केंद्र और राज्य सरकार से खफा हिमाचल किसान सभा ने उपचुनाव में सरकार का विरोध करने का फैसला लिया है। हिमाचल किसान सभा के राज्य अध्यक्ष डॉ. कुलदीप सिंह तंवर ने कहा कि केंद्र और राज्य की भाजपा की डबल इंजन की सरकार ने आम आदमी और किसानों पर डबल मार की है। महंगाई चरम पर है। अन्नदाता को अपने उत्पाद के उचित दाम नहीं मिल रहे हैं। डॉ. तंवर ने कहा कि केंद्र सरकार कृषि कानूनों के जरिये किसानों की जमीन को पूंजीपतियों के हवाले करने की साजिश रच रही है। प्रदेश सरकार की बेरुखी से किसानों पर चौतरफा मार पड़ रही है। प्रदेश में जहां उपचुनाव हो रहे हैं, वहां सभी जगह किसानों-बागवानों और सब्जी उत्पादकों की फसलें बुरी तरह से पिटी हैं। सेब सीजन के दौरान सरकार ने बागवानों की खिल्ली उड़ाई है। जुब्बल-कोटखाई में बागवानों को सेब का उचित दाम नहीं मिला। प्रदेश के 45 खंडों में सेब पैदा होता है। शिमला जिले के जुब्बल-कोटखाई खंड में सेब का सबसे ज्यादा उत्पादन किया जाता है। इस बार प्राकृतिक आपदा के साथ फल मंडी में पड़ी मार से बागवानों को सेब की उत्पादन लागत तक वापस नहीं आई। हिमाचल किसान सभा का कहना है कि फतेहपुर के मंड क्षेत्र के किसानों की खरीद केंद्र की समस्या अभी भी बरकरार है। अर्की के सब्जी उत्पादक भी मंदी की मार से अछूते नहीं रहे। इस बार टमाटर की दुर्दशा हुई है। सौ रुपये से लेकर डेढ़ सौ रुपये तक भी टमाटर की क्रेट बिकी। मंडी संसदीय क्षेत्र में सेब, सब्जी, मक्की जैसे सभी उत्पादों पर मार तो पड़ी साथ ही फोरलेन से प्रभावित लोग भी लंबे समय से अपनी मांग को लेकर संघर्षरत हैं। बल्ह क्षेत्र की उपजाऊ जमीन को प्रदेश और केंद्र सरकार हवाई अड्डे के लिए अधिग्रहण करने पर उतारू है।
उपचुनाव में बढ़ती महंगाई को कांग्रेस ने मुख्य मुद्दा बनाया है। इन्ही मुद्दों को लेकर कांग्रेस जनता के बीच है। लगातार बढ़ रहे पेट्रोल डीजल के दामों ने महंगाई को रफ़्तार दे दी है। दाल, चीनी, खाद्य तेल सहित एलपीजी के दामों ने रसोई का जायका खराब किया है। ऐसे में कांग्रेस अपने प्रचार अभियान में महंगाई की बात कर जनता से कनेक्ट करने का प्रयास कर रही है। जाहिर है हिमाचल में सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर हो रहे चार उपचुनाव में महंगाई का मुद्दा खूब चर्चा में रहने वाला है। प्रदेश की आधी आबादी की अगुवाई करने वाली महिलाएं रसोई में इस्तेमाल होने वाले घरेलू सिलेंडर का मूल्य एक हजार रुपये पार जाने से निराश हैं। यह देखना दिलचस्प रहेगा कि रसोई गैस सिलेंडर के साथ-साथ एक सौ रुपये प्रति लीटर पहुंच चुके पेट्रोल मूल्य को लेकर आमजन की प्रतिक्रिया क्या रहती है, क्या जनता इन मुद्दों पर वोट डालेगी या अन्य मुद्दे ही वोट का आधार बनेंगे। वहीँ बेरोजगारी के मुड़े पर बह कांग्रेस सरकार को घेर रही है। उधर भाजपा की बात करें तो प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि योजना के जरिये किसानों के खातों में छह हजार रुपये की धनराशि निरंतर आ रही है। इसी तरह वृद्धावस्था पेंशन से भी लोगों को राहत मिली है। इस पर सरकार ने 1.91 लाख सरकारी कर्मचारियों को छह फीसद महंगाई भत्ता का लाभ दिया है। इन योजनाओं के अलावा भी कई ने जनकल्याणकारी योजनाएं है जिनके सहारे भाजपा जीत की आस में है। जनता के बीच इन योजनाओं और विकास ने नाम पर वोट माँगा जा रहा है और यह भाजपा का मुद्दा है। विकास के मुद्दे पर चुनाव, जनता साथ : जयराम ठाकुर हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का कहना है भाजपा उपचुनाव में विकास को आधार बनाकर चुनाव लड़ेगी। कोरोना महामारी के कारण समूचा विश्व संकट के दौर से जूझता रहा और ऐसे गंभीर संकटकाल में केंद्र सरकार ने किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान योजना के तहत सालाना छह हजार रुपये बैंक खातों में समयानुसार डाले। प्रदेश सरकार के सीमित संसाधन होने के बावजूद सरकारी कर्मचारियों व पेंशनरों को छह फीसद महंगाई भत्ता दिया। अन्य कल्याणकारी योजनाओं से भी हमने प्रदेश का हर संभव विकास किया है, हर वर्ग का ख्याल रखा है। भाजपा सरकार के कार्यकाल में हिमाचल प्रदेश में अथाह विकास हुआ है और जनता मौका दे तो आगे भी ऐसा ही होगा। उन्नति के नए आयाम स्थापित कर रही भाजपा सरकार : अनुराग ठाकुर केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जहां देश उन्नति के नए आयाम स्थापित कर रहा है, वहीं हिमाचल प्रदेश में भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के नेतृत्व में विकास के नए आयाम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार किसानों की हितैषी है। किसानों की फसलों को सुरक्षित रखने के लिए शीघ्र ही पूरे देश में एक लाख करोड़ की लागत से कोल्ड स्टोर बनाए जाएंगे। साथ ही केंद्र सरकार की ओर से जल्द किसान रेलगाड़ियां चलाई जाएंगी, जिससे किसान अपनी फसलें पूरे देश में अपनी कीमत पर बेच सकेंगे। अनुराग ठाकुर ने कहा कि इन उपचुनाव में भाजपा के प्रत्याशी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, केंद्रीय मंत्री अमित शाह व राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने तय किए हैं ओर ये सभी प्रत्याशी विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ेंगे। महंगाई ही मुद्दा, जनता मांग रही जवाब : मुकेश नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि उपचुनाव में कांग्रेस महंगाई के मुद्दे पर जनता के बीच है। कमर तोड़ महंगाई से आम आदमी त्रस्त है। आज गरीब परिवार के लिए दो वक्त का खाना पकाना मुश्किल हो गया है। केंद्र सरकार नाकाम रही और प्रदेश की भाजपा सरकार या फिर डबल इंजन की सरकार ने आम आदमी को दोहरे ढंग से धोया है। उपचुनाव में भाजपा को समझ नहीं आ रहा है कि किस तरह से जनता का सामना करे। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी इस उपचुनाव में बड़े मुद्दे है और कांग्रेस इन्हें लेकर जनता के बीच है। जनता भाजपा को सबक सीखाने के मन बना चुकी है। खामियाजा भुगतने को तैयार रहे भाजपा : शांडिल कांग्रेस के वरिष्ठ नेता डॉ कर्नल धनीराम शांडिल का कहना है कि एक संसदीय क्षेत्र और तीन विधानसभा क्षेत्रों में होने जा रहे उपचुनाव में बेरोजगारी और महंगाई बड़े मुद्दे है। भाजपा राज में जनता त्रस्त है, अमीर और आमिर हो रहा है, जबकि गरीब के सामने दो वक्त की रोटी का संघर्ष है। उपचुनाव में कांग्रेस इन दोनों मुद्दों पर जनता के बीच है और आज प्रदेश की जनता भाजपा से जवाब मांग रही है। बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी का खामियाजा भुगतने को भाजपा तैयार रहे। मुद्दों से भटकाने का प्रयास, पर जनता भटकेगी नहीं : विक्रमादित्य शिमला ग्रामीण के विधायक विक्रमादित्य सिंह ने कहा कि मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव महिलाओं का चुनाव है। जब रसोई में तड़का लगता है तो महिलाएं महंगाई के आंसू रोती हैं। महंगाई और बेरोजगारी इस उपचुनाव में बड़े मुद्दे है। प्रदेश में अन्य राज्यों के लोगों को नौकरी दी जा रही है। यह चुनाव बेरोजगारों का है। विक्रमादित्य ने कहा कि भाजपा व मुख्यमंत्री लोगों को मुद्दों से भटकाने का प्रयास कर क्षेत्रवाद को बढ़ावा दे रहे हैं। यह व्यक्ति विशेष का नहीं, केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों के खिलाफ चुनाव है। उन्होंने कहा कि कांग्रेस के पास धनबल की कमी है, मगर जनता का बल साथ है। विपरीत परिस्थितियों में भी चुनाव लड़ेंगे और जनता के आशीर्वाद से चुनाव जीतेंगे।
पूर्व मंत्री कौल सिंह ठाकुर द्वारा सुखराम परिवार के खिलाफ कही गई बातों को लेकर कांग्रेस पार्टी में बवाल मचा हुआ है। कॉल सिंह लगातार सुखराम परिवार पर टिप्पणियां कर रहे है जिसका जवाब आश्रय शर्मा ने दिया है। पूर्व में मंडी लोकसभा से कांग्रेस के प्रत्याशी रहे आश्रय शर्मा ने कॉल पर तीखा पलटवार किया है। वीडियो संदेश जारी करके आश्रय शर्मा ने कहा कि सीएम पद का जो सौभाग्य मंडी जिला को आज मिला है, वो वर्षों पहले मिल जाता, यदि कौल सिंह ठाकुर ने उस वक्त पंडित सुखराम का साथ दिया होता। उन्होंने कहा कि सभी जानते हैं कि उस वक्त जिला की पीठ किसने जमीन पर लगाई थी। आश्रय ने कहा कि पार्टी हाईकमान ने उनका टिकट पिछले चुनाव में मिली हार के चलते काटा है और अगर पार्टी ने यह मापदंड तय किया है तो फिर आगामी विधानसभा चुनावों में कौल सिंह ठाकुर और उनकी बेटी चंपा ठाकुर को भी टिकट न दिया जाए, क्योंकि ये दोनों भी पिछले विधानसभा चुनावों में हार का सामना कर चुके हैं। आश्रय शर्मा ने कहा कि उन्होंने कभी किसी के पैर पकड़कर टिकट नहीं मांगा। आदर सम्मान के चलते वे सभी के पांव छूते हैं और उसमें कौल सिंह ठाकुर भी शामिल हैं। 2019 के चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने खुद उन्हें पार्टी में आने के लिए कहा था। उस वक्त राहुल गांधी ने कहा था कि पंडित सुखराम के साथ उनका राजनैतिक नहीं बल्कि पारिवारिक रिश्ता है। आश्रय शर्मा ने कहा कि जी 23 का जो ग्रुप बना है, उसमें हिमाचल प्रदेश से सिर्फ कौल सिंह ठाकुर ही शामिल हैं। कौल सिंह ठाकुर ने भी उसमें अपने हस्ताक्षर किए हैं और ऐसा करने वाले कौल सिंह ठाकुर प्रदेश के इकलौते कांग्रेसी नेता हैं। कौल सिंह ठाकुर खुद सोनिया और राहुल गांधी के खिलाफ होकर पार्टी को तोड़ने की कोशिशें कर रहे हैं। उन्हें ऐसी हरकतों से बचना चाहिए और संगठन की मजबूती के लिए काम करना चाहिए।
जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से टिकट कटने के बाद चेतन बरागटा मंच पर फूट-फूटकर रोए। चेतन भावुक हो उठे और कहा, पिता की अस्थियां विसर्जित करके घर पहुंचा तो प्रदेश भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने फील्ड में जाने के आदेश दिए। मुझे कहा गया कि आप ही भाजपा का चेहरा होंगे। गांव-गांव जाकर प्रचार शुरू करें। चेतन बोले बीते तीन माह से मैं जनता के बीच जा रहा हूं और आज भाजपा संगठन ने मुझे परिवारवाद की उपज कहकर बाहर का रास्ता दिखा दिया है। 15 वर्ष संगठन के लिए राष्ट्रीय स्तर से प्रदेश स्तर तक कार्य किया है जिसका इनाम पार्टी ने दिया। इसके बाद समर्थकों से मंथन करने के उपरांत चेतन बतौर निर्दलीय मैदान में है और भाजपा की मुश्किलें बढ़ चुकी है।
नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को चेताया है कि वह पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के स्वजन व कांग्रेसियों को धमकाना बंद करें। अग्निहोत्री ने कहा कि बदलाव का दौर शुरू हो चुका है। कांग्रेसी अब अपना मुंह बंद नहीं रखेंगे। प्रदेश व केंद्र सरकार की जनविरोधी नीतियों से लोगों को घर-घर जाकर अवगत करवाएंगे। ये बात मुकेश अग्निहोत्री ने मंडी संसदीय उपचुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह कि जनसभा को संबोधित करते हुए कही। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए कांग्रेस के लोगों को मुंह बंद रखने को कह रहे हैं। एक महिला व उसके बेटे को डरा रहे हैं। मंडी का विकास कांग्रेस की देन है। मुख्यमंत्री ने चार साल में सिर्फ हेलीकाप्टर उड़ाया। विकास के नाम पर नहीं सिर्फ मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने के लिए लोगों को गुमराह कर रहें है। नेता प्रतिपक्ष ने जयराम ठाकुर से पूछा कि बल्ह में प्रस्तावित एयरपोर्ट का क्या हुआ। एयरपोर्ट अब कांग्रेस बनाएगी। अगर मंडी आपकी तो सड़कों की हालत इतनी दयनीय क्यों हैं। उन्होंने कहा कि जयराम ठाकुर अगर हेलीकाप्टर से उतरते तो सड़कों की हालत ऐसी नहीं होती। लोग खुलकर सामने आएं। सरकार से डरने की जरूरत नहीं। अब प्रतिभा की गाड़ी चल पड़ी है। कांग्रेस को खामोश कहने वालों को जनता चारों खाने चित्त करेगी। यह वीरभद्र परिवार का कर्ज चुकाने का समय है। पैसे से नहीं जनता के दम पर चुनाव जीतेंगे। सुखराम परिवार का नाम लिए बिना उन्होंने कहा कि कुछ लोग घूंघट में रहकर काम करने के बजाय खुलकर सामने आएं, यहीं उचित समय है। बाद में गाड़ी छूट जाएगी।
मंडी संसदीय सीट से कांग्रेस प्रत्याशी एवं पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह की धर्मपत्नी प्रतिभा सिंह ने मंडी रैली के दौरान ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर के चुनाव लड़ने पर कहा था कि चुनाव सेना का मैदान नहीं होता। प्रतिभा के इस बयान पर भाजपा ने पलटवार किया है। इस बयान को लेकर भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना ने कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह को खूब खरी-खोटी सुनाई है। हिमाचल भाजपा प्रभारी ने कहा कि तथाकथित महलों में जन्मी और महलों में रहने वाली प्रतिभा सिंह को क्या पता कि सैनिकों की चुनौतियां क्या होती हैं। सुविधा संपन्न जीवन जीने वालों को सब कुछ मैदान की तरह आसान लगता है। दूसरी ओर सैनिक देश के लिए अपने घर और परिवार से दूर कभी बर्फीले पहाड़ों, कभी तपते रेगिस्तानों तो कभी उफनते समंदर का सामना करते हैं। वे मैदान में नहीं, दुश्मन की गोलियों के बीच सीमाओं पर बने बंकरों में रहकर देश की रक्षा करते हैं।अविनाश राय खन्ना ने कहा कि सैनिकों का काम तो हर वक्त चुनौतियों को स्वीकार करना है। सैनिक हार-जीत की चिंता किए बिना युद्ध के हर मोर्चे पर डटा रहता है। वह कभी भी मैदान नहीं छोड़ता। प्रतिभा सिंह बताएं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के भय से मैदान क्यों छोड़ा था, जो आज राजनीतिक अखाड़े की बात कर रही हैं। उन्होंने प्रतिभा सिंह को दो टूक जवाब देते हुए कहा कि पहले ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर ने सेना में रहते हुए देश की रक्षा की, अब मंडी संसदीय सीट में भारी बहुमत से जीत कर वे जनता की सेवा करेंगे। उन्होंने प्रतिभा सिंह से पूछा कि जब वह पूर्व में सांसद थीं तो जनता के बीच घूमने की मंशा क्यों नहीं रखती थी। आज जब उन्हें लगता है कि सहानुभूति लाकर उनकी राह आसान हो सकती है तो चुनाव लड़ रही हैं, ऐसा संभव नहीं होगा। अविनाश राय खन्ना ने कहा कि जनता प्रतिभा सिंह को मौका देकर देख चुकी है। उन्हें अब तक दो बार सांसद बनाया गया, लेकिन उन्होंने जीत कर जनता की सुध लेना भी गवारा नहीं समझा। यही वजह है, कि उन्हें एक चुनाव में हार देखनी पड़ी तो दूसरे चुनाव में वो बीजेपी का सामना करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाईं। भाजपा नेता ने कहा कि मंडी संसदीय सीट समेत तीनों विधानसभा सीटों पर भाजपा प्रत्याशियों की ही जीत होगी।
भाजपा के प्रचारकों की लिस्ट में अनुराग ठाकुर के अलावा केंद्र से किसी नेता का नाम नहीं है। दिलचस्प बात ये है कि पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा हिमाचल से हैं लेकिन उनका नाम भी इस लिस्ट में शामिल नहीं हैं। पार्टी के प्रचार करने वाले नेताओं की फेहरिस्त में पार्टी के अध्यक्ष सुरेश कश्यप, मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर, पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार, पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल, केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर, हिमाचल भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना व सह प्रभारी संजय टंडन शामिल हैं। ऐसे में केंद्रीय नेतृत्व से कम ही नेताओं के आने की उम्मीद है। पार्टी की ओर से चुनाव प्रचार में आने वाले नेताओं की जो सूची चुनाव आयोग को सौंपी गई है, जिसमें सभी नेता हिमाचल से संबंधित हैं। प्रदेश सरकार में मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, वीरेंद्र कंवर, बिक्रम सिंह ठाकुर, गोविंद सिंह ठाकुर, डॉक्टर राजीव सैजल, डॉक्टर राजीव बिंदल, सुखराम चौधरी, राकेश पठानिया, इंदु गोस्वामी, त्रिलोक कपूर और राकेश जम्वाल के नाम इस सूची में शामिल हैं। ये सभी नेता मंडी फतेहपुर अर्की और जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में उतरे प्रत्याशियों के प्रचार में उतरेंगे। उधर कांग्रेस ने भी स्टार प्रचारकों की सूची जारी कर निर्वाचन आयोग को भी भेज दी है। इनमें कांग्रेस नेता नवजोत सिंह सिद्धू, राज बब्बर, कन्हैया कुमार, पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, सचिन पायलट और पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा प्रमुख हैं। स्टार प्रचारकों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल, हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा, प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला, सह प्रभारी गुरकीरत सिंह कोटली और संजय दत्त भी शामिल हैं। इनके अलावा प्रदेश कांग्रेस से पार्टी प्रदेशाध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, आशा कुमारी, कर्नल धनीराम शांडिल, पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, विधायक राजेंद्र राणा, विधायक विक्रमादित्य सिंह, पूर्व मंत्री कौल सिंह ठाकुर और सेवानिवृत्त मेजर जरनल धर्मवीर सिंह राणा को इस लिस्ट में शामिल किया गया है। शाह- राजनाथ कर सकते है रैली बेशक भाजपा के स्टार प्रचारकों की लिस्ट में केंद्रीय नेताओं के नाम न हो लेकिन पार्टी कुछ बड़े नेताओं की जनसभा करवा सकती है, विशेषकर मंडी संसदीय क्षेत्र में। मंडी में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह की जनसभा होगी। इनके अतिरिक्त भी कई नेता चुनावी संग्राम में कूद सकते है। मांग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैली की भी है लेकिन प्रधानमंत्री उपचुनाव में प्रचार करेंगे ऐसी संभावना कम ही है।
हिमाचल प्रदेश के संसदीय क्षेत्र मंडी और अन्य तीन विधानसभा क्षेत्रों में होने वाले उपचुनाव में 24 उम्मीदवार चुनावी मैदान में है। मंडी संसदीय क्षेत्र में सबसे ज्यादा 8 उम्मीदवारों ने नामांकन पत्र दाखिल किया है। विधानसभा क्षेत्र फतेहपुर में 7, अर्की में 4 और जुब्बल कोटखाई में 5 उम्मीदवारों ने पर्चा भरा है। 11 को नामांकन छंटनी होगी और 13 तक प्रत्याशी नामांकन वापस ले सकेंगे। 28 अक्टूबर की शाम चुनाव प्रचार थम जाएगा। सभी सीटों पर 30 अक्टूबर को मतदान होगा, जबकि मतगणना और परिणाम दो नवंबर को घोषित होंगे। नामांकन के अंतिम दिन शुक्रवार को 15 प्रत्याशियों ने पर्चे दाखिल किए। मंडी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी प्रतिभा सिंह ने नामांकन पत्र भरा। कांग्रेस के सुंदर सिंह ठाकुर (कवरिंग) राष्ट्रीय लोक नीति पार्टी अंबिका श्याम, भारतीय जनता पार्टी से प्रियंका शर्मा ने (कवरिंग) सुभाष मोहन और अनिल कुमार ने निर्दलीय पर्चा भरा। फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर और जीत कुमार ने कवरिंग नामांकन पत्र दाखिल किया है। इसी तरह अंतिम दिन इसी तरह अर्की विधानसभा क्षेत्र से भाजपा प्रत्याशी रतन सिंह पाल और निर्दलीय जीतराम ने नामांकन पत्र दाखिल किया है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर, भाजपा प्रत्याशी नीलम सरैक, चेतन बरागटा, सुमन कदम और केवल राम नेगी ने निर्दलीय नामांकन पत्र भरा। संसदीय क्षेत्र मंडी व अर्की, फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए बेशक 24 उम्मीदवार मैदान में है लेकिन जाहिर में इनमें से सिर्फ चार को जनता का आशीर्वाद मिलेगा। धनतेरस के दिन 2 नवंबर को उपचुनाव के नतीजे आएंगे, ऐसे चार उम्मीदवारों को जहाँ दिवाली से पहले होली मनाने का मौका मिलेगा तो अन्य को मायूस होना पड़ेगा। मान गए गोविन्द और परमार नामांकन के आखिरी दिन तक भाजपा के लिए अर्की , फतेहपुर और जुब्बल कोटखाई में बगावत की स्थिति बनी हुई थी। हालांकि अंतिम दिन भाजपा ने अर्की से पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा और फतेहपुर से पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार को मना लिया। जुब्बल-कोटखाई से चेतन बरागटा ने आजाद उम्मीदवार के रूप में अपना नामांकन भरा। फतेहपुर और जुब्बल पहुंचे सीएम, अर्की में अनुराग फतेहपुर में भाजपा प्रत्याशी बलदेव ठाकुर और जुब्बल-कोटखाई में नीलम सरैक के परचा भरने के दौरान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर खुद मौजूद रहे। कृपाल परमार को तो सीएम जयराम अपने साथ हेलीकाप्टर में शिमला के जुब्बल-कोटखाई लेकर गए। उधर अनुराग ठाकुर अर्की से पार्टी प्रत्याशी रतन सिंह पाल के नामांकन में पहुंचे। अनुराग ने गोविन्द राम शर्मा से भी मुलाकात की और उन्हें मनाने में बड़ी भूमिका निभाई। भारद्वाज के खिलाफ लगे नारे नीलम सरैईक के परचा भरने के बाद आयोजित कार्यक्रम में लोगों की मौजूदगी कम रहने से यहां कुर्सियां भी खाली रह गईं। जुब्बल-कोटखाई में भाजपा का टिकट न मिलने से नाराज चेतन बरागटा के नामांकन के दौरान बड़ी संख्या में लोग जुटे। सड़कों पर इन्होंने भाजपा प्रत्याशी के साथ जा रही गाड़ियां तक रोक डालीं। चेतन बरागटा के समर्थकों ने जुब्बल-कोटखाई के चुनाव प्रभारी सुरेश भारद्वाज के खिलाफ नारे तक लगा दिए। प्रतिभा सिंह के साथ उमड़ी भीड़ कुछ तो कहती है वहीं मंडी में कांग्रेस टिकट पर पूर्व सांसद एवं पूर्व सीएम दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह ने अंतिम दिन शुक्रवार को नामांकन भरा। इस दौरान मंडी के सेरी मंच में प्रतिभा सिंह के कार्यक्रम में जबरदस्त भीड़ उमड़ी। हालात ऐसे थे कि कुर्सियां भी कम पड़ गईं और समर्थकों की भीड़ को देखते हुए बाद में गेट तक बंद करना पड़ा। मुख्यमंत्री के गढ़ में प्रतिभा सिंह के समर्थन में उमड़ी भीड़ ने संकेत दिया कि आगामी उपचुनाव में जबरदस्त घमासान देखने को मिलेगा। नेताओं वाले है ब्रिगेडियर के तेवर मंडी संसदीय क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार ब्रिगेडियर खुशाल चंद के लिए चुनावी राजनीति नई जरूर है लेकिन ब्रिगेडियर एक मंजे हुए नेता की तरह तेवर में है। बीते दिनों नामांकन भरने के बाद पहले ब्रिगेडियर ने भारत माता की जय के नारे के साथ अपने भाषण की शुरुआत की। फिर देवी-देवताओं, शहीदों को नमन किया और मंडी से सांसद रहे दिवंगत रामस्वरूप शर्मा को श्रद्धांजलि दी। ब्रिगेडियर ने पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह को भी श्रद्धांजलि दी और कई दिल जीत लिए। उन्होंने कहा कि वे फौजी है, राजनीति की उतनी समझ नहीं, मगर सेरी मंच उनके लिए नया नहीं है।1970 से इससे जुड़े और सेना में जाने से पहले जब पटवारी थे तो सामने ही उनका दफ्तर हुआ करता था। ब्रिगेडियर ने कहा कि मैं जानता हूं कि यहां की जरूरतें और अपेक्षाएं क्या हैं। मैं केंद्र के सामने हिमाचल के मुद्दे रखूंगा।
फतेहपुर विधानसभा क्षेत्र, कांग्रेस का वो गढ़ जिसे जीत पाना भाजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। पिछले तीन चुनाव में कांग्रेस यहां जीत की हैट्रिक लगा चुकी है। कारण चाहे भाजपा का कमज़ोर संगठन और आपसी मतभेद रहे हो या फतेहपुर की जनता का सुजान सिंह पठानिया पर भरोसा, कांग्रेस यहां हर बार जीती। अब सुजान सिंह पठानिया के निधन के बाद ये उपचुनाव भाजपा के लिए वापसी का एक मौका है और शायद इसीलिए भाजपा ने यहां अंतर्कलह साधने में पूरा ज़ोर लगा दिया। रूठों को मनाने की जो जुगत भाजपा ने फतेहपुर में लगाईं है उसे देख सभी हैरान है। कांग्रेस ने भी जैसे - तैसे विद्रोह और अंतर्कलह की स्थिति को कुछ हद तक साध ही ली है, बाकी नतीजे तय करेंगे। परन्तु फतेहपुर का चुनाव सिर्फ इन दो मुख्य राजनीतिक दलों तक ही सीमित नहीं है। इन उपचुनाव के लिए कुल 6 प्रत्याशियों ने नामांकन भरा है और ये स्पष्ट है कि यहां निर्दलीय उम्मीदवार समीकरण बना और बिगाड़ सकते है। फतेहपुर में कांग्रेस ने भवानी पठानिया तो भाजपा ने बलदेव ठाकुर को मैदान में उतारा है। इनके अलावा यहां राजन सुशांत (निर्दलीय ), पंकज दर्शी (हिमाचल जनक्रांति पार्टी), प्रेमचंद (निर्दलीय), डॉ. सोमाल (निर्दलीय) भी मैदान में है। भाजपा को बलदेव के 'बल' से उम्मीद भाजपा ने यहां पूर्व प्रत्याशी कृपाल परमार का टिकट काट बलदेव ठाकुर को तरजीह दी है। पूर्व में पार्टी के मंडल अध्यक्ष व वर्तमान में प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य बलदेव ठाकुर लम्बे समय से पार्टी से जुड़े है और एक किसान परिवार से संबंध रखते हैं। बलदेव ठाकुर ने अब तक दो चुनाव लड़े हैं। पहला 2012 में भाजपा प्रत्याशी के तौर पर और दूसरा 2017 में एक आजाद उम्मीदवार के तौर पर। वे दोनों ही चुनाव हारे हैं। बलदेव ठाकुर वर्तमान में प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य भी हैं। 2017 में पार्टी से बाहर होने के बाद लोकसभा के चुनाव में उन्हें वापस संगठन में जगह दी गई थी और अब उन्हें भाजपा ने विधानसभा उपचुनाव के लिए अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया है। परन्तु कृपाल परमार के समर्थक भाजपा के इस निर्णय से बिलकुल भी संतुष्ट नहीं थे। शुरुआत से ही राज्यसभा के सांसद रह चुके प्रदेश भाजपा के पूर्व उपाध्यक्ष, पूर्व महासचिव कृपाल परमार का नाम प्रत्याशियों की सूची में सबसे आगे चल रहा थ। समर्थक उनका टिकट लगभग तय मान रहे थे परन्तु क्षेत्र में विरोध होने के चलते उनका टिकट कट गया। उनके अलावा जगदेव ठाकुर और रीता ठाकुर का नाम भी आगे आया परन्तु अंत में बलदेव बाज़ी मार गए। कृपाल परमार का टिकट काटने पर फतेहपुर भाजपा मंडल के सभी सदस्यों ने संयुक्त इस्तीफे सौंप दिए थे। पार्टी हाईकमान की मनमानी को मानने के लिए कृपाल परमार के समर्थक बिलकुल भी तैयार नहीं थे। परन्तु मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने स्थिति समय रहते अंडर कण्ट्रोल कर ली। मुख्यमंत्री प्रत्याशी बलदेव ठाकुर के नामांकन के लिए फतेहपुर गए और कृपाल परमार से बात की। वे कृपाल परमार को शांत कर हेलिकॉप्टर में उन्हें अपने साथ फतेहपुर से जुब्बल कोटखाई भी ले आए। बाद में वह शिमला भी सीएम के साथ ही आए जिससे फतेहपुर यहां बगावत का खतरा टल गया। बता दें की 15 साल से भी ज्यादा वक्त में ये पहली दफे है जब इस सीट पर भाजपा का कोई बड़ा बागी नहीं होगा। फतेहपुर भाजपा में अंतर्कलह की ये गाथा 2012 से शुरू हुई है । फतेहपुर में भाजपा ने बलदेव ठाकुर को 2012 में टिकट दिया था। वे चुनाव लड़े परन्तु जीत नहीं पाए। इसके बाद 2017 में बलदेव ठाकुर का टिकट काट कृपाल परमार को टिकट दिया गया और बलदेव ठाकुर ने भाजपा प्रत्याशी के खिलाफ बतौर आजाद उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा। बलदेव तो नहीं जीत पाए परन्तु उनकी बगावत ने भाजपा के समीकरण भी बिगाड़ दिए। इस बार पार्टी ने उल्टा किया और कृपाल का टिकट काट कर बलदेव को दे दिया। बहरहाल मुख्यमंत्री ने भले ही बाहरी तौर पर कृपाल परमार को समझा लिया हो, बेशक हाथ मिल गए हो लेकिन दिल मिले है या नहीं ये आकलन का विषय होगा। क्या कृपाल के समर्थक दिल से बलदेव का साथ देंगे, ये ही यक्ष प्रश्न है। कांग्रेस में जय भवानी का नारा बुलंद कांग्रेस ने फतेहपुर उपचुनाव में पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया के बेटे भवानी सिंह पठानिया को टिकट दिया है। भवानी सिंह पठानिया कॉर्पोरेट जगत की नौकरी छोड़कर अपने पिता स्व सुजान सिंह पठानिया की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने के लिए फतेहपुर लौटे है। लगातार वंशवाद का हल्ला मचने के बावजूद पार्टी ने उन्ही पर भरोसा जताया है। इस पर कई कांग्रेसी बेहद नाराज़ हुए। निशावर सिंह ने तो बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनावी मैदान में उतरने का ऐलान भी कर दिया था। टिकट आवंटन से नाराज़ कार्यकर्ताओं ने भवानी पठानिया को चुनावी रणक्षेत्र में चुनौती देने की बात भी कही थी परन्तु अब सब शांत है। अब भवानी कांग्रेस से अकेले ही मैदान में है और मात तौर पर कांग्रेस में जय भवानी का नारा बुलंद है। पर भवानी और विधानसभा के बीच अंतर्कलह की खाई होगी जिसे पाटना भवानी के सामने चुनौती है। अलबत्ता कोई बागी मैदान में नहीं है लेकिन सभी एकजुट होकर बहनी का साथ देंगे ऐसी स्थिति नहीं दिख रही। 7 बार विधायक स्व. पठानिया भवानी पठानिया के पिता एवं पूर्व मंत्री स्व. सुजान सिंह पठानिया 1977 से लेकर 2017 तक सात बार विधायक रहे। वह 1977, 1990, 1993, 2003 में ज्वाली विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीत कर आए। उसके बाद 2009 के उप चुनाव में भी ज्वाली से जीते थे। बदले परिसीमन के बाद वर्ष 2012 और 2017 के चुनाव में वे फतेहपुर सीट से जीते। सुजान सिंह पठानिया वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी माने जाते थे। वीरभद्र सरकार में वह दो बार प्रदेश के मंत्री भी रहे हैं। 1977 में सुजान सिंह पठानिया ने जनता पार्टी में शामिल होने के लिए सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। 1980 में सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस में शामिल हो गए थे। पिता की इस मजबूत राजनैतिक विरासत की बिसात पर भवानी एक मंजे हुए नेता की तरह नाप -तोल कर अपने राजनीति कदम आगे बढ़ाते दिख रहे है।
पहली बार 1952 के चुनाव में राजकुमारी अमृत कौर व गोपी राम निर्वाचित हुए थे, उस दौरान मंडी से दो सांसद चुने गए थे। इसके बाद मंडी रियासत के राजा जोगिंद्र सेन ने 1962 तक प्रतिनिधित्व किया। फिर सुकेत रियासत के राजा ललित सेन विजयी रहे थे। कांग्रेस ने फिर रामपुर रियासत के वीरभद्र सिंह को यहां से मैदान में उतारा। 1977 से 1979 की अवधि में जनता पार्टी के गंगा सिंह ने क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। तब पहली बार यहां कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। 1980 के चुनाव में फिर वीरभद्र सिंह विजयी हुए। 1985 में पंडित सुखराम संसद पहुंचे। 1989 के आम चुनाव में यहां से भाजपा ने कुल्लू के महेश्वर सिंह को मैदान में उतारा और लोकसभा में पहुंचे। 1991 के चुनाव में पंडित सुखराम ने फिर से जीत हासिल की। 1998 में महेश्वर सिंह ने कांग्रेस की प्रतिभा सिंह को पराजित किया था। 2004 में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2009 में वीरभद्र सिंह ने महेश्वर सिंह को हराया। 2013 के उपचुनाव में कांग्रेस की प्रतिभा सिंह विजयी रही। 2014 और 2019 के चुनाव में लगातार दो बार भाजपा के रामस्वरूप शर्मा विजयी रहे। अब उनके निधन से यहां उपचुनाव हो रहा है। 17 विधानसभा क्षेत्रों का बनेगा रिपोर्ट कार्ड मंडी संसदीय क्षेत्र में 17 विधानसभा क्षेत्र आते है। जाहिर है ऐसे में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों का सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों में इम्तिहान होगा। ये हिमाचल की कुल 68 विधानसभा सीटों का 25 फीसदी है। ऐसे में 2022 से पहले मंडी संसदीय उपचुनाव में बेहतर करने का दबाव दोनों राजनीतिक दलों पर होगा। जीत मिले या हार, पर विश्लेषण सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों का होना है। जाहिर है स्थानीय नेताओं पर भी बेहतर करने का दबाव रहेगा। फिलवक्त इन 17 विधानसभा क्षेत्रों में से सिर्फ किन्नौर, रामपुर और कुल्लू में ही कांग्रेस के विधायक है। 2022 के लिए कांग्रेसी की कितनी तैयारी है, इसकी झलक भी लोकसभा उपचुनाव में देखने को मिलेगी। चुनाव के बाद सभी सम्बंधित विधानसभा क्षेत्रों का रिपोर्ट कार्ड बनना भी तय है। 2017 से कांग्रेस के सितारे गर्दिश में, भाजपा लगातार हावी मंडी में 2017 का विधानसभा चुनाव बुरी तरह हारने के बाद कांग्रेस 2019 का लोकसभा चुनाव भी रिकॉर्ड अंतर से हारी थी। हालहीं में हुए नगर निगम चुनाव में कांग्रेस को 15 में से सिर्फ 4 वार्ड में जीत मिली। जबकि इसी वर्ष जनवरी में हुए जिला परिषद् चुनाव में 36 वार्ड में से कांग्रेस ने सिर्फ एक वार्ड पर जीत दर्ज की थी। कमोबेश ऐसी ही स्थिति पंचायत समिति में भी रही जहां भाजपा का दबदबा रहा। अब प्रतिभा सिंह से कांग्रेस को उम्मीद है। कर्मचारी नेता भी लड़ चुके है चुनाव हिमाचल की कर्मचारी राजनीति के कई दिग्गज असली सियासी पटल पर भी अपनी किस्मत आजमाते रहे है। मंडी संसदीय क्षेत्र में भी कर्मचारी नेता अपनी किस्मत आजमा चुके है। मंडी संसदीय क्षेत्र में इससे पहले भाजपा दो कर्मचारी नेताओं को टिकट दे चुकी है, 1984 में व 1996 में और दोनों ही मर्तबा भाजपा को शिकस्त मिली। प्रदेश कर्मचारी महासंघ में अध्यक्ष के पद पर रह चुके फायर ब्रांड कर्मचारी नेता मधुकर और ठाकुर अदन सिंह ने यहां से चुनाव लड़ा था। इन दोनों ने हिमाचल की राजनीति के चाणक्य पंडित सुखराम के खिलाफ चुनाव लड़ा। हालांकि दोनों को ही चुनावों में सफलता नहीं मिली थी, लेकिन संसदीय क्षेत्र के चुनाव में कर्मचारी नेताओं ने दिग्गज नेता को टक्कर दी थी। मधुकर ने 1984 में भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था, तो वहीं अदन सिंह ठाकुर ने 1996 में भाजपा के ही टिकट पर चुनाव लड़ा था।
मंडी में कांग्रेस की परिस्थिति टिकट के तलबगार भी बिगाड़ सकते है। कांग्रेस की टिकट के लिए लगी लम्बी कतार में पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भी शामिल थे। पिछली बार की तरह इस बार भी पंडित जी आश्रय को टिकट दिलवाना चाहते थे। आश्रय कई दिनों तक दिल्ली भी घूमें परन्तु टिकट नहीं मिला। दरअसल 2017 में कांग्रेस को झटका देकर भाजपा में आए पंडित सुखराम अपने पोते आश्रय को सांसद बना देखना चाहते थे। इसी अरमान के साथ दादा-पोता कांग्रेस में चले गए। कांग्रेस ने आश्रय को टिकट भी दे दिया, पर हुआ वहीँ जो तमाम राजनीतिक पंडित मानकर चल रहे थे। 4 लाख 5 हज़ार 459 वोट के अंतर से आश्रय बुरी तरह चुनाव हार गए। शायद भाजपा ने भी नहीं सोचा होगा कि उनकी जीत का अंतर इतना विशाल होगा। 2019 के लाेकसभा चुनाव में भाजपा ने कांग्रेस काे मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली हर विधानसभा सीट पर पराजित किया था। उस चुनाव में रामस्वरूप शर्मा को 6 लाख 47 हजार 189 मत पड़े थे जबकि कांग्रेस के आश्रय शर्मा को 2 लाख 41 हजार 730 मत मिले थे। यहां तक कि जिन विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के विधायक थे, वहां पर भी कांग्रेस के आश्रय काे बढ़त नहीं मिल पाई थी। यानी किन्नौर, कुल्लू और रामपुर विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के नुमाइंदे होने पर भी जनता ने कांग्रेस पर भरोसा नहीं जताया था। इस हार के बाद से ही मंडी में कांग्रेस कभी भी प्रभावशाली नहीं दिखी। कमोबेश ऐसा ही हाल आश्रय शर्मा का भी है। इस बार टिकट काटने के बाद परिस्थिति बदल गई है। कांग्रेस ने मंडी लोकसभा उपचुनाव के लिए आश्रय को प्रयवेक्षक नियुक्त किया है परन्तु सियासी माहिरों की माने तो आश्रय भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे है। खुद उनके पिता अनिल शर्मा द्वारा दिए गए एक ब्यान में ये कहा गया है कि अब दोनों बाप -बेटा एक ही पार्टी में रहेंगे। आश्रय भाजपा में जाते है या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा, मगर कयासों से सियासी बाजार गर्म है। दो परिवारों ने ही कांग्रेस को दिलाई जीत मंडी संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस का झंडा पंडित सुखराम और वीरभद्र सिंह के परिवार ने ही बुलंद रखा है। 1971 से अब तक हुए 13 लोकसभा चुनाव और एक उप चुनाव में कांग्रेस को उप चुनाव सहित 8 में जीत मिली है और ये सभी जीत पंडित सुखराम, वीरभद्र सिंह और वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह के नाम दर्ज है। यानी 50 साल से मंडी में कांग्रेस की सियासत सिर्फ दो परिवारों के भरोसे चली है। अब फिर कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह को ही टिकट दिया है।
मंडी संसदीय उपचुनाव में एक तरफ सहानुभूति की लहर पर सवार होकर कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह पर दाव खेला है तो दूसरी तरफ भाजपा ने कारगिल हीरो रि. ब्रिगेडियर कुशाल चंद ठाकुर को मैदान में उतार जय हिन्द का नारा बुलंद किया है। निसंदेह मुकाबला कड़ा है, दिलचस्प है। मंडी संसदीय चुनाव जहां कांग्रेस के लिए वापसी का एक मौका है तो वहीं भाजपा के लिए ये वर्चस्व बरकरार रखने की जंग है। हारने वाले का नुक्सान दोनों तरफ बराबर होगा। मंडी के इस मुकाबले को अभी से सैनिक सम्मान बनाम वीरभद्र सिंह को श्रद्धांजलि के सियासी चश्मे से देखा जा रहा है। यूँ तो ये मुकाबला प्रतिभा सिंह विरुद्ध ब्रिगेडियर कुशाल चंद ठाकुर में है पर राजनीतिक नजरिए से इसे प्रतिभा सिंह विरुद्ध जयराम ठाकुर भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। दरअसल दो बार की सांसद प्रतिभा के सामने मोटे तौर पर खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने ही कमान संभाली हुई है। भाजपा इस चुनाव को मुख्यमंत्री के चेहरे पर ही लड़ने जा रही है। ऐसे में ये ब्रिगेडियर से ज्यादा जयराम ठाकुर का इम्तिहान है। वीरभद्र नहीं है, पर उन्हीं के नाम पर लड़ा जा रहा चुनाव मंडी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस ने प्रतिभा सिंह को मैदान में उतारा है। प्रतिभा सिंह को काफी समय पहले से ही मंडी संसदीय उपचुनाव के लिए सबसे मज़बूत प्रत्याशी माना जा रहा था। प्रतिभा सिंह खुलकर कह रही है कि वे वीरभद्र के नाम पर ही चुनाव लड़ रही है। बाकायदा सोशल मीडिया पर वीरभद्र सिंह को श्रद्धांजलि के नाम पर वोट की अपील हो रही है। प्रतिभा सिंह और कांग्रेस कह रही है कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह भले ही उनके और कांग्रेस परिवार के बीच नहीं है परंतु उनका आशीर्वाद और उनके प्रदेश में किए विकास कार्य सबके सामने हैं। यानी वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति के बल पर मंडी चुनाव जीतने की तैयारी है। इसके अलावा कांग्रेस करुणामूलक नौकरियां, बेरोजगारी, महंगाई और सेब के गिरते दामों को मुद्दा बनाकर मैदान में है। मंडी के रण में प्रतिभा सिंह पांचवीं बार मैदान में उतरी है। इससे पहले उन्हें दो बार जीत और दो बार हार मिली है। पहली जीत उन्हें 2004 के आम चुनाव व दूसरी 2013 के उपचुनाव में मिली थी। मंडी संसदीय क्षेत्र वीरभद्र परिवार की कर्मभूमि रही है। वीरभद्र सिंह ने 1971 में मंडी संसदीय क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ा था। यहीं से चुनाव लड़कर वह केंद्र में मंत्री बने थे। प्रतिभा सिंह 1998 में सक्रिय राजनीति में आई थी। पहला चुनाव इसी संसदीय क्षेत्र से लड़ा था, जब भाजपा के महेश्वर सिंह ने उन्हें करीब सवा लाख मतों से पराजित किया था।1998 में केंद्र में एनडीए की सरकार 13 माह ही चल पाई थी जिसके पश्चात 1999 में लोकसभा का दोबारा चुनाव हुआ था। पर तब प्रतिभा सिंह ने चुनाव नहीं लड़ा। 2004 के आम लोकसभा चुनाव में उन्होंने दूसरी बार अपनी किस्मत आजमाई। तब उन्होंने महेश्वर सिंह से 1998 की हार का बदला लिया था। 2009 का लोकसभा चुनाव वीरभद्र सिंह ने लड़ा था और शनदार जीत दर्ज की थी। 2012 में प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीरभद्र सिंह ने लोकसभा से त्यागपत्र दे दिया। फिर 2013 में उपचुनाव हुआ तो प्रतिभा तीसरी बार मैदान में उतरी और वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को करीब 1.39 लाख मतों से शिकस्त देकर दूसरी बार संसद सदस्य निर्वाचित हुई थी। इसके साल भर बाद 2014 में लोकसभा के आम चुनाव हुए और माेदी लहर में भाजपा के रामस्वरूप शर्मा ने उन्हें 39 हजार से अधिक मतों से पराजित किय । प्रदेश में उस समय कांग्रेस सरकार थी। प्रतिभा सिंह की हार से सब दंग रह गए थे। अब करीब सात साल बाद प्रतिभा सिंह दोबारा चुनावी अखाड़े में उतरी हैं। ये उनका पहला चुनाव है जिसमें वीरभद्र सिंह उनके साथ नहीं है लेकिन उनका नाम अब भी प्रतिभा की ताकत दिख रहा है। ब्रिगेडियर चुनावी मोर्चे पर, भाजपाई सेना एकजुट भाजपा ने इस बार मंडी से एक नए चेहरे पर दाव खेला है। कारगिल हीरो सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर को मैदान में उतारना भाजपा का एक बड़ा कदम माना जा रहा है। उन्हें मैदान में उतारकर भाजपा ने 45,000 सैनिक परिवारों को साधने का प्रयास किया है। इस संसदीय क्षेत्र में सैनिक परिवारों के करीब डेढ़ लाख से अधिक वोट हैं। काफी समय से यहां सेना की पृष्ठभूमि रखने वाले व्यक्ति को टिकट देने की मांग उठती रही है। ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर 2014 से टिकट की दौड़ में थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी पैनल में नामांकित हुए, लेकिन टिकट रामस्वरूप शर्मा की झोली में चला गया। 2017 के विधानसभा चुनाव में द्रंग हलके से टिकट मिलने की उम्मीद थी। पैनल में नामांकित हुए, टिकट जवाहर ठाकुर ले गए। 2019 के लोकसभा चुनाव में फिर टिकट के प्रबल दावेदार थे। भाजपा ने टिकट दोबारा रामस्वरूप शर्मा को थमा दिया। कवरिंग उम्मीदवार बना भाजपा ने ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर को मान सम्मान देने का प्रयास किया था। 2017 में प्रदेश में भाजपा सरकार बनने पर किसी अहम पद पर उनकी तैनाती होने की उम्मीद जताई जा रही थी। इसके लिए भी उन्हें करीब ढाई साल तक इंतजार करना पड़ा। हिमाचल प्रदेश एक्स सर्विसमैन कारपोरेशन का अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक नियुक्त कर सरकार ने उनकी नाराजगी दूर करने का प्रयास किया था। सात साल बाद चौथे प्रयास में टिकट उनकी झोली में आया है। खास बात ये है कि ब्रिगेडियर को टिकट देने पर भाजपा में कोई विरोध नहीं दिखा। यानी पार्टी उनके नाम पर एकजुट दिखी है। टिकट की दौड़ में शामिल अन्य भाजपा प्रत्याशी भले ही रेस से बाहर हो गए परन्तु बगावत जैसी स्थिति मंडी में देखने को नहीं मिली। टिकट के चाहवान महेश्वर सिंह, पंकज जम्वाल और अजय राणा के हाथ बेशक मायूसी लगी पर वे अब भी भाजपा के समर्थन में ही दिख रहे है। अजय राणा को बार-बार आस्था बदलने का खामियाज़ा भुगतना पड़ा तो महेशवर सिंह के लिए भी टिकट न मिलने का कारण कुछ ऐसा ही है। अजय राणा को 2014 के चुनाव की तरह इस बार भी टिकट का प्रबल दावेदार माना जा रहा था। इस बार के पैनल में उनका नाम दिल्ली तक गया, लेकिन वहां मुहर नहीं लग पाई। बिग्रेडियर खुशाल ठाकुर को मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सहित संसदीय क्षेत्र के ज्यादातर नेताओं का आशीर्वाद था। पार्टी का सर्वे भी उनके पक्ष में था। इन्हीं दो बातों के आधार पर टिकट उनकी झोली में आ गया जिसे बाकि लोगो ने स्वीकार लिया। पांच साल में दस गुना बढ़ा था हार का अंतर 2014 के लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थी और उस चुनाव में उन्हें करीब 40 हज़ार वोटों से शिकस्त मिली थी। जबकि 2019 में आश्रय शर्मा 4 लाख से भी अधिक वोटों से हारे थे। यानी 2014 में जो अंतर करीब 40 हज़ार था वो पांच साल में 10 गुना बढ़कर करीब चार लाख हो गया। दिग्गज भी धराशाई हुए है मंडी में इमरजेंसी के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में इंदिरा विरोधी लहर में वीरभद्र सिंह मंडी से करीब 36 हज़ार वोट से चुनाव हार गए थे। 1989 में पंडित सुखराम करीब 28 हज़ार वोट से चुनाव हारे। उन्हें महेश्वर सिंह ने चुनाव हराया था। इसके बाद 1991 में महेश्वर सिंह को पंडित सुखराम ने परास्त किया। 1998 में महेश्वर सिंह ने प्रतिभा सिंह को चुनाव हराया। 1999 में महेश्वर ने कौल सिंह ठाकुर को हराया। महेश्वर सिंह इसके बाद 2004 में प्रतिभा सिंह से और 2009 में वीरभद्र सिंह के सामने चुनाव हार गए। वर्तमान में सूबे के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर 2013 के उप चुनाव में प्रतिभा सिंह से हारे। वहीं 2014 के आम चुनाव में प्रतिभा सिंह को रामस्वरूप शर्मा ने हराया।
जुब्बल कोटखाई में भाजपा का एक धड़ा अब भी नीलम सरैक के साथ है। ये वो लोग है जो या तो पार्टी के निष्ठावान कार्यकर्त्ता है जिनके लिए पार्टी हाईकमान का निर्णय सर्वोपरि है या वो लोग जो शुरुआत से लेकर ही नीलम सरैक को टिकट मिलने की पैरवी कर रहे थे। भाजपा में अंतर्कलह की स्थिति कितनी प्रखर है ये इस बात से समझा जा सकता है की नीलम के समर्थक भाजपाई चेतन समर्थकों पर मारपीट के आरोप लगा रहे है। जान को खतरे की बात भी कही गई है। इस मुद्दे को भुनाया भी जा रहा है। हालांकि नीलम स्वयं अब भी चेतन को अपना छोटा भाई ही करार दे रही है। नीलम का चुनावी उद्धघोष भी स्वर्गीय नरेंद्र ब्रागटा द्वारा किये गए कार्यों को पूरा करने के आसपास ही घूम रहा है। नीलम इस क्षेत्र से तीन बार जिला परिषद की सदस्य रह चुकी है और 1997 से पार्टी के साथ जुड़ी हुई है। उन्हें चुनावी राजनीति का अनुभव भी है और हाईकमान का आशीर्वाद भी, बस दो धड़ों में बट चुकी भाजपा उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। नीलम की योगयता पर भी कोई संदेह नहीं है, बस चूक यहां भाजपा आलाकमान से हुई लगती है क्यों कि अगर शुरू से चेतन को टिकट के लिए आश्वस्त नहीं किया जाता तो शायद कि इस तरह का विद्रोह होता। बहरहाल स्थिति जो भी हो पर भाजपा के चुनाव मैनेजमेंट पर कोई संशय नहीं है। जमीनी स्तर पर पार्टी बेहद बारीकी से डैमेज कण्ट्रोल में जुटी है और निसंदेह चेतन को मनाने के प्रयास हो रहे है। नीलम को चुनाव लड़ने का ख़ासा अनुभव भी है जो इस चुनाव में उनके काम आ सकता है।
भाजपा की लड़ाई से इतर जुब्बल-कोटखाई निर्वाचन क्षेत्र में कांग्रेस द्वारा सरकार पर ताबड़तोड़ हमले कर रही और बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दे लेकर जनता के बीच है। यहां कांग्रेस एकजुट है और रोहित ठाकुर एक मजबूत उम्मीदवार दिख रहे। रोहित 2003 और 2012 में जुब्बल कोटखाई से विधायक रहे है। रोहित ठाकुर ही वो नेता जिन्होंने साल 2003 में पूर्व विधायक स्व नरेंद्र बरागटा को हराया था। 2017 में भी रोहित ठाकुर मात्र 1062 वोटो से हारे थे। ऐसे में टिकट के लिए उन्हें किसी अन्य चेहरे से ज्यादा चुनौती नहीं मिली और अब पूरी कांग्रेस एक जुट होकर उन्हें जीत दिलाने में लगी है। 2017 में हारने के बाद भी रोहित लगातार क्षेत्र में सक्रीय रहे है, उनकी जमीनी पकड़ भी क्षेत्र में स्पष्ट देखने को मिलती है। पर अति आत्मविश्वास की स्थिति हमेशा कांग्रेस के लिए बड़ी परेशानी रही है, इससे कांग्रेस को बचना होगा। 2017 के चुनाव में भी कांग्रेस जीत को लेकर आश्वस्त थी और नतीजा सबके सामने है। वीरभद्र सरकार ने दी थी सीए स्टोर को मंजूरी पराला मंडी में सीए स्टोर स्थापित करने के मुद्दे पर श्रेय लेने की होड़ लगी है। भाजपाई इसे अपनी उपलब्धि बता रहे है तो कांग्रेस प्रत्याशी रोहित ठाकुर का कहना है कि किसी भी बड़ी परियोजना के लिए मंजूरी मिलना मुश्किल कार्य होता है, जबकि घोषणाएं करना आसान। वीरभद्र सरकार में प्रदेश को मिले सबसे बड़े 1134 करोड़ के बागवानी प्रोजेक्ट के तहत सीए स्टोर को पराला में बनाने की मंजूरी मिली थी। इसके साथ ही अन्य क्षेत्रों में भी सीए स्टोर निर्माण की मंजूरी दी गई थी। भाजपा सरकार का इस प्रोजेक्ट से कोई लेना देना नहीं है, यह सरकार केवल श्रेय लेने की होड़ में लगी है। जयराम सरकार ने तो प्रदेश के बागवानों को मिलने वाली निशुल्क कीटनाशक दवाइयों पर भी रोक लगा दी है। इससे पता लगता है कि यह सरकार बागवानों की कितनी हितेषी है? इस प्रोजेक्ट को मंजूर करवाने में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह व पूर्व बागवानी मंत्री विद्या स्टोक्स का योगदान रहा है। रोहित कहते है कि वर्तमान बागवानी मंत्री के ब्यान तो साफ दर्शाते हैं कि उन्हें बागवानी की कोई समझ ही नहीं है। कांग्रेस सरकार ने एपीडा के तहत हिमाचल में सात सीए स्टोर स्थापित करने का प्लान तैयार किया था। इनमें से 3 सीए स्टोर जुब्बल कोटखाई में ही स्थापित करने का प्रावधान रखा गया था, चूंकि यह क्षेत्र सेब बाहुल्य के लिए जाना जाता है।
सत्ता में हो या फिर विपक्ष में, स्व. बरागटा प्रदेश के बागवानों के हर मसले की आवाज बने। विधानसभा सदन से लेकर केंद्र सरकार तक बागवानों की आवाज बुलंद करने में उन्होंने कोई कमी नहीं छाेड़ी। वर्तमान जयराम सरकार में वे मुख्य सचेतक थे और विधानसभा के हर सत्र में वो बागवानों के हितों की बात करते दिखते थे। सेब पर कमीशन हो या फिर फसल बीमा कंपनियों की ओर से भ्रष्टाचार का मसला, इन सभी एजेंडों पर स्व. बरागटा ने सरकार के समक्ष ठोक-बजा कर बागवानों का पक्ष रखा। यहां तक की देश की विभिन्न मंडियों में बिकने वाले विदेशी सेब पर आयात शुल्क बढ़ाने का मुद्दा भी स्व. बरागटा उठाते रहे। 1998 की धूमल सरकार में बागवानी मंत्री रहते हुए नरेंद्र बरागटा ने तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व.अटल बिहारी वाजपेयी के समक्ष भी ये मामला उठाया था, ताकि प्रदेश के बागवानों को होने वाले नुकसान से बचाया जा सके। इसके बाद अगली धूमल सरकार में भी वे बागवानी मंत्री थे और यूपीए सरकार के सामने ये विषय रखा। जब भी बेमौसम बारिश और ओलावृष्टि के चलते बागवानों की फसल नष्ट होती, तो उस समय एक ही नेता सामने आता रहा, वह थे नरेंद्र बरागटा। हाल ही में हुई बारिश और ओलावृष्टि के बाद स्व. बरागटा ने प्रदेश सरकार से मांग की थी कि वह तुरंत सेब क्षेत्रों में टीमें भेजे और बागवानों किसानों को तुरंत मुआवजा प्रदान करे। अपनी ही सरकार को आईना दिखाते हुए उन्होंने कहा था कि केवल आकलन करने से कुछ नहीं होगा क्योंकि पिछले साल हुए नुकसान पर भी सरकार केवल आकलन ही करती रह गई थी। जयराम राज में नहीं मिला मंत्री पद भारतीय जनता पार्टी में स्व नरेंद्र बरागटा के कद का अंदाजा इसी बात से पता चलता है कि 1998 में पहली बार विधायक बनते ही उन्हें धूमल सरकार में बागवानी राज्य मंत्री बनाकर स्वतंत्र प्रभार सौंपा गया। इसके बाद प्रेम कुमार धूमल की सरकार के दूसरे कार्यकाल में उन्हें कैबिनेट दर्जा दिया गया। बागवानी विभाग के अलावा तकनीकी शिक्षा विभाग का जिम्मा दिया गया था। 2012 में स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर राजीव बिंदल के त्यागपत्र देने के बाद स्वास्थ्य विभाग का जिम्मा भी उन्हें सौंपा गया था। 2017 में नरेंद्र बरागटा तीसरी बार विधायक बने और प्रदेश में जयराम सरकार बनी। भाजपा की बदली हुई सियासत ने उन्हें मंत्रिपद से तो वंचित रखा गया, लेकिन उन्हें पूरी तरह दरकिनार करना भी मुमकिन नहीं था, सो उन्हें मुख्य सचेतक बनाकर कैबिनेट दर्जा दिया गया।
बरसात का मौसम खत्म हुआ और उपचुनाव आ गए, साथ ही शुरू हो गई कच्चे -पक्के वादों की बरसात और इस बरसात में उठ रही बगावत की गंध ने सियासी तौर पर माहौल और भी रोचक बना दिया है। जुब्बल कोटखाई में भाजपा दो धड़ों में बंट गई गई है। एक तरफ बरागटा को श्रद्धांजलि देने वाले लोग जमा हो गए है तो दूसरी तरफ भाजपा के निष्ठावान सिपाही बचे है। दो गुटों में बंटें ये भाजपाई पहले आपस में लड़ेंगे और फिर कांग्रेस से मुकाबले पर बात होगी। वहीं जुब्बल कोटखाई कांग्रेस एकजुट होकर भजपाईओं के इस तमाशे का आनंद ले रही है। पर कांग्रेस की राह इतनी भी आसान नहीं होगी जितना कुछ समर्थक सोच कर चल रहे है। विशेषकर बरागटा के प्रति दिख रही सहानुभूति कुछ भी गुल खिला सकती है, बशर्ते वे मैदान में डटे रहे। बहरहाल यदि बरागटा डटे रहे तो ये सहानुभूति कितनी वोट में तब्दील होती है और किस किसको नुकसान पहुंचाएगी, ये ही विश्लेषण का विषय होगा। जुब्बल कोटखाई की राजनीति समझने वाले मानते है कि इसे सीधे तौर पर सिर्फ भाजपा का नुक्सान नहीं समझना चाहिए, जब सहानुभूति प्रखर होती है तो राजनैतिक सीमायें नहीं देखती। जो माहौल और जन सैलाब चेतन बरागटा को टिकट न मिलने पर आहत हुए लोगों ने खड़ा किया उसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता और न ही अनदेखा किया जा सकता है भाजपा की सुनियोजित रणनीतियों को। खैर आगे जो भी हो इतना स्पष्ट है की जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद दिलचस्प होने वाला है। ये उपचुनाव भाजपा और कांग्रेस दोनों के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। भाजपा के सामने सीट बचाने की चुनौती है तो कांग्रेस के सामने अपनी परंपरागत सीट को फिर कब्जाने की, वहीँ चेतन बरागटा ने इसे मान सम्मान की जंग बना लिया है। कांग्रेस ने जुब्बल कोटखाई से पूर्व विधायक रोहित ठाकुर को टिकट दिया है, जबकि भाजपा ने गहन मंथन और जोड़ तोड़ के बाद चेतन बरागटा का टिकट काट कर नीलम सरैक को टिकट दिया है। नीलम सरैक को टिकट देकर पार्टी एक मापदंड स्थापित करना चाहती थी कि भाजपा वंशवाद और परिवारवाद के खिलाफ है। हालाँकि ये पोलिटिकल स्टंट पार्टी को उल्टा पड़ता दिखाई दे रहा है। भाजपा ने शायद कभी नहीं सोचा होगा की चेतन के समर्थन में इतने लोग मैदान में उतर भाजपा के खिलाफ बगावत कर देंगे। चेतन पूरी तैयारी कर चुके थे, टिकट न मिलने पर उन्होंने ये तक कह डाला कि उन्हें बर्बाद कर दिया, उन्हें धोखा दिया गया। चेतन समर्थकों के बीच आकर रो दिए और पूरा माहौल बदल दिया। भाजपा के कई समर्थक भी चेतन को टिकट न मिलने से खुद को ठगा सा महसूस कर रहे है। दरअसल जुब्बल कोटखाई ऐसा उपचुनाव क्षेत्र है जहां चुनाव की घोषणा से पहले ही प्रचार प्रसार शुरू हो गया था। भाजपाई पिछले तीन महीनों से चेतन के साथ गांव -गांव घूम प्रचार प्रसार कर रहे थे परंतु टिकट बदल पार्टी ने उस पूरी मेहनत पर पानी फेर दिया। ये समर्थक पार्टी के वंशवाद के तर्क को भी सिरे से खारिज कर रहे है। इनका कहना है की चेतन पिछले 14 सालों से पार्टी के लिए काम कर रहे है। वे भाजपा आईटी सेल के अध्यक्ष भी है। उन्होंने पिछले कई सालों से पार्टी को मज़बूत करने का काम किया है। उन्हें टिकट देना वंशवाद नहीं कहला सकता। यहां नीलम सरैक पर भी तरह - तरह के आरोप लगाए जा रहे है। कुछ का कहना है की नीलम ने कांग्रेस के साथ मिलकर पार्टी को कमज़ोर करने का काम किया है तो कुछ उनपर पार्टी कार्यकर्ताओं को नज़रअंदाज़ करने का आरोप लगा रहे है। हाल फिलहाल चेतन ने मैदान में उतर कर यहां के समीकरण बदल दिए है। दो बार खिला कमल, दोनों बार बरागटा थे मैदान में जुब्बल-कोटखाई वो विधानसभा क्षेत्र है जहां कमल खिलाना भजपा के लिए कभी आसान नहीं रहा। इस विधानसभा क्षेत्र को कांग्रेस का गढ़ तो कहा ही जाता है मगर जुब्बल - कोटखाई को पूर्व मुख्यमंत्री स्व. ठाकुर रामलाल का गढ़ कहना भी गलत नहीं होगा। ठाकुर रामलाल कुल नौ मर्तबा जुब्बल कोटखाई से विधायक रहे है। उनके निधन के बाद दो बार इस विधानसभा क्षेत्र की कमान उनके पोते रोहित ठाकुर भी संभाल चुके है। अब तक भाजपा को यहां केवल दो ही बार जीत मिल पाई है। कांग्रेस के इस गढ़ में कमल खिलाने वाले नेता थे पूर्व विधायक नरेंद्र बरागटा। वर्ष 2003 में बरागटा ने इस विस क्षेत्र से पहली बार चुनाव लड़ा मगर वे जीत नहीं पाए। इसके बाद विपक्ष में रहते हुए वे पांच साल जुब्बल - कोटखाई की आवाज बने रहे। नतीजन 2007 में उन्हें जुब्बल - कोटखाई की जनता ने वोट रुपी आशीर्वाद दिया और पहली बार इस सीट पर भाजपा विजयी हुई। 2017 में भी इस विधानसभा क्षेत्र से नरेंद्र बरागटा ही जीते। 2003 से सत्ता के साथ जुब्बल-कोटखाई जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र की जनता 2003 से ही सत्ता के साथ चलती आ रही है। वर्तमान में भाजपा की सरकार है तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते, 2012 में कांग्रेस की सरकार में कांग्रेस के रोहित ठाकुर और उससे पहले 2007 में भाजपा की सरकार थी तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते थे। इसी तरह 2003 के चुनाव में रोहित ठाकुर को जनता का आशीर्वाद मिला। यहां वीरभद्र सिंह भी हारे है 1990 में वीरभद्र सिंह हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में उतरे। उस चुनाव में वीरभद्र दो सीटों से लड़े, रोहड़ू और जुब्बल कोटखाई। रोहड़ू में तो वीरभद्र जीत गए लेकिन जुब्बल कोटखाई में करीब पंद्रह सौ वोट से हार गए। दिलचस्प बात ये है की वीरभद्र सिंह को हराने वाले थे वहीं ठाकुर रामलाल जिन्हें कुर्सी से हटाकर वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। दरअसल मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बना दिया गया था और प्रदेश की राजनीति से एक किस्म से वे दूर हो गए थे। धीरे -धीरे ठाकुर रामलाल और कांग्रेस के बीच भी खाई बनती गई और ठाकुर रामलाल जनता दल में शामिल हो गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने जनता दल से टिकट पर जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा और तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को परास्त करके अपनी पकड़ का लोहा मनवाया। दो मुख्यमंत्री देने वाल इकलौता क्षेत्र जुब्बल कोटखाई, हिमाचल प्रदेश का इकलौता ऐसा निर्वाचन क्षेत्र जिसने दो मुख्यमंत्री दिए है, ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह। नौ बार के विधायक और तीन बार मुख्यमंत्री रहे ठाकुर रामलाल की कर्मभूमि रहे जुब्बल कोटखाई की सियासत हमेशा से ही रोचक रही है। 1977 में ठाकुर रामलाल जब पहली बार मुख्यमंत्री बने थे तब वे इसी सीट से विधायक थे। फिर 1980 में जब शांता सरकार को गिराकर ठाकुर रामलाल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने तब भी वे इसी सीट से विधायक थे। 1982 में विधानसभा चुनाव हुए और कांग्रेस ने रिपीट किया और जुब्बल कोटखाई से विधायक ठाकुर रामलाल तीसरी बार मुख्यमंत्री बने। फिर 1983 में हिमाचल की सियासत में टिम्बर घोटाले के चलते बवाल मच गया। तब इसी बवाल में मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल की कुर्सी चली गई और वीरभद्र सिंह पहली बार सीएम बने थे। सियासत के जादूगर वीरभद्र सिंह ने जनता की नब्ज को भांपते हुए विधानसभा जल्दी भंग करवा दी और 1985 में ही विधानसभा चुनाव करवा दिए। दिलचस्प बात ये है कि 1985 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने अपना चुनाव क्षेत्र बनाया जुब्बल कोटखाई को। उसी जुब्बल कोटखाई क्षेत्र को ठाकुर रामलाल का गढ़ था। वीरभद्र सिंह जीत गए और दूसरी बार मुख्यमंत्री भी बन गए। यानी जुब्बल कोटखाई को दूसरा मुख्यमंत्री मिल गया।
अनुराग ठाकुर अर्की पहुंचे और गोविन्द राम शर्मा के तेवर ढीले पड़ गए। पार्टी से दशकों पुराना नाता भी याद आ गया और कमल के फूल के प्रति निष्ठा भी बगावत में आड़े आ गई। नामांकन के अंतिम दिन तक बना सस्पेंस खत्म हुआ और भाजपा संभावित बगावत साधने में कामयाब रही। किन आश्वासनों के भरोसे गोविन्द राम शर्मा चुनावी मैदान से हटे, ये पार्टी के अंदर की बात है लेकिन इतना तय है कि कम से कम बाहरी तौर पर तो भाजपा अब अर्की में सशक्त और संगठित दिख रही है। मोटे तौर पर अब भाजपा के रतन सिंह पाल और कांग्रेस के संजय अवस्थी के बीच टक्कर होनी है।उधर कांग्रेस की सियासत फिर दिलचस्प हो गई है। पिछले कई चुनावों की तरह इस बार फिर पार्टी में विद्रोह - भीतरघात की स्थिति है। नतीजन जो कांग्रेस कुछ दिन पहले मजबूत लग रही थी उसे डर जरूर होगा कि कहीं विद्रोह उसे मजबूर न बना दे। कारण साफ है, खुला विद्रोह भीतरघात से अधिक नुकसान करता है। चलिए मान भी लेते है कि भाजपा को भीतरघात का 'फ्लू' हो सकता है पर कांग्रेस को तो विद्रोह का 'डेंगू' होता दिख रहा है। ऐसे में अर्की का संग्राम रोचक होना तय है। अर्की निर्वाचन क्षेत्र की सियासत बेहद रोचक रही है। अतीत पर नजर डाले तो यहां कांग्रेस -भाजपा दोनों को बराबर प्यार मिलता रहा है। वर्ष 1980 में भाजपा की स्थापना हुई थी और उसके बाद से अब तक हुए 9 विधानसभा चुनाव हुए है। इनमें कांग्रेस पांच मर्तबा तो भाजपा ने चार मर्तबा बाजी मारी है। पहले करीब ढाई दशक तक अर्की की सियासत हीरा सिंह पाल और नगीन चंद्र पाल के बीच घूमती रही, तो 1993 में कांग्रेस नेता धर्मपाल ठाकुर के विधायक बनने के बाद अर्की वालों ने उन पर लगातार तीन बार भरोसा जताया। फिर कर्मचारी राजनीति से सियासत में कदम रखने वाले गोविंद राम शर्मा दो बार जीते। पर 2017 के विधानसभा चुनाव में खुद सूबे के मुख्यमंत्री ( तत्कालीन ) वीरभद्र सिंह ने अर्की से मैदान में उतरने का निर्णय लिया और अर्की के विधायक बने। अब उनके निधन के बाद उपचुनाव होने जा रहा है, पर असंतोष और अंदरूनी खींचतान की आग दोनों ही राजनीतिक दलों को झुलसा सकती है। अवस्थी को टिकट, ठाकुर नाराज वीरभद्र सिंह के निधन के बाद अर्की उपचुनाव जीतना कांग्रेस के लिए प्रतिष्ठा का सवाल होगा। बहरहाल, कांग्रेस ने फिर संजय अवस्थी को मैदान में उतारा है। जमीनी बात करें तो संजय अवस्थी शुरू से मजबूत दावेदार लग रहे थे। हालांकि राजेंद्र ठाकुर भी स्व. वीरभद्र सिंह से नजदीकी के बुते टिकट की दौड़ में रहें लेकिन अवस्थी के रहते पार्टी ने उन्हें मौका नहीं दिया। नाराज़ होकर राजेंद्र ठाकुर सहित ब्लॉक कांग्रेस अर्की के कई पदाधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया। यानी पार्टी में बगावत की स्थिति है और ऐसे में संजय अवस्थी की राह भी आसान नहीं होगी। दूसरा पक्ष ये भी है कि राजेंद्र ठाकुर और उनके समर्थकों के इस्तीफे के बाद पार्टी संगठन में नई नियुक्तियां संजय अवस्थी के मन मुताबिक हो गई। एक किस्म से अवस्थी फ्री हैंड होकर अपने निर्णय लेंगे। 2007 में कांग्रेस को भारी पड़ी गलती वर्ष 1993, 1998 और 2003 में कांग्रेस के धर्मपाल ठाकुर लगातार तीन बार जीत दर्ज कर चुके थे। 2003 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और धर्मपाल ठाकुर को विधानसभा उपाध्यक्ष बनाया गया था। वे पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी नेताओं में थे। अर्की क्षेत्र में भी उनकी अच्छी पकड़ थी। पर बावजूद इसके 2007 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस से बड़ी चूक हो गई और धर्मपाल ठाकुर का टिकट काट दिया गया। कहते है वीरभद्र सिंह इसके पक्षधर नहीं थे, वे धर्मपाल ठाकुर को ही टिकट देने के हिमायती थे। पर कांग्रेस आलाकमान ने वीटो इस्तेमाल करते हुए प्रकाश चंद करड को टिकट थमा दिया। आखिरकार हुआ वही जिसका अंदेशा था, हवा - हवाई उम्मीदवार देने का खामियाजा कांग्रेस ने भुगता और पार्टी तीसरे स्थान पर रही। प्रकाश चंद बुरी तरह चुनाव हारे। वहीँ दूसरे स्थान पर रहने वाले थे धर्मपाल ठाकुर जो कांग्रेस से टिकट कटने के बाद बतौर निर्दलीय मैदान में थे। प्रकाश चंद को जहां करीब साढ़े सात हज़ार वोट ही मिले थे वहीँ धर्मपाल ठाकुर को निर्दलीय लड़ने के बावजूद करीब साढ़े चौदह हजार वोट मिले थे। जाहिर सी बात है कि कांग्रेस की इस अंदरूनी लड़ाई का फायदा तब भाजपा को मिला था। माहिर मानते है की अगर कांग्रेस ने धर्मपाल ठाकुर का टिकट नहीं काटा होता तो संभवतः कांग्रेस अर्की में जीत का चौका लगाती। 2012 में बगावत ने बिगाड़े अवस्थी के समीकरण 2012 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस ने संजय अवस्थी को उम्मीदवार बनाया था। दरअसल 2008 में धर्मपाल ठाकुर का देहांत हो चूका था और 2007 का चुनाव लड़ चुके प्रकाश चंद भी तब तक खुद को स्थापित नहीं कर पाए थे। ऐसे में पार्टी को एक दमदार चेहरा चाहिए था और संजय अवस्थी पर पार्टी ने भरोसा जताया। पर अंदरूनी खींचतान और बगावत पार्टी को भारी पड़ी। दरअसल उस चुनाव में पार्टी के ही अमर चंद पाल बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे और 10 हजार से ज्यादा वोट लेकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। नतीजन संजय अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हार गए, पर तब से संजय अवस्थी ही स्थानीय कांग्रेस का मुख्य चेहरा बने हुए है। 2017 में वीरभद्र ने करवाई वापसी 2017 विधानसभा चुनाव से कई माह पहले से ही अर्की में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की विशेष मेहरबानी दिखने लगी थी। वीरभद्र सिंह के लगातार दौर और कई सौगातों ने संकेत दे दिए थे कि खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतर सकते है। दरअसल वीरभद्र सिंह शिमला ग्रामीण की अपनी सीट से अपने पुत्र विक्रमादित्य सिंह को विधानसभा भेजना चाहते थे। हुआ भी ऐसा ही। उन्होंने विक्रमादित्य के लिए शिमला ग्रामीण सीट छोड़ दी और खुद अर्की से मैदान में उतर गए। जब खुद वीरभद्र सिंह मैदान में थे तो जाहिर सी बात है खुलकर कोई विरोध नहीं हुआ। जैसा अपेक्षित था वीरभद्र सिंह चुनाव जीत गए और दस साल बाद अर्की सीट वापस कांग्रेस के कब्जे में आ गई। पर उनके आने से संजय अवस्थी का इंतज़ार बढ़ गया। 2012 के बाद से ही संजय अवस्थी तैयारी में जुटे थे लेकिन तब उन्हें चुनाव लड़ने का मौका ही नहीं मिला। वर्ष विधायक पार्टी 1967: हीरा सिंह पाल निर्दलीय 1972: हीरा सिंह पाल लोक राज पार्टी 1977: नगीन चंद्र पाल जनता पार्टी 1982: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1985: हीरा सिंह पाल कांग्रेस 1990: नगीन चंद्र पाल भारतीय जनता पार्टी 1993: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 1998: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 2003: धर्मपाल ठाकुर कांग्रेस 2007: गोविंद राम शर्मा भाजपा 2012: गोविंद राम शर्मा भाजपा 2017 : वीरभद्र सिंह कांग्रेस
छात्र राजनीति के जमाने से संजय अवस्थी कांग्रेस से जुड़े है। 2012 में कांग्रेस ने संजय अवस्थी को पहली बार टिकट दिया था लेकिन तब अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हारे थे। कारण था कांग्रेस का भीतरघात। फिर 2017 में खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतरे और संजय अवस्थी के अरमानों पर पानी फिर गया। खास बात ये है कि राजा गुट ने तब संजय अवस्थी पर पार्टी विरोधी या यूँ कहे वीरभद्र सिंह के विरोध में काम करने का आरोप लगाया था। अब वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपचुनाव के लिए पार्टी ने फिर संजय अवस्थी को टिकट दिया है। यहां संजय अवस्थी के सामने 'करो या मरो' की स्थिति है। इस बार नतीजे प्रतिकूल रहे तो भविष्य में उनकी राजनीतिक राह आसान नहीं होने वाली। इसी तरह भाजपा ने 2017 में दो बार के विधायक गोविंद राम शर्मा का टिकट काट रतन सिंह पाल को दिया था। तब निसंदेह रत्न सिंह पाल ने वीरभद्र सिंह को जोरदार टक्कर दी थी। पर रतन पाल के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज उठती रही है, बावजूद इसके पार्टी को रतन पाल पर भरोसा है और उपचुनाव में उन्हें ही टिकट दिया गया है। पर यहां रतन पाल यदि जीत नहीं दर्ज कर पाए तो 2022 में उनकी दावेदारी निसंदेह कमजोर होगी।
भाजपा की ओर से अर्की उपचुनाव के लिए डॉ राजीव बिंदल को प्रभारी नियुक्त किया गया है। डॉ बिंदल सोलन नगर निगम चुनाव में भी प्रभारी थे और नतीजे मनमाफिक नहीं आये थे। बावजूद इसके पार्टी ने फिर इन्हे ही जिम्मेदारी दी है। दिलचस्प बात ये है कि सोलन नगर निगम चुनाव की तर्ज पर इस बार भी सह प्रभारी डॉ राजीव सैजल को बनाया गया है जो जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री भी है। यानी एक किस्म हाशिये पर चल रहे डॉ राजीव बिंदल प्रभारी है और सरकार में दमदार मंत्री डॉ सैजल सहप्रभारी। खेर इसमें कोई संशय नहीं है कि डॉ राजीव बिंदल संगठन के भी डॉक्टर है और अपने लम्बे राजनीतिक सफर में उन्होंने कई मौकों पर अपनी काबिलियत का लोहा मनवाया है। उनकी जमीनी पकड़ और पोलिटिकल मैनेजमेंट को लेकर कोई सवाल नहीं है। पर डॉ राजीव सैजल के समर्थक जरूर इस आस में थे कि उन्हें अर्की में फ्री हैंड काम करने का मौका मिलता। खेर फिलवक्त डॉ राजीव बिंदल ही अर्की के रण में कमांडर इन चीफ की भूमिका में है, ऐसे में जाहिर है जीत का श्रेय उन्हें मिले न मिले पर हार की स्थिति में ठीकरा उनके सिर ही फूटेगा। सियासी माहिर मानते है कि ये बड़ी अजब बात है कि डॉ राजीव बिंदल को न सरकार में ज़िम्मेदारी मिल रही है और न ही संगठन में कोई अहम पद, बस चुनाव लड़वाने का प्रभार मिलता जा रहा है। प्रभार भी ऐसे चुनाव लड़वाने का मिलता है जहां पार्टी की डगर कठिन होती है। पहले सोलन नगर निगम चुनाव का प्रभारी बनाया गया और अब अर्की उपचुनाव का। सोलन में भी अंदरूनी अंतर्कलह और खींचतान के चलते पहले से पार्टी बैकफुट पर थी और अर्की में भी यदि बगावत के सुर इसी तरह प्रखर रहे तो पार्टी की नाव पार लगाना आसान नहीं होगा। फर्क इतना है कि सोलन में पार्टी के दो गुटों में से एक गुट बिंदल के निष्ठावानों का ही है, जबकि अर्की की राजनीति में डॉक्टर साहब की सीधी दखल नहीं है। ऐसे में अर्की में शायद बिंदल सोलन से ज्यादा असरदार दिखे। यहां एक बात पर गौर करना भी जरूरी है, यदि सोलन नगर निगम भाजपा जीत भी जाती तो शायद क्रेडिट मुख्यमंत्री के तूफानी दौरों को मिलता, जहां उन्होंने वार्ड -वार्ड छान मारा था। वहीँ हार के बाद मुख्यमंत्री के जनाधार पर तो सवाल उठे ही, पर खुलकर ये भी कहा जाने लगा कि डॉ बिंदल का जादू अब फीका पड़ा चूका है। दरअसल बिंदल के बेहद करीबी माने जाने वाले नेता भी चुनाव हार गए थे। ऐसे में अर्की में 'बिंदल मैनेजमेंट' नहीं चली तो विरोधी स्वर बुलंद होंगे। कर्नल ने संभाला कांग्रेस से मोर्चा अर्की में कांग्रेस ने सोलन विधायक और पूर्व मंत्री डॉ कर्नल धनीराम शांडिल को प्रभारी बनाया है। कर्नल शांडिल का कमाल सोलन नगर निगम चुनाव में भी दिखा था, तब बेशक प्रभारी राजेंद्र राणा थे लेकिन चुनावी व्यूह रचना में कर्नल शांडिल का इम्पैक्ट खूब दिखा था। अब पार्टी ने शांडिल को अर्की का प्रभारी बनाया है।
2017 में रतन सिंह पाल का मुकाबला खुद वीरभद्र सिंह से था। माना जा रहा था वीरभद्र सिंह आसानी से चुनाव जीतेंगे लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उनकी जीत का अंतर करीब छ हजार वोट रहा जो उनके कद के लिहाज से कम था। वहीं वीरभद्र सिंह को टक्कर देने के बाद रतन सिंह पाल एक किस्म से हार कर भी जीत गए। प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो उन्हें हिमाचल प्रदेश कोआपरेटिव डेवलपमेंट फेडरेशन का चेयरमैन बनाया गया। संगठन में भी रतन पाल को प्रदेश भाजपा उपाध्यक्ष का दायित्व मिला। कुल मिलाकर रतन सिंह पाल अर्की भाजपा का प्राइम फेस बन गए और अब भी बने हुए है। निकाय चुनाव में खरे नहीं उतरे पाल इसी वर्ष हुए स्थानीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में रतन सिंह पाल की ही चली। पर जिला परिषद में पार्टी के कई दिग्गजों के टिकट काटने का खामियाजा भाजपा ने भुगता। अंत में इन्हीं दिग्गजों के सहारे जैसे तैसे जिला परिषद् पर भाजपा का कब्ज़ा तो हो गया लेकिन रतन सिंह पाल के खिलाफ खुलकर आवाज उठने लगी। वहीँ अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। बीडीसी पर भी कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। हालांकि ये चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए थे। विरोधी एकजुट नहीं हुए तो रतन पाल की राह आसान इसमें कोई संशय नहीं है कि वर्तमान में अर्की भाजपा में गुटबाजी चरम पर है। पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा और उनके समर्थक खफा है। बेशक केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर और खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के प्रयास से गोविन्द राम शर्मा और उनके समर्थकों को मना लिया गया हो लेकिन उक्त गुट की नाराजगी पार्टी से ज्यादा रतन सिंह पाल से दिख रही है। ऐसे में इस में रतन पाल को उनका कितना समर्थन मिलता है ये देखना दिलचस्प होगा। दो बार कमल खिलाने वाले गोविन्द राम साइडलाइन 1993 से 2003 तक अर्की में लगातार तीन चुनाव हारने के बाद भाजपा बैकफुट पर थी। अर्की कांग्रेस का गढ़ बन चूका था और इसे ढहाना भाजपा के लिए बड़ी चुनौती थी। पर जब कांग्रेस ने सीटिंग विधायक धर्मपाल ठाकुर का टिकट काटा तो भाजपा को वापसी की उम्मीद दिखी। 2007 के चुनाव में भाजपा ने कर्मचारी नेता रहे गोविन्द राम शर्मा को टिकट दिया था और गोविंद राम के चेहरे और कांग्रेस में हावी बगावत के बूते अर्की में भाजपा का वनवास खत्म हुआ। इसके बाद 2012 में चुनाव में भी पार्टी ने गोविन्द राम शर्मा को मैदान में उतारा और वे दूसरी बार चुनाव जीत गए। पर 2017 में भाजपा ने गोविन्द राम शर्मा का टिकट काट कर रतन सिंह पाल को मैदान में उतारा और भाजपा अर्की का चुनाव हार गई। हालांकि अर्की से खुद वीरभद्र सिंह मैदान में थे लेकिन भाजपा के टिकट वितरण को लेकर सवाल उठे। कहते है तब बगावत साधने को भाजपा ने गोविन्द राम शर्मा को आश्वस्त किया था कि सरकार बनने की स्तिथि में उन्हें कोई महत्वपूर्ण पद और ज़िम्मेदारी मिलेगी, पर ऐसा हुआ नहीं। गोविन्द राम शर्मा एक किस्म से साइडलाइन कर दिए गए। बहरहाल गोविन्द राम शर्मा की प्रत्यक्ष बगावत भले ही साध ली गई हो पर नाराज़गी कितनी दूर हुई है, नतीजों के बाद ये विश्लेषण का विषय होगा।
मंडी संसदीय क्षेत्र में लोकसभा की सीट के लिए उपचुनाव कांग्रेस बीजेपी के लिए साख का सवाल बन गया है। कांग्रेस ने मंडी से प्रतिभा सिंह को मैदान में उतारा है। वन्ही बीजेपी अभी टिकट पर फैसला नही कर पाई है। टिकट मिलने के बाद प्रतिभा सिंह ने होलीलोज से जीत की हुंकार भर दी है। प्रतिभा का कहना है कि उन्हें विस्वास है कि जनता उन्हें वीरभद्र के विकास कार्यों के नाम पर वोट देगी। 8 अक्टूबर को नामांकन के बाद चुनाव प्रचार अभियान शुरू किया जाएगा। प्रतिभा सिंह ने कहा कि टिकट के लिए वह हाई कमान की आभारी है। उन्होंने कहा कि जनता के आश्वासन के बाद वह चुनाव मैदान में उतरी है। वीरभद्र सिंह के जाने से उनके परिवार को बड़ा आघात पहुंचा है लेकिन उनके किये विकास के कामों को लेकर जनता के बीच जाएगी। वीरभद्र अब नही है लेकिन उनके नाम के सहारे चुनाव लड़ा जाएगा। प्रतिभा सिंह ने कहा कि महंगाई व बेरोजगारी आज चरम पर है। इन मुद्दों को लेकर वह जनता के बीच जाएगी। वीरभद्र सिंह ने हिमाचल का विकास किया है। उनके कामो को देखते हुए जनता अपना आशीर्वाद देगी। उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर हिमाचल की तो बात छोड़ो मंडी का विकास भी नही कर पाए है। उन्होंने कहा कि वह भाजपा को मंडी में कोई चुनौती नही मानती। केंद्र की मोदी सरकार दो बार महंगाई व बेरोज़गारी के मुद्दों पर सत्ता में आई है लेकिन उनकी सरकार उम्मीदों पर खरा नही उतर पाए हैं। इसलिए जनता उन्हें अपना आशीर्वाद अवश्य देगी। वन्ही इस दौरान विक्रमादित्य ने कहा जब बीजेपी मोदी के नाम पर वोट मांग सकती है तो वह भी वीरभद्र सिंह के द्वारा किए गए विकास कार्यों के नाम पर श्रधांजलि के रूप में वोट मांग सकते है। उन्होंने कहा कि वह अतीत की बुनियाद पर भविष्य का निर्माण करना जानते है। कांग्रेस पार्टी ने जो विकास कार्य किए है उनको जनता के बीच मे ले जाकर जीत को सुनिश्चित किया जाए।
हिमाचल की ठंडी फिजाओं में उपचुनाव की गर्माहट है। आगामी 30 अक्टूबर को प्रदेश की एक लोकसभा सीट और तीन विधानसभा सीटों पर मतदान होना है। सियासत शबाब पर है और दोनों प्रमुख राजनैतिक दलों में टिकट आवंटन पर माथापच्ची भी हो रही है, साथ ही बगावत साधने की कवायद भी शुरू हो गई है। 2022 के विधानसभा चुनाव से पहले ये दोनों मुख्य राजैनतिक दलों के लिए बड़ा इम्तिहान होगा। मंडी संसदीय सीट के तहत 5 ज़िलों के 17 विधानसभा क्षेत्र आते है, यानी राजनैतिक दलों के लिए ये चार उपचुनाव कुल 8 ज़िलों के 20 विधानसभा क्षेत्रों की नबज टटोलने का मौका भी है। इसीलिए इसे सत्ता का सेमीफइनल भी कहा जा रहा है। मंडी संसदीय क्षेत्र के सांसद रामस्वरूप शर्मा की आत्महत्या के बाद वहां उपचुनाव होना है। वहीँ फतेहपुर विधायक सुजान सिंह पठानिया, जुब्बल कोटखाई के विधायक नरेंद्र बरागटा और अर्की के विधायक वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उक्त सीटें रिक्त हुई है। मंडी लोकसभा सीट और जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट पर जहाँ भाजपा का कब्ज़ा था, वहीँ सुजानपुर और अर्की विधानसभा सीट पर कांग्रेस काबिज थी। मंडी : भाजपा के लिए नाक का सवाल तो एकजुटता कांग्रेस की जीत का मंत्र ! मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव न सिर्फ प्रदेश सरकार का इम्तिहान है बल्कि केंद्र सरकार की कार्यशैली को भी इसके नतीजे से जोड़कर देखा जायेगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा भी हिमाचल से ताल्लुख रखते है, साथ ही मंडी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का भी गृह क्षेत्र है। जाहिर है ऐसे में मंडी उपचुनाव भाजपा के लिए नाक का सवाल है। मंडी में भाजपा इक्कीस दिख भी रही थी लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति से यकायक स्थिति में बदलाव आया। इस पर प्रतिभा सिंह के मंडी के चुनाव लड़ने पर यक़ीनन भाजपा की मुश्किलों में इजाफा होगा। पहले जो पलड़ा भाजपा की तरफ झुका सा माना जा रहा था अब संतुलित दिख रहा है। मंडी संसदीय क्षेत्र से भाजपा के लिए प्रत्याशी का चयन बेहद महत्वपूर्ण होने वाला है। पूर्व सांसद महेश्वर सिंह चुनाव लड़ने की इच्छा जताते रहे है। सैनिक कल्याण बाेर्ड के चेयरमैन ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर का नाम भी शुरू से चर्चा में है। दावेदारों में पंडित रामस्वरूप के पुत्र शांति स्वरूप, अजय राणा, पायल वैद्य भी रहे है। पर प्रतिभा सिंह फैक्टर के चलते पार्टी मंत्री महेंद्र सिंह को प्रत्याशी बनाने की इच्छुक दिखी है। दूसरा विकल्प मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर में देखा जा रहा है। कांग्रेस की बात करें तो बेशक प्रतिभा सिंह के लिए प्रदेश कांग्रेस लगभग एकजुट दिखी हो लेकिन मंडी में गुटबाजी किसी से छिपी नहीं है। पिछले चुनाव में पार्टी प्रत्याशी और पंडित सुखराम के पोते आश्रय शर्मा भी टिकट मांगते रहे है, हालंकि स्थिति परिस्थिति देख कर अब आश्रय टिकट से ज़्यादा सम्मान कि मांग कर रहे है । वहीं वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर यूँ तो प्रतिभा सिंह को मजबूत दावेदार मानते रहे है लेकिन उनके नपे -तुले बयानों का माहिर अपने -अपने हिसाब से मतलब निकालते है। ये भी याद रखना होगा की 2012 में कौल सिंह के मुख्यमंत्री बनने के स्वप्न पर वीरभद्र सिंह ने पानी फेर दिया था। इसी तरह युवा कांग्रेस अध्यक्ष और सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबी निगम भंडारी भी टिकट के लिए दावा ठोकते रहे है। ऐसे में प्रत्याशी कोई भी हो पर इस चुनावी समर को जीतने के लिए कांग्रेस को सुनिश्चित करना होगा कि पार्टी एकजुट होकर लड़े। 17 में से 13 विस क्षेत्रों में भाजपा काबिज मंडी संसदीय क्षेत्र के 17 विधानसभा क्षेत्रों पर गौर करें तो वर्तमान में 13 विधानसभा सीटों पर भाजपा, 3 पर कांग्रेस और एक सीट पर निर्दलीय विधायक हैं। किन्नौर, कुल्लू और रामपुर सीट पर कांग्रेस, जबकि जोगिंदर नगर सीट पर निर्दलीय विराजमान हैं। शेष अन्य 13 सीटों पर भाजपा काबिज है। इस संसदीय क्षेत्र के पांच हलके बल्ह, नाचन, करसोग, आनी व रामपुर अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। जबकि किन्नौर, लाहौल-स्पीति और भरमौर सीट एसटी के लिए आरक्षित हैं। पांच साल में दस गुना बढ़ा था हार का अंतर 2014 के लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह कांग्रेस उम्मीदवार थी और उस चुनाव में उन्हें करीब 40 हज़ार वोटों से शिकस्त मिली थी। जबकि 2019 में आश्रय शर्मा 4 लाख से भी अधिक वोटों से हारे थे। यानी 2014 में जो अंतर करीब 40 हज़ार था वो पांच साल में 10 गुना बढ़कर करीब चार लाख हो गया। बेशक इस मर्तबा कांग्रेस प्रतिभा सिंह के रूप में एक मजबूत प्रत्याशी के साथ मैदान में हो लेकिन इस अंतर को पाटना आसान नहीं होने वाला। जुब्बल-कोटखाई : भाजपा के समक्ष सीट बरकरार रखने की चुनौती जिला शिमला की जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट को बरकरार रखने के लिए प्रदेश भाजपा हर संभव प्रयास करेगी। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से भाजपा विधायक एवं मुख्य सचेतक नरेंद्र बरागटा का निधन बीते 5 जून को हुआ। ऐसे में अब यहां उपचुनाव हो रहा है। जुब्बल-कोटखाई विधानसभा सीट की बात करें तो नरेंद्र सिंह बरागटा के निधन के बाद कई नेताओं की निगाहें उपचुनाव टिकट पर टिकी हुई है, जिनमें स्व. बरागटा के पुत्र और प्रदेश भाजपा आईटी सेल के प्रमुख चेतन सिंह बरागटा भी शामिल हैं। वहीँ भाजपा की ओर से दूसरा प्रमुख चेहरा नीलम सरैक का है जो परिवारवाद के खिलाफ आवाज बुलंद कर अपना दावा ठोक रही है। जानकार ये तो मान रहे है कि टिकट की दौड़ में चेतन कुछ आगे है पर नीलम को साधना पार्टी के आसान नहीं होने वाला। यानी निर्णय मुश्किल भरा है। यहाँ भाजपा को सुनिश्चित करना होगा कि चेहरा कोई भी हो लेकिन पार्टी में न बगावत हो और न किसी तरह का भीतरघात, अन्यथा राह मुश्किल होगी। मंत्री सुरेश भारद्वाज जुब्बल कोटखाई उपचुनाव के लिए भाजपा के प्रभारी है। यदि चेतन को टिकट मिलता है तो ज़ाहिर तौर पर चेतन और भारद्वाज के आपसी तालमेल से भी समीकरण बन बिगड़ सकते है। उधर कांग्रेस की बात करें तो रोहित ठाकुर अपना पांचवा विधानसभा चुनाव लड़ने को तैयार है और पार्टी में भी उन्हें कोई ख़ास चुनौती मिलती नहीं दिख रही। ठाकुर बीते कई महीनो से मैदान में डटे है और एक किस्म से टिकट की औपचारिक घोषणा से पहले ही प्रचार शुरू कर चुके है। इससे पहले रोहित ने चारों बार स्व. नरेंद्र बरागटा के सामने चुनाव लड़ा है जिसमे से दो में उन्हें जीत मिली और दो में हार का सामना करना पड़ा। दो मुख्यमंत्री देने वाला इकलौता निर्वाचन क्षेत्र जुब्बल कोटखाई हमेशा से कांग्रेस का गढ़ रहा है और नरेंद्र बरागटा ही इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने यहां भाजपा को जीत दिलाई। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट से कांग्रेस के दो मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह भी विधायक रह चुके है। ये प्रदेश की इकलौती सीट है जिसने दो मुख्यमंत्री दिए है। ठाकुर रामलाल दो बार मुख्यमंत्री रहे है और दोनों बार वे जुब्बल कोटखाई से ही विधायक थे। वहीं 1985 में मुख्यमंत्री बने वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट से जीतकर ही विधानसभा पहुंचे थे। 2003 से सत्ता के साथ जुब्बल-कोटखाई जुब्बल-कोटखाई विधानसभा क्षेत्र की जनता 2003 से ही सत्ता के साथ चलती आ रही है। वर्तमान में भाजपा की सरकार है तो भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते, 2012 में कांग्रेस की सरकार में कांग्रेस के रोहित ठाकुर और उससे पहले 2007 में भाजपा की सरकार थी ताे भाजपा के नरेंद्र बरागटा जीते थे। इसी तरह 2003 के चुनाव में रोहित ठाकुर को जनता का आशीर्वाद मिला था। फतेहपुर : बगावत थामने की होगी चुनौती, राजन सुशांत पर भी निगाहें फतेहपुर विधानसभा उपचुनाव का नतीजा 15 सीट वाले जिला कांगड़ा की सियासी आबोहवा को रुख दे सकता है। कांगड़ा जीते बिना मिशन रिपीट संभव नहीं है, ऐसे में सत्ता पक्ष हो या विपक्ष दोनों पर फतेहपुर उपचुनाव में बेहतर करने का दबाव है। सत्ता पक्ष भाजपा की बात करें तो जाहिर है ये उप चुनाव पार्टी के लिए बेहद ख़ास है। दरअसल, यहाँ जीत मिल गई तो सरकार का दमखम बड़े -बड़ों को मानना पड़ेगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि 2009 के उपचुनाव सहित भाजपा फतेहपुर में लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। फतेहपुर में भाजपा की ओर से 2017 में पूर्व राज्यसभा सांसद कृपाल परमार प्रत्याशी थे तो 2012 में भाजपा ने बलदेव ठाकुर को टिकट दिया था। 2017 के चुनाव में बलदेव ने बतौर बागी चुनाव लड़ा और 13 हज़ार से अधिक वोट लेकर भाजपा का खेल बिगाड़ दिया। अब उपचुनाव में टिकट का फैसला फिर भाजपा के लिए कठिन होने वाला है। हालांकि परमार की तरफ पार्टी के बड़े नेताओं का रुख जरूर दिख रहा है लेकिन बलदेव का दावा ओर सियासी वजन भी कमतर नहीं है। ऐसे में प्रत्याशी जो भी हो पर पार्टी को सबको एकजुट रखकर मैदान में उतरना होगा। उधर कांग्रेस से पूर्व विधायक सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया की सियासत में एंट्री के बाद से ही टिकट पर उनकी दावेदारी मजबूत रही है। हालांकि परिवारवाद के खिलाफ पार्टी के भीतर से आवाज बुलंद है। बाकायदा पार्टी से जुड़े लोगों ने इसके खिलाफ प्रदर्शन भी किये, वो भी उपचुनाव की घोषणा से पहले। इसके मायने साफ़ है कि पार्टी का झुकाव भवानी की तरफ है। बहरहाल राजनीति में कुछ भी मुमकिन है सो औपचारिक घोषणा तक भवानी के विरोधियों को उम्मीद जरूर रहेगी। भाजपा और कांग्रेस के साथ ही फतेहपुर विधानसभा उपचुनाव हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक डॉ राजन सुशांत के लिए भी खास है। पांच बार के विधायक और एक मर्तबा सांसद रहे डॉ राजन सुशांत का राजनीतिक सफर भाजपा से राह अलग करने के बाद हिचकोले खा रहा है। भाजपा से राह अलग करने के बाद राजन सुशांत पहले आम आदमी पार्टी में गए और अब हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक है। संभवत अपने गृह क्षेत्र फतेहपुर के इस उप चुनाव में वे खुद मैदान में होंगे। जाहिर है डॉ राजन सुशांत को पहले खुद को घर में साबित करना होगा। 7 बार विधायक रहे पठानिया पूर्व मंत्री और 7 बार विधायक रह चुके सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस के दिग्गज नेताओं में से एक थे। पठानिया वीरभद्र सरकार में दो बार प्रदेश के मंत्री भी रहे हैं। 1977 में सुजान सिंह पठानिया ने जनता पार्टी में शामिल होने के लिए सरकारी नौकरी से इस्तीफा दे दिया था। 1980 में सुजान सिंह पठानिया कांग्रेस में शामिल हो गए। 1990, 1993, 2003, 2009 (उपचुनाव) में जवाली विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से और 2012 में फतेहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र से निर्वाचित हुए। 2007 में परिसीमन से पहले फतेहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र को जवाली के रूप में जाना जाता था। 2009 (उपचुनाव) , 2012 व 2017 विधानसभा चुनाव में सुजान सिंह पठानिया ने लगातार जीत की हैट्रिक लगाई। अर्की : न्यूनतम अंतर्कलह ही जीत की कुंजी अर्की उपचुनाव की बात करें तो यहां सही टिकट वितरण और न्यूनतम अंतर्कलह ही जीत की कुंजी है। कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों में एक से अधिक टिकट के दावेदार है और दोनों दलों को टिकट वितरण के लिए माथापच्ची करनी पड़ रही है। मसला सिर्फ टिकट वितरण तक का नहीं है, कहीं बगावत का डर है तो कहीं भीतरघात का। भाजपा की बात करें तो पिछले चुनाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को टक्कर देने वाले रतन सिंह पाल फिर टिकट के दावेदार है। किन्तु दो बार के विधायक गोविंद राम शर्मा ने उनके खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है और वे भी टिकट के लिए दावा पेश कर चुके है। गोविन्द राम को कुछ अन्य वरिष्ठ नेताओं का साथ भी है। ऐसे में टिकट के लिए भाजपा को न सिर्फ किसी एक का चयन करना है बल्कि दूसरे को खामोश भी रखना है। अगर बगावत हुई तो जीत की राह भी मुश्किल होगी। कांग्रेस की बात करें तो मोटे तौर पर टिकट के लिए दो नाम चर्चा में है, संजय अवस्थी और राजेंद्र ठाकुर। 2012 के विधानसभा चुनाव की बात करें तो कांग्रेस ने संजय अवस्थी को उम्मीदवार बनाया था। पर तब अंदरूनी खींचतान और बगावत पार्टी को भारी पड़ी। दरअसल उस चुनाव में पार्टी के ही अमर चंद पाल बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे और 10 हजार से ज्यादा वोट लेकर कांग्रेस का खेल बिगाड़ दिया। नतीजन संजय अवस्थी करीब दो हजार वोट से चुनाव हार गए, पर तब से संजय अवस्थी ही स्थानीय कांग्रेस का मुख्य चेहरा बने हुए है। वहीं दूसरे दावेदार राजेंद्र ठाकुर पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है और लगातार क्षेत्र में सक्रिय है। राजेंद्र ठाकुर ने भी टिकट के लिए दावा किया है और यदि टिकट वितरण में होलीलॉज की अहम भूमिका रही तो उनका दावा भी कमतर नहीं है। निकाय चुनाव में खरे नहीं उतरे पाल इसी वर्ष हुए स्थानीय निकाय चुनाव के टिकट वितरण में रतन सिंह पाल की चली थी। पर जिला परिषद् में अमर सिंह ठाकुर और आशा परिहार जैसे दिग्गजों के टिकट काटने का खामियाजा भाजपा को भुगतना पड़ा। हालाँकि अंत में इन्हीं दिग्गजों के सहारे जैसे तैसे जिला परिषद् पर भाजपा का कब्ज़ा तो हो गया लेकिन तब से ही रतन सिंह पाल के खिलाफ खुलकर आवाज उठने लगी। वहीँ अर्की नगर पंचायत चुनाव में भी भाजपा को करारी शिकस्त झेलनी पड़ी। बीडीसी पर भी कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। हालांकि ये चुनाव पार्टी सिंबल पर नहीं हुए थे। 2017 में वीरभद्र ने रोकी थी हैट्रिक 2017 विधानसभा चुनाव से कई माह पहले से ही अर्की विधानसभा क्षेत्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह ने कई सौगातें दी। वीरभद्र सिंह के लगातार दौरों ने संकेत दे दिए थे कि खुद वीरभद्र सिंह अर्की से मैदान में उतर सकते है और हुआ भी ऐसा ही। वीरभद्र सिंह ने पुत्र विक्रमादित्य के लिए शिमला ग्रामीण सीट छोड़ दी और खुद अर्की से मैदान में उतर गए। तब दस साल बाद अर्की सीट वापस कांग्रेस के कब्जे में आ गई और भाजपा की जीत की हैट्रिक।
सिर मुंडवाया और ओले पड़ गए, पंजाब में कांग्रेस के साथ ऐसा ही हुआ है। कॉमेडी का सरदार जब असरदार दिखने लगा तो पार्टी ने सियासत के पुराने सरदार को साइडलाइन कर दिया। पर असल कॉमेडी कांग्रेस के साथ हो गई। कैप्टेन को सीएम पद से हटाने के बाद भी सिद्धू खुश नहीं हुए और प्रदेश अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया। साथ में समर्थकों के इस्तीफे भी आ गए। यानी नए नवेले सीएम चरणजीत सिंह चन्नी भी सिद्धू को नहीं भाये। चन्नी को सीएम बने जुम्मा -जुम्मा चार दिन भी नहीं बीते और सिद्धू की प्रेशर पॉलिटिक्स शुरू हो गई। अब माहौल कुछ ऐसा है कि जो कांग्रेस आसानी से मिशन रिपीट का ख्वाब संजोय बैठी थी फिलहाल अपनों के मक्कड़ जाल में ही उलझ कर रह गई है। अस्थिर पंजाब कांग्रेस में कब क्या होगा, कौन आएगा-कौन जायेगा, फिलवक्त कोई नहीं जानता। वहीँ इस स्थिति में आम आदमी पार्टी को जरूर सत्ता नजदीक दिख रही होगी। पंजाब की सियासत में इस वक्त सबकी नज़रें कैप्टेन अमरिंदर सिंह पर टिकी है। कैप्टेन ने कांग्रेस छोड़ने का ऐलान कर दिया है, दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह से मुलाकात कर चुके है, पर भाजपा में जाने से भी इंकार कर रहे है। ऐसी स्थिति में क्या कैप्टेन अपनी अलग पार्टी बनाएंगे या कोई नया ट्विस्ट अभी बाकी है, ये बड़ा सवाल है। दरअसल भाजपा और कैप्टेन के बीच किसान आंदोलन की खाई है, ऐसे में नई पार्टी बनाने की अटकलें तेज है। वहीँ कैप्टेन के समर्थन में जी 23 सहित कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेता उतरे है, जिसके बाद ये भी कयास है कि क्या कांग्रेस में कुछ बड़ा बदलाव मुमकिन है। बहरहाल पंजाब के मुख्यमंत्री बने चन्नी लगातार हर वर्ग को साधने के लिहाज से लुभावने वादे कर रहे है। सरकारी खजाना खाली सही लेकिन चन्नी दिल बड़ा रखे हुए है। कहते है न जब उधार का ही खाना है तो देसी घी क्यों न खाया जाए। सत्ता रही तो वित्तीय घाटा भी देखा जायेगा। पंजाब के पहले दलित सीएम चन्नी को करीब 32 प्रतिशत दलित वोट से बड़ी आस होगी। पर चुनाव सरकार और संगठन मिलकर लड़ते है, ऐसे में चन्नी के सामने अस्थिर संगठन भी एक चुनौती है। क्या सुलह की बिसात तैयार कर सिद्धू पर पार्टी पहले सा भरोसा जता पायेगी या संगठन में व्यापक बदलाव होगा, ये देखना दिलचस्प होने वाला है। पार्टी में उठी आवाज, जल्द हो सीडब्ल्यूसी की बैठक कांग्रेस की निर्णय लेने वाली सर्वोच्च इकाई सीडब्ल्यूसी की बैठक जल्द बुलाने की मांग जोर पकड़ रही है। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, भूपेंद्र सिंह हुड्डा सहित कई वरिष्ठ नेता बैठक की मांग कर रहे है। ये लोग चाहते है कि पार्टी से कई नेताओं के अलग होने के मद्देनजर आंतरिक रूप से चर्चा की जाए। साथ ही संगठन के चुनाव के रास्ते पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग भी पार्टी के भीतर उठ रही है। पंजाब इकाई में मचे घमासान को लेकर भी कई नेता मुखर होते दिख रहे है। जाहिर है ऐसे में गांधी परिवार पर जल्द सीडब्ल्यूसी की बैठक बुलाने का दबाव बढ़ा है। कोरोना के बहाने मई माह में ये बैठक टाल दी गई थी।
संगठन भी मजबूत और संसाधन भी पर्याप्त, पर अंतर्कलह चुनौती मजबूत संगठन भी है और पर्याप्त संसाधन भी। उपचुनाव में जीत का दृढ़ निश्चय भी दिख रहा है और लफ्जों में भरपूर आत्मविश्वास भी, मगर ज़हन का दबाव चेहरों से छलक रहा है। देश की सबसे बड़ी पार्टी भाजपा हिमाचल में आगामी उपचुनाव के लिए पूरा दमखम लगाने को तैयार है मगर पार्टी को ये डर भी सता रहा है कि कहीं अंतर्कलह जीत में रोड़ा न बन जाएं। ऐसे में भाजपा बेहद संभलकर आगे बढ़ रही है। मंथन और मंत्रणा जारी है, प्रचार- प्रसार शुरू हो चुका है, कहीं चुनाव लड़ने के लिए किसी को मनाया जा रहा है तो कहीं चुनाव न लड़ने के लिए। बकायदा फील्ड सर्वे हो रहे है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर खुद फ्रंट फुट पर मोर्चा संभाले हुए है, जाहिर है निजी तौर पर सबसे अधिक दबाव भी उन्हीं पर होगा। नतीजे अनुकूल रहे तो जीत का सेहरा भी उन्हीं के सिर बंधेगा और प्रतिकूल नतीजों की स्थिति में हार का ठीकरा भी उन्हीं के सिर फूटना है। फिलवक्त चारों उपचुनाव क्षेत्रों में भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती रूठों को मनाना ही होने वाला है। टिकट की जंग में पिछड़ने वालों से बगावत और भीतरघात का खतरा लगातार बना हुआ है। अर्की में पूर्व विधायक गोविन्द राम शर्मा तो टिकट की घोषणा से पहले ही नामांकन की घोषणा कर चुके है। जुब्बल - कोटखाई में भी चेतन बरागटा और नीलम सरैक आमने- सामने दिख रहे है। फतेहपुर में अभी बार चक्की पार का नारा बुलंद है। ऐसे में पार्टी नेतृत्व के सामने विकट स्थिति है। पर भाजपा एक अनुशासित पार्टी है और संभवतः आलाकमान के हस्तक्षेप के जरिये रूठों को मना लिया जाए, पर यदि ऐसा न हो पाया तो जीत की डगर कठिन होगी। बेरोज़गारी, महंगाई जैसे मुद्दों के साथ -साथ भाजपा को बागवानों और कर्मचारियों को भी साधना होगा। आत्मविश्वास अच्छा हैं, पर अतिआत्मविश्वास अच्छी बात नहीं न संगठन सशक्त, न संसाधन सम्पन्नता, पर हौंसला बुलंद दिख रहा हैं। जिस आत्मविश्वास की कमी हिमाचल कांग्रेस में अक्सर दिखती रही हैं वो आत्मविश्वास भी उपचुनाव से पहले मानो लौट आया हैं। अंदाजा इसी बात से लगा लीजिये कि प्रदेश कांग्रेस के सरदार कुलदीप राठौर खुलकर आगामी उपचुनाव को 'सत्ता का सेमीफाइनल' करार दे रहे हैं। अब ये आत्मविश्वास हैं या अति आत्मविश्वास ये तो नतीजे तय करेंगे, पर फिलवक्त समर्थकों को सुकून इस बात का होगा कि कम से कम कांग्रेस की बॉडी लैंग्वेज सकरात्मक दिख रही हैं। पर अचानक ऐसा क्या हुआ कि सुस्त पड़ी कांग्रेस आत्मविश्वास से लबरेज दिखने लगी हैं, ये यक्ष प्रश्न हैं। क्या जमीनी स्तर पर कांग्रेस संगठन में मजबूती आई हैं? या यकायक संसाधनों की कमी से झूझती दिख यही कांग्रेस साधन संपन्न हो गई? आखिर हिमाचल कांग्रेस में बदला क्या हैं? दरअसल, कांग्रेस की जमीनी स्थिति में कोई ख़ास बदलाव नहीं दिखता। पर इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति ने कांग्रेस को जोश की ऑक्सीजन दे दी हैं। इसी सहानुभूति की लहर के बुते पार्टी संगठन और संसाधन की कमी को पाटना चाहती हैं, और कुछ हद तक ऐसा होता भी दिख रहा हैं। इस पर कुछ हालात भी पार्टी के अनुरूप बने है, विशेषकर नगर निगम चुनाव के बाद। पहले नगर निगम चुनाव में भाजपा की गलतियों ने कांग्रेस को बेहतर करने का मौका दिया। फिर सेब के गिरते दामों का मुद्दा हो, आईजीएमसी में कैंटीन का मुद्दा, या बाहरी राज्यों के लोगों को नौकरी का मुद्दा, कांग्रेस को बैठे बिठाये आवाज बुलंद करने का भरपूर मौका मिला। कांग्रेस की आस का तीसरा कारण है भाजपा में मची खींचतान। देश में बदलते मुख्यमंत्रियों के बीच प्रदेश में भी तरह-तरह की अटकलें लगती रही है जिससे निसंदेह एक संशय की स्थिति बनी। इसका मनोवैज्ञानिक लाभ भी कांग्रेस को मिला है। बहरहाल बेशक कांग्रेस आत्मविशवास के साथ मैदान में है लेकिन अनुकूल परिणाम के लिए पार्टी को अति आत्मविश्वास की स्थिति से बचना होगा। पार्टी को जहन में रखना होगा कि उनका मुकाबला उस भाजपा से है जिसके पास बेहद मजबूत संगठन भी है, पर्याप्त साधन भी और सबसे महत्वपूर्ण अनुशासन भी। इस पर भाजपा का मजबूत राष्ट्रीय नेतृत्व सोने पर सुहागा है। कांग्रेस को सुनिश्चित करना होगा कि उपचुनाव में ज़रा सी भी चूक न हो, न टिकट वितरण में और न संभावित बगावत और भीतरघात थामने में। सबसे बड़ा इम्तिहान 2017 में सत्ता वापसी के उपरांत मोठे तौर पर भाजपा के लिए हिमाचल में सब चंगा रहा है। 2019 में लोकसभा चुनाव में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया और फिर धर्मशाला और पच्छाद उपचुनाव में जीत मिली। जयराम ठाकुर के मुख्यमंत्री बनने के बाद सरकार व्यापक तौर पर क्लीन इमेज के साथ आगे बढ़ती रही। पंचायत चुनाव भी ठीक-ठाक निकल गए पर भाजपा को पहला झटका नगर निगम चुनाव में लगा। अब उपचुनाव होने है। विपक्ष अभी से उपचुनाव को सत्ता का सेमीफइनल कह रहा है। ये बीते चार साल में प्रदेश भाजपा और जयराम ठाकुर का सबसे बड़ा इम्तिहान है।
भाजपा के लिए मंडी संसदीय क्षेत्र का उपचुनाव न सिर्फ प्रदेश बल्कि केंद्र की सियासत के लिहाज से भी विशेष महत्व रखता है। प्रदेश के लिहाज से बात करें तो इस संसदीय क्षेत्र के तहत 17 विधानसभा हलके आते है, जिसमें से 9 स्वयं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह जिला मंडी के है। जाहिर है ऐसे में इस चुनाव को उनकी परफॉरमेंस से जोड़कर देखा जायेगा। वहीँ राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के उपरांत हिमाचल प्रदेश में ये जगत प्रकाश नड्डा का भी पहला बड़ा इम्तिहान है। सो उनके लिए भी ये चुनाव प्रतिष्ठता का प्रश्न है। ऐसे में भाजपा यहां कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर मंडी में जनसम्पर्क अभियान शुरू कर चुके है। मुख्यमंत्री ये एलान कर चुके है कि मंडी उनकी थी, उनकी है और उनकी ही रहेगी। किसी भी सूरत में मंडी उपचुनाव हारना भाजपा के लिए ऑप्शन नहीं है। येन- केन-प्रकारेण, मंडी में जीत सुनिश्चित करने के लिए पार्टी को जो भी करना पड़े पार्टी वो करने से पीछे नहीं हटेगी। शायद इसीलिए मंडी में स्वयं टिकट मांगने वाले प्रत्याशियों को अनदेखा कर पार्टी मंत्रियों को चुनाव लड़ने के लिए मनाने में लगी है। माना जा रहा है कि ज़रूरत पड़ी तो पार्टी कोई नया चेहरा सामने लाकर सभी को चौंका भी सकती है। मंडी संसदीय क्षेत्र की 17 सीटों में से 13 में भाजपा के विधायक है। ऐसे में सिर्फ मुख्यमंत्री और मंत्रियों पर ही नहीं, मंडी उपचुनाव में बेहतर करने का प्रेशर भाजपा के सभी 13 विधायकों पर है। विधायकों को अपने -अपने क्षेत्रों से लीड सुनिश्चित करनी होगी। इसी तरह अन्य चार विधानसभा क्षेत्रों में भी पार्टी के मुख्य चेहरों पर लीड दिलवाने का दबाव रहेगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में इन सभी 17 विधानसभा क्षेत्रों में भाजपा को शानदार लीड मिली थी, अब इसे बरकरार रखना बड़ी चुनौती है। ये तय है कि नतीजे के लिहाज से हर क्षेत्र का रिपोर्ट कार्ड तैयार किया जाएगा। नतीजे के बाद विधानसभा क्षेत्रवार नफे -नुक्सान का आंकलन होगा। ऐसे में ये प्रदर्शन 2022 में टिकट की दावेदारी पर भी असर डालेगा।
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया मार्क्सवादी हिमाचल प्रदेश में होने जा रहे मंडी संसदीय सीट सहित फतेहपुर, अर्की और जुब्बल कोटखाई के उपचुनाव में प्रत्याशी नहीं उतारेगी। शुक्रवार को शिमला में हुई पार्टी के राज्य सचिवालय मंडल की बैठक में यह फैसला लिया गया। माकपा ने उपचुनावों में भाजपा के प्रत्याशियों को हराने के लिए प्रचार और प्रसार करने की रणनीति बनाई है। माकपा के राज्य सचिव डॉ.ओंकार शाद ने कहा कि पार्टी के सभी पदाधिकारियों ने आपसी सहमति से उपचुनाव नहीं लड़ने का फैसला लिया है। केंद्रीय पदाधिकारियों को भी इस बाबत सूचित कर दिया है। उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य सरकार की नीतियां जन विरोधी है। आम जनता के हितों की अनदेखी की जा रही है। महंगाई, बेरोजगारी रोजाना रिकार्ड तोड़ रही है।
नई दिल्ली: प्रियंका इस बार खुद पूरे कैंपेन को लीड करेंगी। प्रियंका गांधी ने इस बार योगी और मोदी के इलाक़े से चुनावी अभियान शुरू करने की पूरी तैयारी की है। पहले वे पीएम के संसदीय क्षेत्र वाराणसी में रैली करेंगी फिर सीएम योगी आदित्यनाथ के गोरखपुर में चुनावी सभा करने का उनका इरादा है। प्रियंका का फ़ार्मूला है दोनों को उनके गढ़ से चुनौती देने का। वह जानती है यूपी में कांग्रेस को ज़िंदा करना किसी चमत्कार से कम नहीं है। परन्तु राजनीति में चमत्कार होते रहे हैं। प्रियंका ये मैसेज देना चाहती हैं कि मोदी और योगी से कोई लड़ सकता है तो वो कांग्रेस ही है। इस बार कांग्रेस अकेले अपने बूते चुनाव लड़ने की तैयारी कर रही है। प्रियंका कांग्रेस महासचिव हैं और यूपी की प्रभारी भी है। इसीलिए इस चुनाव में उनकी अपनी राजनैतिक प्रतिष्ठा भी दांव पर है। लगातार चार दिनों तक प्रियंका गांधी लखनऊ में रहीं। इस दौरान लगातार बैठकें करती रहीं। इलेक्शन कमेटी, स्क्रीनिंग कमेटी से लेकर सोशल मीडिया में काम कर रहे पार्टी कार्यकर्ताओं की मीटिंग में वे शामिल हुईं। यूपी चुनाव के लिए प्रियंका गांधी ने कांग्रेस की रणनीति अपने हिसाब से बनाई है। बीजेपी और संघ परिवार के ख़िलाफ़ वे आक्रामक तरीक़े से लड़ना चाहती हैं। इसीलिए उन्होंने चुनाव प्रचार का गणेश वाराणसी से करने का फ़ैसला किया है। उन्होंने कार्यकर्ताओं को रैली को कामयाब बनाने के लिए जुट जाने को कहा है। राज्य भर से कांग्रेस कार्यकर्ताओं को वाराणसी पहुंचाने को कहा गया है। तैयारी इस तरह से करने को कहा गया है कि प्रियंका की इस रैली से यूपी का चुनावी माहौल बदल जाए।
जनजातीय क्षेत्रों में होने वाले चुनावों के लिए सोमवार को शाम तीन बजे चुनाव प्रचार थम गया है। पंचायत प्रतिनिधियों को चुनने के लिए बुधवार को मतदान होगा। यह चुनाव पांगी, केलांग और काजा में होने है। मतदान के लिए सरकारी एवं निजी कार्यालयों में कार्यरत कर्मचारियों को पोलिंग के दिन छुट्टी देना अनिवार्य है। अगर कोई कंपनी या सरकारी कार्यालय के अधिकारी अपने अधीन काम कर रहे कर्मचारियों को वोट डालने के लिए छुट्टी नहीं देता है, तो उस पर केस बनेगा। साथ ही 500 रुपए का जुर्माना भी लगाया जाएगा। छुट्टी सिर्फ पोलिंग वाले दिन ही मिलेगी। इससे पहले पोलिंग स्टेशन तक पहुंचने के लिए छुट्टी का प्रावधान नहीं है। ऐसे में अब चुनाव प्रक्रिया समाप्त हो जाने तक इन क्षेत्रों में शराब के ठेके, बार व अन्य जगहें जहां पर शराब की बिक्री होती हैं, वह सभी जगहें बंद रहेगी। आदेश न मानने पर दो हजार रुपए का जुर्माना और छह महीने की कैद हो सकती है। यह दोनों सजाएं एक साथ भी हो सकती है। पहले चरण के चुनाव 29 सितंबर को होने है। चुनावों के लिए 170 पोलिंग पार्टियां रवाना कर दी गई है। यह पोलिंग पार्टियां अपने-अपने पोलिंग स्टेशन पर पहुंच चुकी है। मतदान के लिए 295 केंद्र स्थापित किए है। इनमें से 18 मतदान केंद्र संवदेनशील और 277 मतदान केंद्र सामान्य मतदान केंद्र घोषित किए गए है। इस प्रक्रिया में कोविड मरीज व क्वारंटाइन में रह रहे व्यक्ति भी भाग लेंगे। इस चुनाव प्रक्रिया में 42 हजार से ज्यादा मतदाता भाग लेंगे। जनजातीय क्षेत्रों में होने वाले चुनावों में तीन पंचायतों की कमान महिला अधिकारियों व कर्मचारियों के हाथ में रहेगी। इनमें केलांग जिला की तीन पंचायतें केलांग, उदयपुर और जालमा शामिल है। पांगी, केलांग और काजा में पंचायतीराज संस्थाओं के चुनाव के लिए चुनाव प्रक्रिया सुबह सात बजे से शुरू होकर शाम तीन बजे समाप्त होगी।
हिमाचल प्रदेश में सरकारी नौकरियों में बाहरी राज्यों के छात्रोंक के चयन को लेकर फिर से सवाल उठने लगे हैं। कांग्रेस के नेता और ऊना के हरोली से विधायक मुकेश अग्निहोत्री ने बिजली बोर्ड में जेई के पदों पर यूपी और बिहार के युवाओँ के चयन पर सवाल उठाए हैं। उन्होंने इस पर सरकार से जवाब भी मांगा है। कांग्रेस नेता और नेता विपक्ष मुकेश ने कहा कि बिजली बोर्ड़ में भर्ती में 16 जेई उतरप्रदेश और बिहार के लगा दिए हैं। कहां सोई है जयराम सरकार? हिमाचली के बच्चे कहां जाएँगे? यानी कुल भर्ती के एक तिहाई बाहर से हैं। मुकेश अग्निहोत्री ने कहा सरकार बदलो-हालात बदलो। उनके अलावा कई कांग्रेस नेताओँ ने भी भर्ती पर सवाल उठाए हैं। दरअसल, हिमाचल प्रदेश स्टाफ सिलेक्शन कमीशन की ओर से यह भर्ती आयोजित की गई है। इसका रिजल्ट अब डिक्लेयर किया गया है। जिसमें 16 पदों पर यूपी और बिहार के अभ्यर्थी चयनित हुए हैं। शुरुआत में तीन साल के कॉन्ट्रेक्ट पर ये लोग तैनात होंगे फिर बाद में इनकी सेवाएँ रेगुलर हो जाएँगी। दरअसल, 2018 में यह भर्ती प्रक्रिया शुरू हुई थी। बाद में इस पर कोर्ट की ओर से स्टे लगा दिया गया था। अब परिणाम सामने आया है क्योंकि यह भर्ती प्रक्रिया तीसरी और चौथी श्रेणी के लिए नहीं की गई है। ऐसे में देश भर से कोई भी परीक्षा में हिस्सा ले सकता है।
बीते दिनों सूबे के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को बदलने को लेकर खूब कयास लगते रहे, विशेषकर मुख्यमंत्री के दिल्ली प्रवास के दौरान। पर मुख्यमंत्री ताव- तेवर सहित लौटे और सबकी बोलती बंद हो गई। अब कम से कम उपचुनाव तक तो विरोधी भी खामोश है, और यदि नतीजे भाजपा के पक्ष में रहे तो मान सकते है कि ख़ामोशी बरकरार ही रहेगी। बहरहाल मुख्यमंत्री तो है पर उनकी प्लेइंग इलेवन को लेकर जरूर चर्चा हो रही है। अब जयराम कैबिनेट के मेक ओवर को लेकर कयासों का बाजार गर्म है। कहा जा रहा है कि टीम जयराम के 11 में से कुछ नॉन परफार्मिंग मंत्रियों की छुट्टी हो सकती है, कुछ के महकमे बदल सकते है, तो कुछ को बेलगाम होने का खामियाजा भुगतना पड़ा सकता है। मुख्यमंत्री के खासमखास सिपहसालार भी इस फेहरिस्त में शामिल बताए जा रहे है। एंटी इंकम्बेंसी साधने के लिहाज से पार्टी कैबिनेट के मेकओवर की रणनीति पर अमल कर सकती है। कैबिनेट फेरबदल की सुगबुगाहट के बीच कैबिनेट में शामिल कई नेताओं के विरोधी भी प्रो एक्टिव है। एक गुट विशेष के निशाने पर स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल दिख रहे है। कहा जा रहा है की या तो डॉक्टर साहब की छुट्टी होगी या कैबिनेट में उनका वजन घटेगा। पर देश भर में वैक्सीन में अव्वल हिमाचल प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री को बदले जाना तर्कसंगत नहीं लगता। दूसरा मुख्यमंत्री की तरह ही डॉ राजीव सैजल भी स्वच्छ छवि वाले नेता भी है और स्वभाव से सरल भी। तीसरा पांच विधानसभा सीट वाले जिला सोलन से डॉ सैजल इकलौते मंत्री है और अनुसूचित जाती से भी आते है। जयराम कैबिनेट में सीएम के बाद सबसे मजबूत माने जाने वाले महेंद्र सिंह ठाकुर को बदलने को लेकर भी कयास है। दरअसल बीते कुछ समय में महेंद्र सिंह के कुछ बयानों ने पार्टी की मुश्किलें निसंदेह बढ़ाई है। पर महेंद्र सिंह परफार्मिंग भी है और अन्य कुछ मंत्रियों से इतर मजबूत भी। जाहिर है ऐसे में उन्हें हटाना भी आसान नहीं है। हाँ यदि पार्टी उन्हें मंडी लोकसभा उपचुनाव में उतारती है तो इस बहाने जरूर कैबिनेट से उनकी एग्जिट हो सकती है। इसी तरह सरवीन चौधरी के नाम को लेकर भी चर्चा जरूर है पर सरवीन कैबिनेट में इकलौती महिला है। साथ ही सरवीन ओबीसी वर्ग से भी आती है। 2020 में हुए कैबिनेट विस्तार में पार्टी ने राजेंद्र गर्ग और सुखराम चौधरी को मंत्री बनाया था। राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के आशीर्वाद से पहली बार विधानसभा पहुंचे घुमारवीं विधायक गर्ग खाद्य आपूर्ति मंत्री तो बन गए पर अब तक अधिक प्रभावशाली नहीं दिखे है। हालांकि गर्ग के खिलाफ भी कोई मुद्दा नहीं दिखता। वहीँ पौंटा साहिब से विधायक सुखराम चौधरी ऊर्जा मंत्रालय मिलने के बावजूद निकाय और पंचायत चुनाव में पार्टी को अधिक ऊर्जा नहीं दे पाए थे। विरोधी उनके स्थान पर डॉ राजीव बिंदल की एंट्री का राग जरूर गा रहे है, पर बिंदल का अतीत इसमें आड़े आ सकता है। यदि मंत्रिमंडल में फेरबदल होता है तो इन दोनों नेताओं पर भी नज़र रहेगी।
तेवर बता रहे है कि खेल अभी बाकी है। भले ही कांग्रेस ने कैप्टन अमरिंदर सिंह को सीएम पद से हटाकर उनकी सियासी विदाई का बंदोबस्त कर दिया हो, लेकिन कैप्टन न झुकते लग रहे है और न रुकते। पिछले विधानसभा चुनाव को अपना अंतिम चुनाव करार देने वाले कैप्टन अब चुनाव लड़ने की बात भी कह रहे है और लड़वाने की भी। 'महाराजा पटियाला' ऐलान कर चुके है कि आगामी विधानसभा चुनाव में अगर कांग्रेस का चेहरा सिद्धू हुए तो वे उनके खिलाफ दमदार प्रत्याशी मैदान में उतारेंगे। कैप्टन ये भी इशारा दे चुके है कि राजनीति चलने का नाम है थमने का नहीं, और उनके पास विकल्प भी है। अब फिलहाल कांग्रेस में तो कैप्टन की राजनीति चलती दिख नहीं रही, यानी पंजाब की सियासी फिल्म का क्लाइमेक्स अभी बाकी है। कैप्टन की जद्दोजहद अभी बाकी है, अमभवतः कोई ट्विस्ट अभी बाकी है। पर्दा सिर्फ इस बात से उठना है कि कैप्टन का अगला कदम क्या होगा, क्या कैप्टेन नई पार्टी बनाएंगे, क्या कैप्टेन भाजपा में जाएंगे, या फिर बिना किसी दल में शामिल हुए चुनाव में अपने उम्मीदवार उतारेंगे। बहरहाल पंजाब कांग्रेस में हुई इस उठापठक के बीच आगामी विधानसभा चुनाव में भरपूर एक्शन तय है। सियासी गलियारों में चर्चा आम है कि भाजपा कैप्टन अमरिंदर सिंह को अपने खेमे में लाने को प्रयासरत है। हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज तो खुलकर कैप्टेन को न्योता दे चुके है। वैसे भी पंजाब में भाजपा में न धार और न पार्टी का जनाधार। ऐसे में कैप्टन के साथ कांग्रेस की पूरी एक लॉबी को इम्पोर्ट करके भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज करवा सकती है। वैसे भी बीते कुछ वर्षों में ये भाजपा की सबसे सफल रणनीति साबित हुई है। अरुणाचल प्रदेश सहित कई राज्यों में भाजपा सरकार इसी रणनीति की देन है। पर कैप्टन और भाजपा के बीच सबसे बड़ी खाई देश में चल रहा किसान आंदोलन है। माहिर मानते है कि यहां कैप्टन कोई समझौता करेंगे, ऐसा मुश्किल है। बरहाल कांग्रेस हो या भाजपा या कोई अन्य दल, सबकी नज़रें कैप्टन अमरिंदर सिंह पर टिकी है। पांच दशक से भी अधिक की अपनी राजनीति और अनुभव के बुते कैप्टन पंजाब में खेला करने की कुव्वत भी रखते है और तेवर बता रहे है कि जुर्रत भी। अंदाजा इसी बात से लगा लीजिये कि कैप्टन राहुल -प्रियंका को अनुभवहीन करार दे चुके है। कांग्रेस से खफा सिर्फ कैप्टन ही नहीं है, सुनील जाखड़ जैसे कई अन्य दिग्गज भी पार्टी के रुख और कार्यशैली से असंतुष्ट दिख रहे है। ऐसे में मिशन रिपीट का ख्वाब संजोये बैठी कांग्रेस को सुनिश्चित करना होगा कि ये एक और एक ग्यारह न हो। असंतोष न साधा गया तो नुक्सान तय होगा। चन्नी 'हिट' हुए तो सिद्धू 'फिट' नहीं होंगे जगजाहिर है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह की फेयरवेल फिल्म का निर्देशन नवजोत सिंह सिद्धू ने किया था और कैप्टन के इस्तीफे के बाद मुख्यमंत्री पद के लिए खुद नवजोत सिंह सिद्धू, सुनील जाखड़, अंबिका सोनी और सुखजिंदर सिंह रंधावा के नामों पर कयास लगते रहे पर कांग्रेस हाईकमान ने चरणजीत सिंह चन्नी के नाम का ऐलान करके सबको चौंका दिया। चन्नी पंजाब में दलित समुदाय से पहले मुख्य्मंत्री है। दरअसल पंजाब विधानसभा के चार महीने पहले पार्टी ने दलित कार्ड खेला है। पंजाब में 30 प्रतिशत से अधिक दलित सिख है ऐसे में चन्नी को सीएम बनाकर पार्टी की नज़र इस वोट पर है। वहीँ प्रदेश अध्यक्ष सिद्धू जाट सिख है और अगले सीएम के लिए उनके नाम पर सस्पेंस क़याम रखकर पार्टी जाट सिख वोट को भी साधना चाह रही है। एक वर्ग मानता है कि बतौर मुख्यमन्त्री चन्नी की तैनाती कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध हो सकता है पर ये भी तय है कि यदि कांग्रेस वापस सत्ता में लौटती है तो चन्नी को हटाना भी पार्टी के लिए आसान नहीं होने वाला। चन्नी हिट हो गए तो सीएम की कुर्सी पर 2022 में भी सिद्धू शायद फिट न हो पाएं।
पिक्चर बेशक नई है लेकिन नाटक वहीँ पुराना चल रहा है। अभी तो मंडी लोकसभा उपचुनाव की तारीख भी तय नहीं हुई और कांग्रेसियों की भौंहें तन गई। कांग्रेसी दिग्गज टिकट आवंटन को लेकर अपना-अपना पक्ष सामने रख रहे है। कोई खुले तौर पर टिकट के लिए देवदारी पेश कर रहा है तो कोई आलाकमान के आदेश का इंतज़ार, मगर तैयारियां दोनों तरफ शुरू है। टिकट पर संशय बरकरार है और सियासी खींचतान चरम पर। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री स्व.वीरभद्र सिंह की पत्नी और पूर्व सांसद प्रतिभा सिंह है तो दूसरी तरफ सियासत के चाणक्य पंडित सुखराम के पोते और पिछले लोकसभा चुनाव में पार्टी प्रत्याशी रहे आश्रय शर्मा। फर्क है तो बस इतना कि प्रतिभा के साथ प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर सहित कांग्रेस का बड़ा तबका दिख रहा है, तो आश्रय कुछ अकेले-अकेले। प्रतिभा जहां आलाकमान के आदेश पर चुनाव लड़ने की बात कह रही है, तो आश्रय जनसम्पर्क अभियान भी शुरू कर चुके है। दरअसल बीते दिनों कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर ने खुले मंच से मंडी लोकसभा के लिए प्रतिभा सिंह को सर्वमान्य प्रत्याशी बताया था। इस बात से पंडित सुखराम काफी आहत हुए। पंडित जी दिल्ली में थे और वहीँ से पलटवार किया कि कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष कुलदीप राठौर प्रत्याशी का चयन नहीं करेंगे, उनके पास टिकट बांटने का कोई अधिकार नहीं है। टिकट किसे देना है और किसे नहीं, यह पार्टी हाईकमान का अंदरूनी फैसला होता है। उनका कहना है कि आश्रय शर्मा ने 2019 लोकसभा चुनाव में मंडी संसदीय सीट से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा था और इस लिहाज से उपचुनाव में आश्रय की दावेदारी सबसे प्रबल बनती है। यानी पंडित सुखराम अपने पोते आश्रय शर्मा के टिकट के लिए मोर्चा खोलते दिख रहे है। इससे पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने भारतीय जनता पार्टी से अपने पोते के लिए टिकट मांगा था जो उन्हें नहीं मिला था। तब नाराज़ होकर सुखराम पोते सहित कांग्रेस में लौट गए और टिकट भी ले आये थे। पर हुआ वो ही जो अपेक्षित था, आश्रय चुनाव हार गए। अब उपचुनाव में पंडित सुखराम फिर आश्रय के लिए टिकट चाहते है तो प्रदेश कांग्रेस पूरी तरह प्रतिभा सिंह के साथ दिख रही है। 2019 में रिकॉर्ड अंतर से हारे थे आश्रय 2019 के लोकसभा चुनाव में आश्रय शर्मा रिकॉर्ड 4 लाख 5 हज़ार 459 वोट के अंतर से बुरी तरह चुनाव हार गए थे। उस चुनाव में रामस्वरूप शर्मा को 6 लाख 47 हजार 189 मत पड़े थे जबकि कांग्रेस के आश्रय शर्मा को महज 2 लाख 41 हजार 730 मत मिले थे। यहां तक कि जिन विधानसभा क्षेत्राें में कांग्रेस के विधायक थे, वहां पर भी आश्रय काे बढ़त नहीं मिल पाई थी। इसे देखते हुए आश्रय को दोबारा टिकट मिलने की उम्मीद बेमानी सी लग रही है। प्रतिभा सिंह का दावा मजबूत प्रतिभा सिंह मंडी संसदीय क्षेत्र से चार बार चुनाव लड़ चुकी है। दो बार उन्हें जीत मिली है और दो बार हार का सामना करना पड़ा है। 2014 की मोदी लहर में भी प्रतिभा सिंह मंडी से करीब 40 हजार वोट से ही हारी थी। मौजूदा समय में प्रतिभा एक दमदार प्रत्याशी मानी जा रही है। उनको पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उपजी सहानुभूति का लाभ मिलना भी तय है। नतीजा जो भी रहे पर यदि कांग्रेस प्रतिभा सिंह पर दाव खेलती है तो मंडी का घमासान रोचक होगा। अब भाजपा को भी जोर लगाना होगा मंडी लोकसभा उपचुनाव भाजपा के लिए आसान दिख रहा था पर बीते दिनों के सियासी घटनाक्रम और वीरभद्र सिंह के निधन के बाद स्थिति बदल चुकी है। विशेषकर यदि प्रतिभा सिंह मैदान में उतारती है तो भाजपा को भी जोर लगाना होगा। ऐसे में चर्चा है कि भाजपा दो मंत्रियों में से किसी एक को मैदान में उतार सकती है, यानी महेंद्र सिंह और गोविन्द सिंह ठाकुर में से कोई एक भाजपा का चेहरा हो सकता है।
कोलकाता: पश्चिम बंगाल में कोलकाता पुलिस ने मुख्यमंत्री आवास के पास कालीघाट क्षेत्र में विरोध प्रदर्शन को लेकर राज्य के बीजेपी अध्यक्ष सुकांत मजूमदार और भवानीपुर सीट से उम्मीदवार प्रिंयका टिबरेवाल समेत कई नेताओं के खिलाफ केस दर्ज किया है। पुलिस ने थाने में आईपीसी की धारा 143/145/147/149/283/353 के तहत मामला दर्ज किया गया है। बीजेपी के नेताओं ने मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के आवास के इलाके में बीजेपी नेता के पार्थिव शरीर के साथ विरोध प्रदर्शन किया था। जिन नेताओं के खिलाफ केस दर्ज किया गया है, उनमें राज्य के बीजेपी अध्यक्ष सुकांत मजूमदार, भवानीपुर सीट से उम्मीदवार प्रिंयका टिबरेवाल, सांसद ज्योतिर्मय सिंह महतो, सांसद अर्जुन सिंह शामिल हैं। पश्चिम बंगाल के नेता धुरजोती उर्फ मानस साहा की चुनाव के बाद हुई हिंसा में घायल होने के बाद बुधवार को मौत हो गई थी। कोलकाता पुलिस ने सीएम आवास के पास विरोध प्रदर्शन के दौरान बीजेपी नेताओं पर अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने से लोक सेवकों को रोकने के लिए गैरकानूनी रूप से इकट्ठा होने, दंगा करने, बाधा डालने, आपराधिक बल का उपयोग करने के आरोप लगाए हैं।
उत्तर प्रदेश के अमरोहा की धनोरा तहसील पहुंचे किसान संगठन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने बड़ा बयान दिया है। उन्होंने कहा कि जो लोग किसान आंदोलन को राजनीति बता रहे हैं, क्या उन्होंने किसानों का वोट नहीं लिया और जब किसान ने वोट दिया है तो वह हक की लड़ाई कर मांग ले तो वह राजनीति हो गई। राकेश टिकैत का धनोरा तहसील में किसान संगठन के कार्यकर्ताओं ने फूल माला से स्वागत किया। बता दें कि, राकेश टिकैत ने बीजेपी सरकार पर जमकर निशाना साधा कहा अगर इमानदारी लोकतंत्र के दायरे में रहकर चुनाव कराया गया तो यह सरकार नहीं बना पाएंगे और अब चुनाव नजदीक है। इसलिए यह जगह-जगह जनसभाएं कर 50 रुपये गन्ने पर प्रति कुंटल बढ़ाने की बात ये कर रहे हैं और किसान जब वोट देना जानता है, तो क्या अपनी मांग नहीं रख सकता और प्रदेश के मुख्यमंत्री जब जगह-जगह दौरे पर गन्ना मूल्य बढ़ाने की बात कर रहे हैं, तो वह किसानों की बकाया रकम भी दिलवा दें। उन्होंने कहा किआज लोकतंत्र के दायरे में रहकर चुनाव कराया जाए तो यह सरकार नहीं बना पाएंगे और किसान यूं ही डटा रहेगा।
2022 में देश के सात राज्यों में चुनाव होने है। ये राज्य है गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात। चुनावी अखाड़े में एक दूसरे को पटखनी देने के लिए राजनीतिक दलों ने अभी से कमर कस ली है। कहां किन राज्यों में किस पार्टी से हाथ मिलाना है, किन पुराने दुश्मनों को दोस्त बनाना है और किसे आखिरी वक्त पर झटका देना है, इन सारे मुद्दों पर पर्दे के पीछे खेल शुरू हो गया है। फिलहाल इन 7 में से 6 राज्यों में भाजपा की सरकार है। स्पष्ट है कि ये दबदबा कायम रखने के लिए बीजेपी हर संभव प्रयास करेगी। या यूँ कहे कि प्रयास और परिश्रम दोनों शुरू हो चुके है। दिलचस्प बात ये है कि हालहीं में इनमें से दो राज्यों में तो पार्टी मुख्यमंत्री बदल चुकी है। लग रहा है मानों एंटी इंकम्बैंसी ख़त्म करने के लिए चेहरे बदलने की रणनीति पर पार्टी आगे बढ़ने का मन बना चुकी है। हिमाचल प्रदेश : उपचुनाव पर टिकी सबकी नज़र हिमाचल में भी 2022 में विधानसभा चुनाव होने है। बीते 2017 के विधानसभा चुनाव में जनता ने भाजपा को जीतवा दिया लेकिन सीएम फेस प्रो प्रेमकुमार धूमल को हराकर नेतर्त्व परिवर्तन की राह प्रशस्त कर दी। इसके पश्चात मुख्यमंत्री के तौर पर एंट्री हुई जयराम ठाकुर की। अब तक के अपने कार्यकाल में जयराम ठाकुर हर चुनौती का पूरी ताकत से सामना करते आए है। पहले मंत्रिमंडल और फिर धीरे धीरे संगठन पर भी मुख्यमंत्री ने नियंत्रण बना लिया। जो धूमल समर्थक मंत्री बनने का सपना देख रहे थे वो या तो कम में सेटलमेंट को राज़ी गए, या साइडलाइन कर दिए गए। कुछ समय पहले तक सब ठीक लग रहा था परन्तु अब प्रदेश में लगातार बढ़ रही धूमल की सक्रियता और केंद्र की सियासत में बढ़ रहे धूमल पुत्र अनुराग ठाकुर के कद ने समीकरण कुछ बदले जरूर है। भाजपाइयों की निष्ठा दो तबकों में बंटती नज़र आ रही है। पर ख़ास बात ये है कि विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल में उपचुनाव होने है, जिस पर सबकी नज़र है। उत्तर प्रदेश : यहाँ लगातार दूसरी बार कोई सीएम नहीं बना देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में आगामी फरवरी-मार्च में चुनाव संभावित है। 403 सीट वाली उत्तर प्रदेश विधानसभा में साल 2017 के चुनाव में बीजेपी ने एकतरफा जीत दर्ज की थी। तब बीजेपी को 312 सीटों पर जीत मिली थी। हालांकि तब सत्तारूढ़ सपा और कांग्रेस में गठबंधन हुआ था पर जनता ने उस गठबंधन को तारे दिखा दिए थे। चुनाव के बाद भाजपा से योगी आदित्यनाथ के अलावा दिनेश शर्मा और केशव प्रसाद मौर्य भी सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन आलाकमान का आशीर्वाद मिला योगी आदित्यनाथ को। अब योगी के चेहरे पर ही भाजपा फिर मैदान में है। केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को चुनाव प्रभारी की कमान सौंपी गई है। इनके आलावा राज्य में सात सह प्रभारी नियुक्त किए गए है, जिसमें केंद्रीय मंत्री और हमीरपुर से सांसद अनुराग ठाकुर भी शामिल है। उत्तर प्रदेश के चुनावी इतिहास में कोई भी मुख्यमंत्री लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री नहीं चुना गया है। हालाँकि योगी लगातार दावा कर रहे है की वो ही दूसरी बार मुख्यमंत्री चुने जाएंगे। पर उनकी राह आसान नहीं होनी। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे कारण है जो योगी की मुश्किल बढ़ा सकते है, पहला है पार्टी के भीतर से उठ रहे विरोध के स्वर। हालांकि बाहरी तौर पर योगी आदित्यनाथ इन्हें साधने में कामयाब जरूर दिख रहे है पर जगजाहिर है की कुछ माह पूर्व तक उत्तर प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन तक के कयास लग रहे थे। ब्राह्मण समुदाय की तथाकथित नाराज़गी भी उत्तर प्रदेश में एक प्रभावी फैक्टर हो सकता है। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बहुजन समाज पार्टी ने भी चुनाव अभियान की शुरुआत में ब्राह्मण समुदाय को साधने के लिए 'प्रबुद्ध वर्ग के सम्मान में विचार गोष्ठी' नामक आयोजन किया है। वहीं अन्य पार्टियां भी पीछे नहीं है। समाजवादी पार्टी अभी से मुस्लिम -यादव वोट को एकजुट रखने का प्रयास करती दिख रही है और यदि ऐसा हो पाया तो भाजपा की चुनौती जरूर बढ़ेगी। हालांकि ओवैसी अगर मुस्लिम वोट में सेंध लगा पाए तो भाजपा को इसका लाभ होना लाज़मी होगा। ऐसे में मुस्लिम वोट बंटता है या एकजुट रहेगा, इस पर सभी विश्लेषकों की नज़र रहेगी। किसान आंदोलन भी भाजपा के सामने बड़ी चुनौती है। किसान वर्ग पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 60 से अधिक सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। भाजपा अभी से किसान और जाट वोट को साधने को प्रयासरत दिख रही है। बहरहाल दिल्ली की गद्दी का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर जाता है। ऐसे में भाजपा उत्तर प्रदेश में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहेगी। गोवा : चुनाव सिर पर हैं और पार्टी सचेत गोवा में भी अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। छोटा राज्य होने के बावजूद गोवा में राजनीतिक उठापटक ज्यादा होती है। गोवा में बीजेपी के मौजूदा मुख्यमंत्री प्रमोद सावंत के साथ-साथ राज्य के स्वास्थ्य मंत्री विश्वजीत राणे भी 2022 के सीएम पद के दावेदार के तौर पर अपने आपको पेश कर रहे हैं। कोरोना प्रबंधन को लेकर दोनों ही नेताओं के बीच खींचतान की खबरें भी आई थी। विश्वजीत राणे पूर्व मुख्यमंत्री प्रताप सिंह राणे के पुत्र हैं और कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में आए हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी यहां बहुमत से दूर हो गई थी, लेकिन नंबर गेम के जरिए वो सरकार बनाने में सफल रही। बहरहाल गोवा में चुनाव सिर पर हैं और पार्टी सचेत। पिछले दिनों बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने सियासी अनुमान लेने के लिए गोवा का दौरा भी किया था। उन्होंने दोनों नेताओं के बीच बेहतर तालमेल पर जोर दिया था। प्रमोद सावंत के कोरोना प्रबंधन को लेकर खूब सवाल उठे थे। गोवा के अस्पतालों से जैसी तस्वीरें सामने आईं वैसी बीजेपी शासित किसी दूसरे राज्य में नहीं दिखीं। माहिर मानते है कि पार्टी आलाकमान सुनिश्चित करना चाहेगा कि इसका खामियाजा विधानसभा चुनाव में न भुगतना पड़े। पंजाब : थोड़ी ही सही मौजूदगी तो हो पंजाब में फिलहाल कांग्रेस की सरकार है। पिछली बार यहां बीजेपी गठबंधन को करारी हार का सामना करना पड़ा था। कांग्रेस को 77 सीटों पर जीत मिली थी। जबकि दूसरे नंबर पर आम आदमी पार्टी रही थी। बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल गठबंधन को सिर्फ 15 सीटों पर जीत मिली थी। इस बार बीजेपी और अकाली दल का गठबंधन टूट गया है। पंजाब में लंबे समय से अकाली दल के साथ छोटे भाई की भूमिका में रहने के चलते भाजपा अपना राज्य में विस्तार नहीं कर पाई है। अब जबकि अगले साल राज्य में चुनाव होने हैं तो अकाली दल से अलग होने के बाद उसके सामने अपने अस्तित्व का संकट खड़ा है। कोई भी नेता विश्वास के साथ यह नहीं कह सकता है कि भावी पंजाब विधानसभा में उनकी उपस्थिति कितनी होगी? पंजाब में भाजपा अब हरियाणा की तर्ज पर खुद को मजबूत करने की तैयारी में हैं, हालांकि इस काम में उसे बहुत लम्बा समय लगेगा। कोई बड़ा प्रयोग भी पंजाब में भाजपा की नैया पार करवाता नहीं दिख रहा। फिलवक्त पंजाब में भाजपा की और से गजेंद्र सिंह शेखावत को चुनाव प्रभारी बनने का मौका मिला है। यहां तीन सह प्रभारी भी बनाए गए हैं। इनमें हरदीप सिंह पुरी, मीनाक्षी लेखी और विनोद चावड़ा का नाम शामिल है। भाजपा की कोशिश शायद ये ही रहेगी कि थोड़ी ही सही विधानसभा में उनकी मौजूदगी तो रहे। उत्तराखंड : प्रदेश इसी साल में देख चूका है तीन सीएम उत्तराखंड में विधानसभा चुनाव से पहले दूसरी बार प्रचंड बहुमत पाकर सत्ता में वापसी का दावा करने वाली बीजेपी के भीतर शह मात का खेल शुरू हो गया है। पार्टी दो धड़ों में विभाजित नज़र आ रही है। एक धड़ा जो कांग्रेस से आये लोगों का है तो दूसरा पुराना भाजपाइयों का। ऐसे में आपसी कलह फिर सामने आ रही है। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और राष्ट्रीय महामंत्री संगठन बीएल संतोष हर महीने उत्तराखंड का दौरा कर रहे हैं, मगर स्थिति नियंत्रण में आती नहीं दिख रही है। गौरतलब है की उत्तराखंड में बीजेपी ने कुछ ही महीने के भीतर दो बार मुख्यमंत्री को बदला है। सबसे पहले त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटाकर उनकी जगह तीरथ सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया। बीजेपी को लगा था कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के नेतृत्व में पार्टी अपना जनाधार खो देगी इसलिए नए सीएम के तौर पर तीरथ सिंह को सामने लाया गया था। पर तीरथ सिंह रावत मुश्किल से चार महीने ही कुर्सी पर रह पाए थे कि एक बार फिर केंद्रीय नेतृत्व के फरमान ने उनकी सीएम की कुर्सी ले ली। कारण चाहे संवैधानिक संकट बताया गया हो पर शायद पार्टी को लगा हो कि तीरथ सिंह को सीएम बनाने का फैसला गलत था। इसके बाद मार्च में कुर्सी संभालने वाले तीरथ जुलाई की शुरुआत में ही अपना पद खो बैठे। आलाकमान ने उनकी जगह पुष्कर सिंह धामी को उत्तराखंड की कमान सौंप दी। मगर पुष्कर सिंह धामी के नेतृत्व में भी भाजपा में अंतर्कलह कम होती नहीं दिखाई दे रही। धामी के लिए पार्टी को सत्ता में लाना किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं होगा। गुजरात : पटेल वोट और एंटी इंकम्बेंसी, दोनों साधने की कवायद बीजेपी ने गुजरात विधानसभा चुनाव से ठीक एक साल पहले ना सिर्फ सरकार का कप्तान बदला बल्कि पूरी टीम ही बदल डाली। गुजरात में बीजेपी ने फिर राजनीतिक प्रयोग की इबारत लिखते हुए मंत्रिमंडल के सिर्फ चेहरे ही नहीं बदले गए बल्कि जातिगत और क्षेत्रीय बैलेंस का भी बखूबी ख्याल रखा। पटेल मुख्यमंत्री ही नहीं बल्कि कैबिनेट में भी पटेल समुदाय को खूब जगह दी गई है। पटेल वोट का असर पार्टी 2017 के विधानसभा चुनाव में खूब देख चुकी है जहाँ कांग्रेस ने उसे कड़ी टक्कर दी थी। वहीँ कंप्लीट मेक ओवर करके पार्टी शायद संभावित सत्ता विरोधी लहर को भी समाप्त करना चाहती है। पार्टी का ये प्रयोग निकाय चुनाव में सफल भी रहा था। बेशक भाजपा पटेल समुदाय को तवज्जो देकर उनका दिल जीतना चाहती हो लेकिन बड़ा सवाल ये भी है कि कहीं ऐसा कर भाजपा अन्य की नाराज़गी तो मोल नहीं ले रही ? दूसरा, मुख्यमंत्री सहित जिन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है कहीं उनकी नाराज़गी पार्टी को भारी तो नहीं पड़ेगी ? बहरहाल गुजरात खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का गढ़ है, सियासत के चाणक्य अमित शाह का गृह राज्य है, और शायद ये ही कारण है कि भाजपा ने इतना बड़ा प्रयोग करने का जोखिम उठाया है। भाजपा के लिए मोदी है तो मुमकिन है। मणिपुर : यहाँ भी मिशन रिपीट आसान नहीं मणिपुर विधानसभा की 60 सीटों के लिए 2022 में चुनाव होने है। भाजपा ने केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव को मणिपुर का प्रभारी बनाया है। मणिपुर में भाजपा की सरकार है और एन बिरेन मुख्यमंत्री है । 2017 के चुनाव में भाजपा को 21 कांग्रेस को 19, एनपीपी को चार सीटें और एनपीएफ को 4 सीटें मिली थी। एनपीपी के सभी चार विधायकों ने भाजपा का समर्थन किया। बीरेन ने बारी-बारी से उन सभी को कैबिनेट मंत्री भी बनाया। हालांकि, नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) के चार विधायक जिन्होंने बीरेन को समर्थन दिया था, वे इस बात से खुश नहीं है क्योंकि उनमें से सिर्फ दो को मंत्री बनाया गया था। बाद के घटनाक्रम में, एनपीपी के सभी चार विधायकों को हटा दिया गया और दो को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। परन्तु अब एनपीपी गठबंधन के मूड में नहीं दिख रहा। एनपीपी का प्रतिनिधित्व करने वाले पूर्व शिक्षा और स्वास्थ्य मंत्री एल जयंतकुमार ने कहा है कि किसी भी पार्टी के साथ चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं होगा। इसके अलावा हाल ही में मणिपुर कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष गोविंददास कोंथौजैम भारतीय जनता पार्टी में शामिल हुए हैं जो भाजपा के लिए अच्छी खबर है।
'अब बदला, तब बदला, कब बदला, समझो बदल ही गया ' जयराम विरोधी हिमाचल में ये ही गाना गा रहे है और मुख्यमंत्री हर बार दमखम के साथ पलटवार करते आ रहे है। अटकलों पर विराम भी लगा रहे है और कयासों को खारिज भी कर रह है। 'मैं था, मैं हूँ और मैं ही रहूँगा' ये कहते हुए मुख्यमंत्री विपक्ष को नसीहत भी दे रहे है और विरोधियों को सन्देश भी। पर सवाल ये है कि आखिर हंगामा बरपा क्यों है ? ऐसा क्या हो गया कि अचानक हिमाचल की राजनीति में ये नया शगूफा छिड़ गया। दरअसल, मिशन रिपीट के लिए सियासत की गुजरात प्रयोगशाला में भाजपा ने बड़ा प्रयोग किया है। सीएम तो बदला ही, विधानसभा स्पीकर सहित पूरी कैबिनेट बदल दी गई। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा ने इसी वर्ष हुए निकाय चुनाव का ये ट्राइड एंड टेस्टेड फार्मूला अपनाया है, ताकि संभावित सत्ता विरोधी लहर को साधा जा सके। इससे पहले कर्नाटक में मुख्यमंत्री को बदल दिया गया था और उत्तराखंड तो इसी वर्ष में तीन मुख्यमंत्री देख चूका है। असम में भी भाजपा बिना सीएम फेस के विधानसभा चुनाव में उतरी, पर प्रचार के दौरान ही हेमंत बिस्वा सरमा को मिल रही तवज्जो ने संकेत दे दिए थे कि परिणाम के बाद बदलाव मुमकिन है, और हुआ भी ऐसा ही। भाजपा आलाकमान का सन्देश स्पष्ट है, मिशन रिपीट के लिए कुछ भी किया जायेगा। जो सत्ता वापसी की गारंटी नहीं दे सकता वो चेहरा बदल दिया जायेगा। भाजपा के इस ट्रेंड ने ही हिमाचल के सियासी गलियारों में हलचल बढ़ा दी है। सरकार विद्रोही हो या समर्थक सभी की धुकधुकी बढ़ गई है। कुछ चुप बैठे तमाशे का इंतज़ार कर रहे है तो कुछ ने नसीहतें बांटना शुरू कर दिया है। इसपर प्रदेश में प्रो. प्रेम कुमार धूमल की बढ़ती सक्रियता और केंद्र की सियासत में अनुराग के बढ़ते कद ने भी हिमाचल की सियासत में नए समीकरण पैदा कर दिए है। बहरहाल, राग कोई भी गाया जाए पर एक बात तय है, मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की स्वच्छ छवि और सरल स्वभाव ने हमेशा ही सरकार की खामियों को छुपाने के लिए ढाल का काम किया है। इसे जयराम ठाकुर का तिलिस्म ही कहेंगे कि जब कोरोना काल में स्वास्थ्य घोटाला हुआ तब भी सीएम की स्वच्छ और ईमानदार छवि पर कोई दाग नहीं लगा, जबकि तब स्वास्थ्य महकमा खुद सीएम जयराम ठाकुर देख रहे थे। इसी तरह बेशक भाजपा में हावी होती गुटबाज़ी ने हमेशा उन्हें कुछ असहज रखा हो लेकिन हर मौके पर जयराम चौका मारते रहे, संगठन में भी उनकी दखल और पकड़ इसे साबित करते है। आज सरकार और संगठन को एक भी कहा जाए तो गलत नहीं होगा। किन्तु मंत्रियों द्वारा दिए गए ऊल जलूल ब्यान और सरकार के निर्णय बदलने की छवि जरूर जयराम ठाकुर के सामने बड़ी चुनौती है। इसमें कोई संशय नहीं है कि कई बयानवीरों ने आम जनता के बीच सरकार की छवि खराब की है, वहीँ बैठे बिठाए विपक्ष को भी हल्ला बोलने के मौके दिए है। विशेषकर पिछले कुछ समय में निरंतर इस तरह के घटनाक्रम ने उपचुनाव से पहले सरकार की मुश्किलें बढ़ाई है। अगर वक्त रहते डैमेज कंट्रोल नहीं हुआ तो जाहिर है नतीजे प्रतिकूल हो सकते है। उपचुनाव हुए नहीं, शोर अभी से मचा है 2022 विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश में उपचुनाव होने है, जिन्हें सत्ता के सेमीफाइनल के तौर पर देखा जा रहा है। उपचुनाव में अच्छा परफॉर्म करने का प्रेशर भी जयराम सरकार पर है। उपचुनाव में यदि पार्टी अच्छा परफॉर्म करती है तो स्थिति 'सब चंगा', पर यदि भाजपा ने उपचुनाव में अच्छा नहीं किया तो आगे क्या होगा, इसे लेकर अभी से शोर मचा है। सियासी माहिर मानते है कि पार्टी तैयारियों को लेकर कितने ही दावे कर ले उपचुनाव भाजपा का कड़ा इम्तिहान लेंगे। कहीं मज़बूत प्रतिद्वंदी तो कहीं अपने ही पार्टी को डूबा सकते है। मंडी लोकसभा हो या जुब्बल कोटखाई, अर्की, और फतेहपुर विधानसभा हर निर्वाचन क्षेत्र भाजपा के टिकट को लेकर होड़ मची हुई है। हर जगह पार्टी गुटों में विभाजित नज़र आ रही है जो पार्टी को भारी पड़ सकता है। इस अंतर्कलह को साधने की कवायद बोर्ड और निगम में अध्यक्ष पद पर नियुक्ति के प्रस्ताव से की जा रही है, पर कुछ ठीक होता नज़र नहीं आ रहा। अंतर्कलह से इतर मंडी लोकसभा उपचुनाव में कांग्रेस की तरफ से यदि प्रतिभा सिंह मैदान में उतरती है तो भाजपा की कठिनाइयां बढ़ने के आसार है। जाहिर है पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निधन के बाद सहानुभूति लहर कांग्रेस को फायदा दे सकती है। ऐसे में भाजपा को मजबूत प्रत्याशी देना होगा और कोई कैबिनेट मंत्री भी चेहरा हो सकता है। वहीं जुब्बल कोटखाई में सेब के गिरते दाम से माहौल कुछ खराब है। इस पर पार्टी के भीतर से परिवारवाद के खिलाफ आवाज भी उठ रही है। बात फतेहपुर की करें तो यहां भाजपा के सामने दोहरी चुनौती होगी, एक तरफ कांग्रेस प्रत्याशी तो दूसरी तरफ हमारी पार्टी हिमाचल पार्टी के संस्थापक और 5 बार के विधायक राजन सुशांत भी मैदान में हो सकते है। इस पर अबकी बार चक्की पार का नारा भी भाजपा की बेचैनी बढ़ा रहा होगा। अर्की में भी फिलवक्त भाजपा के लिए अंतर्कलह सबसे बड़ी चुनौती होगी।
पंजाब कांग्रेस में फिर घमासान शुरू हो गया है। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के खिलाफ 40 विधायकों के मोर्चा खोलने के बाद पार्टी ने शनिवार को विधायक दल की बैठक बुलाई है। यह बैठक शाम 5 बजे होनी है ।कैप्टन अमरिंदर सिंह विधायक दल की बैठक में नहीं शामिल होंगे। बैठक से पहले शाम 4.30 बजे कैप्टन अमरिंदर सिंह राजयपाल से मुलाकात करने राजभवन पहुंचे हैं और कुछ देर में पद से इस्तीफा दे देंगे। राजभवन से ही वह प्रेस कॉन्फ्रेंस को भी संबोधित करेंगे।
यूपी में विधानसभा चुनाव से पहले आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है। विरोधी दल एक-दूसरे दलों के नेताओं पर जमकर हमला कर रहे हैं। कांग्रेस महासचिव और यूपी प्रभारी प्रियंका गांधी भी लगातार योगी सरकार पर हमलावर है। प्रियंका ने राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट का हवाला भी दिया है। प्रियंका ने शनिवार को एक ट्वीट किया जिसमें उन्होंने अपराध के मुद्दे पर बीजेपी सरकार पर प्रहार किया। प्रियंका ने ट्वीट कर कहा, "एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार महिलाओं व दलितों के खिलाफ अपराध, हत्या व अपहरण के मामलों में और हिंसक अपराधों के मामले में उप्र टॉप पर है। एनसीआरबी के आंकड़ों के अनुसार, 2020 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामलों में से 28,046 रेप की घटनाएं थी, जिनमें 28,153 पीड़िताएं हैं। पिछले साल कोविड-19 के कारण लॉकडाउन लगाया गया था। उसने बताया कि कुल पीड़िताओं में से 25,498 वयस्क और 2,655 नाबालिग हैं। एनसीआरबी के गत वर्षों के आंकड़ों के मुताबिक, 2019 में रेप के 32,033, 2018 में 33,356, 2017 में 32,559 और 2016 में 38,947 मामले थे। पिछले साल रेप के सबसे ज्यादा 5,310 मामले राजस्थान में दर्ज किए गए। इसके बाद 2,769 मामले उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए थे।
पूर्व सीपीएस एवं सुलह के पूर्व विधायक जगजीवन पाल को थप्पड़ मारने की घटना से कांगड़ा में सियासी पारा चढ़ा हुआ है। इस निंदनीय घटना के बाद कांग्रेस आक्रामक है और भाजपा को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा रही है। जबकि भाजपा ने सीधे तौर पर आरोप को खारिज कर दिया है। बीते दिनों इस मामले का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हुआ था जिसमें भवारना ब्लॉक की पंचायत रड़ा पंचायत में कुछ लोग पूर्व विधायक से हाथापाई कर रहे हैं तो एक युवक ने पीछे से पूर्व विधायक जगजीवन पाल को थप्पड़ मारा। इसके बाद कांग्रेस ने इस घटना का आरोप भाजपा पर मढ़ा। वहीँ पूर्व विधायक जगजीवन पाल ने विधानसभा अध्यक्ष एवं सुलह के विधायक विपिन सिंह परमार को इसके लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया। दरअसल रड़ा पंचायत में विस अध्यक्ष विपिन परमार ने बीत दिनों एक पंचायत भवन का शिलान्यास किया। इस भवन के लिए एक व्यक्ति ने अपनी जमीन दान दी थी। पर पंचायत प्रतिनिधियों समेत पूर्व विधायक जगजीवन पाल ने इसका विरोध किया था। उनका कहना था कि जब पंचायत के पास अपनी जमीन है तो दूसरी जगह पर इसका शिलान्यास करने का क्या औचित्य है। सो पूर्व विधायक जगजीवन पाल धरने पर बैठ गए थे। तभी कुछ लोगों ने हाथापाई भी की और एक व्यक्ति ने पीछे से उन्हें थप्पड़ भी मारा। इस घटना का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया तो सियासी तापमान तो बढ़ना ही था। कांग्रेस की तरफ से इस घटना को गुंडागर्दी करार देकर सरकार और कानून व्यवस्था पर सवाल उठाये गए है। कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप सिंह राठौर, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, विक्रमादित्य सिंह, सुधीर शर्मा सहित पार्टी के कई वरिष्ठ नेताओं ने इस घटना पर सरकार को घेरा है। पार्टी ने जगजीवन पाल के समर्थन में जन आक्रोश रैली का भी आयोजन किया। आक्रोश रैली में प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा,यादविंद्र गोमा, किशोरी लाल, पवन काजल, चंद्र कुमार, जगदीश सिपहिया, केवल सिंह पठानिया, अरुण राणा, अजय महाजन, सीताराम सैनी, दीपक शर्मा, संजय रत्न, गोकुल बुटेल, भवानी पठानिया, सुरेंद्र मनकोटिया सहित कई नेता मौजूद रहे। मेरा नाम जोड़कर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने की मंशा : परमार विधानसभा अध्यक्ष विपिन सिंह परमार ने पूर्व विधायक जगजीवन पाल के साथ धक्कामुक्की और मारपीट की घटना की निंदा करते हुए इसे दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया है। उन्होंने कहा कि एक गांव के लोगों के आपसी विवाद में पूर्व विधायक का शामिल होना और यहां हुई लड़ाई में उनके नाम और भाजपा को शामिल करना इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण है। विपिन सिंह परमार ने कहा कि सस्ती लोकप्रियता हासिल करने के लिए पूर्व विधायक इस घटना से उनका नाम जोड़ कर सुर्खियों में आना चाह रहे हैं। पर घटना से उनका और भाजपा का कोई लेना देना नहीं है। परमार ने कहा कि जगजीवन पाल के विरोध करने के तरीके को कभी जायज नहीं ठहराया जा सकता। विपिन परमार की शह पर हुआ हमला : जगजीवन पाल पूर्व विधायक जगजीवन पाल ने धक्का मुक्की और मारपीट की घटना के बाद पत्रकार वार्ता कर आरोप लगाया कि विधानसभा अध्यक्ष विपिन परमार की शह पर ही उन पर हमला किया है। उन्होंने कहा कि विपिन परमार ने घटनास्थल पर पूरे गुंडे इकट्ठा किए हुए थे। रड़ा पंचायत में बिना प्रधान और पंचों को सूचना दिए मनमर्जी से किसी अनुचित स्थान पर शिलान्यास कर दिया था। इसके विरोध में पंचायत प्रतिनिधि 200 के करीब लोगों के साथ इस मनमर्जी के खिलाफ लोकतांत्रिक तरीके से रोष जताने के लिए इकट्ठा हुए थे। उस दौरान जिला परिषद सदस्य संतोष कुमारी को घसीटा और उनके लड़के को भी मारा गया। जगजीवन पाल ने कहा कि "हमने सोचा कि विधानसभा अध्यक्ष बड़े सम्मानित पद पर बैठे हुए हैं। वह हमारी बात सुनने के लिए हमारे पास आएंगे। लेकिन हमारे पास आने के बजाय वह दूसरे ही रास्ते से निकल गए। उनके गुंडे वहां हॉकियां लेकर घूम रहे थे। "
हिमाचल प्रदेश में उपचुनाव टल गए है मगर सियासत ठंडी पड़ने के बजाए और गर्मा गई है। कांग्रेस नेता उपचुनाव टालने के लिए लगातार सरकार को ज़िम्मेदार ठहरा रहे है। कांग्रेस का आरोप है कि भाजपा ने अपनी हार को भांप लिया है इसीलिए उपचुनाव की तिथि आगे बढ़ा दी गई है। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कुलदीप राठौर ने कहा कि सरकार के जनविरोधी निर्णयों के खिलाफ कांग्रेस का रुख शुरू से आक्रामक रहा है और जनता में भी जयराम सरकार को लेकर रोष है। ऐसे में हार के डर से प्रदेश में उपचुनाव टाले गए हैं। अगर उपचुनाव होते तो भाजपा का 4-0 से सफाया होता। हार के बाद प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की आवाज भी उठ सकती थी। मुख्यमंत्री को अपनी कुर्सी जाने का डर है। इन बातों को ध्यान में रखते हुए प्रदेश और केंद्र सरकार की सिफारिश पर चुनाव आयोग ने हिमाचल में उपचुनाव टाले हैं। कुलदीप राठौर ने आरोप लगाया है कि जिस दाम पर अडानी और अंबानी से वर्ष 2011 में प्रदेश में सेब की खरीद की थी, आज भी उसी दाम पर खरीद कर बागवानों को लूटा जा रहा है। ये इस सरकार की विफलता को दर्शाता है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और बागवानी मंत्री महेंद्र सिंह भी अडानी और अंबानी की कंपनियों के पदाधिकारियों से बात करने से डर रहे हैं। एक मंत्री के कहने पर ईमानदार मुख्य सचिव को पद से हटा दिया गया। सरकार का नौकरशाही पर कोई नियंत्रण नहीं है। प्रदेश में नॉन परफॉरमिंग सरकार चल रही है। स्वास्थ्य सुविधाओं पर पैसे खर्चने के बजाय सरकार विज्ञापन और होर्डिंग्स पर करोड़ों फूंक रही है। प्रदेश सरकार से जनता रुष्ट है जिससे ये लोग भली भांति अवगत है।
कांगड़ा,15 विधानसभा क्षेत्रों वाला वो जिला जो हिमाचल में सत्ता का रुख तय करता है। इतिहास तस्दीक करता है कि जिसने कांगड़ा फ़तेह किया प्रदेश की सत्ता भी उसी को मिलती है और ये सिलसिला 1985 से चला आ रहा हैं। अब 2022 विधानसभा चुनाव नजदीक है और अभी से सियासत पुरे शबाब पर है। इससे पहले जिला कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर उपचुनाव भी होना है। जाहिर है सभी राजनैतिक दलों ने अभी से कांगड़ा में कदमताल शुरू कर दी है। विशेषकर सत्तारूढ़ भाजपा तो काफी वक्त पहले से कांगड़ा के सियासी समीकरण साधकर चलने का प्रयास करती दिखी है। पर राजनीति में सिर्फ प्रयास करना काफी कहाँ होता है। तमाम प्रयासों के बीच प्रतिकूल कयास भी लग रहे है और काट- छाट की खबरें आना भी शुरू हो गई है। नूरपुर विधायक और तेजतर्रार मंत्री राकेश पठानिया के खिलाफ उन्हीं के निर्वाचन क्षेत्र के भीतर से आवाज उठती दिख रही है, तो सुलह में थप्पड़ कांड ने कांग्रेस को बैठे बिठाये मुद्दा दे दिया। कुछ समय पूर्व धर्मशाला विधायक विशाल नेहरिया निजी कारणों से चर्चा में रहे तो ज्वालामुखी तो सरकार गठन के बाद से ही लावा उगल रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार के गृह क्षेत्र पालमपुर में भाजपा खेमों में बंटी है तो फतेहपुर में भी स्थिति इतर नहीं है। कमोबेश पुरे जिला का हाल ऐसा ही है। इस बीच एक और नया शिगूफा छीड़ा है, वो है नए ज़िलों के गठन का। बीते दिनों पालमपुर से कांग्रेस विधायक आशीष बुटेल ने पालमपुर को जिला बनाने की मांग क्या की, नए ज़िलों के गठन का जिन्न मानो बाहर आ गया। अब नूरपुर को जिला बनाने की मांग ने भी तूल पकड़ लिया है, तो धरातल स्तिथि ये है कि देहरा का दावा भी नकारा नहीं जा सकता। हालांकि अब तक सरकार की ओर से इस बाबत कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है लेकिन बताया जा रहा है कि अंदरखाते भाजपा संगठन व सरकार में इसके लिए मंथन कर रहे है। एक तबका मानता है कि नए जिले बनाने का सियासी पैंतरा जिला कांगड़ा में भाजपा का मास्टर स्ट्रोक हो सकता है। पर बड़ा सवाल ये है कि क्या सरकार जिला कांगड़ा को चार हिस्सों में बांटने की स्थिति में है ? भाजपा को ये भी जहन में रखना होगा कि मांग तीन नए ज़िलों की है, एक या दो नए ज़िले बनाने की स्थिति में फायदे से ज्यादा सियासी नुक्सान भी हो सकता है। और तीन नए ज़िले बनाने की वित्तीय हैसियत फिलवक्त सरकार की दिख नहीं रही। बाकी सियासी अरमान पुरे करने की खातिर ऋण का बोझ बढ़ाने का विकल्प जरूर सरकार के सामने रहेगा। कांग्रेस की स्थिति भी सुखदायी नहीं जिला कांगड़ा में कांग्रेस की स्थिति भी सुखदायी नहीं है। संगठन का हाल किसी से छुपा नहीं है और बड़े चेहरों के बीच वर्चस्व की जंग छिड़ी है। ये अंतर्कलह ही 2017 में पार्टी को भारी पड़ी थी। तब वीरभद्र कैबिनेट के दो बड़े चेहरे यानी सुधीर शर्मा और जीएस बाली अपनी सीट तक नहीं बचा पाए थे। पालमपुर सहित एकाध हलका छोड़ दिया जाए तो अधिकांश क्षेत्रों में अब भी जमीनी स्थिति में कुछ ख़ास बदलाव नहीं दिखता। कांग्रेसी शायद सरकार विरोधी लहर और पांच साल में सत्ता परिवर्तन के सियासी रिवाज के भरोसे सत्ता सुख के स्वपन देख रहे है। पर न तो इतनी प्रबल सत्ता विरोधी लहर दिख रही है और न ही पांच साल में सत्ता परिवर्तन थ्योरी ब्रह्म सत्य है। वजन के साथ रसूख भी कम होगा एक तबका कांगड़ा को विभाजित कर नए ज़िलों के गठन के विरोध में भी है। ये लोग मानते है की अगर 15 विधानसभा हलकों का वजन कम हो गया तो कांगड़ा का सियासी रसूख भी बरकरार नहीं रहेगा। वहीँ सरकार यदि कांगड़ा में नए ज़िलों के गठन को हरी झंडी देती है तो मंडी के सुंदरनगर और शिमला के महासू को जिला घोषित करने की मांग भी उठेगी।
हिमाचल प्रदेश में आगामी उपचुनाव तो टल गए है पर क्या भाजपा सरकार पर कुदृष्टि बनाए हुए ग्रह भी टलेंगे ? ये वो सवाल है जो फिलवक्त हिमाचल भाजपा के हर कार्यकर्ता के मन में होगा। यकायक सियासी ग्रहों की चाल ऐसी बदली है कि जयराम सरकार को संभलने का मौका ही नहीं मिल रहा। रही सही कसर आ बैल मुझे मार वाली मानसिकता ने पूरी कर दी। पहले सेब के दामों पर घिरी सरकार की परेशानी उनके ही नेताओं ने उल जुलूल बयान देकर बढ़ा दी। फिर बैठे बिठाये सरबजीत सिंह बॉबी का लंगर हटाकर अधिकारीयों ने सरकार का स्वास्थ्य बिगाड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जिस तरह का समर्थन पुरे प्रदेश से सर्वजीत सिंह बॉबी को मिला उसकी शायद सरकार और उक्त अधिकारीयों को उम्मीद नहीं रही होगी। बरहाल उपचुनाव टलने से भाजपा ने राहत की सांस ज़रूर ली होगी। स्थिति फिलवक्त कुछ यूँ है कि सरकार के सियासी किले पर महंगाई का परचम लहरा रहा है, बेरोज़गारी चरम पर है, कर्मचारी आश्वासन के झूले झूल रहे है और बागवान लगातार सरकार से राहत की गुहार लगा रहे है। इस पर हावी अफसरशाही और पार्टी में पनपते अंतर्कलह ने हमेशा ही सरकार को असहज रखा है। सो जाहिर है भाजपा को उपचुनाव टलने से कुछ समय मिल गया है और समर्थक इसी उम्मीद में होंगे कि सरकार बेवजह के विवादों से बचते हुए वक्त रहते ट्रैक पर लौट आएं। प्रदेश में चार उपचुनाव होने है, एक लोकसभा उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव। इससे पहले ज़ाहिर है प्रदेश सरकार चाहेगी कि आमजन के बीच किसी भी तरह का असंतोष न रहे जिसका खामियाजा उसे भुगतान पड़े। सरकार की सबसे बड़ी ताकत मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सरल और ईमानदार छवि है, और हर विकट परिस्थिति में मुख्यमंत्री के चेहरे ने ही संजीवनी का काम भी किया है। बागवान हित में अहम् फैसले अपेक्षित जयराम सरकार के सामने बागवानों को साधना बड़ी चुनौती होगी। विपक्ष तो इस मुद्दे पर आक्रामक है ही, सरकार अपने नेताओं के बेतुके बयानों का खामियाजा भी भुगत रही है। स्तिथि ये है कि कहीं मुख्यमंत्री को काले झंडे दिखाए गए तो कहीं बागवान मंत्री काफिला रोका गया। सरकार ने समय रहते बागवानों का ये गुस्सा शांत नहीं किया तो समस्या अधिक बढ़ सकती है। जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव होना है और यहाँ बागवानों का वोट निर्णायक सिद्ध होता है। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र में भी कई हलके ऐसे है जहाँ बागवान वोट ख़ासा असर रखता है। जानकार मानते है कि चुनाव से पहले सरकार प्रदेश में फ़ूड प्रोसेसेसिंग यूनिट्स, सीए स्टोर्स जैसी कई योजनाओं को लेकर अहम् फैसले ले सकती है। इसके अलावा हिमाचल में भी कश्मीर की तर्ज पर नैफेड जैसी किसी केंद्रीय संस्था द्वारा ग्रेड सिस्टम के आधार पर सेबों की खरीद को लेकर सरकार से सकरात्मक रुख अपेक्षित है। कर्मचारी वर्ग को साधने की कवायद शुरू कर्मचारी फैक्टर चुनाव के वक्त क्या मायने रखता है ये सभी राजनीतिक दल अच्छी तरह जानते समझते है। फिलवक्त जयराम सरकार ने भी मिशन रिपीट और उपचुनाव में जीत के लिए कर्मचारियों को साधने की कवायद शुरू कर दी है। 25 सितंबर को जेसीसी की तारिख तय की गयी है जिससे हिमाचल के पौने तीन लाख कर्मचारी उमीदें लगाए बैठे है। कर्मचारियों को उम्मीद है कि जो पिछले कई सालों में नहीं हुआ वो शायद अब जेसीसी की इस बैठक के बाद पुरे हो जाए। माहिर मानते है कि बीते कुछ दिनों में सरकार हिमाचल प्रदेश राज्य विद्युत परिषद में कार्यरत जूनियर टी-मेट व कनिष्ठ सहायक श्रेणी के कर्मचारियों की पदोन्नति अवधि पांच वर्ष से घटाकर तीन वर्ष करने की घोषणा कर और शिक्षा विभाग में कार्यरत 231 पीईटी को पदोन्नत करने का एलान कर कर्मचारी वर्ग को साधने की शुरुआत कर चुकी है। अपनों ने भी उड़ाई है भाजपा की नींद छोटी बड़ी कठिनाइयों के साथ पार्टी में व्याप्त अंतर्कलह भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। उपचुनाव के चारों निर्वाचन क्षेत्रों में टिकट के लिए जंग सी छिड़ी हुई है। हर क्षेत्र से टिकट के दावेदारों कि लम्बी कतारें भजपाईओं की नींद उड़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रही। बताया जा रहा है कि इस अंतर्कलह को साधने के लिए पार्टी ने कई नाराज़ कार्यकर्ताओं के सामने बोर्ड और निगमों के अध्यक्ष पद का प्रस्ताव भी रखा गया है। अर्की में गोविंदराम शर्मा की नारजगी चिंता बढ़ा रही है तो जुब्बल कोटखाई में परिवारवाद के खिलाफ नीलम सरैक की बुलंद आवाज। वहीँ फतेहपुर में अबकी बार चक्की पार का नारा बुलंद है।
भारतीय जनता पार्टी ने 2022 में होने वाले चुनावों में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए केंद्रीय मंत्री व हिमाचल के हमीरपुर से सांसद अनुराग ठाकुर को सह प्रभारी पद पर नियुक्त किया है। वहीं चुनाव प्रभारी बनाए गए केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान का मंडी के धर्मपुर में ससुराल हैं। गौरतलब है कि नवंबर 2020 में भाजपा ने जम्मू-कश्मीर स्थानीय निकाय चुनावों के लिए केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर को चुनाव प्रभारी बनाया था।
पश्चिम बंगाल में भारतीय जनता पार्टी के सांसद अर्जुन सिंह के घर के बाहर बुधवार सुबह ज़ोरदार बम का धमाका हुआ। राज्यपाल जगदीप धनखड़ ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी कि पश्चिम बंगाल में प्रचंड हिंसा कम होने का नाम नहीं ले रही है। आज सुबह सांसद के आवास के बाहर बम विस्फोट यह काफी चिंताजनक बात है और राज्य की कानून व्यवस्था पर सवाल उठाती है। इस मामले में शीघ्र कार्रवाई की जाए। जानकारी के अनुसार बम विस्फोट के दौरान अर्जुन सिंह घर पर मौजूद नहीं थे। हालांकि उनके परिवार के सदस्य उस वक्त घर पर ही थे। हमले में किसी भी सदस्य को कोई चोट नहीं आई है। पुलिस ने मौके पर पहुंचकर जांच शुरू कर दी है और घर में लगे सीसीटीवी कैमरों की फुटेज खंगाल रही है ताकि बम फेंकने वालों का पता लगाया जा सके। वहीं इस मामले पर अब अर्जुन सिंह का भी बयान सामने आया है। उन्होंने कहा कि- उपचुनाव से पहले मुझे जान से मारने की साजिश रची जा रही है, इस घटना की जांच भी बंगाल सरकार करेगी और पहले की तरह ही मामले को रफा-दफा कर देगी।
सत्ता पक्ष और विपक्ष के कई नेताओं ने बीत दिनों लाहौल- स्पीति का रुख किया जिनमें खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी शामिल है। अपने लाहौल दौरे पर मुख्यमंत्री ने क्षेत्र के लिए कई विकासात्मक योजनाओं की घोषणा की। उन्होंने अपने एक दिवसीय दौरे के दौरान जिले के केलांग तथा उदयपुर में लगभग 66.50 करोड़ रुपये की लागत की विकासात्मक परियोजनाओं के लोकार्पण व शिलान्यास किए। उन्होंने उदयपुर में लगभग 26 करोड़ रुपये की लागत की 16 विकास परियोजनाओं के शिलान्यास किए। लाहौल स्पीति मंडी संसदीय क्षेत्र के अधीन आता है जहाँ उप चुनाव होने है और क्षेत्र के विधायक डॉ रामलाल मार्कंडेय जयराम कैबिनेट में मंत्री भी है। जाहिर है ऐसे में उपचुनाव से पहले सरकार व मंत्री लाहौल को रिझाने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। बेशक उपचुनाव मंडी संसदीय क्षेत्र का है लेकिन रिपोर्ट कार्ड सभी समबन्धित 17 विधानसभा हलकों का बनेगा। मुख्यमंत्री ने दी दिल खोल कर सौगातें प्रदेश सरकार ने वर्तमान वित्त वर्ष के दौरान जनजातीय क्षेत्र विकास कार्यक्रम के तहत जिला लाहौल-स्पीति के लिए 136 करोड़ रुपये का बजट प्रावधान किया गया है, जिसमें से लाहौल क्षेत्र में 72 करोड़ रुपये तथा स्पीति क्षेत्र में 64 करोड़ रुपये व्यय किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने अपने दौरे पर 1.45 करोड़ रुपये की लागत से प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र जाहलमा के आवासीय भवन, 5 करोड़ रुपये की लागत से मॉडल कैरियर सेंटर उदयपुर के भवन, 8.10 करोड़ रुपये की लागत से राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक पाठशाला उदयपुर के भवन, 45 लाख रुपये की लागत से जाहलमा में वन निरीक्षण कुटीर, 64 लाख रुपये की लागत से पेयजल आपूर्ति योजना त्रिलोकीनाथ के संवर्धन कार्य तथा 55 लाख रुपये की लागत से पेयजल आपूर्ति योजना मडग्रां के संवर्धन कार्य का शिलान्यास किया। इसके अलावा 2.86 करोड़ रुपये की लागत की बहाव सिंचाई योजना शांशा, 1.01 करोड़ रुपये की लागत की बहाव सिंचाई योजना हिन्सा, 77 लाख रुपये की लागत की बहाव सिंचाई योजना बड़ा अगार, 57 लाख रुपये की लागत से बहाव सिंचाई योजना बलगोट के विशेष मरम्मत तथा निर्माण कार्य, 1.03 करोड़ रुपये की लागत से बहाव सिंचाई योजना शकोली वरदंग के कमान क्षेत्र विकास के निर्माण कार्य, 53 लाख रुपये की लागत से राशील क्षेत्र के लिए बहाव सिंचाई योजना, 78 लाख रुपये की लागत से बहाव सिंचाई योजना किशोरी के कमान क्षेत्र विकास के निर्माण कार्य, 66 लाख रुपये की लागत से बहाव सिंचाई योजना नालडा के कमान क्षेत्र विकास के निर्माण कार्य और 39 लाख रुपये की लागत से बहाव सिंचाई योजना अरसेडी नाला के निर्माण कार्य का भी शिलान्यास किया। उन्होंने 93 लाख रुपये की लागत से उदयपुर में हिमाचल प्रदेश राज्य बिजली बोर्ड के उपभोक्ता सेवा केन्द्र एवं उप-मण्डलीय कार्यालय के निर्माण का शिलान्यास भी किया। इस वर्ष लाहौल घाटी अप्रत्याशित बाढ़ के कारण बुरी तरह प्रभावित हुई है। इस दौरान 10 लोगों की मृत्यु दर्ज की गई है तथा प्रदेश सरकार ने तुरन्त क्षेत्र में राहत तथा बचाव कार्य किए है। उदयपुर में हाल ही में बाढ़ से प्रभावित लोगों को राहत प्रदान करने के उद्देश्य से प्रदेश सरकार ने 10 करोड़ रुपये का विशेष पैकेज प्रदान किया है। लाहौल स्पीति में वर्चस्व की लड़ाई मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के बीते दिनों लाहौल दौरे पर थे। मकसद बेशक क्षेत्र को विकास की सौगात देना और पार्टी को मजबूत करना हो लेकिन इस दौरे ने जिला भाजपा के भीतर चल रही वर्चस्व की लड़ाई को हवा दे दी। दरअसल दौरे के दौरान मुख्यमंत्री के सामने ही तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ. रामलाल मारकंडा और भाजपा एसटी मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष जवाहर शर्मा के बीच आपस में कहासुनी हो गई। दोनों नेताओं के समर्थकों ने नारेबाजी शुरू कर दी। जिला भाजपा में हावी गुटबाजी खुलकर सामने आ गई जिसके बाद जिला में राजनीतिक माहौल गरमा गया है। सोशल मीडिया पर भी ये वीडियो वायरल हुआ है। वीडियो में दोनों नेता एक-दूसरे से बहस करते नजर आ रहे हैं। सीएम भी तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ. रामलाल मारकंडा और जवाहर शर्मा के साथ-साथ चलते नजर आ रहे हैं। हालांकि इस पूरे मामले पर सीएम ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। कौल सिंह और अग्निहोत्री भी पहुंचे लाहौल वरिष्ठ कांग्रेस नेता कौल सिंह ठाकुर बीते दिनों लाहौल के तीन दिवसीय दौरे पर पहुंचे। इस दौरान उन्होंने अपने चिर परिचित अंदाज में सरकार को घेर। ठाकुर कौल सिंह ने आरोप लगाया कि प्रदेश सरकार लाहौल स्पीति का विकास करवाने में विफल रही है। वहीँ ठाकुर कौल सिंह से पूर्व नेता प्रतिपक्ष एवं हराेली के विधायक मुकेश अग्निहोत्री ने भी लाहौल का दौरा किया था। उन्होंने बाढ़ प्रभावित क्षेत्र में लोगों से मिलकर उनका दुख दर्द जाना था। इस दौरान मुकेश ने सरकार पर खूब निशाना साधा था।
मंडी सदर यूँ तो एक विधासभा सीट है पर हिमाचल की सियासत में ये सीट बेहद ख़ास है। कारण है इसका सम्बन्ध पंडित सुखराम के परिवार से होना। पिछले 12 विधानसभा चुनाव में से 10 बार यहाँ से सुखराम परिवार ने चुनाव लड़ा है और हर बार जीत मिली है। यानी यहाँ अब तक यहाँ से पंडित जी का परिवार अपराजित है। खुद पंडित सुखराम यहाँ से 6 बार जीते है तो चार बार उनके पुत्र अनिल शर्मा। पार्टी चाहे कोई भी हो, कांग्रेस, भाजपा या हिमाचल विकास कांग्रेस मंडी सदर वालों ने सुखराम परिवार का साथ नहीं छोड़ा। पर अब स्थिति भी बदल गई है और समीकरण भी। पंडित सुखराम पोते आश्रय शर्मा सहित कांग्रेस का हाथ थामे हुए है और उनके बेटे अनिल शर्मा भाजपा में अटके -लटके है। पर माहिर मानते है की दोनों तरफ हाथ ही मिल रहे है, दिल नहीं। ऐसे में 2022 विधानसभा से पहले उठापठक तो तय है। बेशक भाजपा में होते हुए भी अनिल शर्मा कई मौकों पर खुलकर गीले शिकवे करते रहे है लेकिन सियासी चश्मे से देखे तो मिलाप की गुंजाईश बरकरार रखी गई है, अनिल की तरफ से भी और खुद सीएम की तरफ से भी। उधर कांग्रेस में आश्रय न तो कभी असरदार दिखे और न ही एक नेता के तौर पर अब तक अपनी विशिष्ट छाप छोड़ पाए है। शायद पार्टी में पिता अनिल शर्मा का साथ मिला होता तो कुछ और बात होती। अब अनिल कांग्रेस में घर वापसी करेंगे या भाजपा में पैर जमाने का प्रयास करेंगे, ये बेहद जटिल सवाल है। दरअसल यहाँ मसला कांग्रेस-भाजपा का ही नहीं है, निजी तौर पर भी ये सुखराम परिवार के लिए वर्चस्व का प्रश्न होगा। 2019 के लोकसभा चुनाव में आश्रय की करारी हार के बाद एक और प्रतिकूल नतीजा पंडित सुखराम का सियासी तिलिस्म ध्वस्त कर सकता है। 2017 में झटका दिया, 2019 में लगा 2017 विधानसभा चुनाव का ऐलान हो चुका था और 9 नवंबर को मतदान होना था। मिशन रिपीट की तैयारी कर रही कांग्रेस को चुनाव से ठीक पहले 14 अक्टूबर को झटका लगा। पंडित सुखराम अपने बेटे और वीरभद्र सरकार के मंत्री अनिल शर्मा के साथ भाजपा में शामिल हो गए। अनिल शर्मा को भाजपा ने मंडी सदर से टिकट दिया और उन्होंने शानदार जीत भी दर्ज की और जयराम कैबिनेट में मंत्री भी बन गए। असल झटका लगा कांग्रेस को, मंडी सदर सहित जिला मंडी में सभी 10 सीटें कांग्रेस हार गई। वीरभद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे कौल सिंह ठाकुर और प्रकाश चौधरी भी चुनाव हार गए। तब पंडित सुखराम और अनिल शर्मा के भाजपा में जाने से पुरे जिला में भाजपा की हवा बन गई थी। 2017 में कांग्रेस को झटका देने वाले पंडित सुखराम परिवार को 2019 में बड़ा झटका लगा। पंडित सुखराम अपने पोते और अनिल शर्मा के पुत्र आश्रय शर्मा के लिए लोकसभा का टिकट चाहते थे। भाजपा में दाल नहीं गली तो पंडित जी पोते सहित कांग्रेस में लौट गए और टिकट भी ले आये। पर इस बार पंडित सुखराम का जादू नहीं चला, लोकसभा चुनाव में कांग्रेस बुरी तरह हारी। अनिल शर्मा तब खुलकर बोलते रहे की ये उनका फैसला नहीं है पर न बेटे के खिलाफ प्रचार कर सकते थे और न पार्टी के खिलाफ। इस पर मंत्री पद भी चला गया। तब से अनिल तकनीकी तौर पर भाजपा के विधायक है, पर भाजपा से उनकी राह जुदा-जुदा दिखी है। असल परेशानी ये है कि कांग्रेस ने भी अनिल को लेकर कभी बड़ा दिल नहीं दिखाया। ऐसे में अनिल शर्मा के राजनैतिक भविष्य को लेकर सबका अपना -अपना विशेलषण है। अनिल का नपा-तुला वार, सीएम का सादगीभरा पलटवार बीते दिनों पंडित सुखराम के गढ़ यानी मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र के कोटली में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर रैली करने पहुंचे और वही हुआ जो अपेक्षित था। पंडित सुखराम के सुपुत्र व भाजपा के सदर विद्याक अनिल शर्मा और सीएम जयराम ठाकुर के बीच मंच पर ही सियासी तकरार हो गई। पहले भाषण देने की बारी अनिल शर्मा की आई तो उन्होंने बेबाकी से पूरी टसक कसक भरे मंच जाहिर की। उद्घाटन और शिलान्यास पट्टिकाओं से उनका नाम गायब करने पर सवाल उठाये, थोड़ी व्यथा और पीड़ा भी जताई, और सधे हुए अंदाज में ताकत भी जता दी। अनिल बोले यह क्षेत्र पंडित सुखराम की कर्मभूमि है, कुछ नहीं बोलूंगा, राजनीति में उतार चढ़ाव संभव हैं। जनता सब देख रही है। पर तोल मोल कर अनिल बोल सब कुछ गए। इस बीच समर्थकों ने भी खूब नारेबाजी की और अनिल ने हिदायत दी, बोले एक निर्वाचित विधायक हूं, व्यवधान पैदा नहीं करना चाहता। व्यवधान हुआ भी नहीं पर भरी सभा में अनिल के तेवरों से ये जरूर तय हो गया कि वे बैठने वाले नहीं है। मंच पर जल शक्ति मंत्री महेंद्र सिंह भी मौजूद थे, तो ये कैसे मुमकिन था कि अनिल उन्हें बक्श देते। अनिल ने कहा कि कभी वह गाड़ी चलाते थे और महेंद्र सिंह साथ में बैठते थे। अनिल ने याद दिलाया कि कोटली बस स्टैंड बना तो महेंद्र सिंह ही बरसे थे कि नाले में बस स्टैंड बना दिया, अब जनसभा भी तो यहीं हो रही है। अनिल शर्मा ने कहा की उनका भविष्य सदर की जनता तय करेगी। अगर जनता घर बैठने को कहेगी तो वे घर बैठने के लिए भी तैयार हैं। सीएम साहब बातों का बुरा मान जाते हैं, लेकिन सरकार करने पर आए तो कुछ भी कर सकती है और ऐसी उम्मीद उन्हें जयराम ठाकुर से भी है। भाषण समाप्त करते करते अनिल ऐसी बातों के लिए माफी भी मांग गए जिससे किसी को बुरा लगा हो। वार अनिल ने किया तो पलटवार सीएम जयराम ठाकुर ने, वो भी अपने सादगी भरे अंदाज में। सीएम ने कहा कि सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो सकतीं, अनिल शर्मा हमें दोष न दे। बोला था - साथ चलो, मंडी के सम्मान के लिए साथ रहो। सीएम ने चुटकी लेते हुए कहा कि महेंद्र सिंह और अनिल शर्मा साथ थे, शायद गुरु-चेले थे। अनिल बोल रहे हैं - महेंद्र जी को गाड़ी सिखाई। ठीक है स्टीयरिंग कभी इधर उधर हो जाता है। महेंद्र जहां भी रहते हैं, खूब काम करते हैं और अब भाजपा में भी कर रहे हैं। उन्होंने अनिल का नाम लेते हुए कहा कि कई बार किस्मत में यही लिखा होता है। राजनीति में ऐसे दौर आते रहते हैं। अब हम साथ हैं। इसे समझो, संभलो और एकजुट होकर काम करो। न आप बुरा मानो और न हम बुरा मानेंगे, अब फिर से साथ चलकर काम करते हैं। मंडी सदर में अब तक अपराजित है सुखराम परिवार वर्ष विजेता पार्टी 1967 : पंडित सुखराम कांग्रेस 1972: पंडित सुखराम कांग्रेस 1977: पंडित सुखराम कांग्रेस 1982: पंडित सुखराम कांग्रेस 1985: दुर्गा दत्त कांग्रेस 1990: कन्हैया लाल भारतीय जनता पार्टी 1993: अनिल शर्मा कांग्रेस 1998: पंडित सुखराम हिमाचल विकास कांग्रेस 2003: पंडित सुखराम हिमाचल विकास कांग्रेस 2007: अनिल शर्मा कांग्रेस 2012: अनिल शर्मा कांग्रेस 2017 अनिल शर्मा भारतीय जनता पार्टी
चार्जशीट हिमाचल के दोनों मुख्य राजनीतिक दलों का पसंदीदा सियासी पैंतरा बनता जा रहा है। जो भी दल विपक्ष में होता है वो सत्ता पक्ष के खिलाफ सियासी चार्जशीट लाता है। इस बहाने सरकार पर आरोप लगाए जाते है, पत्रकार वार्ताएं होती है, प्रदर्शन कर सरकार विरोधी माहौल बनाने के प्रयास किया जाता है।चुनाव के बाद जब सरकार बनती है तो तैयार की गई चार्जशीट काे जांच के लिए सरकारी जांच एजेंसी विजिलेंस काे सौंप दिया जाता है। विजिलेंस की टीम जांच में जुटी रहती है, लेकिन आरोप साबित नहीं हो पाते। आज तक ऐसा ही होता आया है। जितनी भी चार्जशीट आई, उसमें किसी भी बड़े नेता काे आरोपी साबित नहीं किया गया और न ही एफआईआर दर्ज हुई। तो क्या अब ऐसा होगा, फिलवक्त ये बड़ा सवाल है ? दरअसल बीते दिनों मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने ओकओवर शिमला में विजिलेंस अधिकारियों की बैठक बुलाई और उनके साथ वर्ष 2016 में भाजपा द्वारा तत्कालीन वीरभद्र सरकार के खिलाफ जारी की गई चार्जशीट के आधार पर चली विभिन्न जांच पर मंत्रणा की। चार्जशीट में कांग्रेस के 40 से ज्यादा नेताओं और अफसरों पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे। तब एक तरफ तत्कालीन कांग्रेस सरकार के चार साल के कार्यकाल का जश्न धर्मशाला में मनाया जा रहा था, ताे दूसरी ओर बीजेपी एक चार्जशीट लेकर आई, जिसका शीर्षक था ‘सरकार में अली बाबा और चालीस चोर’। उस वक्त भाजपा ने 75 पेज की चार्जशीट प्रदेश के राज्यपाल काे साैंपी थी। 2017 में भाजपा ने सत्ता भी हासिल की और अब कार्यकाल का चौथा साल भी खत्म होने को आया, लेकिन चार्जशीट की जांच अभी तक पूरी नहीं हुई। इधर भाजपा सरकार 2016 वाली चार्जशीट की जांच बढ़ाने के संकेत दे रही है तो दूसरी ओर कांग्रेस वर्तमान की जयराम सरकार के खिलाफ चार्जशीट लाने की तैयारी में है। इसका ज़िम्मा वरिस्ठ नेता राजेश धर्माणी को सौपा गया है। बताया जा रहा कि कांग्रेस सभी 68 विधानसभा क्षेत्राें की अलग-अलग चार्जशीट लेकर आएगी। ऐसी थी 2016 में भाजपा की चार्जशीट भाजपा ने 2016 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह, बेटे विक्रमादित्य सिंह, प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू, 10 मंत्रियों, 6 सीपीएस और 10 बोर्ड-निगम-बैंकों के अध्यक्ष-उपाध्यक्षों समेत कुल 40 नेताओं और एक अफसर पर चार्जशीट में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे। उस चार्जशीट में पूर्व सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री धनीराम शांडिल को छोड़कर सभी मंत्रियों को लपेटा गया था। भाजपा का आरोप था कि पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के निजी आवास हाेली लॉज में खुद रहने के बावजूद कागजों में एक हाइड्रो पावर कंपनी को किराए पर दे दिया। लाहौल स्पीति में हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट लगाने के लिए 25.69 करोड़ लिए बिना पर्यावरण क्लीयरेंस दे दी। हॉली लॉज में गेस्ट हाउस बनाने के लिए हरे पेड़ काटने की अनुमति देकर अनियमितता की। भाजपा का आरोप था कि पूर्व सीएम के सुरक्षा अधिकारी की दो शादियों के आरोप के बावजूद गलत तरीके से प्रमोशन दिया। नियमों में विशेष छूट देकर बेटियों को सहकारी बैंकों में नियुक्ति और पत्नी को पुलिस विभाग में पदोन्नति दे दी। ब्रेकल कॉरपोरेशन पर 1800 करोड़ का जुर्माना माफ कर दिया और 200 करोड़ रुपये की अपफ्रंट मनी जब्त करने के बजाय लौटा दी। सोरंग हाइड्रो इलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट को बनाने वाली कंपनी को प्रोजेक्ट विदेशी कंपनी को बेचने के लिए 20 करोड़ की अपफ्रंट मनी लिए बिना ही कैबिनेट ने मंजूरी दे दी। उक्त चार्जशीट में तत्कालीन कांग्रेस सरकार पर काम जल्द पूरा कराने के नाम पर ठियोग कोटखाई हाटकोटी रोहडू सड़क का ठेका चीनी कंपनी को देने के बाद निरस्त कर दो भागों में बांटकर चड्ढा एंड चड्ढा कंपनी को फायदा पहुंचाने का आरोप भी लगाया गया था। इसके अलावा आरोप था कि वर्ष 2013-14, 2014-15 में पीडब्ल्यूडी के रोहड़ू, चौपाल, रामपुर मंडलों में बर्फ हटाने के नाम पर करोड़ों रुपये की लूट अपने चहेते ठेकेदारों से कराई। यही नहीं, बल्कि भाजपा ने तत्कालीन कांग्रेस सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई आरोप लगाए थे, जिसकी जांच आज भी पूरी नहीं हो सकी। अब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और विजिलेंस अधिकारियों के बीच हुई बैठक के बाद कयास लग रहे है कि जल्द जांच में कुछ तेजी देखने को मिल सकती है। 2012 में कांग्रेस लाई थी हिमाचल फाॅर सेल वाली चार्जशीट 2012 में जब प्रदेश में प्रो प्रेम कुमात्र धूमल की सरकार थी, ताे कांग्रेस ने हिमाचल फाॅर सेल नाम से एक चार्जशीट तैयार की थी। विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस सत्ता में आई और चार्जशीट की जांच के लिए विजिलेंस काे ज़िम्मा भी साैंप दिया गया। पर पांच साल का कार्यकाल बीतने पर भी जांच में कुछ नहीं निकला।
कांगड़ा: हिमाचल प्रदेश भाजपा प्रभारी अविनाश खन्ना के कांगड़ा ज़िला में पहुंचते ही राजनीतिक हल चल शुरू हो गई है। भाजपा प्रभारी का यह कांगड़ा दौरा 2022 के चुनाव की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वहीँ जल्द ही जिला कांगड़ा की फतेहपुर सीट पर उपचुनाव भी होना है जिसके चलते भी खन्ना का ये दौरा महत्वपूर्ण है। कांगड़ा दौरे पर खन्ना कार्यकर्ताओं से फीडबैक भी लिया। 15 विधानसभा सीटों वाले जिला कांगड़ा को फ़तेह किये बिना किसी भी राजनीतिक दल के लिए शिमल की गद्दी दूर ही रहती है। ऐसे में जाहिर सी बात है कि भाजपा 2022 से पहले जिला कांगड़ा को मजबूत करने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। इस दौरान भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना ने संगठनात्मक ज़िला देहरा के महामंत्री जगदीप डडवाल के घर पहुंच कर उनकी पत्नी स्वर्गीय उषा के निधन पर शोक व्यक्त किया। उसके उपरांत भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना से हिमाचल प्रदेश कामगार कल्याण बोर्ड के चेयरमैन एवं किसान मोर्चा के प्रदेश अध्यक्ष राकेश शर्मा एवं अन्य पिछडा वर्ग आयोग हिमाचल प्रदेश के अध्यक्ष रामलोक धनोटिया ने धर्मशाला में शिष्टाचार भेंट की।
क्या कोरोना की रोक थाम के लिए बनाए गए नियम कानून सिर्फ जनता के लिये है ? क्या हिमाचल के नेताओं को कोरोना नहीं होता ? नेता तीसरी लहर को आमंत्रित क्यों कर रहे है ? वर्तमान परिवेश में हर हिमाचल वासी के मुँह पर ये ही सवाल है। लम्बे समय तक घरो में बंद रहने के बाद और बहुत से अपनों को खोने के बाद हिमाचल प्रदेश बड़ी मुश्किल से कोरोना की चपेट से बाहर आ पाया था। परन्तु जिस तरह से अब हिमाचल में जनसंवाद, रोड शो और बड़ी रैलियां नेता कर रहे है हिमाचल की जनता को कोरोना की तीसरी लहर का खौफ सताने लगा है। नेता नेतागिरी के चक्कर में आम आदमी की जान को खतरे में डाल रहे है। बड़ी पार्टियां और अन्य कार्यक्रम भी आयोजित किये जा रहे है, जहां मास्क पहनना ज़रूरी नहीं समझा जाता। हिमाचल में एक बार फिर कोरोना के मामले बढ़ने लगे है। बता दें कि अब भी कोरोना के चलते सभी शिक्षण संस्थान बंद है। प्रदेश में प्रवेश के लिए भी सख्ती लागू की गयी है। बिना कोरोना नेगेटिव रिपोर्ट के हिमाचल में आने की अनुमति नहीं है। सार्वजनिक स्थानों पर मास्क व सोशल डिस्टन्सिंग भी अनिवार्य है। पर शायद ये सभी नियम सिर्फ आम आदमी पर लागू होते है, इसीलिए नेता न तो सार्वजानिक स्थानों पर मास्क पहनते है न ही सोशल डिस्टन्सिंग का ख्याल रखते है। हाल ही में केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर की जन आशीर्वाद यात्रा में न तो कोई सोशल डिस्टन्सिंग देखने को मिली ओर न ही नियमों का पालन। जनसभा मंच से खुद अनुराग ठाकुर ने मास्क पहने के लिए लोगों को जागरूकता का पाठ पढ़ाया लेकिन उसी मंच पर उनके साथी बिना मास्क के दिखे थे। 5 दिन तक चली इस जनआशीर्वाद यात्रा में कैबिनेट के कई मंत्री भी मौजूद रहे और कोविड नियमों की खूब धज्जिया उड़ी। नियम कायदों का मखौल उड़ाने में महिला नेता भी पीछे नहीं है। बीते दिनों सोलन में भाजपा महिला मोर्चा ने रही सही कसर पूरी कर दी। यहां भाजपा की महिला नेताओं ने तीज का त्यौहार मनाया , खूब नाच गाना हुआ और सरेआम कोरोना को दावत दी गई। यहां दो गज की दुरी तो दूर, मास्क से भी दूरी दिखी। कांग्रेस भी पीछे नहीं है, बीते दिनों हुए कार्यक्रमों की तस्वीरों से ये स्पष्ट होता है। चाहे युवा कांग्रेस के कार्यक्रम हो या श्रद्धांजलि समारोह, चाहे मंडी हो या लाहौल स्पीति या कांगड़ा, कांग्रेस के कार्यक्रमों में भी कोरोना गाइडलाइन्स की जमकर धाज्जियाँ उड़ी है। आम जनता में नेताओं के ऐसे आचरण को लेकर ख़ासा रोष है। सोशल मीडिया पर लोग सवाल उठा रहे है। सवाल उन पुलिस कर्मियों से भी है जो आम आदमी द्वारा मास्क न पहनने पर चालान करते है और ऐसे मामलों पर आँखें बंद कर लेते है। यदि बच्चों के स्कूल जाने से कोरोना हो सकता है तो क्या इन जनसभाओं में कोरोना नहीं हो सकता। बहरहाल सरकार को ख्याल रखना होगा की आम जनता की नारजगी गुस्से का रूप ले रही है और हाल ऐसा ही रहा तो ये गुस्सा कहीं मुखालफत में तब्दील न हो जाए।
मंडी लोकसभा सीट पर उपचुनाव होना है और सियासत चरम पर है। मंडी भले ही मुख्यमंत्री का गृह जिला है पर यहां कठिनाइयाँ कम नहीं होंगी। लम्बे समय से हाशिये पर चल रहे मंडी सदर से भाजपा विधायक अनिल शर्मा पिछले कुछ दिन से अपनी ही सरकार के खिलाफ आक्रमक हो गए है। पहले दो बार अपना वीडियो संदेश जारी करके सरकार और सीएम जयराम ठाकुर पर प्रहार करने के बाद अनिल शर्मा ने अब एक और वीडियो संदेश जारी करके सरकार पर भेदभाव के गंभीर आरोप लगाए हैं। इस बार अनिल शर्मा ने विधानसभा में लिखित जबाव की कॉपी भी शेयर की है, जिससे पता चल रहा है कि मंडी जिला में सराज और धर्मपुर में ही पैसों की बरसात हो रही है, जबकि बाकी जगह सूखा ही पड़ा है। यह आंकड़े मुख्ममंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत हुए धन आवंटन के है। अनिल शर्मा ने सदर क्षेत्र की जनता से अपील की है कि वो इस बात को समझें कि सरकार उनके क्षेत्र के साथ कितना भेदभाव कर रही है। उन्होंने सीएम जयराम ठाकुर से भी आने वाले उपचुनाव में सदर क्षेत्र में वोट मांगने के लिए आने पर जनता के समक्ष यह सारे आंकड़े पेश करने की अपील की है। अनिल शर्मा के इस आक्रामक रवैये के बाद जिला भाजपा भी एक्शन में आ गयी है। जिला भाजपा मंडी की तरफ़ से जिला उपाध्यक्ष पुष्पराज कात्यायन, पंकज शर्मा द्वारा संयुक्त बयान में कहा कि सदर विधानसभा क्षेत्र के साथ सौतेला व्यवहार होने की बात करने वाले विधायक अनिल शर्मा अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए मुख्यमंत्री पर गलत व झूठी टिपण्णी कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि आजादी के सत्तर साल बाद भी अनिल शर्मा की सोच केवल प्राइमरी स्कूल खोलने तक ही सीमित रह गई है जो उनके दिमागी स्तर और विकास के प्रति उनकी समझ को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि सदर विधानसभा क्षेत्र को विश्व के मानचित्र पर अंकित करना जयराम सरकार का लक्ष्य है और इस कार्य के लिए लगातार प्रयास जारी हैं। उन्होंने कहा कि पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए शिवधाम जैसा महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट धरातल पर उत्तर रहा है, जिसका निर्माण कार्य प्रगति पर है परंतु ये कार्य अनिल शर्मा को नहीं दिख रहे हैं, क्योंकि ये सब उनकी मानसिकता और सोच से परे हैं। लगभग छह दशकों तक मंडी सदर की भोली भाली जनता की भावनाओं से खिलवाड़ करने वाला यह परिवार आज तक मंडी में पार्किंग की समस्या को दूर नहीं कर पाया परन्तु जयराम सरकार ने इसे भी पूरा किया है। क्या कहते हैं आंकड़े 2020-21 के आंकड़ों की बात करें तो उस वर्ष सराज को 10 करोड़ से ज्यादा, धर्मपुर को लगभग तीन करोड़ रूपए मिले, जबकि सदर को मात्र 56 लाख ही दिए गए। सिर्फ 2018-19 में जब अनिल शर्मा इसी सरकार में मंत्री थे तो सदर के लिए लगभग दो करोड़ रूपए लाने में सफल हो पाए थे। वर्ष 2018-19 सराज विधानसभा को 471.30 लाख रुपये, धर्मपुर विधानसभा को 189.00 लाख रुपये, वहीं, अनिल शर्मा के विधानसभा सदर को 185.00 लाख रुपये मिले हैं.वर्ष 2019-20 में सराज को 702.00 लाख, धर्मपुर को 292.50 लाख और सदर को 27.00 लाख, वर्ष 2020-21 में सराज को 1008.21 लाख, धर्मपुर को 289.78 लाख और सदर को महज 56.09 लाख रुपये मिले हैं। वहीं, वर्ष 2021-22 (31 जुलाई 2021 तक) में अब तक सराज को 601.75 लाख, धर्मपुर को 69.72 लाख और सदर को 38.91 लाख मिल चुके हैं।


















































