हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे मंदिर है जिसकी भव्यता और प्राचीनता आस्था के जड़ों को मजबूत करती है, ऐसा ही एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, जिला काँगड़ा का मसरूर मंदिर। यह कांगड़ा से लगभग 32 किमी और धर्मशाला से 47 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह पवित्र मंदिर एकल-रॉक-'कट मोनोलिथिक मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि मसरूर मंदिर 6ठी और 8वीं शताब्दी के बीच बनाया गया था। यह मंदिर देश के तमिलनाडु के महाबलीपुरम, महाराष्ट्र में एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर और राजस्थान में धमनार की गुफाओं के बराबर है। मसरूर मंदिर परिसर में 15 इंडो आर्यन शैली अखंड रॉक कट मंदिरों का एक समूह है। ठाकुरद्वारा कहे जाने वाले मुख्य मंदिर में राम, लक्ष्मण और सीता की तीन विशाल नक्काशीदार काले पत्थर के मूर्तियां है। यह माना जाता है कि मंदिर भगवान शिव भक्त, राजा यशोवर्धन द्वारा बनाया गया था। द्वार में भगवान शिव की आकृति की उपस्थिति भी मजबूत संकेत देती है कि यह मंदिर मूल रूप से महादेव को समर्पित था। यह ऐतिहासिक मंदिर आंशिक रूप से 1905 में एक बड़े भूकंप के कारण खंडहर में बदला लेकिन आज भी इसकी खूबसूरती बरकरार है। मसरूर स्थित एकाश्म शैलकृत मंदिर मूल रूप से उन्नीस स्वतंत्र मुक्त खड़ी संरचना वाले मंदिरों का समूह था। तथापि, वर्तमान में उनमें से कुछ शेष हैं जिन पर वर्ष 1905 के विनाशकारी भूकंप के चिह्न देखे जा सकते हैं। नागर (उत्तर भारतीय) शैली में बने मुख्य मंदिर में गर्भगृह, प्रकोष्ठ, प्रार्थना हाल और प्रवेश मंडप शामिल हैं। गर्भगृह में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां हैं जो प्रस्तर के प्लेटफार्म पर खड़ी हैं जिसे कालांतर में जोड़ा गया है। उन्नीस में से सोलह मंदिर प्रस्तर की एक ही शिला को तराशकर बनाए गए थे जबकि दो मंदिर मुख्य परिसर के दोनों ओर स्वतंत्र रूप से खड़े थे। मसरुर स्थित मंदिर परिसर उत्कृष्ट मूर्तियों की आभासी दीर्घा है जो समकालीन मूर्ति कला से भरपूर है। मुख्य मंदिर शिला में गुफा के रूप में बाहर निकला हुआ था तथा दरवाजों के साथ बाहरी हिस्सा उच्च सजावटी नक्काशियों से अलंकृत है। मंदिर का मुख उत्तर पूर्व दिशा की ओर है। मुख्य मंदिर के द्वार पर उत्कीर्ण शिव की मूर्ति से यह माना जा सकता है कि यह मंदिर शिव को समर्पित था। बाहरी हिस्से में बने आलों में वैकुंठ के रूप में विष्णु, दिक्पाल (दिशाओं के संरक्षक), सूर्य, अग्रि. शिव, पार्वती (देवी) और स्कंद-कार्तिकेय (योद्धा भगवान) की मूर्तियां लगाई गई हैं। शिव के विभिन्न भावों को दर्शाते मंदिर के गगनचुम्बी शिखर चैत्य गवाक्ष से सुसज्जित हैं। अन्य रूपांकन प्रतिहार शैली के अनुरूप हैं, जिसमें कमल की जटिल आकृति, कल्पलता (इच्छा पूर्ति लता), कल्पवृक्ष (जीवन वृक्ष) और रख (हीरा) शामिल हैं। मंदिर परिसर एक पहाड़ी पर स्थित है और इसमें एक बड़ा आयताकार तालाब है जो पूरे साल पानी से भरा रहता है। इस स्मारक की अद्वितीय वास्तुकला और सौन्दर्यात्मक महत्ता को देखते हुए इसे राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक घोषित किया गया है। कई रहस्य, कई किवदन्तियां आपदा से पहले मुख्य मंदिर शिव मंदिर था, पर अभी यहां श्री राम, लक्ष्मण व सीता जी की मूर्तियां स्थापित हैं। एक लोकप्रिय पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत में पांडवों ने अपने वनवास के दौरान इसी जगह पर निवास किया था और इस मंदिर का निर्माण किया। यह एक गुप्त निर्वासन स्थल था इसलिए वे अपनी पहचान उजागर होने से पहले ही यह जगह छोड़ कर कहीं और स्थानांतरित हो गए। कहा जाता है कि मंदिर का जो एक अधूरा भाग है उसके पीछे भी यही एक ठोस कारण मौजूद है। द्रौपदी के लिए किया झील का निर्माण मसरूर झील, मंदिर के बिल्कुल सामने ही स्थित है जो मंदिर की खूबसूरती में चार-चांद लगाती है। झील में मंदिर के कुछ अंश का प्रतिबिंब दिखाई देता है जो किसी करिश्मा से कम नहीं । कहा यह भी जाता है कि इस झील को पांडवों ने ही अपनी पत्नी द्रौपदी के लिए बनवाया था। यहां कई ऐसे चौखट हैं जो भगवान शिव के सम्मान में मनाए जाने वाले त्यौहारों को दर्शाते हैं। छोटे छोटे कलाकृतियों में भी भगवान शिव के लीलाओं को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। निर्माण तारीख को लेकर रहस्य बरकरार विश्वसनीय स्रोत के बाद भी इसके निर्माण की सही तारीख़ का पता नहीं चल सका है। इसके अलावा न तो मंदिर के शिला-लेख और न ही इतिहास की किताबों में ऐसा कुछ उल्लेख मिलता है जिससे मंदिर के संरक्षक या निर्माण के समय का पता चल सके। मंदिर परिसर नगारा मंदिर वास्तुकला की शैली में बना है। ये शैली 8वीं शताब्दी के बाद मध्य भारत और कश्मीर में विकसित हुई थी। माना जाता है कि इनका निर्माण उन कलाकारों ने करवाया होगा जो मध्य भारत और कश्मीर नक्काशी के लिए आते जाते थे। ऑस्ट्रेलिया के खोजकर्ता ने किया जिक्र 1835 में ऑस्ट्रेलिया के खोजकर्ता बैरन चार्ल्स हूगल ने कांगड़ा में ऐसे मंदिर के होने का ज़िक्र किया है जो उनके अनुसार एलोरा के मंदिरों से काफ़ी मिलता जुलता था। दुर्भाग्य से 1905 में भूकंप में ये काफ़ी हद तक नष्ट हो गए। बताया जाता है कि रिक्टर पैमाने पर भूकंप की तीव्रता 7.8 थी और इसका सेंटर कांगड़ा था। ये इस क्षेत्र में आया सबसे ज़बरदस्त भूकंप था जिसने पूरे क्षेत्र को झकझोर के रख दिया था। भूकंप में कांगड़ा क़िले तथा मसरुर मंदिर सहित कई भवन नष्ट हो गए थे। मुख्य मंदिर में पहले शिवलिंग हुआ करता था। राम और सीता की मूर्तियों को वहां संभवत:1905 के भूकंप के बाद स्थापित किया गया होगा। मंदिर के सामने एक बड़ा मंडप था और बड़े बड़े खंबे थे जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं हालंकि छत पर जाने की सीढ़ियां दोनों तरफ़ अभी भी देखी जा सकती हैं।
पश्चिमी संस्कृति के अधिक शक्तिशाली होने और अधिक प्रचलन होने के कारण भारत में 1 जनवरी को नववर्ष मनाया जाता है। लेकिन हमारे देश का एक बड़ा वर्ग चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष मनाता है। यह दिवस हिन्दू समाज के लिए अत्यंत विशेष है, क्योंकि इस मिति से ही नए पंचांग प्रारंभ होते हैं और वर्ष भर के उत्सव, मंगलकार्य, त्यौहार और अनुष्ठानों व धर्मक्रिया के शुभ मुहूर्त निश्चित होते हैं। हिंदू धर्म का अनुसरण करने वाले व हिन्दू धर्म पर की पलना करने वाले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्ष मनाते हैं। सनातन धर्म के अनुसार इसी दिन सृष्टि का आरंभ हुआ था इसलिए हिंदुओं का नव वर्ष 2078 नववर्ष, 13 अप्रैल 2021 से शुरू होगा। जानकारी के अनुसार योजनाओं की स्थिति को देखते हुए इस बार करीब 90 साल बाद एक मुख्य संयोग बन रहा है, वहीं नववर्ष 2078 ‘दैत्य’ नाम से जाना जाएगा।13 अप्रैल मंगलवार से शुरू हो रहे नववर्ष के दिन 2 बजकर 32 मिनट में सूर्य का मेष राशि में प्रवेश हो रहा है। नववर्ष प्रतिपदा और विषुवत संक्रांति दोनों एक ही दिन 31 गते चैत्र, 13 अप्रैल को होगी। सम्पूर्ण भारतवर्ष में ऋतु परिवर्तन के साथ ही हिंदू नववर्ष प्रारंभ होता है। नववर्ष का शुभारम्भ चैत्र माह में शीत ऋतु के प्रस्थान और वसंत ऋतु के परिवेश से होता है। यह दिन भारतीय इतिहास में बहुत से कारणों से महत्वपूर्ण है। पुराण और ग्रन्थों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की थी। यही कारण है कि हिन्दू-समाज भारतीय नववर्ष का पहला दिन प्रसन्नता और आनंद से मनाते हैं।
माघ माह में मनाए जाने वाली गणेश चतुर्थी को माघी गणेश चतुर्थी या माघी गणेश जयंती भी कहते है। इस साल माघी गणेश जयंती 15 फरवरी को मनाई जा रही है। माघ माह में पड़ने वाली गणेश जयंती का विशेष महत्व होता है। इस दिन भगवान गणेश की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। मान्यता है कि भगवान गणेश की पूजा करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं और संकटों से मुक्ति मिलती है। गणेश जयंती को माघ शुक्ल चतुर्थी, तिलकुंड चतुर्थी और वरद चतुर्थी के नाम से भी जानते हैं। दक्षिण भारतीय मान्यताओं के अनुसार, आज के दिन ही भगवान गणेश का जन्म हुआ था। इसलिए गणेश जयंती पर श्रीगणेश की पूजा का विशेष महत्व माना गया है। अग्निपुराण में भी तिलकुंड चतुर्थी के व्रत से भाग्य और मोक्ष प्राप्ति का विधान बताया गया है। कहते हैं कि गणेश जयंती के दिन चंद्र दर्शन वर्जित होते हैं। कहते हैं कि ऐसा करने से मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। गणेश जयंती पूजा शुभ मुहूर्त- गणेश जयंती- 15, फरवरी 2021 (सोमवार) चतुर्थी तिथि प्रारम्भ- 15, फरवरी 2021, देर रात 01:58 बजे से चतुर्थी तिथि समाप्त- 16, फरवरी 2021, देर रात 03:36 बजे वर्जित चन्द्रदर्शन का समय- सुबह 09:14 बजे से रात 09:32 बजे तक। गणेश जयंती के दिन क्या करना चाहिए और क्या नहीं- गणेश जयंती के दिन भगवान गणेश को तिल के लड्डू अर्पित करने चाहिए। तिल का प्रसाद भी बांटा जाता है। इसके अलावा पानी में तिल मिलाकर स्नान भी किया जाता है। गणेश जयंती के दिन चंद्र दर्शन नहीं करना चाहिए। वाद-विवाद से बचना चाहिए। व्रती को दिन में नहीं सोना चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने से व्रत का पुण्य नहीं मिलता है। भगवान गणेश को जरूर चढ़ाएं दुर्वा गणपति बप्पा को दूर्वा अति प्रिय है। गणेश जी की पूजा में उन्हें दूर्वा जरूर चढ़ानी चाहिए। ऐसा करने से गणेश भगवान का आशीर्वाद भक्तों को प्राप्त होता है। गणेश जी को पसंद है मोदक गणेश भगवान को मोदक का भोग जरूर लगाना चाहिए। मोदक गणेश भगवान को अति प्रिय है. ऐसे में गणेश जयंती पर गणपति बप्पा की पूजा में उन्हें मोदक जरूर चढ़ाना चाहिए। बप्पा को लाल फूल चढ़ाएं भगवान गणेश को लाल फूल चढ़ाने चाहिए। अगर लाल फूल चढ़ाना संभव नहीं है तो आप कोई और फूल भी चढ़ा सकते हैं। बस इस बात का ध्यान रखें भगवान गणेश की पूजा में तुलसी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। गणेश जी को प्रिय है लाल सिंदूर गणपति बप्पा को लाल सिंदूर बहुत पसंद होता है। भगवान गणेश को स्नान कराने के बाद उन्हें लाल सिंदूर लगाना चाहिए। उसके बाद अपने माथे में भी लाल सिंदूर का तिलक लगाएं। भगवान गणेश के आशीर्वाद से आपको हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी।
हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि को बेहत महत्वपूर्ण माना जाता है साथ ही हर माह पड़ने वाली शिवरात्रि भी काफी महत्व रखती है। मासिक शिवरात्रि हर महीने जबकि महाशिवरात्रि साल में एक बार मनाई जाती है। हिंदू पंचांग के अनुसार, हर माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मासिक शिवरात्रि मनाई जाती है। मासिक त्योहारों में शिवरात्रि के व्रत का बहुत महत्व होता है। इस दिन भगवान शिव की आराधना कर आप महावरदान की प्राप्ति कर सकते हैं। इस माह में 10 फरवरी 2021 दिन बुधवार को मासिक शिवरात्रि का व्रत किया जाएगा। भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए यह दिन बहुत शुभ रहता है। इस दिन व्रत करके भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मासिक शिवरात्रि के दिन व्रत करने और पूजन करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और भगवान भोलेनाथ अपने भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं। तो चलिए जानते हैं मासिक शिवरात्रि का महत्व, पूजा विधि मासिक शिवरात्रि का महत्व माना जाता है कि मासिक शिवरात्रि का व्रत बहुत प्रभावशाली होता है। इस दिन उपवास रखने और भगवान शिव की सच्चे मन से आराधना करने से सारी मनोमनाएं पूरी हो जाती हैं । जिन लोगों के विवाह में विलंब हो रहा हो उनके लिए मासिक शिवरात्रि का व्रत बहुत शुभफलदायी माना गया है। इस व्रत को करने से विवाह में आने वाली अड़चनें दूर होती हैं। माना जाता है कि इस दिन व्रत और विधि विधान से पूजन करने से कर्ज से मुक्ति प्राप्त होती है। मासिक शिवरात्रि की तिथि शिव जी को मनाने के लिए बहुत शुभ मानी गई है। मान्यता है कि इस दिन की गई आराधन से भगवान शिव शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों के सभी कष्टों का निवारण करते हैं। पूजा की विधि शिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण का विशेष महत्व माना गया है इस दिन श्रद्धालुओं को रात्रि में जाग कर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। मासिक शिवरात्रि वाले दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि करने के पश्चात स्वच्छ वसत्र धारण करके व्रत का संकल्प लें। हो सके तो किसी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव की सपरिवार माता पार्वती, गणेश जी, कुमार कार्तिकेय, और नंदी महाराज सहित पूजा करें।शिवलिंग पर जल, शुद्ध घी, दूध, शक़्कर, शहद, दही आदि चीजों से शिव के पंचाक्षरी मंत्र का उच्चारण करते हुए अभिषेक करें। शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा और श्रीफल अर्पित करें। शिव पूजा करने के पश्चात शिव पुराण, शिव स्तुति, शिव अष्टक, शिव चालीसा और शिव श्लोक आदि का पाठ करना बहुत शुभ रहता है।
भारत की पावन भूमि पर कई संत महात्मा अवतारित हुए हैं, जिन्होंने धर्म से विमुख सामान्य मनुष्य में अध्यात्म कई चेतना उजागर कर उसका नाता ईश्वर से जोड़ा हैं। ऐसे ही एक अवतार गुरु नानक देव जी हैं। गुरु नानक देव जी की जयंती प्रकाश पर्व या गुरु पर्व के रूप में मनाई जाती है। नानक जी का जन्म 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पंजाब के तलवंडी गांव में हुआ था जो अब पकिस्तान में हैं। गुरु नानक देव जी सिख धर्म के संस्थापक और उनके पहले गुरु थे। इस दिन को सिख धर्म में बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है। नानक जी के पिता का नाम कल्याणचंद था और उनकी माता का नाम तृप्ति देवी था। नानक जी का हिन्दू परिवार में जन्म हुआ था। गुरु नानक जी के अनुयायी उन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। गुरु नानक जी अपने बच्चो के जन्म के बाद तीर्थ यात्रा के लिए चले गए। उन्होंने काफी लम्बी यात्राएं की। इस यात्रा के दौरान वह सबको उपदेश देते और सामाजिक बुराइओं से दूर रहने के लिए जागरूक करते थे। उस समय धर्म सिर्फ रिति- रिवाजो का नाम बन कर रह गया था। उत्तरी भारत के लिए बहुत अफरा तफरी का समय था। उस समय समाजिक जीवन में बहुत भ्रष्टाचार और धर्मिक क्षेत्र में द्धेष और उच्च नीच की भावना उत्पन हो गई थी। गुरु नानक जी जात पात का विरोध करते थे। उन्होंने समाज को बताया की मानव जाति तो एक ही है, फिर जाति के कारण ऊंच नीच क्यों? उन्होंने ऊंच नीच का विरोध करते हुए अपनी मुखवाणी 'जपुजी साहिब ' में कहा है कि 'नानक उत्तम-नीच न कोई 'जिसका अर्थ है कि ईश्वर कि निगाह में छोटा बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति की हर समय साथ देता है। नानक देव जी की वाणी -: 1 नीचा अंदर नीच जात,नीची हूं अति नीच। नानक तिन के संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रिस। अर्थात : समाज में समानता का नारा देने के लिए नानक देव ने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब उसके बच्चे हैं और पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता है। 2 नानक जंत उपाइके, संभालै सभनाह। जिन करते करना कीआ, चिंताभिकरणी ताहर॥ अर्थात : जब हम 'एक पिता एकस के हम वारिक' बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता। गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ 1 - परम पिता परमेश्वर एक हैं। 2 - सदैव एक ही ईश्वर की आराधना करो। 3 - ईश्वर सब जगह और हर प्राणी में विद्यमान हैं। 4 - ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भी भय नहीं रहता। 5 - ईमानदारी और मेहनत से पेट भरना चाहिए। 6 - बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न ही किसी को सताएं। 7 – हमेशा खुश रहना चाहिए, ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा याचना करें। 8 - मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरत मंद की सहायता करें। 9 - सभी को समान नज़रिए से देखें, स्त्री-पुरुष समान हैं। 10 - भोजन शरीर को जीवित रखने के लिए आवश्यक है। परंतु लोभ-लालच के लिए संग्रह करने की आदत बुरी है।
शिमला और कुल्लू जिला के देवी-देवता आज मकर संक्रांति के दिन से एक महीने के स्वर्ग प्रवास पर निकल गए। सुबह पक्षियों से चहचहाने से पूर्व लोगों ने पूजा-अर्चना कर अपने अराध्यों को विदाई दी। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग सुबह 4 बजे अपने घरों में उठते हैं और अच्छे पकवान तैयार कर पूजा अर्चना के साथ देवी-देवताओं की विदाई करते हैं। देवताओं के स्वर्ग चले जाने पर मंदिर सूने हो गए हैं। देवताओं की विदाई के बाद मंदिर में कोई भी धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किया जाता। अब देवताओं को महीने भर आकाश की ओर धूप और जल अर्पित किया जाएगा। देव संसद में भाग लेने पर कुल्लू जिला के देवी-देवता एक सप्ताह के अंतराल में ही वापस लौट आते हैं। शिमला जिला के आधे देवी-देवता एक पखवाड़े के अंदर वापसी करते हैं, लेकिन अधिकांश देवी-देवता पूरे एक महीने स्वर्ग प्रवास पर रहकर फाल्गुन संक्रांति को ही अपने-अपने देवालयों में लौटेंगे। इस एक माह की अवधि में मंदिर में कोई भी धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किया जाएगा। इसके साथ-साथ घरों में भी विवाह समारोह एवं धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किए जाएंगे। देवी-देवताओं के जाने के बाद उनकी मूर्तियां शक्ति विहीन हो जाती हैं और गुरों को खेल भी नहीं आती।
हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं की भूमि है। वेदों के अनुसार यहां अनेकों देवी देवता विराजमान है। भगवान् शंकर को भी यहां अलग अलग रूप में पूजा जाता है। भोलेनाथ के इन्ही अनेक रूपों में से एक है बाबा भूतनाथ। हिमाचल के मंडी जिले में स्थित है बाबा भूतनाथ को समर्पित एक ऐसा आलोकिक मंदिर जहां हर छोटे-बड़े भक्त की आस्था बस्ती है। भूतनाथ मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। इस मंदिर को 1527 ईस्वी मैं राजा अज्वैर सेन ने बनवाया था। इस मंदिर को उस काल में बनवाया गया था जब राज्य की राजधानी को मंडी से भिउली में स्थानांतरित कर दिया गया था। मान्यता के अनुसार तत्कालीन राजा को सूचना मिली की जंगल में एक सुनसान जगह पर हर रोज गाय के थनों से खुद ही दूध बहता है। थोड़े दिनों में यह खबर लोगों में आग की तरह फैल गई। देखते ही देखते यह सुचना राजा तक भी पहुंच गई। इसी दौरान राजा अज्वैर सेन के सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए और उसे बताया कि जिस स्थान पर गाय के थनों से दूध बहता है। वहां शिवलिंग स्थापित है। उन्होंने राजा को कहा कि यहां पर एक भव्य मंदिर बनवाकर इसे भूतनाथ का नाम दिया जाए। भगवान के निर्देशानुसार जब राजा ने मौके का मुआयना करवाया तो यह बात सच्ची हुई। जमीन में भविष्यवाणी के अनुसार शिवलिंग स्थापित था और गाय शिवलिंग को प्रभु कृपा से हर रोज दूध चढ़ाती थी। राजा ने भगवान के कहे अनुसार उस स्थान पर भगवान भोले नाथ के भव्य भूतनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। इस तरह भगवान भोले नाथ भूतनाथ बने और तभी से आजतक भगवान भूतनाथ की यहां पूरी श्रद्धा से पूजा की जाती है। देश विदेश से आने वाले पर्यटकों के लिए यह मंदिर आकर्षण का केंद्र है। बाबा भूतनाथ मन्दिर मैं शिवरात्रि का त्यौहार यहां पर हर वर्ष पूरे एक सप्ताह तक मनाया जाता है। यहां शिवरात्रि से पहले से ही भक्तो के ताँता लगना शुरू हो जाता है।
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में लोक देवताओं से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे रोचक है लोक देवता महासू की कथा। न्याय के देवता के रूप में प्रतिष्ठित महासू देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर से संबंध रखते हैं। इनका मुख्य मंदिर टोंस नदी के पूर्वी तट पर चकराता के पास हनोल गांव में स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है। उत्तराखंड के अलावा शिमला के ऊपरी भागों और सिरमौर जिले के कुछ भागों में भी महासू देवता को इष्ट देव के रूप में मान्यता प्राप्त है। महासू देवता का कालांतर में वास कश्मीर में माना जाता है। महासू जिले में यह देवता एक ब्राम्हण के अनुरोध पर इस क्षेत्र में दानव के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए थे। कहते है की उस समय यमुना और तौंस नदी के बीच आने वाले क्षेत्र में दानवों का आतंक था जिससे जिसका निवारण महासू देवता ने ख़तम किया था। हनोल में स्थित महासू देवता का ये मंदिर एक अनोखा मंदिर है। यहां की सबसे ज़्यादा दिलचस्प बात तो ये है कि यहां हर साल दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन की ओर से नमक भेंट किया जाता है। मिश्रित शैली की स्थापत्य कला को संजोए यह मंदिर देहरादून से 190 किमी और मसूरी से 156 किमी दूर है। यह मंदिर चकराता के पास हनोल गांव में टोंस नदी के पूर्वी तकट पर स्थित है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी।मान्यता है की द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। जबकि, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। वर्तमान में इस मंदिर का संरक्षण पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ही कर रहा है। खुदाई के दौरान पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को यहां यहां शिव-शक्ति, शिवलिंग, दुर्गा, विष्णु-लक्ष्मी, सूर्य, कुबेर समेत दो दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इन्हें हनोल संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। महासू देवता के मंदिर के गर्भ गृह में भक्तों का जाना मना है। केवल मंदिर का पुजारी ही मंदिर में प्रवेश कर सकता है। यह बात आज भी रहस्य है। मंदिर में हमेशा एक ज्योति जलती रहती है जो दशकों से जल रही है। मंदिर के गर्भ गृह में पानी की एक धारा भी निकलती है, लेकिन वह कहां जाती है, कहां से निकलती है यह अज्ञात है। दरअसल 'महासू देवता' एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द 'महाशिव' का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है, जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं। लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है। महासू मंदिर हनोल के परिसर में सीसे के दो गोले मौजूद हैं, जो पांडु पुत्र भीम की ताकत का अहसास कराते हैं। मान्यता है कि भीम इन गोलों को कंचे (गिटिया) के रूप में इस्तेमाल किया करते थे। आकार में छोटे होने के बावजूद इन्हें उठाने में बड़े से बड़े बलशालियों के भी पसीने छूट जाते हैं। इन गोलों में एक का वजन छह मण (240 किलो) और दूसरे का नौ मण (360 किलो) है उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है। वर्तमान में महासू देवता के भक्त मन्दिर में न्याय की गुहार करते हैं जो उनकी पूरी होती है। माना जाता है कि जो भी यहां सच्चे दिल से कुछ मांगता है कि महासू देवता उसकी मुराद पूरी करते हैं।
हिमाचल प्रदेश की भूमि के कण कण में देवी देवताओं का वास माना जाता हैं। यह एक ऐसा प्रदेश है जहां धार्मिकता व अचंभित करने वाले रहस्य की कई कथाएं जुड़ी हुई है। चंबा जिले में स्थित प्रसिद्ध देवीपीठ भलेई माता के मंदिर से ऐसे रहस्य व कथाए जुड़ी है जो सभी को अचंभित कर देती है। मान्यता है कि इस मंदिर में देवी माता की जो मूर्ति है, उस मूर्ति को पसीना आता है। यहां आने वाले लोग यह भी मानते हैं कि जिस समय देवी की मूर्ति से पसीना आता है, उस वक्त जो भी श्रद्धालु वहां मौजूद होता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। स्थानीय लोगों की मानें तो 500 साल पुराने इस मंदिर का इतिहास अलग है। भलेई माता के मंदिर में वैसे तो हर दिन हजारों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं, लेकिन नवरात्रों में यहां विशेष धूम रहती है। यह मंदिर अपनी एक अजीब मान्यता को लेकर अधिक जाना जाता है, जिस पर यहां आने वाले श्रद्धालु विशेष यकीन रखते हैं। माना जाता है कि इस मंदिर में 300 साल तक महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं थी। कुछ सालों के बाद मंदिर से माता की मूर्ति चोरी हो गई थी। बाद में ये मूर्ति चमेरा डैम के आसपास मिली। कहा जाता है कि जिन चोरों ने मूर्ति को चुराया था, उनकी आंखों की रौशनी भी चली गई थी। इसके बाद चोर मूर्ति छोड़ वहां से भाग गए थे। भलेई मंदिर है के बारे में यहां के पुजारी कहते है कि देवी माता इसी गांव में प्रकट हुई थीं। उसके बाद ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था। तब से लेकर आज तक यहां हजारों श्रद्धालुओं का तांता इस इंतजार में लगा रहता है कि जाने कब देवी को पसीना आए और उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाए।
हिमाचल प्रदेश को यू ही नहीं देवभूमि कहा जाता है। प्रकृति के बेहतरीन दृश्य के साथ रोचक रीति रिवाज और धामिर्क स्थल मानो देवभूमि शब्द को सालों से जीवंत रखती आ रही है। ऐसे ही जिला किन्नौर का युला कांडा झील आस्था और प्राकृतिक सौन्दर्य का अद्भुत संगम है। इस झील के बीचों बीच भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर है। समुद्र तल से लगभग 12000 फीट की ऊंचाई पर होने के कारण इसे दुनिया के सबसे ऊंचे कृष्ण मंदिर में से एक माना जाता है। पौराणिक कथा व जनश्रुतियों के अनुसार कहा जाता है कि इसका निर्माण पांडवों ने वनवास के समय किया था। उसके बाद झील के बीच कृष्ण मंदिर का निर्माण किया गया। यहां हर साल जन्माष्टमी पर उत्सव मनाया जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। मान्यता है कि तत्कालीन बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह के समय इस उत्सव को मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। सदियों पुरानी परंपरा आज भी चली आ रही है। पहले छोटे स्तर पर मनाए जाने वाले इस उत्सव को अब जिला स्तरीय दर्जा मिल चुका है। यह मंदिर न केवल खूबसूरती का अनूठा प्रमाण है बल्कि बरसो से रिश्तों की खूबसूरती को भी सींचता आ रहा है। जन्माष्टमी के दिन यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दिन यहां श्रद्धालु किन्नौरी टोपी उल्टी करके झील में डालते हैं। मान्यता है कि अगर आपकी टोपी बिना डूबे तैरती हुई दूसरे छोर तक पहुंच जाती है तो आपकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। फिर वो चाहे धर्म का रिश्ता हो, या जीवन साथी को पाने की कामना। इसके अलावा यहां आने वाले श्रद्धालु पवित्र झील की परिक्रमा भी जरूर करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाती है।
भगवान राम की नगरी अयोध्या दीपावली के लिए सज धज कर तैयार है। इस साल की दिवाली अयोध्या में बहुत ही ऐतिहासिक होने वाली है। वो इसलिए क्योंकि कुछ वक्त पहले ही राम मंदिर की नींव रखी गई व साथ ही लगभग 500 वर्षों बाद राम जन्मभूमि स्थल पर दिये जलाए जाएंगे। आज राम की पौड़ी को लाखों दियों से जगमगाया जाएगा। अयोध्या में दीपोत्सव का कार्यक्रम 3 बजे से शुरू होगा। सीएम योगी आदित्यनाथ स्वयं अयोध्या पहुंच कर भगवान राम के दर्शन करेंगे और वहां दीप प्रज्वलित करेंगे। इस पूरे कार्यक्रम का टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भी लाइव प्रसारण किया जाएगा। अयोधया में ऐतिहासिक राम मंदिर की नींव रखे जाने के बाद ये पहली दीवाली है। ऐसे में यह उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाने वाला है। इस वर्ष राम की पौड़ी पर 5.51 लाख दियों से सजाई जाएगी। आज का कार्यक्रम 03.00 PM: सीएम योगी आदित्यनाथ अयोध्या पहुंचेंगे। 03.10 PM: योगी आदित्यनाथ राम जन्मभूमि जाएंगे, जहां पूजा करेंगे और 11 हजार दीयो को जलाएंगे। 04.00 PM: राम, लक्ष्मण और सीता हेलिकॉप्टर से आएंगे, जहां सीएम योगी, राज्यपाल आनंदी बेन पटेल उनका स्वागत करेंगे और पूजा करेंगे। 05.00 PM: भरत मिलाप और अन्य कार्यक्रम। 05.10 PM: सीएम योगी का संबोधन। 06.00 PM: सीएम योगी सरयू घाट पहुंचेंगे और सरयू आरती में हिस्सा लेंगे। 06.15 PM: दीपोत्सव शुरू होगा, जिसके बाद सीएम और राज्यपाल रामकथा पार्क में कल्चलर कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे।
मां दुर्गा के अनेक रूप है। शांत स्वभाव, करुणामयी अवतार के साथ-साथ माता के कई रौद्र रूप है, जिनका मन्दिर भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थापित है। ऐसा ही एक मंदिर सिथित है हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर में। मां भंगायणी के नाम से विख्यात ये मन्दिर सिरमौर जिला के हरिपुरधार में शिमला की सीमा पर अवस्थित है। यह मंदिर कई दशकों से लाखों श्रद्धालुओं की असीम आस्था व श्रद्धा का केंद्र बिंदु बना हुआ है। भक्त यहां अपनी मनौती पूर्ण होने पर मां के दरबार में पहुंचते है। इस दिव्य शक्ति मां भंगायणी को इन्साफ की देवी भी माना जाता है। कोर्ट-कचहरी में न्याय न मिलने पर पीड़ित व्यक्ति इस माता के मंदिर में आकर इन्साफ की गुहार करते है और लोगों का विश्वास है कि मंदिर में उन्हें निश्चित रूप से न्याय मिल जाएगा। स्थानीय लोगो व भक्तजनो के अनुसार इस सुप्रसिद्ध मंदिर का पौराणिक इतिहास इस क्षेत्र के आराध्य देव शिरगुल महाराज से जुड़ा हुआ है। शिरगुल देव की वीरगाथा के अनुसार जब वह कालांतर में सैकड़ों हाटियों के दल के साथ दिल्ली शहर गए थे, तो उनकी दिव्य शक्ति की लीला के प्रदर्शन से दिल्लीवासी स्तब्ध रह गए थे। उस दौरान तत्कालीन तुर्की शासक को शिरगुल महादेव की आलौकिक शक्ति का पता चला, तो उन्होंने शिरगुल महादेव को गाय के कच्चे चमड़े की बेडि़यों में बांधकर कारावास में डाल दिया था। चमड़े के स्पर्श से शिरगुल देव की शक्ति लुप्त हो गई थी। ऐसे में कारावास से मुक्ति दिलाने हेतु बागड़ देश के राजा गोगापीर ने तुर्की शासक के कारावास में सफाई का कार्य करने वाली माता भंगायणी की मदद से शिरगुल महादेव को कारावास से मुक्त करवाया गया था। तब शिरगुल महादेव व राजा गोगापीर माता भंगायणी को अपनी धर्म बहन बनाकर अपने साथ ले आए तथा हरिपुरधार में एक टीले पर उन्हें स्थान देकर सर्वशक्तिमान होने का वरदान दिया। तभी से यह मंदिर उत्तरी भारत में सिद्धपीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्लोक श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || माँ दुर्गा की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। इनका वाहन वृषभ अर्थात् बैल है। उनकी एक भुजा अभयमुद्रा में है, तो दूसरी भुजा में त्रिशूल है। तीसरी भुजा में डमरू है तो चौथी भुजा में वरमुद्रा में है। इनके वस्त्र भी सफेद रंग के हैं और सभी आभूषण भी श्वेत हैं। माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”। महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।] मां महागौरी अमोघ फलदायिनी हैं। मां की पूजा करने से भक्तों कें कल्मष धुल जाते हैं। साथ ही सभी पाप भी नष्ट हो जाते हैं। सच्चे मन और पूरी श्रद्धा से अगर महागौरी की पूजा-अर्चना, उपासना-आराधना की जाए तो यह बेहद कल्याणकारी होता है।
हिमाचल प्रदेश को देव भूमि के नाम से भी जाना जाता है इसलिए इसे देवताओं के घर के रूप में भी जाना जाता है। पूरे हिमाचल प्रदेश में 2000 से भी ज्यादा मंदिर है और इनमें से ज्यादातर प्रमुख आकर्षक का केन्द्र बने हुए हैं। इन मंदिरो में से एक प्रमुख मंदिर चामुण्डा देवी का मंदिर है जो कि जिला कांगड़ा हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति के 51 शक्ति पीठो में से एक है। वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ देवियों मे चामुण्डा देवी का दुसरा दर्शन होता है वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा मे माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी आदि शामिल हैं यहां पर आकर श्रद्धालु अपने भावना के पुष्प मां चामुण्डा देवी के चरणों में अर्पित करते हैं। मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। देश के कोने-कोने से भक्त यहां पर आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। चामुण्डा देवी का मंदिर समुद्र तल से 1000 मी की ऊंचाई पर स्थित है। यह धर्मशाला से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यहां प्रकृति ने अपनी सुंदरता भरपूर मात्रा में प्रदान कि है। चामुण्डा देवी मंदिर बंकर नदी के किनारे पर बसा हुआ है। पर्यटको के लिए यह एक पिकनिक स्पॉट भी है। यहां कि प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी और आकर्षित करता है। चामुण्डा देवी मंदिर मुख्यता माता काली को समर्पित है। माता काली शक्ति और संहार की देवी है। जब-जब धरती पर कोई संकट आया है तब-तब माता ने दानवों का संहार किया है। असुर चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण माता का नाम चामुण्डा पड़ गया। पुराणिक कथा के अनुसार चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। पूरे भारतवर्ष में कुल 51 शक्तिपीठ है जिन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधो के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गई। यज्ञ स्थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गईं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। कोलकाता में केश गिरने के कारण महाकाली, नगरकोट में स्तनों का कुछ भाग गिरने से बृजेश्वरी, ज्वालामुखी में जीह्वा गिरने से ज्वाला देवी, हरियाणा के पंचकुला के पास मस्तिष्क का अग्रिम भाग गिरने के कारण मनसा देवी, कुरुक्षेत्र में टखना गिरने के कारण भद्रकाली,सहारनपुर के पास शिवालिक पर्वत पर शीश गिरने के कारण शाकम्भरी देवी, कराची के पास ब्रह्मरंध्र गिरने से माता हिंगलाज भवानी,चरणों का कुछ अंश गिरने से चिंतपुर्णी, आसाम में कोख गिरने से कामाख्या देवी, नयन गिरने से नैना देवी आदि शक्तिपीठ बन गये। मान्यता है कि चामुण्डा देवी मंदिर में माता सती के चरण गिरे थे।
नवरात्रे के सातवें दिन माँ काली की पूजा की जाती है। 'काली' का अर्थ है समय और काल। काल, जो सभी को अपने में निगल जाता है। भयानक अंधकार और श्मशान की देवी। वेद अनुसार 'समय ही आत्मा है, आत्मा ही समय है'। मां कालिका की उत्पत्ति धर्म की रक्षा और पापियों-राक्षसों का विनाश करने के लिए हुई है। काली को माता जगदम्बा की महामाया कहा गया है। मां ने सती और पार्वती के रूप में जन्म लिया था। सती रूप में ही उन्होंने 10 महाविद्याओं के माध्यम से अपने 10 जन्मों की शिव को झांकी दिखा दी थी। मान्यता है कि मां कालरात्रि भक्तों को अभय वरदान देने के साथ ग्रह बाधाएं भी दूर करती हैं। मां कालरात्रि की अराधना से आकस्मिक संकटों से मुक्ति मिलती है। मां का प्रसिद्द मंदिर कालीघाट काली मंदिर पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के कालीघाट में स्थित देवी काली का प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता में भगवती के अनेक प्रख्यान स्थल हैं। परंपरागत रूप से हावड़ा स्टेशन से 7 किलोमीटर दूर काली घाट के काली मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है, जहाँ सती के दाएँ पाँव की 4 उँगलियों (अँगूठा छोड़कर) का पतन हुआ था। यहाँ की शक्ति 'कालिका' व भैरव 'नकुलेश' हैं। इस पीठ में काली की भव्य प्रतिमा मौजूद है, जिनकी लंबी लाल जिह्वा मुख से बाहर निकली है। मंदिर में त्रिनयना माता रक्तांबरा, मुण्डमालिनी, मुक्तकेशी भी विराजमान हैं। पास ही में नकुलेश का भी मंदिर है। काली मंदिर में देवी काली के प्रचंड रूप की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में देवी काली भगवान शिव के छाती पर पैर रखी हुई हैं। उनके गले में नरमुण्डों की माला है। उनके हाथ में कुल्हाड़ी तथा कुछ नरमुण्ड है। उनके कमर में भी कुछ नरमुण्ड बंधा हुआ है। उनकी जीभ निकली हुई है। उनके जीभ से रक्त की कुछ बूंदें भी टपक रही हैं। इस प्रतिमा के पीछे कुछ अनुश्रुतियाँ भी प्रचलित है। इस अनुश्रुति के अनुसार देवी किसी बात पर गुस्सा हो गई थीं। इसके बाद उन्होंने नरसंहार करना शुरू कर दिया। उनके मार्ग में जो भी आता वह मारा जाता। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए। देवी ने गुस्से में उनकी छाती पर भी पैर रख दिया। इसी समय उन्होंने भगवान शिव को पहचान लिया। इसके बाद ही उनका गुस्सा शांत हुआ और उन्होंने नरसंहार बंद किया। मां कालरात्रि का सिद्ध मंत्र- ‘ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ऊं कालरात्रि दैव्ये नम:।’
देवभूमि हिमाचल की पर्यटन नगरी मंडी के लड़-भड़ोल तहसील में सिमस नामक एक खूबसूरत स्थान है जहाँ एक अनोखा मंदिर स्थित है। कहते हैं की सिमसा देवी के इस चमत्कारी मंदिर में देवी निःसंतान महिलाओं की सूनी गोद भर देती है। देवी सिमसा को संतान-दात्री के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है की इस मंदिर फर्श पर सोने से ही महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। संतान प्राप्ति की इच्छुक महिलाएं दूर दूर से यहां देवी के दर्शनों के लिए आती हैं। नवरात्रों में यहां सलिन्दरा उत्सव मनाया जाता है, जिसका अर्थ है सपने आना। नवरात्रों में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ से ऐसी सैकड़ों महिलाएं इस मंदिर की ओर रूख करती है जिनके संतान नहीं होती है। मान्यता के अनुसार यदि किसी महिला को अमरुद का फल मिलता है तो वे समझ ले कि लड़का होगा, परंतु अगर किसी को स्वप्न में भिन्डी मिलती है तो बेटी होने का आर्शिवाद मिला बताया जाता है। ये भी कहा गया है कि यदि किसी महिला को धातु, लकड़ी या पत्थर की बनी कोई वस्तु प्राप्त हो तो उसे समझ जाना चाहिए कि उसके संतान नहीं होगी। मात की कहानी एक दंपति जोड़े को संतान नही हो रही थी। कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद वो अपनी उम्मीद गवा बैठे थे। फिर किसी के द्वारा उन्हें सिमसा माता मन्दिर लड-भड़ोल की जानकारी मिली। वो दंपत्ति माता की सेवा में लग गए और सच्चे दिल से भक्ति करने लगे। माता की कृपा से उन्हें आठ साल बाद संतान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। संतान का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद भे वो सच्चे दिल से माँ की भक्ति करते रहे। जब उनका पुत्र 1 साल का हो गया, तो वो सिमसा माता मंदिर लडभड़ोल में जातर(भेंट) चढ़ाने गए। इसके 1-2 दिन पश्चात सुबह के वक्त उस दंपत्ति के आँगन मे एक छोटी कन्या नंगे पैर भिक्षा मांगने आई। उस लड़की ने सिर्फ चीनी की कटोरी की मांग की और यह भी कहा कि मुझे पैसे नहीं चाहिए। पर रविंदर की माता नहीं मानी और जब उन्होंने पैसे देने के लिए अपना ट्रंक खोला तो पैसे गायब थे। उसकी जगह फ़ूल पड़े थे। पहले तो माता ने सोचा था कि यह कोई झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली लड़की है। पर बाद में उन्हें यह देख के आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह बात घर के बाकी सदस्यों को बताई। घर के कुछ सदस्य बाहर निकले लड़की अभी भी आँगन में मौजूद थी। उन्होंने लड़की से पूछा कि आप कौन हो तो उस लड़की ने कहा कि में सिमसा हूं, लडभड़ोल से आई हूं। यह बात सुनकर सारे सदस्य हैरान हो गए। बाद में लड़की ने कहा कि जो आपके घर पुत्र हुआ उसके हाथों से मुझे पानी का एक लोटा दिलाओ। सारे सदस्य उस कन्या के चरणों में झुक गए। रविंदर ने अपने पुत्र के हाथों से जल का एक लोटा दिलाया। देवी ने कहा कि मैं आपकी सच्ची भक्ति से बड़ी प्रसन्न हूं। मैं आपके द्वारा दुखी लोगों और निसंतान दम्पतियों का कल्याण करूँगी इसलिए में आपके घर स्थान लेना चाहती हूँ। मझे अपने घर के किसी कमरे में ले चलो। रविंद्र जी उस कन्या को एक कमरे में ले गए। कन्या ने उन्हें अपने असली रूप में दर्शन दिए और वहाँ धरती पर हाथ रखा, जिससे धरती पर दरारे पड़ गई। बाद में माँ ने अपनी छोटी-2 दो उंगलियों से धरती को छुआ जिससे धरती पर उनके निशान आ गए जो आज भी वहां है और वहां उस धरती से माता की पिंडी उबर कर आई। बाद में माता सिमसा ने बताया कि मेरे इस स्थान में जो भी आएगा वो खाली हाथ नहीं लौटेगा और उसकी हर मनोकामना पूरी होगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गई और पंडित रविंदर बेहोशी की हालत में चले गए। उसके बाद जैसे-जैसे लोगों को ये बाद पता चली लोग दूर दूर से माँ के दरबार में आने लगे।
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। (प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन इसका जाप करना चाहिए।) नवरात्री के पांचवें दिन देवताओं के सेनापति भगवान स्कंद कुमार [कार्तिकेय] की माता अर्थात स्कंद माता की पूजा होती है। कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनत-कुमार, स्कंद कुमार के नाम से पुकारा गया है। माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नजर आती हैं। माता का पांचवां रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है। देवी स्कंद माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है। यह पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं। माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है। जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार, कहते हैं कि एक तारकासुर नामक राक्षस था। जिसका अंत केवल शिव पुत्र के हाथों की संभव था। तब मां पार्वती ने अपने पुत्र स्कंद (कार्तिकेय) को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने के लिए स्कंद माता का रूप लिया था। स्कंदमाता से युद्ध प्रशिक्षण लेने के बाद भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का अंत किया था। देवी स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कंद या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिए बैठी हैं। मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है। भोले शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने महान व्रत किया उस महादेव की पूजा भी आदर पूर्वक करें क्योंकि इनकी पूजा न होने से देवी की कृपा नहीं मिलती है। श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए। श्लोक सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया | शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।' अर्थ : हे माँ! सर्वत्र [2] विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। माँ कुष्मांडा की आराधना नवरात्रे के चौथे दिन, चतुर्थी को किया जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी से अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से नामांकित किया गया है। जब ब्रह्माण्ड में केवल अंधकार ही अंधकार था और चरों तरफ कुछ भी नहीं था, तब इस देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इस माता को आदिस्वरूपा या आदिशक्ति भी कहा जाता है। माँ का प्रसिद्द मंदिर उत्तर प्रदेश के कानपूर शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर, घाटमपुर तहसील में माँ कुष्मांडा का करीब एक हज़ार साल पुराना मंदिर है। हालांकि इस मंदिर की नींव 1380 में राजा घाटमपुर दर्शन द्वारा रखी गई। इसमें एक चबूतरे में मां की मूर्ति लेटी हुई है। 1890 में घाटमपुर के कारोबारी चंदीदीन भुर्जी ने मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर में एक पिंड के रूप में लेटी मां कुष्मांडा से लगातार पानी रिसता रहता है। कहा जाता है जो भक्त इस जल को ग्रहण कर लेता है, उसका बड़े से बड़ा रोग दूर हो जाता है। हालांकि, आज तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है की आखिर इस पिंडी से पानी कैसे निकलता है। कई साइंटिस्ट आए और कई सालों का शोध किया, लेकिन मां के इस चमत्कार की खोज नहीं कर पाए। मन जाता है की करीब एक हजार साल पहले एक घाटमपुर गांव जंगलों से घिरा था। इसी गांव का का ग्वाला कुढ़हा गाय चराने के लिए आता था। शाम के वक्त जब वह घर जाता और गाय से दूध निकालता तो गाय एक बूंद दूध नहीं देती। उसको शक हुआ और शाम को जब वह गाय को लेकर चलने लगा, तभी गाय के आंचल से दूध की धारा निकली। मां ने प्रकट होकर ग्वाला से कहा कि मैं माता सती का चौथा अंश हूं। ग्वाले ने यह बात पूरे गांव को बताई और उस जगह खुदाई की गई तो मां कुष्मांडा देवी की पिंडी निकली। गांववालों ने पिंडी की स्थापना वहीं करवा दी और मां की पिंडी से निकलने वाले जल को प्रसाद स्वरुप मानकर पीने लगे। घाटमपुर में गिरा था सति का चौथा अंश माता कुष्मांडा की कहानी शिव महापुराण के अनुसार, भगवान शंकर की पत्नी सती के मायके में उनके पिता राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया था। इसमें सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया था लेकिन शंकर भगवान को निमंत्रण नहीं दिया गया था। माता सती भगवान शंकर की मर्जी के खिलाफ उस यज्ञ में शामिल हो गईं। माता सती के पिता ने भगवान शंकर को भला-बुरा कहा था, जिससे आक्रोशित होकर माता सती ने यज्ञ में कूद कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। माता सती के अलग-अलग स्थानों में नौ अंश गिरे थे। माना जाता है कि चौथा अंश घाटमपुर में गिरा था। तब से ही यहां माता कुष्मांडा विराजमान हैं। श्लोक : सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।
शिमला से लगभग 190 किलोमीटर की दूरी पर नेशनल हाईवे नंबर 5 के किनारे पर स्थित ये मंदिर अपने आप मे बेहद रोमांचक इतिहास और मान्यता संजोए हुए है। यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी यहां रुकती है। तरंडा देवी का यह मंदिर हिमाचल के किन्नौर जिले में पड़ता है। 1962 में जब भारत का चीन से युद्घ हुआ। तब युद्घ खत्म होने पर सेना ने यहां के रास्ते से रोड बनाने की योजना बनाई थी ताकि बॉर्डर तक सेना को गोला बारूद और अन्य सामान पहुंचाया जा सके। पहले रोड सिर्फ रामपुर तक ही था। 1963 में सेना के GREF विंग (अब इस विंग को बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन कहा जाता है) ने यहां सड़क बनाने का काम शुरू किया। जिस जगह आज तरंडा देवी मंदिर स्थापित है जब रोड़ बनाने का कार्य यहां तक पहुंचा तो रोड आगे बनाना बहुत मुश्किल हो गया। रोज चट्टानें गिरने से आए दिन किसी न किसी मजदूर की मौत हो जाती थी। सेना के लोग भी काफी परेशान हो गए। इस बीच तरंडा गांव के लोग गांव में बने मंदिर मां चंद्रलेखा के पास पहुंचे। देवी ने बताया कि यहां पर किसी शक्ति का प्रकोप है। मैं इस जगह स्थापित होना चाहती हूं। यहां मेरे नाम से मंदिर बनाओ सब कुछ ठीक हो जाएगा। बस फिर क्या था सेना के लोगों ने यहां मंदिर का निर्माण करवाया और फिर सब कुछ ठीक हो गया। 1965 में मां तरंडा देवी का मंदिर यहां स्थापित कर दिया गया। मंदिर की देखरेख अब सेना ही करती है। सेना के जवान ही यहां पूजा पाठ का काम संभालते हैं। हैरान करने वाली बात ये है कि इस जगह से आगे जाने वाले लोग गाड़ी रोककर तरंडा माता के दर्शन जरूर करते हैं ताकि रास्ते में कोई बाधा ना आए। माना जाता है कि माता को बिन बताए या बिन हाजिरी लगाए सफर करने वाला या तो चट्टाने गिरने के खतरे से घिर जाता है या उसकी गाड़ी किसी तरीके से खराब हो जाती है।
या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता नमस्तस्य नमसतय नमस्तस्य नमो नमः नवरात्री का तीसरा दिन माँ चंद्रघंटा को समर्पित है। नवदुर्गा में तृतीय स्थान रखने वाली मां चंद्रघंटा की पूजा नवरात्रि के तीसरे दिन की जाती है। इस दिन योगीजन अपने मन को मणिपुर चक्र में स्थित कर भगवती आद्यशक्ति का आह्वाहन करते हैं और विभिन्न प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करते हैं। मां चंद्रघंटा की पूजा से भक्तों का इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कल्याण होता है। मां चंद्रघंटा का स्वरूप अत्यंत शांतिदायक तथा कल्याणकारी है। इनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र विराजमान है व इनके हाथ में भयावह गर्जना करने वाला घंटा है जिस कारण इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान सुनहरा चमकीला है। इनके दस हाथ हैं, जिनके द्वारा भगवती ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं। इनका वाहन सिंह है तथा इनके घंटे की सी भयानक ध्वनि से दानव, दैत्य आदि भयभीत रहते हैं और देवताजन तथा मनुष्य सुखी होते हैं। उत्पत्ति कथा माँ चंद्रघंटा की उत्पत्ति कथा बेहत रमणीय है। कथा के अनुसार जब देवी सती ने अपने शरीर को यज्ञ अग्नि में जला दिया था, तब उसके पश्चात् उन्होंने पारवती के रूप में पर्वतराज हिमालय के घर में पूर्ण जनम लिया। पारवती भगवन शिव से शादी करना चाहती थी जिसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की। उनकी शादी के दिन भगवान शिव अपने साथ सभी अघोरियों के साथ देवी पारवती को अपने साथ ले जाने के लिए पहुंचे तो शिव के इस रूप को देखकर उनके माता पिता और अतिथिगण भयभीत हो गए और पारवती की माँ मैना देवी तो दर के कारण मूर्छित ही हो गई। इन सब को देख कर देवी पारवती ने चंद्र घंटा का रूप धारण किया और भगवन शिव के पास पहुँच गई। उन्होंने बहुत विनम्रता से भगवन शिव से एक आकर्षक राजकुमार के रूप में प्रकट होने के लिए कहा और शिव भी सहमत हो गए। पारवती ने फिर अपने परिवार को संभाला और सभी अप्रिय यादों को मिटा दिया और दोनों का विवाह हो गया है। तब से देवी पारवती को शांति और क्षमा की देवी के रूप में उनके चंद्रघंटा अवतार में पूजा जाता है। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है।
माता शैलपुत्री जिन्हें सती के नाम से भी जाना जाता है, वह भगवन शिव की अर्धांगिनी थी। प्रजापति दक्ष की पुत्री सती वास्तव में माँ दुर्गा का रूप थीं। ब्रम्हपुत्र दक्ष देवी दुर्गा कि तपस्या किया करते थे, तपस्या से प्रसन्न देवी दुर्गा ने उन्हें एक वरदान मांगने को कहा। वरदान में दक्ष ने देवी को पुत्री के रूप में पाने की इच्छा जताई। माँ दुर्गा ने दक्ष का यह वरदान स्वीकार किया व स्वयं दक्ष के यहाँ पुत्री बन सती के रूप में जन्म लिया। सती दक्ष 24 पुत्रियों में सबसे छोटी व लाडली थीं। सती मन ही मन भगवान् शिव को प्रेम करती थी यह बात राजा दक्ष को स्वीकार न थी। उनका कहना था कि सती महलों कि रहने वाली हैं व उनका विवाह किसी साधू अघोरी से कतापि नहीं हो सकता। वह भगवान् शिव के रहें-सेहेन व उनकी वेश-भूषा को न-पसंद करते थे। सती मन ही मन शिव को पती मान चुकी थीं इसके बावजूद दक्ष ने सती का स्वयंवर करवा कर उनका विवाह किसी और से करने का प्रयास किया। स्वयंवर में उन्होंने सभी देवों को आमंत्रित किया परन्तु भगवान् शिव को नहीं बुलाया। इसके अलावा उन्होंने शिव का मज़ाक बनाने के लिए उनकी प्रतिमा वहां रखवाई। ऐसे मोई माता सटी ने भगवन शिव कि प्रतिमा को वर-माला पहना कर उन्हें सबके सामने स्वीकार किया। इसके बाद सती का अपने लिए प्रेम देखते हुए भगवन शिव ने भी सती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकारा व उन्हें ले कर अपने कैलाश वास चले गए। सती एवं शिव के विवाह से अप्रसन्न प्रजापति दक्ष मन से कभी भी शिवशंकर भगवान् को अपना दामाद स्वीकार न कर सके। विवाह के कुछ समय पश्चात राजा दक्ष ने अपने महल में यज्ञ करवाया जहाँ उन्होंने सभी देवतागणों को आमंत्रित किया। माता सती की परिकल्पना थी कि उनके पिता उन्हें ज़रूर आमंत्रित करेंगे व वह अपने परिवार से मिलने की भी इच्छुक थीं। शिव को नीचा दिखाने की उद्देश्य से राजा दक्ष ने सभी देवताओं को बुलाया परन्तु शिव-सती को निमंत्रण नहीं भेजा। सती परिवार से मिलने की इच्छुक थी व भगवन शिव से वहां जाने की अनुमती मांगी। शिव जी को उनका वहां जाना उचित न लगा परन्तु सती केलगातार आग्रह करने के बाद शिव ने उन्हें अनुमती दी। सती जब यज्ञस्थल पर पहुंचीं तो वह बहुत उत्सुक थीं परन्तु उनके पिता दक्ष व अन्य परिवार सदस्यों ने उन्हें अपमानित किया। उनकी माँ ने उन्हें सादर प्रेम से गले लगाया परन्तु उनकी बहनें उनका विवाह शिव से होने के कारण उनका मज़ाक बनाती रहीं। सती से किसी ने बात भी न की, जैसे वह लोग उन्हें जानते ही न हों। इसके बाद भी सती ने पिता से बात करने का प्रयास किया व उनसे शिव को आमंत्रित न करने की वजह पूछी। जिसके जवाब में दक्ष ने कहा - "तुम्हारा पति श्मशान वासी है, उसे बुलाना अशुभ है। मैंने इस यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया है। तुम्हारा पति कोई देवता नहीं है, वह तो भूतों का राजा है। उसे इस यज्ञ में बुलाने से हमारा क्या लाभ। शिव रूण्ड मुंडों की माला पहनता है, चिता की भस्म लगाता है, भूतों प्रेतों के बीच रहता है, भला उसका यज्ञ में क्या काम।" यह सुन कर सती माता बहुत उदास हुईं व उन्होंने अपने पिता से उनके पती का अपमान न करने का आग्रह किया। इसके बाद भी जब दक्ष ने यह सब कहना बंद नहीं किया तो माता सती ने वह किया जसिकी कल्पना खुद राजा दक्ष ने नहीं की थी। सती ने उसी यज्ञ अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सती की मृत्यु की खबर से क्रोधित शिव ने राजा दक्ष का संहार किया। शिव अपनी पत्नी सती से बहुत प्रेम करते थे जिसके बाद माता सती का पुनर्जन्म राजा हिमाचल के यहाँ हुआ। राजा हिमाचा ने उनका नाम शैलपुत्री रखा जिन्हें पर्वतों के राजा की पुत्री होने के कारण पार्वती भी कहा जाता है। इसके बाद शिव का पुनर्विवाह माता शैलपुत्री यानि पार्वती से हुआ। माता शैलपुत्री का वाहन वृषभ है इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है। इनका वास काशी मेंवाराणसी में माना जाता है। पती के मान-सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली माँ शैलपुत्री के बारे में कहा जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं।
कुरुक्षेत्र के पिहोवा के गांव अरुणाय में स्थित संगमेश्वर महादेव मंदिर रहस्यमयी शिव मंदिर हैं, जहां भोलेनाथ के चमत्कार तो नजर आते हैं, लेकिन इन चमत्कारों का कारण कोई नहीं जानता। श्रद्धालु इसे भगवान शिव की महिमा ही मानते हैं। बताया जाता है कि देवी सरस्वती ने यहीं पर शिव की आराधना की थी यहां साल में एक बार नाग और नागिन का जोड़ा देखा जाता है। यह जोड़ा शिवलिंग की परिक्रमा करने के कुछ देर बाद खुद-ब-खुद चला जाता है। आज तक इस जोड़े ने किसी भी श्रद्धालु को नुकसान नहीं पहुंचाया। इनके दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ जाती है। दर्शन करने के बाद ये जोड़ा कहां जाता है किसी को कुछ नहीं पता। ये कहां से आते हैं और कहां चले जाते, इसका पता अब तक कोई नहीं लगा पाया है। पुराने समय से इसे अरुणा और सरस्वती नदी के संगम का स्थल माना जाता है। मंदिर के पास से सरस्वती नदी गुजरती है। पुराणों के अनुसार महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषि में एक दूसरे से अधिक तपोबल हासिल करने की होड़ लगी हुई थी। तब विश्वामित्र ने सरस्वती को छल से महर्षि वशिष्ठ को अपने आश्रम तक लाने की बात कही, ताकि वे महर्षि वशिष्ठ को समाप्त कर सकें। श्राप के डर से सरस्वती तेज बहाव के साथ महर्षि वशिष्ठ को विश्वामित्र आश्रम के द्वार तक ले आईं। लेकिन जब विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ की ओर बढ़ने लगे तो सरस्वती महर्षि वशिष्ठ को पूर्व की ओर बहा कर ले गईं। इससे विश्वामित्र क्रोधित हो गए और सरस्वती को खून से भरकर बहने का श्राप दे दिया। खून का बहाव शुरू होने पर सरस्वती के किनारे राक्षसों ने डेरा डाल लिया। महर्षि वशिष्ठ ने सरस्वती को यहां प्रकट हुए शिवलिंग की आराधना करने को कहा। सरस्वती ने इसी तीर्थ पर शिव की आराधना की तो भगवान शिव ने उसे विश्वामित्र के श्रप से मुक्त कर फिर से जलधारा से भर दिया। तभी से यहां भगवान शिव की आराधना शुरू हो गई। चुनाव जीतने की मन्नत मांगने आते है नेता लोगों की मान्यता हैं कि सावन माह में स्वयंभू शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, जो भी श्रद्धालु यहां पर पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता है, उसके सभी काम बनते हैं। यहां मंदिर में राजनेताओं व व्यापारियों का भी आस्था का केंद्र हैं। यहां चुनाव लड़ने से पूर्व बहुत से नेता मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर यहां पूजन व धागा खोलने के लिए आते हैं।
भारतीय संस्कृति में तो मंदिरों व धार्मिक स्थानों का एक विशेष स्थान है ही, परन्तु पड़ोसी देश नेपाल में भी भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू धर्म का प्रभाव नज़र आता है। नेपाल में स्थित बूढानीलकंठ मंदिर इसी का एक बड़ा उदाहरण है। नेपाल के शिवपुरी मैं स्थित यह मंदिर अध्भुत वास्तुकला व खूबसूरत स्मारक निर्माण की मिसाल है। भगवान विष्णु का यह मंदिर विश्व-विख्यात है व इसे देखने के लिए देश-प्रदेश से आने वाले पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। मंदिर परिसर में विष्णु भगवान की 5 मीटर लम्बी प्रतिमा विराजमान है जिस में भगवान विष्णु को निद्रा मुद्रा में दिखाया गया है व वे शेष नाग की कुंडली में विराजमान हैं। यह मूर्ती 13 मीटर के वर्ग में फैले तालाब में है जिसे ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतीक माना जाता है। प्रतिमा में विष्णु जी के चार हाथ व ग्यारह सिर उनके दिव्य गुणों को दर्शाते हैं। मंदिर में भगवान विष्णु के साथ-साथ शिव शंकर भी विराजमान हैं। जहां मंदिर में भगवान विष्णु प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में विराजमान हैं तो वहीं भोलेनाथ पानी में अप्रत्यक्ष रूप से विराजित हैं। माना जाता है कि बुढानिलकंठ मंदिर का पानी गोसाईकुंड में उत्पन्न हुआ था। लोगों का मानना है कि अगस्त में होने वाले वार्षिक शिव उत्सव के दौरान झील के पानी के नीचे शिव की एक छवि देखने को मिलती है।
हिमाचल, देवी देवताओं की भूमि है और यहां की आबोहवा में कई रोचक कहानियां छुपी हैं। ये कहानी है कोयला माता मंदिर की। कोयला माता मंदिर मंडी जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर स्थित है। माना जाता है कि माता शक्ति ने यहाँ कोलासुर नामक राक्षस का वध किया था और लोगों को उसके प्रकोप से बचाया था जिस कारन इसका नाम पड़ा। यहां माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते है। लोक कथाओं के अनुसार, प्राचीन समय में राजगढ़ की पहाड़ी पर यह मंदिर एक चट्टान के रूप में ही था। बाद में यह मंदिर कैसे अस्तित्व में आया और कोयला माता की पूजा अर्चना कैसे शुरू हुई इसके बारे में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है की उस समय राजगढ़ और आस-पास के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन मातम का माहौल छाया रहता था। हर दिन किसी न किसी के घर पर, कोई न कोई व्यक्ति मृत्यु का शिकार हो जाता। इस तरह राजगढ़ क्षेत्र का दाहुल शमशान घाट किसी भी दिन बिना चिता जले नहीं रहता था। यदि किसी दिन शमशान घाट में शव नहीं पहुंचता तो उस दिन वहां पर घास का पुतला जलाना पड़ता था। स्थानीय लोगों के मन में ये धारणा बन गई कि चिता के न जलने से किसी प्राकृतिक प्रकोप व् आपदा सामना करना पड़ेगा। इस तरह घास के पुतले को जलाने की प्रथा से यहां शुरू हो गई और जिस भी दिन कोई मृत्यु नहीं होती लोग शमशानघाट में घांस का पुतला जलाते।लेकिन हर दिन अंतिमसंस्कार कर लोग तंग आ गए थे और इस से छुटकारा चाहते थे। हर दिन दुःख दुखी से बचने के लिए क्षेत्र के लोगों ने देवी माँ के आगे प्रार्थना की। लोगों की प्रार्थना से माँ काली प्रसन्न हो गईं और देखते ही देखते एक व्यक्ति में देवी प्रकट हो गईं और वह व्यक्ति माँ की वाणी बोलने लगी। स्थानीय भाषा में इसे “खेलना ” कहते हैं। जभ वह व्यक्ति खेल गया तो माता का आदेश बताते हुए उसने कहा-“मैं यहाँ की कल्याणकारी देवी हूँ……तुम्हें घास के पुतले जलाने की प्रथा मुक्त करती हूँ। सुखी रहो और मेरी स्थापना यहीं कर दो।" लोगों ने जब व्यक्ति के मुख से देवी के वाक् सुने तो उन्होंने देवी से कही गई बातों का प्रमाण माँगा। इस पर उस खेलने वाले व्यक्ति ने पास की विशाल चट्टान की ओर इशारा किया और देखते ही देखते चट्टान से घी टपकने लगा। इसके बाद यहां से हमेशा घी बहता रहता था और इसका उपयोग लोग माँ की जोत जलाने के साथ ही अपने घर में भी करते थे। वहीं अचानक कुछ समय बाद इस चट्टान से घी टपकना बंद हो गया। इस के बारे में बताय जाता है की एक बार एक गद्दी अपनी भेड़ बकरियां लेकर इस रास्ते से गुजर रहा था। चढ़ाई चढ़ने के बाद वो आराम के लिए उसी चट्टान के समीप बैठ गया और वहां बैठ कर खाना खाने लगा। फिर उसने अपनी रोटी पर घी लगाने के उद्देश्य से अपनी जूठी रोटी चट्टान पर रगड़ने दी। जूठन के फलस्वरूप उसी दिन से चट्टान से घी टपकना बंद हो गया।
हिमाचल प्रदेश के दो जिलों की सीमाओं पर लगता आहदेवी एक बहुत सुन्दर स्थान है। यह मंदिर जिला हमीरपुर से 24 किलोमीटर दुरी पर पूरब की ओर और मंडी की सीमा पर स्थित है। यह मंदिर सैंकड़ों वर्ष पुराना है। मंदिर में माँ जालपा पिंडी रूप मैं विराजमान है। यहाँ गुग्गा पीर जी की पुरानी मूर्तियाँ भी स्थापित है। यहाँ पर विराजमान माता आहदेवी पर हज़ारों लोगों की आस्था का प्रतीक हैं। इस मंदिर की कहानी उस समय से सुनाई जा रही है जब इस क्षेत्र में राजाओं का राज्य हुआ करता था। कहा जाता है की मंडी रियासत के गाँव झड्यार का एक परिवार और काँगड़ा रियासत जो अब जिला हमीरपुर है के एक गाँव संगरोह के एक परिवार के खतों का खेती के लिए प्रयोग करते थे। एक बार खेतों में जुताई करते हुए हल एक पत्थर से टकराया और अचानक उस पत्थर से रक्त बहने लगा। इस करिश्मे को देखकर सभी हैरान हो गए और ये बात आग की तरह चारों ओर फ़ैल गई। जब माँ की इस पिंडी को बहार निकाला गया तो माँ ने दर्शन दिए और अपने लिए एक स्थान माँगा। इस बात पर हमीरपुर और मंडी के लोगों में बहस हो गई। मंडी के लोग कहने लगे ये पिंडी हमे मिली है इस लिए हम इसे अपने गांव ले जाएंगे और वहां इसकी स्थापना करेंगे। पर हमीरपुर के लोग इस पिंडी को अपने स्थान पर स्थापित करने के लिए अड़िग थे। इस बीच मंडी के परिवार ने पिंडी उठाई और चल पड़े, जब वह आहदेवी के पास पहुंचे तो उन्होंने वहां विश्राम करने के लिए पिंडी ज़मीं पर रख दी। पर जब उन्होंने वहां से प्रस्थान करने के लिए पिंडी उठाई तो पिंडी हिली भी नहीं। दोनों पक्षों की लाखों कोशिशें के बावजूद भी जब कोई वहां से पिंडी नहीं उठा सका बुज़ुर्गों ने फैसला लिया की इस पिंडी को वहीं स्थापित कर दिया जाए। तो वहीं दोनों परिवारों को इस पिंडी की पूजा अर्चना की जिम्मेवारी सौंप दी गई। उस दिन से लेकर आज तक उन दो परिवारों के वंशज इस मंदिर में मुख्य पुजारियों की भूमिका निभा रहे हैं। आहदेवी हमीरपुर में सबसे ऊंचा स्थान है, और यहाँ बहुत तेज़ हवाएं चलती हैं, इस वजह से इसका नाम आहदेवी पड़ गया। यह भी कहा जाता है की हरयाणा के जिला अम्बालके गाँव नन्न्योला से एक महात्मा बाबा सरवन नाथ आए और यहाँ के मनमोहक दृश्य को देख कर यहीं तपस्या करने लगे। एक दिन माता ने उन्हें दर्शन देकर अपना मंदिर बनवाने की इच्छा प्रकट की। बाबा ने ये सुन यहाँ लोगों के साथ मिल कर एक मंदिर का निर्माण करवाया। कई वर्षों तक बाबा ने इस मंदिर में सेवाएं दी।
पहाड़ों की वादियों के बीच बसे चंबा शहर का सौंदर्य और इतिहास बहुत ही निराला है। यहां की वादियां और इमारतें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं। ऐसे ही एक कहानी है रानी सुनैना की। रानी सुनैना यानी बलिदान और साहस कि मूर्ति। ये चंबा रियासत की वो रानी है जिन्होंने अपनी प्रजा और राज्य के उत्थान के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के अपना बलिदान दे दिया। यूं तो चंबा शहर रावी और साल नदी के मध्य में बसा है पर एक समय ऐसा भी था जब यह शहर पीने के पानी की किल्लत से जूझ रहा था। दो नदियों के बीच बसे होने के बावजूद भी यहां पीने के लिए पानी की एक बूंद नहीं थी। उस समय चम्बा रियासत के राजा साहिल वर्मन हुआ करते थे। राजा भी इस समस्या से पूर्णतः वाकिफ थे पर वो करते भी क्या। एक रात उनकी पत्नी, रानी सुनैना को उनकी कुल देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि राज घराने में से किसी को बलिदान देना होगा तभी पानी की कमी पूरी होगी। जब राजा साहिल वर्मन को रानी सुनैना ने पूरी कहानी सुनाई तो राजा वर्मन बलिदान देने के लिए तैयार हो गए। फिर रानी सुनैना ने सोचा यदि राजा बलिदान देंगे तो उनका सुहाग छिन जाएगा और राज्य के सर से भी साया उठ जाएगा, और यदि उनके पुत्र राजकुमार युगाकर बलिदान देते है तो कुल का दीपक बुझ जाएगा और वंश को आगे कौन बढ़ाएगा। ये सब सोचकर रानी सुनैना ने स्वयं बलिदान देने का फैसला लिया। इस निर्णय से पुरी चंबा रियासत में शोक व विस्मय की लहर दौड़ गई। आखिरकार रानी सुनैना बलिदान देने के लिए महल से निकल पड़ीं। आंखों में आंसू लिए उनके इस काफिले में चंबा की जनता भी शामिल थी। रास्ते मे सूही के मढ़ से रानी सुनैना ने आखिरी बार चंबा शहर पर नज़र डाली और फिर आगे बढ़ते हुए ये काफिला मलून नामक स्थान पर रुक गया। ममता और बलिदान की मूरत रानी सुनैना बलिदान देने से पहले कहा 'मेरी इच्छा है कि मेरी याद में हर वर्ष मेला लगे। इस मेले को सिर्फ स्त्रियां मनाएं और पुरुष इस में भाग न लें और न ही राज परिवार की बहुएं इस में भाग लें। इस मेले में पूजा केवल राज परिवार की कुंवारी कन्या के हाथों करवाई जाए।' बस इतना कहकर रानी सुनैना ने जिंदा समाधि ले ली। उसी समय पानी की धार फूट पड़ी और रानी सुनैना का बलिदान चंबा के लोगों के लिए अमृत बन कर बहने लगा। रानी सुनैना के बलिदान को याद करते हुए राजा साहिल वर्मन ने जिस स्थान से रानी सुनैना ने आखिरी बार चंबा को देखा था उसी सूही के मढ़ नामक स्थान पर उनके मंदिर का निर्माण करवाया। हर वर्ष इस जगह सूही के मेले का भी आयोजन किया जाता है। ये मेला 3 दिन तक चलता है और यहां केवल बच्चे और महिलाएं ही उपस्थिति दर्ज करवाते है। महिलाएं रानी की प्रशंसा में लोकगीत गाती हैं और समाधि तथा प्रतिमा पर फूल की वर्षा की जाती है।
हिमाचल को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता। यहां के तीर्थ स्थल और देवी देवताओं के मंदिर इस बात के गवाह हैं की भगवन स्वयं यहां बसते हैं। प्रदेश का कोई ऐसा जिला नहीं है जहां ऐतिहासिक मंदिर न हों। इन्ही में से एक मंदिर है चंबा का ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर, जिसकी अनूठी निर्माण कला और उसका इतिहास लोगों में बरबस ही मंदिर की प्रति जिज्ञासा पैदा करता है। कब हुआ था निर्माण? चंबा क्षेत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक, इस मंदिर का निर्माण 10वीं सदी में राजा साहिल वर्मन द्वारा करवाया गया था। राजा साहिल वर्मन ने इस मंदिर को 920 और 940 ई. के बीच अपने शासनकाल के दौरान बनवाया। मंदिर में कुल 6 श्राइन है जिसमें हिंदू देवताओं की मूर्ति स्थापित की गई हैं। मंदिर परिसर में अन्य मंदिरों में शामिल राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण रानी शारदा ने 1825 में करवाया था। वहीं चंद्रगुप्त का शिव मंदिर साहिल वर्मन व गौरी शंकर मंदिर को उनके पुत्र युगकर वर्मन ने बनवाया था। मंदिर की खासियत यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर विष्णु का वाहन गरुड़ की धातु की बनी प्रतिमा सुशोभित हो रही है। मूलतः यह मंदिर भगवान विष्णु पर केंद्रित है। मंदिर में स्थित लक्ष्मी नारायण की मूर्ति दुर्लभ संगमरमर (marble) से बनी हुई है जिसे विंध्य पर्वत से यहाँ लाया गया था। इस मूर्ति के चार मुख और चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर दस अवतारों की लीला चित्रित की गई है। मंदिर से जुड़ी धारणा क्षेत्र में लोकप्रिय धारणा है कि राजा साहिल वर्मन ने संगमरमर लाने के लिए अपने आठ पुत्रों की बलि दी थी। अंत में उनके सबसे बड़े पुत्र, जिनका नाम युगकारा था, संगमरमर हासिल करने में सफल रहे। राजा पर भी लूटेरों ने हमला किया था पर एक संत की मदद से वह अपने आप को बचाने में सफल रहे। इस मंदिर के बारे में एक और धारणा यह भी है की सबसे पहले ये मंदिर चंबा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इसे वर्तमान स्थल पर स्थापित किया गया।
विश्व हिन्दू परिषद के प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य अतुल शाह व विभाग अध्यक्ष देवी प्रसाद देवली के नेतृत्व में मंगलवार को चमोली के कार्यकर्ताओं व रामभक्तों द्वारा विकट परिस्थितियों में भी अयोध्या धाम में 5 अगस्त से ऐतिहासिक राम मंदिर निर्माण में बद्रीविशाल धाम से अलकनंदा का जल व नारायण धाम की मिट्टी ( मृदा) कलश में लेकर मिलों पैदल चलकर व भू स्खलन क्षेत्र से गुजरते हुए पहुंचाया जा रहा है। गौरतलब है कि 5 अगस्त से अयोध्या में राम मंदिर बनवाए जाने की नींव रखी जा रही है जिसमें पुरे भारतवर्ष के कोने-कोने के धामों से रामभक्त व विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं द्वारा जल व मृदा क्लस के साथ साथ प्रत्येक प्रयागों का जल पहुंचाया जा रहा है। उसी के चलते मंगलवार को उत्तराखंड विहिप के प्रांतीय सदस्य अतुल साह व विभाग अध्यक्ष देवी प्रसाद देवली, जिलाध्यक्ष राकेश मैठाणी, बजरंगदल के पावन राठौर, हरि प्रसाद ममगाईं, हरीश पुरोहित आदित्य शाह, कुलबीर बिष्ट व अन्य कार्यकर्ताओं द्वारा पागलनाला से बिरही तक सड़क मार्ग बंद होने के बावजूद पैदल भू-स्खलन छेत्र व पहाड़ियों में पैदल चढ़कर मृदा कलस व जल हरिद्वार तक पहुंचाया गया साथ ही जगह जगह रामभक्तों द्वारा इनका भब्य स्वागत किया गया।
अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव में 15 साल बाद कुल्लू के देव बड़ा छमांहू 5000 हारियानों के लाव लश्कर के साथ आएंगे। दरअसल , देवता ने महोत्सव में आने की इच्छा जताई है। देवता ने गत वर्ष भी मेले में आने की इच्छा जताई थी, लेकिन प्रशासन व सर्व देवता समिति ने व्यवस्थाओं का हवाला देकर मना कर दिया था। अब इस वर्ष भी देवता ने इच्छा जाहिर की है जिसके बाद मेला आयोजकों के हाथ-पांव फूल गए हैं। अपने खर्च पर आएंगे महोत्सव में : हारियानों ने इस बार अपने खर्च पर महोत्सव में आने की बात कही है। देव बड़ा छमांहू कुल्लू जिले के बंजार उपमंडल की कोटला पंचायत से संबंध रखते हैं। 21 फरवरी को ऐतिहासिक कोठी कोटला से रवाना होंगे और 22 फरवरी को माधोराय व 18 करडु के साथ भव्य मिलन होगा। हजारों लोग देव मिलन के गवाह बनेंगे। बड़ा छमांहू की हैं 44000 रानियां: बड़ा देव छमांहू की 44 हजार रानियां हैं। जब देवता तपस्या में लीन होने के बाद स्वर्ग से लौटते हैं तो सर्वप्रथम रानियों से मिलने जाते हैं। इस दौरान हजारों लोग देवरथ को रानियों के कब्जे में से छुड़ाने का प्रयास करते हैं। रस्सा लगाने के बाद भी हजारों लोग देवरथ को नहीं खींच पाते हैं। देवता एक ही स्थान पर स्थिर रहते हैं।
आज हम आपको बताने जा रहे है सिमसा माता मंदिर के बारे में जो की हिमाचल के मंडी ज़िले के लड़-भड़ोल तहसील के सिमस नामक खूबसूरत स्थान पर स्थित है। इस देवी धाम का चमत्कार यह है कि यहाँ देवी निःसंतान महिलाओं की सूनी गोद भर देती है। देवी सिमसा को संतान-दात्री के नाम से भी जाना जाता है। इसके लिए महिलाओं को कोई कठिन नियम का पालन भी नही करना पड़ता है। कहा जाता है की मंदिर के फर्श पर सोने से ही महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। दूर-दूर से औरतें संतान प्राप्ति की चाह लिए इस मंदिर में सोने आती है। नवरात्रों में यहां सलिन्दरा उत्सव मनाया जाता है, जिसका अर्थ है सपने आना, निःसंतान महिलाये दिन रात इस मंदिर के फर्श पर सोती है। नवरात्रों में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ से ऐसी सैकड़ों महिलाएं इस मंदिर की ओर रूख करती है जिनके संतान नहीं होती है। मान्यता के अनुसार यदि किसी महिला को अमरुद का फल मिलता है तो वे समझ ले कि लड़का होगा, परंतु अगर किसी को स्वप्न में भिन्डी मिलती है तो बेटी होने का आर्शिवाद मिला बताया जाता है। ये भी कहा गया है कि यदि किसी महिला को धातु, लकड़ी या पत्थर की बनी कोई वस्तु प्राप्त हो तो उसे समझ जाना चाहिए कि उसके संतान नहीं होगी। पौराणिक कथा एक दंपति जोड़े को संतान नही हो रही थी। कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद वो अपनी उम्मीद कम कर बैठे थे। फिर किसी के द्वारा उन्हें सिमसा माता मन्दिर लडभड़ोल की जानकारी मिली। वो दंपति माता की सेवा में लग गए और सच्चे दिल से भक्ति करने लगे। माता की कृपा से उन्हें आठ साल बाद संतान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। संतान का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद भे वो सच्चे दिल से माँ की भक्ति करते रहे। जब उनका पुत्र 1 साल का हो गया, तो वो सिमसा माता मंदिर लडभड़ोल मे जातर(भेंट) चढ़ाने गए। इसके 1-2 दिन पश्चात सुबह के वक्त उस दंपति के आँगन मे एक छोटी कन्या नंगे पैर भिक्षा मांगने आयी। जब घर से रविंदर कोरला की माता जी बाहर आई तो उस लड़की ने सिर्फ चीनी की कटोरी की मांग की, और यह भी कहा कि मुझे पैसे नही चाहिए। पर रविंदर की माता नहीं मानी और जब उन्होंने पैसे देने के लिए अपना ट्रंक खोला तो पैसे गायब थे। उसकी जगह फ़ूल पड़े थे। पहले तो माता ने सोचा था कि यह कोई झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली लड़की है। पर बाद में उन्हें यह देख के आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह बात घर के बाकी सदस्यों को बताई। घर के कुछ सदस्य बाहर निकले लड़की अभी भी आँगन में मौजूद थी। उन्होंने लड़की से पूछा कि आप कौन हो तो उस लड़की ने कहा कि में सिमसा हूं, लडभड़ोल से आयी हूं। यह बात सुनकर सारे सदस्य हैरान हो गए। बाद में लड़की ने कहा कि जो आपके घर पुत्र हुआ उसके हाथों से मुझे पानी का एक लोटा दिलाओ। सारे सदस्य उस कन्या के चरणों में झुक गये। रविंदर ने अपने पुत्र के हाथों से जल का एक लोटा दिलाया। देवी ने कहा कि मैं आपकी सच्ची भक्ति से बड़ी प्रसन्न हूं। मैं आपके द्वारा दुखी लोगों और निसंतान दम्पतियों का कल्याण करूँगी। इसलिए में आपके घर स्थान लेना चाहती हूँ। मझे अपने घर के किसी कमरे में ले चलो। रविंद्र जी उस कन्या को एक कमरे में ले गए। कन्या ने उन्हें अपने असली रूप में दर्शन दिए और वहाँ धरती पर हाथ रखा, जिससे धरती पर दरारे पड़ गई जो देखने मे ऐसी प्रतीत होती है कि धरती को लाइनों के द्वारा अलग कर दिया गया हो। बाद में माँ ने अपनी छोटी-2 दो उंगलियों से धरती को छुआ। जिससे धरती पर उनके निशान आ गए जो आज भी है और वहां उस धरती से माता की पिंडी उबर कर आई। बाद में माता सिमसा ने बताया कि मेरे इस स्थान में जो भी आएगा वो खाली हाथ नहीं लौटेगा ओर उसकी हर मनोकामना पूरी होगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गयी और पंडित रविंदर बेहोशी की हालत में चले गए। उसके बाद जैसे-जैसे लोगों को ये बाद पता चली। लोग दूर दूर से माँ के दरबार में आने लगे।
आज हम आपको दर्शन कराने जा रहे है माहुंनाग मंदिर के, जो की ज़िला मंडी की तहसील करसोग में स्थित है। माहुंनाग जी को दानवीर कर्ण का अवतार माना जाता है। देव बड़ेयोगी माहुंनाग जी के गुरु है। यह मंदिर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ से दूर दूर तक बहुत सी पहाड़ियां दिखाई देती है। माहुंनाग जी मूल माहुंनाग के रूप में प्रसिद्ध है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने छल से कर्ण का वध किया परन्तु अर्जुन का हृदय ग्लानी से भर गया। कर्ण का अंतिम संस्कार करने के लिए अर्जुन ने अपने नाग मित्रों की सहायता से सतलुज के किनारे ततापानी के समीप कर्ण का शव लाकर अंतिम संस्कार कर दिया। उसी चिता से एक नाग प्रकट हुआ और वही समीप बस गया। पौराणिक कथा एक बार सेन वंश के एक शासक ने गुर की परीक्षा लेनी चाही। राजमहल में एक प्रकार की शिलाओं को रखा गया और एक एक शिला के नीचे माहुंनाग लिखा गया। अब गुर को उस शिला को पहचानना था। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके बाल व दाड़ी को मुंडवा कर उसे असत्य करार दिया जाता। अब गुर की परीक्षा सभी के सामने हुई। गुर के प्राण संकट में थे, वह ये निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन सा स्थान सही है। ऐसा सोचते हुए एक मधुमक्खी उसके कान के पास आई और एक शिला में बैठ गई। अब गुर उसी शिला पर खड़ा हो गया और उसी पर माहुंनाग लिखा गया था। राजा अब देवता की शक्ति से आश्वस्त हो गया और देवता को पूज्य स्थान प्राप्त हो गया। विशेषताएं चैत्र मास के नवरात्रों में प्रतिवर्ष लगभग एक मास की रथ यात्रा माहुनाग सुंदरनगर क्षेत्र के लोक कल्याण हेतु करते है । देवता का रथ गुर , पुजारी , मेहते कारदार , बजंत्री व श्रद्धालु साथ चलते है । यहाँ दूर दूर से लोग अपनी मन्नते पूरी होने पर आते है और भेंट स्वरुप विभिन्न उपहार चढ़ाते है ।
आज हम आपको बताने जा रहे है एक ऐसे मंदिर के बारे में जहां माँ -पुत्र के पावन मिलन के अवसर पर एक मेले का आयोजन किया जाता है। यह मंदिर श्री रेणुका माता के नाम से जाना जाता है और हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर में स्तिथ है। श्री रेणुका जी मेला हिमाचल प्रदेश के प्राचीन मेलों में से एक है, जो हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। यह मंदिर उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान परशुराम जामूकोटी से वर्ष में एक बार अपनी माँ रेणुका से मिलने आते है। यह मेला श्री रेणुका माँ के व उनके पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा संगम है। यह स्थान नाहन से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। रेणुका झील के किनारे माँ श्री रेणुका जी व भगवान परशुराम जी के भव्य मंदिर स्थित हैं। पौराणिक कथा कथा के अनुसार प्राचीन काल में आर्यवर्त में हैहय वंशी क्षत्रीय राज करते थे। भृगुवंशी ब्राह्मण उनके राज पुरोहित थे। इसी भृगुवंश के महर्षि ऋचिक के घर महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। इनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ। महर्षि जमदग्नि सपरिवार इसी क्षेत्र में तपस्या करने लगे। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की, वह तपे का टीला कहलाता है। महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी जिसे पाने के लिए सभी तत्कालीन राजा, ऋषि लालायित थे। राजा अर्जुन ने वरदान में भगवान दतात्रेय से एक हजार भुजाएं पाई थीं। जिसके कारण वह सहस्त्रार्जुन कहलाए जाने लगे। एक दिन वह महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु मांगने पहुंचे। महर्षि जमदग्नि ने सहस्त्रबाहु एवं उसके सैनिकों का खूब सत्कार किया। उन्होंने उसे समझाया कि कामधेनु गाय उसके पास कुबेर जी की अमानत है, जिसे वो किसी को नहीं दे सकते। गुस्साए सहस्त्रबाहु ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी। यह सुनकर माँ रेणुका शोकवश राम सरोवर मे कूद गई। राम सरोवर ने मां रेणुका की देह को ढकने का प्रयास किया। जिससे इसका आकार स्त्री देह समान हो गया। जिसे आज पवित्र रेणुका झील के नाम से जाना जाता है। ये बात सुनते ही परशुराम अति क्रोध में सहस्त्रबाहु को ढूंढने निकल पड़े। उसे युद्ध के लिए ललकारा। भगवान परशुराम ने सेना सहित सहस्त्रबाहु का वध कर दिया। भगवान परशुराम ने अपनी योगशक्ति से पिता जमदग्नि तथा माँ रेणुका को जीवित कर दिया। माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी को अपने पुत्र भगवान परशुराम से मिलने आया करेंगी। विशेषताएं राज्य सरकार द्वारा इस मेले को अंतरराष्ट्रीय मेला घोषित किया गया है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर माँ-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होते है। यह मेला श्री रेणुका माँ के वात्सल्य एवं पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा आयोजन है। यह मंदिर उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है।
भारत में अनेकों ऐसे मंदिर है जो अपनी अनोखी परंपराओं के कारण प्रसिद्ध है। भारत में जहां किसी दम्पति के एक साथ मंदिर में जाकर पूजा करने को बड़ा ही मंगलकारी माना जाता है, वहीं ज़िला शिमला के रामपुर नामक स्थान पर मां दुर्गा का मंदिर स्तिथ है। मां दुर्गा के इस मंदिर में पति और पत्नी के एक साथ पूजन या दुर्गा की प्रतिमा के दर्शन करने पर पूरी तरह से रोक है। इसके बाद भी अगर कोई दम्पति मंदिर में जाकर प्रतिमा के दर्शन एक साथ करता है तो उन्हें इसकी सजा भुगतनी पड़ती है। कहा जाता है की वे एक दूसरे से अलग हो जाते है। यह मंदिर श्राईकोटि माता के नाम से पूरे हिमाचल में प्रसिद्ध है। इस मंदिर में दम्पति जाते तो हैं पर एक बार में एक ही दर्शन करता है। यहां पहुंचने वाले दम्पति अलग -अलग समय में प्रतिमा के दर्शन करते हैं। यह मंदिर समुद्र तल से 11000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्तिथ है। पौराणिक कथा लोगों की मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों गणेश और कार्तिकेय को ब्रह्मांड का चक्कर लगाने कहा था। कार्तिकेय तो अपने वाहन पर बैठकर भ्रमण पर चले गए किन्तु गणेशजी ने अपने माता-पिता के चक्कर लगा कर ही यह कह दिया था, कि माता-पिता के चरणों में ही ब्रह्मांड है। इसके बाद जब कार्तिकेयजी ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर वापिस आए, तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। इसके बाद वह गुस्सा हो गए और उन्होंने कभी विवाह न करने का संकल्प लिया। श्राईकोटी मंदिर के दरवाजे पर आज भी गणेश जी सपत्नी स्थापित है। कार्तिकेयजी के विवाह न करने के प्रण से माता पार्वती बहुत रुष्ट हुई और कहा कि जो भी पति-पत्नी यहां एक साथ माता के दर्शन करेंगे, वह एक दूसरे से अलग हो जाएंगे। इस कारण आज भी यहां पति-पत्नी एक साथ पूजा नहीं करते। विशेषताएं यह मंदिर सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है तथा मंदिर की देख- रेख माता भीमाकाली ट्रस्ट के पास है। जंगल के बीच इस मंदिर का रास्ता देवदार के घने वृक्षों से और अधिक रमणीय लगता है। इस मंदिर में विभिन्न परंपराओं और मान्यताओं का पालन किया जाता है। यहा हजारों भक्त दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन जो दम्पति आते हैं वे एक साथ दर्शन नहीं करते है। यह मंदिर देखने में बहुत ही आकर्षित लगता है।
देवों के देव महादेव की लीला अपरंपार है, यही कारण है कि कई भक्त महादेव के दीवाने हैं। हमारे देश भारत में भगवान शिव के कई शिवलिंग स्थित हैं और इससे जुड़े कई रहस्य है। आज जिस शिवधाम के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं वो कई रहस्यों का सागर है। ऐसा कहा जाता है की इस धाम की यात्रा इंसान अपने जीवन में सिर्फ एक बार ही कर पाने की हिम्मत रखता है। यह शिव धाम हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित है। यह समुन्द्र तल से 24 हज़ार फीट की ऊंचाई पर है। किन्नर कैलाश पर्वत पर स्थित शिवलिंग 79 मीटर की ऊंचाई पर सीना ताने खड़ा है। इस स्थान को भगवान शिव का शीतकालीन प्रवास स्थल भी माना जाता है। किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग अपने कई रहस्यों के लिए जाना जाता है। शिवलिंग से जुड़ी पौराणिक कथा किन्नर कैलाश के बारे में कई कथाएं कही जाती हैं। कुछ धार्मिक विद्वान ये बताते हैं की महाभारत काल में इस कैलाश का नाम इन्द्रकीलपर्वत था और यहां भगवान शिव और अर्जुन के बीच युद्ध हुआ था। ये भी कहा गया है की पांडवों ने अपने वनवास का अंतिम समय यही पर गुज़ारा था। किन्नर कैलाश को वाणासुर का कैलाश भी कहा जाता है। कहा जाता है की किन्नर कैलाश के आगोश में श्री कृष्ण के पोते का विवाह हुआ था। यहाँ शिवलिंग दिन में कई बार बदलता है रंग यहाँ पर स्थित शिवलिंग की एक चमत्कारी बात है कि यह दिन में कई बार यह रंग बदलता है। सूर्योदय से पूर्व सफेद, सूर्योदय होने पर पीला, मध्याह्न काल में यह लाल हो जाती है और फिर क्रमश:पीला, सफेद होते हुए संध्या काल में काली हो जाती है। क्यों होता है ऐसा, इस रहस्य को अभी तक कोई नहीं समझ सका है। शिवलिंग की परिक्रमा करना बहुत ही मुश्किल किन्नर कैलाश को हिमाचल का बद्रीनाथ भी कहा जाता है। इस विशाल शिवलिंग की परिक्रमा करना बहुत ही मुश्किल काम है जहाँ कई भक्त स्वयं को रस्सियों से बांधकर परिक्रमा पूरी करते हैं। इस पुरे पर्वत का एक चक्कर पूरा करने में 7 से 10 दिन तक का समय लग जाता है। ये कहा जाता है की किन्नर कैलाश पर्वत की यात्रा करने से सारी इच्छाएं पूर्ण होती हैं। रास्ते पर स्थित है चमत्कारी पार्वती कुंड गणेश पार्क से तक़रीबन 500 मीटर की दुरी पर पार्वती कुंड स्थित है। इसके बारे में ये कहा जाता है की अगर पूरी सच्ची श्रद्धा के साथ इसमें सिक्का डाला जाएं तो मन की मुराद ज़रूर पूरी होती है। किन्नर कैलाश जाने वाले भक्त इस कुंड में स्नान करने के बाद तक़रीबन 24 घंटे का कठिन सफर पार कर किन्नर कैलाश स्थित शिवलिंग के दर्शन कर पाते हैं। विशेषताएं यह हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में स्थित है। किन्नर कैलाश को हिमाचल का बद्रीनाथ भी कहा जाता है। किन्नर कैलाश पर्वत पर शिवलिंग स्थित है। इस शिवलिंग से जुड़ा एक रहस्य ये है की इसका रंग दिन के हर पल के साथ बदलता रहता है जो की अपने आप में एक गुत्थी है। सावन का महीना शुरू होते ही किन्नर कैलाश यात्रा शुरू हो जाती है। इस यात्रा के लिए देश भर से लाखों भक्त किन्नर कैलाश के दर्शन के लिए आते हैं। रास्ते पर स्थित पार्वती कुंड के बारे में मान्यता है कि इसमें श्रद्धा से सिक्का डाल दिया जाए तो मुराद पूरी होती है। इस धाम से लौटते वक़्त भक्त ब्रह्मकमल और औषधीय फूल प्रसाद के रूप में ले जाते हैं।
हिमाचल प्रदेश करोड़ों देवी- देवताओं के वास के लिए प्रसिद्ध है और शायद यही वजह है कि स्थानीय लोगों सहित बाहरी राज्यों के लोगों में भी इन देवी- देवताओं के प्रति अपार श्रद्धा है। इन देवी- देवताओं से जुड़े हर मंदिरों में लोगों की गहरी आस्था है और आज ऐसे ही एक मंदिर के बारे में हम आपको बताने जा रहे हैं। यह मंदिर है, तरंण्डा देवी मंदिर। हिमाचल प्रदेश जिला किन्नौर के एनएच-5 के किनारे स्थित इस मंदिर की मान्यता है कि यहां से गुज़रने वाले हर भक्त को मंदिर में माथा टेकना चाहिए,ऐसा न करने पर उसके साथ कुछ अनहोनी हो सकती है। यह मंदिर जिला शिमला रामपुर से करीब 40 किमी दूरी पर स्थित है। पौराणिक कथा कहा जाता है कि 1962 में जब भारत,चीन के बीच युद्ध हुआ तो सेना ने यहां के रास्ते से रोड़ बनाने की सोची ताकि बॉर्डर तक सेना को गोला बारूद और अन्य सामान पहुंचाया जा सके क्यूंकि पहले रोड़ सिर्फ रामपुर तक ही था। 1963 में सेना के GREF विंग ने यहां सड़क बनाने का काम शुरू किया लेकिन तरंण्डा के आगे रोड़ बनाना मुश्किल हो गया। उन दिनों यहां चट्टानें गिरने से आए दिन किसी न किसी मज़दूर की मौत हो जाती थी। ऐसे में परेशान सेना के लोग, गांव के लोगों के साथ गांव में बने मंदिर मां चंद्रलेखा के पास पहुंचे। सेना ने माता के समक्ष सारी व्यथा सुनाई। देवी ने बताया कि यहां पर किसी शक्ति का प्रकोप है। उससे बचने के लिए मुझे इस जगह स्थापित करो। मैं इस जगह स्थापित होना चाहती हूं। यहां मेरे नाम से मंदिर एक बनाओ सब कुछ ठीक हो जाएगा। बस फिर क्या था सेना के लोगों ने 1965 में मां का मंदिर यहां स्थापित करवाया और फिर सब कुछ ठीक हो गया। विशेषताएं यह मंदिर ज़िला शिमला के रामपुर से करीब 40 किलोमीटर दूर किन्नौर ज़िले के एनएच-5 के किनारे स्थित है। मंदिर की देखरेख सेना करती है। सेना के जवान यहां पूजा-पाठ का काम संभालते हैं। यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी मंदिर में रुकती है। सब लोग तरंण्डा मां के इस मंदिर में माथा टेकते हैं फिर आगे बढ़ते हैं ताकि कोई अनहोनी न हो। मंदिर बनने के बाद आज तक वह कोई अनहोनी नहीं हुई। यह मंदिर दिखने में बहुत ही आकर्षित लगता है। हर नवरात्रो में सेना द्वारा यहाँ भण्डारा दिया जाता है।
आज हम आपको उत्तरी भारत के इकलौते सूर्य मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। यह मंदिर देवभूमि कहे जाने वाले हिमाचल प्रदेश के जिला शिमला रामपुर से 18 किलोमीटर दूर नीरथ गांव का एक प्रसिद्ध सूर्य मंदिर है। यह स्थान शिमला से रामपुर की ओर आते रास्ते में ही पड़ता है जो कि उत्तर भारत व हिमाचल प्रदेश का एकमात्र मंदिर है। पौराणिक कथा जानकारों की मानें तो जब भगवान परशुराम ने अपने पिता के आदेश पर माता रेणुका की हत्या कर दी थी। इसके बाद मातृ दोष से मुक्त होने के लिए उन्हें हिमालय के तराई वाले क्षेत्रों में पांच मंदिरों की स्थापना करने को कहा गया था। इसके बाद उन्होंने नीरथ में सूर्य नारायण मंदिर, करसोग में कामाक्षा देवी मंदिर और मवेल महादेव, दत्तनगर में दत्तात्रे स्वामी और निरमंड में अंबिका माता मंदिर की स्थापना की थी। तब से लेकर आज तक यह उत्तरी भारत का एक मात्र सूर्य नारायण मंदिर अपने गौरवमयी इतिहास के लिए प्रसिद्ध है। विशेषताएं यह मंदिर शिमला ज़िले के निरथ में स्तिथ है। यह मन्दिर उत्तर भारत का एकलौता सूर्य मन्दिर भी है। मंदिर की स्थापना सम्भवत: परशुराम ने की थी। इस मंदिर का उलेल्ख 1908 में मार्शल ने किया था। मंदिर के गर्भगृह में पाषाण सूर्य प्रतिमा 3 फुट ऊँची और 4 फुट चौड़ी है। मन्दिर में कई शिवलिंग भी है। मन्दिर का क्षेत्रफ़ल 300 वर्ग गज है। इस मंदिर में पत्थरों पर नक्काशी की गई है, जो शायद ही देश के दूसरे मंदिरों में होगी। मन्दिर के निर्माण में पत्थर व लकड़ी का मिलाजुला रुप दिखायी देता है। मंदिर में नृत्य मग्न गणेश,शिव-पार्वती और अन्य हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियां है। मंदिर के बाहरी दीवार पर बारह अवतार,लक्ष्मी नारायण,आठ भुजाओं वाले गणेश और ब्रम्हा की मूर्तियां स्थापित हैं। मध्य भाग में चारों तरफ सूर्य की प्रतिमाएं और सिंह की प्रतिमाएं निर्मित है। प्रत्येक वर्ष शरद ऋतु के आरम्भ में यहाँ एक मेले का आयोजन किया जाता है। राहुल सांस्कृत्यान ने अपनी पुस्तक में इस मंदिर का उलेल्ख किया है।
इन दिनों देश भर में गणेश उत्सव की धूम देखने को मिल रही है। जगह-जगह भगवान गणेश की महिमाओं का गुणगान हो रहा है तो चलिए हम आज आपको एक ऐसे गणेश मंदिर के बारे में बताते है जो तांत्रिक शक्तियों से परिपूर्ण है। यह मंदिर हिमाचल प्रदेश की छोटी काशी के नाम से विख्यात मंडी ज़िले में स्थित है। यह मंदिर उत्तरी भारत का इकलौता सिद्ध मंदिर है। पौराणिक कथा इस मंदिर में जो भगवान गणेश की मूर्ति है। उसे 1686 ई में मंडी रियासत के तत्कालीन राजा सिद्ध सेन ने स्थापित करवाया था। राजा, तंत्र विद्या में काफी रूचि रखते है इसीलिए उन्होंने इस मूर्ति की सिद्धि करवाई और इसे ज्यादा प्रभावशाली बनाने के लिए तांत्रिक शक्तियों से परिपूर्ण किया गया। बताया जाता है की पश्चिम बंगाल की तरफ भगवान गणेश के ऐसे अनेको मंदिर विराजमान है लेकिन उत्तरी भारत में यह इकलौता है। साँप का तंत्र विद्या से पर्याप्त महत्व है। इसी के चलते जब राजा ने मूर्ति का निर्माण करवाया तो इसमें नाग देवता की छवि को भी उभरा गया, जिसके बाद इसकी सिद्धि करके इसे सिद्ध गणपति का नाम दिया गया। जानकारी के मुताबिक मंडी में सेन वंशज पश्चिम बंगाल से आए थे और वंशज के राजा सिद्धसेन ने एक अन्य राज्य पर जीत का परचम लहराने की मनोकामना मांगी थी। विशेषताएं ये मंदिर हिमाचल के मंडी ज़िले में स्तिथ है। मंदिर के इतिहास पर विधायक दीनानाथ शास्त्री किताब लिख चुके है। इस मंदिर में गणेश जी की मूर्ति पर सिंदूर से लेप किया गया है। यहाँ पर लगातार 21 बुधवार आकर पूजा अर्चना करने पर मनवांछित फल की प्राप्ति होती है। हर वर्ष यहाँ गणेश उत्सव बड़ी ही धूम धाम से मनाया जाता है। तांत्रिक शक्तियों वाला हिमाचल में यह इकलौता मंदिर है। गणेश उत्सव के दौरान प्रशासनिक अधिकारों से लेकर मंत्री भी यहाँ आते है। मूर्ति के गले में हर वक़्त नाग देवता भी विराजमान रहते है।
आज हम बात कर रहे है मुंबई के सिद्दिविनायक मंदिर की। इस मंदिर की अपनी एक अलग ही पहचान हैं। यहाँ देश-विदेश से लोग श्रीगणेश भगवान के एक दर्शन पाने के लिये आते हैं। इस मंदिर के नाम के पीछे भी एक वाकया है इसका नाम सिद्दिविनायक इसलिये पड़ा क्योंकि भगवान गणेश के सूड दाई ओर मुड़ी होती हैं तथा वे सिद्धि पीठ से जुड़ी होती हैं। गणेश के शरीर से ही सिद्दिविनायक नाम पड़ा। इस मंदिर के प्रति लोगो में अटूट विश्वास है। पौराणिक कथा भारत के प्रसिद्ध सिद्धिविनायक मंदिर का निर्माण 19 नवंबर 1801 को एक लक्ष्मण विथु पाटिल नाम के एक स्थानीय ठेकेदार द्वारा किया गया था। बहुत कम लोग इस तथ्य को जानते हैं कि इस मंदिर के निर्माण में लगने वाली राशी एक कृषक महिला ने दी थी, जिसकी कोई संतान नहीं थी। वो इस मंदिर को बनवाने में मदद करना चाहती थी, ताकि भगवान के आशीर्वाद से कोई भी महिला बांझ न हो, सबको संतान प्राप्ति हो। इतिहासकारों की मानें तो सिद्दिविनायक मंदिर के पीछे कुछ इतिहासकार बताते हैं की इस मंदिर की स्थापना सन 1692 में हुई थीं तथा सरकारी खबर से इसका निर्माण 1801 में हुआ था। शुरू में यह मंदिर छोटा था लेकिन बाद में इसका कई बार निर्माण हो चुका हैं जिस कारण अब मंदिर काफी बड़ा हैं। विशेषताएं सिद्दिविनायक मंदिर महाराष्ट्र के मुंबई शहर में स्थित है। इस मंदिर की एक अलग विशेषता हैं जो की चतुभुर्जी विग्रह गणेश जी की मूर्ति पर उपरी दाहिने हाथ में कमल के फूल और बाएँ हाथ में अंकुश हैं तथा नीचे हाथ में मोतियों की माला और बाएँ हाथ में लड्डूओं से भरा कटोरा हैं। गणेश जी की दोनों पत्नियाँ रिद्धि और सिद्धि मौजूद इस मंदिर के प्रांगण में मौजूद हैं जो की धन, सफलता और मनोकामनाओं को पूरा करने का एक प्रतीक हैं। मंदिर के अंदर चांदी से बनी चूहों की दो बड़ी मूर्तियां मौजूद हैं, माना जाता है कि उनके कानों में भक्त अपनी इच्छाएं प्रकट करते हैं तो उनकी इच्छाएं गणेश अवश्य पूर्ण करते हैं। भक्तों का मानना है यहाँ मांगी गई हर मन्नत पूरी होती है। इस मंदिर के द्वार हर धर्म जाति के लोगों के लिए खुले हैं। सिद्धी विनायक मंदिर अपनी मंगलवार की आरती के लिए बहुत प्रसिद्ध है। इस मंदिर की इमारत 5 मंजिला हैं। इस मंदिर में प्रवचन के लिये अलग से हाल है। मंदिर के दूसरी मंजिल पर अस्पताल है जहाँ पर रोगियों का निशुल्क उपचार किया जाता हैं। इस मंदिर में लिफ्ट लगे हुए हैं। इस मंदिर में एक अलग से लिफ्ट है जहाँ पर पुजारी लोग गणेश जी के लिये पूजा की सामग्री, प्रसाद तथा लड्डू आदि लाते है। खासकर गणेश चतुर्थी के दौरान यहां भक्तों का भारी जमावड़ा लगता है। इस दौरान मंदिर में भव्य आयोजन किए जाते हैं। यहां दर्शन करने के लिए बॉलीवुड स्टार से लेकर नेता,बड़े उद्योगपतियों का आगमन भी होता है। सिद्धिविनायक मंदिर की गिनती भारत के सबसे अमीर मंदिरों में की जाती है। यह मंदिर आतंकवादियों के हेड लिस्ट में हमेशा से ही रहता हैं। केंद्र सरकार और राज्य सरकार इस मंदिर को काफी सुरक्षा देती हैं। आज भी अगर हम सिद्दिविनायक में जाते है तो हमें मुंबई पुलिस के जवान और भारतीय सेना के जवान दिखते हैं, जिन्होंने इस मंदिर को चारों ओर से घेर रखा हैं।
In the beautiful woods of a small town in Himachal Pradesh resides the heavenly deity, Maa Tara. Himachal Pradesh is well known for its mesmerizing beauty, lush green forests and of course it is land of splendid mountains, a pristine place which feeds and provides solace to the mind and soul, a pious land which is associated with the supernatural . The enigma of a place which attracts people from every nook and corner of the world . Along being praised for its natural beauty Himachal is also referred as the "Dev-Bhoomi" which means the "abode of God." One can say that Himachal is the smaller and diversified version of India because various deities residing in this heavenly place . One of the most praised deity of Himachal is Maa Tara Devi. Tara devi temple is located in the mid of the thick forest of oak and rhododendron on Tarab hills in Shimla Himachal Pradesh. This temple is famous for its divine beauty and spiritual peace. Tara Devi Temple is situated at a height of 1851 meters above sea level. It is about 11 kilometers away from Shimla. Tara Devi Temple is accessible by rail, bus and car, but the best way to enjoy the magnificent beauty of the place is to follow the path of the Tarab trek . HISTORY The history of tara devi temple dates back about 250 years ago. It is believed that Maa Tara Devi was brought to Himachal from West Bengal. A King from the sen dynasty of Bengal once visited Himachal. He was in the habit of carrying the idol of his family in the upper torso of his arm. One day while hunting in the dark and dense forests of Juggar, Raja Bhupendra Sen fell asleep and had a dream; in the dream he saw his family deity Ma Tara and her consorts Dwarpal Bhairav and Lord Hanuman requesting him to unveil them before the common economically dis- empowered populace. Inspired by his dream, Raja Bhupendra Sen donated 50 bighas of land and sponsored the construction of a temple in the land. The first Idol was made of wood which was installed in accordance with Vaishnav traditions. Later generations of the Sen Dynasty gradually improved the structure. Raja Balbir Sen commissioned the 'Ashtadhatu' deity which is still seen today. THE TUNNEL WAY The trek start from taradevi railway station and runs up to the temple. You may continue the trek from the jungle above the railway station or from the railway track which will include tunnel 91 of the Kalka Shimla railway line. This is the second longest tunnel of the track 992 meters. There is a long story behind this tunnel too It is believed that as this tunnel was being built under the residence of a powerful goddes , the workers were scared of working there as they didn’t want to face the goddess’ wrath. Work had to be stopped for a little while when a breathing pipe was mistaken for a large snake sent by the goddess herself. The tunnel is very long and a bit narrow so its tough to cross it. You must ask station master before crossing it to assure that there is no train coming and you have plenty of time to cross it . According to locals many people committed suicide in that tunnel and some got accidently killed by the train while they passing through the tunnel . That tunnel is a bit haunted but would give you plenty of thrill for sure . After passing the tunnel the path continues along the railway trek and then you have to climb the hill covered by dense forest of oak and rhododendron to reach your destination . THE JUNGLE WAY This way totally involve a narrow path through a dense forest . One has to hike for about two hours to reach the temple . Through the dense forest of the pinewood, oak, Rhododendron , rich in flora and fauna, passing through the green meadows on the way, it is one of the most beautiful walks around Shimla. The meandering foot path, climbs gently to the top of the hill and it turns to be a tireless climb. On the way to the top there are various places which offer wide panoramic views of Shimla town with the Himalayas at back. Atmosphere of the hike rejuvenates the nature lovers and common tourists visiting this sacred temple, which provides excellent views. Pine – scented mild breeze on the way refreshes people beyond expectations. The trek starts from tara devi bus stand that is base of the mountain when you reach their you will realize that the world might have taken a leap of ten years, but the trees and the jungle still stand just the same. They stand tall, proud, looking down on all of us . The jungle beckons you . The total distance of the trek is 4 kms and most of it is uphill, and through a jungle trail. This trek can be undertaken around the year. Just be careful of the running streams in monsoon and the snowy trails in winter. On the whole trail will just see a handful of people otherwise it will just be the jungle and you . Not a soul around and almost pin drop silence. The first stretch of half an hour or so is a gradual slope that circles the mountain. Before you reach the half way mark the trail becomes more steeper, and a little tiresome . After you will complete half way , you will see the remains of a rain shelter with a broken hand pump . After walking a bit you will soon reach a place where you will see four mobile towers on the top of mountain . The view from that point will take you to another world , from there you can get the glimpse of whole Shimla . The jungle in this last stretch is mesmerizing, there are pockets which get very little sun and have huge ferns, in deep greens growing here . After this a walk of few more minutes through the woods and you will reach your destination . The jungle is fierce and interesting so definitely a place to visit . SHIV KUTIYA After visiting tara devi temple and tasting the divinity in the air you may now move further to Shiv Kutiya . A small temple of lord shiva located under the tara devi temple in the dense forest gives you the feel of Lord Shiva actually residing in Kailash. The temperature of the temple is naturally lower than other parts of the jungle. It is believed that many years ago a saint who used to meditate here He stayed here even at the worst of temperature , be it deepest of winters he could be found only in a langot with ash smeared all over him. He was believed to be from South India, and a qualified engineer from Merchant Navy. The only thing you will sense there is the extreme peace and divinity in the air .Temple has the Samadhi of one more saint who meditated here. There is a small room along the temple where you will see a log burning continuously most probably called baba g ka dhoona . It is believed that the babaji is in mediation here, and the ash from the log is supposed to be prasad for his followers. This temple is a feast for all the Lord Shiva bhakt .
तहसील जुब्बल कोटखाई में मां हाटेश्वरी का प्राचीन मंदिर है। यह शिमला से लगभग 110 किमी की दूरी पर समुद्रतल से 1370 मीटर की ऊंचाई पर पब्बर नदी के किनारे समतल स्थान पर है। मान्यता है कि इस प्राचीन मंदिर का निर्माण 700-800 वर्ष पहले हुआ था। मंदिर के साथ लगते सुनपुर के टीले पर कभी विराट नगरी थी, जहां पर पांडवों ने अपने गुप्त वास के कई वर्ष व्यतीत किए। माता हाटेश्वरी का मंदिर विशकुल्टी,राईनाला और पब्बर नदी के संगम पर सोनपुरी पहाड़ी पर स्थित है । मूलरूप से यह मंदिर शिखराकार नागर शैली में बना हुआ था,बाद में एक श्रद्धालु ने इसकी मरम्मत कर इसे पहाड़ी शैली के रूप में परिवर्तित कर दिया। मंदिर के दक्षिण पश्चिम में चार छोटे शिखर शैली के मंदिर देखने को मिलते हैं। यह मुख्य अर्धनारिश्वरी मंदिर के अंग माने जाते हैं। मां हाटकोटी के मंदिर में एक गर्भगृह है जिसमं मां की विशाल मूर्ति विद्यमान है। यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी की है। इतनी विशाल प्रतिमा न केवल हिमाचल में ही बल्कि भारत के प्रसिद्ध देवी मंदिरों में भी देखने को नहीं मिलती। प्रतिमा किस धातु की है इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। यहां के स्थायी पुजारी ही गर्भगृह में जाकर मां की पूजा कर सकते हैं। कहा जाता है की यहाँ आने पर माता बीमारियों को दूर करती है। मंदिर के बाहर प्रवेश द्वार के बाई ओर एक ताम्र कलश लोहे की जंजीर से बंधा है जिसे स्थानीय भाषा में चरू कहा जाता है। चरू के गले में लोहे की जंजीर बंधी है। यहां की मान्यता है कि सावन भादों में जब पब्बर नदी अत्यधिक बाढ़ से ग्रसित होती है, तब हाटेश्वरी मां का यह चरू सीटियां भरता है और भागने का प्रयास करता है। मंदिर के दूसरी ओर बंधा चरू नदी के वेग से भाग गया था, जबकि पहले को मंदिर पुजारी ने पकड़ लिया था। चरू पहाड़ी मंदिरों में कई जगह देखने को मिलते हैं। इनमें यज्ञ में ब्रह्मा भोज के लिए बनाया गया हलवा रखा जाता है। एक लोकगाथा के अनुसार इस देवी के संबंध में मान्यता है कि बहुत वर्षो पहले एक ब्राह्माण परिवार में दो सगी बहनें थीं उन्होंने अल्प आयु में ही सन्यास ले लिया और घर से भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उन्होंने संकल्प लिया कि वे गांव-गांव जाकर लोगों के दुख दर्द सुनेंगी और उसके निवारण के लिए उपाय बताएंगी। दूसरी बहन हाटकोटी गांव पहुंची जहां मंदिर स्थित है। उसने यहां एक खेत में आसन लगाकर ईश्वरीय ध्यान किया और ध्यान करते हुए वह लुप्त हो गई। वो जिस स्थान पर वह बैठी थी वहां एक पत्थर की प्रतिमा निकल पड़ी। इस आलौकिक चमत्कार से लोगों की उस कन्या के प्रति श्रद्धा बढ़ी और उन्होंने इस घटना की पूरी जानकारी तत्कालीन जुब्बबल रियासत के राजा को दी। जब राजा ने इस घटना को सुना तो वह तत्काल पैदल चलकर यहां पहुंचा और इच्छा प्रकट की कि वह प्रतिमा के चरणों में सोना चढ़ाएगा जैसे ही सोने के लिए प्रतिमा के आगे कुछ खुदाई की तो वह दूध से भर गया। उसके उपरांत खोदने पर राजा ने यहां पर मंदिर बनाने का निश्चय लिया। लोगों ने उस कन्या को देवी रूप माना और गांव के नाम से इसे 'हाटेश्वरी देवी' कहा जाने लगा।
हिडिम्बा देवी मंदिर उत्तर भारत में हिमाचल प्रदेश राज्य के मनाली में स्थित है। यह एक प्राचीन गुफा मंदिर है, जो भारतीय महाकाव्य महाभारत के भीम की पत्नी हिडिम्बी देवी को समर्पित है। यह मनाली में सबसे लोकप्रिय मंदिरों में से एक है। इसे ढुंगरी मंदिर (Dhungiri Temple) के नाम से भी जाना जाता है। मनाली घूमने आने वाले सैलानी इस मंदिर को देखने जरूर आते हैं। यह मंदिर एक चार मंजिला संरचना है जो जंगल के बीच में स्थित है। स्थानीय लोगों ने मंदिर का नाम आसपास के वन क्षेत्र के नाम पर रखा है। हिल स्टेशन में स्थित होने के कारण बर्फबारी के दौरान इस मंदिर को देखने के लिए भारी संख्या में सैलानी यहां जुटते हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस मंदिर में देवी की कोई मूर्ति स्थापित नहीं है बल्कि हिडिम्बा देवी मंदिर में हिडिम्बा देवी के पदचिह्नों की पूजा की जाती है।’हिडिम्बा देवी मंदिर का निर्माण हिमालय पर्वतों के कगार पर डुंगरी शहर के पास एक पवित्र देवदार के जंगल के बीच में कराया गया है। माना जाता है कि भीम और पांडव मनाली से चले जाने के बाद हिडिम्बा राज्य की देखभाल के लिए वापस आ गए थे। ऐसा कहा जाता है कि हिडिम्बा बहुत दयालु और न्यायप्रिय शासिका थी। जब उसका बेटा घटोत्कच बड़ा हुआ तो हिडिम्बा ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और अपना शेष जीवन बिताने के लिए ध्यान करने जंगल में चली गयी। हिडिम्बा अपनी दानवता या राक्षसी पहचान मिटाने के लिए एक चट्टान पर बैठकर कठिन तपस्या करती रही। कई वर्षों के ध्यान के बाद उसकी प्रार्थना सफल हुई और उसे देवी होने का गौरव प्राप्त हुआ। हिडिम्बा देवी की तपस्या और उसके ध्यान के सम्मान में इसी चट्टान के ऊपर इस मंदिर का निर्माण 1553 में महाराजा बहादुर सिंह ने करवाया था। मंदिर एक गुफा के चारों ओर बनाया गया है। मंदिर बनने के बाद यहां श्रद्धालु हिडिम्बा देवी के दर्शन पूजन के लिए आने लगे। हिडिम्बा मंदिर पांडवों के दूसरे भाई भीम की पत्नी हिडिम्बा को समर्पित है। हिडिम्बा एक राक्षसी थी जो अपने भाई हिडिम्ब के साथ इस क्षेत्र में रहती थी। उसने कसम खाई थी कि जो कोई उसके भाई हिडिम्ब को लड़ाई में हरा देगा, वह उसी के साथ अपना विवाह करेगी। उस दौरान जब पांडव निर्वासन में थे, तब पांडवों के दूसरे भाई भीम ने हिडिम्ब की यातनाओं और अत्याचारों से ग्रामीणों को बचाने के लिए उसे मार डाला और इस तरह महाबली भीम के साथ हिडिम्बा का विवाह हो गया। भीम और हिडिम्बा का एक पुत्र घटोत्कच हुआ, जो कुरुक्षेत्र युद्ध में पांडवों के लिए लड़ते हुए मारा गया था। देवी हिडिम्बा को समर्पित यह मंदिर हडिम्बा मंदिर के नाम से जाना जाता है। हिडिम्बा देवी मंदिर की खासियत यह है कि इस मंदिर का निर्माण पगोडा शैली (Pagoda Style) में कराया गया है जिसके कारण यह सामान्य मंदिर के काफी अलग और लोगों के आकर्षण का केंद्र है। यह मंदिर लकड़ी से बनाया गया है और इसमें चार छतें हैं। मंदिर के नीचे की तीन छतें देवदार की लकड़ी के तख्तों से बनी हैं और चौथी या सबसे ऊपर की छत का निर्माण तांबे एवं पीतल से किया गया है। मंदिर के नीचे की छत यानि पहली छत सबसे बड़ी, उसके ऊपर यानि दूसरी छत पहले से छोटी, तीसरी छत दूसरे छत से छोटी और चौथी या ऊपरी छत सबसे छोटी है, जो कि दूर से देखने पर एक कलश के आकार की नजर आती है। हिडिम्बा देवी मंदिर 40 मीटर ऊंचे शंकु के आकार का है और मंदिर की दीवारें पत्थरों की बनी हैं। मंदिर के प्रवेश द्वार और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की गई है। मंदिर में एक लकड़ी का दरवाजा लगा है जिसके ऊपर देवी, जानवरों आदि की छोटी-छोटी पेंटिंग हैं। चौखट के बीम में भगवान कृष्ण की एक कहानी के नवग्रह और महिला नर्तक हैं। मंदिर में देवी की मूर्ति नहीं है लेकिन उनके पदचिन्ह पर एक विशाल पत्थर रखा हुआ है जिसे देवी का विग्रह रूप मानकर पूजा की जाती है। मंदिर से लगभग सत्तर मीटर की दूरी पर देवी हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच को समर्पित एक मंदिर है।हर साल श्रावण के महीने में मंदिर में हिडिम्बा देवी मंदिर में एक उत्सव का आयोजन किया जाता है। माना जाता है कि यह उत्सव राजा बहादुर सिंह की याद में मनाया जाता है जिसने इस मंदिर का निर्माण कराया था। इसलिए स्थानीय लोगों ने इस मेले का नाम रखा है- बहादुर सिंह रे जातर (Bahadur Singh Re Jatar)। इसके अलावा यहां 14 मई को हिडिम्बा देवी के जन्मदिन के अवसर पर एक अन्य मेले का आयोजन किया जाता है। इस दौरान स्थानीय महिलाएं डूंगरी वन क्षेत्र में संगीत और नृत्य के साथ जश्न मनाती हैं। कहा जाता है कि मंदिर लगभग 500 साल पुराना है। श्रावण मास में आयोजित होने वाले मेले को सरोहनी मेला (Sarrohni Mela) के नाम से जाना जाता है। यह मेला धान की रोपाई पूरा होने के बाद आयोजित होता है। इसके अलावा नवरात्र के दौरान भी मंदिर में दशहरा महोत्सव का आयोजन होता है जिसमें दर्शन के लिए भक्तों की लंबी लाइन लगती है।
भारत में कई ऐसे मंदिर हैं जिन्हें देखकर हमें ऐसा महसूस होता है कि बस अब यहीं रुक जाएं, इसके आगे कोई सुकून ही नहीं है। यहां आकर आपके मन को शांति मिलती है और हर तनाव को भूल जाते हैं। बस हमारा मन कहता है कि यह ऐसी जगह है जहां आपको सबसे ज्यादा सुकून मिलेगी। कई चीजें ऐसी होती हैं जिन्हें देखकर हमारी पूरी थकान उतर जाती है। ऐसा ही एक मंदिर है जिसके बारे में हम आपको बताने जा रहे है। जी हां उत्तर भारत में एक ऐसा मंदिर है जो 15 चट्टानों को काटकर बना हुआ है। जिसे देखकर आप इस बात पर विश्वास नहीं कर पाएंगे कि क्या वास्तव में ऐसा हो सकता है। आखिर इतनी अच्छी नक्काशी भी कहीं हो सकती है। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले के मसरूर गांव में स्थित रॉक कट टेम्पल हैं। इसके नाम से ही पता चल रहा है कि यह चट्टानों को काटकर बनाया गया है। आठवीं शताब्दी में बना ये मंदिर महाभारत के पांडवों का रहस्यमयी इतिहास भी अपने अंदर संजोये हुए है। हिमालयन पिरामिड के नाम से मशहूर ये रॉक कट टेम्पल अपने आप में एक अनोखा इतिहास समेटे हुए है। मसरूर का यह मंदिर कुरुद्वारा के नाम से पूजनीय है। वास्तव में यह भगवान् श्री राम को समर्पित है और वैष्णव धर्म का द्योतक है। मुख्य मंदिर के भीतर भगवान राम , लक्ष्मण और सीता की प्रतिमाएं स्थापित है जो पत्थर को नक्काश कर बनाई गई है। मूलतः ऐसा प्रतीत होता है कि यह भगवान् शिव को समर्पित था लेकिन समय के उतार चढ़ाव के साथ साथ बाद में यहाँ वैष्णव धर्म का प्रादुर्भाव होने से इसे विष्णु भगवान को समर्पित कर दिया गया। आपको यह बात जानकर हैरानी होगी कि ऐसी नक्काशी पत्थरों में करना बहुत ही मुश्किल काम होता है। इसे करने के लिए दूर से करीगर लाए गए थे लेकिन वास्तव वे कारीगरी किसने की इस बारे में आजतक कोई पुख्ता सबूत नहीं मिला है। इस मंदिर के सामने ही मसरूर झील है जो मंदिर की खूबसूरती में चार चांद लगाती है। सदियों से चली आ रही दन्त कथाओं के मुताबिक मान्यता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान किया था और मंदिर के सामने खूबसूरत झील को पांडवों ने अपनी पत्नी द्रौपदी के लिए बनवाया गया था। काँगड़ा घाटी के हरिपुर कसबे से लगभग 3 किलोमीटर की दुरी पर और समुद्रतल से 2500 फुट कि ऊँचाई पर एक रेतीली पहाड़ी पर स्थित है। गग्गल हवाई पट्टी स यहाँ तक की दुरी 20 किलोमीटर है। इसकी लम्बाई 106 फुट के करीब और चोडाई 105 फुट है। इस तरह का विशाल पत्थर को कार कर बनाया मंदिर भारत में शायद ही कहीं हो। वास्तुकला की अद्भुत अविस्मरनीय पत्थर का यह स्तंभ सपाट और शिखर शैली में बनाया गया है । पुरातात्विक विभाग के संरक्षण में यह प्राचीन कला और इतिहास का मूक साक्षी है । इसके बाहर भीतर जिस तरह की मूर्तियाँ पत्थर पर तराशी गई है वह महाबलीपुरम में छठी और इलोरा के मंदिरों में दसवीं सदी की याद दिला देती है। बहुत कुछ इन प्राचीन मंदिरों की कला से मिलता जुलता है ।इस मंदिर के मूल मंदिर के साथ कुल 15 के करीब छोटे बड़े शिखराकार मंदिर है । इनमें से कुछ मंदिरों के भाग टूट चुके है। काँगड़ा में 1905 को आये भूकंप के कारण भी इन मंदिरों को काफी क्षति पहुंची थी। मंदिर के सन्दर्भ में कोई प्रमाणिक ऐसा दस्तावेज उपलब्ध नही है जिस से इसके निर्माण काल का सही अनुमान लगाया जा सके । यह बताया जाता है कि इसका निर्माण पांडवों द्वारा ही किया गया है। आश्चर्य है कि यहाँ प्राचीन काल में कोई यात्री भी नहीं पहुंचा जिसने इस मंदिर का उलेख किया हो । कहा जाता है कि केवल सन 1913 में पुरातात्विक विभाग ने इसकी वास्तुकला का गहरायी से निरिक्षण किया।
समूचा हिमालय शिव शंकर का स्थान है और उनके सभी स्थानों पर पहुंचना बहुत ही कठिन होता है। चाहे वह अमरनाथ हो, केदानाथ हो या कैलाश मानसरोवर। इसी क्रम में एक और स्थान है, श्रीखंड महादेव का स्थान। अमरनाथ यात्रा में जहां लोगों को करीब 14000 फीट की चढ़ाई करनी पड़ती है तो श्रीखंड महादेव के दर्शन के लिए 18570 फीट ऊंचाई पर चढ़ना होता है। स्थान से जुड़ी मान्यता : स्थानीय मान्यता अनुसार यहीं पर भगवान विष्णु ने शिवजी से वरदान प्राप्त भस्मासुर को नृत्य के लिए राजी किया था। नृत्य करते करते उसने अपना हाथ अपने ही सिर पर रख लिया और वह भस्म हो गया था। मान्यता है कि इसी कारण आज भी यहां की मिट्टी और पानी दूर से ही लाल दिखाई देते हैं। कैसे पहुंचे : दिल्ली से शिमला, शिमला से रामपुर और रामपुल से निरमंड, निरमंड से बागीपुल और बागीपुल से जाओं, जाओं से श्रीखंड चोटी पहुंचे। दिल्ली से कुल 553 किलोमीटर दूर। यात्रा मार्ग के मंदिर : यह स्थान हिमाचल के शिमला के आनी उममंडल के निरमंड खंड में स्थित बर्फीली पहाड़ी की 18570 फीट की ऊंचाई पर श्रीखंड की चोटीपर स्थित है। 35 किलोमीटर की जोखिम भरी यात्रा के बाद ही यहां पहुंचते हैं। यहां पर स्थित शिवलिंग की ऊंचाई लगभग 72 फिट है। श्रीखंड महादेव की यात्रा के मार्ग में निरमंड में सात मंदिर, जाओं में माता पार्वती का मंदिर, परशुराम मंदिर, दक्षिणेश्वर महादेव, हनुमान मंदिर अरसु, जोताकली, बकासुर वध, ढंक द्वार आदि कई पवित्र स्थान है। यात्रा के पड़ाव : यहां की यात्रा जुलाई में प्रारंभ होती है जिसे श्रीखंड महादेव ट्रस्ट द्वारा आयोजित किया जाता है। यह ट्रस्ट स्वास्थ्य और सुरक्षा संबंधी कई सुविधाएं प्रशासन के सहयोग से उपलब्ध करवाया है। सिंहगाड, थाचड़ू, भीमडवारी और पार्वतीबाग में कैंप स्थापित हैं। सिंहगाड में पंजीकरण और मेडिकल चेकअप की सुविधा है, जबकि विभिन्न स्थानों पर रुकने और ठहरने की सुविधा है। कैंपों में डॉक्टर, पुलिस और रेस्क्यू टीमें तैनात रहती हैं। यात्रा के तीन पड़ाव हैं:- सिंहगाड़, थाचड़ू, और भीम डवार। ।
मंगलवार, पवनपुत्र हनुमान का दिन माना जाता है और इसी को ध्यान में रख कर आज हम आपको संजीवनी हनुमान मंदिर के बारे में बताने जा रहे हैं। रामायण के अनुसार, जब भगवान हनुमान जादुई जड़ी बूटी 'संजीवनी बूटी' प्राप्त करके हिमालय से लौट रहे थे, तब उनका पैर कसौली पहाड़ी से छू गया था। इसी स्थान पर मौजूद है संजीवनी हनुमान मंदिर। हिमाचल प्रदेश जिला सोलन के कसौली की सबसे ऊंची चोटियों में एक मंकी प्वाइंट है जो कसौली बस स्टॉप से 4 किमी की दूरी पर पड़ता है। संजीवनी हनुमान मंदिर लोअर मॉल क्षेत्र के करीब 'द एयर फोर्स स्टेशन' में स्थित, इस पहाड़ी पर विराजमान भगवान हनुमान को समर्पित एक छोटा सा मंदिर है। इस पहाड़ी की चोटी एक पैर की आकृति में है और मंदिर भगवान के पैरों के निशान के साथ उत्कीर्ण है। वास्तविक रूप में पहाड़ी शीर्ष बिंदु को मैनकी प्वाइंट का नाम दिया गया है, लेकिन आज लोग इसे बंदर बिंदु कहते हैं। यह बिंदु एक स्थानीय ग्रामीण पुजारी मानके के नाम पर है, जिसने पूजा के लिए भगवान हनुमान के लिए एक मंदिर बनाया था और यही कारण है कि इस स्थान का नाम मंकी पॉइंट रखा गया है। पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर की सबसे खास बात यह है कि यह पहाड़ी की चोटी एक पैर के आकार की है। मंदिर में भगवान हनुमान की एक मूर्ति है जिसमें भगवान ने संजीवनी पर्वत को अपने बाएँ हाथ में एक गदा लिए हुए दिखाया है। मंदिर में एक शिवलिंग भी है। इस जगह पर प्रबंधन और संचालन भारतीय वायु सेना द्वारा किया जाता है। भारत की वायु सेना द्वारा प्रबंधित, आगंतुकों को इस स्थान पर जाने के लिए पूर्व अनुमति लेनी पड़ती है। मंदिर वायु सेना के क्षेत्र में स्थित है, इसी लिए अपना फोटो पहचान पत्र लाना न भूलें जिसके बिना मंदिर में प्रवेश करना मुश्किल है। एयरफोर्स बेस के एक बड़े गेट पर मोबाइल फोन और कैमरे जमा कर दिए जाते हैं। सेना के प्रतिबंधों के कारण,मंकी पॉइंट के अंदर कैमरे व मोबाइल फ़ोन ले जाने की अनुमति नहीं है। गेट से गुजरने के बाद, मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग 300-400 मीटर की सीधी सड़क व लगभग पाँच सौ मीटर की खड़ी चढ़ाई है। पहाड़ी पर वायु सेना अधिकारी की पत्नियों द्वारा संचालित एक रेस्तरां है जहाँ आप फास्ट फूड और चाय, कॉफी प्राप्त कर सकते हैं।रेस्तरां के पास ही एक प्रसाद की दुकान है। मंदिर की और जाते समय आपको कई बंदर मिल जाएंगे,जिन्हें कोई भी खाने की वस्तु देना वर्जित है। आगंतुक टैक्सी या कार, या पैदल मार्ग से इस मंदिर तक पहुँच सकते हैं। माल रोड से इस गंतव्य तक पैदल जाने में लगभग दो घंटे लगते हैं।
जन्माष्टमी के पावन अवसर पर आज हम आपको बताने जा रहे हैं श्री बृजराज मंदिर के बारे में। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा नूरपुर में स्थित यह मंदिर अपनी ख़ास विशेषता के लिए पुरे विश्व में प्रसिद्ध है। नूरपुर के किला मैदान में स्थापित श्री बृजराज मंदिर विश्व का एकमात्र ऐसा मन्दिर है जिसमें काले संगमरमर की श्री कृष्ण की मूर्ति के साथ अष्टधातु से निर्मित मीराबाई की मूर्ति श्री कृष्ण के साथ विराजमान है। इस मन्दिर के बारे में एक रोचक कथा है कि जब नूरपुर के राज जगत सिंह (1619—1623) अपने पुरोहित के साथ चित्तौड़गढ़ के राजा के निमंत्रण पर वहां गए, तो उन्हें रात्रि विश्राम के लिए जो महल दिया गया उसके साथ ही एक मंदिर था। वहां रात को सोते समय राजा को घुंघरुओं की आवाजें सुनाई दी। राजा ने जब मंदिर में बाहर से झांककर देखा तो एक औरत मंदिर में स्थापित कृष्ण की मूर्ति के सामने गाना गाते हुए नाच रही थी। राजा को उसके पुरोहित ने उपहार स्वरूप इन्हीं मूर्तियों की मांग करने का सुझाव दिया। इस पर राजा द्वारा रखी मांग पर चितौड़गढ़ के राजा ने ख़ुशी-ख़ुशी उन मूर्तियों को उपहार में दे दिया। राजा ने इसके साथ ही एक मौलश्री का पेड़ भी राजा को उपहार में दिया जो आज भी मंदिर प्रांगन में विद्यमान है। इन मूर्तियों को भी राजा ने किले में स्थापित किया था लेकिन जब आक्रमणकारियों ने किले पर हमला किया तो राजा ने इन मूर्तियों को रेत में छुपा दिया गया। लंबे समय तक यह मूर्तियाँ रेत में ही रहीं। एक दिन राजा को स्वप्न में कृष्ण ने कहा कि अगर हमें रेत में रखना था तो हमें यहां लाया ही क्यूँ गया। इस पर राजा ने अपने दरबार-ए-खास को मन्दिर का रूप देकर उन्हें वहां स्थापित किया। नूरपुर किले के अंदर बृज राज स्वामी मंदिर, भगवान कृष्ण की 16 वीं शताब्दी का ऐतिहासिक मंदिर है। नूरपुर को प्राचीनकाल में धमड़ी के नाम से जाना जाता था लेकिन बेगम नूरजहाँ के आने के बाद इस शहर का नाम नूरपुर पड़ा। यह दुनिया का एकमात्र मंदिर है, जहाँ भगवान कृष्ण और मीरा की मूर्ति की पूजा की जाती है। नूरपुर के छोटे से शहर में स्थित इस मंदिर में सड़क मार्ग से पहुँचा जा सकता है। मंदिर स्थानीय लोगों के बीच बहुत प्रसिद्ध है, लोगों की इस मंदिर से आस्था जुड़ी है। मंदिर समिति द्वारा एक वार्षिक भोज का आयोजन किया जाता है जहाँ पारंपरिक हिमाचली तरीके से स्थानीय व्यंजन परोसे जाते हैं।
इस वर्ष श्रीकृष्ण जन्माष्टमी 23 अगस्त दिन शुक्रवार को मनाई जाएगी। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी का व्रत करने से पापों का नाश और सुख की वृद्धि होती है। इस वर्ष श्री कृष्ण जन्म का मुहूर्त रात्रि में 10:44 से 12:40 के मध्य है। इस शुभ समय में भगवान की विधि विधान से पूजा करने से सभी मनोरथ पुरे होते है। पूजन में देवकी, वसुदेव, वासुदेव, बलदेव, नंद, यशोदा, और लक्ष्मी का स्मरण भी अवश्य करना चाहिए। स्कंद पुराण के अनुसार श्री कृष्ण का जन्म करीब पांच हज़ार वर्ष पूर्व द्वापरयुग में हुआ था। माता देवकी और वासुदेव की आठवीं संतान थे श्री कृष्ण स्कंद पुराण के अनुसार द्वापरयुग में मथुरा में महाराजा उग्रसेन राज करते थे। उनके क्रूर बेटे कंस ने अपने पिता को सिंहासन से हटा दिया और खुद राजा बन गया। कंस का अत्याचार प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। कंस की एक बहन देवकी थी जिसका विवाह वासुदेव से हुआ। कंस अपनी बहन देवकी को उसके ससुराल छोड़ने जा रहा था, तभी रास्ते में एक आकाशवाणी हुई, 'हे कंस जिस देवकी को तू इतने प्रेम से विदा कर रहा है उसका ही आठवां पुत्र तेरा काल होगा।' यह सुनते ही कंस ने देवकी और वासुदेव को बंधक बना लिया। कंस ने सोचा कि अगर वह देवकी के हर पुत्र को मारता गया तो वह अपने काल को हराने में कामयाब होगा। इसके बाद देवकी की जैसे ही कोई संतान पैदा होती, कंस उसे मार देता। सात संतानों के मारे जाने के बाद देवकी के 8वें पुत्र के जन्म की बारी आई। पर इस बार कंस की सारी योजनाएं धरी की धरी रह गईं। अष्टमी की रोहिणी नक्षत्र में श्रीकृष्ण का जैसे ही जन्म हुआ, उसी समय संयोग से नंदगांव में यशोदा के गर्भ से एक कन्या का जन्म हुआ।ईश्वर की कृपा से वासुदेव के हाथ-पैरों में बंधी सारी बेड़िया अपने आप खुल गईं, कारागार के दरवाजे खुल गये और सभी पहरेदार मूर्छित हो गए। वासुदेव ने एक टोकरी में नवजात शिशु (श्री कृष्ण )को रखा और नंद गांव की ओर चल पड़े। पूरे मथुरा में उस दौरान तेज बारिश हो रही थी ऐसे में शेषनाग स्वयं शिशु के लिए छतरी बनकर वासुदेव के पीछे-पीछे चलने लगे। वासुदेव यमुना पार कर नंदगांव पहुंचे और यशोदा के साथ बाल कृष्ण को सुला दिया और स्वयं कन्या को लेकर मथुरा गये। यह कन्या दरअसल माया का एक रूप थी। वासुदेव जैसे ही कारागार पहुंचे, सबकुछ सामान्य और पहले की तरह हो गया। कंस को आठवें संतान के जन्म की खबर पहरेदारों से मिली तो वह उसे मारने वहां आ पहुंचा। कंस ने कन्या को अपने गोद में लिया और एक पत्थर पर पटकने की कोशिश की। हालांकि,वह कन्या आकाश में उड़ गई और माया का रूप ले लिया। साथ ही उसने कहा,' तुझे मारने वाला तो पहले ही कहीं और सुरक्षित पहुंच चुका है।' कंस बेहद क्रोधित हुआ और कृष्ण की खोज शुरू कर दी। कंस ने उन्हें मारने का प्रयास किया लेकिन असफल रहा। आखिर में श्रीकृष्ण ने युवावस्था में कंस का वध किया अपने माता-पिता को कारागार से बाहर निकाला।
हिमाचल प्रदेश देवी-देवताओं की पवित्र धरती है और जहां अनेकों मंदिर स्थापित है। इन्हीं मंदिरों में से एक मंदिर है धौम्येश्वर शिव मंदिर जो ऊना ज़िला के तलमेहड़ा में स्थित हैं। इस मंदिर का निर्माण 1950 के दशक में हुआ था। पौराणिक कथा धौम्येश्वर शिव मंदिर को लेकर पौराणिक कथाओं के अनुसार, पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि ने इसी स्थान पर भगवान शिव की आराधना की थी। मान्यता है कि करीब 5500 वर्ष पहले महाभारत काल में पांडवों के पुरोहित धौम्य ऋषि ने तीर्थ यात्रा करते हुए इसी ध्यूंसर नामक पर्वत पर शिव की तपस्या की थी। भगवान शिव ने प्रसन्न होकर दर्शन देते हुए ऋषि से वर मांगने को कहा। इस पर ऋषि ने वर मांगा कि जो भी भक्त इस मंदिर में आकर सच्चे मन से धौम्येश्वर शिव की पूजा करेगा उसकी हर मनोकामनाएं पूरी हों। भगवान ने तपस्या से प्रसन्न होकर धौम्य ऋषि द्वारा स्थापित शिव लिंग की सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी करने का वरदान दे दिया। इसके बाद से जो भी श्रद्धालु मंदिर पहुंच कर सच्चे मन से मन्नत मांगता है, तो उस भक्त की मुराद पूरी होती है। धौम्येश्वर मंदिर ऊना ज़िला के बंगाणा उपमंडल के तलमेहड़ा गांव में शिवालिक की पहाड़ियों पर स्थित है। मंदिर को धौम्येश्वर शिवलिंग, ध्यूंसर महादेव और सदाशिव के नाम से पुकारा जाता है। मंदिर चारों ओर जंगलों से घिरा हुआ है। शिव लिंग की सच्चे मन से पूजा अर्चना करने वालों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है। पूरा वर्ष यहां लाखों की तादाद में श्रद्धालु भगवान शंकर की आराधना करने के लिए पहुंचते हैं। महाशिवरात्रि और सावन के माह धौम्येश्वर मंदिर में श्रद्धालुओं का खूब जमघट लगता है। मंदिर की खास बात यह है कि इस मंदिर से ज़िला का नज़ारा देखा जा सकता है व साथ ही धौलाधार की पहाडिय़ां भी दिखाई देती है, जो कि अलग ही नजारा है। मंदिर ट्रस्ट के प्रधान के मुताबिक 1937 में मद्रास के एक सैशन जज स्वामी ओंकारा नंद गिरी को स्वप्र में भगवान शिव ने दर्शन देते हुए कहा कि पांडवों के अज्ञातवास के समय उनके पुरोहित धौम्य ऋर्षि ने स्वयंभू शिवलिंग की अर्चना की थी। । स्वामी ओंकारा नंद गिरी ने स्वप्र के आधार पर शिवलिंग को काफी जगह खोजा, लेकिन नहीं मिला। घूमते-घूमते सन् 1947 में स्वामी ओंकारानंद जी सोहारी पहुंच गए। सोहारी स्थित सनातन उच्च विद्यालय के प्रधानाचार्य शिव प्रसाद शर्मा डबराल के सहयोग से स्वामी ओंकारा नंद गिरी जी शिवलिंग के पास पहुंचे। उन्होंने कहा कि सबसे पहले आठ बाय आठ फुट का पहला मंदिर बनाया था, जोकि अब एक विशाल रूप धारण कर चुका है। धौम्येश्वर मंदिर प्रबंधन में जुटी ट्रस्ट द्वारा श्रद्धालुओं की सुविधा के साथ-साथ गरीब और असहाय लोगों की मदद भी की जा रही है। ऊंचाई पर स्थित शिवलिंग के दर्शन करने के लिए दिव्यांगों व वृद्धों को पेश आने वाली परेशानी से निजात दिलाने के लिए लिफ्ट का प्रबंध किया गया है। ट्रस्ट द्वारा गौशाला का भी संचालन किया जा रहा है, जिसमें 100 के करीब गौवंशों को आश्रय दिया गया है। वहीं गरीब कन्याओं की शादी और गरीब मरीजों के इलाज के लिए आर्थिक सहायता का बीड़ा मंदिर ट्रस्ट द्वारा उठाया गया है।
मुंबई के महालक्ष्मी मंदिर में भक्तों की अटूट आस्था है। इस मंदिर में माता महालक्ष्मी के दर्शन मात्र से ही चित्त भाव-विभोर हो जाता है। यहाँ महालक्ष्मी के अतिरक्त महाकाली और महासरस्वती की प्रतिमाएं भी स्थापित है। तीनों प्रतिमाओं का श्रृंगार सोने के नथ, सोने की चूड़ियां एवं मोतियों के हार सहित बहुमूल्य आभूषणों से किया गया है। महालक्ष्मी की वास्तविक प्रतिमा को आवरण से ढंक दिया जाता है जिसके चलते अधिकांश दर्शनार्थी वास्तविक प्रतिमा के दर्शन नहीं कर पाते। रात के लगभग 9.30 बजे वास्तविक प्रतिमा से आवरण हटाया जाता है, जिसके 10 से 15 मिनट के बाद पुन: प्रतिमा के ऊपर आवरण चढ़ा दिया जाता है। महालक्ष्मी मंदिर के निर्माण के पीछे भी एक दिलचस्प कहानी छुपी है। कहा जाता है कि बहुत समय पहले मुंबई में वर्ली और मालाबार हिल को जोड़ने के लिए दीवार का निर्माण कार्य चल रहा था। सैकड़ों मजदूर इस दीवार के निर्माण कार्य में लगे हुए थे, मगर नित दिन नई- नई बाधा आने से कार्य पूरा नहीं हो पा रहा था। सब परेशान थे, तभी प्रोजेक्ट के मुख्य अभियंता को एक सपना आया। सपने में मां लक्ष्मी प्रकट हुईं और कहा कि वर्ली में समुद्र के किनारे मेरी एक मूर्ति है, उसे वहां से निकालकर समुद्र के किनारे ही मेरी स्थापना करो। मुख्य अभियंता ने मजदूरों को स्वप्न में बताए गए स्थान पर जाने को कहा और मूर्ति ढूंढ लाने का आदेश दिया। आदेशानुसार कार्य शुरू हुआ और महालक्ष्मी की एक भव्य मूर्ति मिल गई। तदोपरांत समुद्र किनारे ही उस मूर्ति की स्थापना की गई और छोटा-सा मंदिर बनवाया गया। मंदिर निर्माण के बाद वर्ली-मालाबार हिल के बीच की दीवार भी आसानी से खड़ी हो गई। तब ब्रिटिश अधिकारियों को भी दैवीय शक्ति पर भरोसा करना पड़ा और इसके बाद तो इस मंदिर में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ने लगी। वर्ष 1831 में धाकजी दादाजी नाम के एक व्यवसायी ने छोटे से मंदिर को बड़ा स्वरूप दिया एवं इसका जीर्णोद्धार कराया गया। यहां महालक्ष्मी के अलावा महाकाली व माता सरस्वती की भव्य प्रतिमा भी स्थापित है। मंदिर में एक दीवार है, जहां आपको बहुत सारे सिक्के चिपके है। भक्तगण अपनी मनोकामनाओं के साथ सिक्के चिपकाते हैं यहां।
ऐसा माना जाता है कि माता शक्ति ने यहाँ कोलासुर नामक राक्षस का वध किया था और लोगों को उसके प्रकोप से बचाया था। यहाँ माता के दर्शन के लिए दूर -दूर से लोग आते है। हम बात कर रहे है कोयला माता मंदिर की। यह मंदिर जिला मंडी मुख्यालय से 20 किलोमीटर की दुरी पर स्थित है। प्राचीन समय में राजगढ़ की पहाड़ी पर यह मंदिर एक चट्टान के रूप में ही था। बाद में यह मंदिर कैसे अस्तित्व में आया और कोयला माता की पूजा अर्चना कैसे शुरू हुई इसके बारे में एक कथा प्रचलित है। बहुत पहले राजगढ़ में हर दिन किसी न किसी के घर पर मातम छाया रहता था क्यूंकि आए दिन यहाँ कोई न कोई व्यक्ति मृत्यु का शिकार हो जाता था। इस तरह राजगढ़ क्षेत्र का दाहुल शमशान घाट किसी भी दिन बिना चिता जले नहीं रहता था। यदि किसी दिन शमशान घाट में शव नहीं पहुंचता तो उस दिन वहां पर घास का पुतला जलाना पड़ता था। वहां के लोगों का मानना था कि चिता के न जलने से किसी प्राकृतिक प्रकोप व् आपदा होने की संभावना होती थी। इस तरह घास के पुतले को जलाने की प्रथा से यहाँ के तंग आ गए थे। काफी सोच समझ कर क्षेत्र के लोगों ने इस प्रथा से छुटकारा पाने के लिए देवी माँ के आगे प्रार्थना की। लोगों की प्रार्थना से माँ काली प्रसन्न हो गयी देखते ही देखते एक व्यक्ति में देवी प्रकट हो गयी और उसने “खेलना ” शुरू कर दिया। खेलते-खेलते वह व्यक्ति कहने लगा “मैं यहाँ की कल्याणकारी देवी हूँ……तुम्हें घास के पुतले जलाने की प्रथा मुक्त करती हूँ। सुखी रहो और मेरी स्थापना यहीं कर दो। लोगों ने जब व्यक्ति के मुख से देवी के वाक् सुने तो उन्होंने देवी से कही गयी बातों का प्रमाण माँगा। इस पर उस खेलने वाले व्यक्ति ने पास की विशाल चट्टान की ओर इशारा किया और देखते ही देखते चट्टान से देसी घी टपकने लगा। उसी दिन से चट्टान व देवी की पूजा अर्चना शुरू हो गयी। इस तरह जब भी किसी शुभ कार्य के लिए देसी घी की ज़रूरत होती थी तो चट्टान के नीचे बर्तन रख दिए जाते थे और देखते ही देखते वो भर जाते थे। वहीं अचानक कुछ समय बाद चट्टान से घी टपकता बंद हो गया। इस के बारे में बताया जाता है कि पहले जब सड़कें व आने-जाने के साधन नहीं होते थे तो उस समय लोग चच्योट, मोवीसेरी , गोहर , जंजैहली व कुल्लू के लिए मंडी सकरोह मार्ग से होकर जाते थे। इसी रास्ते से होकर एक दिन एक गद्दी अपनी भेड़ बकरियां लेकर इस रास्ते से गुजर रहा था। चढ़ाई चढ़ने के बाद वो आराम के लिए उसी चट्टान के समीप बैठ गया। उसने चट्टान से घी टपकने की बात सुन रखी थी इसलिए वह वहां बैठ कर खाना खाने लग गया और अपनी जूठी रोटी पर घी लगाने के लिए चट्टान पर रगड़ने लगा। जूठन के फलस्वरूप उसी दिन से चट्टान से घी टपकना बंद हो गया। देवी के ऐसे कई चमत्कार लोगों को देखने को मिलते रहे इसलिए देवी व स्थान की मान्यता आज भी बनी हुई है। हिमाचल प्रदेश के मंडी ज़िले में स्थित यह मंदिर धार्मिक आस्था के अनुसार वह स्थान है जहां मां शक्ति ने चमत्कार दिखाया था। राजगढ़ की पहाड़ी पर बना ये मंदिर पहले मात्र एक बड़ी सी चट्टान के रूप में ही हुआ करता था। मां ने भक्तों को घास के पुतले जलाने की प्रथा से मुक्त किया था। हिमाचल प्रदेश के इस मंदिर की पहाड़ी से कभी घी टपकता था। एक बार एक झूठी रोटी के कारण साक्षात टपकने वाला घी अचानक बहना बंद हो गया। भक्तों का मानना है कि भक्त सच्चे मन से जो भी मां से मांगते हैं मां उनकी इच्छा अवश्य पूरी करती है।
आज हम आपको दर्शन करवाने जा रहे हैं चामुंडा देवी मंदिर के। चामुंडा देवी मंदिर हिमाचल प्रदेश के चंबा जिले में स्थित है। चामुंडा देवी मंदिर का निर्माण वर्ष 1762 में उम्मीद सिंह ने करवाया था। पाटीदार और लाहला के जंगल स्थित यह मंदिर पूरी तरह से लकड़ी से बना हुआ है। बानेर नदी के तट पर स्थित यह मंदिर देवी काली को समर्पित है, जिन्हें युद्ध की देवी के रूप में जाना जाता है। हजारों साल पहले धरती पर शुम्भ और निशुम्भ नामक दो दैत्यों ने राज कर लिया था। उन्होंने धरती पर इतने अत्याचार किये कि इससे परेशान होकर देवताओं व मनुष्यों ने शक्तिशाली देवी दुर्गा की आराधना की। आराधना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने देवताओं व मनुष्यों को दर्शन दिए और कहा कि वो ज़रूर इन दैत्यों से उनकी रक्षा करेंगी। इसके बाद दुर्गा जी ने कौशिकी के नाम से अवतार लिया। वहीं शुम्भ और निशुम्भ के दूतों ने माता कौशिकी को देख लिया। दूतों ने शुम्भ और निशुम्भ से कहा कि आप तो तीनों लोगों के राजा है, आपके पास सब कुछ है लेकिन आपके पास एक सुंदर रानी भी होनी चाहिए। कौशिकी नमक एक देवी है जो सारे संसार में सबसे सुंदर है। दूतों की इन बातों को सुनकर शुम्भ और निशुम्भ ने अपना एक दूत माता कौशिकी के पास भेजा और कहा कि कौशिकी से कहना कि शुम्भ और निशुम्भ तीनों लोको के राजा हैं और वो तुम्हें रानी बनाना चाहते हैं। शुम्भ और निशुम्भ के आदेश पर दूत ने ऐसा ही किया। कौशिकी ने दूत की बात सुनकर यह कहा कि मैं जानती हूँ कि वो दोनों बहुत शक्तिशाली हैं, लेकिन में प्रण ले चुकीं हूँ कि जो मुझे युद्ध में हरा देगा मैं उसी से विवाह करुँगी। जब यह बात दूत ने शुम्भ और निशुम्भ को जाकर बताई तो उन्होंने दो दूत चण्ड और मुण्ड को देवी के पास भेजा और कहा कि उसके केश पकड़ कर हमारे पास लाओ। जब चण्ड और मुण्ड ने वहां जाकर देवी कौशिकी से साथ चलने को कहा तो उन्होंने क्रोधित होकर अपना काली रूप धारण कर लिया और असुरों को मार दिया। इन दोनों राक्षसों के सर काटकर देवी काली कोशिकी के पास लेकर आ गई। इससे खुश होकर देवी कोशिकी ने कहा कि तुमने इन दो राक्षसों को मारा है अब तुम्हारी प्रसिद्धी चामुंडा के नाम से पूरे संसार में होगी। चामुंडा देवी मंदिर अपनी खूबसूरती, इतिहास और कहानी की वजह से काफी प्रसिद्ध है। यह मंदिर देवी काली को समर्पित है। यह मंदिर पूरी तरह से लकड़ी से बना हुआ है। भक्त 400 सीढ़ियों को चढ़कर मंदिर के दर्शन के लिए पहुँचते हैं। एक अन्य विकल्प के तौर पर चंबा से 3 किलोमीटर लंबी कंक्रीट सड़क के माध्यम से मंदिर आसानी से पहुंचा जा सकता है। चामुंडा देवी मंदिर में पीछे की तरफ से गुफा जैसी संरचना है जिसको भगवान शिव का प्रतीक माना जाता है। चामुंडा देवी मंदिर को चामुंडा नंदिकेश्वर धाम के रूप में भी जाना जाता है जिसमें भगवान शिव और शक्ति का घर है। भगवान हनुमान और भैरव इस मंदिर के सामने वाले द्वार की रक्षा करते हैं और इन्हें देवी का रक्षक माना जाता है। चामुंडा देवी मंदिर जाने का सबसे अच्छा समय मार्च और अप्रैल के महीनों का होता है। वहीं नवरात्रों के दौरान भी मंदिर में भक्तों की भारी भीड़ आती है।