वेद और पुराणों के अनुसार हिंदू धर्म में 33 कोटि देवी-देवता हैं जिन्हें कुछ लोग 33 करोड़ मानते हैं तो कुछ कोटि को प्रकार समझते है। इनमें से त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश की महत्ता सबसे ज्यादा मानी गई है। भगवान विष्णु संसार के पालनहार है, महादेव संसार के संहारक है और ब्रह्मा सृष्टि के रचनाकार हैं। भगवान विष्णु और महादेव के कई मंदिर हैं, पर परमपिता ब्रह्मा जी का भारत में केवल एक ही मंदिर है। ब्रह्मा जी से ही वेद ज्ञान का प्रचार हुआ। उनके चार चेहरे, चार भुजाएं और प्रत्येक भुजा में एक-एक वेद है परन्तु बहुत ही कम सम्प्रदाय हैं जो उनकी आराधना करते हैं। उनका इकलौता मंदिर राजस्थान की तीर्थ नगरी पुष्कर में स्थित है। पद्म पुराण के अनुसार, एक बार धरती पर वज्रनाश नामक राक्षस ने उत्पात मचा रखा था। उसके उत्पात से पूरी पृथ्वी पर त्राहि -त्राहि मची थी। ऐसे में उसके अत्याचारों से निजात दिलवाने के लिए परमपिता ब्रह्मा जी को उसका वध करना पड़ा। कथा के अनुसार जब ब्रह्मा जी उसका वध कर रहे थे तब उनके हाथों से तीन जगहों पर कमल का पुष्प गिरा। जहां-जहां तीन कमल गिरे वहां पर तीन झीलें बन गईं। इसी कारण इस स्थान का नाम पुष्कर पड़ा। तदोपरांत जग कल्याण हेतु ब्रह्मा जी ने उक्त स्थान पर महायज्ञ करने का फैसला किया। यज्ञ करने के लिए ब्रह्मा जी पुष्कर पहुंच गए पर उनकी पत्नी देवी सावित्री समय पर नहीं पहुंच पाईं। पर यज्ञ की सफलता के लिए सावित्री का होना बेहद जरूरी था। ऐसे में जब सावित्री नहीं आईं तो ब्रह्मा जी गायत्री से विवाह कर लिया। देवी गायत्री को लेकर दो अलग -अलग कथाएं है। एक मान्यता ये है कि वे गुर्जर समुदाय की एक कन्या थी, जबकि दूसरी मान्यता ये है कि ब्रह्माजी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया। जब ब्रह्मा जी और गायत्री का विवाह हो ही रहा था तभी देवी सावित्री भी वहां पहुँच गई। जब उन्होंने गायत्री को ब्रह्मा के बगल में बैठा देखा तो वह क्रोधित हो गईं और ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि वो एक देवता जरूर हैं लेकिन उनकी पूजा फिर भी कभी नहीं की जाएगी। देवी सावित्री का श्राप सुन सभी देवता डर गए और उन्होंने विनती की कि वो इस श्राप को वापस ले, लेकिन वे नहीं मानी। पर जब देवी सावित्री का गुस्सा शांत हुआ तो उन्होंने कहा कि इस धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। अगर कोई दूसरा व्यक्ति आपका मंदिर बनाएगा तो उस मंदिर का विनाश हो जाएगा। ऐसे में पुष्कर में ही ब्रह्मा जी का एक मंदिर है। ब्रह्मा जी का पुष्कर में स्थित ये मंदिर बहुत प्रसिद्ध है और अजमेर आने वाले सभी हिन्दू पुष्कर में ब्रह्मदेव के मंदिर और वहां स्थित तालाब के दर्शन करने अवश्य आते हैं। भगवान श्री विष्णु को भी मिला शाप मान जाता है कि यज्ञ के आयोजन में भगवान विष्णु ने भी ब्रह्मा जी की मदद की थी। इसलिए देवी सावित्री ने विष्णु जी को भी श्राप दिया था कि उन्हें पत्नी से विरह का कष्ट सहन करना पड़ेगा। इसी कारण राम (भगवान विष्णु का मानव अवतार) को जन्म लेना पड़ा और पत्नी से अलग रहना पड़ा था। पहाड़ों की चोटी पर विराजती हैं देवी सावित्री मान्यता है कि क्रोध शांत होने के पश्चात देवी सावित्री पुष्कर के समीप स्थित एक पहाड़ी पर जाकर तपस्या में लीन हो गईं और आज भी वहां उपस्थित हैं और अपने भक्तों का कल्याण करती हैं। पुष्कर में जितनी अहमियत ब्रह्माजी की है, उतनी ही सावित्री की भी है। सावित्री को सौभाग्य की देवी माना जाता है। यह मान्यता है कि यहां पूजा करने से सुहाग की लंबी उम्र होती है। महिलाएं यहां आकर प्रसाद के तौर पर मेहंदी, बिंदी और चूड़ियां चढ़ाती हैं और देवी सावित्री से पति की लंबी उम्र मांगती हैं। चांदी के सिक्कों से सजा है ब्रह्मा मंदिर पुष्कर में स्थित परमपिता ब्रह्मा जी का मंदिर किसने बनाया और कब बनाया, इसकी जानकारी फिलहाल नहीं है। मान्यता है कि तकरीबन एक हज़ार दो सौ साल पहले अरण्व वंश के एक शासक को एक स्वप्न आया था कि इस जगह पर एक मंदिर है। ब्रह्माजी के मंदिर का प्रवेश द्वार संगमरमर का और दरवाजे चांदी के बने हैं। मंदिर का निर्माण संगमरमर पत्थर से हुआ तथा इसे चांदी के सिक्कों से सजाया गया है। इन सिक्कों पर दानदाता के नाम खुदे हैं। यहां मंदिर की फर्श पर एक रजत कछुआ है। देवी सरस्वती के वाहन मोर के चित्र भी शोभा बढ़ाते हैं। ब्रह्मा जी की चार मुखों वाली मूर्ति को चौमूर्ति कहा जाता है। यहां भगवान शिव को समर्पित एक छोटी गुफा भी बनी है। पुष्कर में 500 मंदिर और 52 घाट हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान ब्रह्मा त्रिदेवों में से एक देव हैं। तीनों देवों का कार्य, जीवन चक्र (जन्म,पालन,विनाश) के आधार पर विभाजित है। ब्रह्मा जी का कार्य जन्म देना है। मान्यता है कि पुष्कर झील में डुबकी लगाने से पापों का नाश होता है। झील के चारों ओर 52 घाट हैं। इनमें गऊघाट, वराह घाट, ब्रह्म घाट, जयपुर घाट प्रमुख हैं। जयपुर घाट से सूर्यास्त का नजारा अत्यंत अद्भुत लगता है। पुष्कर में छोटे-बड़े करीब 500 मंदिर बने हैं। इसलिए इसे मंदिर नगरी भी कहा जाता है । त्रेता और द्वापर युग से नाता मान्यता है कि पुष्कर शताब्दियों पुराना धार्मिक स्थल है। महाभारत के वनपर्व के अनुसार श्रीकृष्ण ने पुष्कर में दीर्घकाल तक तपस्या की थी। सुभद्रा के अपहरण के बाद अर्जुन ने पुष्कर में विश्राम किया था। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने भी अपने पिता दशरथ का श्राद्ध पुष्कर में किया था। वाल्मीकि रामायण में विश्वामित्र के तप करने की बात भी कही गई है। इसका उल्लेख चौथी शताब्दी में आये चीनी यात्री फाह्यान ने भी किया है। सर्वधर्म समभाव की नगरी है पुष्कर पुष्कर का महत्व सर्वधर्म समभाव नगर के रूप में भी है। यहां कई धर्मों के देवी-देवताओं के आस्था स्थल हैं। जगतगुरु रामचन्द्राचार्य का श्रीरणछोड़ मंदिर, निम्बार्क सम्प्रदाय का परशुराम मंदिर, गायत्री शक्तिपीठ, महाप्रभु की बैठक, जोधपुर के बाईजी का बिहारी मंदिर, तुलसी मानस व नवखंडीय मंदिर, गुरुद्वारा और जैन मंदिर आदि दर्शनीय स्थल हैं। जैन धर्म की मातेश्वरी पद्मावती के जमींदोज हो चुके मंदिर के अवशेष आज भी हैं। नए और पुराने रंगजी का मंदिर भी आकर्षण का केंद्र है। कार्तिक पूर्णिमा पर लगाता है पुष्कर मेला भगवान ब्रह्मा ने पुष्कर में कार्तिक पूर्णिमा के दिन यज्ञ किया था। यही कारण है कि हर साल अक्टूबर-नवंबर के बीच पड़ने वाले कार्तिक पूर्णिमा के अवसर पर पुष्कर मेला लगता है। मेला के दौरान ब्रह्मा जी के मंदिर में हजारों की संख्या में भक्त पहुंचते हैं। इन दिनों में भगवान ब्रह्मा की पूजा करने से विशेष लाभ मिलता है।
हिमाचल प्रदेश अपने धार्मिक स्थानों और देवी-देवताओ के मंदिरों के लिए पुरे देश भर में जाना जाता है। ऐसा ही एक मंदिर हिमाचल के सोलन जिले में शूलिनी माता मंदिर के नाम से विख्यात है। यह लोकप्रिय शूलिनी मंदिर देवी शूलिनी को समर्पित है, यह मंदिर इस क्षेत्र के सबसे पुराने और पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। हर साल इस मंदिर में जून के महीने में राज्यस्तरीय मेले का आयोजन किया जाता है। जिसे बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है। सोलन के लोगों में इस देवी के प्रति गहरी आस्था व विश्वास रखते है। देवी भागवत पुराण में माँ दुर्गा के बहुत से नामों के बारे में बताया गया है, जिसमें शूलिनी नाम भी मौजूद है। ऐसी मान्यता है कि दशम गोबिंद सिंह जी ने माँ शूलिनी की स्तुति करके आशीर्वाद प्राप्त किया था. माँ शूलिनी के प्रकट होने की कथा भी बहुत ही रोचक और दिलचस्प है। पौराणिक कथा के अनुसार माँ शूलिनी सात बहनों में से एक थी। बाकि की बहनें ज्वाला जी, हिंगलाज देवी, नैना देवी, लुगासना देवी और तारा देवी के नाम से जानी जाती हैं. माता शूलिनी साक्षात देवी मां दुर्गा का स्वरूप है। शूलिनी देवी को भगवान शिव की शक्ति माना जाता है। कहते हैं जब दैत्य महिषासुर के अत्याचारों से सभी देवता और ऋषि- मुनि तंग हो गए थे, तो वे भगवान शिव और विष्णु जी के पास गए और उनसे सहायता मांगी थी। तो भगवान शिव और विष्णु के तेज से भगवती दुर्गा प्रकट हुई थी। जिससे सभी देवता खुश हो गए थे और अपने अस्त्र-शस्त्र भेंट करके दुर्गा मां का सम्मान किया था। इसके बाद भगवान शिव ने त्रिशूल से एक शूल देवी मां को भेंट किया था, जिसकी वजह से देवी दुर्गा मां का नाम शूलिनी पड़ा था। ये वही त्रिशूल है, जिससे मां दुर्गा ने महिषासुर का वध किया था। ख़ास बात यह है की माता शूलिनी देवी के नाम से सोलन शहर का नामकरण हुआ था। बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता सोलन नगर सोलन नगर बघाट रियासत की राजधानी हुआ करता था। इस रियासत की नींव राजा बिजली देव ने रखी थी। बारह घाटों से मिलकर बनने वाली बघाट रियासत का क्षेत्रफल 36 वर्ग मील में फैला हुआ था। इस रियासत की प्रारंभ में राजधानी जौणाजी इसके बाद कोटी और बाद में सोलन बनी। राजा दुर्गा सिंह इस रियासत के अंतिम शासक थे। रियासत के विभिन्न शासकों के काल से ही माता शूलिनी देवी का मेला लगता आ रहा है। जानकारों के अनुसार बघाट रियासत के शासक अपनी कुलश्रेष्ठा की प्रसन्नता के लिए मेले का आयोजन करते थे। बदलते समय के दौरान यह मेला आज भी अपनी पुरानी परंपरा के अनुसार चल रहा है। माता शूलिनी के इस मंदिर का पुराना इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है। बघाट रियासत के लोग माता शूलिनी को अपनी कुलदेवी के रूप में मानते थे, तभी से माता शूलिनी बघाट रियासत के शासकों के लिए उनकी कुलदेवी के रूप में पूजी जाती है। मंदिर का इतिहास मंदिर के पुजारी से मिली जानकारी के अनुसार माँ शूलिनी का इतिहास बघाट रियासत से जुड़ा हुआ है. कहते हैं सदियों पहले बघाट रियासत की राजधानी जौणाजी हुआ करती थी, ये उस समय की बात है जब इस प्रदेश में राजाओं का राज हुआ करता था । बताया जाता है की इस दौरान राजा को एक सपना आया और सपने में माँ शूलिनी देवी ने उनको दर्शन दिए, जिसमें देवी माँ ने कहा कि मैं जौणाजी में रहती हूँ और वहां धरती के नीचे से मेरी मूर्तियों को निकाला जाए. इसके बाद ही राजा ने जौणाजी में खुदाई शुरू करवा दी और वहां से माँ शूलिनी देवी की और दो अन्य देवताओं की मूर्तियाँ निकलीं। इसके बाद तत्काल ही राजा ने इन मूर्तियों को सोलनी गाँव में स्थापित कर दिया। जिसके बाद यहाँ पर राजा द्वारा मंदिर का निर्माण किया गया। मंदिर बनने के बाद लोगों से इस देवी को अपनी कुलदेवी माना। मेले के दौरान निकाली जाती है भव्य शोभा यात्रा शूलिनी माता मेला हर वर्ष जून माह में मनाया जाता है, इस दौरान माता पुरे शहर के भ्रमण पर निकलती है। माता की पालकी को फूलों से सजाया जाता है, इसके बाद माता के जयकारों के बीच शूलिनी मंदिर से यह शोभा यात्रा निकलती है। माता की पालकी को प्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारा भी उठाया जाता है व माता का आशीर्वाद लेकर शोभा यात्रा को शुरू किया जाता है। यदि मुख्यमंत्री किसी कारणवश मेले में नहीं पहुंच पाते है तो जिला उपायुक्त इसकी सभी रस्मे निभाते है। मंदिर से निकलने के बाद शहर में जगह -जगहों पर शूलिनी माता की पालकी का लोगों द्वारा भव्य स्वागत किया जाता है। इस दौरान सोलन शहर में लोगों का सैलाब उमड़ जाता है। शहर का भ्रमण करने के बाद माता गंज बाजार स्थित अपनी बहन से मिलने पहुंचती है और वहां पर दो दिनों तक माता की झांकी को रखा जाता है। मां प्रसन्न हो तो दूर होते हैं प्रकोप मान्यता है कि माता शूलिनी के प्रसन्न होने पर क्षेत्र में किसी प्रकार की प्राकृतिक आपदा या महामारी का प्रकोप नहीं होता है, बल्कि सुख-समृद्धि व खुशहाली आती है। मेले की यह परंपरा आज भी कायम है। कालांतर में यह मेला केवल एक दिन ही अर्थात् आषाढ़ मास के दूसरे रविवार को शूलिनी माता के मंदिर के समीप खेतों में मनाया जाता था। सोलन जिला के अस्तित्व में आने के पश्चात् इसका सांस्कृतिक महत्व बनाए रखने तथा इसे और आकर्षक बनाने के अलावा पर्यटन की दृष्टि से बढ़ावा देने के लिए राज्य स्तरीय मेले का दर्जा प्रदान किया गया और इसे तीन दिवसीय उत्सव का दर्जा प्रदान किया गया है। मौजूदा समय में यह मेला जहां जनमानस की भावनाओं से जुड़ा है, वहीं पर विशेषकर ग्रामीण लोगों को मेले में आपसी मिलने-जुलने का अवसर मिलता है जिससे लोगों में आपसी भाईचारा तथा राष्ट्र की एकता व अखंडता की भावना पैदा होती है। जगह- जगह भंडारों का आयोजन इस राज्य स्तरीय मेले के दौरान खास बात यह रहती है की स्थानीय लोगों द्वारा शहर में जगह-जगह लंगर दिए जाते है। तीन दिनों तक चलने वाले इस मेले में प्रतिदिन शहर व आसपास के क्षत्रों में लोगों द्वारा लंगर लगाए जाते है। बता दें की हिमाचल में किसी भी मेले में तीन दिनों तक लगातार लंगर आयोजित नहीं किये जाते है। मेले के दौरान लोग माँ शुलिनी का प्रसाद समझकर इन लंगरों को ग्रहण करते है। शूलिनी मेले के दौरान शहर में काफी भीड़ लोगों की देखने को मिलती है। कोरोना की वजह से इस वर्ष भी सूक्ष्म तरीके से मनाया जाएगा मेला कोरोना के चलते सरकार ने कई बंदिशे प्रदेश में लगाई है, इसी के चलते बीते वर्ष शूलिनी मेले को सूक्ष्म तरीके से मनाया गया। मंदिर में सभी रस्मे व पूजा -पाठ कर माता की शोभायात्रा कोरोना नियमों के तहत निकाली गई। इस यात्रा में मंदिर के पुजारी सहित माता के कारगार व प्रशासन के कुछ अधिकारी मौजूद रहे थे। इसके साथ ही कोरोना के चलते कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित नहीं किये गए। इस बार भी मेले को सूक्ष्म तरीके से प्रशासन द्वारा आयोजित किया जाएगा। मेला 25 से 27 जून तक मनाया जाएगा जिसको लेकर प्रशासन ने अधिसूचना भी जारी कर दी है। सोलन शहर में बना हुआ भव्य मंदिर माता शूलिनी का भव्य मंदिर सोलन शहर के दक्षिण दिशा में बना हुआ है। इस मंदिर के अंदर माता शूलिनी के अलावा अन्य देवी-देवताओं की भी पूजा होती है जिसमे शिरगुल देवता,माली देवता इत्यादि की मूर्तियां विद्यमान हैं। कहते हैं कि मेले के जरिये मां शूलिनी शहर के भ्रमण पर निकलती हैं और जब वापस आती हैं, तो अपनी बहन के पास दो दिन के लिए रुकती हैं। यही वजह है कि मेले का आयोजन किया जाता है।
भारत में कई ऐसे मंदिर है जिसके साथ कोई न कोई अचम्भित करने वाली जनश्रुति जुड़ी हुई है। अक्सर मंदिरों के साथ जुड़ी बाते इतनी विचित्र होती हैं कि सुनकर सहसा विश्वास ही नहीं होता कि ऐसा भी हुआ होगा लेकिन बाशिंदों में प्रचलित किवदंतियां सुन इन्हें मानने पर मजबूर होना ही पड़ता है। ऐसा ही एक रहस्य्मय मंदिर राजस्थान के पाली में स्थित है। इस मंदिर में किसी देवी-देवता की नहीं बल्कि एक बुलेट बाइक की पूजा की जाती है। यहाँ लोग मनोकामना मांगने दूर-दूर से आते हैं। बाइक की पूजा होनेवाला यह मंदिर ओम बन्ना को समर्पित है। बात साल 1988 की है, जब पाली के रहने वाले ओम बन्ना ( राजस्थान में राजपूत परिवार के युवा लोगों के लिए बन्ना शब्द का इस्तेमाल किया जाता है) अपनी बुलेट बाइक से जा रहे थे और रास्ते में दुर्घटना का शिकार हो गए। इस दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। इस स्थान पर कई हादसे हो चुके थे। कहा जाता है कि एक्सीडेंट के बाद इस बाइक को रोहिट थाने ले जाया गया पर अगले दिन पुलिस कर्मियों को वो बुलेट थाने में नहीं मिली। कहते है वो बुलेट बिना सवारी चल कर उसी स्थान पर चली गयी। फिर अगले दिन उनकी बुलेट को रोहिट थाने ले जाया गया पर फिर वही बात हुयी। ऐसा तीन बार हुआ, चौथी बार पुलिस ने बुलेट को थाने में चैन से बाँध कर रखा पर बुलेट पुनः दुर्घटना स्थल पर पहुंच गयी। ग्रामीणो और पुलिस वालो ने इसे चमत्कार मान कर उस बुलेट को वही पर रख दिया। उस दिन से आज तक वहाँ दूसरी कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुयी, जबकि उक्त क्षेत्र राजस्थान के बड़े दुर्घटना क्षेत्रों में से एक था। स्थानीय लोग कहते है कि ओम बन्ना आज भी अपनी मौजूदगी का एहसास करवाते है। अब उक्त दुर्गटना स्थल पर बाइक का मंदिर है और कहा जाता है कि जब से बाइक का मंदिर बनाया गया है, तब से वहां कोई एक्सीडेंट नहीं हुआ है। इसके बाद से लोग दूर-दूर से वहां पूजा करने आने लगे। अब राजस्थान में एक बड़ा वर्ग ओम बन्ना की पूजा करता है और ढोलकी के साथ उनकी आरती, भजन भी गाए जाते हैं। आज यह मंदिर बुलेट बाबा के नाम से भी विख्यात है। शीशे के आवरण में रखी गई है ओम बन्ना की मोटरसाइकिल यह स्थान जोधपुर पाली हाईवे पर पाली से लगभग 20 किलोमीटर दूर बुलेट बाबा के मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। मुख्य हाइवे के पास स्थित यह स्थान बीते कुछ सालों में बहुत चर्चित हुआ है। सड़क के किनारे जंगल में लगभग 20-25 प्रसाद व पूजा अर्चना के सामान से सजी दुकाने दिखाई देती है और साथ ही नजर आता है एक चबूतरा जिस पर ओम बन्ना की एक बड़ी सी फोटो, अखंड जलती ज्योत और उनकी बुलेट मोटरसाइकिल को एक शीशे के आवरण में रखा गया है। बुलेट बाबा के मंदिर में दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं और मन्नत मांगते हैं। ये लोगों की आस्था का केन्द्र है। ओमबन्ना की पुण्यतिथि पर देशभर से श्रद्धालु ओमबन्ना मंदिर में पहुंचते है और नजारा देखने लायक होता है। आम दिनों ओम बन्ना देवल पर सुबह व् शाम को भी ठीक सात बजे आरती की जाती है। इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते है। आरती व पूजन यूं तो ओम बन्ना के परिजन ही करते है। कई बार उनके नहीं पहुंचने पर एक ब्राह्मण की ओर से आरती की जाती है। पुत्र और सुहाग की रक्षा के लिए पहियों पर बांधते है मोली पुत्र और सुहाग की रक्षा के लिए महिलाएं इस बाइक के पहियों पर मोली धागा बांध कर उनकी लम्बी उम्र के लिए दुआ करती है। शहर के आसपास रहने वाले लोगों की बाबा के प्रति अटूट श्रद्धा है, यही कारण है शादी के दौरान, दूल्हा और दुल्हन वहां आते हैं और सुहाग रक्षा के लिए प्रार्थना करते हैं। स्थानीय लोग यहां अपने बच्चे के बाल निकालने की रस्म भी निभाते हैं। लाखों वाहनों में लगी है ओम बन्ना की तस्वीर ओम सिंह राठौर एक ऐसे व्यक्ति थे जो ज्यादा दिन जी तो नहीं सके लेकिन मर कर भगवान रूप बन गए। भगवान की सत्ता पर आपको यकीन हो या न हो लेकिन बुलेट मंदिर में लोगों को ओम बन्ना (ओम सिंह राठौर) भगवान पर जरूर यकीन है। यकीन इतना कि यहां से गुजरते हुए कोई भी यात्री ओम बन्ना के बुलेट मंदिर में पूजा और प्रसाद चढ़ाए बिना नहीं जाता। अगर जाता है तो एक्सीडेंट की भेंट चढ़ जाता है, ऐसा लोगों का कहना है। राजस्थान में चलने वाली लाखों गाड़ियों में ओम बन्ना की लगी तस्वीरें देखकर आपको यकीन हो जायेगा कि किस कदर लोगों की ओम बन्ना में आस्था है। लोग अपने वाहनों में ओम बन्ना की प्रतिमा, फ़ोटो व बुलेट के फोटो को रक्षा के तौर पर रखते है। कुछ वाहन चालकों की मान्यता तो यह भी है कि ओम बन्ना चालको को दुर्घटना से पहले ही अनहोनी का आभास करवाते है। बाकायदा ओम बन्ना को समर्पित कई भजन अब तक रिलीज़ हो चुके है।
हिमाचल प्रदेश के शिमला जिले में बसा नारकंडा प्रदेश के बेहतरीन हिल स्टेशनों में से एक है। नारकंडा चारों ओर फैली सफेद बर्फ से ढकी गहरी घाटियों के लिए प्रसिद्द है। यहां प्रकृति की अद्भुत छटा देखने लायक होती है। प्रकृति की इसी खूबसूरती के बीच नारकंडा के हाटू पीक पर स्थापित है प्रसिद्ध हाटू माता का मंदिर। बर्फ से लदी पहाड़ियों और चारों तरफ प्रकृति के सौंदर्य से घिरा यह पवित्र स्थल देवी मां काली को समर्पित है। मंदिर का निर्माण विशिष्ट हिमाचली वास्तुकला में किया गया है। हाटू माता को नारकंडा क्षेत्र की देवी एवं नारकंड जनजाति की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों ने बिताया था यहां समय : हाटू माता मंदिर को लेकर मान्यता है कि मंदिर का निर्माण रावण की पत्नी मंदोदरी ने करवाया था। वैसे तो यहां से लंका बहुत दूर है, लेकिन इसके बावजूद वह अक्सर यहां माता के दर्शन और पूजा करने के लिए आया करती थी। बताया जाता है कि मंदोदरी हाटू माता की बहुत बड़ी भक्त थी। वहीं एक मान्यता यह भी है कि महाभारत काल में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान हाटू माता मंदिर में काफी समय बिताया था। पांडवों ने यहां पर माता की कठिन तपस्या और उपासना कर शत्रुओं पर विजय पाने का वरदान प्राप्त किया था। उस समय की प्राचीन शिला आज भी हाटू पीक पर साक्ष्य के रूप में मौजूद है। मंदिर के पास ही तीन बड़ी चट्टानें हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये भीम का चूल्हा है। जहां आज भी खुदाई करने पर जला हुआ कोयला मिलता है, जिससे पता चलता है कि पांडव इस जगह पर खाना बनाया करते थे। ज्येष्ठ महीने के पहले रविवार को मनाया जाता है स्थापना दिवस : हाटू माता मंदिर में हर साल ज्येष्ठ महीने के पहले रविवार को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दिन को हाटू माता मंदिर की स्थापना के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां विशाल मेला भी लगाया जाता है। मान्यता है कि हाटू माता मंदिर में आकर जो श्रद्धालु सच्ची भक्ति से मां हाटू माता के दरबार में पहुंचता है, उसकी हर मनोकामना पूरी होती है। दुख, दर्द, दरिद्र दूर हो जाते हैं। हाटू माता मंदिर से राजों और रजवाड़ों का पूर्वजों के समय से खास लगाव रहा है। आज भी देश-विदेश के लाखों श्रद्धालुओं की हाटू माता के प्रति गहरी आस्था है।
उत्तराखंड का त्रियुगीनारायण मंदिर वह पवित्र और विशेष पौराणिक मंदिर है जहां साक्षात भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। मंदिर में एक अखंड धुनी है। इस धुनि के संबंध में कहा जाता है कि ये वही अग्नि है, जिसके फेरे शिव-पार्वती ने लिए थे। आज भी उनके फेरों की अग्नि धुनि के रूप में जागृत है। यह स्थान रुद्रप्रयाग जिले का एक भाग है। मान्यता है कि प्राचीन समय उत्तराखंड के रुद्रप्रयाग के पास स्थित त्रियुगी नारायण मंदिर में भगवान विष्णु ने ही शिव-पार्वती का विवाह करवाया था। यहां स्थित अखंड धुनी के संबंध में मान्यता है कि ये तीन युगों से अखंड जल रही है। इसी वजह से इसे त्रियुगी मंदिर कहते हैं। ये मुख्य रूप से नारायण यानी भगवान विष्णु और लक्ष्मी का मंदिर है, लेकिन यहां शिव-पार्वती का विवाह हुआ था, इस कारण मंदिर में शिवजी और विष्णु जी के भक्त दर्शन के लिए पहुंचते हैं। कहा जाता है कि पार्वती जी ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए त्रियुगी नारायण मंदिर के पास तपस्या की थी। माता पार्वती ने जिस स्थान पर तपस्या की थी उसे गौरी कुंड कहा जाता है। कहा जाता है कि केदारनाथ की यात्रा से पहले यहां पर आना चाहिए। ऐसा करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। शिव-पार्वती के विवाह की संक्षिप्त कथा त्रेता युग में देवी सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ कुंड में कूदकर प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद देवी ने पार्वती के रूप में जन्म लिया था। पार्वती ने कठोर तप करके भगवान शिव को प्रसन्न किया और विवाह करने का वरदान मांगा। तब भगवान विष्णु ने पार्वती और शिवजी का विवाह इसी जगह करवाया था। इस मंदिर का स्वरूप केदारनाथ धाम के मंदिर जैसा है। भगवान शिव को विवाह में उपहार स्वरूप एक गाय मिली थी। यहां मौजूद एक स्तंभ के बारे में मान्यता है कि यह वही स्तंभ है, जिससे उस गाय को बांधा गया था। शिव के बारे में कहा जाता है कि वे इतने भोले हैं उन्हें दूल्हे के तौर पर कैसे सजना है, क्या करना है, इसका भी पता नहीं था। ऐसी बारात न कभी पहले निकली थी और अब न कभी निकलेगी। एक मौका तो ऐसा भी आया जब शिव को देख माता पार्वती की मां ने अपनी बेटी का हाथ उन्हें देने से मना कर दिया था। ब्रह्माजी ने निभाई थी पुरोहित की भूमिका शिव पार्वती के विवाह में ब्रह्माजी ने पुरोहित की भूमिका निभाई थी। विवाह में शामिल होने पहले ब्रह्माजी ने एक कुंड में स्नान किया था, जिसे ब्रह्मकुंड कहा जाता है। यहां भगवान विष्णु ने पार्वती के भाई की भूमिका निभाई थी। उस समय सभी संत-मुनियों ने इस समारोह में भाग लिया था। यहां विवाह में आए अन्य देवी-देवताओं ने स्नान किया था। विवाह से पहले सभी देवताओं ने यहां स्नान भी किया और इसलिए यहां तीन कुंड बने हैं जिन्हें रुद्र कुंड, विष्णु कुंड और ब्रह्मा कुंड कहते हैं। इन तीनों कुंड में जल सरस्वती कुंड से आता है। सरस्वती कुंड का निर्माण विष्णु की नासिका से हुआ था और इसलिए ऐसी मान्यता है कि इन कुंड में स्नान से संतानहीनता से मुक्ति मिल जाती है। जो भी श्रद्धालु इस पवित्र स्थान की यात्रा करते हैं वे यहां प्रज्वलित अखंड ज्योति की भभूत अपने साथ ले जाते हैं ताकि उनका वैवाहिक जीवन शिव और पार्वती के आशीष से हमेशा मंगलमय बना रहे। विवाह स्थल के नियत स्थान को ब्रह्म शिला कहा जाता है जो कि मंदिर के ठीक सामने स्थित है। इस मंदिर के महात्म्य का वर्णन स्थल पुराण में भी मिलता है। मंदिर आने वाले भक्त यहां भेंट में लकड़ियां अर्पित करते हैं। इस स्थान पर विष्णु भगवान ने लिया था वामन अवतार वेदों में उल्लेख है कि यह त्रियुगीनारायण मंदिर त्रेता युग से स्थापित है। जबकि केदारनाथ व बद्रीनाथ द्वापरयुग में स्थापित हुए। यह भी मान्यता है कि इस स्थान पर विष्णु भगवान ने वामन देवता का अवतार लिया था। पौराणिक कथा के अनुसार इंद्रासन पाने के लिए राजा बलि को सौ यज्ञ करने थे, इनमें से बलि 99 यज्ञ पूरे कर चुके थे तब भगवान विष्णु ने वामन अवतार लेकर रोक दिया जिससे कि बलि का यज्ञ भंग हो गया। यहां विष्णु भगवान वामन देवता के रूप में पूजे जाते हैं। यहां शादी करने वालों की संवर जाती है जिंदगी त्रियुगीनारायण मंदिर अब खास वेडिंग डेस्टिनेशन बनता जा रहा है। काफी लोग यहां विवाह करने के लिए पहुंचते हैं। इस मंदिर के बारे में मान्यता है कि यहां शादी करने वाले जोड़े की जिंदगी संवर जाती है। इसी मंदिर में भगवान शिव और माता पार्वती का विवाह हुआ था। आज भी उनकी शादी की निशानियां यहां मौजूद हैं। इस मंदिर की मान्यता को देखते हुए यहां कई सितारे यहां परिणय सूत्र में बंध चुके हैं। जिन लोगों की शादी हो गई है वो यहां आर्शीवाद लेने आते हैं और जिन लोगों की शादी नहीं हो रही है, वह भी यहां वरदान मांगने आते हैं। देशभर से रुद्रप्रयाग पहुंचने के लिए कई साधन आसानी से मिल सकते हैं। रुद्रप्रयाग से सोनप्रयाग पहुंचना होगा। अगस्त्यमुनि से गुप्तकाशी की फिर सोनप्रयाग आता है। यहां से त्रियुगी नारायण मंदिर आसानी से पहुंच सकते हैं। विश्व कल्याण के लिए होता है हरियाली मेले का आयोजन त्रियुगीनारायण मंदिर में प्रत्येक वर्ष क्षेत्र की खुशहाली व विश्व कल्याण के लिए हरियाली मेले का आयोजन किया जाता है। ये पौराणिक परंपरा अपने पर्यावरण को बचाने का भी संदेश देती है।एक सप्ताह पूर्व से ग्रामीण अपने-अपने घरों में जौ की हरियाली उगाने का कार्यक्रम शुरू करते हैं। सभी ग्रामीण अपने घरों से हरियाली लाकर त्रियुगीनारायण मंदिर परिसर में एकत्रित होते हैं। वैदिक मंत्रोच्चारण और पूजा अर्चना के साथ महिलाएं पारंपरिक वेशभूषा व पौराणिक रीति-रिवाजों अनुसार पहले भगवान विष्णु को हरियाली को अर्पित करती हैं। गांव में प्रत्येक घर में बांटने के साथ ही बावन द्वादशी मेले के समापन अवसर पर भक्तों को प्रसाद के रूप में वितरित करने की परम्परा है। वामन द्वादशी मेले से पहले हरियाली मेला मनाने की परंपरा भी लंबे समय से चली आ रही है। यह मेला क्षेत्र की खुशहाली के लिए मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी मंदिर में शिव और पार्वती का विवाह हुआ था।
हाटू माता मंदिर को लेकर मान्यता है कि मंदिर का निर्माण रावण की पत्नी मंदोदरी ने करवाया था। वैसे तो यहां से लंका बहुत दूर है, लेकिन इसके बावजूद वह अक्सर यहां माता के दर्शन और पूजा करने के लिए आया करती थी। बताया जाता है कि मंदोदरी हाटू माता की बहुत बड़ी भक्त थी। वहीं एक मान्यता यह भी है कि महाभारत काल में पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान हाटू माता मंदिर में काफी समय बिताया था। पांडवों ने यहां पर माता की कठिन तपस्या और उपासना कर शत्रुओं पर विजय पाने का वरदान प्राप्त किया था। उस समय की प्राचीन शिला आज भी हाटू पीक पर साक्ष्य के रूप में मौजूद है। मंदिर के पास ही तीन बड़ी चट्टानें हैं, जिनके बारे में कहा जाता है कि ये भीम का चूल्हा है। जहां आज भी अगर खुदाई करने पर जला हुआ कोयला मिलता है, जिससे पता चलता है कि पांडव इस जगह पर खाना बनाया करते थे। हाटू माता मंदिर में हर साल ज्येष्ठ महीने के पहले रविवार को बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दिन को हाटू माता मंदिर की स्थापना के रूप में मनाया जाता है। इस दिन यहां विशाल मेला भी लगाया जाता है। मान्यता है कि हाटू माता मंदिर में आकर जो श्रद्धालु सच्ची भक्ति से मां हाटू माता के दरबार में पहुंचता है, उसकी हर मनोकामना दुख, दर्द, दरिद्र दूर हो जाते हैं। हाटू माता मंदिर से राजों और रजवाड़ों का पूर्वजों के समय से खास लगाव रहा है। आज भी देश-विदेश के लाखों श्रद्धालुओं की हाटू माता के प्रति गहरी आस्था है। हाटू माता मंदिर आने वाले श्रद्धालु नारकंडा के ही एक अन्य लोकप्रिय महामाया मंदिर के दर्शन भी कर सकते हैं। इसके अलावा नारकंडा में 18वीं शताब्दी का एक प्रसिद्घ फार्म भी है, जो अपने सेब के बागों के लिए प्रसिद्ध है।
भारत में कई ऐसे पावन तीर्थ हैं, जहां पर श्रद्धा एवं भक्ति के साथ जाने मात्र से व्यक्ति के समस्त मनोरथ पूरे हो जाते हैं। ऐसा ही एक पावन तीर्थ देवभूमि उत्तराखंड की वादियों में है, जिसे लोग 'कैंची धाम' के नाम से जानते हैं। कैंची धाम के नीब करौरी बाबा (नीम करौली) की ख्याति विश्वभर में है। नैनीताल से लगभग 65 किलोमीटर दूर कैंची धाम को लेकर मान्यता है कि यहां आने वाला व्यक्ति कभी भी खाली हाथ वापस नहीं लौटता। यहां पर हर मन्नत पूर्णतया फलदायी होती है। यही कारण है कि देश-विदेश से हज़ारों लोग यहां हनुमान जी का आशीर्वाद लेने आते हैं। बाबा के भक्तों में एक आम आदमी से लेकर अरबपति-खरबपति तक शामिल हैं। बाबा के इस पावन धाम में होने वाले नित-नये चमत्कारों को सुनकर दुनिया के कोने-कोने से लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के भक्त और जाने-माने लेखक रिचर्ड अल्बर्ट ने मिरेकल आफ लव नाम से बाबा पर पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में बाबा नीब करौरी के चमत्कारों का विस्तार से वर्णन है। इनके अलावा हॉलीवुड अभिनेत्री जूलिया राबर्ट्स, एप्पल के फाउंडर स्टीव जाब्स और फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग जैसी बड़ी विदेशी हस्तियां बाबा के भक्त हैं। 1964 में बाबा ने की थी आश्रम की स्थापना नीम करोली बाबा या नीब करोली बाबा की गणना बीसवीं शताब्दी के सबसे महान संतों में की जाती है। इनका जन्म स्थान ग्राम अकबरपुर जिला फ़िरोज़ाबाद उत्तर प्रदेश में हुआ था। कैंची, नैनीताल, भुवाली से 7 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। बाबा नीब करौरी ने इस आश्रम की स्थापना 1964 में की थी। बाबा नीम करौरी 1961 में पहली बार यहां आए और उन्होंने अपने पुराने मित्र पूर्णानंद जी के साथ मिल कर यहां आश्रम बनाने का विचार किया। इस धाम को कैंची मंदिर, नीम करौली धाम और नीम करौली आश्रम के नाम से जाना जाता है। उत्तराखंड में हिमालय की तलहटी में बसा एक छोटा सा आश्रम है नीम करोली बाबा आश्रम। मंदिर के आंगन और चारों ओर से साफ सुथरे कमरों में रसीली हरियाली के साथ, आश्रम एक शांत और एकांत विश्राम के लिए एकदम सही जगह प्रस्तुत करता है। यहाँ कोई टेलीफोन लाइनें नहीं हैं, इसलिए किसी को बाहरी दुनिया से परेशान नहीं किया जा सकता है। 15 जून को लगता है मेला श्री हनुमान जी के अवतार माने जाने वाले नीम करोरी बाबा के इस पावन धाम पर पूरे साल श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है, लेकिन हर साल 15 जून को यहां पर एक विशाल मेले व भंडारे का आयोजन होता है। यहां इस दिन इस पावन धाम में स्थापना दिवस मनाया जाता है। कई चमत्कारों के किस्से सुन खींचे आते है भक्त मान्यता है कि बाबा नीम करौरी को हनुमान जी की उपासना से अनेक चामत्कारिक सिद्धियां प्राप्त थीं। लोग उन्हें हनुमान जी का अवतार भी मानते हैं। हालांकि वह आडंबरों से दूर रहते थे। न तो उनके माथे पर तिलक होता था और न ही गले में कंठी माला। एक आम आदमी की तरह जीवन जीने वाले बाबा अपना पैर किसी को नहीं छूने देते थे। यदि कोई छूने की कोशिश करता तो वह उसे श्री हनुमान जी के पैर छूने को कहते थे। बाबा नीब करौरी के इस पावन धाम को लेकर तमाम तरह के चमत्कार जुड़े हैं। जनश्रुतियों के अनुसार, एक बार भंडारे के दौरान कैंची धाम में घी की कमी पड़ गई थी। बाबा जी के आदेश पर नीचे बहती नदी से कनस्तर में जल भरकर लाया गया। उसे प्रसाद बनाने हेतु जब उपयोग में लाया गया तो वह जल घी में बदल गया। ऐसे ही एक बार बाबा नीब करौरी महाराज ने अपने भक्त को गर्मी की तपती धूप में बचाने के लिए उसे बादल की छतरी बनाकर, उसे उसकी मंजिल तक पहुंचवाया। ऐसे न जाने कितने किस्से बाबा और उनके पावन धाम से जुड़े हुए हैं, जिन्हें सुनकर लोग यहां पर खिंचे चले आते हैं। बाबा के दुनियाभर में 108 आश्रम बाबा नीब करौरी को कैंची धाम बहुत प्रिय था। अक्सर गर्मियों में वे यहीं आकर रहते थे। बाबा के भक्तों ने इस स्थान पर हनुमान का भव्य मन्दिर बनवाया। उस मन्दिर में हनुमान की मूर्ति के साथ-साथ अन्य देवताओं की मूर्तियाँ भी हैं। यहां बाबा नीब करौरी की भी एक भव्य मूर्ति स्थापित की गयी है। बाबा नीब करौरी महाराज के देश-दुनिया में 108 आश्रम हैं। इन आश्रमों में सबसे बड़ा कैंची धाम तथा अमेरिका के न्यू मैक्सिको सिटी स्थित टाउस आश्रम है। स्टीव जॉब्स को आश्रम से मिला एप्पल के लोगो का आईडिया भारत की धरती सदा से ही अध्यात्म के खोजियों को अपनी ओर खींचती रही है। दुनिया की कई बड़ी हस्तियों में भारत भूमि पर ही अपना सच्चा आध्यात्मिक गुरु पाया है। एप्पल कंपनी के संस्थापक स्टीव जॉब्स 1974 से 1976 के बीच भारत भ्रमण पर निकले। वह पर्यटन के मकसद से भारत नहीं आए थे, बल्कि आध्यात्मिक खोज में यहां आए थे। उन्हें एक सच्चे गुरु की तलाश थी।स्टीव पहले हरिद्वार पहुंचे और इसके बाद वह कैंची धाम तक पहुंच गए। यहां पहुंचकर उन्हें पता लगा कि बाबा समाधि ले चुके हैं। कहते है कि स्टीव को एप्पल के लोगो का आइडिया बाबा के आश्रम से ही मिला था। नीम करौली बाबा को कथित तौर पर सेब बहुत पसंद थे और यही वजह थी कि स्टीव ने अपनी कंपनी के लोगों के लिए कटे हुए एप्पल को चुना। हालांकि इस कहानी की सत्यता के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। जुकरबर्ग को मिली आध्यात्मिक शांति, शीर्ष पर पहुंचा फेसबुक बाबा से जुड़ा एक किस्सा फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्ग ने 27 सितंबर 2015 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को बताया था, तब पीएम मोदी फेसबुक के मुख्यालय में गए थे। इस दौरान जुकरबर्ग ने पीएम को भारत भ्रमण की बात बताई। उन्होंने कहा कि जब वे इस संशय में थे कि फेसबुक को बेचा जाए या नहीं, तब एप्पल के फाउंडर स्टीव जॉब्स ने इन्हें भारत में नीम करोली बाबा के स्थान पर जाने की सलाह दी थी। जुकरबर्ग ने बताया था कि वे एक महीना भारत में रहे। इस दौरान वह नीम करोली बाबा के मंदिर में भी गए थे। जुकरबर्ग आए तो यहां एक दिन के लिए थे, लेकिन मौसम खराब हो जाने के कारण वह यहां दो दिन रुके थे। जुकरबर्ग मानते हैं कि भारत में मिली अध्यात्मिक शांति के बाद उन्हें फेसबुक को नए मुकाम पर ले जाने की ऊर्जा मिली। बाबा की तस्वीर को देख जूलिया ने अपनाया हिन्दू धर्म हॉलिवुड की मशहूर अदाकारा जूलिया रॉबर्ट्स ने 2009 में हिंदू धर्म अपना लिया था। वह फिल्म ‘ईट, प्रे, लव’ की शूटिंग के लिए भारत आईं थीं। जूलिया रॉबर्ट्स ने एक इंटरव्यू में यह खुलासा किया था कि वह नीम करौली बाबा की तस्वीर से इतना प्रभावित हुई थीं कि उन्होंने हिन्दू धर्म अपनाने का फैसला कर डाला। जूलिया इन दिनों हिन्दू धर्म का पालन कर रही हैं।
आज के दौर के ढोंगी बाबाओं को देखकर बाबाओं पर से आमजन का भरोसा डगमगा चूका है। मन में ‘बाबा’ शब्द आते ही वैभवशाली जीवन व्यतीत करने वाले बाबाओं की छवि सामने आती है। पर हमारे देश की पावन भूमि पर कई ऐसे साधु-संत और सन्यासी हुए है जिन्होंने अपना पूरा जीवन जन कल्याण में लगा दिया। ऐसे ही एक महायोगी बाबा को दुनिया देवरहा बाबा के नाम से जानती है। देवरहा बाबा एक योगी, सिद्ध महापुरुष एवं सन्त पुरुष थे। देवरहा बाबा का जन्म कब और कहाँ हुआ किसी को भी पता नहीं है पर बाबा का निवास ज्यादातर भारत के उत्तर प्रदेश के देवरिया में रहता था जिसके चलते ही उनका नाम देवरहा बाबा पड़ा। मंगलवार, संवत 2047 की योगिनी एकादशी तदनुसार, 19 जून सन 1990 के दिन अपना शरीर छोड़ने वाले देवरहा बाबा की चमत्कारी शक्ति को लेकर तरह-तरह की बातें कही-सुनी जाती हैं। उनकी सही उम्र के विषय में अलग-अलग राय है। आमतौर पर सुनने में आता हैं कि देवरहा बाबा 900 साल तक जिन्दा थे। पर कुछ लोग 250 साल तो कुछ 500 साल मानते हैं। उनका वास्तविक जीवनकाल कितना था इसे लेकर अलग -अलग बातें है। कहते है उनकी आयु को लेकर पूर्व राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने एक बार कहा था कि अपने बचपन में उन्होंने बाब के दर्शन किये थे। इसके बाद जब वे राष्ट्रपति बनने के बाद दोबारा बाबा के दर्शन को गए तब भी बाबा वैसे ही दिखते थे जैसा उन्होंने अपने बचपन में उनको देखा था। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी भी आपातकाल के बाद चुनाव में हार के बाद बाबा का आशीर्वाद लेने पहुंची थी। इंदिरा के अतिरिक्त पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी भी बाबा के दर्शन करने पहुंचते थे। देवरहा बाबा का पूरा जीवन मचान पर ही बीता। यमुना किनारे करीब 12 फ़ीट ऊँची मचान पर ही वे रहा करते थे। चार खंभों पर टिका मचान ही उनका महल था, जहां नीचे से ही लोग उनके दर्शन करते थे। बाबा हमेशा निरवस्त्र रहते हुए मृग छाला ही पहनते थे। उन्होंने पूरा जीवन अन्न नहीं खाया। दूध व शहद पीकर जीवन गुजार दिया। कहते है श्रीफल का रस उन्हें बहुत पसंद था। वे साल में करीब आठ माह देवरिया के मइल गांव में ही बिताते थे। बिताते थे। कुछ दिन बनारस के रामनगर में गंगा के बीच, माघ में प्रयाग, फागुन में मथुरा के मठ के अलावा वे कुछ समय हिमालय में एकांतवास भी करते थे। अपरम्पार थी बाबा की साधना की शक्ति देवरहा बाबा ने अपनी उम्र, तप और सिद्धियों के बारे में कभी कोई दावा नहीं किया। सहज, सरल और सादा जीवन जीने वाले बाबा देवरहा तो बिना पूछे ही सब कुछ जान लेते थे। यह उनकी साधना की शक्ति थी। कहा जाता है कि बाबा को प्लविनी सिद्धि प्राप्त थी और वे जल पर भी चलते थे। किसी भी गंतव्य पर पहुंचने के लिए उन्होंने कभी सवारी नहीं की। बाबा हर साल माघ मेले के समय प्रयाग आते थे। यमुना किनारे वृंदावन में वह आधा घंटा तक तक पानी में, बिना सांस लिए रह लेते थे। बाबा देखते ही समझ जाते थे कि सामने वाले का सवाल क्या है। दिव्यदृष्टि के साथ तेज नजर, कड़क आवाज, दिल खोल कर हंसना, खूब बतियाना बाबा की आदत थी। याद्दाश्त इतनी कि दशकों बाद मिले व्यक्ति को भी पहचान लेते और उसके दादा-परदादा तक का नाम व इतिहास तक बता देते। कहते है बाबा जानवरों की भाषा समझ जाते थे बाबा जानवरों की भाषा समझ जाते थे, पल भर में वे खतरनाक जंगली जानवरों को काबू कर लेते थे। बाबा ने दिया था कांग्रेस का चुनाव चिन्ह देश में आपातकाल के बाद 1977 में चुनाव हुए, तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हार गईं। हार के बाद इंदिरा गाँधी भी देवरहा बाबा से आशीर्वाद लेने गईं। बाबा का आशीर्वाद देने का तरीका निराला था। मचान पर बैठे-बैठे ही अपना पैर जिसके सिर पर रख दिया, वो धन्य हो जाता था। पर बाबा ने इंदिरा को हाथ उठाकर पंजे से आशीर्वाद दिया। कहते है ये बाबा का इशारा था जिसे इंदिरा समझ गई और वहां से लौटने के बाद इंदिरा ने कांग्रेस का चुनाव चिह्न हाथ का पंजा ही तय किया। इसी चिह्न पर 1980 में कांग्रेस ने इंदिरा के नेतृत्व में प्रचंड बहुमत प्राप्त किया और इंदिरा फिर से देश की प्रधानमंत्री बनीं। जार्ज पंचम भी दर्शन के लिए आये थे भारत बाबा के दर्शन के लिए मईल आश्रम पर 1911 में जार्ज पंचम दर्शन करने के लिए भारत आए थे। देश के महान विभूति डॉ. राजेंद्र प्रसाद, मदनमोहन मालवीय, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी अटल बिहारी बाजपेयी, मुलायम सिंह यादव , वीरबहादुर सिंह, विंदेश्वरी दुबे, जग्रनाथ मिश्र आदि नेताओं सहित प्रशासनिक अधिकारी बाबा का आशीर्वाद लेते थे। बाबा अपने पास आने वाले भक्तों से बड़े प्रेम से मिलते थे और उनको कुछ न कुछ प्रसाद अवश्य देते थे। प्रसाद देने के लिए बाबा अपना हाथ ऐसे ही मचान के खाली भाग में रखते थे और उनके हाथ में फल, मेवे या कुछ अन्य खाद्य पदार्थ आ जाते थे। यह किसी चमत्कार जैसा ही लगता था। बाबा ने कहा था गोहत्या का कलंक मिटाना अत्यावश्यक देवरहा बाबा गौरक्षा के परम हिमायती थे। देवरहा बाबा जनसेवा तथा गोसेवा को सर्वोपरि-धर्म मानते थे तथा प्रत्येक दर्शनार्थी को लोगों की सेवा, गोमाता की रक्षा करने तथा भगवान की भक्ति में रत रहने की प्रेरणा देते थे। प्रयागराज में सन् 1989 में महाकुंभ के पावन पर्व पर विश्व हिन्दू परिषद् के मंच से बाबा ने अपना पावन संदेश देते हुए कहा था "दिव्यभूमि भारत की समृद्धि गोरक्षा, गोसेवा के बिना संभव नहीं होगी। गोहत्या का कलंक मिटाना अत्यावश्यक है।" बाबा कहते थे जीवन को पवित्र बनाए बिना, ईमानदारी, सात्विकता-सरसता के बिना भगवान की कृपा प्राप्त नहीं होती। अत: सबसे पहले अपने जीवन को शुद्ध-पवित्र बनाने का संकल्प लो। दर्शनार्थ आने वाले भक्तजनों को वे सद्मार्ग पर चलते हुए अपना मानव जीवन सफल करने का आशीर्वाद देते थे। वे कहते, "इस भारतभूमि की दिव्यता का यह प्रमाण है कि इसमें भगवान श्रीराम और श्रीकृष्ण ने अवतार लिया है। यह देवभूमि है, इसकी सेवा, रक्षा तथा संवर्धन करना प्रत्येक भारतवासी का कर्तव्य है।" बाबा परंम् रामभक्त भी थे। देवरहा बाबा के मुख में सदा राम नाम का वास था, वो भक्तो को राम मंत्र की दीक्षा दिया करते थे। वो सदा सरयू के किनारे रहा करते थे। उनका कहना था... "एक लकड़ी ह्रदय को मानो दूसर राम नाम पहिचानो राम नाम नित उर पे मारो ब्रह्म दिखे संशय न जानो। "बाबा ने योग विद्या के जिज्ञासुओं को हठयोग की दसों मुद्राओं का प्रशिक्षण भी दिया। वे ध्यान योग, नाद योग, लय योग, प्राणायाम, त्राटक, ध्यान, धारणा, समाधि आदि की साधन पद्धतियों का जब विवेचन करते तो बड़े-बड़े धर्माचार्य उनके योग सम्बंधी ज्ञान के समक्ष नतमस्तक हो जाते थे।
आदि शक्तिपीठों में हिंगलाज देवी का पीठ धार्मिक अस्थाओं में बहुत महत्व रखता है। स्कन्दपुराण, वामन पुराण व दुर्गा चालीसा में " हिंगलाज में तुम्हीं भवानी, महिमा अमित न जात बखानी" वर्णित हैं। माता सती के 51 शक्तिपीठों में से एक शक्तिपीठ पाकिस्तान के कब्जे वाले बलूचिस्तान में स्थित है। सुरम्य पहाड़ियों, हिंगोल नदी और चंद्रकूप पहाड़ पर स्थित यह माता का मंदिर विश्व विख्यात है। मां हिंगलाज मंदिर में हिंगलाज शक्तिपीठ की प्रतिरूप देवी की प्राचीन दर्शनीय प्रतिमा विराजमान हैं। मान्यता है कि यहीं माता सती का मस्तिष्क गिरा था। ये मंदिर मकरान रेगिस्तान की खेरथार पहाड़ियों के अंत में है। मंदिर एक प्राकृतिक गुफा में बना हुआ है, जहां एक मिट्टी की वेदी बनी हुई है। देवी की कोई मानव निर्मित प्रतिमा नहीं है। बल्कि एक शिला रूप में हिंगलाज माता यहां विराजमान है। यहां आकर हिंदू और मुसलमान का भेद खत्म हो जाता है। यहां सभी मां की पूजा करते हैं और गुफा के अंदर मां के जयकारे लगते रहते हैं। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, हिंगलाज माता के दरबार में जो भी भक्त शीश नवाता है, उसे पूर्वजन्मों के कष्टों को नहीं भोगना पड़ता। ऊंची पहाड़ी पर मां हिंगलाज का गुफा के अंदर दरबार है और भगवान शिव यहां भीमलोचन भैरव रूप में प्रतिष्ठित हैं। मंदिर के परिसर में भगवान गणेश, कालिका माता की प्रतिमा लगी हुई हैं। चमत्कार के आगे सभी नतमस्तक हिंगलाज माता के मंदिर पर कई बार पाकिस्तान के चरमपंथी हमला कर चुके हैं लेकिन माता को नुकसान नहीं पहुंचा पाए। स्थानीय हिंदू और मुसलमानों ने चरमपंथियों के हमले से मंदिर को कई बार बचाया भी है। कहते है एकबार जब आतंकवादी मंदिर को नुकसान पहुंचाने के लिए आए तब वे सभी हवा में लटक गए थे। तब से इस मंदिर के चमत्कार के आगे सभी शीश झुकाते हैं। मुस्लिम समुदाय के 'नानी पीर' है माता जब पाकिस्तान का अस्तित्व नहीं था और भारत की पश्चिमी सीमा अफगानिस्तान और ईरान थी, उस समय हिंगलाज तीर्थ हिन्दुओं का प्रमुख तीर्थ तो था ही, बलूचिस्तान के मुसलमान भी हिंगला देवी की पूजा करते थे, उन्हें 'नानी' कहकर मुसलमान भी लाल कपड़ा, अगरबत्ती, मोमबत्ती, इत्र और सिरनी चढ़ाते थे। हिंगलाज शक्तिपीठ हिन्दुओं और मुसलमानों का संयुक्त महातीर्थ था। हिन्दुओं के लिए यह स्थान एक शक्तिपीठ है और मुसलमानों के लिए यह 'नानी पीर' का स्थान है। हिंगलाज में गिरा था माता सती का सर पौराणिक कथानुसार जब भगवान शंकर माता सती के मृत शरीर को अपने कंधे पर लेकर तांडव नृत्य करने लगे, तो ब्रह्माण्ड को प्रलय से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता के मृत शरीर को 51 भागों में काट दिया। मान्यतानुसार हिंगलाज ही वह जगह है जहां माता का सिर गिरा था। जनश्रुति है कि मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्री राम भी यात्रा के लिए इस सिद्ध पीठ पर आए थे। हिंदू धर्म ग्रंथों के अनुसार भगवान परशुराम के पिता महर्षि जमदग्रि ने यहां घोर तप किया था। उनके नाम पर आसाराम नामक स्थान अब भी यहां मौजूद है। माता हिंगलाज मंदिर में पूजा-उपासना का बड़ा महत्व है। कहा जाता है कि इस प्रसिद्ध मंदिर में माता की पूजा करने को गुरु गोरखनाथ, गुरु नानक देव, दादा मखान जैसे महान आध्यात्मिक संत आ चुके हैं। ऐसा है मंदिर का स्वरूप यहां का मंदिर गुफा मंदिर है। ऊंची पहाड़ी पर बनी एक गुफा में माता का विग्रह रूप विराजमान है। पहाड़ की गुफा में माता हिंगलाज देवी का मंदिर है जिसका कोई दरवाजा नहीं। मंदिर की परिक्रमा में गुफा भी है। यात्री गुफा के एक रास्ते से दाखिल होकर दूसरी ओर निकल जाते हैं। मंदिर के साथ ही गुरु गोरखनाथ का चश्मा है। मान्यता है कि माता हिंगलाज देवी यहां सुबह स्नान करने आती हैं। हिंगलाज मंदिर में दाखिल होने के लिए पत्थर की सीढिय़ां चढ़नी पड़ती हैं। मंदिर में सबसे पहले श्री गणेश के दर्शन होते हैं जो सिद्धि देते हैं। सामने की ओर माता हिंगलाज देवी की प्रतिमा है जो साक्षात माता वैष्णो देवी का रूप हैं। सभी शक्तियों का संगम इस मंदिर से जुड़ी एक और मान्यता व्याप्त है। कहा जाता है कि हर रात इस स्थान पर सभी शक्तियां एकत्रित होकर रास रचाती हैं और दिन निकलते हिंगलाज माता के भीतर समा जाती हैं। इस मंदिर पर गहरी आस्था रखने वाले लोगों का कहना है कि हिन्दू चाहे चारों धाम की यात्रा क्यों ना कर ले, काशी के पानी में स्नान क्यों ना कर ले, अयोध्या के मंदिर में पूजा-पाठ क्यों ना कर लें, लेकिन अगर वह हिंगलाज देवी के दर्शन नहीं करता तो यह सब व्यर्थ हो जाता है। वे स्त्रियां जो इस स्थान का दर्शन कर लेती हैं उन्हें हाजियानी कहते हैं। उन्हें हर धार्मिक स्थान पर सम्मान के साथ देखा जाता है।
चैत्र नवरात्रि के चौथे दिन ईषत हास्य से ब्रह्माण्ड की रचना करने वाली देवी दुर्गा के चौथे स्वरूप माँ कुष्मांडा की पूजा अर्चना की जाती है। अपने उदर से ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करने के कारण ही इन्हें कुष्मांडा देवी कहा जाता है। माता की आठ भुजाएं होने से इन्हें अष्टभुजा देवी के नाम से भी जाना जाता है। इनके सात हाथों में कमंडल, धनुष, बाण, कमल-पुष्प, अमृत कलश, चक्र और गदा है। आठवें हाथ में सभी सिद्धियों और निधियों को देने वाली जपमाला है। इनकी कांति और आभा सूर्य के समान है। माँ का यह स्वरूप अन्नपूर्णा का है। देवी कुष्मांडा का वाहन सिंह है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माँ कुष्मांडा ने ही इस ब्रह्माण्ड की रचना की थी जिसकी वजह से इन्हें आदिशक्ति के रूप में भी जाना जाता है। ऐसी मान्यता है कि जब सृष्टि का अस्तित्व नहीं था तब माँ दुर्गा के कुष्मांडा स्वरूप ने मंद-मंद मुस्कुराते हुए इस ब्रह्माण्ड की रचना की थी। ब्रह्मांड की सभी वस्तुओं और प्राणियों में जो तेज मौजूद है वह देवी कुष्मांडा की ही छाया है। मां प्रकृति और पर्यावरण की अधिष्ठात्री है। शाकुंभरी रूप में माता ने धरा को पल्लवित किया और शताक्षी बनकर असुरों का संहार किया। जप और ध्यान देवी कुष्मांडा की आराधना के बिना सम्पूर्ण नहीं होते। माता का यह रूप तृप्ति और तुष्टि पूर्ण है। नवरात्र के चौथे दिन फल-सब्जी व अन्न दान फलदायी होते हैं। ऐसी मान्यता है कि देवी कुष्मांडा जल्दी प्रसन्न होती हैं। केवल सच्चे मन से माँ को याद करें। माँ कूष्माण्डा की उपासना से भक्तों के समस्त रोग-दोष दूर हो जाते हैं।
नवरात्रि के नौ दिन देवी के 9 रूपों की पूजा की जाती है। माँ के हर एक रूप की अलग महिमा भी है। नवरात्रि के तीसरे दिन माँ दुर्गा के तृतीय स्वरूप, साहस और वीरता का एहसास करवाने वाली मां चंद्रघंटा की पूजा की जाती है। माता के शीश पर घंटे के आकार का अर्धचंद्र है जिस कारण इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। देवी की दस भुजाएं और तीन आँखें हैं। आठ हाथों में खड्ग, बाण जैसे दिव्य अस्त्र-शस्त्र धारण कर माता दो हाथों से भक्तों को आशीष देती हैं। देवी पार्वती का रौद्र रूप, माँ चंद्रघंटा का संपूर्ण शरीर दिव्य आभामय है। यह देवी सिंह की सवारी करती हैं। माता की पूजा से बल और यश में बढ़ोतरी होती है। स्वर में दिव्य अलौकिक मधुरता आती है। देवी की घंटे-सी प्रचंड ध्वनि से भयानक राक्षस भय खाते हैं। नवरात्रि के नौ दिनों में देवी के 9 रूपों की पूजा की जाती है। माँ दुर्गा या पार्वती के इन 9 रूपों को पापों की विनाशिनी कहा जाता है। माँ अपने भक्तों को पाप मुक्त करती हैं।
"या देवी सर्वभूतेषु सृष्टि रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः " चैत्र नवरात्रि के दूसरे दिन माँ दुर्गा के दूसरे स्वरूप माता ब्रह्मचारिणी की पूजा अर्चना की जाती है। माँ ब्रह्मचारिणी ज्ञान, वैराग्य व ध्यान की देवी हैं। एक हाथ में कमंडल और दूसरे में रुद्राक्ष माला धारण करने वाली माँ करमाला , स्फटिक और ध्यान योग्य नवरात्र की दूसरी शक्ति स्वरूप है। माँ के इस स्वरूप का उद्भव ब्रह्मा जी के कमंडल द्वारा मन जाता है। मानसपुत्रों के सृष्टि विस्तार में विफल रहने पर ब्रम्हा जी ने इस शक्ति से सृष्टि का विस्तार किया जिस कारण स्त्री को सृष्टि का कारक माना गया है। शास्त्रों के अनुसार, मां ब्रह्मचारिणी ने उनके पूर्वजन्म में हिमालय के घर पुत्री रूप में जन्म लिया था और भगवान शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या की थी। यही कारण है कि इन्हे ब्रह्मचारिणी कहा गया है। मान्यता है कि जो व्यक्ति विधि विधान से देवी के इस स्वरूप की पूजा अर्चना करते हैं, उनकी कुंडलिनी शक्ति जागृत हो जाती है और वो हमेशा उज्जवलता और ऐश्वर्य का सुख भोगते हैं।
हिमाचल प्रदेश के जिला कुल्लू में एक रहस्यमयी शिव मंदिर है, जिसकी गुत्थी आज तक कोई नहीं सुलझा पाया। ऊंची पहाड़ियों पर स्थित इस मंदिर पर पार्वती, व्यास पार्वती और व्यास नदी का संगम भी है। पौराणिक कथा के अनुसार यहां की विशालकाय घाटी सांप के रुप में है, जिसका वध महादेव के द्वारा किया गया था। हर 12 साल में भगवान इंद्र भोलेनाथ की आज्ञा लेकर यहाँ बिजली गिराते हैं। जिस स्थान पर मंदिर स्थित है उसके गर्व गृह में शिवलिंग स्थापित है और उसी शिवलिंग पर हर 12 साल में आकाशीय बिजली गिरती है, लेकिन इसके बाद भी मंदिर को किसी तरह का कोई नुकसान नहीं होता। बिजली गिरने से शिवलिंग खंडित हो जाती है और टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। पुजारी को सपना होता है कि टुकड़े यहाँ-वहां गिरे हुए हैं। पुजारी उन टुकड़ों को इकठ्ठा करता है, मक्खन से उन टुकड़ों को जोड़ता है और शिवलिंग एक बार फिर ठोस रूप में परिवर्तित हो जाती है। कुल्लू में महादेव प्रिय देवता हैं। कहीं वें सयाली महादेव हैं तो कहीं ब्राणी महादेव। कहीं वे जुवाणी महादेव हैं तो कहीं बिजली महादेव। बिजली महादेव का अपना ही महत्व व इतिहास है। ऐसा लगता है कि बिजली महादेव के इर्द-गिर्द समूचा कुल्लू का इतिहास घूमता है। हर मौसम में दूर-दूर से लोग बिजली महादेव के दर्शन करने आते हैं। कुल्लू के नाम में छुपी है बिजली महादेव की कथा कुल्लू जिला और बिजली महादेव में गहरा नाता है, देव संस्कृति की इस घाटी में हालांकि भगवान रघुनाथजी यहां के अधिष्ठाता हैं, लेकिन बिजली महादेव को ही बड़ा देव माना जाता है। इसका कारण कुल्लू के नामकरण में बिजली महादेव का बड़ा योगदान रहा है, जिन्होंने घाटी को कुलांत नामक दैत्य के भय से मुक्त किया था। प्राचीन काल में यहां का नाम कुलांत व कुलूत देश पड़ा और बाद में कुल्लू बन गया। मान्यता है कि सदियों पहले इस क्षेत्र में कुलांत राक्षस का आतंक था, जिसने एक समय में विशाल अजगर का रूप धारण कर लिया। वह ब्यास व पार्वती नदी के संगम पर कुंडली मारकर बैठ गया। बताया जाता है कि उसका इरादा नदी का बहाव रोककर इलाके को जलमग्न करने का था, ताकि यहां का जन-धन सब पानी में डूब जाए। ऐसे में भगवान शिव बीच में आए और उन्होंने अजगर को बहकाकर उसका फन कुचल दिया। जिस जगह पर उसका शरीर था, वह विशाल पहाड़ के रूप में बदल गया। कुल्लू घाटी में बिजली महादेव से लेकर रोहतांग दर्रा और मंडी के घोग्घरधार तक की घाटी कुलांत के शरीर से निर्मित मानी जाती है। इसलिए पड़ा नाम बिजली महादेव आकाशीय बिजली शिवलिंग पर गिरने के बारे में कहा जाता है कि शिव नही चाहते थे कि बिजली गिरे तो जनमानस को नुकसान हो इसलिए शिव ने लोगो को बचाने के लिए अपने ऊपर गिरवाते हैं। इसी वजह से भगवान शिव को बिजली महादेव कहा जाता है। इस रमणीय स्थान को 10 किलोमीटर सफर तय करके पहुंचा जाता है। पुरी होती है श्रद्धालुओं की हर मनोकामना बिजली महादेव में जो श्रद्धालु सच्चे मन से दर्शन करने आते हैं उनकी मनोकामना पूर्ण होती है। महादेव के दर्शन करने के लिए हर वर्ष लाखों की संख्या में श्रद्धालु पहुंचते है। इस शिवमंदिर के दर्शन करने के लिए देश के हर कोने से लोग आते है। मार्च से सितंबर दर्शन के लिए उपयुक्त सुखद मौसम के कारण बिजली महादेव मंदिर की यात्रा करने का अच्छा समय मार्च से सितंबर तक के महीनों का माना जाता है। सर्दियों में कुल्लू बर्फ से ढक जाता है और इस दौरान लगातार बर्फबारी भी देखने को मिलती है। महाशिवरात्रि के दौरान मंदिर की यात्रा करने की सलाह दी जाती है क्योंकि इस दौरान मंदिर में उत्सव का आयोजन होता है और इसे खूबसूरती से सजाया जाता है। बिजली महादेव का रास्ता लगभग 6 महीनों के लिए बंद रहता। सितम्बर माह के बाद ठण्ड का प्रकोप इस पहाड़ी पर बढ़ जाता है। अक्टूबर महीने से बिजली महादेव में बर्फबारी का दौर शुरू हो जाता है। माना जाता है कि नवंबर के बाद बिजली महादेव तक पहुंचना काफी मुश्किल होता है। बताया जाता है कि बिजली महादेव के मंदिर तक जाने वाला रास्ता बेहत खराब है। बरसात में इस रास्ते में चलना बेहद कठिन है, लेकिन गर्मी के समय में यहाँ पर आसानी से पहुंचा जा सकता है। कैसे पहुंचते है बिजली महादेव बिजली महादेव मंदिर तक पहुँचने के लिए कुल्लू से जाना पड़ता है। कुल्लू में रहने वाले लोग आमतौर पर चंसारी गांव के माध्यम से मंदिर तक जाते हैं जो कुल्लू से लगभग 24 किमी दूर है। गाँव में पहुँचने के बाद गाँव के प्रवेश द्वार से सीढ़ियों पर चढ़ना पड़ता है, जो मंदिर से लगभग 3 किमी दूर है और लगभग 1000 सीढ़ियाँ चढ़कर भक्त मंदिर तक पहुँच सकते हैं। प्रवेश द्वार से मंदिर तक पहुंचने में 45 मिनट से 1 घंटे तक का समय लगता है। सीढ़ियां लोगों को सीधे मंदिर तक ले जाती हैं, इसलिए इस मार्ग से जाना बेहद आसान है। यहां हर वर्ष टूरिस्ट व श्रद्धालु सावन माह और शिवरात्रि को जाते हैं। सावन माह में यहां मेला लगता है। मंदिर में पहाड़ी शैली की झलक बिजली महादेव मंदिर की वास्तुकला में पहाड़ी शैली की झलक देखी जा सकती है, जो पारंपरिक लकड़ी से निर्मित है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल और शिव परिवार से संबंधित प्राचीन प्रतिमायें है। मंदिर में 60 फ़ीट ऊँचा खंबा स्थापित है, जो सूर्य की रौशनी में चाँदी की सुई की भांति चमकता है। मंदिर के आस-पास हरी-भरी घाटी का दृश्य मनोरम है, जो प्रकृति की मध्य शांति और सुकून तलाश रहे लोगों के लिए स्वर्ग सदृश्य है।
देव भूमि हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बा में स्थित है मां बगलामुखी मंदिर। प्रकृति की गोद में स्थित ये शक्तिपीठ हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। पांडुलिपियों में मां के जिस स्वरूप का वर्णन है, मां उसी स्वरूप में यहां विराजमान हैं। माता बगलामुखी पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले रंग के पुष्पों की ही माला धारण करती हैं। माता बगलामुखी का दस महाविद्याओं में 8वां स्थान है तथा इनकी आराधना विशेषकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए की जाती है। ये गोपनीय शक्ति है और धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता बगलामुखी की आराधना सर्वप्रथम ब्रह्मा एवं विष्णु ने की थी। इसके उपरांत भगवान परशुराम ने माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्धों में शत्रुओं को परास्त करके विजय पाई थी। त्रेतायुग में रावण ने विश्व पर विजय प्राप्त करने के लिए मां की पूजा की। भगवान श्री राम ने भी रावण पर विजय प्राप्ति के लिए मां बगलामुखी की आराधना की, इसीलिए मां को शत्रुनाशिनी माना जाता है। नगरकोट के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे, जिनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी। तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ और श्रद्धालु नवग्रह शांति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति सर्व कष्टों के निवारण के लिए मंदिर में हवन-पाठ करवाते हैं। पीला रंग मां का प्रिय रंग है। मंदिर की हर चीज पीले रंग की है, यहां तक कि प्रसाद भी पीले रंग का ही चढ़ाया जाता है। बगलमुखी शब्द बगल और मुख से आया है जिनका मतलब क्रमशः लगाम और चेहरा है। इस प्रकार, व्युत्पत्तिशास्त्र द्वारा इस नाम का अर्थ है ‘एक चेहरा जो शासन की शक्ति है’। भारत के पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न प्रणब मुखर्जी भी मां बगलामुखी की आराधना करने यहां आ चुके है। मुखर्जी 40 मिनट तक माता बगलामुखी परिसर में रुके थे और उन्होंने लगभग आधे घंटे तक मंदिर के गर्भ गृह में पूर्ण विधि-विधान से मां बगलामुखी की पूजा-अर्चना की। वर्ष 1977 में चुनावों में हार के बाद पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी मंदिर में तांत्रिक अनुष्ठान करवाया था। उसके बाद वह फिर सत्ता में आईं और 1980 में देश की प्रधानमंत्री बनी। ब्रह्मा द्वारा आराधना करने की बाद हुई मां बगलामुखी की उत्पति मान्यता है कि एक राक्षस ने ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि उसे जल में कोई मनुष्य या देवता न मार सके। तदोपरांत उक्त राक्षस ब्रह्मा जी का ग्रथं ले कर भाग गया और पानी में छिप गया। तभी ब्रह्मा ने मां भगवती का जाप किया और ब्रह्मा द्वारा आराधना करने की बाद मां की उत्पत्ति हुई थी। इसके बाद माता ने बगुले का रूप धारण किया और जल के अंदर ही राक्षस का वध कर दिया। मां बगलामुखी को नौ देवियों में 8वां स्थान प्राप्त है। अज्ञातवास में पांडवों ने की थी स्थापना यह माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी। कहा जाता है कि अर्जुन एवं भीम द्वारा युद्ध विजय हेतु शक्ति प्राप्त करने के लिए माता की विशेष पूजा की गई थी। कालांतर से ही यह मंदिर लोगों की आस्था व श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। वर्ष भर असंख्य श्रद्धालु, जो ज्वालामुखी, चिंतापूर्णी, नगरकोट इत्यादि के दर्शन के लिए आते हैं, वे सभी इस मंदिर में आकर माता का आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त मंदिर के साथ प्राचीन शिवालय में आदमकद शिवलिंग स्थापित है, जहां लोग माता के दर्शन के उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक करते हैं। बगलामुखी जयंती पर हवन करवाने का है विशेष महत्व 'बगलामुखी जयंती' पर मंदिर में मेले का आयोजन भी किया जाता है। 'बगलामुखी जयंती' पर हर वर्ष हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त देश के विभिन्न राज्यों से लोग आकर अपने कष्टों के निवारण के लिए हवन, पूजा-पाठ करवाकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। बगलामुखी जयंती पर मंदिर में हवन करवाने का विशेष महत्व है, जिससे कष्टों का निवारण होने के साथ-साथ शत्रु भय से भी मुक्ति मिलती है। बगलामुखी जयंती वैशाख के महीने में शुक्ल पक्ष के 8 वें दिन (अष्टमी तिथि) को मनाई जाती है। चुनाव लड़ने वाले कई नेता करवा चुके है यहां अनुष्ठान राजयोग, शत्रुनाश, शत्रुभय, मुकदमा विजय एवं सर्व सिद्धि के लिए मां बगलामुखी सिद्ध पीठ में देश–विदेश से श्रद्धालु आते हैं। मां बगलामुखी मंदिर अनेक नेताओं की आस्था का केंद्र भी रहा है। चुनाव लड़ने वाले कई नेता यहां रात के अंधेरे में तांत्रिक अनुष्ठान करवा चुके है। पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल सहित केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डा भी माता बगलामुखी में काफी श्रद्धा रखते हैं और इनके अतिरिक्त भी कई बड़े नेता मंदिर में आकर अपनी जीत का आशीर्वाद लेते है। मान्यता है कि कांगड़ा जिला में मौजूद शत्रुनाशिनी देवी मां बगलामुखी के दर किया गया तांत्रिक अनुष्ठान दस लाख गुना अधिक फलदायिनी है। ऐसे में कई नेता जीत की आस लगाए शत्रुनाशिनी देवी के दरबार हाजरी भी भर चुके है।
हिमाचल प्रदेश को देवभूमि के नाम से जाना जाता है. यहाँ पर अनेकों देवी-देवताओं का वास है, लेकिन सोलन जिला के जटोली स्थित बना भगवान शिव का मंदिर सबसे अलग है. दक्षिण द्रविड़ शैली से बने इस मंदिर पर नक्काशी का अद्भुत और बेजोड़ नमूना है. यही वजह है कि शिव भक्तों और स्वामी परमहंस की महानता लोगों को हिमाचल के सोलन की ओर खींच लाती है. पहाड़ों की गोद में बसे स्वामी परमहंस की तपोस्थली और जटोली के इस शिवालय को एशिया में सबसे ऊंचे शिवालय का दर्जा दिया गया है. जटोली मंदिर के पीछे मान्यता है कि पौराणिक समय में भगवान शिव यहां आए और कुछ समय यहां ठहरे थे. इसके बाद एक सिद्ध बाबा स्वामी कृष्णानंद परमहंस ने यहां आकर तपस्या की. उनके मार्गदर्शन और दिशा-निर्देश पर ही जटोली शिव मंदिर का निर्माण शुरू हुआ. मंदिर के कोने में स्वामी कृष्णानंद की गुफा है. यहां पर शिवलिंग स्थापित किया गया है. मंदिर का गुंबद 111 फुट ऊंचा है. हरियाणा से आए कारीगरों ने मंदिर पर नक्काशी के जरिए मंदिर की आभा को चार चांद लगा दिए हैं. मंदिर पर की गई नक्काशी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इसके निर्माण के लिए 33 साल का समय लग गया. 2013 में इसे दर्शनार्थ खोला गया था, उस दिन से मंदिर को देश ही नहीं दुनिया में अलग पहचान मिली है. सोलन से करीब सात किलोमीटर की दूरी पर स्थित इस मंदिर में हर श्रद्धालुओं का आना-जाना लगा रहता है. पाकिस्तान से आए थे स्वामी कृष्णा नंद परमहंस महाराज जटोली मंदिर की शुरुआत वैसे 1946 में यानि आजादी से पहले ही हो गई थी, बताया जाता है कि श्रीश्री 1008 स्वामी कृष्णा नंद परमहंस महाराज यहा पाकिस्तान से भ्रमण करने आए थे. जंगल में परमहंस महाराज को तप के लिए यह जगह बेहतर लगी. वह दिनभर कुंड वाले स्थान पर बैठकर तप करते और रात को गुफा में जाकर सो जाते थे. अब जहा उनकी कुटिया मौजूद है वहां किसी समय गडरिये विश्राम के लिए रुकते थे. कुछ समय बाद उन्होंने यहां लाल झडा व नजदीक ही धूणा लगाया. लोगों को जब इसका पता चला तो वहा पहुंचने लगे. भगवान शिव की अराधना से महाराज परम हंस के पास भविष्यवाणी करने की दिव्य शक्ति थी. बताया जाता है की उस समय इस जगह पर पानी की कमी थी समस्या को समझते हुए स्वामी ने क्षेत्र में पानी के लिए तप किया और कुछ ही दिनों बाद वहा पानी की अटूट धारा बहने लगी. आज भी मौजूद है चमत्कारी पानी का कुंड कहा जाता है कि सोलन के लोगों को पानी की समस्या से जुझना पड़ा था. जिस देखते हुए स्वामी कृष्णानंद परमहंस ने भगवान शिव की घोर तपस्या की और त्रिशूल के प्रहार से जमीन से पानी निकाला. तब से लेकर आज तक जटोली में पानी की समस्या नहीं है. लोग इस पानी को चमत्कारी मानते हैं. मान्यता है कि इस जल में किसी भी बीमारी को ठीक करने के गुण हैं. आज भी जो लोग मंदिर में भोलेनाथ के दर्शन करने के लिए आते है वह इस पवित्र जल का ग्रहण जरूर करते है. लोग मानते है चार धाम भक्तों ने अब जटोली मंदिर को ही अपनी चार धाम मान लिया है. यहा पहला धाम कुटिया, दूसरा धाम- सुखताल कुंड, तीसरा धाम-समाधि और फिर चौथा धाम शिवालय मंदिर को माना जाता है. ऐसा माना जाता है कि कई लोग अब इन्हीं की यात्रा करके चार धाम स्वीकार करने लगे हैं. स्वामी परमहंस ने अपने तप के बल से जो जलकुंड तैयार किया है उसमे लोगों की अगाध आस्था है. मंदिर बनाने के लिए लगा 39 साल का समय लगा इस मंदिर को पूरी तरह तैयार होने में करीब 39 साल का समय लगा. करोड़ों रुपये की लागत से बने इस मंदिर की सबसे खास बात ये है कि इसका निर्माण देश-विदेश के श्रद्धालुओं द्वारा दिए गए दान के पैसों से हुआ है. यही वजह है कि इसे बनने में तीन दशक से भी ज्यादा का समय लगा. इस मंदिर में हर तरफ विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं जबकि मंदिर के अंदर स्फटिक मणि शिवलिंग स्थापित है. इसके अलावा यहां भगवान शिव और माता पार्वती की मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं. वहीं, मंदिर के ऊपरी छोर पर 11 फुट ऊंचा एक विशाल सोने का कलश भी स्थापित है, जो इसे बेहद ही खास बना देता है. जटोली मंदिर में स्फटिक शिवलिंग मंदिर में स्फटिक शिवलिंग मौजूद है, यह मंदिर आम शिवलिंग से अलग है, जो कि दुनिया के कुछ ही मंदिरों में पाया जाता है. इस शिवलिंग की कीमत करीब 17 लाख है. इस स्फटिक शिवलिंग के मंदिर ने स्थापित होने के बाद मंदिर की सुंदरता में चार चाँद लगा दिए. हजारों की संख्या में लोग यहाँ इस शिवलिंग के दर्शन करने के लिए आते है. धूमधाम से मनाया जाता है शिवरात्रि का पर्व शिव मंदिर जटोली में शिवरात्रि का पर्व बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाता है. इस दौरान मंदिर में जागरण किया जाता है जिसमे की दूर -दूर के लोग हाजरी भरने के लिए आते है. शिवरात्रि के अगले दिन मंदिर परिसर में विशाल भंडारे का भी आयोजन किया जाता है. इस भंडारे का सारा खर्च मंदिर कमेटी करती है. शिवरात्रि के दिन मंदिर में महादेव की पूजा करने के लिए दूर-दूर से भक्त जन पहुंचते है. इसके साथ ही हर रविवार को मंदिर में भंडारे का आयोजन किया जाता है.
देशभर में चैत्र नवरात्रों की धूम मची है। 13 अप्रैल से चैत्र नवरात्रे शुरू होने जा रहे हैं। नवरात्रि का अर्थ माता रानी की नौ रात्रि से है इसलिए नवरात्रि का पावन एवं पवित्र पर्व नौ दिनों के पश्चात सम्पूर्ण होता है। पर्व का आरम्भ चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को होगा तथा समापन चैत्र शुक्ल नवमी को होगा। प्रथम नवरात्रे में मां शैलपुत्री, द्वितीय नवरात्रे में मां ब्रहाचारिणी, तृतीय में मां चन्द्रघण्टा, चतुर्थ में कूष्माण्डा, पंचम में मां स्कन्दमाता, षष्ठ में मां कात्यायनी, सप्तम में मां कालरात्री, अष्टम में मां महागौरी, नवम् में मां सिद्विदात्री का पूजन सम्पूर्ण विधि-विधान से होता है। पूरे नौ दिनों तक माँ के अलग-अलग रूपों की पूजा-आराधना होती है। इस दौरान माँ के भक्त नौ दिनों तक उपवास रखते हैं। हिन्दु नववर्ष 2078 का प्रारम्भ भी 13 अप्रैल यानि नवरात्रि के दिन से ही होगा। नवरात्रि में कन्या पूजन करने से माँ प्रसन्न होती है और अपने भक्तों को अपना आशीर्वाद देती है। कलश की स्थापना करने व पूजा-पाठ हवन इतियादि करने से भी माँ को प्रसन्न किया जाता है।
कुंभ मेला आस्था का संगम है। विश्व में कुंभ पर्व से बड़ा कोई और दूसरा धार्मिक आयोजन नहीं मनाया जाता है। कुंभ का पर्व हर 12 वर्ष के अंतराल पर चारों में से किसी एक पवित्र नदी के तट पर मनाया जाता है। हरिद्वार में गंगा, उज्जैन में शिप्रा, नासिक में गोदावरी और इलाहाबाद में त्रिवेणी संगम जहां गंगा, यमुना और सरस्वती मिलती हैं। मेले का इतिहास 850 साल से भी पुराना है। कथाओं के अनुसार, देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्र मंथन किया इस मंथन के दौरान कई रत्न,अप्सराएं, जानवर, विष और अमृत आदि निकला था। अमृत को लेकर देवताओं और असुरों में संघर्ष शुरू हो गया था। जहां-जहां अमृत की बूंदें गिरीं, वहां-वहां धार्मिक स्थल बने और कुंभ का आयोजन किया गया। इस संघर्ष के बीच अमृत की कुछ बूंदें प्रयाग, हरिद्वार,नासिक और उज्जैन में गिरी थीं। महाकुंभ का मेला विश्व का सबसे बड़ा धार्मिक आयोजन है। इस मेले का आयोजन हरिद्वार,प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में किया जाता है। कुंभ में शामिल होने के लिए 14 अखाड़ों की पेशवाई भी निकाली जाती है। पेशवाई यहां अखाड़ों के कुंभ में धूमधाम से पहुंचने को कहते है। अब तक कुंभ में 13 अखाड़े शामिल होते थे लेकिन इस बार एक नए अखाड़ा को शामिल किया गया है। पहली बार किन्नर अखाड़ा शामिल हुआ है जो इस बार आकर्षण का केंद्र बना। 1.जूना अखाड़ा जूना अखाड़ा की स्थापना 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में हुई थी। जूना अखाड़ा पहले भैरव अखाड़े के रूप में जाना जाता था। दरअसल, उस वक्त इनके इष्टदेव भैरव थे। भैरव भगवान शिवजी के रूप हैं। वर्तमान में इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान दत्तात्रेय हैं, जो कि रुद्रावतार हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। इस अखाड़े के अंतर्गत आवाहन, अलखिया व ब्रह्मचारी भी हैं।इस अखाड़े के पीठाधीश्वर स्वामी अवधेशानंद गिरी महाराज हैं। 2.श्रीनिरंजनी अखाड़ा श्रीनिरंजनी अखाड़ा की स्थापना 826 ई. में गुजरात के मांडवी मे हुई थी। इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान कार्तिकेय हैं, जो देवताओं के सेनापति हैं। इनमें दिगंबर, साधु, महंत व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाए इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं। 3.महानिर्वाणी अखाड़ा श्रीमहानिर्वाण अखाड़ा की स्थापना 671 ई में हुई थी। कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था। जबकि कुछ हरिद्वार में नीलधारा के पास मानते हैं। इतिहास के अनुसार, सन् 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था। निर्वाणी अखाड़े का केंद्र हिमाचल प्रदेश के कनखल में है। इस अखाड़े की अन्य शाखाएं प्रयाग, ओंकारेश्वर, काशी, त्रयंबक, कुरुक्षेत्र, उज्जैन व उदयपुर में है। उज्जैन के महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग में भस्म चढ़ाने वाले महंत निर्वाणी अखाड़े से ही संबंध रखते हैं। 4.आवाहन अखाड़ा यह अखाड़ा जूना अखाड़े से सम्मिलित है। इस अखाड़े की स्थापना 646 में हुई थी और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इस अखाड़े का केंद्र दशाश्वमेघ घाट, काशी में है। इस अखाड़े के संन्यासी भगवान श्रीगणेश व दत्तात्रेय को अपना इष्टदेव मानते हैं। 5.अटल अखाड़ा इस अखाड़े के इष्टदेव भगवान श्रीगणेश हैं। इनके शस्त्र-भाले को सूर्य प्रकाश के नाम से जाना जाता है। इस अखाड़े की स्थापना गोंडवाना में सन् 647 में हुई थी। इसका केंद्र काशी में है। इस अखाड़े का संबंध निर्वाणी अखाड़े से है। 6.आनंद अखाड़ा श्री आनंद अखाड़े की स्थापना 855 ई. में मध्यप्रदेश के बेरार में हुई थी। इस अखाड़े के इष्टदेव सूर्य हैं। इसका केंद्र भी वाराणसी है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में हैं। 7.श्री पंचाग्नि अखाड़ा इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी।इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इसका केंद्र गिरनार की पहाड़ी पर है। इस अखाड़े के साधु नर्मदा-खण्डी, उत्तरा-खण्डी व नैस्टिक ब्रह्मचारी में विभाजित है। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं। 8.दिगंबर अखाड़ा इस अखाड़े की स्थापना अयोध्या में हुई थी। यह अखाड़ा लगभग 260 साल पुराना है। सन 1905 में यहां के महंत अपनी परंपरा में 11वें थे। दिगंबर निम्बार्की अखाड़े को श्याम दिगंबर और रामानंदी में यही अखाड़ा राम दिगंबर अखाड़ा कहा जाता है। 9.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा गोरखनाथ अखाड़े की स्थापना 866 ई. में अहिल्या-गोदावरी संगम पर हुई थी। इस अखाड़े के संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनके मुख्य देवता गोरखनाथ हैं और इनमें बारह पंथ शामिल हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है। 10.श्री वैष्णव अखाड़ा बालानंद अखाड़ा ई. 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था।1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था परंतु 1848 में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर विवाद हुआ। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्थ पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी नासिक में ही इनका स्नान होता है। 11.श्रीउदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा उदासीन अखाड़े की स्थापना सन् 1910 में हुई थी। इस संप्रदाय के संस्थापक श्रीचंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। इस अखाड़े की शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में हैं। 12.निर्मल अखाड़ा निर्मल अखाड़ा की स्थापना सन् 1784 में हुई थी। इस अखाड़े की स्थापना सिख गुरु गोविंदसिंह के सहयोगी वीरसिंह ने की थी। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। ये सफेद कपड़े पहनते हैं। इसके ध्वज का रंग पीला या बसंती होता है और ऊन या रुद्राक्ष की माला हाथ में रखते हैं। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं। 13.निर्मोही अखाड़ा निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। माना जाता है कि प्राचीन काल में लोमश नाम के ऋषि थे, जिनकी आयू अखंड है कहते है जब एक हजार ब्रह्मा समाप्त होते हैं तो उनके शरीर का एक रोम गिरता है। आचार्य लोमश ऋषि के ने भगवान शंकर के कहने पर गुरू परंपरा पर तंत्र शास्त्र पर आधारित सबसे पहले आगम अखाड़े की स्थापना की। इस अखाडे के साधू बहुत ही रहस्यमयी होते है, पूजा-ध्यान करते हुऐ वो भूमि का त्याग कर अधर मे होते हैं। 14.किन्नर अखाड़ा हरिद्वार के कुंभ मेले में पहली बार किन्नर अखाड़ा भी शामिल हुआ है। किन्नर अखाड़ा के अध्यक्ष लक्ष्मी नारायण त्रिपाठी ने साल 2013 में अखाड़े का गठन किया था। किन्नर अखाड़ा सबसे पहले उज्जैन फिर प्रयागराज और अब तीसरी बार हरिद्वार के कुंभ मेले में शामिल हुआ है। किन्नर अखाड़ा नागा सन्यासियों के सबसे बड़े अखाड़े जूना अखाड़े के साथ पेशवाई में शामिल हुआ। शाही स्नान का होता है विशेष महत्व हिंदू धर्म में कुंभ स्नान का महत्व बेहद विशेष बताया गया है। मान्यता है कि अगर व्यक्ति कुंभ स्नान करता है तो व पापमुक्त हो जाता है। साथ ही व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति होती है। हिंदू धर्म में पितृ का बहुत महत्व है। ऐसे में कहा जाता है कि अगर कुंभ स्नान किया जाए तो इससे पितृ भी शांत हो जाते हैं। इससे व्यक्ति पर आशीर्वाद बना रहता है।
हिमाचल प्रदेश में कई ऐसे मंदिर है जिसकी भव्यता और प्राचीनता आस्था के जड़ों को मजबूत करती है, ऐसा ही एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल है, जिला काँगड़ा का मसरूर मंदिर। यह कांगड़ा से लगभग 32 किमी और धर्मशाला से 47 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह पवित्र मंदिर एकल-रॉक-'कट मोनोलिथिक मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। माना जाता है कि मसरूर मंदिर 6ठी और 8वीं शताब्दी के बीच बनाया गया था। यह मंदिर देश के तमिलनाडु के महाबलीपुरम, महाराष्ट्र में एलोरा के कैलाशनाथ मंदिर और राजस्थान में धमनार की गुफाओं के बराबर है। मसरूर मंदिर परिसर में 15 इंडो आर्यन शैली अखंड रॉक कट मंदिरों का एक समूह है। ठाकुरद्वारा कहे जाने वाले मुख्य मंदिर में राम, लक्ष्मण और सीता की तीन विशाल नक्काशीदार काले पत्थर के मूर्तियां है। यह माना जाता है कि मंदिर भगवान शिव भक्त, राजा यशोवर्धन द्वारा बनाया गया था। द्वार में भगवान शिव की आकृति की उपस्थिति भी मजबूत संकेत देती है कि यह मंदिर मूल रूप से महादेव को समर्पित था। यह ऐतिहासिक मंदिर आंशिक रूप से 1905 में एक बड़े भूकंप के कारण खंडहर में बदला लेकिन आज भी इसकी खूबसूरती बरकरार है। मसरूर स्थित एकाश्म शैलकृत मंदिर मूल रूप से उन्नीस स्वतंत्र मुक्त खड़ी संरचना वाले मंदिरों का समूह था। तथापि, वर्तमान में उनमें से कुछ शेष हैं जिन पर वर्ष 1905 के विनाशकारी भूकंप के चिह्न देखे जा सकते हैं। नागर (उत्तर भारतीय) शैली में बने मुख्य मंदिर में गर्भगृह, प्रकोष्ठ, प्रार्थना हाल और प्रवेश मंडप शामिल हैं। गर्भगृह में राम, सीता और लक्ष्मण की मूर्तियां हैं जो प्रस्तर के प्लेटफार्म पर खड़ी हैं जिसे कालांतर में जोड़ा गया है। उन्नीस में से सोलह मंदिर प्रस्तर की एक ही शिला को तराशकर बनाए गए थे जबकि दो मंदिर मुख्य परिसर के दोनों ओर स्वतंत्र रूप से खड़े थे। मसरुर स्थित मंदिर परिसर उत्कृष्ट मूर्तियों की आभासी दीर्घा है जो समकालीन मूर्ति कला से भरपूर है। मुख्य मंदिर शिला में गुफा के रूप में बाहर निकला हुआ था तथा दरवाजों के साथ बाहरी हिस्सा उच्च सजावटी नक्काशियों से अलंकृत है। मंदिर का मुख उत्तर पूर्व दिशा की ओर है। मुख्य मंदिर के द्वार पर उत्कीर्ण शिव की मूर्ति से यह माना जा सकता है कि यह मंदिर शिव को समर्पित था। बाहरी हिस्से में बने आलों में वैकुंठ के रूप में विष्णु, दिक्पाल (दिशाओं के संरक्षक), सूर्य, अग्रि. शिव, पार्वती (देवी) और स्कंद-कार्तिकेय (योद्धा भगवान) की मूर्तियां लगाई गई हैं। शिव के विभिन्न भावों को दर्शाते मंदिर के गगनचुम्बी शिखर चैत्य गवाक्ष से सुसज्जित हैं। अन्य रूपांकन प्रतिहार शैली के अनुरूप हैं, जिसमें कमल की जटिल आकृति, कल्पलता (इच्छा पूर्ति लता), कल्पवृक्ष (जीवन वृक्ष) और रख (हीरा) शामिल हैं। मंदिर परिसर एक पहाड़ी पर स्थित है और इसमें एक बड़ा आयताकार तालाब है जो पूरे साल पानी से भरा रहता है। इस स्मारक की अद्वितीय वास्तुकला और सौन्दर्यात्मक महत्ता को देखते हुए इसे राष्ट्रीय महत्त्व का स्मारक घोषित किया गया है। कई रहस्य, कई किवदन्तियां आपदा से पहले मुख्य मंदिर शिव मंदिर था, पर अभी यहां श्री राम, लक्ष्मण व सीता जी की मूर्तियां स्थापित हैं। एक लोकप्रिय पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत में पांडवों ने अपने वनवास के दौरान इसी जगह पर निवास किया था और इस मंदिर का निर्माण किया। यह एक गुप्त निर्वासन स्थल था इसलिए वे अपनी पहचान उजागर होने से पहले ही यह जगह छोड़ कर कहीं और स्थानांतरित हो गए। कहा जाता है कि मंदिर का जो एक अधूरा भाग है उसके पीछे भी यही एक ठोस कारण मौजूद है। द्रौपदी के लिए किया झील का निर्माण मसरूर झील, मंदिर के बिल्कुल सामने ही स्थित है जो मंदिर की खूबसूरती में चार-चांद लगाती है। झील में मंदिर के कुछ अंश का प्रतिबिंब दिखाई देता है जो किसी करिश्मा से कम नहीं । कहा यह भी जाता है कि इस झील को पांडवों ने ही अपनी पत्नी द्रौपदी के लिए बनवाया था। यहां कई ऐसे चौखट हैं जो भगवान शिव के सम्मान में मनाए जाने वाले त्यौहारों को दर्शाते हैं। छोटे छोटे कलाकृतियों में भी भगवान शिव के लीलाओं को बेहतरीन तरीके से दर्शाया गया है। निर्माण तारीख को लेकर रहस्य बरकरार विश्वसनीय स्रोत के बाद भी इसके निर्माण की सही तारीख़ का पता नहीं चल सका है। इसके अलावा न तो मंदिर के शिला-लेख और न ही इतिहास की किताबों में ऐसा कुछ उल्लेख मिलता है जिससे मंदिर के संरक्षक या निर्माण के समय का पता चल सके। मंदिर परिसर नगारा मंदिर वास्तुकला की शैली में बना है। ये शैली 8वीं शताब्दी के बाद मध्य भारत और कश्मीर में विकसित हुई थी। माना जाता है कि इनका निर्माण उन कलाकारों ने करवाया होगा जो मध्य भारत और कश्मीर नक्काशी के लिए आते जाते थे। ऑस्ट्रेलिया के खोजकर्ता ने किया जिक्र 1835 में ऑस्ट्रेलिया के खोजकर्ता बैरन चार्ल्स हूगल ने कांगड़ा में ऐसे मंदिर के होने का ज़िक्र किया है जो उनके अनुसार एलोरा के मंदिरों से काफ़ी मिलता जुलता था। दुर्भाग्य से 1905 में भूकंप में ये काफ़ी हद तक नष्ट हो गए। बताया जाता है कि रिक्टर पैमाने पर भूकंप की तीव्रता 7.8 थी और इसका सेंटर कांगड़ा था। ये इस क्षेत्र में आया सबसे ज़बरदस्त भूकंप था जिसने पूरे क्षेत्र को झकझोर के रख दिया था। भूकंप में कांगड़ा क़िले तथा मसरुर मंदिर सहित कई भवन नष्ट हो गए थे। मुख्य मंदिर में पहले शिवलिंग हुआ करता था। राम और सीता की मूर्तियों को वहां संभवत:1905 के भूकंप के बाद स्थापित किया गया होगा। मंदिर के सामने एक बड़ा मंडप था और बड़े बड़े खंबे थे जो अब पूरी तरह नष्ट हो चुके हैं हालंकि छत पर जाने की सीढ़ियां दोनों तरफ़ अभी भी देखी जा सकती हैं।
पश्चिमी संस्कृति के अधिक शक्तिशाली होने और अधिक प्रचलन होने के कारण भारत में 1 जनवरी को नववर्ष मनाया जाता है। लेकिन हमारे देश का एक बड़ा वर्ग चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को नववर्ष मनाता है। यह दिवस हिन्दू समाज के लिए अत्यंत विशेष है, क्योंकि इस मिति से ही नए पंचांग प्रारंभ होते हैं और वर्ष भर के उत्सव, मंगलकार्य, त्यौहार और अनुष्ठानों व धर्मक्रिया के शुभ मुहूर्त निश्चित होते हैं। हिंदू धर्म का अनुसरण करने वाले व हिन्दू धर्म पर की पलना करने वाले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नववर्ष मनाते हैं। सनातन धर्म के अनुसार इसी दिन सृष्टि का आरंभ हुआ था इसलिए हिंदुओं का नव वर्ष 2078 नववर्ष, 13 अप्रैल 2021 से शुरू होगा। जानकारी के अनुसार योजनाओं की स्थिति को देखते हुए इस बार करीब 90 साल बाद एक मुख्य संयोग बन रहा है, वहीं नववर्ष 2078 ‘दैत्य’ नाम से जाना जाएगा।13 अप्रैल मंगलवार से शुरू हो रहे नववर्ष के दिन 2 बजकर 32 मिनट में सूर्य का मेष राशि में प्रवेश हो रहा है। नववर्ष प्रतिपदा और विषुवत संक्रांति दोनों एक ही दिन 31 गते चैत्र, 13 अप्रैल को होगी। सम्पूर्ण भारतवर्ष में ऋतु परिवर्तन के साथ ही हिंदू नववर्ष प्रारंभ होता है। नववर्ष का शुभारम्भ चैत्र माह में शीत ऋतु के प्रस्थान और वसंत ऋतु के परिवेश से होता है। यह दिन भारतीय इतिहास में बहुत से कारणों से महत्वपूर्ण है। पुराण और ग्रन्थों के अनुसार चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को ब्रह्मदेव ने सृष्टि की रचना की थी। यही कारण है कि हिन्दू-समाज भारतीय नववर्ष का पहला दिन प्रसन्नता और आनंद से मनाते हैं।
माघ माह में मनाए जाने वाली गणेश चतुर्थी को माघी गणेश चतुर्थी या माघी गणेश जयंती भी कहते है। इस साल माघी गणेश जयंती 15 फरवरी को मनाई जा रही है। माघ माह में पड़ने वाली गणेश जयंती का विशेष महत्व होता है। इस दिन भगवान गणेश की विधि-विधान से पूजा-अर्चना की जाती है। मान्यता है कि भगवान गणेश की पूजा करने से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं और संकटों से मुक्ति मिलती है। गणेश जयंती को माघ शुक्ल चतुर्थी, तिलकुंड चतुर्थी और वरद चतुर्थी के नाम से भी जानते हैं। दक्षिण भारतीय मान्यताओं के अनुसार, आज के दिन ही भगवान गणेश का जन्म हुआ था। इसलिए गणेश जयंती पर श्रीगणेश की पूजा का विशेष महत्व माना गया है। अग्निपुराण में भी तिलकुंड चतुर्थी के व्रत से भाग्य और मोक्ष प्राप्ति का विधान बताया गया है। कहते हैं कि गणेश जयंती के दिन चंद्र दर्शन वर्जित होते हैं। कहते हैं कि ऐसा करने से मानसिक विकार उत्पन्न होते हैं। गणेश जयंती पूजा शुभ मुहूर्त- गणेश जयंती- 15, फरवरी 2021 (सोमवार) चतुर्थी तिथि प्रारम्भ- 15, फरवरी 2021, देर रात 01:58 बजे से चतुर्थी तिथि समाप्त- 16, फरवरी 2021, देर रात 03:36 बजे वर्जित चन्द्रदर्शन का समय- सुबह 09:14 बजे से रात 09:32 बजे तक। गणेश जयंती के दिन क्या करना चाहिए और क्या नहीं- गणेश जयंती के दिन भगवान गणेश को तिल के लड्डू अर्पित करने चाहिए। तिल का प्रसाद भी बांटा जाता है। इसके अलावा पानी में तिल मिलाकर स्नान भी किया जाता है। गणेश जयंती के दिन चंद्र दर्शन नहीं करना चाहिए। वाद-विवाद से बचना चाहिए। व्रती को दिन में नहीं सोना चाहिए। कहते हैं कि ऐसा करने से व्रत का पुण्य नहीं मिलता है। भगवान गणेश को जरूर चढ़ाएं दुर्वा गणपति बप्पा को दूर्वा अति प्रिय है। गणेश जी की पूजा में उन्हें दूर्वा जरूर चढ़ानी चाहिए। ऐसा करने से गणेश भगवान का आशीर्वाद भक्तों को प्राप्त होता है। गणेश जी को पसंद है मोदक गणेश भगवान को मोदक का भोग जरूर लगाना चाहिए। मोदक गणेश भगवान को अति प्रिय है. ऐसे में गणेश जयंती पर गणपति बप्पा की पूजा में उन्हें मोदक जरूर चढ़ाना चाहिए। बप्पा को लाल फूल चढ़ाएं भगवान गणेश को लाल फूल चढ़ाने चाहिए। अगर लाल फूल चढ़ाना संभव नहीं है तो आप कोई और फूल भी चढ़ा सकते हैं। बस इस बात का ध्यान रखें भगवान गणेश की पूजा में तुलसी का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। गणेश जी को प्रिय है लाल सिंदूर गणपति बप्पा को लाल सिंदूर बहुत पसंद होता है। भगवान गणेश को स्नान कराने के बाद उन्हें लाल सिंदूर लगाना चाहिए। उसके बाद अपने माथे में भी लाल सिंदूर का तिलक लगाएं। भगवान गणेश के आशीर्वाद से आपको हर क्षेत्र में सफलता प्राप्त होगी।
हिंदू धर्म में महाशिवरात्रि को बेहत महत्वपूर्ण माना जाता है साथ ही हर माह पड़ने वाली शिवरात्रि भी काफी महत्व रखती है। मासिक शिवरात्रि हर महीने जबकि महाशिवरात्रि साल में एक बार मनाई जाती है। हिंदू पंचांग के अनुसार, हर माह में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को मासिक शिवरात्रि मनाई जाती है। मासिक त्योहारों में शिवरात्रि के व्रत का बहुत महत्व होता है। इस दिन भगवान शिव की आराधना कर आप महावरदान की प्राप्ति कर सकते हैं। इस माह में 10 फरवरी 2021 दिन बुधवार को मासिक शिवरात्रि का व्रत किया जाएगा। भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने के लिए यह दिन बहुत शुभ रहता है। इस दिन व्रत करके भगवान शिव की विधि-विधान से पूजा की जाती है। धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, मासिक शिवरात्रि के दिन व्रत करने और पूजन करने से घर में सुख-समृद्धि आती है और भगवान भोलेनाथ अपने भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं। तो चलिए जानते हैं मासिक शिवरात्रि का महत्व, पूजा विधि मासिक शिवरात्रि का महत्व माना जाता है कि मासिक शिवरात्रि का व्रत बहुत प्रभावशाली होता है। इस दिन उपवास रखने और भगवान शिव की सच्चे मन से आराधना करने से सारी मनोमनाएं पूरी हो जाती हैं । जिन लोगों के विवाह में विलंब हो रहा हो उनके लिए मासिक शिवरात्रि का व्रत बहुत शुभफलदायी माना गया है। इस व्रत को करने से विवाह में आने वाली अड़चनें दूर होती हैं। माना जाता है कि इस दिन व्रत और विधि विधान से पूजन करने से कर्ज से मुक्ति प्राप्त होती है। मासिक शिवरात्रि की तिथि शिव जी को मनाने के लिए बहुत शुभ मानी गई है। मान्यता है कि इस दिन की गई आराधन से भगवान शिव शीघ्र ही प्रसन्न होते हैं और अपने भक्तों के सभी कष्टों का निवारण करते हैं। पूजा की विधि शिवरात्रि के दिन रात्रि जागरण का विशेष महत्व माना गया है इस दिन श्रद्धालुओं को रात्रि में जाग कर भगवान शिव की पूजा करनी चाहिए। मासिक शिवरात्रि वाले दिन सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि करने के पश्चात स्वच्छ वसत्र धारण करके व्रत का संकल्प लें। हो सके तो किसी शिव मंदिर में जाकर भगवान शिव की सपरिवार माता पार्वती, गणेश जी, कुमार कार्तिकेय, और नंदी महाराज सहित पूजा करें।शिवलिंग पर जल, शुद्ध घी, दूध, शक़्कर, शहद, दही आदि चीजों से शिव के पंचाक्षरी मंत्र का उच्चारण करते हुए अभिषेक करें। शिवलिंग पर बेलपत्र, धतूरा और श्रीफल अर्पित करें। शिव पूजा करने के पश्चात शिव पुराण, शिव स्तुति, शिव अष्टक, शिव चालीसा और शिव श्लोक आदि का पाठ करना बहुत शुभ रहता है।
भारत की पावन भूमि पर कई संत महात्मा अवतारित हुए हैं, जिन्होंने धर्म से विमुख सामान्य मनुष्य में अध्यात्म कई चेतना उजागर कर उसका नाता ईश्वर से जोड़ा हैं। ऐसे ही एक अवतार गुरु नानक देव जी हैं। गुरु नानक देव जी की जयंती प्रकाश पर्व या गुरु पर्व के रूप में मनाई जाती है। नानक जी का जन्म 1469 में कार्तिक पूर्णिमा के दिन पंजाब के तलवंडी गांव में हुआ था जो अब पकिस्तान में हैं। गुरु नानक देव जी सिख धर्म के संस्थापक और उनके पहले गुरु थे। इस दिन को सिख धर्म में बहुत उल्लास के साथ मनाया जाता है। नानक जी के पिता का नाम कल्याणचंद था और उनकी माता का नाम तृप्ति देवी था। नानक जी का हिन्दू परिवार में जन्म हुआ था। गुरु नानक जी के अनुयायी उन्हें नानक, नानक देव जी, बाबा नानक और नानकशाह नामों से संबोधित करते हैं। गुरु नानक जी अपने बच्चो के जन्म के बाद तीर्थ यात्रा के लिए चले गए। उन्होंने काफी लम्बी यात्राएं की। इस यात्रा के दौरान वह सबको उपदेश देते और सामाजिक बुराइओं से दूर रहने के लिए जागरूक करते थे। उस समय धर्म सिर्फ रिति- रिवाजो का नाम बन कर रह गया था। उत्तरी भारत के लिए बहुत अफरा तफरी का समय था। उस समय समाजिक जीवन में बहुत भ्रष्टाचार और धर्मिक क्षेत्र में द्धेष और उच्च नीच की भावना उत्पन हो गई थी। गुरु नानक जी जात पात का विरोध करते थे। उन्होंने समाज को बताया की मानव जाति तो एक ही है, फिर जाति के कारण ऊंच नीच क्यों? उन्होंने ऊंच नीच का विरोध करते हुए अपनी मुखवाणी 'जपुजी साहिब ' में कहा है कि 'नानक उत्तम-नीच न कोई 'जिसका अर्थ है कि ईश्वर कि निगाह में छोटा बड़ा कोई नहीं फिर भी अगर कोई व्यक्ति अपने आपको उस प्रभु की निगाह में छोटा समझे तो ईश्वर उस व्यक्ति की हर समय साथ देता है। नानक देव जी की वाणी -: 1 नीचा अंदर नीच जात,नीची हूं अति नीच। नानक तिन के संगी साथ, वडियां सिऊ कियां रिस। अर्थात : समाज में समानता का नारा देने के लिए नानक देव ने कहा कि ईश्वर हमारा पिता है और हम सब उसके बच्चे हैं और पिता की निगाह में छोटा-बड़ा कोई नहीं होता। वही हमें पैदा करता है और हमारे पेट भरने के लिए खाना भेजता है। 2 नानक जंत उपाइके, संभालै सभनाह। जिन करते करना कीआ, चिंताभिकरणी ताहर॥ अर्थात : जब हम 'एक पिता एकस के हम वारिक' बन जाते हैं तो पिता की निगाह में जात-पात का सवाल ही नहीं पैदा होता। गुरु नानक देव जी की शिक्षाएँ 1 - परम पिता परमेश्वर एक हैं। 2 - सदैव एक ही ईश्वर की आराधना करो। 3 - ईश्वर सब जगह और हर प्राणी में विद्यमान हैं। 4 - ईश्वर की भक्ति करने वालों को किसी का भी भय नहीं रहता। 5 - ईमानदारी और मेहनत से पेट भरना चाहिए। 6 - बुरा कार्य करने के बारे में न सोचें और न ही किसी को सताएं। 7 – हमेशा खुश रहना चाहिए, ईश्वर से सदा अपने लिए क्षमा याचना करें। 8 - मेहनत और ईमानदारी की कमाई में से जरूरत मंद की सहायता करें। 9 - सभी को समान नज़रिए से देखें, स्त्री-पुरुष समान हैं। 10 - भोजन शरीर को जीवित रखने के लिए आवश्यक है। परंतु लोभ-लालच के लिए संग्रह करने की आदत बुरी है।
शिमला और कुल्लू जिला के देवी-देवता आज मकर संक्रांति के दिन से एक महीने के स्वर्ग प्रवास पर निकल गए। सुबह पक्षियों से चहचहाने से पूर्व लोगों ने पूजा-अर्चना कर अपने अराध्यों को विदाई दी। ग्रामीण क्षेत्रों में लोग सुबह 4 बजे अपने घरों में उठते हैं और अच्छे पकवान तैयार कर पूजा अर्चना के साथ देवी-देवताओं की विदाई करते हैं। देवताओं के स्वर्ग चले जाने पर मंदिर सूने हो गए हैं। देवताओं की विदाई के बाद मंदिर में कोई भी धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किया जाता। अब देवताओं को महीने भर आकाश की ओर धूप और जल अर्पित किया जाएगा। देव संसद में भाग लेने पर कुल्लू जिला के देवी-देवता एक सप्ताह के अंतराल में ही वापस लौट आते हैं। शिमला जिला के आधे देवी-देवता एक पखवाड़े के अंदर वापसी करते हैं, लेकिन अधिकांश देवी-देवता पूरे एक महीने स्वर्ग प्रवास पर रहकर फाल्गुन संक्रांति को ही अपने-अपने देवालयों में लौटेंगे। इस एक माह की अवधि में मंदिर में कोई भी धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किया जाएगा। इसके साथ-साथ घरों में भी विवाह समारोह एवं धार्मिक समारोह आयोजित नहीं किए जाएंगे। देवी-देवताओं के जाने के बाद उनकी मूर्तियां शक्ति विहीन हो जाती हैं और गुरों को खेल भी नहीं आती।
हिमाचल प्रदेश देवी देवताओं की भूमि है। वेदों के अनुसार यहां अनेकों देवी देवता विराजमान है। भगवान् शंकर को भी यहां अलग अलग रूप में पूजा जाता है। भोलेनाथ के इन्ही अनेक रूपों में से एक है बाबा भूतनाथ। हिमाचल के मंडी जिले में स्थित है बाबा भूतनाथ को समर्पित एक ऐसा आलोकिक मंदिर जहां हर छोटे-बड़े भक्त की आस्था बस्ती है। भूतनाथ मंदिर पर्यटकों के बीच काफी लोकप्रिय है। इस मंदिर को 1527 ईस्वी मैं राजा अज्वैर सेन ने बनवाया था। इस मंदिर को उस काल में बनवाया गया था जब राज्य की राजधानी को मंडी से भिउली में स्थानांतरित कर दिया गया था। मान्यता के अनुसार तत्कालीन राजा को सूचना मिली की जंगल में एक सुनसान जगह पर हर रोज गाय के थनों से खुद ही दूध बहता है। थोड़े दिनों में यह खबर लोगों में आग की तरह फैल गई। देखते ही देखते यह सुचना राजा तक भी पहुंच गई। इसी दौरान राजा अज्वैर सेन के सपने में भगवान शिव ने दर्शन दिए और उसे बताया कि जिस स्थान पर गाय के थनों से दूध बहता है। वहां शिवलिंग स्थापित है। उन्होंने राजा को कहा कि यहां पर एक भव्य मंदिर बनवाकर इसे भूतनाथ का नाम दिया जाए। भगवान के निर्देशानुसार जब राजा ने मौके का मुआयना करवाया तो यह बात सच्ची हुई। जमीन में भविष्यवाणी के अनुसार शिवलिंग स्थापित था और गाय शिवलिंग को प्रभु कृपा से हर रोज दूध चढ़ाती थी। राजा ने भगवान के कहे अनुसार उस स्थान पर भगवान भोले नाथ के भव्य भूतनाथ मंदिर का निर्माण करवाया। इस तरह भगवान भोले नाथ भूतनाथ बने और तभी से आजतक भगवान भूतनाथ की यहां पूरी श्रद्धा से पूजा की जाती है। देश विदेश से आने वाले पर्यटकों के लिए यह मंदिर आकर्षण का केंद्र है। बाबा भूतनाथ मन्दिर मैं शिवरात्रि का त्यौहार यहां पर हर वर्ष पूरे एक सप्ताह तक मनाया जाता है। यहां शिवरात्रि से पहले से ही भक्तो के ताँता लगना शुरू हो जाता है।
उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में लोक देवताओं से संबंधित अनेक कथाएं प्रचलित हैं। इनमें सबसे रोचक है लोक देवता महासू की कथा। न्याय के देवता के रूप में प्रतिष्ठित महासू देहरादून जिले के जनजातीय क्षेत्र जौनसार-बावर से संबंध रखते हैं। इनका मुख्य मंदिर टोंस नदी के पूर्वी तट पर चकराता के पास हनोल गांव में स्थित है, जो कि त्यूणी-मोरी मोटर मार्ग पर पड़ता है। उत्तराखंड के अलावा शिमला के ऊपरी भागों और सिरमौर जिले के कुछ भागों में भी महासू देवता को इष्ट देव के रूप में मान्यता प्राप्त है। महासू देवता का कालांतर में वास कश्मीर में माना जाता है। महासू जिले में यह देवता एक ब्राम्हण के अनुरोध पर इस क्षेत्र में दानव के आतंक से मुक्ति दिलाने के लिए थे। कहते है की उस समय यमुना और तौंस नदी के बीच आने वाले क्षेत्र में दानवों का आतंक था जिससे जिसका निवारण महासू देवता ने ख़तम किया था। हनोल में स्थित महासू देवता का ये मंदिर एक अनोखा मंदिर है। यहां की सबसे ज़्यादा दिलचस्प बात तो ये है कि यहां हर साल दिल्ली स्थित राष्ट्रपति भवन की ओर से नमक भेंट किया जाता है। मिश्रित शैली की स्थापत्य कला को संजोए यह मंदिर देहरादून से 190 किमी और मसूरी से 156 किमी दूर है। यह मंदिर चकराता के पास हनोल गांव में टोंस नदी के पूर्वी तकट पर स्थित है। हनोल शब्द की उत्पत्ति यहां के एक ब्राह्मण हूणा भाट के नाम से मानी जाती है। इससे पहले यह जगह चकरपुर के रूप में जानी जाती थी।मान्यता है की द्वापर युग में पांडव लाक्षागृह (लाख के घर) से सुरक्षित निकलकर इसी स्थान पर आए थे। यह मंदिर नवीं सदी का माना जाता है। जबकि, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग (ASI) के रिकार्ड में मंदिर का निर्माण 11वीं व 12वीं सदी का होने का जिक्र है। वर्तमान में इस मंदिर का संरक्षण पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ही कर रहा है। खुदाई के दौरान पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग को यहां यहां शिव-शक्ति, शिवलिंग, दुर्गा, विष्णु-लक्ष्मी, सूर्य, कुबेर समेत दो दर्जन से अधिक देवी-देवताओं की प्राचीन मूर्तियां मिली हैं। इन्हें हनोल संग्रहालय में सुरक्षित रखा गया है। महासू देवता के मंदिर के गर्भ गृह में भक्तों का जाना मना है। केवल मंदिर का पुजारी ही मंदिर में प्रवेश कर सकता है। यह बात आज भी रहस्य है। मंदिर में हमेशा एक ज्योति जलती रहती है जो दशकों से जल रही है। मंदिर के गर्भ गृह में पानी की एक धारा भी निकलती है, लेकिन वह कहां जाती है, कहां से निकलती है यह अज्ञात है। दरअसल 'महासू देवता' एक नहीं चार देवताओं का सामूहिक नाम है और स्थानीय भाषा में महासू शब्द 'महाशिव' का अपभ्रंश है। चारों महासू भाइयों के नाम बासिक महासू, पबासिक महासू, बूठिया महासू (बौठा महासू) और चालदा महासू है, जो कि भगवान शिव के ही रूप हैं। लोक मान्यता है की पांडवों ने घाटा पहाड़ ( शिवालिक पर्वत शृंखला) से पत्थरों की ढुलाई कर देव शिल्पी विश्वकर्मा की मदद से हनोल मंदिर का निर्माण कराया था। बिना गारे की चिनाई वाले इस मंदिर के 32 कोने बुनियाद से लेकर गुंबद तक एक के ऊपर एक रखे कटे पत्थरों पर टिके हैं। मंदिर के गर्भगृह में सबसे ऊपर भीम छतरी यानी भीमसेन का घाटा पहाड़ से लाया गया एक विशालकाय पत्थर स्थापित किया गया है। बेजोड़ नक्काशी मंदिर की भव्यता में चार चांद लगाती है। महासू मंदिर हनोल के परिसर में सीसे के दो गोले मौजूद हैं, जो पांडु पुत्र भीम की ताकत का अहसास कराते हैं। मान्यता है कि भीम इन गोलों को कंचे (गिटिया) के रूप में इस्तेमाल किया करते थे। आकार में छोटे होने के बावजूद इन्हें उठाने में बड़े से बड़े बलशालियों के भी पसीने छूट जाते हैं। इन गोलों में एक का वजन छह मण (240 किलो) और दूसरे का नौ मण (360 किलो) है उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी, संपूर्ण जौनसार-बावर क्षेत्र, रंवाई परगना के साथ साथ हिमाचल प्रदेश के सिरमौर, सोलन, शिमला, बिशैहर और जुब्बल तक महासू देवता की पूजा होती है। इन क्षेत्रों में महासू देवता को न्याय के देवता और मन्दिर को न्यायालय के रूप में माना जाता है। वर्तमान में महासू देवता के भक्त मन्दिर में न्याय की गुहार करते हैं जो उनकी पूरी होती है। माना जाता है कि जो भी यहां सच्चे दिल से कुछ मांगता है कि महासू देवता उसकी मुराद पूरी करते हैं।
हिमाचल प्रदेश की भूमि के कण कण में देवी देवताओं का वास माना जाता हैं। यह एक ऐसा प्रदेश है जहां धार्मिकता व अचंभित करने वाले रहस्य की कई कथाएं जुड़ी हुई है। चंबा जिले में स्थित प्रसिद्ध देवीपीठ भलेई माता के मंदिर से ऐसे रहस्य व कथाए जुड़ी है जो सभी को अचंभित कर देती है। मान्यता है कि इस मंदिर में देवी माता की जो मूर्ति है, उस मूर्ति को पसीना आता है। यहां आने वाले लोग यह भी मानते हैं कि जिस समय देवी की मूर्ति से पसीना आता है, उस वक्त जो भी श्रद्धालु वहां मौजूद होता है उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। स्थानीय लोगों की मानें तो 500 साल पुराने इस मंदिर का इतिहास अलग है। भलेई माता के मंदिर में वैसे तो हर दिन हजारों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं, लेकिन नवरात्रों में यहां विशेष धूम रहती है। यह मंदिर अपनी एक अजीब मान्यता को लेकर अधिक जाना जाता है, जिस पर यहां आने वाले श्रद्धालु विशेष यकीन रखते हैं। माना जाता है कि इस मंदिर में 300 साल तक महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं थी। कुछ सालों के बाद मंदिर से माता की मूर्ति चोरी हो गई थी। बाद में ये मूर्ति चमेरा डैम के आसपास मिली। कहा जाता है कि जिन चोरों ने मूर्ति को चुराया था, उनकी आंखों की रौशनी भी चली गई थी। इसके बाद चोर मूर्ति छोड़ वहां से भाग गए थे। भलेई मंदिर है के बारे में यहां के पुजारी कहते है कि देवी माता इसी गांव में प्रकट हुई थीं। उसके बाद ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था। तब से लेकर आज तक यहां हजारों श्रद्धालुओं का तांता इस इंतजार में लगा रहता है कि जाने कब देवी को पसीना आए और उनकी मनोकामना पूर्ण हो जाए।
हिमाचल प्रदेश को यू ही नहीं देवभूमि कहा जाता है। प्रकृति के बेहतरीन दृश्य के साथ रोचक रीति रिवाज और धामिर्क स्थल मानो देवभूमि शब्द को सालों से जीवंत रखती आ रही है। ऐसे ही जिला किन्नौर का युला कांडा झील आस्था और प्राकृतिक सौन्दर्य का अद्भुत संगम है। इस झील के बीचों बीच भगवान श्रीकृष्ण का मंदिर है। समुद्र तल से लगभग 12000 फीट की ऊंचाई पर होने के कारण इसे दुनिया के सबसे ऊंचे कृष्ण मंदिर में से एक माना जाता है। पौराणिक कथा व जनश्रुतियों के अनुसार कहा जाता है कि इसका निर्माण पांडवों ने वनवास के समय किया था। उसके बाद झील के बीच कृष्ण मंदिर का निर्माण किया गया। यहां हर साल जन्माष्टमी पर उत्सव मनाया जाता है, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। मान्यता है कि तत्कालीन बुशहर रियासत के राजा केहरी सिंह के समय इस उत्सव को मनाने की परंपरा शुरू हुई थी। सदियों पुरानी परंपरा आज भी चली आ रही है। पहले छोटे स्तर पर मनाए जाने वाले इस उत्सव को अब जिला स्तरीय दर्जा मिल चुका है। यह मंदिर न केवल खूबसूरती का अनूठा प्रमाण है बल्कि बरसो से रिश्तों की खूबसूरती को भी सींचता आ रहा है। जन्माष्टमी के दिन यहां बड़ी संख्या में श्रद्धालु पहुंचते हैं। इस दिन यहां श्रद्धालु किन्नौरी टोपी उल्टी करके झील में डालते हैं। मान्यता है कि अगर आपकी टोपी बिना डूबे तैरती हुई दूसरे छोर तक पहुंच जाती है तो आपकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। फिर वो चाहे धर्म का रिश्ता हो, या जीवन साथी को पाने की कामना। इसके अलावा यहां आने वाले श्रद्धालु पवित्र झील की परिक्रमा भी जरूर करते हैं। मान्यता है कि ऐसा करने से उन्हें पापों से मुक्ति मिल जाती है।
भगवान राम की नगरी अयोध्या दीपावली के लिए सज धज कर तैयार है। इस साल की दिवाली अयोध्या में बहुत ही ऐतिहासिक होने वाली है। वो इसलिए क्योंकि कुछ वक्त पहले ही राम मंदिर की नींव रखी गई व साथ ही लगभग 500 वर्षों बाद राम जन्मभूमि स्थल पर दिये जलाए जाएंगे। आज राम की पौड़ी को लाखों दियों से जगमगाया जाएगा। अयोध्या में दीपोत्सव का कार्यक्रम 3 बजे से शुरू होगा। सीएम योगी आदित्यनाथ स्वयं अयोध्या पहुंच कर भगवान राम के दर्शन करेंगे और वहां दीप प्रज्वलित करेंगे। इस पूरे कार्यक्रम का टीवी और डिजिटल प्लेटफॉर्म्स पर भी लाइव प्रसारण किया जाएगा। अयोधया में ऐतिहासिक राम मंदिर की नींव रखे जाने के बाद ये पहली दीवाली है। ऐसे में यह उत्सव बड़ी ही धूमधाम से मनाया जाने वाला है। इस वर्ष राम की पौड़ी पर 5.51 लाख दियों से सजाई जाएगी। आज का कार्यक्रम 03.00 PM: सीएम योगी आदित्यनाथ अयोध्या पहुंचेंगे। 03.10 PM: योगी आदित्यनाथ राम जन्मभूमि जाएंगे, जहां पूजा करेंगे और 11 हजार दीयो को जलाएंगे। 04.00 PM: राम, लक्ष्मण और सीता हेलिकॉप्टर से आएंगे, जहां सीएम योगी, राज्यपाल आनंदी बेन पटेल उनका स्वागत करेंगे और पूजा करेंगे। 05.00 PM: भरत मिलाप और अन्य कार्यक्रम। 05.10 PM: सीएम योगी का संबोधन। 06.00 PM: सीएम योगी सरयू घाट पहुंचेंगे और सरयू आरती में हिस्सा लेंगे। 06.15 PM: दीपोत्सव शुरू होगा, जिसके बाद सीएम और राज्यपाल रामकथा पार्क में कल्चलर कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे।
मां दुर्गा के अनेक रूप है। शांत स्वभाव, करुणामयी अवतार के साथ-साथ माता के कई रौद्र रूप है, जिनका मन्दिर भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थापित है। ऐसा ही एक मंदिर सिथित है हिमाचल प्रदेश के जिला सिरमौर में। मां भंगायणी के नाम से विख्यात ये मन्दिर सिरमौर जिला के हरिपुरधार में शिमला की सीमा पर अवस्थित है। यह मंदिर कई दशकों से लाखों श्रद्धालुओं की असीम आस्था व श्रद्धा का केंद्र बिंदु बना हुआ है। भक्त यहां अपनी मनौती पूर्ण होने पर मां के दरबार में पहुंचते है। इस दिव्य शक्ति मां भंगायणी को इन्साफ की देवी भी माना जाता है। कोर्ट-कचहरी में न्याय न मिलने पर पीड़ित व्यक्ति इस माता के मंदिर में आकर इन्साफ की गुहार करते है और लोगों का विश्वास है कि मंदिर में उन्हें निश्चित रूप से न्याय मिल जाएगा। स्थानीय लोगो व भक्तजनो के अनुसार इस सुप्रसिद्ध मंदिर का पौराणिक इतिहास इस क्षेत्र के आराध्य देव शिरगुल महाराज से जुड़ा हुआ है। शिरगुल देव की वीरगाथा के अनुसार जब वह कालांतर में सैकड़ों हाटियों के दल के साथ दिल्ली शहर गए थे, तो उनकी दिव्य शक्ति की लीला के प्रदर्शन से दिल्लीवासी स्तब्ध रह गए थे। उस दौरान तत्कालीन तुर्की शासक को शिरगुल महादेव की आलौकिक शक्ति का पता चला, तो उन्होंने शिरगुल महादेव को गाय के कच्चे चमड़े की बेडि़यों में बांधकर कारावास में डाल दिया था। चमड़े के स्पर्श से शिरगुल देव की शक्ति लुप्त हो गई थी। ऐसे में कारावास से मुक्ति दिलाने हेतु बागड़ देश के राजा गोगापीर ने तुर्की शासक के कारावास में सफाई का कार्य करने वाली माता भंगायणी की मदद से शिरगुल महादेव को कारावास से मुक्त करवाया गया था। तब शिरगुल महादेव व राजा गोगापीर माता भंगायणी को अपनी धर्म बहन बनाकर अपने साथ ले आए तथा हरिपुरधार में एक टीले पर उन्हें स्थान देकर सर्वशक्तिमान होने का वरदान दिया। तभी से यह मंदिर उत्तरी भारत में सिद्धपीठ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्लोक श्वेते वृषे समारुढा श्वेताम्बरधरा शुचिः | महागौरी शुभं दद्यान्महादेवप्रमोददा || माँ दुर्गा की आठवीं शक्ति का नाम महागौरी है। दुर्गापूजा के आठवें दिन महागौरी की उपासना का विधान है। इनकी शक्ति अमोघ और सद्यः फलदायिनी है। इनकी उपासना से भक्तों के सभी कल्मष धुल जाते हैं, पूर्वसंचित पाप भी विनष्ट हो जाते हैं। भविष्य में पाप-संताप, दैन्य-दुःख उसके पास कभी नहीं जाते। वह सभी प्रकार से पवित्र और अक्षय पुण्यों का अधिकारी हो जाता है। इनका वाहन वृषभ अर्थात् बैल है। उनकी एक भुजा अभयमुद्रा में है, तो दूसरी भुजा में त्रिशूल है। तीसरी भुजा में डमरू है तो चौथी भुजा में वरमुद्रा में है। इनके वस्त्र भी सफेद रंग के हैं और सभी आभूषण भी श्वेत हैं। माँ महागौरी ने देवी पार्वती रूप में भगवान शिव को पति-रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी, एक बार भगवान भोलेनाथ ने पार्वती जी को देखकर कुछ कह देते हैं। जिससे देवी के मन का आहत होता है और पार्वती जी तपस्या में लीन हो जाती हैं। इस प्रकार वषों तक कठोर तपस्या करने पर जब पार्वती नहीं आती तो पार्वती को खोजते हुए भगवान शिव उनके पास पहुँचते हैं वहां पहुंचे तो वहां पार्वती को देखकर आश्चर्य चकित रह जाते हैं। पार्वती जी का रंग अत्यंत ओजपूर्ण होता है, उनकी छटा चांदनी के सामन श्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल दिखाई पड़ती है, उनके वस्त्र और आभूषण से प्रसन्न होकर देवी उमा को गौर वर्ण का वरदान देते हैं। एक कथा अनुसार भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए देवी ने कठोर तपस्या की थी जिससे इनका शरीर काला पड़ जाता है। देवी की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान इन्हें स्वीकार करते हैं और शिव जी इनके शरीर को गंगा-जल से धोते हैं तब देवी विद्युत के समान अत्यंत कांतिमान गौर वर्ण की हो जाती हैं तथा तभी से इनका नाम गौरी पड़ा। महागौरी रूप में देवी करूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं। देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं “सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके. शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते..”। महागौरी जी से संबंधित एक अन्य कथा भी प्रचलित है इसके जिसके अनुसार, एक सिंह काफी भूखा था, वह भोजन की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही होती हैं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कमज़ोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह की दशा देखकर उन्हें उस पर बहुत दया आती है और माँ उसे अपना सवारी बना लेती हैं क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही हैं।] मां महागौरी अमोघ फलदायिनी हैं। मां की पूजा करने से भक्तों कें कल्मष धुल जाते हैं। साथ ही सभी पाप भी नष्ट हो जाते हैं। सच्चे मन और पूरी श्रद्धा से अगर महागौरी की पूजा-अर्चना, उपासना-आराधना की जाए तो यह बेहद कल्याणकारी होता है।
हिमाचल प्रदेश को देव भूमि के नाम से भी जाना जाता है इसलिए इसे देवताओं के घर के रूप में भी जाना जाता है। पूरे हिमाचल प्रदेश में 2000 से भी ज्यादा मंदिर है और इनमें से ज्यादातर प्रमुख आकर्षक का केन्द्र बने हुए हैं। इन मंदिरो में से एक प्रमुख मंदिर चामुण्डा देवी का मंदिर है जो कि जिला कांगड़ा हिमाचल प्रदेश राज्य में स्थित है। चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति के 51 शक्ति पीठो में से एक है। वर्तमान मे उत्तर भारत की नौ देवियों मे चामुण्डा देवी का दुसरा दर्शन होता है वैष्णो देवी से शुरू होने वाली नौ देवी यात्रा मे माँ चामुण्डा देवी, माँ वज्रेश्वरी देवी, माँ ज्वाला देवी, माँ चिंतपुरणी देवी, माँ नैना देवी, माँ मनसा देवी, माँ कालिका देवी, माँ शाकम्भरी देवी आदि शामिल हैं यहां पर आकर श्रद्धालु अपने भावना के पुष्प मां चामुण्डा देवी के चरणों में अर्पित करते हैं। मान्यता है कि यहां पर आने वाले श्रद्धालुओं की सभी मनोकामना पूर्ण होती है। देश के कोने-कोने से भक्त यहां पर आकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। चामुण्डा देवी का मंदिर समुद्र तल से 1000 मी की ऊंचाई पर स्थित है। यह धर्मशाला से 15 कि॰मी॰ की दूरी पर है। यहां प्रकृति ने अपनी सुंदरता भरपूर मात्रा में प्रदान कि है। चामुण्डा देवी मंदिर बंकर नदी के किनारे पर बसा हुआ है। पर्यटको के लिए यह एक पिकनिक स्पॉट भी है। यहां कि प्राकृतिक सौंदर्य लोगो को अपनी और आकर्षित करता है। चामुण्डा देवी मंदिर मुख्यता माता काली को समर्पित है। माता काली शक्ति और संहार की देवी है। जब-जब धरती पर कोई संकट आया है तब-तब माता ने दानवों का संहार किया है। असुर चण्ड-मुण्ड के संहार के कारण माता का नाम चामुण्डा पड़ गया। पुराणिक कथा के अनुसार चामुण्डा देवी मंदिर शक्ति पीठ मंदिरों में से एक है। पूरे भारतवर्ष में कुल 51 शक्तिपीठ है जिन सभी की उत्पत्ति कथा एक ही है। यह सभी मंदिर शिव और शक्ति से जुड़े हुऐ है। धार्मिक ग्रंधो के अनुसार इन सभी स्थलो पर देवी के अंग गिरे थे। शिव के ससुर राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया जिसमे उन्होंने शिव और सती को आमंत्रित नहीं किया क्योंकि वह शिव को अपने बराबर का नहीं समझते थे। यह बात सती को काफी बुरी लगी और वह बिना बुलाए यज्ञ में पहुंच गई। यज्ञ स्थल पर शिव का काफी अपमान किया गया जिसे सती सहन न कर सकी और वह हवन कुण्ड में कुद गईं। जब भगवान शंकर को यह बात पता चली तो वह आये और सती के शरीर को हवन कुण्ड से निकाल कर तांडव करने लगे। जिस कारण सारे ब्रह्माण्ड में हाहाकार मच गया। पूरे ब्रह्माण्ड को इस संकट से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र से 51 भागो में बांट दिया जो अंग जहां पर गिरा वह शक्ति पीठ बन गया। कोलकाता में केश गिरने के कारण महाकाली, नगरकोट में स्तनों का कुछ भाग गिरने से बृजेश्वरी, ज्वालामुखी में जीह्वा गिरने से ज्वाला देवी, हरियाणा के पंचकुला के पास मस्तिष्क का अग्रिम भाग गिरने के कारण मनसा देवी, कुरुक्षेत्र में टखना गिरने के कारण भद्रकाली,सहारनपुर के पास शिवालिक पर्वत पर शीश गिरने के कारण शाकम्भरी देवी, कराची के पास ब्रह्मरंध्र गिरने से माता हिंगलाज भवानी,चरणों का कुछ अंश गिरने से चिंतपुर्णी, आसाम में कोख गिरने से कामाख्या देवी, नयन गिरने से नैना देवी आदि शक्तिपीठ बन गये। मान्यता है कि चामुण्डा देवी मंदिर में माता सती के चरण गिरे थे।
नवरात्रे के सातवें दिन माँ काली की पूजा की जाती है। 'काली' का अर्थ है समय और काल। काल, जो सभी को अपने में निगल जाता है। भयानक अंधकार और श्मशान की देवी। वेद अनुसार 'समय ही आत्मा है, आत्मा ही समय है'। मां कालिका की उत्पत्ति धर्म की रक्षा और पापियों-राक्षसों का विनाश करने के लिए हुई है। काली को माता जगदम्बा की महामाया कहा गया है। मां ने सती और पार्वती के रूप में जन्म लिया था। सती रूप में ही उन्होंने 10 महाविद्याओं के माध्यम से अपने 10 जन्मों की शिव को झांकी दिखा दी थी। मान्यता है कि मां कालरात्रि भक्तों को अभय वरदान देने के साथ ग्रह बाधाएं भी दूर करती हैं। मां कालरात्रि की अराधना से आकस्मिक संकटों से मुक्ति मिलती है। मां का प्रसिद्द मंदिर कालीघाट काली मंदिर पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर के कालीघाट में स्थित देवी काली का प्रसिद्ध मंदिर है। कोलकाता में भगवती के अनेक प्रख्यान स्थल हैं। परंपरागत रूप से हावड़ा स्टेशन से 7 किलोमीटर दूर काली घाट के काली मंदिर को शक्तिपीठ माना जाता है, जहाँ सती के दाएँ पाँव की 4 उँगलियों (अँगूठा छोड़कर) का पतन हुआ था। यहाँ की शक्ति 'कालिका' व भैरव 'नकुलेश' हैं। इस पीठ में काली की भव्य प्रतिमा मौजूद है, जिनकी लंबी लाल जिह्वा मुख से बाहर निकली है। मंदिर में त्रिनयना माता रक्तांबरा, मुण्डमालिनी, मुक्तकेशी भी विराजमान हैं। पास ही में नकुलेश का भी मंदिर है। काली मंदिर में देवी काली के प्रचंड रूप की प्रतिमा स्थापित है। इस प्रतिमा में देवी काली भगवान शिव के छाती पर पैर रखी हुई हैं। उनके गले में नरमुण्डों की माला है। उनके हाथ में कुल्हाड़ी तथा कुछ नरमुण्ड है। उनके कमर में भी कुछ नरमुण्ड बंधा हुआ है। उनकी जीभ निकली हुई है। उनके जीभ से रक्त की कुछ बूंदें भी टपक रही हैं। इस प्रतिमा के पीछे कुछ अनुश्रुतियाँ भी प्रचलित है। इस अनुश्रुति के अनुसार देवी किसी बात पर गुस्सा हो गई थीं। इसके बाद उन्होंने नरसंहार करना शुरू कर दिया। उनके मार्ग में जो भी आता वह मारा जाता। उनके क्रोध को शांत करने के लिए भगवान शिव उनके रास्ते में लेट गए। देवी ने गुस्से में उनकी छाती पर भी पैर रख दिया। इसी समय उन्होंने भगवान शिव को पहचान लिया। इसके बाद ही उनका गुस्सा शांत हुआ और उन्होंने नरसंहार बंद किया। मां कालरात्रि का सिद्ध मंत्र- ‘ओम ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चै ऊं कालरात्रि दैव्ये नम:।’
देवभूमि हिमाचल की पर्यटन नगरी मंडी के लड़-भड़ोल तहसील में सिमस नामक एक खूबसूरत स्थान है जहाँ एक अनोखा मंदिर स्थित है। कहते हैं की सिमसा देवी के इस चमत्कारी मंदिर में देवी निःसंतान महिलाओं की सूनी गोद भर देती है। देवी सिमसा को संतान-दात्री के नाम से भी जाना जाता है। मान्यता है की इस मंदिर फर्श पर सोने से ही महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। संतान प्राप्ति की इच्छुक महिलाएं दूर दूर से यहां देवी के दर्शनों के लिए आती हैं। नवरात्रों में यहां सलिन्दरा उत्सव मनाया जाता है, जिसका अर्थ है सपने आना। नवरात्रों में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ से ऐसी सैकड़ों महिलाएं इस मंदिर की ओर रूख करती है जिनके संतान नहीं होती है। मान्यता के अनुसार यदि किसी महिला को अमरुद का फल मिलता है तो वे समझ ले कि लड़का होगा, परंतु अगर किसी को स्वप्न में भिन्डी मिलती है तो बेटी होने का आर्शिवाद मिला बताया जाता है। ये भी कहा गया है कि यदि किसी महिला को धातु, लकड़ी या पत्थर की बनी कोई वस्तु प्राप्त हो तो उसे समझ जाना चाहिए कि उसके संतान नहीं होगी। मात की कहानी एक दंपति जोड़े को संतान नही हो रही थी। कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद वो अपनी उम्मीद गवा बैठे थे। फिर किसी के द्वारा उन्हें सिमसा माता मन्दिर लड-भड़ोल की जानकारी मिली। वो दंपत्ति माता की सेवा में लग गए और सच्चे दिल से भक्ति करने लगे। माता की कृपा से उन्हें आठ साल बाद संतान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। संतान का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद भे वो सच्चे दिल से माँ की भक्ति करते रहे। जब उनका पुत्र 1 साल का हो गया, तो वो सिमसा माता मंदिर लडभड़ोल में जातर(भेंट) चढ़ाने गए। इसके 1-2 दिन पश्चात सुबह के वक्त उस दंपत्ति के आँगन मे एक छोटी कन्या नंगे पैर भिक्षा मांगने आई। उस लड़की ने सिर्फ चीनी की कटोरी की मांग की और यह भी कहा कि मुझे पैसे नहीं चाहिए। पर रविंदर की माता नहीं मानी और जब उन्होंने पैसे देने के लिए अपना ट्रंक खोला तो पैसे गायब थे। उसकी जगह फ़ूल पड़े थे। पहले तो माता ने सोचा था कि यह कोई झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली लड़की है। पर बाद में उन्हें यह देख के आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह बात घर के बाकी सदस्यों को बताई। घर के कुछ सदस्य बाहर निकले लड़की अभी भी आँगन में मौजूद थी। उन्होंने लड़की से पूछा कि आप कौन हो तो उस लड़की ने कहा कि में सिमसा हूं, लडभड़ोल से आई हूं। यह बात सुनकर सारे सदस्य हैरान हो गए। बाद में लड़की ने कहा कि जो आपके घर पुत्र हुआ उसके हाथों से मुझे पानी का एक लोटा दिलाओ। सारे सदस्य उस कन्या के चरणों में झुक गए। रविंदर ने अपने पुत्र के हाथों से जल का एक लोटा दिलाया। देवी ने कहा कि मैं आपकी सच्ची भक्ति से बड़ी प्रसन्न हूं। मैं आपके द्वारा दुखी लोगों और निसंतान दम्पतियों का कल्याण करूँगी इसलिए में आपके घर स्थान लेना चाहती हूँ। मझे अपने घर के किसी कमरे में ले चलो। रविंद्र जी उस कन्या को एक कमरे में ले गए। कन्या ने उन्हें अपने असली रूप में दर्शन दिए और वहाँ धरती पर हाथ रखा, जिससे धरती पर दरारे पड़ गई। बाद में माँ ने अपनी छोटी-2 दो उंगलियों से धरती को छुआ जिससे धरती पर उनके निशान आ गए जो आज भी वहां है और वहां उस धरती से माता की पिंडी उबर कर आई। बाद में माता सिमसा ने बताया कि मेरे इस स्थान में जो भी आएगा वो खाली हाथ नहीं लौटेगा और उसकी हर मनोकामना पूरी होगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गई और पंडित रविंदर बेहोशी की हालत में चले गए। उसके बाद जैसे-जैसे लोगों को ये बाद पता चली लोग दूर दूर से माँ के दरबार में आने लगे।
या देवी सर्वभूतेषु माँ स्कंदमाता रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।। अर्थ : हे माँ! सर्वत्र विराजमान और स्कंदमाता के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। इस दिन साधक का मन 'विशुद्ध' चक्र में अवस्थित होता है। इनके विग्रह में भगवान स्कंदजी बालरूप में इनकी गोद में बैठे होते हैं। (प्रत्येक सर्वसाधारण के लिए आराधना योग्य यह श्लोक सरल और स्पष्ट है। माँ जगदम्बे की भक्ति पाने के लिए इसे कंठस्थ कर नवरात्रि में पाँचवें दिन इसका जाप करना चाहिए।) नवरात्री के पांचवें दिन देवताओं के सेनापति भगवान स्कंद कुमार [कार्तिकेय] की माता अर्थात स्कंद माता की पूजा होती है। कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनत-कुमार, स्कंद कुमार के नाम से पुकारा गया है। माता इस रूप में पूर्णत: ममता लुटाती हुई नजर आती हैं। माता का पांचवां रूप शुभ्र अर्थात श्वेत है। देवी स्कंद माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती हैं इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है। यह पर्वत राज की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजी जाती हैं। माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम है अत: मां को अपने पुत्र के नाम के साथ संबोधित किया जाना अच्छा लगता है। जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान स्नेह लुटाती हैं। एक पौराणिक कथा के अनुसार, कहते हैं कि एक तारकासुर नामक राक्षस था। जिसका अंत केवल शिव पुत्र के हाथों की संभव था। तब मां पार्वती ने अपने पुत्र स्कंद (कार्तिकेय) को युद्ध के लिए प्रशिक्षित करने के लिए स्कंद माता का रूप लिया था। स्कंदमाता से युद्ध प्रशिक्षण लेने के बाद भगवान कार्तिकेय ने तारकासुर का अंत किया था। देवी स्कंदमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक भुजा में भगवान स्कंद या कुमार कार्तिकेय को सहारा देकर अपनी गोद में लिए बैठी हैं। मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है। भोले शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने महान व्रत किया उस महादेव की पूजा भी आदर पूर्वक करें क्योंकि इनकी पूजा न होने से देवी की कृपा नहीं मिलती है। श्री हरि की पूजा देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए। श्लोक सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया | शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी ||
या देवी सर्वभूतेषु माँ कूष्माण्डा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।।' अर्थ : हे माँ! सर्वत्र [2] विराजमान और कूष्माण्डा के रूप में प्रसिद्ध अम्बे, आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। या मैं आपको बारंबार प्रणाम करता हूँ। हे माँ, मुझे सब पापों से मुक्ति प्रदान करें। माँ कुष्मांडा की आराधना नवरात्रे के चौथे दिन, चतुर्थी को किया जाता है। अपनी मंद, हल्की हंसी से अण्ड यानी ब्रह्मांड को उत्पन्न करने के कारण इस देवी को कुष्मांडा नाम से नामांकित किया गया है। जब ब्रह्माण्ड में केवल अंधकार ही अंधकार था और चरों तरफ कुछ भी नहीं था, तब इस देवी ने अपने ईषत् हास्य से ब्रह्मांड की रचना की थी। इस माता को आदिस्वरूपा या आदिशक्ति भी कहा जाता है। माँ का प्रसिद्द मंदिर उत्तर प्रदेश के कानपूर शहर से लगभग 40 किलोमीटर दूर, घाटमपुर तहसील में माँ कुष्मांडा का करीब एक हज़ार साल पुराना मंदिर है। हालांकि इस मंदिर की नींव 1380 में राजा घाटमपुर दर्शन द्वारा रखी गई। इसमें एक चबूतरे में मां की मूर्ति लेटी हुई है। 1890 में घाटमपुर के कारोबारी चंदीदीन भुर्जी ने मंदिर का निर्माण करवाया था। इस मंदिर में एक पिंड के रूप में लेटी मां कुष्मांडा से लगातार पानी रिसता रहता है। कहा जाता है जो भक्त इस जल को ग्रहण कर लेता है, उसका बड़े से बड़ा रोग दूर हो जाता है। हालांकि, आज तक इस रहस्य से पर्दा नहीं उठ पाया है की आखिर इस पिंडी से पानी कैसे निकलता है। कई साइंटिस्ट आए और कई सालों का शोध किया, लेकिन मां के इस चमत्कार की खोज नहीं कर पाए। मन जाता है की करीब एक हजार साल पहले एक घाटमपुर गांव जंगलों से घिरा था। इसी गांव का का ग्वाला कुढ़हा गाय चराने के लिए आता था। शाम के वक्त जब वह घर जाता और गाय से दूध निकालता तो गाय एक बूंद दूध नहीं देती। उसको शक हुआ और शाम को जब वह गाय को लेकर चलने लगा, तभी गाय के आंचल से दूध की धारा निकली। मां ने प्रकट होकर ग्वाला से कहा कि मैं माता सती का चौथा अंश हूं। ग्वाले ने यह बात पूरे गांव को बताई और उस जगह खुदाई की गई तो मां कुष्मांडा देवी की पिंडी निकली। गांववालों ने पिंडी की स्थापना वहीं करवा दी और मां की पिंडी से निकलने वाले जल को प्रसाद स्वरुप मानकर पीने लगे। घाटमपुर में गिरा था सति का चौथा अंश माता कुष्मांडा की कहानी शिव महापुराण के अनुसार, भगवान शंकर की पत्नी सती के मायके में उनके पिता राजा दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया था। इसमें सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया गया था लेकिन शंकर भगवान को निमंत्रण नहीं दिया गया था। माता सती भगवान शंकर की मर्जी के खिलाफ उस यज्ञ में शामिल हो गईं। माता सती के पिता ने भगवान शंकर को भला-बुरा कहा था, जिससे आक्रोशित होकर माता सती ने यज्ञ में कूद कर अपने प्राणों की आहुति दे दी। माता सती के अलग-अलग स्थानों में नौ अंश गिरे थे। माना जाता है कि चौथा अंश घाटमपुर में गिरा था। तब से ही यहां माता कुष्मांडा विराजमान हैं। श्लोक : सुरासम्पूर्णकलशं रुधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कुष्मांडा शुभदास्तु मे।
शिमला से लगभग 190 किलोमीटर की दूरी पर नेशनल हाईवे नंबर 5 के किनारे पर स्थित ये मंदिर अपने आप मे बेहद रोमांचक इतिहास और मान्यता संजोए हुए है। यहां से गुजरने वाली हर गाड़ी यहां रुकती है। तरंडा देवी का यह मंदिर हिमाचल के किन्नौर जिले में पड़ता है। 1962 में जब भारत का चीन से युद्घ हुआ। तब युद्घ खत्म होने पर सेना ने यहां के रास्ते से रोड बनाने की योजना बनाई थी ताकि बॉर्डर तक सेना को गोला बारूद और अन्य सामान पहुंचाया जा सके। पहले रोड सिर्फ रामपुर तक ही था। 1963 में सेना के GREF विंग (अब इस विंग को बॉर्डर रोड ऑर्गेनाइजेशन कहा जाता है) ने यहां सड़क बनाने का काम शुरू किया। जिस जगह आज तरंडा देवी मंदिर स्थापित है जब रोड़ बनाने का कार्य यहां तक पहुंचा तो रोड आगे बनाना बहुत मुश्किल हो गया। रोज चट्टानें गिरने से आए दिन किसी न किसी मजदूर की मौत हो जाती थी। सेना के लोग भी काफी परेशान हो गए। इस बीच तरंडा गांव के लोग गांव में बने मंदिर मां चंद्रलेखा के पास पहुंचे। देवी ने बताया कि यहां पर किसी शक्ति का प्रकोप है। मैं इस जगह स्थापित होना चाहती हूं। यहां मेरे नाम से मंदिर बनाओ सब कुछ ठीक हो जाएगा। बस फिर क्या था सेना के लोगों ने यहां मंदिर का निर्माण करवाया और फिर सब कुछ ठीक हो गया। 1965 में मां तरंडा देवी का मंदिर यहां स्थापित कर दिया गया। मंदिर की देखरेख अब सेना ही करती है। सेना के जवान ही यहां पूजा पाठ का काम संभालते हैं। हैरान करने वाली बात ये है कि इस जगह से आगे जाने वाले लोग गाड़ी रोककर तरंडा माता के दर्शन जरूर करते हैं ताकि रास्ते में कोई बाधा ना आए। माना जाता है कि माता को बिन बताए या बिन हाजिरी लगाए सफर करने वाला या तो चट्टाने गिरने के खतरे से घिर जाता है या उसकी गाड़ी किसी तरीके से खराब हो जाती है।
या देवी सर्वभूतेषु माँ चंद्रघंटा रूपेण संस्थिता नमस्तस्य नमसतय नमस्तस्य नमो नमः नवरात्री का तीसरा दिन माँ चंद्रघंटा को समर्पित है। नवदुर्गा में तृतीय स्थान रखने वाली मां चंद्रघंटा की पूजा नवरात्रि के तीसरे दिन की जाती है। इस दिन योगीजन अपने मन को मणिपुर चक्र में स्थित कर भगवती आद्यशक्ति का आह्वाहन करते हैं और विभिन्न प्रकार की सिद्धियां प्राप्त करते हैं। मां चंद्रघंटा की पूजा से भक्तों का इस लोक तथा परलोक दोनों में ही कल्याण होता है। मां चंद्रघंटा का स्वरूप अत्यंत शांतिदायक तथा कल्याणकारी है। इनके मस्तक पर अर्द्धचन्द्र विराजमान है व इनके हाथ में भयावह गर्जना करने वाला घंटा है जिस कारण इन्हें चंद्रघंटा कहा जाता है। इनके शरीर का वर्ण स्वर्ण के समान सुनहरा चमकीला है। इनके दस हाथ हैं, जिनके द्वारा भगवती ने विभिन्न अस्त्र-शस्त्र धारण किए हुए हैं। इनका वाहन सिंह है तथा इनके घंटे की सी भयानक ध्वनि से दानव, दैत्य आदि भयभीत रहते हैं और देवताजन तथा मनुष्य सुखी होते हैं। उत्पत्ति कथा माँ चंद्रघंटा की उत्पत्ति कथा बेहत रमणीय है। कथा के अनुसार जब देवी सती ने अपने शरीर को यज्ञ अग्नि में जला दिया था, तब उसके पश्चात् उन्होंने पारवती के रूप में पर्वतराज हिमालय के घर में पूर्ण जनम लिया। पारवती भगवन शिव से शादी करना चाहती थी जिसके लिए उन्होंने घोर तपस्या की। उनकी शादी के दिन भगवान शिव अपने साथ सभी अघोरियों के साथ देवी पारवती को अपने साथ ले जाने के लिए पहुंचे तो शिव के इस रूप को देखकर उनके माता पिता और अतिथिगण भयभीत हो गए और पारवती की माँ मैना देवी तो दर के कारण मूर्छित ही हो गई। इन सब को देख कर देवी पारवती ने चंद्र घंटा का रूप धारण किया और भगवन शिव के पास पहुँच गई। उन्होंने बहुत विनम्रता से भगवन शिव से एक आकर्षक राजकुमार के रूप में प्रकट होने के लिए कहा और शिव भी सहमत हो गए। पारवती ने फिर अपने परिवार को संभाला और सभी अप्रिय यादों को मिटा दिया और दोनों का विवाह हो गया है। तब से देवी पारवती को शांति और क्षमा की देवी के रूप में उनके चंद्रघंटा अवतार में पूजा जाता है। नवरात्रि में तीसरे दिन इसी देवी की पूजा का महत्व है। इस देवी की कृपा से साधक को अलौकिक वस्तुओं के दर्शन होते हैं। दिव्य सुगंधियों का अनुभव होता है और कई तरह की ध्वनियां सुनाईं देने लगती हैं। इन क्षणों में साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए। इस देवी की आराधना से साधक में वीरता और निर्भयता के साथ ही सौम्यता और विनम्रता का विकास होता है।
माता शैलपुत्री जिन्हें सती के नाम से भी जाना जाता है, वह भगवन शिव की अर्धांगिनी थी। प्रजापति दक्ष की पुत्री सती वास्तव में माँ दुर्गा का रूप थीं। ब्रम्हपुत्र दक्ष देवी दुर्गा कि तपस्या किया करते थे, तपस्या से प्रसन्न देवी दुर्गा ने उन्हें एक वरदान मांगने को कहा। वरदान में दक्ष ने देवी को पुत्री के रूप में पाने की इच्छा जताई। माँ दुर्गा ने दक्ष का यह वरदान स्वीकार किया व स्वयं दक्ष के यहाँ पुत्री बन सती के रूप में जन्म लिया। सती दक्ष 24 पुत्रियों में सबसे छोटी व लाडली थीं। सती मन ही मन भगवान् शिव को प्रेम करती थी यह बात राजा दक्ष को स्वीकार न थी। उनका कहना था कि सती महलों कि रहने वाली हैं व उनका विवाह किसी साधू अघोरी से कतापि नहीं हो सकता। वह भगवान् शिव के रहें-सेहेन व उनकी वेश-भूषा को न-पसंद करते थे। सती मन ही मन शिव को पती मान चुकी थीं इसके बावजूद दक्ष ने सती का स्वयंवर करवा कर उनका विवाह किसी और से करने का प्रयास किया। स्वयंवर में उन्होंने सभी देवों को आमंत्रित किया परन्तु भगवान् शिव को नहीं बुलाया। इसके अलावा उन्होंने शिव का मज़ाक बनाने के लिए उनकी प्रतिमा वहां रखवाई। ऐसे मोई माता सटी ने भगवन शिव कि प्रतिमा को वर-माला पहना कर उन्हें सबके सामने स्वीकार किया। इसके बाद सती का अपने लिए प्रेम देखते हुए भगवन शिव ने भी सती को अपनी अर्धांगिनी के रूप में स्वीकारा व उन्हें ले कर अपने कैलाश वास चले गए। सती एवं शिव के विवाह से अप्रसन्न प्रजापति दक्ष मन से कभी भी शिवशंकर भगवान् को अपना दामाद स्वीकार न कर सके। विवाह के कुछ समय पश्चात राजा दक्ष ने अपने महल में यज्ञ करवाया जहाँ उन्होंने सभी देवतागणों को आमंत्रित किया। माता सती की परिकल्पना थी कि उनके पिता उन्हें ज़रूर आमंत्रित करेंगे व वह अपने परिवार से मिलने की भी इच्छुक थीं। शिव को नीचा दिखाने की उद्देश्य से राजा दक्ष ने सभी देवताओं को बुलाया परन्तु शिव-सती को निमंत्रण नहीं भेजा। सती परिवार से मिलने की इच्छुक थी व भगवन शिव से वहां जाने की अनुमती मांगी। शिव जी को उनका वहां जाना उचित न लगा परन्तु सती केलगातार आग्रह करने के बाद शिव ने उन्हें अनुमती दी। सती जब यज्ञस्थल पर पहुंचीं तो वह बहुत उत्सुक थीं परन्तु उनके पिता दक्ष व अन्य परिवार सदस्यों ने उन्हें अपमानित किया। उनकी माँ ने उन्हें सादर प्रेम से गले लगाया परन्तु उनकी बहनें उनका विवाह शिव से होने के कारण उनका मज़ाक बनाती रहीं। सती से किसी ने बात भी न की, जैसे वह लोग उन्हें जानते ही न हों। इसके बाद भी सती ने पिता से बात करने का प्रयास किया व उनसे शिव को आमंत्रित न करने की वजह पूछी। जिसके जवाब में दक्ष ने कहा - "तुम्हारा पति श्मशान वासी है, उसे बुलाना अशुभ है। मैंने इस यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया है। तुम्हारा पति कोई देवता नहीं है, वह तो भूतों का राजा है। उसे इस यज्ञ में बुलाने से हमारा क्या लाभ। शिव रूण्ड मुंडों की माला पहनता है, चिता की भस्म लगाता है, भूतों प्रेतों के बीच रहता है, भला उसका यज्ञ में क्या काम।" यह सुन कर सती माता बहुत उदास हुईं व उन्होंने अपने पिता से उनके पती का अपमान न करने का आग्रह किया। इसके बाद भी जब दक्ष ने यह सब कहना बंद नहीं किया तो माता सती ने वह किया जसिकी कल्पना खुद राजा दक्ष ने नहीं की थी। सती ने उसी यज्ञ अग्नि में अपने प्राणों की आहुति दे दी। सती की मृत्यु की खबर से क्रोधित शिव ने राजा दक्ष का संहार किया। शिव अपनी पत्नी सती से बहुत प्रेम करते थे जिसके बाद माता सती का पुनर्जन्म राजा हिमाचल के यहाँ हुआ। राजा हिमाचा ने उनका नाम शैलपुत्री रखा जिन्हें पर्वतों के राजा की पुत्री होने के कारण पार्वती भी कहा जाता है। इसके बाद शिव का पुनर्विवाह माता शैलपुत्री यानि पार्वती से हुआ। माता शैलपुत्री का वाहन वृषभ है इसलिए इन्हें वृषारूढ़ा भी कहा जाता है। इनके बाएं हाथ में कमल और दाएं हाथ में त्रिशूल रहता है। इनका वास काशी मेंवाराणसी में माना जाता है। पती के मान-सम्मान के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाली माँ शैलपुत्री के बारे में कहा जाता है कि नवरात्र के पहले दिन यानि प्रतिपदा को जो भी भक्त मां शैलपुत्री के दर्शन करता है उसके सारे वैवाहिक जीवन के कष्ट दूर हो जाते हैं।
कुरुक्षेत्र के पिहोवा के गांव अरुणाय में स्थित संगमेश्वर महादेव मंदिर रहस्यमयी शिव मंदिर हैं, जहां भोलेनाथ के चमत्कार तो नजर आते हैं, लेकिन इन चमत्कारों का कारण कोई नहीं जानता। श्रद्धालु इसे भगवान शिव की महिमा ही मानते हैं। बताया जाता है कि देवी सरस्वती ने यहीं पर शिव की आराधना की थी यहां साल में एक बार नाग और नागिन का जोड़ा देखा जाता है। यह जोड़ा शिवलिंग की परिक्रमा करने के कुछ देर बाद खुद-ब-खुद चला जाता है। आज तक इस जोड़े ने किसी भी श्रद्धालु को नुकसान नहीं पहुंचाया। इनके दर्शन करने के लिए श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ जाती है। दर्शन करने के बाद ये जोड़ा कहां जाता है किसी को कुछ नहीं पता। ये कहां से आते हैं और कहां चले जाते, इसका पता अब तक कोई नहीं लगा पाया है। पुराने समय से इसे अरुणा और सरस्वती नदी के संगम का स्थल माना जाता है। मंदिर के पास से सरस्वती नदी गुजरती है। पुराणों के अनुसार महर्षि वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषि में एक दूसरे से अधिक तपोबल हासिल करने की होड़ लगी हुई थी। तब विश्वामित्र ने सरस्वती को छल से महर्षि वशिष्ठ को अपने आश्रम तक लाने की बात कही, ताकि वे महर्षि वशिष्ठ को समाप्त कर सकें। श्राप के डर से सरस्वती तेज बहाव के साथ महर्षि वशिष्ठ को विश्वामित्र आश्रम के द्वार तक ले आईं। लेकिन जब विश्वामित्र महर्षि वशिष्ठ की ओर बढ़ने लगे तो सरस्वती महर्षि वशिष्ठ को पूर्व की ओर बहा कर ले गईं। इससे विश्वामित्र क्रोधित हो गए और सरस्वती को खून से भरकर बहने का श्राप दे दिया। खून का बहाव शुरू होने पर सरस्वती के किनारे राक्षसों ने डेरा डाल लिया। महर्षि वशिष्ठ ने सरस्वती को यहां प्रकट हुए शिवलिंग की आराधना करने को कहा। सरस्वती ने इसी तीर्थ पर शिव की आराधना की तो भगवान शिव ने उसे विश्वामित्र के श्रप से मुक्त कर फिर से जलधारा से भर दिया। तभी से यहां भगवान शिव की आराधना शुरू हो गई। चुनाव जीतने की मन्नत मांगने आते है नेता लोगों की मान्यता हैं कि सावन माह में स्वयंभू शिवलिंग पर जलाभिषेक करने से मनुष्य की सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं, जो भी श्रद्धालु यहां पर पूरी श्रद्धा से पूजा-अर्चना करता है, उसके सभी काम बनते हैं। यहां मंदिर में राजनेताओं व व्यापारियों का भी आस्था का केंद्र हैं। यहां चुनाव लड़ने से पूर्व बहुत से नेता मन्नत मांगते हैं और पूरी होने पर यहां पूजन व धागा खोलने के लिए आते हैं।
भारतीय संस्कृति में तो मंदिरों व धार्मिक स्थानों का एक विशेष स्थान है ही, परन्तु पड़ोसी देश नेपाल में भी भारतीय संस्कृति एवं हिन्दू धर्म का प्रभाव नज़र आता है। नेपाल में स्थित बूढानीलकंठ मंदिर इसी का एक बड़ा उदाहरण है। नेपाल के शिवपुरी मैं स्थित यह मंदिर अध्भुत वास्तुकला व खूबसूरत स्मारक निर्माण की मिसाल है। भगवान विष्णु का यह मंदिर विश्व-विख्यात है व इसे देखने के लिए देश-प्रदेश से आने वाले पर्यटकों की भीड़ लगी रहती है। मंदिर परिसर में विष्णु भगवान की 5 मीटर लम्बी प्रतिमा विराजमान है जिस में भगवान विष्णु को निद्रा मुद्रा में दिखाया गया है व वे शेष नाग की कुंडली में विराजमान हैं। यह मूर्ती 13 मीटर के वर्ग में फैले तालाब में है जिसे ब्रह्मांडीय समुद्र का प्रतीक माना जाता है। प्रतिमा में विष्णु जी के चार हाथ व ग्यारह सिर उनके दिव्य गुणों को दर्शाते हैं। मंदिर में भगवान विष्णु के साथ-साथ शिव शंकर भी विराजमान हैं। जहां मंदिर में भगवान विष्णु प्रत्यक्ष मूर्ति के रूप में विराजमान हैं तो वहीं भोलेनाथ पानी में अप्रत्यक्ष रूप से विराजित हैं। माना जाता है कि बुढानिलकंठ मंदिर का पानी गोसाईकुंड में उत्पन्न हुआ था। लोगों का मानना है कि अगस्त में होने वाले वार्षिक शिव उत्सव के दौरान झील के पानी के नीचे शिव की एक छवि देखने को मिलती है।
हिमाचल, देवी देवताओं की भूमि है और यहां की आबोहवा में कई रोचक कहानियां छुपी हैं। ये कहानी है कोयला माता मंदिर की। कोयला माता मंदिर मंडी जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर स्थित है। माना जाता है कि माता शक्ति ने यहाँ कोलासुर नामक राक्षस का वध किया था और लोगों को उसके प्रकोप से बचाया था जिस कारन इसका नाम पड़ा। यहां माता के दर्शन के लिए दूर-दूर से लोग आते है। लोक कथाओं के अनुसार, प्राचीन समय में राजगढ़ की पहाड़ी पर यह मंदिर एक चट्टान के रूप में ही था। बाद में यह मंदिर कैसे अस्तित्व में आया और कोयला माता की पूजा अर्चना कैसे शुरू हुई इसके बारे में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है की उस समय राजगढ़ और आस-पास के क्षेत्र में दिन-प्रतिदिन मातम का माहौल छाया रहता था। हर दिन किसी न किसी के घर पर, कोई न कोई व्यक्ति मृत्यु का शिकार हो जाता। इस तरह राजगढ़ क्षेत्र का दाहुल शमशान घाट किसी भी दिन बिना चिता जले नहीं रहता था। यदि किसी दिन शमशान घाट में शव नहीं पहुंचता तो उस दिन वहां पर घास का पुतला जलाना पड़ता था। स्थानीय लोगों के मन में ये धारणा बन गई कि चिता के न जलने से किसी प्राकृतिक प्रकोप व् आपदा सामना करना पड़ेगा। इस तरह घास के पुतले को जलाने की प्रथा से यहां शुरू हो गई और जिस भी दिन कोई मृत्यु नहीं होती लोग शमशानघाट में घांस का पुतला जलाते।लेकिन हर दिन अंतिमसंस्कार कर लोग तंग आ गए थे और इस से छुटकारा चाहते थे। हर दिन दुःख दुखी से बचने के लिए क्षेत्र के लोगों ने देवी माँ के आगे प्रार्थना की। लोगों की प्रार्थना से माँ काली प्रसन्न हो गईं और देखते ही देखते एक व्यक्ति में देवी प्रकट हो गईं और वह व्यक्ति माँ की वाणी बोलने लगी। स्थानीय भाषा में इसे “खेलना ” कहते हैं। जभ वह व्यक्ति खेल गया तो माता का आदेश बताते हुए उसने कहा-“मैं यहाँ की कल्याणकारी देवी हूँ……तुम्हें घास के पुतले जलाने की प्रथा मुक्त करती हूँ। सुखी रहो और मेरी स्थापना यहीं कर दो।" लोगों ने जब व्यक्ति के मुख से देवी के वाक् सुने तो उन्होंने देवी से कही गई बातों का प्रमाण माँगा। इस पर उस खेलने वाले व्यक्ति ने पास की विशाल चट्टान की ओर इशारा किया और देखते ही देखते चट्टान से घी टपकने लगा। इसके बाद यहां से हमेशा घी बहता रहता था और इसका उपयोग लोग माँ की जोत जलाने के साथ ही अपने घर में भी करते थे। वहीं अचानक कुछ समय बाद इस चट्टान से घी टपकना बंद हो गया। इस के बारे में बताय जाता है की एक बार एक गद्दी अपनी भेड़ बकरियां लेकर इस रास्ते से गुजर रहा था। चढ़ाई चढ़ने के बाद वो आराम के लिए उसी चट्टान के समीप बैठ गया और वहां बैठ कर खाना खाने लगा। फिर उसने अपनी रोटी पर घी लगाने के उद्देश्य से अपनी जूठी रोटी चट्टान पर रगड़ने दी। जूठन के फलस्वरूप उसी दिन से चट्टान से घी टपकना बंद हो गया।
हिमाचल प्रदेश के दो जिलों की सीमाओं पर लगता आहदेवी एक बहुत सुन्दर स्थान है। यह मंदिर जिला हमीरपुर से 24 किलोमीटर दुरी पर पूरब की ओर और मंडी की सीमा पर स्थित है। यह मंदिर सैंकड़ों वर्ष पुराना है। मंदिर में माँ जालपा पिंडी रूप मैं विराजमान है। यहाँ गुग्गा पीर जी की पुरानी मूर्तियाँ भी स्थापित है। यहाँ पर विराजमान माता आहदेवी पर हज़ारों लोगों की आस्था का प्रतीक हैं। इस मंदिर की कहानी उस समय से सुनाई जा रही है जब इस क्षेत्र में राजाओं का राज्य हुआ करता था। कहा जाता है की मंडी रियासत के गाँव झड्यार का एक परिवार और काँगड़ा रियासत जो अब जिला हमीरपुर है के एक गाँव संगरोह के एक परिवार के खतों का खेती के लिए प्रयोग करते थे। एक बार खेतों में जुताई करते हुए हल एक पत्थर से टकराया और अचानक उस पत्थर से रक्त बहने लगा। इस करिश्मे को देखकर सभी हैरान हो गए और ये बात आग की तरह चारों ओर फ़ैल गई। जब माँ की इस पिंडी को बहार निकाला गया तो माँ ने दर्शन दिए और अपने लिए एक स्थान माँगा। इस बात पर हमीरपुर और मंडी के लोगों में बहस हो गई। मंडी के लोग कहने लगे ये पिंडी हमे मिली है इस लिए हम इसे अपने गांव ले जाएंगे और वहां इसकी स्थापना करेंगे। पर हमीरपुर के लोग इस पिंडी को अपने स्थान पर स्थापित करने के लिए अड़िग थे। इस बीच मंडी के परिवार ने पिंडी उठाई और चल पड़े, जब वह आहदेवी के पास पहुंचे तो उन्होंने वहां विश्राम करने के लिए पिंडी ज़मीं पर रख दी। पर जब उन्होंने वहां से प्रस्थान करने के लिए पिंडी उठाई तो पिंडी हिली भी नहीं। दोनों पक्षों की लाखों कोशिशें के बावजूद भी जब कोई वहां से पिंडी नहीं उठा सका बुज़ुर्गों ने फैसला लिया की इस पिंडी को वहीं स्थापित कर दिया जाए। तो वहीं दोनों परिवारों को इस पिंडी की पूजा अर्चना की जिम्मेवारी सौंप दी गई। उस दिन से लेकर आज तक उन दो परिवारों के वंशज इस मंदिर में मुख्य पुजारियों की भूमिका निभा रहे हैं। आहदेवी हमीरपुर में सबसे ऊंचा स्थान है, और यहाँ बहुत तेज़ हवाएं चलती हैं, इस वजह से इसका नाम आहदेवी पड़ गया। यह भी कहा जाता है की हरयाणा के जिला अम्बालके गाँव नन्न्योला से एक महात्मा बाबा सरवन नाथ आए और यहाँ के मनमोहक दृश्य को देख कर यहीं तपस्या करने लगे। एक दिन माता ने उन्हें दर्शन देकर अपना मंदिर बनवाने की इच्छा प्रकट की। बाबा ने ये सुन यहाँ लोगों के साथ मिल कर एक मंदिर का निर्माण करवाया। कई वर्षों तक बाबा ने इस मंदिर में सेवाएं दी।
पहाड़ों की वादियों के बीच बसे चंबा शहर का सौंदर्य और इतिहास बहुत ही निराला है। यहां की वादियां और इमारतें बहुत सी कहानियां सुनाती हैं। ऐसे ही एक कहानी है रानी सुनैना की। रानी सुनैना यानी बलिदान और साहस कि मूर्ति। ये चंबा रियासत की वो रानी है जिन्होंने अपनी प्रजा और राज्य के उत्थान के लिए बिना किसी हिचकिचाहट के अपना बलिदान दे दिया। यूं तो चंबा शहर रावी और साल नदी के मध्य में बसा है पर एक समय ऐसा भी था जब यह शहर पीने के पानी की किल्लत से जूझ रहा था। दो नदियों के बीच बसे होने के बावजूद भी यहां पीने के लिए पानी की एक बूंद नहीं थी। उस समय चम्बा रियासत के राजा साहिल वर्मन हुआ करते थे। राजा भी इस समस्या से पूर्णतः वाकिफ थे पर वो करते भी क्या। एक रात उनकी पत्नी, रानी सुनैना को उनकी कुल देवी ने स्वप्न में दर्शन दिए और कहा कि राज घराने में से किसी को बलिदान देना होगा तभी पानी की कमी पूरी होगी। जब राजा साहिल वर्मन को रानी सुनैना ने पूरी कहानी सुनाई तो राजा वर्मन बलिदान देने के लिए तैयार हो गए। फिर रानी सुनैना ने सोचा यदि राजा बलिदान देंगे तो उनका सुहाग छिन जाएगा और राज्य के सर से भी साया उठ जाएगा, और यदि उनके पुत्र राजकुमार युगाकर बलिदान देते है तो कुल का दीपक बुझ जाएगा और वंश को आगे कौन बढ़ाएगा। ये सब सोचकर रानी सुनैना ने स्वयं बलिदान देने का फैसला लिया। इस निर्णय से पुरी चंबा रियासत में शोक व विस्मय की लहर दौड़ गई। आखिरकार रानी सुनैना बलिदान देने के लिए महल से निकल पड़ीं। आंखों में आंसू लिए उनके इस काफिले में चंबा की जनता भी शामिल थी। रास्ते मे सूही के मढ़ से रानी सुनैना ने आखिरी बार चंबा शहर पर नज़र डाली और फिर आगे बढ़ते हुए ये काफिला मलून नामक स्थान पर रुक गया। ममता और बलिदान की मूरत रानी सुनैना बलिदान देने से पहले कहा 'मेरी इच्छा है कि मेरी याद में हर वर्ष मेला लगे। इस मेले को सिर्फ स्त्रियां मनाएं और पुरुष इस में भाग न लें और न ही राज परिवार की बहुएं इस में भाग लें। इस मेले में पूजा केवल राज परिवार की कुंवारी कन्या के हाथों करवाई जाए।' बस इतना कहकर रानी सुनैना ने जिंदा समाधि ले ली। उसी समय पानी की धार फूट पड़ी और रानी सुनैना का बलिदान चंबा के लोगों के लिए अमृत बन कर बहने लगा। रानी सुनैना के बलिदान को याद करते हुए राजा साहिल वर्मन ने जिस स्थान से रानी सुनैना ने आखिरी बार चंबा को देखा था उसी सूही के मढ़ नामक स्थान पर उनके मंदिर का निर्माण करवाया। हर वर्ष इस जगह सूही के मेले का भी आयोजन किया जाता है। ये मेला 3 दिन तक चलता है और यहां केवल बच्चे और महिलाएं ही उपस्थिति दर्ज करवाते है। महिलाएं रानी की प्रशंसा में लोकगीत गाती हैं और समाधि तथा प्रतिमा पर फूल की वर्षा की जाती है।
हिमाचल को देवभूमि यूं ही नहीं कहा जाता। यहां के तीर्थ स्थल और देवी देवताओं के मंदिर इस बात के गवाह हैं की भगवन स्वयं यहां बसते हैं। प्रदेश का कोई ऐसा जिला नहीं है जहां ऐतिहासिक मंदिर न हों। इन्ही में से एक मंदिर है चंबा का ऐतिहासिक लक्ष्मी नारायण मंदिर, जिसकी अनूठी निर्माण कला और उसका इतिहास लोगों में बरबस ही मंदिर की प्रति जिज्ञासा पैदा करता है। कब हुआ था निर्माण? चंबा क्षेत्र के सबसे पुराने मंदिरों में से एक, इस मंदिर का निर्माण 10वीं सदी में राजा साहिल वर्मन द्वारा करवाया गया था। राजा साहिल वर्मन ने इस मंदिर को 920 और 940 ई. के बीच अपने शासनकाल के दौरान बनवाया। मंदिर में कुल 6 श्राइन है जिसमें हिंदू देवताओं की मूर्ति स्थापित की गई हैं। मंदिर परिसर में अन्य मंदिरों में शामिल राधा कृष्ण मंदिर का निर्माण रानी शारदा ने 1825 में करवाया था। वहीं चंद्रगुप्त का शिव मंदिर साहिल वर्मन व गौरी शंकर मंदिर को उनके पुत्र युगकर वर्मन ने बनवाया था। मंदिर की खासियत यह मंदिर शिखर शैली में निर्मित है। मंदिर में एक विमान और गर्भगृह है। मंदिर का ढांचा मंडप के समान है। मंदिर की छतरियां और पत्थर की छत इसे बर्फबारी से बचाती है। मंदिर के मुख्य द्वार पर विष्णु का वाहन गरुड़ की धातु की बनी प्रतिमा सुशोभित हो रही है। मूलतः यह मंदिर भगवान विष्णु पर केंद्रित है। मंदिर में स्थित लक्ष्मी नारायण की मूर्ति दुर्लभ संगमरमर (marble) से बनी हुई है जिसे विंध्य पर्वत से यहाँ लाया गया था। इस मूर्ति के चार मुख और चार हाथ हैं। मूर्ति की पृष्ठभूमि में तोरण है, जिस पर दस अवतारों की लीला चित्रित की गई है। मंदिर से जुड़ी धारणा क्षेत्र में लोकप्रिय धारणा है कि राजा साहिल वर्मन ने संगमरमर लाने के लिए अपने आठ पुत्रों की बलि दी थी। अंत में उनके सबसे बड़े पुत्र, जिनका नाम युगकारा था, संगमरमर हासिल करने में सफल रहे। राजा पर भी लूटेरों ने हमला किया था पर एक संत की मदद से वह अपने आप को बचाने में सफल रहे। इस मंदिर के बारे में एक और धारणा यह भी है की सबसे पहले ये मंदिर चंबा के चौगान में स्थित था परन्तु बाद में इसे वर्तमान स्थल पर स्थापित किया गया।
विश्व हिन्दू परिषद के प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य अतुल शाह व विभाग अध्यक्ष देवी प्रसाद देवली के नेतृत्व में मंगलवार को चमोली के कार्यकर्ताओं व रामभक्तों द्वारा विकट परिस्थितियों में भी अयोध्या धाम में 5 अगस्त से ऐतिहासिक राम मंदिर निर्माण में बद्रीविशाल धाम से अलकनंदा का जल व नारायण धाम की मिट्टी ( मृदा) कलश में लेकर मिलों पैदल चलकर व भू स्खलन क्षेत्र से गुजरते हुए पहुंचाया जा रहा है। गौरतलब है कि 5 अगस्त से अयोध्या में राम मंदिर बनवाए जाने की नींव रखी जा रही है जिसमें पुरे भारतवर्ष के कोने-कोने के धामों से रामभक्त व विश्व हिन्दू परिषद के कार्यकर्ताओं द्वारा जल व मृदा क्लस के साथ साथ प्रत्येक प्रयागों का जल पहुंचाया जा रहा है। उसी के चलते मंगलवार को उत्तराखंड विहिप के प्रांतीय सदस्य अतुल साह व विभाग अध्यक्ष देवी प्रसाद देवली, जिलाध्यक्ष राकेश मैठाणी, बजरंगदल के पावन राठौर, हरि प्रसाद ममगाईं, हरीश पुरोहित आदित्य शाह, कुलबीर बिष्ट व अन्य कार्यकर्ताओं द्वारा पागलनाला से बिरही तक सड़क मार्ग बंद होने के बावजूद पैदल भू-स्खलन छेत्र व पहाड़ियों में पैदल चढ़कर मृदा कलस व जल हरिद्वार तक पहुंचाया गया साथ ही जगह जगह रामभक्तों द्वारा इनका भब्य स्वागत किया गया।
अंतरराष्ट्रीय शिवरात्रि महोत्सव में 15 साल बाद कुल्लू के देव बड़ा छमांहू 5000 हारियानों के लाव लश्कर के साथ आएंगे। दरअसल , देवता ने महोत्सव में आने की इच्छा जताई है। देवता ने गत वर्ष भी मेले में आने की इच्छा जताई थी, लेकिन प्रशासन व सर्व देवता समिति ने व्यवस्थाओं का हवाला देकर मना कर दिया था। अब इस वर्ष भी देवता ने इच्छा जाहिर की है जिसके बाद मेला आयोजकों के हाथ-पांव फूल गए हैं। अपने खर्च पर आएंगे महोत्सव में : हारियानों ने इस बार अपने खर्च पर महोत्सव में आने की बात कही है। देव बड़ा छमांहू कुल्लू जिले के बंजार उपमंडल की कोटला पंचायत से संबंध रखते हैं। 21 फरवरी को ऐतिहासिक कोठी कोटला से रवाना होंगे और 22 फरवरी को माधोराय व 18 करडु के साथ भव्य मिलन होगा। हजारों लोग देव मिलन के गवाह बनेंगे। बड़ा छमांहू की हैं 44000 रानियां: बड़ा देव छमांहू की 44 हजार रानियां हैं। जब देवता तपस्या में लीन होने के बाद स्वर्ग से लौटते हैं तो सर्वप्रथम रानियों से मिलने जाते हैं। इस दौरान हजारों लोग देवरथ को रानियों के कब्जे में से छुड़ाने का प्रयास करते हैं। रस्सा लगाने के बाद भी हजारों लोग देवरथ को नहीं खींच पाते हैं। देवता एक ही स्थान पर स्थिर रहते हैं।
आज हम आपको बताने जा रहे है सिमसा माता मंदिर के बारे में जो की हिमाचल के मंडी ज़िले के लड़-भड़ोल तहसील के सिमस नामक खूबसूरत स्थान पर स्थित है। इस देवी धाम का चमत्कार यह है कि यहाँ देवी निःसंतान महिलाओं की सूनी गोद भर देती है। देवी सिमसा को संतान-दात्री के नाम से भी जाना जाता है। इसके लिए महिलाओं को कोई कठिन नियम का पालन भी नही करना पड़ता है। कहा जाता है की मंदिर के फर्श पर सोने से ही महिलाओं को संतान की प्राप्ति होती है। दूर-दूर से औरतें संतान प्राप्ति की चाह लिए इस मंदिर में सोने आती है। नवरात्रों में यहां सलिन्दरा उत्सव मनाया जाता है, जिसका अर्थ है सपने आना, निःसंतान महिलाये दिन रात इस मंदिर के फर्श पर सोती है। नवरात्रों में हिमाचल के पड़ोसी राज्यों पंजाब, हरियाणा और चंडीगढ़ से ऐसी सैकड़ों महिलाएं इस मंदिर की ओर रूख करती है जिनके संतान नहीं होती है। मान्यता के अनुसार यदि किसी महिला को अमरुद का फल मिलता है तो वे समझ ले कि लड़का होगा, परंतु अगर किसी को स्वप्न में भिन्डी मिलती है तो बेटी होने का आर्शिवाद मिला बताया जाता है। ये भी कहा गया है कि यदि किसी महिला को धातु, लकड़ी या पत्थर की बनी कोई वस्तु प्राप्त हो तो उसे समझ जाना चाहिए कि उसके संतान नहीं होगी। पौराणिक कथा एक दंपति जोड़े को संतान नही हो रही थी। कई डॉक्टर्स को दिखाने के बाद वो अपनी उम्मीद कम कर बैठे थे। फिर किसी के द्वारा उन्हें सिमसा माता मन्दिर लडभड़ोल की जानकारी मिली। वो दंपति माता की सेवा में लग गए और सच्चे दिल से भक्ति करने लगे। माता की कृपा से उन्हें आठ साल बाद संतान का सौभाग्य प्राप्त हुआ। संतान का सौभाग्य प्राप्त होने के बाद भे वो सच्चे दिल से माँ की भक्ति करते रहे। जब उनका पुत्र 1 साल का हो गया, तो वो सिमसा माता मंदिर लडभड़ोल मे जातर(भेंट) चढ़ाने गए। इसके 1-2 दिन पश्चात सुबह के वक्त उस दंपति के आँगन मे एक छोटी कन्या नंगे पैर भिक्षा मांगने आयी। जब घर से रविंदर कोरला की माता जी बाहर आई तो उस लड़की ने सिर्फ चीनी की कटोरी की मांग की, और यह भी कहा कि मुझे पैसे नही चाहिए। पर रविंदर की माता नहीं मानी और जब उन्होंने पैसे देने के लिए अपना ट्रंक खोला तो पैसे गायब थे। उसकी जगह फ़ूल पड़े थे। पहले तो माता ने सोचा था कि यह कोई झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाली लड़की है। पर बाद में उन्हें यह देख के आश्चर्य हुआ और उन्होंने यह बात घर के बाकी सदस्यों को बताई। घर के कुछ सदस्य बाहर निकले लड़की अभी भी आँगन में मौजूद थी। उन्होंने लड़की से पूछा कि आप कौन हो तो उस लड़की ने कहा कि में सिमसा हूं, लडभड़ोल से आयी हूं। यह बात सुनकर सारे सदस्य हैरान हो गए। बाद में लड़की ने कहा कि जो आपके घर पुत्र हुआ उसके हाथों से मुझे पानी का एक लोटा दिलाओ। सारे सदस्य उस कन्या के चरणों में झुक गये। रविंदर ने अपने पुत्र के हाथों से जल का एक लोटा दिलाया। देवी ने कहा कि मैं आपकी सच्ची भक्ति से बड़ी प्रसन्न हूं। मैं आपके द्वारा दुखी लोगों और निसंतान दम्पतियों का कल्याण करूँगी। इसलिए में आपके घर स्थान लेना चाहती हूँ। मझे अपने घर के किसी कमरे में ले चलो। रविंद्र जी उस कन्या को एक कमरे में ले गए। कन्या ने उन्हें अपने असली रूप में दर्शन दिए और वहाँ धरती पर हाथ रखा, जिससे धरती पर दरारे पड़ गई जो देखने मे ऐसी प्रतीत होती है कि धरती को लाइनों के द्वारा अलग कर दिया गया हो। बाद में माँ ने अपनी छोटी-2 दो उंगलियों से धरती को छुआ। जिससे धरती पर उनके निशान आ गए जो आज भी है और वहां उस धरती से माता की पिंडी उबर कर आई। बाद में माता सिमसा ने बताया कि मेरे इस स्थान में जो भी आएगा वो खाली हाथ नहीं लौटेगा ओर उसकी हर मनोकामना पूरी होगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गयी और पंडित रविंदर बेहोशी की हालत में चले गए। उसके बाद जैसे-जैसे लोगों को ये बाद पता चली। लोग दूर दूर से माँ के दरबार में आने लगे।
आज हम आपको दर्शन कराने जा रहे है माहुंनाग मंदिर के, जो की ज़िला मंडी की तहसील करसोग में स्थित है। माहुंनाग जी को दानवीर कर्ण का अवतार माना जाता है। देव बड़ेयोगी माहुंनाग जी के गुरु है। यह मंदिर ऊँची पहाड़ी पर स्थित है। यहाँ से दूर दूर तक बहुत सी पहाड़ियां दिखाई देती है। माहुंनाग जी मूल माहुंनाग के रूप में प्रसिद्ध है। महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने छल से कर्ण का वध किया परन्तु अर्जुन का हृदय ग्लानी से भर गया। कर्ण का अंतिम संस्कार करने के लिए अर्जुन ने अपने नाग मित्रों की सहायता से सतलुज के किनारे ततापानी के समीप कर्ण का शव लाकर अंतिम संस्कार कर दिया। उसी चिता से एक नाग प्रकट हुआ और वही समीप बस गया। पौराणिक कथा एक बार सेन वंश के एक शासक ने गुर की परीक्षा लेनी चाही। राजमहल में एक प्रकार की शिलाओं को रखा गया और एक एक शिला के नीचे माहुंनाग लिखा गया। अब गुर को उस शिला को पहचानना था। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो उसके बाल व दाड़ी को मुंडवा कर उसे असत्य करार दिया जाता। अब गुर की परीक्षा सभी के सामने हुई। गुर के प्राण संकट में थे, वह ये निर्णय नहीं कर पा रहा था कि कौन सा स्थान सही है। ऐसा सोचते हुए एक मधुमक्खी उसके कान के पास आई और एक शिला में बैठ गई। अब गुर उसी शिला पर खड़ा हो गया और उसी पर माहुंनाग लिखा गया था। राजा अब देवता की शक्ति से आश्वस्त हो गया और देवता को पूज्य स्थान प्राप्त हो गया। विशेषताएं चैत्र मास के नवरात्रों में प्रतिवर्ष लगभग एक मास की रथ यात्रा माहुनाग सुंदरनगर क्षेत्र के लोक कल्याण हेतु करते है । देवता का रथ गुर , पुजारी , मेहते कारदार , बजंत्री व श्रद्धालु साथ चलते है । यहाँ दूर दूर से लोग अपनी मन्नते पूरी होने पर आते है और भेंट स्वरुप विभिन्न उपहार चढ़ाते है ।
आज हम आपको बताने जा रहे है एक ऐसे मंदिर के बारे में जहां माँ -पुत्र के पावन मिलन के अवसर पर एक मेले का आयोजन किया जाता है। यह मंदिर श्री रेणुका माता के नाम से जाना जाता है और हिमाचल प्रदेश के ज़िला सिरमौर में स्तिथ है। श्री रेणुका जी मेला हिमाचल प्रदेश के प्राचीन मेलों में से एक है, जो हर वर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। यह मंदिर उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है। मान्यता के अनुसार इस दिन भगवान परशुराम जामूकोटी से वर्ष में एक बार अपनी माँ रेणुका से मिलने आते है। यह मेला श्री रेणुका माँ के व उनके पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा संगम है। यह स्थान नाहन से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी पर है। रेणुका झील के किनारे माँ श्री रेणुका जी व भगवान परशुराम जी के भव्य मंदिर स्थित हैं। पौराणिक कथा कथा के अनुसार प्राचीन काल में आर्यवर्त में हैहय वंशी क्षत्रीय राज करते थे। भृगुवंशी ब्राह्मण उनके राज पुरोहित थे। इसी भृगुवंश के महर्षि ऋचिक के घर महर्षि जमदग्नि का जन्म हुआ। इनका विवाह इक्ष्वाकु कुल के ऋषि रेणु की कन्या रेणुका से हुआ। महर्षि जमदग्नि सपरिवार इसी क्षेत्र में तपस्या करने लगे। जिस स्थान पर उन्होंने तपस्या की, वह तपे का टीला कहलाता है। महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु गाय थी जिसे पाने के लिए सभी तत्कालीन राजा, ऋषि लालायित थे। राजा अर्जुन ने वरदान में भगवान दतात्रेय से एक हजार भुजाएं पाई थीं। जिसके कारण वह सहस्त्रार्जुन कहलाए जाने लगे। एक दिन वह महर्षि जमदग्नि के पास कामधेनु मांगने पहुंचे। महर्षि जमदग्नि ने सहस्त्रबाहु एवं उसके सैनिकों का खूब सत्कार किया। उन्होंने उसे समझाया कि कामधेनु गाय उसके पास कुबेर जी की अमानत है, जिसे वो किसी को नहीं दे सकते। गुस्साए सहस्त्रबाहु ने महर्षि जमदग्नि की हत्या कर दी। यह सुनकर माँ रेणुका शोकवश राम सरोवर मे कूद गई। राम सरोवर ने मां रेणुका की देह को ढकने का प्रयास किया। जिससे इसका आकार स्त्री देह समान हो गया। जिसे आज पवित्र रेणुका झील के नाम से जाना जाता है। ये बात सुनते ही परशुराम अति क्रोध में सहस्त्रबाहु को ढूंढने निकल पड़े। उसे युद्ध के लिए ललकारा। भगवान परशुराम ने सेना सहित सहस्त्रबाहु का वध कर दिया। भगवान परशुराम ने अपनी योगशक्ति से पिता जमदग्नि तथा माँ रेणुका को जीवित कर दिया। माता रेणुका ने वचन दिया कि वह प्रति वर्ष इस दिन कार्तिक मास की देवोत्थान एकादशी को अपने पुत्र भगवान परशुराम से मिलने आया करेंगी। विशेषताएं राज्य सरकार द्वारा इस मेले को अंतरराष्ट्रीय मेला घोषित किया गया है। पांच दिन तक चलने वाले इस मेले में आसपास के सभी ग्राम देवता अपनी-अपनी पालकी में सुसज्जित होकर माँ-पुत्र के इस दिव्य मिलन में शामिल होते है। यह मेला श्री रेणुका माँ के वात्सल्य एवं पुत्र की श्रद्धा का एक अनूठा आयोजन है। यह मंदिर उत्तरी भारत का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थलों में से एक है।
भारत में अनेकों ऐसे मंदिर है जो अपनी अनोखी परंपराओं के कारण प्रसिद्ध है। भारत में जहां किसी दम्पति के एक साथ मंदिर में जाकर पूजा करने को बड़ा ही मंगलकारी माना जाता है, वहीं ज़िला शिमला के रामपुर नामक स्थान पर मां दुर्गा का मंदिर स्तिथ है। मां दुर्गा के इस मंदिर में पति और पत्नी के एक साथ पूजन या दुर्गा की प्रतिमा के दर्शन करने पर पूरी तरह से रोक है। इसके बाद भी अगर कोई दम्पति मंदिर में जाकर प्रतिमा के दर्शन एक साथ करता है तो उन्हें इसकी सजा भुगतनी पड़ती है। कहा जाता है की वे एक दूसरे से अलग हो जाते है। यह मंदिर श्राईकोटि माता के नाम से पूरे हिमाचल में प्रसिद्ध है। इस मंदिर में दम्पति जाते तो हैं पर एक बार में एक ही दर्शन करता है। यहां पहुंचने वाले दम्पति अलग -अलग समय में प्रतिमा के दर्शन करते हैं। यह मंदिर समुद्र तल से 11000 फ़ीट की ऊँचाई पर स्तिथ है। पौराणिक कथा लोगों की मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने अपने दोनों पुत्रों गणेश और कार्तिकेय को ब्रह्मांड का चक्कर लगाने कहा था। कार्तिकेय तो अपने वाहन पर बैठकर भ्रमण पर चले गए किन्तु गणेशजी ने अपने माता-पिता के चक्कर लगा कर ही यह कह दिया था, कि माता-पिता के चरणों में ही ब्रह्मांड है। इसके बाद जब कार्तिकेयजी ब्रह्मांड का चक्कर लगाकर वापिस आए, तब तक गणेश जी का विवाह हो चुका था। इसके बाद वह गुस्सा हो गए और उन्होंने कभी विवाह न करने का संकल्प लिया। श्राईकोटी मंदिर के दरवाजे पर आज भी गणेश जी सपत्नी स्थापित है। कार्तिकेयजी के विवाह न करने के प्रण से माता पार्वती बहुत रुष्ट हुई और कहा कि जो भी पति-पत्नी यहां एक साथ माता के दर्शन करेंगे, वह एक दूसरे से अलग हो जाएंगे। इस कारण आज भी यहां पति-पत्नी एक साथ पूजा नहीं करते। विशेषताएं यह मंदिर सदियों से लोगों की आस्था का केंद्र बना हुआ है तथा मंदिर की देख- रेख माता भीमाकाली ट्रस्ट के पास है। जंगल के बीच इस मंदिर का रास्ता देवदार के घने वृक्षों से और अधिक रमणीय लगता है। इस मंदिर में विभिन्न परंपराओं और मान्यताओं का पालन किया जाता है। यहा हजारों भक्त दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन जो दम्पति आते हैं वे एक साथ दर्शन नहीं करते है। यह मंदिर देखने में बहुत ही आकर्षित लगता है।