता,बड़े उद्योगपतियों का आगमन भी होता है। सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती भारत के सबसे अमीर मंदिरों में की जाती है। यह मंदिर आतंकवादियों के हेड लिस्ट में हमेशा से ही रहता हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार इस मंदिर को काफी सुरक्षा देती हैं। आज भी अगर हम सिद्दिविनायक में जाते है तो हमें मुंबई पुलिस के जवान और भारतीय सेना के जवान दिखते हैं, जिन्होंने इस मंदिर को चारों ओर से घेर रखा हैं।
In the beautiful woods of a small town in Himachal Pradesh resides the heavenly deity, Maa Tara. Himachal Pradesh is well known for its mesmerizing beauty, lush green forests and of course it is land of splendid mountains, a pristine place which feeds and provides solace to the mind and soul, a pious land which is associated with the supernatural . The enigma of a place which attracts people from every nook and corner of the world . Along being praised for its natural beauty Himachal is also referred as the "Dev-Bhoomi" which means the "abode of God." One can say that Himachal is the smaller and diversified version of India because various deities residing in this heavenly place . One of the most praised deity of Himachal is Maa Tara Devi. Tara devi temple is located in the mid of the thick forest of oak and rhododendron on Tarab hills in Shimla Himachal Pradesh. This temple is famous for its divine beauty and spiritual peace. Tara Devi Temple is situated at a height of 1851 meters above sea level. It is about 11 kilometers away from Shimla. Tara Devi Temple is accessible by rail, bus and car, but the best way to enjoy the magnificent beauty of the place is to follow the path of the Tarab trek . HISTORY The history of tara devi temple dates back about 250 years ago. It is believed that Maa Tara Devi was brought to Himachal from West Bengal. A King from the sen dynasty of Bengal once visited Himachal. He was in the habit of carrying the idol of his family in the upper torso of his arm. One day while hunting in the dark and dense forests of Juggar, Raja Bhupendra Sen fell asleep and had a dream; in the dream he saw his family deity Ma Tara and her consorts Dwarpal Bhairav and Lord Hanuman requesting him to unveil them before the common economically dis- empowered populace. Inspired by his dream, Raja Bhupendra Sen donated 50 bighas of land and sponsored the construction of a temple in the land. The first Idol was made of wood which was installed in accordance with Vaishnav traditions. Later generations of the Sen Dynasty gradually improved the structure. Raja Balbir Sen commissioned the 'Ashtadhatu' deity which is still seen today. THE TUNNEL WAY The trek start from taradevi railway station and runs up to the temple. You may continue the trek from the jungle above the railway station or from the railway track which will include tunnel 91 of the Kalka Shimla railway line. This is the second longest tunnel of the track 992 meters. There is a long story behind this tunnel too It is believed that as this tunnel was being built under the residence of a powerful goddes , the workers were scared of working there as they didn’t want to face the goddess’ wrath. Work had to be stopped for a little while when a breathing pipe was mistaken for a large snake sent by the goddess herself. The tunnel is very long and a bit narrow so its tough to cross it. You must ask station master before crossing it to assure that there is no train coming and you have plenty of time to cross it . According to locals many people committed suicide in that tunnel and some got accidently killed by the train while they passing through the tunnel . That tunnel is a bit haunted but would give you plenty of thrill for sure . After passing the tunnel the path continues along the railway trek and then you have to climb the hill covered by dense forest of oak and rhododendron to reach your destination . THE JUNGLE WAY This way totally involve a narrow path through a dense forest . One has to hike for about two hours to reach the temple . Through the dense forest of the pinewood, oak, Rhododendron , rich in flora and fauna, passing through the green meadows on the way, it is one of the most beautiful walks around Shimla. The meandering foot path, climbs gently to the top of the hill and it turns to be a tireless climb. On the way to the top there are various places which offer wide panoramic views of Shimla town with the Himalayas at back. Atmosphere of the hike rejuvenates the nature lovers and common tourists visiting this sacred temple, which provides excellent views. Pine – scented mild breeze on the way refreshes people beyond expectations. The trek starts from tara devi bus stand that is base of the mountain when you reach their you will realize that the world might have taken a leap of ten years, but the trees and the jungle still stand just the same. They stand tall, proud, looking down on all of us . The jungle beckons you . The total distance of the trek is 4 kms and most of it is uphill, and through a jungle trail. This trek can be undertaken around the year. Just be careful of the running streams in monsoon and the snowy trails in winter. On the whole trail will just see a handful of people otherwise it will just be the jungle and you . Not a soul around and almost pin drop silence. The first stretch of half an hour or so is a gradual slope that circles the mountain. Before you reach the half way mark the trail becomes more steeper, and a little tiresome . After you will complete half way , you will see the remains of a rain shelter with a broken hand pump . After walking a bit you will soon reach a place where you will see four mobile towers on the top of mountain . The view from that point will take you to another world , from there you can get the glimpse of whole Shimla . The jungle in this last stretch is mesmerizing, there are pockets which get very little sun and have huge ferns, in deep greens growing here . After this a walk of few more minutes through the woods and you will reach your destination . The jungle is fierce and interesting so definitely a place to visit . SHIV KUTIYA After visiting tara devi temple and tasting the divinity in the air you may now move further to Shiv Kutiya . A small temple of lord shiva located under the tara devi temple in the dense forest gives you the feel of Lord Shiva actually residing in Kailash. The temperature of the temple is naturally lower than other parts of the jungle. It is believed that many years ago a saint who used to meditate here He stayed here even at the worst of temperature , be it deepest of winters he could be found only in a langot with ash smeared all over him. He was believed to be from South India, and a qualified engineer from Merchant Navy. The only thing you will sense there is the extreme peace and divinity in the air .Temple has the Samadhi of one more saint who meditated here. There is a small room along the temple where you will see a log burning continuously most probably called baba g ka dhoona . It is believed that the babaji is in mediation here, and the ash from the log is supposed to be prasad for his followers. This temple is a feast for all the Lord Shiva bhakt .
तहसील जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी का प्राचीन मंदिर है। यह शिमला से लगभग 110 किमी की दूरी पर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर है। मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था। मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी, जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी,राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है । मूलरूप से यह मंदिर शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था,बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मंदिर के दक्षिण पश्चिम में चार छोटे शिखर शैली के मंदिर देखने को मिलते हैं। यह मुख्य अर्धनारिश्वरी मंदिर के अंग माने जाते हैं। मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमं मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है। यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है। इतनी विशाल प्रतिमा न केवल हिमाचल में ही बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती। प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं। कहा जाता है की यहाँ आने पर माता बीमारियों को दूर करती है। मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाई ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है। चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है। यहां की मान्यता है कि सावन भादों में जब पब्बर नदी अत्यधिक बाढ़ से ग्रसित होती है, तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियां भरता है और भागने का प्रयास करता है। मंदिर के दूसरी ओर बंधा चरू नदी के वेग से भाग गया था, जबकि पहले को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था। चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं। इनमें यज्ञ में ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है। एक लोकगाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है। उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। वो जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा और इच्छा प्रकट की कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया। उसके उपरांत खोदने पर राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा।
हिडिम्बा देवी मंदिर उत्तर भारत में हिमाचल प्रदेश राज्य के मनाली में स्थित है। यह एक प्राचीन गुफा मंदिर है, जो भारतीय महाकाव्य महाभारत के भीम की पत्नी हिडिम्बी देवी को समर्पित है। यह मनाली में सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। इसे ढुंगरी मंदिर (Dhungiri Temple) के नाम से भी जाना जाता है। मनाली घूमने आने वाले सैलानी इस मंदिर को देखने जरूर आते हैं। यह मंदिर एक चार मंजिला संरचना है जो जंगल के बीच में स्थित है। स्थानीय लोगों ने मंदिर का नाम आसपास के वन क्षेत्र के नाम पर रखा है। हिल स्टेशन में स्थित होने के कारण बर्फबारी के दौरान इस मंदिर को देखने के लिए भारी संख्या में सैलानी यहां जुटते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति स्थापित नहीं है बल्कि हिडिम्बा देवी मंदिर में हिडिम्बा देवी के पदचिह्नों की पूजा की जाती है।’हिडिम्बा देवी मंदिर का निर्माण हिमालय पर्वतों के कगार पर डुंगरी शहर के पास एक पवित्र देवदार के जंगल के बीच में कराया गया है। माना जाता है कि भीम और पांडव मनाली से चले जाने के बाद हिडिम्बा राज्य की देखभाल के लिए वापस आ गए थे। ऐसा कहा जाता है कि हिडिम्बा बहुत दयालु और न्यायप्रिय शासिका थी। जब उसका बेटा घटोत्कच बड़ा हुआ तो हिडिम्बा ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और अपना शेष जीवन बिताने के लिए ध्यान करने जंगल में चली गयी। हिडिम्बा अपनी दानवता या राक्षसी पहचान मिटाने के लिए एक चट्टान पर बैठकर कठिन तपस्या करती रही। कई वर्षों के ध्यान के बाद उसकी प्रार्थना सफल हुई और उसे देवी होने का गौरव प्राप्त हुआ। हिडिम्बा देवी की तपस्या और उसके ध्यान के सम्मान में इसी चट्टान के ऊपर इस मंदिर का निर्माण 1553 में महाराजा बहादुर सिंह ने करवाया था। मंदिर एक गुफा के चारों ओर बनाया गया है। मंदिर बनने के बाद यहां श्रद्धालु हिडिम्बा देवी के दर्शन पूजन के लिए आने लगे। हिडिम्बा मंदिर पांडवों के दूसरे भाई भीम की पत्नी हिडिम्बा को समर्पित है। हिडिम्बा एक राक्षसी थी जो अपने भाई हिडिम्ब के साथ इस क्षेत्र में रहती थी। उसने कसम खाई थी कि जो कोई उसके भाई हिडिम्ब को लड़ाई में हरा देगा, वह उसी के साथ अपना विवाह करेगी। उस दौरान जब पांडव निर्वासन में थे, तब पांडवों के दूसरे भाई भीम ने हिडिम्ब की यातनाओं और अत्याचारों से ग्रामीणों को बचाने के लिए उसे मार डाला और इस तरह महाबली भीम के साथ हिडिम्बा का विवाह हो गया। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र घटोत्कच हुआ, जो कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों के लिए लड़ते हुए मारा गया था। देवी हिडिम्बा को समर्पित यह मंदिर हडिम्बा मंदिर के नाम से जाना जाता है। हिडिम्बा देवी मंदिर की खासियत यह है कि इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली (Pagoda Style) में कराया गया है जिसके कारण यह सामान्य मंदिर के काफी अलग और लोगों के आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर लकड़ी से बनाया गया है और इसमें चार छतें हैं। मंदिर के नीचे की तीन छतें देवदार की लकड़ी के तख्तों से बनी हैं और चौथी या सबसे ऊपर की छत का निर्माण तांबे एवं पीतल से किया गया है। मंदिर के नीचे की छत यानि पहली छत सबसे बड़ी, उसके ऊपर यानि दूसरी छत पहले से छोटी, तीसरी छत दूसरे छत से छोटी और चौथी या ऊपरी छत सबसे छोटी है, जो कि दूर से देखने पर एक कलश के आकार की नजर आती है। हिडिम्बा देवी मंदिर 40 मीटर ऊंचे शंकु के आकार का है और मंदिर की दीवारें पत्थरों की बनी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर में एक लकड़ी का दरवाजा लगा है जिसके ऊपर देवी, जानवरों आदि की छोटी-छोटी पेंटिंग हैं। चौखट के बीम में भगवान कृष्ण की एक कहानी के नवग्रह और महिला नर्तक हैं। मंदिर में देवी की मूर्ति नहीं है लेकिन उनके पदचिन्ह पर एक विशाल पत्थर रखा हुआ है जिसे देवी का विग्रह रूप मानकर पूजा की जाती है। मंदिर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर देवी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित एक मंदिर है।हर साल श्रावण के महीने में मंदिर में हिडिम्बा देवी मंदिर में एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। माना जाता है कि यह उत्सव राजा बहादुर सिंह की याद में मनाया जाता है जिसने इस मंदिर का निर्माण कराया था। इसलिए स्थानीय लोगों ने इस मेले का नाम रखा है- बहादुर सिंह रे जातर (Bahadur Singh Re Jatar)। इसके अलावा यहां 14 मई को हिडिम्बा देवी के जन्मदिन के अवसर पर एक अन्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान स्थानीय महिलाएं डूंगरी वन क्षेत्र में संगीत और नृत्य के साथ जश्न मनाती हैं। कहा जाता है कि मंदिर लगभग 500 साल पुराना है। श्रावण मास में आयोजित होने वाले मेले को सरोहनी मेला (Sarrohni Mela) के नाम से जाना जाता है। यह मेला धान की रोपाई पूरा होने के बाद आयोजित होता है। इसके अलावा नवरात्र के दौरान भी मंदिर में दशहरा महोत्सव का आयोजन होता है जिसमें दर्शन के लिए भक्तों की लंबी लाइन लगती है।
भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जिन्हें देखकर हमें ऐसा महसूस होता है कि बस अब यहीं रुक जाएं, इसके आगे कोई सुकून ही नहीं है। यहां आकर आपके मन को शांति मिलती है और हर तनाव को भूल जाते हैं। बस हमारा मन कहता है कि यह ऐसी जगह है जहां आपको सबसे ज्यादा सुकून मिलेगी। कई चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखकर हमारी पूरी थकान उतर जाती है। ऐसा ही एक मंदिर है जिसके बारे में हम आपको बताने जा रहे है। जी हां उत्तर भारत में एक ऐसा मंदिर है जो 15 चट्टानों को काटकर बना हुआ है। जिसे देखकर आप इस बात पर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है। आखिर इतनी अच्छी नक्काशी भी कहीं हो सकती है। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के मसरूर गांव में स्थित रॉक कट टेम्पल हैं। इसके नाम से ही पता चल रहा है कि यह चट्टानों को काटकर बनाया गया है। आठवीं शताब्दी में बना ये मंदिर महाभारत के पांडवों का रहस्यमयी इतिहास भी अपने अंदर संजोये हुए है। हिमालयन पिरामिड के नाम से मशहूर ये रॉक कट टेम्पल अपने आप में एक अनोखा इतिहास समेटे हुए है। मसरूर का यह मंदिर कुरुद्वारा के नाम से पूजनीय है। वास्तव में यह भगवान् श्री राम को समर्पित है और वैष्णव धर्म का द्योतक है। मुख्य मंदिर के भीतर भगवान राम , लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाएं स्थापित है जो पत्थर को नक्काश कर बनाई गई है। मूलतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह भगवान् शिव को समर्पित था लेकिन समय के उतार चढ़ाव के साथ साथ बाद में यहाँ वैष्णव धर्म का प्रादुर्भाव होने से इसे विष्णु भगवान को समर्पित कर दिया गया। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि ऐसी नक्काशी पत्थरों में करना बहुत ही मुश्किल काम होता है। इसे करने के लिए दूर से करीगर लाए गए थे लेकिन वास्तव वे कारीगरी किसने की इस बारे में आजतक कोई पुख्ता सबूत नहीं मिला है। इस मंदिर के सामने ही मसरूर झील है जो मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है। सदियों से चली आ रही दन्त कथाओं के मुताबिक मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया था और मंदिर के सामने खूबसूरत झील को पांडवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी के लिए बनवाया गया था। काँगड़ा घाटी के हरिपुर कसबे से लगभग 3 किलोमीटर की दुरी पर और समुद्रतल से 2500 फुट कि ऊँचाई पर एक रेतीली पहाड़ी पर स्थित है। गग्गल हवाई पट्टी स यहाँ तक की दुरी 20 किलोमीटर है। इसकी लम्बाई 106 फुट के करीब और चोडाई 105 फुट है। इस तरह का विशाल पत्थर को कार कर बनाया मंदिर भारत में शायद ही कहीं हो। वास्तुकला की अद्भुत अविस्मरनीय पत्थर का यह स्तंभ सपाट और शिखर शैली में बनाया गया है । पुरातात्विक विभाग के संरक्षण में यह प्राचीन कला और इतिहास का मूक साक्षी है । इसके बाहर भीतर जिस तरह की मूर्तियाँ पत्थर पर तराशी गई है वह महाबलीपुरम में छठी और इलोरा के मंदिरों में दसवीं सदी की याद दिला देती है। बहुत कुछ इन प्राचीन मंदिरों की कला से मिलता जुलता है ।इस मंदिर के मूल मंदिर के साथ कुल 15 के करीब छोटे बड़े शिखराकार मंदिर है । इनमें से कुछ मंदिरों के भाग टूट चुके है। काँगड़ा में 1905 को आये भूकंप के कारण भी इन मंदिरों को काफी क्षति पहुंची थी। मंदिर के सन्दर्भ में कोई प्रमाणिक ऐसा दस्तावेज उपलब्ध नही है जिस से इसके निर्माण काल का सही अनुमान लगाया जा सके । यह बताया जाता है कि इसका निर्माण पांडवों द्वारा ही किया गया है। आश्चर्य है कि यहाँ प्राचीन काल में कोई यात्री भी नहीं पहुंचा जिसने इस मंदिर का उलेख किया हो । कहा जाता है कि केवल सन 1913 में पुरातात्विक विभाग ने इसकी वास्तुकला का गहरायी से निरिक्षण किया।
समूचा हिमालय शिव शंकर का स्थान है और उनके सभी स्थानों पर पहुंचना बहुत ही कठिन होता है। चाहे वह अमरनाथ हो, केदानाथ हो या कैलाश मानसरोवर। इसी क्रम में एक और स्थान है, श्रीखंड महादेव का स्थान। अमरनाथ यात्रा में जहां लोगों को करीब 14000 फीट की चढ़ाई करनी पड़ती है तो श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए 18570 फीट ऊंचाई पर चढ़ना होता है। स्थान से जुड़ी मान्यता : स्थानीय मान्यता अनुसार यहीं पर भगवान विष्णु ने शिवजी से वरदान प्राप्त भस्मासुर को नृत्य के लिए राजी किया था। नृत्य करते करते उसने अपना हाथ अपने ही सिर पर रख लिया और वह भस्म हो गया था। मान्यता है कि इसी कारण आज भी यहां की मिट्टी और पानी दूर से ही लाल दिखाई देते हैं। कैसे पहुंचे : दिल्ली से शिमला, शिमला से रामपुर और रामपुल से निरमंड, निरमंड से बागीपुल और बागीपुल से जाओं, जाओं से श्रीखंड चोटी पहुंचे। दिल्ली से कुल 553 किलोमीटर दूर। यात्रा मार्ग के मंदिर : यह स्थान हिमाचल के शिमला के आनी उममंडल के निरमंड खंड में स्थित बर्फीली पहाड़ी की 18570 फीट की ऊंचाई पर श्रीखंड की चोटीपर स्थित है। 35 किलोमीटर की जोखिम भरी यात्रा के बाद ही यहां पहुंचते हैं। यहां पर स्थित शिवलिंग की ऊंचाई लगभग 72 फिट है। श्रीखंड महादेव की यात्रा के मार्ग में निरमंड में सात मंदिर, जाओं में माता पार्वती का मंदिर, परशुराम मंदिर, दक्षिणेश्वर महादेव, हनुमान मंदिर अरसु, जोताकली, बकासुर वध, ढंक द्वार आदि कई पवित्र स्थान है। यात्रा के पड़ाव : यहां की यात्रा जुलाई में प्रारंभ होती है जिसे श्रीखंड महादेव ट्रस्ट द्वारा आयोजित किया जाता है। यह ट्रस्ट स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी कई सुविधाएं प्रशासन के सहयोग से उपलब्ध करवाया है। सिंहगाड, थाचड़ू, भीमडवारी और पार्वतीबाग में कैंप स्थापित हैं। सिंहगाड में पंजीकरण और मेडिकल चेकअप की सुविधा है, जबकि विभिन्न स्थानों पर रुकने और ठहरने की सुविधा है। कैंपों में डॉक्टर, पुलिस और रेस्क्यू टीमें तैनात रहती हैं। यात्रा के तीन पड़ाव हैं:- सिंहगाड़, थाचड़ू, और भीम डवार। ।
मंगलवार, पवनपुत्र हनुमान का दिन माना जाता है और इसी को ध्यान में रख कर आज हम आपको संजीवनी हनुमान मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। रामायण के अनुसार, जब भगवान हनुमान जादुई जड़ी बूटी 'संजीवनी बूटी' प्राप्त करके हिमालय से लौट रहे थे, तब उनका पैर कसौली पहाड़ी से छू गया था। इसी स्थान पर मौजूद है संजीवनी हनुमान मंदिर। हिमाचल प्रदेश जिला सोलन के कसौली की सबसे ऊंची चोटियों में एक मंकी प्वाइंट है जो कसौली बस स्टॉप से 4 किमी की दूरी पर पड़ता है। संजीवनी हनुमान मंदिर लोअर मॉल क्षेत्र के करीब 'द एयर फोर्स स्टेशन' में स्थित, इस पहाड़ी पर विराजमान भगवान हनुमान को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है। इस पहाड़ी की चोटी एक पैर की आकृति में है और मंदिर भगवान के पैरों के निशान के साथ उत्कीर्ण है। वास्तविक रूप में पहाड़ी शीर्ष बिंदु को मैनकी प्वाइंट का नाम दिया गया है, लेकिन आज लोग इसे बंदर बिंदु कहते हैं। यह बिंदु एक स्थानीय ग्रामीण पुजारी मानके के नाम पर है, जिसने पूजा के लिए भगवान हनुमान के लिए एक मंदिर बनाया था और यही कारण है कि इस स्थान का नाम मंकी पॉइंट रखा गया है। पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यह पहाड़ी की चोटी एक पैर के आकार की है। मंदिर में भगवान हनुमान की एक मूर्ति है जिसमें भगवान ने संजीवनी पर्वत को अपने बाएँ हाथ में एक गदा लिए हुए दिखाया है। मंदिर में एक शिवलिंग भी है। इस जगह पर प्रबंधन और संचालन भारतीय वायु सेना द्वारा किया जाता है। भारत की वायु सेना द्वारा प्रबंधित, आगंतुकों को इस स्थान पर जाने के लिए पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है। मंदिर वायु सेना के क्षेत्र में स्थित है, इसी लिए अपना फोटो पहचान पत्र लाना न भूलें जिसके बिना मंदिर में प्रवेश करना मुश्किल है। एयरफोर्स बेस के एक बड़े गेट पर मोबाइल फोन और कैमरे जमा कर दिए जाते हैं। सेना के प्रतिबंधों के कारण,मंकी पॉइंट के अंदर कैमरे व मोबाइल फ़ोन ले जाने की अनुमति नहीं है। गेट से गुजरने के बाद, मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 300-400 मीटर की सीधी सड़क व लगभग पाँच सौ मीटर की खड़ी चढ़ाई है। पहाड़ी पर वायु सेना अधिकारी की पत्नियों द्वारा संचालित एक रेस्तरां है जहाँ आप फास्ट फूड और चाय, कॉफी प्राप्त कर सकते हैं।रेस्तरां के पास ही एक प्रसाद की दुकान है। मंदिर की और जाते समय आपको कई बंदर मिल जाएंगे,जिन्हें कोई भी खाने की वस्तु देना वर्जित है। आगंतुक टैक्सी या कार, या पैदल मार्ग से इस मंदिर तक पहुँच सकते हैं। माल रोड से इस गंतव्य तक पैदल जाने में लगभग दो घंटे लगते हैं।
जन्माष्टमी के पावन अवसर पर आज हम आपको बताने जा रहे हैं श्री बृजराज मंदिर के बारे में। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा नूरपुर में स्थित यह मंदिर अपनी ख़ास विशेषता के लिए पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। नूरपुर के किला मैदान में स्थापित श्री बृजराज मंदिर विश्व का एकमात्र ऐसा मन्दिर है जिसमें काले संगमरमर की श्री कृष्ण की मूर्ति के साथ अष्टधातु से निर्मित मीराबाई की मूर्ति श्री कृष्ण के साथ विराजमान है। इस मन्दिर के बारे में एक रोचक कथा है कि जब नूरपुर के राज जगत सिंह (1619—1623) अपने पुरोहित के साथ चित्तौड़गढ़ के राजा के निमंत्रण पर वहां गए, तो उन्हें रात्रि विश्राम के लिए जो महल दिया गया उसके साथ ही एक मंदिर था। वहां रात को सोते समय राजा को घुंघरुओं की आवाजें सुनाई दी। राजा ने जब मंदिर में बाहर से झांककर देखा तो एक औरत मंदिर में स्थापित कृष्ण की मूर्ति के सामने गाना गाते हुए नाच रही थी। राजा को उसके पुरोहित ने उपहार स्वरूप इन्हीं मूर्तियों की मांग करने का सुझाव दिया। इस पर राजा द्वारा रखी मांग पर चितौड़गढ़ के राजा ने ख़ुशी-ख़ुशी उन मूर्तियों को उपहार में दे दिया। राजा ने इसके साथ ही एक मौलश्री का पेड़ भी राजा को उपहार में दिया जो आज भी मंदिर प्रांगन में विद्यमान है। इन मूर्तियों को भी राजा ने किले में स्थापित किया था लेकिन जब आक्रमणकारियों ने किले पर हमला किया तो राजा ने इन मूर्तियों को रेत में छुपा दिया गया। लंबे समय तक यह मूर्तियाँ रेत में ही रहीं। एक दिन राजा को स्वप्न में कृष्ण ने कहा कि अगर हमें रेत में रखना था तो हमें यहां लाया ही क्यूँ गया। इस पर राजा ने अपने दरबार-ए-खास को मन्दिर का रूप देकर उन्हें वहां स्थापित किया। नूरपुर किले के अंदर बृज राज स्वामी मंदिर, भगवान कृष्ण की 16 वीं शताब्दी का ऐतिहासिक मंदिर है। नूरपुर को प्राचीनकाल में धमड़ी के नाम से जाना जाता था लेकिन बेगम नूरजहाँ के आने के बाद इस शहर का नाम नूरपुर पड़ा। यह दुनिया का एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान कृष्ण और मीरा की मूर्ति की पूजा की जाती है। नूरपुर के छोटे से शहर में स्थित इस मंदिर में सड़क मार्ग से पहुँचा जा सकता है। मंदिर स्थानीय लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध है, लोगों की इस मंदिर से आस्था जुड़ी है। मंदिर समिति द्वारा एक वार्षिक भोज का आयोजन किया जाता है जहाँ पारंपरिक हिमाचली तरीके से स्थानीय व्यंजन परोसे जाते हैं।
इस वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 23 अगस्त दिन शुक्रवार को मनाई जाएगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करने से पापों का नाश और सुख की वृद्धि होती है। इस वर्ष श्री कृष्ण जन्म का मुहूर्त रात्रि में 10:44 से 12:40 के मध्य है। इस शुभ समय में भगवान की विधि विधान से पूजा करने से सभी मनोरथ पुरे होते है। पूजन में देवकी, वसुदेव, वासुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा, और लक्ष्मी का स्मरण भी अवश्य करना चाहिए। स्कंद पुराण के अनुसार श्री कृष्ण का जन्म करीब पांच हज़ार वर्ष पूर्व द्वापरयुग में हुआ था। माता देवकी और वासुदेव की आठवीं संतान थे श्री कृष्ण स्कंद पुराण के अनुसार द्वापरयुग में मथुरा में महाराजा उग्रसेन राज करते थे। उनके क्रूर बेटे कंस ने अपने पिता को सिंहासन से हटा दिया और खुद राजा बन गया। कंस का अत्याचार प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। कंस की एक बहन देवकी थी जिसका विवाह वासुदेव से हुआ। कंस अपनी बहन देवकी को उसके ससुराल छोड़ने जा रहा था, तभी रास्ते में एक आकाशवाणी हुई, 'हे कंस जिस देवकी को तू इतने प्रेम से विदा कर रहा है उसका ही आठवां पुत्र तेरा काल होगा।' यह सुनते ही कंस ने देवकी और वासुदेव को बंधक बना लिया। कंस ने सोचा कि अगर वह देवकी के हर पुत्र को मारता गया तो वह अपने काल को हराने में कामयाब होगा। इसके बाद देवकी की जैसे ही कोई संतान पैदा होती, कंस उसे मार देता। सात संतानों के मारे जाने के बाद देवकी के 8वें पुत्र के जन्म की बारी आई। पर इस बार कंस की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। अष्टमी की रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जैसे ही जन्म हुआ, उसी समय संयोग से नंदगांव में यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ।ईश्वर की कृपा से वासुदेव के हाथ-पैरों में बंधी सारी बेड़िया अपने आप खुल गईं, कारागार के दरवाजे खुल गये और सभी पहरेदार मूर्छित हो गए। वासुदेव ने एक टोकरी में नवजात शिशु (श्री कृष्ण )को रखा और नंद गांव की ओर चल पड़े। पूरे मथुरा में उस दौरान तेज बारिश हो रही थी ऐसे में शेषनाग स्वयं शिशु के लिए छतरी बनकर वासुदेव के पीछे-पीछे चलने लगे। वासुदेव यमुना पार कर नंदगांव पहुंचे और यशोदा के साथ बाल कृष्ण को सुला दिया और स्वयं कन्या को लेकर मथुरा गये। यह कन्या दरअसल माया का एक रूप थी। वासुदेव जैसे ही कारागार पहुंचे, सबकुछ सामान्य और पहले की तरह हो गया। कंस को आठवें संतान के जन्म की खबर पहरेदारों से मिली तो वह उसे मारने वहां आ पहुंचा। कंस ने कन्या को अपने गोद में लिया और एक पत्थर पर पटकने की कोशिश की। हालांकि,वह कन्या आकाश में उड़ गई और माया का रूप ले लिया। साथ ही उसने कहा,' तुझे मारने वाला तो पहले ही कहीं और सुरक्षित पहुंच चुका है।' कंस बेहद क्रोधित हुआ और कृष्ण की खोज शुरू कर दी। कंस ने उन्हें मारने का प्रयास किया लेकिन असफल रहा। आखिर में श्रीकृष्ण ने युवावस्था में कंस का वध किया अपने माता-पिता को कारागार से बाहर निकाला।
हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं की पवित्र धरती है और जहां अनेकों मंदिर स्थापित है। इन्हीं मंदिरों में से एक मंदिर है धौम्येश्वर शिव मंदिर जो ऊना ज़िला के तलमेहड़ा में स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था। पौराणिक कथा धौम्येश्वर शिव मंदिर को लेकर पौराणिक कथाओं के अनुसार, पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि ने इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। मान्यता है कि करीब 5500 वर्ष पहले महाभारत काल में पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि ने तीर्थ यात्रा करते हुए इसी ध्यूंसर नामक पर्वत पर शिव की तपस्या की थी। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन देते हुए ऋषि से वर मांगने को कहा। इस पर ऋषि ने वर मांगा कि जो भी भक्त इस मंदिर में आकर सच्चे मन से धौम्येश्वर शिव की पूजा करेगा उसकी हर मनोकामनाएं पूरी हों। भगवान ने तपस्या से प्रसन्न होकर धौम्य ऋषि द्वारा स्थापित शिव लिंग की सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी करने का वरदान दे दिया। इसके बाद से जो भी श्रद्धालु मंदिर पहुंच कर सच्चे मन से मन्नत मांगता है, तो उस भक्त की मुराद पूरी होती है। धौम्येश्वर मंदिर ऊना ज़िला के बंगाणा उपमंडल के तलमेहड़ा गांव में शिवालिक की पहाड़ियों पर स्थित है। मंदिर को धौम्येश्वर शिवलिंग, ध्यूंसर महादेव और सदाशिव के नाम से पुकारा जाता है। मंदिर चारों ओर जंगलों से घिरा हुआ है। शिव लिंग की सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। पूरा वर्ष यहां लाखों की तादाद में श्रद्धालु भगवान शंकर की आराधना करने के लिए पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के माह धौम्येश्वर मंदिर में श्रद्धालुओं का खूब जमघट लगता है। मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर से ज़िला का नज़ारा देखा जा सकता है व साथ ही धौलाधार की पहाडिय़ां भी दिखाई देती है, जो कि अलग ही नजारा है। मंदिर ट्रस्ट के प्रधान के मुताबिक 1937 में मद्रास के एक सैशन जज स्वामी ओंकारा नंद गिरी को स्वप्र में भगवान शिव ने दर्शन देते हुए कहा कि पांडवों के अज्ञातवास के समय उनके पुरोहित धौम्य ऋर्षि ने स्वयंभू शिवलिंग की अर्चना की थी। । स्वामी ओंकारा नंद गिरी ने स्वप्र के आधार पर शिवलिंग को काफी जगह खोजा, लेकिन नहीं मिला। घूमते-घूमते सन् 1947 में स्वामी ओंकारानंद जी सोहारी पहुंच गए। सोहारी स्थित सनातन उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव प्रसाद शर्मा डबराल के सहयोग से स्वामी ओंकारा नंद गिरी जी शिवलिंग के पास पहुंचे। उन्होंने कहा कि सबसे पहले आठ बाय आठ फुट का पहला मंदिर बनाया था, जोकि अब एक विशाल रूप धारण कर चुका है। धौम्येश्वर मंदिर प्रबंधन में जुटी ट्रस्ट द्वारा श्रद्धालुओं की सुविधा के साथ-साथ गरीब और असहाय लोगों की मदद भी की जा रही है। ऊंचाई पर स्थित शिवलिंग के दर्शन करने के लिए दिव्यांगों व वृद्धों को पेश आने वाली परेशानी से निजात दिलाने के लिए लिफ्ट का प्रबंध किया गया है। ट्रस्ट द्वारा गौशाला का भी संचालन किया जा रहा है, जिसमें 100 के करीब गौवंशों को आश्रय दिया गया है। वहीं गरीब कन्याओं की शादी और गरीब मरीजों के इलाज के लिए आर्थिक सहायता का बीड़ा मंदिर ट्रस्ट द्वारा उठाया गया है।
मुंबई के महालक्ष्मी मंदिर में भक्तों की अटूट आस्था है। इस मंदिर में माता महालक्ष्मी के दर्शन मात्र से ही चित्त भाव-विभोर हो जाता है। यहाँ महालक्ष्मी के अतिरक्त महाकाली और महासरस्वती की प्रतिमाएं भी स्थापित है। तीनों प्रतिमाओं का श्रृंगार सोने के नथ, सोने की चूड़ियां एवं मोतियों के हार सहित बहुमूल्य आभूषणों से किया गया है। महालक्ष्मी की वास्तविक प्रतिमा को आवरण से ढंक दिया जाता है जिसके चलते अधिकांश दर्शनार्थी वास्तविक प्रतिमा के दर्शन नहीं कर पाते। रात के लगभग 9.30 बजे वास्तविक प्रतिमा से आवरण हटाया जाता है, जिसके 10 से 15 मिनट के बाद पुन: प्रतिमा के ऊपर आवरण चढ़ा दिया जाता है। महालक्ष्मी मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी छुपी है। कहा जाता है कि बहुत समय पहले मुंबई में वर्ली और मालाबार हिल को जोड़ने के लिए दीवार का निर्माण कार्य चल रहा था। सैकड़ों मजदूर इस दीवार के निर्माण कार्य में लगे हुए थे, मगर नित दिन नई- नई बाधा आने से कार्य पूरा नहीं हो पा रहा था। सब परेशान थे, तभी प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता को एक सपना आया। सपने में मां लक्ष्मी प्रकट हुईं और कहा कि वर्ली में समुद्र के किनारे मेरी एक मूर्ति है, उसे वहां से निकालकर समुद्र के किनारे ही मेरी स्थापना करो। मुख्य अभियंता ने मजदूरों को स्वप्न में बताए गए स्थान पर जाने को कहा और मूर्ति ढूंढ लाने का आदेश दिया। आदेशानुसार कार्य शुरू हुआ और महालक्ष्मी की एक भव्य मूर्ति मिल गई। तदोपरांत समुद्र किनारे ही उस मूर्ति की स्थापना की गई और छोटा-सा मंदिर बनवाया गया। मंदिर निर्माण के बाद वर्ली-मालाबार हिल के बीच की दीवार भी आसानी से खड़ी हो गई। तब ब्रिटिश अधिकारियों को भी दैवीय शक्ति पर भरोसा करना पड़ा और इसके बाद तो इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी। वर्ष 1831 में धाकजी दादाजी नाम के एक व्यवसायी ने छोटे से मंदिर को बड़ा स्वरूप दिया एवं इसका जीर्णोद्धार कराया गया। यहां महालक्ष्मी के अलावा महाकाली व माता सरस्वती की भव्य प्रतिमा भी स्थापित है। मंदिर में एक दीवार है, जहां आपको बहुत सारे सिक्के चिपके है। भक्तगण अपनी मनोकामनाओं के साथ सिक्के चिपकाते हैं यहां।
ऐसा माना जाता है कि माता शक्ति ने यहाँ कोलासुर नामक राक्षस का वध किया था और लोगों को उसके प्रकोप से बचाया था। यहाँ माता के दर्शन के लिए दूर -दूर से लोग आते है। हम बात कर रहे है कोयला माता मंदिर की। यह मंदिर जिला मंडी मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। प्राचीन समय में राजगढ़ की पहाड़ी पर यह मंदिर एक चट्टान के रूप में ही था। बाद में यह मंदिर कैसे अस्तित्व में आया और कोयला माता की पूजा अर्चना कैसे शुरू हुई इसके बारे में एक कथा प्रचलित है। बहुत पहले राजगढ़ में हर दिन किसी न किसी के घर पर मातम छाया रहता था क्यूंकि आए दिन यहाँ कोई न कोई व्यक्ति मृत्यु का शिकार हो जाता था। इस तरह राजगढ़ क्षेत्र का दाहुल शमशान घाट किसी भी दिन बिना चिता जले नहीं रहता था। यदि किसी दिन शमशान घाट में शव नहीं पहुंचता तो उस दिन वहां पर घास का पुतला जलाना पड़ता था। वहां के लोगों का मानना था कि चिता के न जलने से किसी प्राकृतिक प्रकोप व् आपदा होने की संभावना होती थी। इस तरह घास के पुतले को जलाने की प्रथा से यहाँ के तंग आ गए थे। काफी सोच समझ कर क्षेत्र के लोगों ने इस प्रथा से छुटकारा पाने के लिए देवी माँ के आगे प्रार्थना की। लोगों की प्रार्थना से माँ काली प्रसन्न हो गयी देखते ही देखते एक व्यक्ति में देवी प्रकट हो गयी और उसने “खेलना ” शुरू कर दिया। खेलते-खेलते वह व्यक्ति कहने लगा “मैं यहाँ की कल्याणकारी देवी हूँ……तुम्हें घास के पुतले जलाने की प्रथा मुक्त करती हूँ। सुखी रहो और मेरी स्थापना यहीं कर दो। लोगों ने जब व्यक्ति के मुख से देवी के वाक् सुने तो उन्होंने देवी से कही गयी बातों का प्रमाण माँगा। इस पर उस खेलने वाले व्यक्ति ने पास की विशाल चट्टान की ओर इशारा किया और देखते ही देखते चट्टान से देसी घी टपकने लगा। उसी दिन से चट्टान व देवी की पूजा अर्चना शुरू हो गयी। इस तरह जब भी किसी शुभ कार्य के लिए देसी घी की ज़रूरत होती थी तो चट्टान के नीचे बर्तन रख दिए जाते थे और देखते ही देखते वो भर जाते थे। वहीं अचानक कुछ समय बाद चट्टान से घी टपकता बंद हो गया। इस के बारे में बताया जाता है कि पहले जब सड़कें व आने-जाने के साधन नहीं होते थे तो उस समय लोग चच्योट, मोवीसेरी , गोहर , जंजैहली व कुल्लू के लिए मंडी सकरोह मार्ग से होकर जाते थे। इसी रास्ते से होकर एक दिन एक गद्दी अपनी भेड़ बकरियां लेकर इस रास्ते से गुजर रहा था। चढ़ाई चढ़ने के बाद वो आराम के लिए उसी चट्टान के समीप बैठ गया। उसने चट्टान से घी टपकने की बात सुन रखी थी इसलिए वह वहां बैठ कर खाना खाने लग गया और अपनी जूठी रोटी पर घी लगाने के लिए चट्टान पर रगड़ने लगा। जूठन के फलस्वरूप उसी दिन से चट्टान से घी टपकना बंद हो गया। देवी के ऐसे कई चमत्कार लोगों को देखने को मिलते रहे इसलिए देवी व स्थान की मान्यता आज भी बनी हुई है। हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में स्थित यह मंदिर धार्मिक आस्था के अनुसार वह स्थान है जहां मां शक्ति ने चमत्कार दिखाया था। राजगढ़ की पहाड़ी पर बना ये मंदिर पहले मात्र एक बड़ी सी चट्टान के रूप में ही हुआ करता था। मां ने भक्तों को घास के पुतले जलाने की प्रथा से मुक्त किया था। हिमाचल प्रदेश के इस मंदिर की पहाड़ी से कभी घी टपकता था। एक बार एक झूठी रोटी के कारण साक्षात टपकने वाला घी अचानक बहना बंद हो गया। भक्तों का मानना है कि भक्त सच्चे मन से जो भी मां से मांगते हैं मां उनकी इच्छा अवश्य पूरी करती है।
आज हम आपको दर्शन करवाने जा रहे हैं चामुंडा देवी मंदिर के। चामुंडा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित है। चामुंडा देवी मंदिर का निर्माण वर्ष 1762 में उम्मीद सिंह ने करवाया था। पाटीदार और लाहला के जंगल स्थित यह मंदिर पूरी तरह से लकड़ी से बना हुआ है। बानेर नदी के तट पर स्थित यह मंदिर देवी काली को समर्पित है, जिन्हें युद्ध की देवी के रूप में जाना जाता है। हजारों साल पहले धरती पर शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यों ने राज कर लिया था। उन्होंने धरती पर इतने अत्याचार किये कि इससे परेशान होकर देवताओं व मनुष्यों ने शक्तिशाली देवी दुर्गा की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने देवताओं व मनुष्यों को दर्शन दिए और कहा कि वो ज़रूर इन दैत्यों से उनकी रक्षा करेंगी। इसके बाद दुर्गा जी ने कौशिकी के नाम से अवतार लिया। वहीं शुम्भ और निशुम्भ के दूतों ने माता कौशिकी को देख लिया। दूतों ने शुम्भ और निशुम्भ से कहा कि आप तो तीनों लोगों के राजा है, आपके पास सब कुछ है लेकिन आपके पास एक सुंदर रानी भी होनी चाहिए। कौशिकी नमक एक देवी है जो सारे संसार में सबसे सुंदर है। दूतों की इन बातों को सुनकर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत माता कौशिकी के पास भेजा और कहा कि कौशिकी से कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनों लोको के राजा हैं और वो तुम्हें रानी बनाना चाहते हैं। शुम्भ और निशुम्भ के आदेश पर दूत ने ऐसा ही किया। कौशिकी ने दूत की बात सुनकर यह कहा कि मैं जानती हूँ कि वो दोनों बहुत शक्तिशाली हैं, लेकिन में प्रण ले चुकीं हूँ कि जो मुझे युद्ध में हरा देगा मैं उसी से विवाह करुँगी। जब यह बात दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को जाकर बताई तो उन्होंने दो दूत चण्ड और मुण्ड को देवी के पास भेजा और कहा कि उसके केश पकड़ कर हमारे पास लाओ। जब चण्ड और मुण्ड ने वहां जाकर देवी कौशिकी से साथ चलने को कहा तो उन्होंने क्रोधित होकर अपना काली रूप धारण कर लिया और असुरों को मार दिया। इन दोनों राक्षसों के सर काटकर देवी काली कोशिकी के पास लेकर आ गई। इससे खुश होकर देवी कोशिकी ने कहा कि तुमने इन दो राक्षसों को मारा है अब तुम्हारी प्रसिद्धी चामुंडा के नाम से पूरे संसार में होगी। चामुंडा देवी मंदिर अपनी खूबसूरती, इतिहास और कहानी की वजह से काफी प्रसिद्ध है। यह मंदिर देवी काली को समर्पित है। यह मंदिर पूरी तरह से लकड़ी से बना हुआ है। भक्त 400 सीढ़ियों को चढ़कर मंदिर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं। एक अन्य विकल्प के तौर पर चंबा से 3 किलोमीटर लंबी कंक्रीट सड़क के माध्यम से मंदिर आसानी से पहुंचा जा सकता है। चामुंडा देवी मंदिर में पीछे की तरफ से गुफा जैसी संरचना है जिसको भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है। चामुंडा देवी मंदिर को चामुंडा नंदिकेश्वर धाम के रूप में भी जाना जाता है जिसमें भगवान शिव और शक्ति का घर है। भगवान हनुमान और भैरव इस मंदिर के सामने वाले द्वार की रक्षा करते हैं और इन्हें देवी का रक्षक माना जाता है। चामुंडा देवी मंदिर जाने का सबसे अच्छा समय मार्च और अप्रैल के महीनों का होता है। वहीं नवरात्रों के दौरान भी मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ आती है।
आज हम आपको दर्शन करवाने जा रहे हैं भागसू नाग मंदिर की। यह मंदिर लोकप्रिय प्राचीन मंदिरों में से एक है, जो मैक्लोडगंज के मुख्य शहर से लगभग 3 किमी पूर्व और धर्मशाला से लगभग 11 किमी दूर स्थित है। प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता में बना यह मंदिर भागसू नाग की रोचक कथा लिए हुए है।इस मंदिर का निर्माण राजा भागसू द्वारा भगवान शिव और स्थानीय देवता भागसू नाग के समर्पण में बनाया गया था। भागसु नाग मंदिर समुद्र तल से 1770 मीटर की ऊंचाई पर है और यहां साल भर बड़ी संख्या में भक्त आते हैं। ये है इतिहास: यहां के शिलापट्ट पर महंत गणेश गिरी के हवाले से 1972 में लिखे वर्णन के अनुसार अजमेर का दैत्य राजा भागसू के नाम से जाना जाता था। वह मायावी और जादूगर था। उसके राज्य में एक बार भारी जल संकट हो गया। लोग त्राहि-त्राहि करने लगे। प्रजा को इस संकट से मुक्ति दिलाने के लिए राजा ने कमंडल उठाकर चल पड़ा। वह धौलाधार पर्वत श्रृंखला में 18 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित नाग डल अर्थात नाग झील पर पहुंचा। यहाँ पहुँच कर राजा ने झील के पवित्र जल को माया से अपने कमंडल में समेटा और लौट चला अपने देश। इसके कुछ देर बाद नाग देवता जब अपनी झील पर आए तो उन्होंने देखा कि झील का सारा पानी सूख गया है। राजा भागसू के पदचिह्नों का उन्होंने पीछा किया और आज के भागसू नाग मंदिर वाले स्थान पर नाग देवता ने उसे पकड़ लिया। दोनों में भयानक युद्ध हुआ। मायावी राजा भागसू मारा गया और कमंडल का जल बिखर गया। नाग देवता के डल में फिर से जल भर गया और युद्ध वाले स्थान पर पवित्र जल का चश्मा बहने लगा। किन्तु मरते वक्त राजा भागसू ने नाग देवता से अपने और अपने राज्य के कल्याण की प्रार्थना की तो नाग देवता प्रसन्न हुए और उसे वरदान दिया कि आज से तू केवल भागसू नहीं बल्कि भागसू नाग के नाम से प्रसिद्ध होगा और देवता के रूप में इसी स्थान पर तेरी पूजा अर्चना होगी। विशेषताएं भागसुनाथ मंदिर मैकलोडगंज का एक प्रमुख दर्शनीय स्थल है। भागसुनाथ मंदिर एक प्राचीन हिंदू मंदिर है, जो भगवान शिव को समर्पित है। पवित्र तीर्थस्थल अपने दो पूलों के लिए प्रसिद्ध है, जिनके बारे में माना जाता है कि उनमें उपचार के गुण हैं। इसके अलावा, मंदिर में प्रतिष्ठापित मूर्तियों को अविश्वसनीय शक्तियों का अधिकारी माना जाता है। भागसु नाग मंदिर स्थानीय गोरखा और हिंदू समुदाय द्वारा अत्यधिक पूजनीय है। भागसू नाग मंदिर की यात्रा का सबसे अच्छा समय वार्षिक मेले के दौरान होता है जो सितंबर के महीने में यहां लगता है। मंदिर परिसर में दो मंजिला विश्राम गृह है जहां मंदिर के दर्शन करने वाले भक्त रह सकते हैं। डल झील, कोतवाली बाजार और भागसू फॉल इस पवित्र मंदिर के आसपास के मुख्य आकर्षण हैं। भक्त इस मंदिर में सड़क मार्ग, रेल मार्ग, वायु मार्ग द्वारा पहुंच सकते हैं।
पुराणों में देवभूमि हिमाचल प्रदेश के मंडी शहर को छोटी काशी कहा गया है। मंडी में लगभग 80 देवी-देवताओं के विभिन्न शैलियों के प्राचीन मंदिर व शिवालय हैं। इन्ही में से एक है बाब भूतनाथ मंदिर। मंडी के बाबा भूतनाथ मंदिर का शिवलिंग स्वयंभू है। बाबा भूतनाथ का मंदिर राजा अजबर सेन ने 16वीं शताब्दी में बनवाया था। कहा जाता है कि पुरानी मंडी से व्यास नदी के दूसरी ओर जहां पर वर्तमान मंडी शहर बसा है, वहां जंगल हुआ करता था। पुरानी मंडी के एक ग्वाले की कपिल नाम की गाय हर दिन नदी पार करके जंगल में घास चरने आती थी और शाम को वापस घर लौटते वक्त वह गांव भूतनाथ मंदिर के पास खड़ी हो जाती थी। गाय के थनों से अपने आप ही दूध की धारा निकलने लगती थी और भोलेनाथ का दूधाभिषेक होता था। ग्वाले ने जब इस घटना को देखा तो उसने इसकी सूचना राजा अजबर सेन को दी। राजा ने मौके पर जाकर इस घटना को देखा।इसके पश्चात स्वयं भोलेनाथ ने राजा अजबर सेन को स्वप्न में दर्शन दिए और शिव मंदिर स्थापित करने तथा इसके आसपास नई मंडी नगर बसाने का आदेश दिया। स्वप्न के अनुरूप ही राजा ने भव्य शिखर शैली के शिव मंदिर का निर्माण किया और इस तरह नया मंडी शहर बसा। 1527 इस्वी में राजा अजबेर सैन ने शिखारा शैली से मंदिर का निर्माण करवाया। मंदिर निर्माण से आज तक यहां पर भगवान भूतनाथ की श्रद्धापूर्वक पूजा अर्चना की जाती है। देश विदेश से आने वाले सैलानियों के लिए भी मंडी शहर में बसा यह मंदिर का आकर्षण का केंद्र बना रहता है। यहां होता है अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव मंदिर के आसपास राजा ने नई मंडी नगर बसाया जो आज शिवरात्रि पर्व के नाम से जाना जाता है। बाबा भूतनाथ के प्रकाट्य के कारण ही महा शिवरात्रि का पर्व अस्तित्व में आया है जो आज अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि मेले के रूप में विख्यात हो चुका है। बाबा भूतनाथ के दर्शनार्थ समूचे प्रदेश के अलावा विदेशी पर्यटकों का भारी सैलाब उमड़ता रहता है।
कुरुक्षेत्र के पिहोवा के गांव अरुणाय में स्थित संगमेश्वर महादेव मंदिर रहस्यमयी शिव मंदिर हैं, जहां भोलेनाथ के चमत्कार तो नजर आते हैं, लेकिन इन चमत्कारों का कारण कोई नहीं जानता। श्रद्धालु इसे भगवान शिव की महिमा ही मानते हैं। बताया जाता है कि देवी सरस्वती ने यहीं पर शिव की आराधना की थी यहां साल में एक बार नाग और नागिन का जोड़ा देखा जाता है। यह जोड़ा शिवलिंग की परिक्रमा करने के कुछ देर बाद खुद-ब-खुद चला जाता है। आज तक इस जोड़े ने किसी भी श्रद्धालु को नुकसान नहीं पहुंचाया। इनके दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ जाती है। दर्शन करने के बाद ये जोड़ा कहां जाता है किसी को कुछ नहीं पता। ये कहां से आते हैं और कहां चले जाते, इसका पता अब तक कोई नहीं लगा पाया है। पुराने समय से इसे अरुणा और सरस्वती नदी के संगम का स्थल माना जाता है। मंदिर के पास से सरस्वती नदी गुजरती है। पुराणों के अनुसार महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषि में एक दूसरे से अधिक तपोबल हासिल करने की होड़ लगी हुई थी। तब विश्वामित्र ने सरस्वती को छल से महर्षि वशिष्ठ को अपने आश्रम तक लाने की बात कही, ताकि वे महर्षि वशिष्ठ को समाप्त कर सकें। श्राप के डर से सरस्वती तेज बहाव के साथ महर्षि वशिष्ठ को विश्वामित्र आश्रम के द्वार तक ले आईं। लेकिन जब विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ की ओर बढ़ने लगे तो सरस्वती महर्षि वशिष्ठ को पूर्व की ओर बहा कर ले गईं। इससे विश्वामित्र क्रोधित हो गए और सरस्वती को खून से भरकर बहने का श्राप दे दिया। खून का बहाव शुरू होने पर सरस्वती के किनारे राक्षसों ने डेरा डाल लिया। महर्षि वशिष्ठ ने सरस्वती को यहां प्रकट हुए शिवलिंग की आराधना करने को कहा। सरस्वती ने इसी तीर्थ पर शिव की आराधना की तो भगवान शिव ने उसे विश्वामित्र के श्रप से मुक्त कर फिर से जलधारा से भर दिया। तभी से यहां भगवान शिव की आराधना शुरू हो गई। चुनाव जीतने की मन्नत मांगने आते है नेता लोगों की मान्यता हैं कि सावन माह में स्वयंभू शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, जो भी श्रद्धालु यहां पर पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता है, उसके सभी काम बनते हैं। यहां मंदिर में राजनेताओं व व्यापारियों का भी आस्था का केंद्र हैं। यहां चुनाव लड़ने से पूर्व बहुत से नेता मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर यहां पूजन व धागा खोलने के लिए आते हैं।
आज हम आपको दर्शन करवाने जा रहें हैं वशिष्ठ मंदिर की जो हमाचल प्रदेश के ज़िला कुल्लू के वशिष्ठ गांव में है।यह मंदिर मनाली से करीब 6 किलोमटेर दूर ब्यास नदी के तट पर स्तिथ है। शिष्ठ मंदिर 4000 साल से अधिक पुराना माना जाता है।पौराणिक कथाओं के अनुसार, ऋषि वशिष्ठ जो हिंदू धर्म के मुख्य 7 ऋषियों में एक थे, उन्होंने अपने पुत्र की विश्वामित्र ( एक हिंदू ऋषि ) द्वारा हत्या किए जाने के बाद नदी में कूद कर जान देने का प्रयास किया। किन्तु पानी के बहाव में ऋषि बहते गए और इस गांव में आकर बच गए, इसलिए इस गांव को वशिष्ठ गांव कहा जाता है। इसके बाद ऋषि वशिष्ठ ने इस गांव में अपने जीवन की एक नई शुरूआत की। इस घटना के बाद यहां बहने वाली व्यास नदी को विपाशा नदी के नाम से पुकारा जाने लगा था जिसका अर्थ होता है - बंधनों से मुक्त। वर्तमान में विपाशा नदी को व्यास नदी के नाम से जाना जाता है। वशिष्ठ गाँव ब्यास नदी के उस पार मनाली से लगभग 3 किमी दूर स्थित एक छोटा सा गाँव है।वशिष्ट गाँव के बारे में कहा जाता है कि इस गाँव के नजदीक छोइड़ नामक झरना है, उस झरने में लोग अपने -बच्चों को मुन्ड़न कराने लाते है। यहाँ मुन्डन कराये बच्चों के बारे में कहते है कि उन्हे भूत प्रेत के ड़र से मुक्ति मिल जाती है। यह खूबसूरत गाँव अपने शानदार गर्म पानी के झरनों और वशिष्ठ मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। मंदिर परिसर में स्थित झरने के पानी में बहुत अच्छी उपचार शक्तियां हैं, जो कई त्वचा रोगों और अन्य संक्रमणों को ठीक कर सकती हैं। यहां तुर्की शैली के स्नान घर उपलब्ध हैं, जिनमें झरनों का गर्म पानी होता है। पुरुषों और महिलाओं दोनों के लिए अलग-अलग स्नान घर हैं, जो वर्षों से सुसज्जित हैं। मुख्य मन्दिर के ठीक सामने एक अन्य मन्दिर बना है, जिसे श्रीराम जी का मन्दिर बताया जाता है। वशिष्ठ गांव में कई मंदिर हैं जो एक स्थानीय संत वशिष्ठ और भगवान राम को समर्पित हैं। यह मन्दिर लोक शैली में बनाया गया है। मन्दिर में लगायी गयी लकड़ियों में शानदार नक्काशी की गयी है। यहां गेस्ट हाउस लंबे प्रवास के लिए उपलब्ध हैं। (एक महीने 4 से 4 महीने तक)
भक्तों का माता भंगायणी के ऊपर अटूट विश्वास है। उत्तरी भारत के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में शामिल माँ भंगायनी का मंदिर हरिपुरधार में शिवालिक पर्वतमाला की तलहटी में स्थित है, जो हिमाचल प्रदेश में सिरमौर ज़िले की सीमा पर है। मंदिर समुद्र तल से लगभग 8000 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। शिरगुल महादेव की एक देव बहन के रूप में जानी जाने वाली, माँ भंगायनी को हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में पूजा जाने वाली सबसे शक्तिशाली देवी माना जाता है। मां भंगायणी मंदिर 1986 से पूर्व एक देवठी के रूप में थी। इसका जीर्णोद्धार 1986 से यहां मंदिर कमेटी ने शुरू किया। 1992 से 2000 के बीच यहां सक्रिय होकर मंदिर निर्माण का कार्य आरंभ किया गया। शिरगुल महाराज की बहन है भंगायणी माता बताते हैं कि भंगायणी माता शिरगुल महाराज की बहन है। माँ भंगायनी मंदिर का इतिहास चुरेश्वर महादेव (चूड़धार) से जुड़ा हुआ है। किंवदंतियों के अनुसार, शिरगुल महादेव को एक मुगल राजा द्वारा कैद किया गया था क्योंकि मुगल राजा को शिरगुल महादेव की आध्यात्मिक शक्तियों से डर था। बगद के राजा गुगा पीर ने उन्हें माता भंयानी के आशीर्वाद से जेल से बाहर निकलने में मदद की। शिरगुल महादेव के लिए मुगलों के कारावास से मुक्त होना बहुत मुश्किल था लेकिन उन्हें माता भंगायानी की मदद से बचाया गया था। तब से मां भंगायनी को शिरगुल महादेव की बहन के रूप में पूजा जाता है। भंगायणी माता शिरगुल महाराज की बहन है। माता भंगायणी मंदिर को लकड़ी और स्लेटनुमा पत्थर की शैली से नक्काशी के साथ निर्मित किया गया है। मुख्य सडक से करीब दो सौ मीटर हटकर मन्दिर की सीढियां शुरू होती हैं। स्थानीय व्यक्ति जो शिरगुल महाराज के दर्शन करने जाते हैं, वे भंगायणी माता के भी दर्शन अवश्य करते हैं। माता भंगायणी मंदिर में हर साल लाखों श्रद्धालु माथ टेकने पहुंचते हैं। मंदिर में चैत्र नवरात्रि, अश्विन नवरात्रि, दशहरा, और दीपावली के त्योहार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं। मंदिर सड़क मार्ग, हवाई मार्ग, रेल मार्ग द्वारा पहुंचा जा सकता है।
यहाँ माँ शक्ति की नौ ज्वालाएँ प्रज्ज्लित हैं और माना जाता है कि देवी सती की जीभ इसी जगह गिरी थी। हम बात कर रहे है ज्वाला माता मंदिर की। ज्वाला देवी का मंदिर देवी के 51 शक्ति पीठों में से एक है।ज्वाला देवी का मंदिर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा से 30 किलो मीटर दूर स्तिथ है। इस मंदिर को ज्वालामुखी मंदिर (Jwalamukhi Mandir) के नाम से भी जाना जाता है। यह हिन्दू धर्म के प्रमुख तीर्थ स्थानों में शामिल है। इस मंदिर का प्राथमिक निमार्ण राजा भूमि चंद के करवाया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह और राजा संसारचंद ने 1835 में इस मंदिर का पूर्ण निमार्ण कराया। यहाँ धधकती ज्वाला बिना घी, तेल दीया और बाती के लगातार जलती रहती है। यह ज्वाला पत्थर को चीरकर बाहर निकलती आती है। ज्वाला देवी की उत्पत्ति से संबंधित कई कथाएं लोगों के बीच बहुत प्रचलित हैं। प्रचलित कथाएं भक्त गोरखनाथ के इंतज़ार में जल रही ज्वाला ज्वाला माता से संबंधित गोरखनाथ की कथा इस क्षेत्र में काफी प्रसिद्ध है। कथा है कि भक्त गोरखनाथ यहां माता की आरधाना किया करता था। एक बार गोरखनाथ को भूख लगी तब उसने माता से कहा कि आप आग जलाकर पानी गर्म करें, मैं भिक्षा मांगकर लाता हूं। माता आग जलाकर बैठ गयी और गोरखनाथ भिक्षा मांगने चले गये। इसी बीच समय परिवर्तन हुआ और कलियुग आ गया। भिक्षा मांगने गये गोरखनाथ लौटकर नहीं आये। तब ये माता अग्नि जलाकर गोरखनाथ का इंतजार कर रही हैं। मान्यता है कि सतयुग आने पर बाबा गोरखनाथ लौटकर आएंगे, तब-तक यह ज्वाला यूं ही जलती रहेगी। मान्यता है कि पवित्र देवी नीली लौ के रूप में खुद प्रकट हुईं थीं और यह देवी का चमत्कार ही है कि पानी के संपर्क में आने पर भी ये लौ नहीं बुझती। “पंजन पंजवन पंडवन तेरा भवन बान्या” इस मंदिर के पीछे एक और पौराणिक कथा प्रचलित है। कथा यह है कि, कई हजार साल पहले एक चरवाहे ने पाया कि उसकी एक गाय का दूध नहीं बचता था। एक दिन उसने गाय का पीछा किया और वहां एक छोटी सी लड़की को देखा, जो गाय का पूरा दूध पी जाती थी। उन्होंने राजा भूमि चंद को इसकी सूचना दी, जिन्होंने अपने सैनिकों को पवित्र स्थान का पता लगाने के लिए जंगल में भेजा, जहां मा सती की जीभ गिरी थी क्योंकि उनका मानना था कि छोटी लड़की किसी तरह देवी का प्रतिनिधित्व करती थी। कुछ वर्षों के बाद, पहाड़ में आग की लपटें पाई गईं और राजा ने इसके चारों ओर एक मंदिर बनाया। यह भी कल्पित है कि पांडवों ने इस मंदिर का दौरा किया और इसका जीर्णोद्धार किया। लोक गीत “पंजन पंजवन पंडवन तेरा भवन बान्या” इस विश्वास की गवाही देता है। अकबर क चढ़ाया छत्र मां ने नहीं किया कबूल मुगल बादशाह अकबर और देवी मां के परम भक्त ध्यानु भगत से जुड़ी कथा खास प्रचलित है। हिमाचल निवासी ध्यानु भगत काफी संख्या में श्रद्धालुओं के साथ माता के दर्शन के लिए जा रहा था। एंटनी बड़ी संख्या देखकर सिपाहियों ने चांदनी चौक (दिल्ली) पर उन्हें रोक लिया और बंदी बनाकर अकबर के दरबार में पेश किया। बादशाह ने पूछा, तुम इतने आदमियों को साथ लेकर कहां जा रहे हो? ध्यानू ने उत्तर दिया, मैं ज्वाला माई के दर्शन के लिए जा रहा हूं। मेरे साथ जो लोग हैं, वह भी माताजी के भक्त हैं और यात्रा पर जा रहे हैं। अकबर ने कहा यह ज्वाला माई कौन है, वहां जाने से क्या होगा। ध्यानू ने कहा कि ज्वाला माई संसार का पालन करने वाली माता हैं। उनका प्रताप ऐसा है उनके स्थान पर बिना तेल-बत्ती के ज्योति जलती रहती है। हम लोग प्रतिवर्ष उनके दर्शन जाते हैं। इस पर अकबर ने कहा, अगर तुम्हारी बंदगी पाक है तो देवी माता अवश्य तुम्हारी इज्जत रखेगी। इम्तहान के लिए हम तुम्हारे घोड़े की गर्दन अलग कर देते हैं, तुम अपनी देवी से कहकर उसे दोबारा जिंदा करवा लेना। इस प्रकार, घोड़े की गर्दन काट दी गई। ध्यानू ने बादशाह से एक माह की अवधि तक घोड़े के सिर व धड़ को सुरक्षित रखने की प्रार्थना की। अकबर ध्यानू की बात मानते हुए उसे आगे की यात्रा की अनुमति दे दी। ध्यानु साथियों के साथ माता के दरबार में पहुंचा। उसने प्रार्थना की कि मातेश्वरी आप अन्तर्यामी हैं। बादशाह मेरी भक्ति की परीक्षा ले रहा है, मेरी लाज रखना, मेरे घोड़े को अपनी कृपा व शक्ति से जीवित कर देना। माना जाता है कि अपने भक्त की लाज रखते हुए मां ने घोड़े को फिर से जिंदा कर दिया। यह सब कुछ देखकर बादशाह अकबर हैरान हो गया। इसके बाद अहंकारी अकबर ने अपनी सेना के साथ मंदिर की तरफ चल पड़ा। मंदिर पहुंचने पर सेना से मंदिर में पानी डलवाया, लेकिन माता की ज्वाला बुझी नहीं। तब जाकर उसे मां की महिमा का यकीन हुआ। उसने माता के आगे सिर झुकाया और सोने का छत्र चढ़ाया, लेकिन माता ने वह छत्र कबूल नहीं किया। कहा जाता है कि वह छत्र गिर कर किसी अन्य पदार्थ में परिवर्तित हो गया। जिसे आज भी मंदिर में देखा जा सकता है। ज्वालामुखी मंदिर को जोता वाली का मंदिर और नगरकोट भी कहा जाता है। ज्वाला देवी मंदिर वास्तुकला की एक इंडो-सिख शैली का अनुसरण करती है। ज्वाला देवी मंदिर एक लकड़ी के मंच पर बनाया गया है और शीर्ष पर एक छोटा गुंबद है। मंदिर के गुंबद और शिखर को सोने से ढका गया था जिसे महाराजा रणजीत सिंह ने उपहार में दिया था। मुख्य द्वार से पहले एक बड़ा घंटा है, इसे नेपाल के राजा ने प्रदान किया था। कालीधर पर्वत की शांत तलहटी में बसे इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ देवी की कोई मूर्ति नहीं है। यहाँ पर पृथ्वी के गर्भ से नौ अलग अलग जगह से ज्वाला निकल रही है। इन नौ ज्योतियां को महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विंध्यावासनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका, अंजीदेवी के नाम से जाना जाता है। मंदिर में विशालकाय चाँदी के दरवाज़े हैं। इसका गुंबद सोने की तरह चमकने वाले पदार्थ की प्लेटों से बना है। पूजा के लिए मंदिर का आंतरिक हिस्सा चौकोर बनाया गया है। मौसम के अनुसार मंदिर के खुलने और बंद होने के समय में बदलाव कर दिया जाता है। गर्मियों में जहां मंदिर सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक खुलता है, वहीं सर्दी के दिनों में सुबह 6 बजे से रात 9 बजे तक दर्शन के लिए खुलता है। भक्त अपनी भक्ति की निशानी के रूप में देवी को रबड़ी, मिश्री, चुनरी, दूध, फूल और फल अर्पित करते हैं। यहां एक कुण्ड में पानी खौलता हुआ प्रतीत होता है जबकि छूने पर कुंड का पानी ठंडा लगता है। मंदिर में पुजारियों द्वारा की जाने वाली आरती मंदिर का मुख्य आकर्षण है। इस मंदिर में दिन के दौरान पांच आरती और एक हवन किया जाता है। मुख्य हॉल के केंद्र में संगमरमर से बना एक बिस्तर है जिसे चांदी से सजाया गया है।
देवों के देव महादेव के इस मंदिर में भोलेनाथ और माता पार्वती युगल रूप में स्थापित हैं और यहाँ आने वाले भक्त खाली हाथ नहीं लौटते। हम बात कर रहे है ममलेश्वर महादेव मंदिर की। शिमला से लगभग 100 किमी की दूरी पर करसोग शहर में स्थित यह मंदिर एक ऊंचे मंच पर स्थित पत्थर और लकड़ी का बना है। लोगों की मान्यता है कि यहां 5 हजार साल पहले पांडवों ने समय बिताया था। मंदिर के मुख्य भवन की चारों ओर दीवारों पर काष्ठ मूर्तियां बनी हैं। मंदिर की मुख्य इमारत लकड़ी की है। लकड़ी की दीवारों पर बेहतरीन नक्काशी है, जिसमें देवी-देवताओं के साथ अन्य मूर्तियां उकेरी गई हैं। मंदिर के गर्भगृह में भगवान शंकर व मां पार्वती की मूर्ति युगल के रूप में स्थापित है। मंदिर के प्रवेश द्वार के ऊपर भी शिव-पार्वती की युगल मूर्ति है। मंदिर के पुजारी का कहना है कि यह दुनिया का इकलौता मंदिर है, जिसमें शिव-पार्वती की मूर्तियां युगल के रूप में हैं। यह मंदिर सतयुग, त्रेत , द्वापरयुग व कलयुग का गवाह है ।इस स्थान पर भृगु ऋषि जी के द्वारा तपस्या की गई थी। हिमयुग के अंत में किन्नर कैलाश में हुए पृथ्वी के भीतर के बदलाव के कारण किन्नर इस स्थान पर आ गये और भृगु ऋषि ने एक किन्नर लड़की से विवाह किया जिसका नाम माम्लिषा था और उसके नाम पर ही इस स्थान का नाम ममेल पड़ । इनकी दो पुत्रियाँ हुई इमला व बिमला, जो की नदियों के रूप में यहाँ स्थित है और पुरे क्षेत्र की भूमि को सिंचित करती है। मंदिर में रखा गया है भीम का ढोल इस मंदिर का पांडवो से गहरा नाता है। पांडव यहाँ अपने अजातवास के समय आये थे। इस मंदिर में एक प्राचीन ढोल है जिसके बारे में कहा जाता है की ये भीम का ढोल है। ये ढोल भेखल की लकड़ी से बना है। इसके अलावा मंदिर में स्थापित पांच शिवलिंगों के बारे में कहा जाता है की इसकी स्थापना स्वयं पांडवों ने की थी। मंदिर में सबसे प्रमुख गेहूं का दाना है जिसे की पांडवों के समय का बताया जाता है। यह गेहूं का दाना एक खास प्रकार के डिब्बे में रखा जाता है। महाभारत काल से जल रहा है अग्निकुंड इस मंदिर में एक धुना है जिसके बारे में मान्यता है कि यहां जो अग्निकुंड है वो महाभारत काल से निरंतर जल रहा है। इस के पीछे एक कहानी है की जब पांडव अज्ञातवास में घूम रहे थे तो वे कुछ समय के लिए इस गाँव में रूके। तब इस गांव में एक राक्षस ने एक गुफा में डेरा जमाया हुआ था। उस राक्षस के प्रकोप से बचने के लिये लोगों ने उस राक्षस के साथ एक समझौता किया था कि वो रोज एक आदमी को खुद उसके पास भेजेंगें उसके भोजन के लिये जिससे कि वो सारे गांव को एक साथ न मारे। एक दिन उस घर के लडके का नम्बर आया जिसमें पांडव रूके हुए थे। उस लडके की मां को रोता देख पांडवो ने कारण पूछा तो उसने बताया कि आज मुझे अपने बेटे को राक्षस के पास भेजना है। अतिथि के तौर पर अपना धर्म निभाने के लिये पांडवो में से भीम उस लडके की बजाय खुद उस राक्षस के पास गया। भीम जब उस राक्षस के पास गया तो उन दोनो में भयंकर युद्ध हुआ और भीम ने उस राक्षस को मारकर गांव को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। कहते है की भीम की इस विजय की याद में ही यह अखंड धुना चल रहा है। यह मंदिर अपनी खूबसूरती के साथ अपने चमत्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। ममलेश्वर मंदिर में एक अग्निकुंड है, जो हमेशा जलता रहता है। मान्यता है कि 5 हजार साल पहले पांडवों ने इस अग्निकुंड को जलाया था और तब से यह जल रहा है। यहाँ के स्थानीय लोगों का मानना है कि अज्ञातवास के दौरान पूजा करने के लिए पांडवों ने इस अग्निकुंड को बनवाया था। ममलेश्वर महादेव के मंदिर भगवान शिव और मां पार्वती को समर्पित है। कहा जाता है कि सावन के महीने में यहां पार्वती और शिव कमल पर बैठकर मंदिर में मौजूद रहते हैं। कहा जाता है कि ममलेश्वर मंदिर में 5 हजार साल पुराना गेहूं का दाना है, जिसका वजन 250 ग्राम है। मान्यता है कि इसे पांडवों ने अज्ञातवास के दौरान खाने के लिए उगाया था। ममलेश्वर महादेव मंदिर में श्रद्धालुओं के लिए पांच शिवलिंग का एक साथ मौजूद होना भी इस मंदिर को खास बनाता है। कई साल पहले मंदिर के पास कई शिवलिंग, शिव और विष्णु भगवान की मूर्तियां भी मिली थीं। ममलेश्वर मंदिर में एक बड़ा ढोल भी रखा गया है। लोगों का कहना है कि अज्ञातवास के दौरान भीम ने इसे बनवाया था। भीम खाली समय के दौरान इस ढोल को बजाया करते थे और वहां से जाते समय उन्होंने इन ढोल मंदिर में रख दिया था। मंदिर में पांच शिवलिंग भी स्थापित है , मान्यता है कि यह पांडवों ने ही यहां स्थापित किए हैं। इस मंदिर के पास एक प्राचीन विशाल मंदिर और है जो की सदियों से बंद है। माना जाता है कि इस मंदिर में प्राचीन समय में भूडा यज्ञ किया जाता था जिसमे की नर बलि भी दी जाती थी। इस मंदिर में केवल पुजारी वर्ग को ही जाने की आज्ञा है।
कहा जाता है कण-कण में शंकर है। चारों दिशाओं में भगवान शिव अपने भक्तों की परेशानियों को हरने के लिए विराजमान है। शिव के अनेक अद्भुत मंदिर है उन्हीं में से एक है हिमाचल प्रदेश के कुल्लू से 14 किमी। दूर पहाड़ी पर बना बिजली महादेव मंदिर, जहां शिवलिंग पर हर 12 साल के बाद आसमानी बिजली गिरती है, यहां भगवान शिव कुछ अलग तरीके से अपने भक्तों को दर्शन देते हैं। ऐसी है पौराणिक मान्यता किवदंतियों के अनुसार यहां एक बड़ा अजगर रहता था। असल में अजगर कुलांत नाम का राक्षस था, जो रूप बदलने में माहिर थ। एक बार अजगर मथाण गांव में आ गया और ब्यास नदी के पास कुंडली मार कर बैठ गया। इससे नदी का पानी रुक गया और गांव डूबने लगा तब भगवान शिव ने भक्तों की मदद और लोगों की भलाई के लिए उस राक्षस का वध किया। भगवान शिव के त्रिशूल से राक्षस का वध करने के बाद कुलांत राक्षस का बड़ा शरीर पहाड़ बन गया। इसके बाद शिवजी ने इंद्र को आदेशित किया कि हर 12 साल में एक बार इस जगह पर बिजली गिराएं। मान्यता है कि तभी से यह सिलसिला जारी है। हिमाचल के कुल्लू में स्थित इस अनोखे मंदिर का नाम 'बिजली महादेव मंदिर' है। यह जगह समुद्र स्तर 2450 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। शीत काल में यहां भारी बर्फबारी होती है। शिवजी का यह मंदिर ब्यास और पार्वती नदी के संगम के नजदीक एक पहाड़ पर बना है। मंदिर तक पहुंचने के लिए कठिन चढ़ाई चढ़नी होती है। पूरी कुल्लू घाटी में ऐसी मान्यता है कि यह घाटी एक विशालकाय सांप का रूप है। इस सांप का वध भगवान शिव ने किया था। जिस स्थान पर मंदिर है वहां शिवलिंग पर हर बारह साल में भयंकर आकाशीय बिजली गिरती है। आसमानी बिजली गिरने की वजह से शिवलिंग चकनाचूर हो जाता है।पुजारी खऩ्डित शिवलिंग को मक्खन से जोड़ते हैं जिस से शिवलिंग फिर सामान्य हो जाता है। यहां लंबी ध्वज़(छड़ी) है। इस ध्वज़ (छड़ी) के बारे में कहा जाता है बिजली कड़कने पर इसमें जो तरंगे उठती है वे भगवान का आशीर्वद होता है। हर मौसम में दूर-दूर से लोग बिजली महादेव के दर्शन करने आते हैं।
पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी स्थान पर माता सती के चरण गिरे थे और माता यहां शक्तिपीठ रूप में स्थापित हो गई।हम बात कर रहे है चामुंडा देवी मंदिर की, जहाँ आने भर से सभी कष्टों का निवारण हो जाता है।प्रसिद्ध शक्तिपीठों में एक चामुंडा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के मनमोहक हिल स्टेशन पालमपुर में स्थित है। बानेर नदी के तट पर बसा यह मंदिर महाकाली को समर्पित है।चामुंडा देवी का ये मंदिर समुद्र तल से 1000 मीकी ऊंचाई पर स्थित है। यह धर्मशाला से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यह मंदिर 700 वर्ष पुराना है। पौराणिक कथा पौराणिक कथा के अनुसार भगवान् शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गयी। यज्ञ स्थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गयीं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि चामुण्डा देवी मंदिर में माता सती के चरण गिरे थे। इसलिए पड़ा चामुंडा देवी नाम दुर्गा सप्तशती’ के सातवें अध्याय में वर्णित कथाओं के अनुसार एक बार चण्ड-मुण्ड नामक दो महादैत्य देवी से युद्ध करने आए तो देवी ने काली का रूप धारण कर उनका वध कर दिया। माता देवी की भृकुटी से उत्पन्न कलिका देवी ने जब चण्ड-मुण्ड के सिर देवी को उपहार स्वरूप भेंट किए तो देवी भगवती ने प्रसन्न होकर उन्हें वर दिया कि तुमने चण्ड-मुण्ड का वध किया है, अतः आज से तुम संसार में ‘चामुंडा’ के नाम से विख्यात हो जाओगी। मान्यता है कि इसी कारण भक्तगण देवी के इस स्वरूप को चामुंडा रूप में पूजते हैं। चामुण्डा देवी मंदिर के आसपास का प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी तरफ आकर्षित करता है। चामुंडा देवी मंदिर भगवान शिव और शक्ति का स्थान है। भक्तों में मान्यता है कि यहां पर शतचंडी का पाठ सुनना और सुनाना माँ की कृपा पाने के लिए सबसे सरल तरीका है और इसे सुनने और सुनाने वाले का सारा क्लेश दूर हो जाता है। मंदिर के समीप एक छोटा-सा तालाब मिलेगा, जिसके पानी को बहुत ही शुद्ध माना जाता है। मंदिर परिसर में ही कई देवी-देवताओं के चित्र भी देखने को मिलते हैं। मंदिर परिसर में ही एक खोखली जगह है, जो देखने पर शिवलिंग जैसी प्रतीत होती है। नवरात्रि में यहां पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। नवरात्रि में यहां पर विशेष तौर पर माता की पूजा की जाती है। मंदिर के अंदर अखण्ड पाठ किये जाते हैं। सुबह के समय में सप्तचण्डी का पाठ किया जाता है। यात्री पहाडी सौन्दर्य का लुफ्त उठाते हुए चामुण्डा देवी तक पहुंच सकते हैं। इस मंदिर का वातावरण बड़ा ही शांत है, जिस कारण यहां आने वाला व्यक्ति असीम शांति की अनुभूती करता है। पर्यटक सड़क मार्ग, वायु मार्ग व रेल मार्ग से मंदिर तक पहुंच सकते हैं।
हिंदू धर्म में ज्योतिर्लिंग का विशेष स्थान है और इन्हें भगवान शिव के आदि-अनन्त रूप के प्रतीक के तौर पर पूजा जाता है।ज्योतिर्लिंग में स्वयं शिव का वास होता है। पुराणों के अनुसार इन 12 जगहों पर भगवान शिव स्वयं प्रकट हुए थे। इन ज्योतिर्लिंगों के दर्शन, पूजन, आराधना और नाम जपने मात्र से भक्तों के सभी पाप समाप्त हो जाते हैं। सोमनाथ ज्योतिर्लिंग गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में समुद किनारे स्थित है भगवान् सोमनाथ का मंदिर। चंद्रमा का एक नाम सोम भी है। मान्यता है कि चंद्रमा ने भगवान शिव को आराध्य मानकर पूजा की थी, इसलिए उसी के नाम पर इस ज्योतिर्लिंग का नाम सोमनाथ पड़ा। महादेव के करोड़ों भक्तों के लिए सोमनाथ का विशेष महत्व है।पौराणिक कथाओं के अनुसार इसी क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्णचन्द्र ने यदु वंश का संहार कराने के बाद अपनी नर लीला समाप्त कर ली थी। ‘जरा’ नामक व्याध (शिकारी) ने अपने बाणों से उनके चरणों (पैर) को भेद डाला था। मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग आंध्र प्रदेश में कृष्णा नदी के तट पर स्थित है मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग। इसके दर्शन से सात्विक मनोकामनाएं पूरी होती हैं और दैहिक, दैविक और भौतिक पाप नष्ट हो जाते हैं। इसे दक्षिण का कैलाश कहते हैं। महाभारत के अनुसार श्रीशैल पर्वत पर भगवान शिव का पूजन करने से अश्वमेध यज्ञ करने का फल प्राप्त होता है। मान्यता है कि इसके दर्शन मात्र से लोगों के सभी प्रकार के कष्ट दूर हो जाते हैं और अनन्त सुखों की प्राप्ति होती है। महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन, पूजन, आराधना से भक्तों के जन्म-जन्मांतर के सारे पाप समाप्त हो जाते हैं। वे भगवान शिव की कृपा के पात्र बनते हैं। यह परम पवित्र ज्योतिर्लिंग मध्य प्रदेश के उज्जैन नगर में है। इसे प्राचीन साहित्य में अवन्तिका पुरी के नाम से भी जाना जाता है। यहां भगवान महाकालेश्वर का भव्य ज्योतिर्लिंग विद्यमान है। ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग 12 ज्योतिर्लिंगों में से चतुर्थ ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर है। यह मध्य प्रदेश के शिवपुरी में स्थित है। यहाँ दो ज्योतिर्लिंगों की पूजा की जाती है, ओंकारेश्वर और अमलेश्वर। यही केवल एक ऐसा ज्योतिर्लिंग है जो नर्मदा के उत्तरी तट पर स्थित है। ऐसा कहा जाता है कि ये तट ॐ के आकार का है। यहाँ प्रतिदिन अहिल्याबाई होल्कर की तरफ से मिट्टी से निर्मित 18 शिवलिंग तैयार करके नर्मदा नदी में विसर्जित किये गए हैं। यह ज्योतिर्लिंग पंचमुखी है। मान्यता है कि भगवान शिव तीनों लोको का भ्रमण करके यहाँ विश्राम करते हैं। केदारनाथ ज्योतिर्लिंग भारत के उत्तराखंड राज्य में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ ही चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। श्री केदारनाथ को ‘केदारेश्वर’ भी कहा जाता है, जो केदार नामक शिखर पर विराजमान है। इस शिखर से पूर्व दिशा में अलकनन्दा नदी के किनारे भगवान श्री बद्री विशाल का मन्दिर है। जो कोई व्यक्ति बिना केदारनाथ भगवान का दर्शन किए यदि बद्रीनाथ क्षेत्र की यात्रा करता है, तो उसकी यात्रा निष्फल अर्थात व्यर्थ हो जाती है। भीमशंकर ज्योतिर्लिंग इस ज्योतिर्लिंग का नाम ‘भीमशंकर’ है, जो डाकिनी पर अवस्थित है। भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में भीमाशंकर का स्थान छठा है। यह ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 110 किमी दूर सहाद्रि नामक पर्वत पर स्थित है। भीमशंकर मंदिर बहुत ही प्राचीन है, लेकिन यहां के कुछ भाग का निर्माण नया भी है। इस मंदिर के शिखर का निर्माण कई प्रकार के पत्थरों से किया गया है। यह मंदिर मुख्यतः नागर शैली में बना हुआ है। मंदिर में कहीं-कहीं इंडो-आर्यन शैली भी देखी जा सकती है। विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग सप्तम ज्योतिर्लिंग काशी में विराजमान ‘विश्वनाथ’ को सप्तम ज्योतिर्लिंग कहा गया है। कहते हैं, काशी तीनों लोकों में न्यारी नगरी है, जो भगवान शिव के त्रिशूल पर विराजती है। इसे आनन्दवन, आनन्दकानन, अविमुक्त क्षेत्र तथा काशी आदि अनेक नामों से स्मरण किया गया है। काशी साक्षात सर्वतीर्थमयी, सर्वसन्तापहरिणी तथा मुक्तिदायिनी नगरी है। निराकर महेश्वर ही यहाँ भोलानाथ श्री विश्वनाथ के रूप में साक्षात अवस्थित हैं। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग अष्टम ज्योतिर्लिंग को ‘त्र्यम्बक’ के नाम से भी जाना जाता है। श्री त्रंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग तीन छोटे-छोटे लिंग ब्रह्मा, विष्णु और शिव प्रतीक स्वरूप, त्रि-नेत्रों वाले भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक है। मंदिर के अंदर गर्भगृह में प्रायः शिवलिंग दिखाई नहीं देता है, गौर से देखने पर अर्घा के अंदर एक-एक इंच के तीन लिंग दिखाई देते हैं। सुवह होने वाली पूजा के बाद इस अर्घा पर चाँदी का पंचमुखी मुकुट चढ़ा दिया जाता है। वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग नवम ज्योतिर्लिंग ‘वैद्यनाथ’ हैं। यह स्थान झारखण्ड प्रान्त के संथाल परगना में जसीडीह रेलवे स्टेशन के समीप में है। पुराणों में इस जगह को चिताभूमि कहा गया है। भगवान श्री वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का मन्दिर जिस स्थान पर अवस्थित है, उसे ‘वैद्यनाथधाम’ कहा जाता है। नागेश्वर ज्योतिर्लिंग नागेश नामक ज्योतिर्लिंग जो गुजरात के बड़ौदा क्षेत्र में गोमती द्वारका के समीप है। इस स्थान को दारूकावन भी कहा जाता है। मान्यता है कि सावन मास में इस प्राचीन नागेश्वर शिव मंदिर में स्थापित शिवलिंगों की एक साथ पूजा-अर्चना का विशेष महत्व है। मंदिर में इन अद्भुत शिवलिंगों के दर्शन व पूजन के लिए दूर-दूर से श्रद्घालु आते हैं। सावन में विशेष रूप से सोमवार को खासी भीड़ रहती है। मान्यता है कि भगवान शिव के निर्देशानुसार ही इस शिवलिंग का नाम ‘नागेश्वर ज्योतिर्लिंग’ पड़ा। रामेश्वर ज्योतिर्लिंग भारत के प्रमुख तीर्थों में से एक रामेश्वरम को भगवान श्रीराम ने शिवलिंग निर्माण के लिए चुना था। इसलिए इसका नाम रामेश्वर पड़ गया। रामेश्वरम को पुराणों में गंधमादन पर्वत कहा जाता है, यह बंगाल की खाड़ी एवं अरब के सागर के संगम स्थल पर स्थित है। रामेश्वरतीर्थ को ही सेतुबन्ध तीर्थ कहा जाता है। यह स्थान तमिलनाडु के रामनाथम जनपद में स्थित है। यहां समुद्र के किनारे भगवान रामेश्वरम का विशाल मन्दिर शोभित है। यह हिंदुओं के चार धामों में से एक धाम है। घृश्णेश्वर ज्योतिर्लिंग घृश्णेश्वर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र क्षेत्र के अन्तर्गत दौलताबाद से लगभग अठारह किलोमीटर दूर ‘बेरूलठ गांव के पास है। इस स्थान को ‘शिवालय’ भी कहा जाता है। घृश्णेश्वर को लोग घुश्मेश्वर और घृष्णेश्वर भी कहते हैं। घृश्णेश्वर से लगभग आठ किलोमीटर दूर दक्षिण में एक पहाड़ की चोटी पर दौलताबाद का क़िला मौजूद है।इस मंदिर का निर्माण अहिल्याबाई होल्कर द्वारा करवाया गया था। पशुपतिनाथ मंदिर नेपाल के हिन्दू मानते हैं कि उपरोक्त 12 ज्योतिर्लिंग धड़ हैं और काठमांडू में स्थित पशुपतिनाथ मंदिर इसका सर है।
काली माता मंदिर के नाम पर ही शहर का नाम कालका पड़ा हिमाचल के प्रवेश द्वार और हरियाणा के कालका में स्थित सिद्ध शक्तिपीठ काली माता मंदिर में भक्तों की अटूट आस्था है। देश के हर कोने से माँ काली के भक्त यहाँ आते है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, काली माता मंदिर के नाम पर ही शहर का नाम कालका पड़ा था। मान्यता है कि यहां मांगी गई हर मुराद पूरी होती है। वैसे तो श्री काली देवी का सर्वप्रसिद्ध शक्तिपीठ कलकत्ता में स्थित है, पर मान्यता है कि यहाँ पर भगवती सती के केश (बाल) गिरे थे। हालांकि इस स्थान की गणना 51 शक्तिपीठो में नहीं है लेकिन इस स्थान के बारे में मान्यता है कि भगवती देवी सती के केशो के कुछ अंश इस स्थान पर भी गिरे थे। कालिका माता मंदिर में माता के दर्शन एक पिण्डी के रूप में किए जाते है। देवताओं का दुख सुनकर माता ने किया था अपना स्वरूप विस्तार किंवदंति के अनुसार, सतयुग में महिषासुर, चंड-मुंड, शुंभ-निशुंभ और रक्तबीज आदि राक्षसों का उपद्रव बढ़ गया था, जिससे देवता भी डरकर कंदराओं में छिपे फिरते थे। एक दिन सभी देवताओं ने आदिशक्ति श्री जगदंबा मातेश्वरी की स्तुति की, जिससे प्रसन्न होकर माता एक बालक के रूप में प्रकट हुईं। देवताओं का दुख सुनकर माता ने अपने स्वरूप को विस्तृत किया, जिसके हजारों हाथ पैर थे। सभी देवाताओं ने आदिशक्ति को अपना एक-एक शस्त्र दिया। विष्णु ने चक्र, शिव ने त्रिशूल, ब्रह्मा ने कमंडल, इंद्र ने वज्र, शेषनाग ने शेषफांस, यमराज ने यमफांस आदि शस्त्र माता को अर्पण किए। इसके बाद माता जगदंबा रणभूमि में उतरीं और महिषासुर सहित अन्य दैत्यों का संहार करके कालका भूमि स्थल पर स्थित हुईं, जो कालांतर में कालका में काली माता के नाम से प्रसिद्ध हुई। एक दंत कथा के अनुसार बहुत प्राचीन काल में यहा राजा जयसिंह देव का राज्य था। राजा जयसिंह देव सिंह ने ही इस मंदिर में श्री कालिका देवी की एक प्रतिमा स्थापित की थी।एक बार नवरात्रो के अवसर पर भगवती जागरण हो रहा था। राजमहल की स्त्रियां इकट्ठे होकर कालिका जु का स्तवन गान कर रही थी। स्वयं भगवती भी एक दिव्य स्त्री का वेश धारण करके उन राज महल की स्त्रियो में सम्मिलित होकर कीर्तन करने लगी। कीर्तन की समाप्ति पर कामातुर राजा ने देवी का हाथ पकड़ लिया और विवाह का प्रस्ताव दिया। इससे कालिका देवी क्रोधित हो गई और उन्होंने राजा को श्राप दे दिया कि – जिस राज्य के अभिमान से तुझे यह अहसास हुआ है उस राज्य सहित तेरा भी सर्वनाश हो जाएगा। तभी कालिका माता मंदिर में सिंह गर्जन होने लगा। पर्वत जमीन में धसने लगे और श्री कालिका जी की मूर्ती भी पहाड़ में प्रवेश करने लगी। इसके बाद एक साधू के निवेदन पर मात शांत हुई और तब देवी की वह मूर्ती जो पहाड़ के अंदर प्रवेश कर रही थी पहाड़ के साथ वैसी ही अवस्था में रह गई। आज भी यहा देवी का केवल सिर दिखाई देता है। मात के श्राप के कारण नष्ट हो गया था राज्य देवी के श्राप के चलते शत्रुओं ने राजा देव सिंह पर हमला कर दिया और राजा अपने दोनों पुत्रों सहित मारा गया। कहा जाता हैं कि पूरा नगर कालिका देवी जी के श्राप के कारण नष्ट हो गया। इस स्थान पर बिल्कुल उजाड़ हो गया था। राज्य का कही नामोनिशान नहीं था। वर्तमान में स्थित कस्बे का निर्माण उसके कई सौ वर्षो उपरांत हुआ माना जाता है। श्यामा गाय करती थी माता की पिंडी का अभिषेक कालका मंदिर की स्थापना को लेकर एक धारणा ऐसी है कि भगवान कृष्ण के द्वापर युग में जब पांडव जुए में हार गए थे तो उन्हें 12 वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास हुआ। इसी दौरान पांडव विराटनगर में 12 वर्ष रहे। उस समय केवट राजा के राज्य में गाय की बहुत सेवा की जाती थी। वहीं एक श्यामा नामक गाय रोजाना अपने दूध से माता की पिंडी का अभिषेक करती थी। यह करिश्मा देख पांडव आश्चर्यचकित रह गए और पांडवों ने इसी स्थान पर माता के मंदिर मंदिर की स्थापना की।
पांडवों ने माता कुंती के साथ यहां पर की थी महाकाल की आराधना पालमपुर से 16 किमी की दूरी पर स्थित बैजनाथ मंदिर लाखों शिवभक्तों की आस्था का केंद्र है। द्वापर युग में पांडवों के अज्ञातवास ने दौरान इस मंदिर का निर्माण करवाया गया था। कहते हैं कि मंदिर बनवाने के बाद पांडवों ने माता कुंती के साथ यहां पर महाकाल की आराधना की थी। स्थानीय लोगों के अनुसार इस मंदिर का शेष निर्माण कार्य आहुक एवं मनुक नाम के दो व्यापारियों ने 1204 ई में पूर्ण किया था और तब से लेकर अब तक यह स्थान शिवधाम के नाम से उत्तरी भारत में प्रसिद्ध है। भगवान शिव ने रावण को दिए थे दो शिवलिंग बैजनाथ मंदिर में स्थापित शिवलिंग के स्थापना की कथा रावण से जुड़ी हुई है। पौराणिक कथाओं के अनुसार त्रेता युग में लंका के राजा रावण ने कैलाश पर्वत पर शिव की तपस्या की थी। कोई फल न मिलने पर उसने घोर तपस्या प्रारंभ की। अंत में उसने अपना एक-एक सिर काटकर हवन कुंड में आहुति देकर शिव को अर्पित करना शुरू किया। दसवां और अंतिम सिर कट जाने से पहले शिवजी ने प्रसन्न हो प्रकट होकर रावण का हाथ पकड़ लिया। उसके सभी सिरों को पुर्नस्थापित कर शिव ने रावण को वर मांगने को कहा। रावण ने कहा मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूँ। आप दो भागों में अपना स्वरूप दें और मुझे अत्यंत बलशाली बना दें। शिवजी ने तथास्तु कहा और लुप्त हो गए। लुप्त होने से पहले शिव ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिह्न रावण को देने से पहले कहा कि इन्हें ज़मीन पर न रखना। रावण दोनों शिवलिंग लेकर लंका को चला। रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र (बैजनाथ) में पहुँचने पर रावण को लघुशंका का अनुभव हुआ। उसने 'बैजु' नाम के एक ग्वाले को सब बात समझाकर शिवलिंग पकड़ा दिए और शंका निवारण के लिए चला गया। शिवजी की माया के कारण बैजु उन शिवलिंगों के भार को अधिक देर तक न सह सका और उन्हें धरती पर रखकर अपने पशु चराने चला गया। इस तरह दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए। जिस मंजूषा में रावण ने दोनों शिवलिंग रखे थे, उस मंजूषा के सामने जो शिवलिंग था, वह चन्द्रभाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो पीठ की ओर था, वह बैजनाथ के नाम से जाना गया। सप्तऋषियों ने स्थापित किए थे सात कुंड मान्यता यह भी है कि सप्तऋषि जब इस क्षेत्र के प्रवास पर थे, तब सात कुंडों की स्थापना की गई थी। इनमें से चार कुंड- ब्रह्म कुंड, विष्णु कुंड, शिव कुंड और सती कुंड आज भी मंदिर में मौजूद हैं। तीन कुंड- लक्ष्मी कुंड, कुंती कुंड और सूर्य कुंड मंदिर परिसर के बाहर हैं। जाने बैजनाथ मंदिर के बारे में यह प्रसिद्ध शिव मंदिर पालमपुर के चामुंडा देवी मंदिर से 22 किमी की दूरी पर स्थित है। यहां शिवलिंग पर चढ़ने वाला पानी या दूध कहीं भी बाहर निकलता नजर नहीं आता। इस मंदिर को अघोरी साधकों और तंत्र विद्या का केंद्र माना जाता है। इसका पुराना नाम कीरग्राम था, परन्तु समय के साथ यह मंदिर के नाम से प्रसिद्ध होता गया और ग्राम का नाम बैजनाथ पड़ गया। मंदिर के प्रांगण में कुछ छोटे मंदिर हैं और नंदी बैल की मूर्ति है। नंदी के कान में भक्तगण अपनी मन्नत मांगते है। पूरा मंदिर एक ऊंची दीवार से घिरा है और दक्षिण और उत्तर में प्रवेश द्वार हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों में मूर्तियों, झरोखों में कई देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं। मकर संक्रांति, महाशिवरात्रि, वैशाख संक्रांति, श्रावण सोमवार आदि पर्व भारी उत्साह और भव्यता के साथ मनाऐ जाते हैं। श्रद्धालु रेलमार्ग,हवाई सेवा, बस या निजी वाहन व टैक्सी से मंदिर तक पहुंच सकते हैं।
बगलामुखी मंदिर महाभारत कालीन माना जाता है हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं व ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रहा है। कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बे में स्थित माँ श्री बगलामुखी का सिद्ध शक्तिपीठ है। वर्ष भर यहाँ श्रद्धालु मन्नत माँगने व मनोरथ पूर्ण होने पर आते हैं। माँ बगलामुखी का मंदिर ज्वालामुखी से 22 किलोमीटर दूर वनखंडी नामक स्थान पर स्थित है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। बगलामुखी मंदिर महाभारत कालीन माना जाता है। पांडुलिपियों में माँ के जिस स्वरूप का वर्णन है, माँ उसी स्वरूप में यहाँ विराजमान हैं। माता बगलामुखी पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले रंग के पुष्पों की ही माला धारण करती हैं। बगलामुखी जयंती पर यहाँ मेले का आयोजन भी किया जाता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी। सर्वप्रथम अर्जुन एवं भीम द्वारा युद्ध में शक्ति प्राप्त करने तथा माता बगलामुखी की कृपा पाने के लिए विशेष पूजा की गई थी। इसके अतिरिक्त द्रोणाचार्य, रावण, मेघनाद इत्यादि सभी महायोद्धाओं द्वारा माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्ध लड़े गए। कहा जाता है कि नगरकोट के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे, जिनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी। तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ। लोगों का अटूट विश्वास है कि माता अपने दरबार से किसी को निराश नहीं भेजती हैं। रावण की ईष्टदेवी हैं मां बगलामुखी मंदिर के पुजारी दिनेश बताते हैं कि मां बगलामुखी को नौ देवियों में 8वां स्थान प्राप्त है। मां की उत्पत्ति ब्रह्मा द्वारा आराधना करने की बाद हुई थी। ऐसी मान्यता है कि एक राक्षस ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि उसे जल में कोई मनुष्य या देवता न मार सके। इसके बाद वह ब्रह्मा जी की पुस्तिका ले कर भाग रहा था। तभी ब्रह्मा ने मां भगवती का जाप किया। मां बगलामुखी ने राक्षस का पीछा किया तो राक्षस पानी में छिप गया। इसके बाद माता ने बगुले का रूप धारण किया और जल के अंदर ही राक्षस का वध कर दिया। त्रेतायुग में मा बगलामुखी को रावण की ईष्ट देवी के रूप में भी पूजा जाता है। त्रेतायुग में रावण ने विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए मां की पूजा की। इसके अलावा भगवान राम ने भी रावण पर विजय प्राप्ति के लिए मां बगलामुखी की आराधना की। इसलिए विशेष है माँ बगलामुखी मंदिर... बगलामुखी शब्द बगल और मुख से आया है, जिनका मतलब क्रमशः लगाम और चेहरा है। मां को शत्रुनाशिनी माना जाता है। पीला रंग मां प्रिय रंग है। मंदिर की हर चीज पीले रंग की है। यहां तक कि प्रसाद भी पीले रंग ही चढ़ाया जाता है। मंदिर में बस या टैक्सी द्वारा पहुंचा जा सकता है। इस मंदिर में दूर-दूर से लोग आते हैं। यहां तक की नेताओं से लेकर अभिनेता भी मां के दर्शन पाकर,शुत्रओं के नाश की कामना करने मंदिर आते हैं। राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने भी मां के दरबार में शीश झुकाया था। मंदिर के साथ प्राचीन शिवालय में आदमकद शिवलिंग स्थापित है, जहाँ लोग माता के दर्शन के उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक करते हैं। कांगड़ा के बगलामुखी मंदिर में देशभर से श्रद्धालु आते हैं। बगलामुखी जयंती पर मंदिर में हवन करवाने का विशेष महत्व है, जिससे कष्टों का निवारण होने के साथ-साथ शत्रु भय से भी मुक्ति मिलती है। श्रद्धालु नवग्रह शांति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति सर्व कष्टों के निवारण के लिए मंदिर में हवन-पाठ करवाते हैं। मंदिर में हवन करवाने के लिए बाकायदा बुकिंग करवानी पड़ती है। पहले यहां एक ही हवन कुंड था तो आलम यह था कि कई महीने हवन करवाने के लिए इंतजार करना पड़ता था, लेकिन अब यहां हवन कुंडों की संख्या बड़ा दी गई है। माँ बगलामुखी के हैं तीन मंदिर भारत में मां बगलामुखी के तीन ही प्रमुख ऐतिहासिक मंदिर हैं, जो क्रमशः दतिया (मध्यप्रदेश), कांगड़ा (हिमाचल) तथा नलखेड़ा (मध्यप्रदेश) में हैं। तीन मुखों वाली त्रिशक्ति माता बगलामुखी का एक मंदिर आगरमालवा जिला में नलखेड़ा में लखुंदर नदी के किनारे है। मां बगलामुखी रावण की ईष्टदेवी हैं।
हिमाचल प्रदेश के पूर्व सीएम वीरभद्र सिंह की है कुलदेवी भीमाकली मंदिर लाखों भक्तों की आस्था का केंद्र हैं। देवी भीमाकली को समर्पित ये मंदिर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से 180 किलोमीटर दूर सराहन में व्यास नदी के तट पर स्थित है। भीमाकाली मन्दिर, 51 शक्तिपीठों में से एक है। यह देवी तत्कालीन बुशहर राजवंश की कुलदेवी है जिसका पुराणों में उल्लेख मिलता है। माना जाता है कि यह मंदिर लगभग 800 साल पहले बनाया गया है। यह अपनी अनूठी वास्तुकला, जो हिंदू और बौद्ध स्थापत्य शैली का एक मिश्रण है, के लिए जाना जाता है। मंदिर परिसर के भीतर एक नया मंदिर 1943 में बनाया गया था। मंदिर में देवी भीमाकली की एक मूर्ति को एक कुंवारी और एक औरत के रूप में चित्रित किया गया है। मंदिर परिसर में रघुनाथ और भैरों के नरसिंह तीर्थ को समर्पित दो मंदिर और हैं। हर साल यहां बड़े स्तर पर काली की पूजा की जाती है जिसमें लाखों लोग भाग लेते है। पौराणिक कथा महल में स्थापित भीमाकाली मन्दिर के साथ अनेक पौराणिक कथाएं जुडी हैं जिनके अनुसार आदिकाल मन्दिर के स्वरूप का वर्णन करना कठिन है। भीमाकाली शिवजी की अनेक मानस पुत्रियों में से एक है। मत्स्य पुराण में भीमा नाम की एक मूर्ति का उल्लेख आता है। एक अन्य प्रसंग है कि मां पार्वती जब अपने पिता दक्ष के यज्ञ में सती हो गई थीं तो भगवान शिव ने उन्हें अपने कंधे पर उठा लिया था। हिमालय में जाते हुए कई स्थानों पर देवी के अलग-अलग अंग गिरे। एक अंग कान शोणितपुर में गिरा और भीमाकाली प्रकट हुई। मन्दिर के ब्राह्मणों के अनुसार पुराणों में वर्णन है कि कालांतर में देवी ने भीम रूप धारण करके राक्षसों का संहार किया और भीमाकाली कहलाई। भीमाकली मंदिर भारत में सबसे महत्वपूर्ण पवित्र स्थलों में से एक माना जाता है। यह मंदिर बेहद सुंदर है जहां कई भगवानों की मूर्ति को प्रर्दशित किया गया है। यह पवित्र मन्दिर लगभग सभी ओर से सेबों के बागों से घिरा हुआ है भीमाकाली मन्दिर हिंदु और बौद्ध शैली में बना है जिसे लड़की और पत्थर की सहायता से तैयार किया गया है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार हिंदू देवता शिव की पत्नी सती, वैवाहिक जीवन के परम सुख और दीर्घायु की देवी, का बायाँ कान इस जगह गिर गया था। यहाँ हर साल लोकप्रिय हिंदू त्योहार दशहरा के समारोह को धूमधाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति, रामनवमी, जन्माष्टमी, शिवरात्रि आदि त्यौहार भी बडे हर्षोल्लास व श्रद्धा से मनाये जाते हैं। मंदिर तक पहुंचने के लिए स्थानीय बस सेवा और टैक्सियां उपलब्ध है मन्दिर परिसर में बने साफ-सुथरे कमरों में ठहरने की व्यवस्था है। इस भीमाकाली मंदिर के कपाट केवल सुबह और शाम ही दर्शनों के लिए खुलते हैं। मंदिर कई मंजिला है और सबसे उपर माता का विग्रह स्थापित है । मंदिर में प्रवेश से पहले सिर पर टोपी अवश्य पहननी होती है। मंदिर में अपने साथ कुछ भी सामान नहीं ले जा सकते हैं ।
श्री नैना देवी मंदिर महिशपीठ नाम से भी है प्रसिद्ध हिमाचल प्रदेश के जिला बिलासपुर में मां नैना देवी का भव्य और सुन्दर मंदिर स्थित है। श्री नैना देवी मंदिर महिशपीठ नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि पौराणिक कथाओं के अनुसार यहाँ पर माँ ने महिषासुर का वध किया था। किंवदंतियों के अनुसार, महिषासुर एक शक्तिशाली राक्षस था जिसे श्री ब्रह्मा द्वारा अमरता का वरदान प्राप्त था, लेकिन उस पर शर्त यह थी कि वह एक अविवाहित महिला द्वारा ही परास्त हो सकता था। इस वरदान के कारण, महिषासुर ने पृथ्वी और देवताओं पर आतंक मचाना शुरू कर दिया। राक्षस के साथ सामना करने के लिए सभी देवताओं ने अपनी शक्तियों को संयुक्त किया और एक देवी को बनाया जो उसे हरा सके। देवी को सभी देवताओं द्वारा अलग अलग प्रकार के हथियारों की भेंट प्राप्त हुई। महिषासुर देवी की असीम सुंदरता से मंत्रमुग्ध हो गया और उसने शादी का प्रस्ताव देवी के समक्ष रखा। देवी ने उसे कहा कि अगर वह उसे हरा देगा तो वह उससे शादी कर लेगी। पर लड़ाई के दौरान देवी ने दानव को परास्त कर उसका वध किया। यहाँ गिरे थे माता सती के नयन : नैना देवी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों मे से एक है। पूरे भारतवर्ष मे कुल 51 शक्तिपीठ है, जिनमें से एक नैना देवी हैं। इन सभी शक्ति पीठों की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधो के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमें उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नही किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गई। यज्ञ स्थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गयीं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। इस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। मान्यता है कि नैना देवी में माता सती के नयन गिरे थे। ये कथा भी हैं प्रचलित: मंदिर से संबंधित एक अन्य कहानी नैना नाम के गुज्जर लड़के की है। एक बार वह अपने मवेशियों को चराने गया और देखा कि एक सफेद गाय अपने थनों से एक पत्थर पर दूध बरसा रही है।इसके पश्चात एक रात जब वह सो रहा था, उसने देवी माँ को सपने मे यह कहते हुए देखा कि वह पत्थर उनकी पिंडी है। नैना ने पूरी स्थिति और उसके सपने के बारे में राजा बीर चंद को बताया। इसके बाद उसी स्थान पर श्री नयना देवी नाम के मंदिर का निर्माण करवाया गया। गुरु गोबिंद सिंह ने लिया था आशीर्वाद : मंदिर से जुडी एक और कहानी सिख गुरु गोबिंद सिंह जी के साथ जुडी हुई है।जब उन्होंने मुगलों के खिलाफ अपनी सैन्य अभियान 1756 में छेड़ दिया, वह श्री नैना देवी गये और देवी का आशीर्वाद लेने के लिए एक महायज्ञ किया। आशीर्वाद मिलने के बाद, उन्होंने सफलतापूर्वक मुगलों को हरा दिया। जाने नैना देवी मंदिर के बारे में: नैना देवी 51 शक्तिपीठों में से एक है. मान्यता है कि यहीं सती की आंखें गिरी थीं। यह माँ शक्ति का एक सिद्ध पीठ है जो शिवालिक पर्वत श्रेणी की पहाड़ियो पर समुद्र तल से 11000 मीटर की ऊंचाई पर है। नैना देवी हिंदूओं के पवित्र तीर्थ स्थलों में से एक है। यह स्थान NH-21 से जुड़ा हुआ है। श्रावण अष्टमी, चैत्र नवरात्र और आश्विन नवरात्र के दौरान यहां श्रद्धालुओं की अपार भीड़ जुटती है। मंदिर में एक पीपल का पेड़ भी भक्तिभाव से पूजा जाता है। यह भी कई शताब्दी पुराना है। मंदिर राष्ट्रीय राजमार्ग नंबर 21 पर स्थित है। यहां से नजदीकी हवाई अड्डा चंडीगढ़ है। आनंदपुर साहिब और कीरतपुर साहिब से यहां के लिए टैक्सियां किराए पर मिल जाती हैं। मंदिर के मुख्य द्वार के दाईं ओर भगवान गणेश और हनुमान की प्रतिमा है। मंदिर के गर्भगृह में तीन मुख्य मूर्तियां हैं। दाईं ओर माता काली, बीच में नैना देवी और बाईं ओर भगवान गणेश विराजमान हैं। बेस कैंप से चोटी के मंदिर तक की दूरी डेढ़ घंटे में आराम से पूरी की जा सकती है। त्योहारों और मेलों के दौरान भवन से वापस आने और जाने के लिए अलग-अलग रास्ते बनाए गए हैं, ताकि दर्शन सुविधाजनक तरीके से किया जा सके।
शिमला से लगभग 110 कि.मी. दूर, शिमला-रोहड़ू मार्ग पर पब्बर नदी के दाहिने किनारे धान के खेतों के बीच स्थित माता हाटकोटी का मंदिर लाखों भक्तों केलिए आस्था का केंद्र हैं। मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमें मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है। इतनी विशाल प्रतिमा हिमाचल में ही नहीं बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती। मात की ये प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। लोकगाथा के अनुसार एक लोकगाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं। उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। एक बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है,उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा। राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय ले लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा। इसलिए विशेष हैं मंदिर यह मंदिर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर स्थित है। कहा जाता है मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी, जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। यह स्थान हाटकोटी के नाम से भी प्रसिद्ध है। माता हाटेश्वरी का मूल स्थान ऊपर पहाड़ों में घने जंगल के मध्य खरशाली नामक जगह पर है। मन्दिर के बिल्कुल बांयी ओर बड़े-छोटे पत्थरों को तराश कर, छोटे-छोटे पांच कलात्मक मन्दिर बनाए गये है। इन मंदिरों का निर्माण पाण्डवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया है । यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं। मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाई ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है। इनमें यज्ञ के दौरान ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है। यह मंदिर शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मंदिर में महिषासुर र्मदिनी की दो मीटर ऊंची कांस्य की प्रतिमा है। इसके साथ ही शिव मंदिर है। मंदिर द्वार को कलात्मक पत्थरों से सुसज्जित किया गया है। छत लकड़ी से र्निमित है, जिस पर देवी देवताओं की अनुकृतियों बनाई गई हैं। मंदिर लकड़ी और पत्थर से निर्मित कलात्मक शिल्पकारी का अद्भुत नमूना है l मंदिर के गर्भगृह में लक्ष्मी, विष्णु, दुर्गा, गणेश आदि की प्रतिमाएं हैं। इसके अतिरिक्त यहां मंदिर के प्रांगण में देवताओं की छोटी-छोटी मूर्तियां हैं।बताया जाता है कि इनका निर्माण पांडवों ने करवाया था। मंदिर की ओर जाती सड़क के दोनों ओर सेब के बगीचे है, और खूब घने देवदार के जंगल हैंl मंदिर को नवरात्रों के दौरान खूब सजाया जाता है।नवरात्रों में यहाँ विशेष पूजा का आयोजन होता हैं ।
भगवान शिव को प्रिय सावन माह शुरू हो गया है। इस बार सावन में चार सोमवार पड़ रहे हैं। आज , 22 जुलाई को पहला सोमवार है। पौराणिक मान्यता के अनुसार सावन के महीने में शिवलिंग का पूजन-अभिषेक करने से सभी देवी-देवताओं के अभिषेक का फल उसी क्षण प्राप्त हो जाता है। सावन के महिने में की जाने वाली पूजा एक तरह की प्रकृति की ही पूजा मानी जाती है, क्योंकि भगवान भोलेनाथ को प्रकृति का रूप कहा गया है। इसी कारण यह महिना काफी श्रेष्ठ फल देने वाला महिना कहा जाता है। जिसमें लोग भगवान को अपनी श्रृद्धा भक्ति के भाव को समर्पित करने के लिए व्रत रखते हैं। इस बार सावन मास में कुल चार सोमवार पड़ेंगे:- 22 जुलाई, 2019 — पहला सावन सोमवार व्रत 29 जुलाई, 2019 — दूसरा सावन सोमवार व्रत 05 अगस्त, 2019 — तीसरा सावन सोमवार व्रत 12 अगस्त, 2019 — चौथा सावन सोमवार व्रत मंगला गौरी का भी रखा जाता है व्रत:- सावन माह में भोले बाबा की उपासना करने पर भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती हैं। बहुत से लोग सावन के पहले सोमवार से ही 16 सोमवार व्रत की शुरुआत करते हैं। सावन की एक बात और खास है कि इस महीने में मंगलवार का व्रत भगवान शिव की पत्नी देवी पार्वती के लिए किया जाता है। श्रावण के महीने में किए जाने वाले मंगलवार व्रत को मंगला गौरी व्रत कहा जाता है। ऐसे करें पूजा :- सोमवार को सुबह स्नान करके एक तांबे के लोटे में अक्षत, दूध, पुष्प, बिल्व पत्र आदि डालें। इसके बाद शिव मंदिर जाएं और वहां शिवलिंग का अभिषेक करें। इस दौरान ‘ऊं नम: शिवाय’ मंत्र का जाप करें। संभव हो, तो मंदिर परिसर में ही शिव चालीसा और रुद्राष्टक का पाठ करें। शिव पूजन में बेलपत्र प्रयोग करना जरूरी:- भगवान शिव की पूजा के समय बेलपत्र का होना सबसे जरूरी माना जाता है। इसका प्रयोग करने से तो भगवान अपने भक्त की मनोकामना बिना कहे ही पूरी कर देते है। बेलपत्र के बारे में कहा जाता है कि बेल के पेड को जो इंसान पानी या गंगाजल से सींचता है, वह समस्त लोकों का सुख भोगकर, शिवलोक में प्रस्थान करता है। ये भी हैं लाभ :- अगर कुंडली में आयु या स्वास्थ्य बाधा हो या मानसिक स्थितियों की समस्या हो तब भी सावन के सोमवार का व्रत श्रेष्ठ परिणाम देता है - सोमवार व्रत का संकल्प सावन में लेना सबसे उत्तम होता है , इसके अलावा इसको अन्य महीनों में भी किया जा सकता है-इसमें मुख्य रूप से शिव लिंग की पूजा होती है और उस पर जल तथा बेल पत्र अर्पित किया जाता है।
देश-विदेश से लाखों लोग पहुँचते हैं दर्शन करने लाखों लोगों की आस्था का केंद्र बाबा बालक नाथ जी का मंदिर हमीरपुर जिले चकमोह गाँव के शिखर पर स्थित है। मंदिर में पहाड़ी के बीच एक प्राकॄतिक गुफा है। ऐसी मान्यता है,कि यही स्थान बाबा बालक नाथ का आवास स्थान था। मंदिर में बाबा बालक नाथ की एक मूर्ति भी स्थित है। भक्तगण बाबाजी की वेदी में “ रोट” चढाते हैं, जिसे आटे और चीनी/गुड को घी में मिलाकर बनाया जाता है। यहाँ पर बाबाजी को बकरा भी चढ़ाया जाता है, जो कि उनके प्रेम का प्रतीक है। आप सोच रहे होंगे कि यहाँ पर बकरे की बलि चढ़ाई जाती हैं, पर ऐसा नहीं हैं। बाबा बालक नाथ मंदिर में बकरों का पालन पोषण करा जाता है। मंदिर से करीब छहः किलोमीटर आगे एक स्थान “शाहतलाई” स्थित है। ऐसी मान्यता है, कि इसी जगह बाबाजी ध्यान किया करते थे।बाबा बालक नाथ मंदिर बिलासपुर से 55 किलोमीटर और हमीरपुर से 46 किलोमीटर की दुरी पर है। महिलाएं नहीं जाती मंदिर में:- बाबा बालक नाथ की गुफा के भीतर महिलाएं नहीं जाती है, लेकिन महिलाओं के दर्शन के लिए गुफा के बिलकुल सामने एक ऊँचा चबूतरा बनाया गया है, जहाँ से महिलाएँ उनके दूर से दर्शन कर सकती हैं। बाबा बालक नाथ ने सारी उम्र ब्रह्मचर्य का पालन किया और इसी बात को ध्यान में रखते हुए उनकी महिला भक्त गर्भगुफा में प्रवेश नहीं करती जो कि प्राकृतिक गुफा में स्थित है जहाँ पर बाबाजी तपस्या करते हुए अंतर्ध्यान हो गए थे।हालांकि कुछ समय पूर्व एक महिला ने अपनी पुत्रियों के साथ मंदिर में जाकर ये परंपरा तोड़ दी थी, किन्तु इसके अतिरिक्त कोई भी महिला मंदिर के भीतर नहीं जाती। सभी युगों में हुआ जन्म:- मान्यता है, कि बाबा बालक नाथ का जन्म सभी युगों में हुआ हैं। सत्य युग,त्रेता युग,द्वापर युग और वर्तमान में कल युग और हर एक युग में उनको अलग-अलग नाम से जाना गया जैसे सत युग में स्कन्द , त्रेता युग में कौल और द्वापर युग में बाबा महाकौल के नाम से जाने गये। अपने हर अवतार में उन्होंने गरीबों एवं निस्सहायों की सहायता करके उनके दुख दर्द और तकलीफों का नाश किया। हर एक जन्म में यह शिव के बड़े भक्त कहलाए। कलयुग में गुजरात के काठियाबाद में लिए जन्म:- कहा जाता हैं कलयुग में बाबा बालकनाथ ने गुजरात के काठियाबाद में देव के नाम से जन्म लिया। उनकी माता का नाम लक्ष्मी और पिता का नाम वैष्णो वैश था। बचपन से ही बाबाजी आध्यात्म में लीन रहते थे। यह देखकर उनके माता पिता ने उनका विवाह करने का निश्चय किया, परन्तु बाबाजी उनके प्रस्ताव को अस्विकार करके और घर परिवार को छोड़ कर परम सिद्धी की राह पर निकल पड़े। इसी दौरान एक दिन जूनागढ़ की गिरनार पहाडी में उनका सामना स्वामी दत्तात्रेय से हुआ और यहीं पर बाबाजी ने स्वामी दत्तात्रेय से सिद्ध की बुनियादी शिक्षा ग्रहण करी और सिद्ध बने। तभी से उन्हें बाबा बालकनाथ कहा जाने लगा। इसलिए पड़ा बाबा बालक नाथ नाम:- पौराणिक कथा के अनुसार रत्नो नामका एक महिला ने बाबा बालक नाथ को अपनी गायों की रखवाली के लिए रखा था। इसके बदले में रत्नो बाबाजी को रोटी और लस्सी खाने को देती थी। ऐसी मान्यता है कि बाबा अपनी तपस्या में इतने लीन रहते थे कि रत्नो द्वारा दी गयी रोटी और लस्सी खाना याद ही नहीं रहता था। एक बार जब रत्नो बाबाजी की आलोचना कर रही थी कि वह गायों का ठीक से ख्याल नहीं रखते जबकि रत्नो बाबाजी के खाने पीने का खूब ध्यान रखतीं हैं। रत्नो का इतना ही कहना था कि बाबाजी ने पेड़ के तने से रोटी और ज़मीन से लस्सी को उत्त्पन्न कर दिया। बाबा के चमत्कार से गाँव के लोग भी उसे अब साधारण बालक नहीं समझते थे। एक दिन इसी गाँव के तालाब के पास जब वह बालक बैठा था तो कुछ साधू वहां से गुजरे। उसमे एक महात्मा सिद्ध था। उस बालक और उस महात्मा में काफी समय धर्म के सन्दर्भ में बहस हुई। इस पर महात्मा ने उस बालक की गहराई को जानने के लिए अपनी गुटकी हवा में उछाल दी और बालक को उसे वापिस लाने को कहा। बालक ने तत्काल उसे वापिस बुला दिया, जबकि वह महात्मा उसे वापिस लाने में असमर्थ रहा। इसके बाद वे दोनों उस तालाब में लुप्त हो गये। लोगों ने जब सुना कि बालक एक साधू के साथ तालाब में डूब गया तो उन्होंने उसे बहुत तालाश किया लेकिन वह नही मिला। एक दिन गाँव में लगभग 3 किलोमीटर दूर एक पहाड़ी पर कुछ लोगों ने उन दोनों को एक साथ देखा। यहाँ एक गुफा थी। पहले तो लोगों को विश्वास नही हुआ लेकिन अब रात्री में कई बार उस गुफा में ज्योति भी दिखने लगी। लोग यहाँ एकत्रित हो गये। इसी के बाद लोगों ने उस बालक को इश्वर का अवतार मान कर इसे गुफा में पूजना आरंभ कर दिया और इस स्थान का नाम बाबा बालक नाथ पड़ गया। लोगों ने उसे साधारण बालक नहीं समझा था इसलिए बाबा शब्द प्रयुक्त हुआ जिस से वह बाबा बालक बन गया। वह महत्मा जिस के साथ वह अदृश्य हुए थे, उसके लिए नाथ शब्द का प्रयोग किया गया। इस से यह स्थान बाबा बालक नाथ के नाम से प्रसिद्ध हो गया ।
देवधरा हिमाचल प्रदेश के कने-कोने में देवता विराजमान है। हिमाचल प्रदेश के हर हिस्से में अलग-अलग धार्मिक स्थल व मंदिर स्थित हैं। हर मंदिर का अपना एक रहस्य है और हर मंदिर के साथ जुडी है लोगों की अटूट आस्था और विश्वास। पर आपको यह जानकर हैरानी होगी कि हिमाचल प्रदेश में एक ऐसा ज़िला हैं जहां लोग राक्षसी की पूजा करते हैं। जी हाँ आज की इस पोस्ट के माध्यम से हम आपको हिडिम्बा देवी मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। हिडिम्बा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के ज़िला मनाली में स्थित है। इसे ढुंगरी मंदिर (Dhungiri Temple) के नाम से भी जाना जाता है। हिडिम्बा देवी मंदिर में हिडिम्बा देवी के पदचिह्नों की पूजा की जाती है।इस मन्दिर का निर्माण 1553 ईस्वी में महाराज बहादुर सिंह ने कराया था। पौराणिक कथाओं के अनुसार हिडिम्बा एक राक्षसी थी जो अपने भाई हिडिम्ब के साथ इस क्षेत्र में रहती थी। उसने कसम खाई थी कि जो कोई उसके भाई हिडिम्ब को लड़ाई में हरा देगा, वह उसी के साथ अपना विवाह करेगी। उस दौरान जब पांडव वनवास काट रहे थे, तब पांडवों के दूसरे भाई भीम ने हिडिम्ब की यातनाओं और अत्याचारों से ग्रामीणों को बचाने के लिए उसे मार डाला और इस तरह महाबली भीम के साथ हिडिम्बा का विवाह हो गया। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र घटोत्कच हुआ, जो कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों के लिए लड़ते हुए मारा गया था। कहा जाता है कि भीम ने हिडिम्ब को मनाली के इसी स्थान पर मारा था। देवी हिडिम्बा को समर्पित यह मंदिर हडिम्बा मंदिर के नाम से जाना जाता है। विशेषताएं:- हिडिम्बा मंदिर पांडवों के दूसरे भाई भीम की पत्नी हिडिम्बा को समर्पित है। मंदिर लगभग 500 साल पुराना है। कुल्लू राजघराने के ही राजा बहादुर सिंह ने हिडिम्बा देवी की मूर्ति के पास मंदिर बनवाया था। मंदिर की दीवारों पर सैकड़ों जानवरों के सींग लटके हुए हैं। हिडिम्बा देवी मंदिर 40 मीटर ऊंचे शंकु के आकार का है और मंदिर की दीवारें पत्थरों की बनी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली (Pagoda Style) में कराया गया है यह मंदिर लकड़ी से बनाया गया है और इसमें चार छतें हैं। मंदिर में देवी की मूर्ति नहीं है लेकिन उनके पदचिन्ह पर एक विशाल पत्थर रखा हुआ है, जिसे देवी का विग्रह रूप मानकर पूजा की जाती है। कहा जाता है कि राजा ने इस मंदिर को बनवाने के बाद मंदिर बनाने वाले कारीगरों के सीधे हाथों को काट दिया ताकि वह कहीं और ऐसा मंदिर न बना सकें। हिडिम्बा देवी के जन्मदिन के मौके पर ढूंगरी मेले का आयोजन किया जाता है। लोक कथाओं के अनुसार, हिडिम्बा एक राक्षसी थी, जिसके भाई हिडम्ब का राज मनाली के आसपास के पूरे इलाके में था। हिडिम्बा ने महाभारत काल में पांचों पांडवों में सबसे बलशाली भीम से शादी की थी। इस मंदिर तक पहुंचने के लिए तीनों मार्ग यानी हवाई, ट्रेन और सड़क माध्यमों से मनाली आने की सुविधा उपलब्ध है। मंदिर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर देवी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित एक मंदिर है। यह मंदिर पूरे हफ्ते खुला रहता है और किसी भी दिन बंद नहीं होता है। हिडिम्बा देवी मंदिर में प्रवेश के लिए किसी तरह की फीस नहीं लगती है। मंदिर सुबह आठ बजे खुलता है और शाम को छह बजे तक बंद हो जाता है। हर साल श्रावण के महीने में राजा बहादुर सिंह की याद में एक उत्सव मनाया जाता हैै। स्थानीय लोगों ने इस मेले का नाम रखा है- बहादुर सिंह रे जातर दिया हैै। मंदिर में दशहरा महोत्सव का आयोजन होता है जिसमें दर्शन के लिए भक्तों की लंबी लाइन लगती है। श्रावण मास में धान की रोपाई पूरा होने के बाद सरोहनी मेले का आयोजन किया जाता हैै। सर्दियो में यहां काफी बर्फबारी होती है। मन्दिर सुबह आठ बजे से शाम छह बजे तक खुला रहता है।
भारत एक धार्मिक देश है और यहां पर ऐसे मंदिर हैं जहां जो भी चढ़ावा आता है उसे तिजोरियों में बंद करके रखा जाता है। पर क्या आपने ऐसा मंदिर देखा है जहां अरबों का चढ़ावा सामने खुले में ही पड़ा रहता है। इसेआप अपनी आँखों से देख तो सकते हैं मगर उसे छू नहीं सकते।जी हाँ ये वो खजाना है जिसे सरकार तक नहीं छू पाई। आज हम बात कर रहे हैं एक ऐसे ही रहस्मयी मंदिर की, जो हज़ारों भक्तों की आस्था और विश्वास का प्रतीक है। हिमाचल प्रदेश के मंडी से लगभग 68 किलोमीटर दूर रोहांडा में स्थित है कमरुनाग मंदिर। यह मंदिर कमरूनाग देवता को समर्पित है। मंदिर के पास ही एक झील है, जिसे कमरुनाग झील के नाम से जाना जाता है। इसी झील में अरबों का खजाना दबा पड़ा है। दरअसल मान्यता है कि भक्त अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए इस झील में सोने-चांदी के गहने और पैसे चढ़ाते हैं।भक्त अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए ऐसा करते हैं और ऐसा हजारों साल पहले से ही होता आ रहा है। इसलिए झील पर आप अरबों - खरबों के खजाने की चमक दूर से ही देख सकते हैं। झील के खजाने पर लोगों की बुरी नज़र नहीं रहती क्योंकि इसकी रक्षा नाग करता है। एक मान्यता ये भी है कि इस पूरे पहाड़ पर और इस झील के आस-पास नाग रूपी छोटे-छोटे पौधे लगे हुए हैं, जो कि दिन ढलते ही इच्छाधारी नाग के रूप में आ जाते हैं। अगर कोई भी इस झील में इस खजाने को हाथ लगाने की कोशिश करता है, तो यही इच्छाधारी नाग इस खजाने की रक्षा करते हैं। ये हैं इतिहास:- पौराणिक कथा के अनुसार इस मंदिर का इतिहास महाभारत से जुड़ा हुआ है। दरअसल महाभारत के सबसे महान योद्धा ‘बर्बरीक’ जब युद्ध में लड़ने के लिए आए तो भगवान श्री कृष्ण जान चुके थे कि वह सिर्फ कमज़ोर पक्ष की तरफ से ही लड़ेंगे, तो रास्ते में भगवान श्रीकृष्ण ने ब्राह्मण का भेष बनाकर उन्हें रोक लिया। उन्हें मालूम था कि बर्बरीक अगर कौरवों की तरफ से लड़े तो पांडवों की हार तय है। भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी धनुष विद्या की परीक्षा ली। इस दौरान बर्बरीक ने एक ही तीर से पीपल के सारे पत्ते बींध डाले। एक पत्ता श्रीकृष्ण ने अपने पांव के नीचे दबा रखा था लेकिन वह भी बींध चुका था। ब्राह्मण बने भगवान श्रीकृष्ण ने बर्बरीक से वरदान के रूप में उनका शीश मांग लिया। बर्बरीक ने अपना शीश उन्हें दे दिया लेकिन बदले में वचन मांगा कि जब तक महाभारत युद्ध खत्म नहीं होता उनके शीश में प्राण रहे और वह पूरा युद्ध देख सके। भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें वचन दिया कि ऐसा ही होगा। युद्ध खत्म होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण पांडवों को उनके पास लाए और उनकी पूजा अर्चना की तथा उन्हें वरदान दिया युगों युगों तक तुम्हारी महिमा जारी रहेगी तथा लोग तुम्हें देवता के रूप में पूजा करेंगे। इसके बाद पांडवों ने उन्हें अपना कुलदेवता मानकर पूजा की। माना जाता है कि कमरूनागघाटी में स्थापित मूर्ति भी पांडवों ने आकर स्थापित की थी। युद्ध के बाद इस झील का निर्माण भीम द्वारा किया गया। इसलिए विशेष है कमरुनाग मंदिर :- कमरुनाग झील मंडी जिले से 9 हजार फीट ऊपर है। मंदिर तक पहुंचने के लिए 8 किलोमीटर ऊंचे पहाड़ों और घने जंगलों से होकर गुज़रना पड़ता है। कमरुनाग मंदिर के समीप स्थित है कमरुनाग झील जिसके अंदर अरबों का खजाना है। भगवान कमरुनाग को सोने-चांदी व पैसे चढ़ाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। झील के खजाने पर नहीं लोगों की बुरी नज़र नहीं पड़ती क्योंकि इसकी रक्षा नाग करता है। बरसात के दिनों में कमरूनाग मंदिर में गहरी धुंध होती है। कमरुनाग मंदिर में ठंड के दिनों में जाना काफी कष्टकारी होता है। इस वक्त पूरा इलाका बर्फ की मोटी चादर से ढक जाता है। कमरूनाग को बड़ा देव और बारिश का देवता भी कहा जाता है। मंदिर को जाने वाली खड़ी चढ़ाई वाले रास्तों पर पेयजल की व्यवस्था नहीं है। ऐतिहासिक कमरूनाग झील की हर चार साल के बाद एक बार मंदिर कमेटी की ओर से सफाई की जाती है। हर साल जून महीने में 14 और 15 जून को बाबा कमरुनाग भक्तों को दर्शन देते हैं। कमरुनाग में लोहड़ी पर भव्य पूजा का आयोजन किया जाता है। कमरुनाग मंदिर के पहाड़ों पर नाग की तरह दिखने वाले कई पेड़ हैं। किसी भी सरकार ने नहीं ली सुध:- इस मंदिर का आकार काफी छोटा है। यहां हर साल आने वाले भक्तों की तादाद बढ़ती ही जाती है। विडम्बना की बात यह है कि महाभारत कालीन कमरूनाग मंदिर को सहेजने में प्रदेश की अब तक की सरकारों की ओर से कोई ईमानदार प्रयास नहीं हुए हैं। यही कारण है कि कमरूनाग के मंदिर तक पहुँचने के लिए उपयुक्त सड़क तो दूर की बात, पैदल चलने वालों के लिए मुकम्मल रास्ते तक नहीं बनाए गए हैं।
पहाड़ों की रानी शिमला में स्थित कालबाड़ी मंदिर लाखों भक्तों की आस्था का केंद्र हैं। ये मंदिर माँ ‘देवी श्यामला’ को समर्पित है। श्यामला देवी को देवी काली का ही अवतार माना जाता है। कहा जाता हैं शिमला का नाम पहले श्यामला ही था जो माँ श्यामला के नाम से ही व्युत्पन्न है।पर धीरे- धीरे बोल चाल की भाषा में श्यामला का नाम शिमला हो गया। शिमला के माल रोड से कुछ ही दूरी पर स्थित कालीबाड़ी मंदिरका निर्माण सन् 1823 में हुआ था। मंदिर में देवी की लकड़ी की एक मूर्ति प्रतिस्थापित है। दीवाली, नवरात्री और दुर्गापूजा जैसे हिंदू त्योहारों के अवसर पर बहुत से भक्त यहाँ दर्शन के लिए आते हैं। मां की मूर्ति के ऊपर चांदी का छतर व समीप ही फन फैलाए नाग देवता की कलात्मक मूर्ति देखकर भक्तजन आत्म विभोर हो जाते हैं। मंदिर के आसपास बैठे पंडित निरंतर माता का मंत्रोच्चारण करते रहते हैं जिससे यहाँ का माहौल हरदम भक्तिमय रहता हैं। कहा जाता हैं कि ब्रिटिश काल में बने इस मंदिर के स्थान पर पहले एक गुफा हुआ करती थी। शिमला कालीबाड़ी मंदिर का निर्माण राम चरण ब्राह्मण ने करवाया, जो एक बंगाली परिवार से सम्बन्ध रखते थे। कालीबाड़ी मंदिर में काली माता की मूर्ति के साथ एक तरफ श्यामला माता की शिला है और दूसरी तरफ चंडी माता की शिला है। इस मंदिर में माता की पत्थर की मूर्ति लगी है। इस मूर्ति में लगे पत्थरों को जयपुर से मंगवाया गया है। मंदिर निर्माण के बाद वर्ष 1885 में शिमला कालीबाड़ी प्रबंधन कमेटी का गठन हुआ। उसके बाद 1903 में कालीबाड़ी मंदिर ट्रस्ट बना, जो इस मंदिर को चला रहा है। जाने काली बाड़ी मंदिर के बारे में:- कालीबाड़ी मंदिर माल रोड से कुछ ही दूरी पर स्थित हैं। मंदिर परिसर में भक्तों की सुविधा के लिए कैंटीन व आवास गृह उपलब्ध हैं। मंदिर में भगवान् शिव का मंदिर भी स्थित हैं, जहाँ शिवरात्रि के दौरान बहुत भीड़ होती हैं। मंदिर परिसर में जानवरों, चमड़ों से बनी वस्तुओं का प्रवेश वर्जित हैं। मौसम के अनुसार मंदिर के खुलने व बंद होने का समय बदल जाता है जो सुचना बोर्ड पर लिख दिया जाता है। मंदिर में नवरात्रों के दौरान अष्टमी व नवमी को भंडारे का आयोजन होता हैं। दुर्गा पूजा के दौरान मंदिर में विशेष पूजा का आयोजन होता हैं।
हमारे देश में ऐसे कई देवी-देवताओं के मंदिर हैं जिनके पीछे अद्भुत और रोचक रहस्य छुपे हुए हैं। आदिकाल के मंदिरों और देवी-देवताओं से सम्बंधित कई बातें आज के वैज्ञानिक युग में हमें रहस्यमय लगती हैं, पर आस्था के आगे विज्ञान कहाँ ठहरता हैं। ऐसा ही एक मंदिर जिला मंडी में है जहां माता की शक्ति के आगे कभी भी मंदिर में छत नहीं लग पाई। बारिश हो, आंधी हो, या तूफान हो, ये मां खुले आसमान के नीचे रहना ही पसंद करती हैं। हम बात कर रहे हैं शिकारी देवी मंदिर के बारे में। हिमाचल के मंडी में 2850 मीटर की ऊंचाई पर बना यह शिकारी माता का मंदिर जंजैहली से लगभग 18 किलोमीटर दूर है। यह मंदिर अध्भुत चमत्कारों के लिए विख्यात है। सर्दियों के दौरान इस स्थान पर चारों तरफ बर्फ की चादर होती हैं, लेकिन मंदिर परिसर बर्फ से अछूता रहता हैं। हैरत की बात ये हैं कि इस मंदिर पर कोई छत नहीं है। मंदिर से जुड़ी हैं कई पौराणिक कथाएं पौराणिक कथाओं के अनुसार मार्कण्डेय ऋषि ने यहां सालों तक तपस्या की थी। उन्हीं की तपस्या से खुश होकर माता दुर्गा अपने शक्ति के रूप में इस स्थान पर स्थापित हुई।एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार जब पांडव अपना वनवास काट रहे थे तो वो इस क्षेत्र में आये और कुछ समय यहाँ पर रहे।एक दिन अर्जुन एवं अन्य भाईयों ने एक सुंदर मृग देखा तो उन्होंने उसका शिकार करना चाहा, मगर वो मृग उनके हाथ नहीं आया। सारे पांडव उस मृग की चर्चा करने लगे कि वो मृग कहीं मायावी तो नहीं। तभी आकाशवाणी हुई कि मैं इस पर्वत पर वास करने वाली शक्ति हूँ और मैनें पहले भी तुम्हें जुआ खेलते समय सावधान किया था, पर तुम नहीं माने। इसलिए आज वनवास भोग रहे हो। इस पर पांडवो ने उनसे क्षमा प्रार्थना की तो देवी ने उन्हें बताया कि मैं इसी पर्वत पर नवदुर्गा के रूप में विराजमान हूँ और यदि तुम मेरी प्रतिमा को यहाँ स्थापना करोगे तो तुम अपना राज्य पुन हासिल कर सकोगे। इस दौरान उन्होंने माता की पत्थर की मूर्ति तो स्थापित कर दी मगर पूरा मंदिर नहीं बना पाए। चूंकि माता मायावी मृग के शिकार के रूप में मिली थी इसलिये माता का नाम शिकारी देवी कहा गया। एक अन्य मान्यता यह भी है कि इस वन क्षेत्र में शिकारी वन्य जीवों का शिकार करने आते थे। शिकार करने से पहले शिकारी इस मंदिर में सफलता की प्रार्थना करते थे और उनकी प्रार्थना सफल भी हो जाती था।इसी के बाद इस मंदिर का नाम शिकारी देवी पड़ गया। रोचक पहलु :- हिमाचल के मंडी ज़िले की सबसे ऊंची चोटी पर स्थित है माता शिकारी देवी का यह चमत्कारी मंदिर। हर साल यहाँ बर्फ तो खूब गिरती है मगर माता की पिंडियों पर कभी नहीं टिकती बर्फ। माता मंदिर में छत नहीं करती सहन, खुले आसमान के नीचे रहना चाहती है विराजमान। मंदिर तक पहुंचने का रास्ता बेहद ही सुंदर हैं, चारों तरफ दिखती है हरियाली ही हरियाली । सर्वोच्च शिखर होने के नाते इसे मंडी का क्राउन कहा जाता है। विशाल हरे चरागाह, मनोरंजक सूर्योदय और सूर्यास्त, बर्फ सीमाओं के मनोरम दृश्य प्रकृति प्रेमियों को अपनी और आकर्षित करते हैं। माता का दर्शन करने हर साल पहुंचते हैं लाखों श्रद्धालु। करीब तीन माह बंद रहते हैं कपाट माता शिकारी देवी मंदिर हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करता है। शिकारी देवी मंदिर परिसर में चौसठ योगनियों का वास है जो सर्व शक्तिमान है। मंडी जनपद में शिकारी देवी को सबसे शक्तिशाली माना जाता है।देवी के दरबार में प्रदेश ही नहीं अन्य राज्यों से भी श्रद्धालु देवी के दरबार में शीश नवाने दूर-दूर से पहुंचते हैं।बर्फबारी में माता शिकारी देवी में कड़ाके की ठंड पड़ने से देवी के मंदिर के कपाट करीब तीन माह के लिए बंद हो जाते हैं। बर्फबारी में माता के दर्शनों के लिए श्रद्धालुओं और पर्यटकों पर प्रशासन प्रतिबंध लगाता है। मगर, माता के अनेक भक्त बर्फबारी में भी देवी से आशीर्वाद लेने के लिए पहुंच जाते हैं।
हनुमान जी के पद चिह्न देखने यहां पर लोग दूर- दूर से आते हैं। प्रकृति की गोद में बसे इस स्थान पर लोगों को बेहद सुकून मिलता हैं। मान्यता हैं कि जो भी भक्त यहाँ सच्चे मन से आते हैं, उन्हें हनुमान जी खाली हाथ नहीं भेजते। शिमला मुख्य शहर से 7 कि.मी और रिज से दो कि.मी की दूरी पर स्थित जाखू हिल्स शिमला की सबसे ऊंची चोटी है और यहीं विराजमान हैं भगवान हनुमान। जाखू मंदिर में हनुमान जी की मूर्ति देश की सबसे ऊंची मूर्तियों में से एक है जो 33 मीटर (108 फीट) ऊंची है। इस मूर्ति के सामने आस-पास लगे बड़े-बड़े पेड़ भी बौने लगते हैं। ये स्थान बजरंबली के भक्तों में लिए बेहद ख़ास हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार जब श्री राम और रावण के बीच हुए युद्ध में लक्ष्मण शक्ति लगने से घायल हो गए थे, तो उन्हें पुनर्जीवित करने के लिए हनुमान जी संजीवनी बूटी लेने के लिए हिमालय पर्वत पर गए थे। ऐसा कहा जाता है कि हनुमान जी जब संजीवनी लेने जा रहे थे तो वो कुछ देर के लिए इस स्थान पर रुक गए थे, जहां पर अब जाखू मंदिर है। ऐसा भी माना जाता है कि औषधीय पौधे (संजीवनी) को लेने जब हनुमान जी जा रहे थे तो इस स्थान पर उन्हें ऋषि ‘याकू’ मिले थे। हनुमान संजीवनी पौधे के बारे में जानकारी लेने के लिए यहां उतरे थे। हनुमान द्रोणागिरी पर्वत पर आगे बढ़े और उन्होंने वापसी के समय ऋषि याकू से मिलने का वादा दिया था लेकिन समय की कमी के कारण और दानव कालनेमि के साथ उनके टकराव के कारण हनुमान उस पहाड़ी पर नहीं जा पाए। इसके बाद ऋषि याकू ने हनुमान जी के सम्मान में जाखू मंदिर का निर्माण किया था। पौराणिक कथा के अनुसार इस मंदिर को हनुमान जी के पैरों के निशान के पास बनाया गया है। इस मंदिर के आस-पास घूमने वाले बंदरों को हनुमान जी का वंशज कहा जाता है। माना जाता हैं कि जाखू मंदिर का निर्माण रामायण काल में हुआ था। इसलिए ख़ास हैं जाखू मंदिर :- भगवान हनुमान को समर्पित जाखू मंदिर 'रिज' के निकट स्थित है। घने देवदार के पेड़ों के बीच हनुमान की मूर्ति लोगों को अपनी ओर आकर्षित करती है। जाखू मंदिर में हनुमान जी की एक विशाल प्रतिमा हैं जिसकी ऊँचाई 108 फीट हैं। ये मूर्ति दूर से दिखाई देती हैं। जाखू मंदिर में दर्शन सुबह 5 से दिन के 12 बजे तक और फिर शाम को 4 से रात के 9 बजे तक होते है। जाखू मंदिर के दर्शन करने के लिए आप को लगभग एक से दो घंटा लग सकता है। मंदिर तक गाड़ी या पदयात्रा कर के भी पहुंचा जा सकता है। रोपवे यात्रा के दौरान आस-पास के दृश्य अपनी सुंदरता से आपको हैरान कर देंगे। जाखू मंदिर में दशहरे (विजयदशमी) का त्योहार बहुत ही धूम-धाम से मनाया जाता है। यात्रा के दौरान बंदरों से सावधान रहे और उनके सामने खाने की कोई भी चीज अपने हाथ में न लें। बंदरों को दूर रखने के लिए अपने हाथ में छड़ी लेकर चलें। मंदिर परिसर से बाहर निकलने से पहले घंटी बजाना अच्छा माना जाता है। पहाड़ी पर राज्य सरकार द्वारा विभिन्न ट्रैकिंग और पर्वतारोहण गतिविधियाँ भी आयोजित की जाती है। जाखू मंदिर में स्थित भगवान हनुमान की मूर्ति से बच्चन परिवार का भी खास कनेक्शन हैं। अमिताभ बच्चन की पुत्री श्वेता नंदा के ससुर ने इस मूर्ति का निर्माण करवाया था। सोलन में हैं सबसे ऊँची हनुमान जी की मूर्ति वर्तमान में जाखू स्थित भगवान हनुमान की मूर्ति हिमाचल प्रदेश में हनुमान जी की सबसे ऊँची मूर्ति हैं। पर अब सोलन के सुल्तानपुर स्थित मानव भारती विवि में दुनिया की सबसे ऊँची बजरंबली की मूर्ति बनकर तैयार हैं। ये मूर्ति 156 फ़ीट ऊँची हैं और जल्द इसका अनावरण होने जा रहा हैं।
भक्त की जान संकट में थी और उसने महादेव का आह्वान किया। तभी एक चमत्कार हुआ और भक्त की जान बच गई। आज भी भक्तों को अपने भोलेनाथ पर पूरा भरोसा हैं और भोलेनाथ भी यहां श्रद्धा से आने वाले भक्तों की समस्त मुरादें पूरी करते हैं। हम बात कर रहे हैं चूड़धार की। चूड़धार, हिमचाल प्रदेश के जिला सिरमौर की सबसे ऊँची चोटी हैं और इस चोटी पर विराजमान हैं देवों के देव महादेव। चारों ओर अद्वितीय प्राकृतिक सौंदर्य और एक तरह से जड़ी-बूटियों का बिछा गलीचा, जो शांति चूड़धार में हैं वो शायद कहीं ओर नहीं। यहाँ आकर एहसास होता हैं कि सत्य ही शिव हैं और शिव ही सूंदर हैं। चूड़धार से जुड़ी एक कथा प्रचलित हैं कि एक बार चुरु नामक एक शिवभक्त यहां अपने पुत्र के साथ आया था। तभी अचानक बड़े बड़े पत्थरों के बीच से एक विशालकाय सांप बाहर आ गया और उसने चुरु और उसके पुत्र पर हमला कर दिया। दोनों ने बचने की कोशिश की किन्तु सांप से पीछा नहीं छोड़ा। प्राण संकट में देख चूरू ने अपने आराध्य भगवान भोलेनाथ का आह्वान किया, और तभी एक चमत्कार हुआ। भोलेनाथ की कृपा से एक विशालकाय पत्थर का एक हिस्सा सांप पर जा गिरा जिससे वह वहीं मर गया और चूरू और उसके पुत्र की जान बच गई।कहते हैं उसके बाद से ही इस स्थान का नाम चूड़धार पड़ा। दिन- ब- दिन लोगों की श्रद्घा इस मंदिर के लिए बढ़ती गई और यहां के लिए धार्मिक यात्राएं शुरू हो गई। चूड़धार को श्री शिरगुल महाराज का स्थान माना जाता है। यहां शिरगुल महाराज का मंदिर भी स्थित है। शिरगुल महाराज सिरमौर व चौपाल के देवता है। शिरगुल देवता भगवान शिव के अंशावतार हैं। चूड़धार शिखर शिरगुल देवता की तपोस्थली रही है। यहां पर पवित्र जल के दो कुंड भी हैं। कहते हैं कि इस पवित्र जल के दो लोटे सिर पर डाल लिए जाए तो सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। एक कथा और प्रचलित हैं जिसके अनुसार कहते हैं कि प्राचीन काल में यहां पर चूड़िया नामक राक्षस रहता था, जिसने शिवजी की तपस्या करके अजेय शक्ति प्राप्त कर ली थी। इसलिए इस चोटी का नाम चूड़ी चांदनी और बाद में धीरे-धीरे चूड़धार हो गया। ऐसी मान्यता है कि शिरगुल देवता ने चूड़ शिखर को दानवों से मुक्त कराया था। जाने चूड़धार के बारे में :- चूड़धार पर्वत तक पहुंचने के दो रास्ते हैं।मुख्य रास्ता नौराधार से होकर जाता है तथा यहां से चूड़धार 14 किलोमीटर है। दूसरा रास्ता सराहन चौपाल से होकर गुजरता है। यहां से चूड़धार 6 किलोमीटर है। भोलेनाथ के दर्शन के लिए हर साल हजारों सैलानी यहां पहुंचते हैं। हर साल गर्मियों के दिनों में चूड़धार की यात्रा शुरू होती है। बरसात और सर्दियों में यहां जमकर बर्फबारी होती है जिससे यह चोटी बर्फ से ढक जाती है। खूबसूरत वादियों से होकर गुजरने वाली यह यात्रा सदियों से चली आ रही है। यह भी माना जाता है कि इसी चोटी के साथ लगते क्षेत्र में हनुमान जी को संजीवनी बूटी मिली थी। चूड़धार पर्वत हिमाचल प्रदेश के सिरमौर जिले में स्थित है। चूड़धार पर्वत समुद्र तल से 11965 फीट(3647 मीटर) की ऊंचाई पर स्थित है । यह पर्वत सिरमौर जिले और बाहय हिमालय की सबसे ऊंची चोटी है। यह चोटी ट्रेकिंग के नजरिए से बेहद उपयुक्त है। सिरमौर ,चौपाल ,शिमला, सोलन उत्तराखंड के कुछ सीमावर्ती इलाकों के लोग इस पर्वत में धार्मिक आस्था रखते हैं। एक बहुत बड़ी चट्टान को चूरु का पत्थर भी कहा जाता है जिससे धार्मिक आस्था जुड़ी है। ब्रिटिश काल में भारत के सर्वेक्षक जनरल रहे जॉन केय की पुस्तक, द ग्रेट आर्क में भी चूड़धार पर्वत का उल्लेख किया गया है। इसमें इसे ‘द चूर‘ कहा गया है। आदि शंकरायचार्य ने की थी शिव आराधना चूड़धार में विशालकाय शिव प्रतिमा हैं, माना जाता यहाँ पर कभी प्राकृतिक शिव लिंग होता था। ऐसा भी कहा जाता है कि आदि शंकराचार्य ने शिव की आराधना के लिए इसकी स्थापना की थी। बाद में यहां लोग जब सिक्का डालते थे, तो लंबे समय तक उसकी आवाज सुनाई देती थी।
जो भी सच्चे मन से संकट मोचन मंदिर में आता है, बजरंबली उसके कष्ट हर लेते है संकट कटे मिटे सब पीरा, जो सुमिरै हनुमत बलबीरा। खूबसूरत वादियों के लिए मशहूर हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला में संकट मोचन हनुमान जी भी विराजमान है।अगर आप निरंतर किसी परेशानी से गुजर रहे हैं, तो संकट मोचन की शरण में चले आईये। मान्यता है कि जो भी सच्चे मन से संकट मोचन के मंदिर में आता है, बजरंबली उसके कष्ट हर लेते है। संकट मोचन के मंदिर में भक्तों को बेहद सुकून और शांति मिलती है, यही कारण है कि दूर- दूर से लोग नियमित तौर पर यहाँ आते है। नीम करौली बाबा की इच्छानुसार हुई स्थापना बीती सदी में पचास के दशक की बात है, जब संत नीब करौरी बाबा (जिन्हें नीम करौली बाबा के नाम से भी जाना जाता है) तारादेवी नाम की इस पहाड़ी पर आकर एक कुटिया में दस-बारह दिन तक रहे थे। कहा जाता है कि इस जगह पर योग-ध्यान करते हुए वे लीन हो गए और उन्हें लगा कि इस स्थान पर भगवान हनुमान जी के एक मंदिर का निर्माण होना चाहिए। बाबा ने अपनी इच्छा अपने अनुयायियों को बताई और आखिरकार सन 1962 में हिमाचल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर राजा बजरंग बहादुर सिंह (भद्री रियासत के राजा) और अन्य भक्तों ने इस मंदिर का निर्माण कार्य शुरू करवाया। 21 जून, 1966 मंगलवार को इस मंदिर में विधिवत प्राण प्रतिष्ठा हुई और धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता व मान्यता फैलती चली गई। जाने संकट मोचन मंदिर के बारे में :- हनुमान मंदिर के साथ यहां राम-सीता-लक्ष्मण, गणपति और शंकर जी का भी मंदिर है। मंदिर परिसर में नवग्रह का भी है मंदिर। रोजाना बड़ी तादाद में स्थानीय लोगों के साथ लगभग सभी पर्यटक यहाँ दर्शन करने आते हैं। हनुमान जी का मंदिर होने के कारण हर मंगलवार और शनिवार को यहां ज्यादा भीड़ होती है। मंदिर में हर रविवार को भंडारे का आयोजन किया जाता हैं। मंदिर परिसर में बाबा नीब करौरी जी का भी है एक छोटा-सा मंदिर हैं। मान्यता हैं कि यहां आकर सच्चे मन से प्रार्थना करने पर बड़े-बड़े संकट भी टल जाते हैं। शिमला से यहां टैक्सी के अलावा स्थानीय बस से भी आया-जाया जा सकता है। मंदिर परिसर में नई गाड़ियों की पूजा भी होती हैं। मंदिर में शादियों के लिए भी विशेष प्रावधान हैं। इसलिए लगाते हैं हनुमान जी को सिंदूर तुलसीदास रामायण के अनुसार एक दिन भगवान हनुमान जी ने माता सीता को मांग में सिंदूर लगाते हुए देखा। हनुमानजी ने आश्चर्यपूर्वक पूछा- माता! आपने यह सिंदूर मस्तक पर क्यों लगाया है? इस पर सीता जी ने ब्रह्मचारी हनुमान को उत्तर दिया, पुत्र! इसके लगाने से मेरे स्वामी की दीर्घायु होती है और वह मुझ पर प्रसन्न रहते हैं। ये सुनकर बजरंबली प्रसन्न हुए और उन्होंने सोचा कि जब उंगली भर सिंदूर लगाने से श्री राम की आयु में वृद्धि होती है तो फिर क्यों न सारे शरीर पर इसे पोतकर अपने स्वामी को अजर-अमर कर दूं। इसी तात्पर्य से हनुमान जी सारे शरीर में सिंदूर पोतकर राजसभा में पहुंचे तो भगवान उन्हें देखकर हंसे और बहुत प्रसन्न भी हुए। इस अध्याय के बाद हनुमान जी की इस उदात्त स्वामी-भक्ति के स्मरण में उनके शरीर पर सिंदूर चढ़ाया जाने लगा।
जो भी भक्त यहाँ सच्चे मन से आता है, वो खाली हाथ वापस नहीं जाता। हर साल यहां लाखों लोग मां का आर्शीवाद लेने पहुंचते हैं और माँ सबकी मनोकामनाएं पूरी करती है। हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला से लगभग 11 किलोमीटर दूर खूबसूरत पहाड़ की चोटी पर स्थित माँ तारा देवी मंदिर माता रानी के अद्भुत चमत्कारों के लिए मशूहर है। प्रकृति की गोद में स्थित लगभग 250 वर्ष पुराना त्रिगुणात्मक शक्तिपीठ धाम तारादेवी मंदिर पुरे भारत वर्ष के प्रसिद्ध शक्तिपीठों में से एक है। मंदिर के साथ करीब दो किलोमीटर नीचे जंगल में शिवबावड़ी भी है। मान्यता है कि इस बावड़ी में पैसे अर्पण करने से सारी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं। तारादेवी मंदिर के निर्माण की कहानी बड़ी भी बेहद रोचक है। इस मंदिर का निर्माण जुन्गा क्योंथल नरेश राजा भूपेंद्र सेन ने करवाया था। भूपेंद्र सेन सेन वंश के सबसे ताकतवार राजाओं में से एक थे। कहा जाता है कि एक बार राजा भूपेंद्र सेन शिकार के लिए तारादेवी के घने जंगलों में चले गए। इसी दौरान उन्हें मां तारा और भगवान हनुमान के दर्शन हुए। मां तारा ने इच्छा जताई कि वह इस स्थल में बसना चाहती हैं, ताकि भक्त यहां आकर आसानी से उनके दर्शन कर सके। राजा ने भी हामी भर दी। इसके बाद राजा ने अपनी आधी से ज्यादा जमीन मंदिर निर्माण के लिए सौंप दी और यहां मंदिर निर्माण का काम शुरू हो गया। कुछ समय बाद जब मां का मंदिर तैयार हुआ तो राजा ने लकड़ी की मूर्ति के स्वरूप में यहां माता को स्थापित कर दिया। कहते हैं भूपेंद्र सेन के बाद मां ने उनके वशंज बलबीर सेन को भी दर्शन दिए। सेन ने यहां अष्टधातु की मूर्ति स्थापित की और मंदिर का निर्माण आगे बढ़ाया। इसलिए विशेष है माँ तारा देवी का मंदिर:- माँ तारा देवी जुन्गा क्योंथल नरेश की कुलदेवी है। मंदिर में माँ तारा देवी की अष्टधातु की मूर्ति विराजमान है। कहा जाता है कि 250 साल पहले मां तारा की प्रतिमा को पश्चिम बंगाल से लाया गया था। राजा भूपेंद्र सेन ने अपनी जमीन का एक बड़ा हिस्सा मंदिर बनवाने के लिए दान किया था। कुछ समय बाद मंदिर का काम पूरा हो गया और लकड़ी की बनी मां की मूर्त यहां स्थापित कर दी गई। राजा भूपेंद्र सेन के बाद राज बलबीर सेन को भी मां ने दर्शन दिए जिसके बाद सेन ने अष्टधातु की मूर्त यहां स्थापित की और मंदिर का निर्माण किया। जुन्गा का राज परिवार हर साल नवरात्र उत्सव के अष्टमी के दिन यहां पूजा करने आते हैं उस समय मंदिर के कपाट बंद कर दिए जाते हैं। यहां गांव में जब भी कोई फसल या अन्य चीजें तैयार होती है तो सबसे पहले मां के चरणों में समर्पित की जाती है। चोटी पर बने इस मंदिर के एक ओर घने जंगल है जबकि दूसरी ओर सड़कें। यह मंदिर अब बस सेवा से भी जुड़ गया है। इस मंदिर में लोग श्रद्धा भाव से मंदिर में भंडारे करवाते हैं। अगर किसी श्रद्धालु को मंदिर में भंडारा करवाना है तो लंबा इंतजार करना पड़ता है।भंडारे के दिन की डेट अलॉट होने के एक दिन पहले लोगों को यहां राशन छा़ेड़ना होता है। मंदिर प्रबंधक का कहना है कि जो भी भक्त यहां भंडारा देना चाहते हैं वह मंदिर कार्यालय समय में सुबह दस बजे से पांच बजे आकर बुकिंग कर सकता है। देवी दुर्गा के 108 नाम 1. सती : अग्नि में जल कर भी जीवित होने वाली 2. साध्वी : आशावादी 3. भवप्रीता : भगवान् शिव पर प्रीति रखने वाली 4. भवानी : ब्रह्मांड की निवास 5. भवमोचनी : संसार बंधनों से मुक्त करने वाली 6. आर्या : देवी 7. दुर्गा : अपराजेय 8. जया : विजयी 9. आद्य : शुरूआत की वास्तविकता 10. त्रिनेत्र : तीन आँखों वाली 11. शूलधारिणी : शूल धारण करने वाली 12. पिनाकधारिणी : शिव का त्रिशूल धारण करने वाली 13. चित्रा : सुरम्य, सुंदर 14. चण्डघण्टा : प्रचण्ड स्वर से घण्टा नाद करने वाली, घंटे की आवाज निकालने वाली 15. महातपा : भारी तपस्या करने वाली 16. मन : मनन- शक्ति 17. बुद्धि : सर्वज्ञाता 18. अहंकारा : अभिमान करने वाली 19. चित्तरूपा : वह जो सोच की अवस्था में है 20. चिता : मृत्युशय्या 21. चिति : चेतना 22. सर्वमन्त्रमयी : सभी मंत्रों का ज्ञान रखने वाली 23. सत्ता : सत्-स्वरूपा, जो सब से ऊपर है 24. सत्यानन्दस्वरूपिणी : अनन्त आनंद का रूप 25. अनन्ता : जिनके स्वरूप का कहीं अन्त नहीं 26. भाविनी : सबको उत्पन्न करने वाली, खूबसूरत औरत 27. भाव्या : भावना एवं ध्यान करने योग्य 28. भव्या : कल्याणरूपा, भव्यता के साथ 29. अभव्या : जिससे बढ़कर भव्य कुछ नहीं 30. सदागति : हमेशा गति में, मोक्ष दान 31. शाम्भवी : शिवप्रिया, शंभू की पत्नी 32. देवमाता : देवगण की माता 33. चिन्ता : चिन्ता 34. रत्नप्रिया : गहने से प्यार 35. सर्वविद्या : ज्ञान का निवास 36. दक्षकन्या : दक्ष की बेटी 37. दक्षयज्ञविनाशिनी : दक्ष के यज्ञ को रोकने वाली 38. अपर्णा : तपस्या के समय पत्ते को भी न खाने वाली 39. अनेकवर्णा : अनेक रंगों वाली 40. पाटला : लाल रंग वाली 41. पाटलावती : गुलाब के फूल या लाल परिधान या फूल धारण करने वाली 42. पट्टाम्बरपरीधाना : रेशमी वस्त्र पहनने वाली 43. कलामंजीरारंजिनी : पायल को धारण करके प्रसन्न रहने वाली 44. अमेय : जिसकी कोई सीमा नहीं 45. विक्रमा : असीम पराक्रमी 46. क्रूरा : दैत्यों के प्रति कठोर 47. सुन्दरी : सुंदर रूप वाली 48. सुरसुन्दरी : अत्यंत सुंदर 49. वनदुर्गा : जंगलों की देवी 50. मातंगी : मतंगा की देवी 51. मातंगमुनिपूजिता : बाबा मतंगा द्वारा पूजनीय 52. ब्राह्मी : भगवान ब्रह्मा की शक्ति 53. माहेश्वरी : प्रभु शिव की शक्ति 54. इंद्री : इन्द्र की शक्ति 55. कौमारी : किशोरी 56. वैष्णवी : अजेय 57. चामुण्डा : चंड और मुंड का नाश करने वाली 58. वाराही : वराह पर सवार होने वाली 59. लक्ष्मी : सौभाग्य की देवी 60. पुरुषाकृति : वह जो पुरुष धारण कर ले 61. विमिलौत्त्कार्शिनी : आनन्द प्रदान करने वाली 62. ज्ञाना : ज्ञान से भरी हुई 63. क्रिया : हर कार्य में होने वाली 64. नित्या : अनन्त 65. बुद्धिदा : ज्ञान देने वाली 66. बहुला : विभिन्न रूपों वाली 67. बहुलप्रेमा : सर्व प्रिय 68. सर्ववाहनवाहना : सभी वाहन पर विराजमान होने वाली 69. निशुम्भशुम्भहननी : शुम्भ, निशुम्भ का वध करने वाली 70. महिषासुरमर्दिनि : महिषासुर का वध करने वाली 71. मधुकैटभहंत्री : मधु व कैटभ का नाश करने वाली 72. चण्डमुण्ड विनाशिनि : चंड और मुंड का नाश करने वाली 73. सर्वासुरविनाशा : सभी राक्षसों का नाश करने वाली 74. सर्वदानवघातिनी : संहार के लिए शक्ति रखने वाली 75. सर्वशास्त्रमयी : सभी सिद्धांतों में निपुण 76. सत्या : सच्चाई 77. सर्वास्त्रधारिणी : सभी हथियारों धारण करने वाली 78. अनेकशस्त्रहस्ता : हाथों में कई हथियार धारण करने वाली 79. अनेकास्त्रधारिणी : अनेक हथियारों को धारण करने वाली 80. कुमारी : सुंदर किशोरी 81. एककन्या : कन्या 82. कैशोरी : जवान लड़की 83. युवती : नारी 84. यति : तपस्वी 85. अप्रौढा : जो कभी पुराना ना हो 86. प्रौढा : जो पुराना है 87. वृद्धमाता : शिथिल 88. बलप्रदा : शक्ति देने वाली 89. महोदरी : ब्रह्मांड को संभालने वाली 90. मुक्तकेशी : खुले बाल वाली 91. घोररूपा : एक भयंकर दृष्टिकोण वाली 92. महाबला : अपार शक्ति वाली 93. अग्निज्वाला : मार्मिक आग की तरह 94. रौद्रमुखी : विध्वंसक रुद्र की तरह भयंकर चेहरा 95. कालरात्रि : काले रंग वाली 96. तपस्विनी : तपस्या में लगे हुए 97. नारायणी : भगवान नारायण की विनाशकारी रूप 98. भद्रकाली : काली का भयंकर रूप 99. विष्णुमाया : भगवान विष्णु का जादू 100. जलोदरी : ब्रह्मांड में निवास करने वाली 101. शिवदूती : भगवान शिव की राजदूत 102. करली : हिंसक 103. अनन्ता : विनाश रहित 104. परमेश्वरी : प्रथम देवी 105. कात्यायनी : ऋषि कात्यायन द्वारा पूजनीय 106. सावित्री : सूर्य की बेटी 107. प्रत्यक्षा : वास्तविक 108. ब्रह्मवादिनी : वर्तमान में हर जगह वास करने वाली
यहाँ भगवान भोलेनाथ सिर्फ सिगरेट का कश ही नहीं लगाते बल्कि सिगरेट के धुएं को हवा में भी उड़ाते हैं। ये सुनने में भले ही अजीब लगे मगर महादेव के भक्त तो यही मानते है। हम बात कर रहे हैं हिमाचल प्रदेश के जिला सोलन की अर्की तहसील में स्थित लुटरू महादेव मंदिर की। पहाड़ियों पर प्राकृतिक सुंदरता के बीच स्थित इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां दर्शन के लिए आनेवाले सभी भक्त भोलेनाथ को प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग को सिगरेट अर्पित करते हैं। शिवलिंग पर सिगरेट अर्पित करने के बाद उसे कोई सुलगाता नहीं है बल्कि वो खुद-ब-खुद सुलगती है।बाकायदा सिगरेट से धुआं भी निकालता हैं, मानो स्वयं भोले बाबा सिगरेट के कश लगा रहे हो। हालांकि कुछ लोग इसमें विज्ञान तलाश इसे अंधविश्वास भी करार देते हैं, किन्तु भोले के भक्तों के लिए तो ये शिव की महिमा हैं। आखिर भक्त और भगवान को विश्वास ही तो जोड़ता हैं। लुटरू महादेव मंदिर का निर्माण सन 1621 में करवाया गया था। कहा जाता हैं कि बाघल रियासत के तत्कालीन राजा को भोलेनाथ ने सपने में दर्शन देकर मंदिर निर्माण का आदेश दिया था। एक मान्यता ये भी हैं कि स्वयं भगवान शिव कभी इस गुफा में रहे थे। आग्रेय चट्टानों से निर्मित इस गुफा की लम्बाई पूर्व से पश्चिम की तरफ लगभग 25 फ़ीट तथा उत्तर से दक्षिण की ओर 42 फ़ीट है। गुफा की ऊंचाई तल से 6 फ़ीट से 30 फ़ीट तक है।गुफा के अंदर मध्य भाग में 8 इंच लम्बी प्राचीन प्राकृतिक शिव की पिंडी विधमान है। इसलिए विशेष हैं लुटरू महादेव मंदिर:- लुटरू महादेव मंदिर में सदियों से शिवलिंग को सिगरेट पिलाई जा रही है। भक्त इसे चमत्कार मानते हैं, तो कुछ लोग इसे विज्ञान करार देते हैं, पर यहाँ सच में ऐसा होता आ रहा हैं। लुटरू महादेव मंदिर में स्थापित शिवलिंग भी अपने आप में बेहद अनोखा है। शिवलिंग पर जगह- जगह गड्ढे बने हैं और इन्हीं गड्ढों में लोग सिगरेट को फंसा देते हैं। लुटरू महादेव गुफा की छत में परतदार चट्टानों के रूप में भिन्न भिन्न लंबाइयों के छोटे छोटे गाय के थनो के अकार के शिवलिंग हैं। मान्यता के अनुसार इनसे कभी दूध की धारा बहती थी। शिवलिंग के ठीक ऊपर एक गुफा पर छोटा सा गाय के थन के जैसा एक शिवलिंग बना है ,जहाँ से पानी की एक-एक बूँद ठीक शिवलिंग के ऊपर गिरती रहती है। लुटरू गुफा को भगवान परशुराम की कर्मस्थली भी कहा जाता हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार सहस्त्र बाहु का वध करने के बाद भगवान परशुराम ने यहाँ भगवान शिव की आराधना की थी। पंजाब के चमकौर साहिब के शिवमंदिर के महात्मा शीलनाथ भी करीब चार दशक पूर्व लुटरू महदेव में आराधना करते थे। शिवलिंग पर जलते हुए सिगरेट के अद्भुत नज़ारे को देखने के बाद लोग इसे कैमरे में कैद करने से खुद को नहीं रोक पाते है और ऐसा करने पर कोई पाबंदी भी नहीं हैं। वर्ष 1982 में केरल राज्य में जन्मे महात्मा सन्मोगानन्द सरस्वती जी महाराज लुटरू महादेव मंदिर में पधारे। उनकी समाधि भी यही बनी हुई है। गुफा के नीचे दूर- दराज से आने वाले भक्तों के लिए धर्मशाला भी बनाई गई हैं । शिव की लीला शिव ही जानें भोलेनाथ शिवशंकर की लीला तो वे स्वयं ही जानते हैं किन्तु लुटरू महादेव मंदिर में शिवलिंग का सिगरेट पीना किसी अचम्भे से कम नहीं हैं। यदि वैज्ञानिक कारण भी हैं तो ऐसा सिर्फ शिवलिंग पर सिगरेट चढाने से ही क्यों होता हैं। न भक्तों की आस्था पर कोई प्रश्न हैं और न ही शिव की महिमा पर। अब ऐसा क्यों होता हैं और कैसे होता हैं, ये तो स्वयं शिव ही जाने।