हिमाचल प्रदेश का बजट सत्र कल से शुरू होगा। प्रदेश की 14वीं विधानसभा का दूसरा सत्र शुरू होने जा रहा है। बजट सत्र में मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू बतौर वित्त मंत्री 17 मार्च को अपने कार्यकाल का पहला बजट पेश करेंगे। स्तर की शुरुआत मंगलवार को 11:00 बजे पूर्व मंत्री मनसा राम के देहांत पर शोकोद्गार से होगी। इसके बाद प्रश्नकाल होगा। प्रश्नकाल के शुरू होते ही विपक्ष सरकार को घेरने के लिए सारा काम रोककर स्थगन प्रस्ताव पर चर्चा मांगने की रणनीति बना सकता है। वहीं विपक्ष की नज़र इस बार अर्थीक संकट से गुज़र रही प्रदेश सरकार के बजट पर रहेगी। बजट में राजस्व और राजकोषीय घाटा कितना होगा इस पर सबकी नजरें टिकी हुई हैं। वहीं इसी कड़ी में भाजपा आज विलीज पार्क में नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर की उपस्थिति में एक बैठक का आयोजन करेगी। भाजपा सत्र के शुरुवाती प्रश्नकाल में ही काम रोको प्रस्ताव पर खड़ी हो सकती है। भाजपा का मुख्य एजेंडा हिमाचल प्रदेश में सैकड़ों संस्थानों को डीनोटिफाई करने के बारे में हो सकता है।
हिमाचल प्रदेश की सबसे हॉट सीट रहने वाला शाहपुर विधानसभा हलका एक बार फिर सियासी खेल की भेंट चढ़ गया है। यह बात शाहपुर हलके से आम आदमी पार्टी से विधानसभा प्रत्याशी रहे अभिषेक ठाकुर ने जारी प्रेस बयान में कही। उन्होंने कांग्रेस सरकार पर हमला बोलते हुए कहा कि विधानसभा के जनजातीय क्षेत्र धारकंडी के बच्चों के खोले गए कॉलेज को बंद करना अति दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यहां के बच्चों को भी अच्छी और उच्च शिक्षा प्राप्त करने का हक है, लेकिन कांग्रेस सरकार इन बच्चों को शिक्षा से वंचित रखना चाहती है। अभिषेक ठाकुर ने कहा धारकंडी क्षेत्र के लोग खेती-बाड़ी पर निर्भर हैं, अत: अपने बच्चों को दूर पढऩे के लिए नहीं भेज सकते हैं, रिडकुमार में कॉलेज खुलने से उन्हें आस जगी थी कि उनके बच्चों को घर-द्वार शिक्षा मिल पाएगी, लेकिन कांग्रेस ने यहां के लोगों को और सुविधा देना तो बाद की बात है, जो कॉलेज मिला था, उसे भी बंद कर दिया। भाजपा को घेरते हुए उन्होंने कहा कि पिछले 15 साल से यहां भाजपा की विधायक रही और वह भी क्षेत्र के विकास के लिए कुछ नहीं कर पाई और चुनावी वर्ष में आनन-फानन में रिडकुमार को आधी अधूरी आस बंधवा का फरेब किया और कांग्रेस ने सियासी खेल खेलते हुए क्षेत्र के बच्चों को शिक्षा से ही वंचित कर दिया । उन्होंने मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से मांग की है कि क्षेत्र की भूगौलिक परिस्थतियों को देखते हुए इस कॉलेज बहाल करें, ताकि गरीब बच्चों को घर-द्वार उच्च शिक्षा मिल सके। विधायक नहीं कर पाए क्षेत्र की पैरवी अभिषेक ठाकुर ने हैरानी जताते हुए कहा कि हिमाचल में सरकार कांग्रेस की है और शाहपुर से विधायक भी कांग्रेस से हैं, फिर भी वह रिडकुमार कॉलेज को बंद होने से क्यों नहीं बचा पाए। उन्होंने कहा कि स्थानीय विधायक प्रदेश सरकार में धारकंडी जैसे जनजातीय क्षेत्र के हक की पैरवी सही ढंग से नहीं कर पाए। कॉलेज का बंद होना अति दुर्भाग्यपूर्ण है।
हिमाचल प्रदेश मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने वीरवार को प्रदेश के सबसे बड़े अस्पताल IGMC की OPD और ट्रामा सेंटर 13 मंजिला नए भवन का उद्घाटन किया, साथ ही ट्रामा सेंटर को भी जनता को समर्पित किया। नए भवन में ओपीडी व ट्रॉमा सेंटर आने के बाद प्रदेश की जनता को भीड़भाड़ से निजात मिलेगी। ओपीडी व ट्रॉमा सेंटर लगभग 136 करोड़ की लागत से बनकर तैयार हुआ है वहीं 104 करोड़ OPD व 32 करोड़ ट्रामा सेंटर पर खर्च हुआ है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह ने कहा कि प्रदेश सरकार जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने के प्रति कृत संकल्प है। जल्द ही आईएमसी में रोबोटिक सर्जरी की शुरुआत भी की जाएगी।साथ ही आधुनिक उपकरण भी लगाए जाएंगे ताकि दूरदराज से आने वाले मरीजों को स्वास्थ्य संबंधी ईलाज जल्द मिल सके। सत्ता परिवर्तन के साथ ही मेडिकल रिफॉर्म्स में भी सरकार बदलाव ला रही है।आने वाले बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र में भी नए बदलाव किए जाएंगे ताकि जनता को बेहतर स्वास्थ्य मिल सकें।
जिला कांग्रेस कमेटी हमीरपुर द्वारा केंद्र की मोदी सरकार के विरोध में जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष व कांगड़ा कॉपरेटिव बैंक चेयरमैन कुलदीप सिंह पठानिया की अध्यक्षता में धरना प्रदर्शन किया गया।कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ जमकर नारेबाजी की।इसी के साथ केसीसी बैंक के चेयरमैन कुलदीप पठानिया ने कहा कि मोदी सरकार एक-एक करके सभी सरकारी सम्पतियों को बेच रही है, और अपने चहेतों को सभी कायदे कानून ताक पर रख कर लाभ पहुंचा रही है।इसी के चलते अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी व प्रदेश कांग्रेस कमेटी के दिशानिर्देश पर अडानी के घोटाले व संसद में विपक्ष की आवाज को दवाने के विरोध में, SBI व LIC जैसी वित्तिय संस्थाओं को ध्वस्त करने के विरुद्ध व केंद्र की मोदी सरकार के खिलाफ आज धरना प्रदर्शन किया गया। इसी दौरान कांग्रेस प्रत्याशी पुष्पेंद्र वर्मा ने बताया कि कांग्रेस पार्टी द्वारा अदानी ग्रुप के खिलाफ धरना प्रदर्शन किया जा रहा है उन्होंने कहा कि एलआईसी के 50 हजार करोड़ का नुकसान केंद्र सरकार की गलत नीतियों के कारण हुआ है।उन्होंने कहा कि कांग्रेस पार्टी पूरे भारतवर्ष में धरना प्रदर्शन कर रही है और मांग कर रही है कि जल्द से जल्द जीपीसी बनाई जाए।
होली से पहले पूर्वोत्तर के तीन राज्यों में भाजपा ने भगवा लहराया है। त्रिपुरा और नागालैंड में सत्ताधारी गठबंधन ही जीता है और मेघालय में सत्ता के लिए पुराने साथी फिर गठबंधन को साथ आ गए हैं। निसंदेह ये भाजपा के लिए बड़ी जीत है। दरअसल 'पूर्वोत्तर के अंतर्गत आठ राज्य आते हैं। इनमें त्रिपुरा, मेघालय, नगालैंड, असम, मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। 2014 तक इनमें से ज्यादातर राज्यों में या तो कांग्रेस या फिर लेफ्ट का राज हुआ करता था। एक दौर ऐसा भी था जब बीजेपी को हिंदी भाषी पार्टी बोलकर ही खारिज कर दिया जाता था। इसके बाद कहानी बदलने लगी। एक-एक करके इन आठ में से छह राज्यों में भाजपा ने या तो अकेले दम पर सरकार बनाई या फिर सरकार का हिस्सा बनी। अब ये आंकड़ा सात पहुँच सकता है। सिर्फ मिजोरम में एमएनएफ की सरकार है। भाजपा ने कोशिश तो 2014 से पहले भी की, लेकिन उसे सफलता सिर्फ 2003 में मिली जब अरुणाचल में बीजेपी की सरकार बनी थी। तब कांग्रेस के एक दिग्गज नेता ने पार्टी के अंदर ही बगावत की थी और कई नेता बीजेपी में शामिल हो गए थे। उस वजह से पहली बार किसी पूर्वोत्तर राज्य में बीजेपी की सरकार बनी थी, लेकिन उसके बाद बीजेपी के लिए पूर्वोत्तर में सियासी सूखा ही रहा और जमीन पर समीकरण 2014 के बाद बदलने शुरू हुए। पूर्वोत्तर में बीजेपी की ग्रोथ के कई कारण है जिनमें से एक सरकारी योजनाओं का जमीन पर पहुंचना भी है। बीजेपी ने पूर्वोत्तर के राज्यों के लिए नॉर्थ-ईस्ट डेवलपमेंट अलायंस यानी नेडा का गठन किया है। इसके संयोजक असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा शर्मा हैं। साल 2015 में इसका गठन किया गया और इसका मक़सद था कि बीजेपी पूर्वोत्तर राज्यों में उन क्षेत्रीय दलों को एक साथ लाए जो कांग्रेस से खुश नहीं हैं। 2016 में बीजेपी ने 15 साल से चले आ रहे कांग्रेस के शासन को असम में ख़त्म करके अपनी सरकार बनाई। 2018 में 30 साल से काबिज लेफ़्ट सरकार को हटाकर पहली बार बीजेपी ने त्रिपुरा में सरकार बनाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद 2017 के बाद से 47 बार नार्थ-ईस्ट जा चुके हैं। चुनाव से पहले उन्होंने त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में 3 बड़ी रैलियां कीं। नार्थ-ईस्ट के 8 राज्यों में हर 15 दिन में कोई न कोई केंद्रीय मंत्री जरूर पहुंचता है। केंद्र सरकार ने 2024-25 के लिए नार्थ ईस्ट का बजट 5892 करोड़ किया है, ये 2022-23 के मुकाबले 113% ज्यादा है। नेडा का गठन ही बताता है कि बीजेपी के लिए पूर्वोत्तर राज्य कितने अहम रहे हैं। पूर्वोत्तर के राज्यों की आबादी में आदिवासियों की बहुलता है और ईसाई अल्पसंख्यकों की तादाद यहां ज्यादा है, ऐसे में जब इन राज्यों में बीजेपी जीतती है तो उसके लिए इस नैरेटिव को काउंटर करना और आसान हो जाता है कि वह अल्पसंख्यक विरोधी है। अब जीत के बाद बीजेपी ये कह सकती है कि वह अगर अल्पसंख्यक विरोधी होती, तो उसे ये जीत ना मिलती। साथ ही यहाँ 26 लोकसभा सीटें हैं, जो बाकी भारत के मध्य आकार के एक राज्य के बराबर है। भाजपा ने पूर्वोत्तर के चुनावों को इसलिए इतना ज्यादा महत्व दिया, क्योंकि वर्ष 2024 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर यहां की 26 लोकसभा सीटें उसके लिए बहुत अहम हैं। लोकसभा चुनाव में अगर अन्य राज्यों में उसके खिलाफ सत्ता विरोधी रुझान हुआ तो पूर्वोत्तर से उसकी भरपाई की जा सकती है। वहीँ दशकों से कांग्रेस के गढ़ रहे पूर्वोत्तर कांग्रेस का सफाया हो गया है। त्रिपुरा में भले ही उसे कुछ सीटें मिली हैं जो कि सांत्वना पुरस्कार से ज्यादा कुछ नहीं है, लेकिन कुल मिलाकर पूर्वोत्तर के इलाके में कांग्रेस लगातार हार रही है। बात ये है कि तीनों ही राज्यों में देश की सबसे पुरानी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस की स्थिति सबसे ज्यादा खराब हुई है। तीनों ही राज्यों से कांग्रेस का प्रदर्शन निराशाजनक रहा है। वह भी तब जब 2016 तक नॉर्थ ईस्ट के ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस और लेफ्ट का ही कब्जा था। त्रिपुरा कभी वामपंथी दलों का गढ़ रहे त्रिपुरा में भाजपा गठबंधन ने लगातार दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में सफलता हासिल की है। गठबंधन को राज्य में 33 सीटों पर जीत मिली है। अकेले भाजपा को त्रिपुरा की 60 सदस्यीय विधानसभा में 32 सीटों पर सफलता मिली है। यहाँ कांग्रेस और लेफ्ट गठबंधन को बड़ा झटका लगा। कांग्रेस ने तीन सीटों पर जीत हासिल की, जबकि लेफ्ट के खाते में 11 सीटें आईं। मतलब गठबंधन करने के बावजूद दोनों को कुछ खास फायदा नहीं मिला। हालांकि, पहली बार चुनाव लड़ रही टिपरा मोथा ने बड़ी कामयाबी हासिल की। इनके 42 में से 13 प्रत्याशियों ने चुनाव में जीत दर्ज की। त्रिपुरा में भाजपा की सहयोगी आईपीएफटी को टिपरा मोथा पार्टी के कारण भारी नुकसान हुआ है। नतीजों को देखा जाए तो यहाँ भाजपा जीतने में तो कामयाब रही मगर पार्टी का वोट शेयर घटा है। भाजपा को 38.97 फीसदी वोट हासिल हुए हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को 43.59 फीसदी वोट शेयर के साथ 36 सीटों पर सफलता मिली थी। नगालैंड इस बार नगालैंड की 59 सीटों पर चुनाव हुए। यहां जुन्हेबोटो की आकुलुटो सीट से भाजपा प्रत्याशी और निर्वतमान विधायक काजहेटो किन्मी निर्विरोध चुनाव जीत चुके थे। ऐसे में इस सीट पर चुनाव नहीं हुए। भारतीय जनता पार्टी और नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (एनडीपीपी) का गठबंधन हुआ। इसके तहत एनडीपीपी ने 40 और भाजपा ने 20 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारे थे। इसके अलावा कांग्रेस और एनपीएफ अलग-अलग चुनाव लड़े। कांग्रेस ने 23 और एनपीएफ ने 22 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। 19 निर्दलीय प्रत्याशियों ने भी चुनाव में ताल ठोकी थी। 2018 में यहां विधानसभा के सभी 60 सदस्य सरकार का हिस्सा बन गए थे। मतलब कोई भी विपक्ष में नहीं था। इस बार भी यहां भाजपा गठबंधन ने बड़ी जीत हासिल की। भाजपा के 20 में से 13 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। वहीं, एनडीपीपी के 40 में से 25 प्रत्याशी विजयी हुए। कांग्रेस यहां एक भी सीट नहीं जीत पाई। एनपीपी के पांच उम्मीदवार चुनाव जीत गए। यहां एनसीपी ने भी बड़ा खेल किया। एनसीपी के सात प्रत्याशी चुनाव जीत गए हैं। चार निर्दलीय, दो लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) और एनपीएफ, आरपीआई के दो-दो उम्मीदवार चुनाव जीतने में कामयाब रहे। रोचक बात ये भी है कि नगालैंड के इतिहास में आज तक एक भी महिला चुनकर विधानसभा नहीं पहुंची थीं। अब तक नगालैंड से मात्र एक महिला सांसद रानो साइजा चुनी गई थीं। वह 1977 में छठी लोकसभा में चुनकर संसद पहुंची थीं। पर इस बार नागालैंड की जनता ने चार महिला प्रत्याशियों में से दो- दीमापुर तृतीय विधानसभा से हेकानी जखालू और अंगामी सीट से सलहूतुनू क्रुसे को चुनकर विधानसभा में भेजा है। मेघालय सबसे रोमांचक मुकाबला मेघालय में हुआ। यहां 60 में से 59 सीटों पर चुनाव हुए थे। एक सीट पर एक प्रत्याशी की मौत के चलते चुनाव रद्द हो गया। 59 सीटों पर हुए चुनाव के नतीजों ने आज सभी को हैरान कर दिया। किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है। एनपीपी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है। इनके 25 प्रत्याशियों ने जीत हासिल की। दूसरे नंबर पर यूडीपी रही। इनके 11 उम्मीदवार चुनाव जीत गए। भाजपा के तीन, टीएमसी के पांच, कांग्रेस के पांच, एचएसपीडीपी, पीडीएफ के दो-दो उम्मीदवारों ने जीत हासिल की। दो निर्दलीय विधायक भी चुने गए। वाइस ऑफ द पीपल पार्टी के चार उम्मीदवार चुनाव जीत गए।
" ....हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजों ने प्रदेश के चारों सांसदों को भी आईना दिखाने का काम किया है। कोई भी सांसद अपने संसदीय क्षेत्र में अपनी पार्टी को इक्कीस साबित नहीं कर पाया। कांगड़ा, हमीरपुर और शिमला संसदीय क्षेत्र में भाजपा पिछड़ी, तो मंडी में कांग्रेस। अब जाहिर है लोकसभा चुनाव से पहले दोनों ही राजनैतिक दलों के सांसदों पर बेहतर करने का दबाव होगा। हालांकि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में मुद्दे भी अलग होते है और चेहरे भी, फिर भी इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि विधानसभा चुनाव के नतीजे हवा बनाने - बिगाड़ने में बड़ा किरदार निभा सकते है। " कांगड़ा वो संसदीय क्षेत्र है जहाँ भाजपा अपनी स्थापना के बाद से ही मजबूत रही है। भाजपा की स्थापना के बाद से हुए दस लोकसभा चुनावों में से यहाँ सात में भाजपा को जीत मिली है। पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार खुद इस क्षेत्र से चार बार सांसद रहे है। वहीं बीते तीन लोकसभा चुनाव भाजपा लगातार जीत चुकी है। बावजूद इसके, इस बार कांगड़ा में भाजपा की राह आसान नहीं दिखती। दरअसल कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा का ग्राफ लगातार गिरा है, कम से कम हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव के नतीजे तो ये ही बयां करते है। 2019 में सांसद बने किशन कपूर हिमाचल में तो सबसे ज्यादा मतों के अंतर से जीते ही थे, साथ ही पूरे देश में भी सबसे अधिक मत प्रतिशत हासिल करने का रिकॉर्ड भी उन्होंने अपने नाम किया था। मोदी लहर में किशन कपूर ने कुल 72.02 प्रतिशत वोट हासिल किए थे। तब कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में पड़े कुल 10 लाख 6 हजार 989 मतों में से कपूर की झोली में 7 लाख 25 हजार 218 मत आए। शानदार जीत हासिल करके किशन कपूर लोकसभा पहुंचे और इसके बाद धर्मशाला विधानसभा उपचुनाव में भी भाजपा ने जीत दर्ज की। पर 2022 का चुनाव आते -आते भाजपा का जादू फीका पड़ गया और पार्टी इस संसदीय क्षेत्र की 17 में से सिर्फ पांच सीटें ही जीत पाई, जो जयराम सरकार की विदाई का एक अहम कारण है। इससे पहले वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में 13 सीटें भाजपा की झोली में गई थी। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की जो पांच सीटें भाजपा जीती है उनमे से दो जिला चम्बा की है और तीन जिला कांगड़ा की। सिर्फ डलहौज़ी, चुराह, सुलह, नूरपुर और कांगड़ा सीट पर भाजपा अपनी साख बचाने में कामयाब हुई है। वहीं हारने वाले 12 की लिस्ट में जयराम कैबिनेट के दो मंत्री, राकेश पठानिया और सरवीण चौधरी भी शामिल है। इसके अलावा पार्टी के प्रदेश महासचिव त्रिलोक कपूर को भी पालमपुर की जनता ने नकार दिया। वहीं सांसद किशन कपूर की परम्परागत सीट धर्मशाला में भी पार्टी को शिकस्त मिली। जाहिर है कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा की हार सांसद के रिपोर्ट कार्ड में भी जुड़ेगी। क्या नए चेहरे पर दांव खेलेगी भाजपा ? कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में रिकॉर्ड जीत दर्ज करने वाले सांसद किशन कपूर पर क्या पार्टी 2024 में फिर दांव खेलेगी, इसे लेकर भी कयासबाजी अभी से जारी है। माहिर मान रहे ही कि विधानसभा चुनाव में भाजपा के लचर प्रदर्शन का खामियाजा किशन कपूर को उठाना पड़ सकता है और पार्टी यहाँ किसी नए चेहरे को भी मैदान में उतार सकती है। कांग्रेस छोड़ कर भाजपा में आएं पवन काजल और धर्मशाला के पूर्व विधायक विशाल नेहरिया के नाम भी यहाँ से चर्चा में है। उधर, विधानसभा चुनाव में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र की 12 सीटें जीतने वाली कांग्रेस की राह भी उतनी आसान नहीं है, जितना माना जा रहा है। इसका सबसे बड़ा कारण तो ये है कि लोकसभा चुनाव प्रदेश नहीं बल्कि देश के मुद्दों पर होगा और देश में कांग्रेस की स्थिति मजबूत नहीं है। दूसरा बड़ा कारण है सुक्खू सरकार पर लग रहे जिला कांगड़ा की उपेक्षा के आरोप। जिला कांगड़ा की दस सीटों पर कांग्रेस की जीत मिली है लेकिन सुक्खू कैबिनेट में अब तक महज एक मंत्री पद मिला है और दो सीपीएस बनाये गए है। वहीँ संसदीय क्षेत्र के लिहाज से बात करें तो भटियात विधायक कुलदीप सिंह पठानिया को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया है। हालांकि सुक्खू कैबिनेट में अभी तीन पद रिक्त है और जानकार मान रहे है कि इनमें से दो स्थान जिला कांगड़ा को देकर कांग्रेस क्षेत्रीय संतुलन सुनिश्चित करेगी। माहिर मान रहे है कि कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी लोकसभा चुनाव में दमदार चेहरा उतारना। पिछले चुनाव में पार्टी ने ओबीसी समुदाय में बड़ी पैठ रखने वाले पवन काजल को उम्मीदवार बनाया था लेकिन काजल रिकॉर्ड अंतर से हारे थे। अब काजल भी भाजपा में चले गए है। कांग्रेस के संभावित उम्मीदवारों में पूर्व सांसद और मंत्री चंद्र कुमार चौधरी और पूर्व मंत्री और विधायक सुधीर शर्मा के नाम को लेकर कयास जरूर लग रहे है। वहीँ युवा चेहरों में सुक्खू सरकार के आईटी सलाहकार गोकुल बुटेल निसंदेह एक दमदार विकल्प हो सकते है। दमदार विकल्प हो सकते है गोकुल बुटेल सुक्खू सरकार में आईटी सलाहकार गोकुल बुटेल लोकसभा चुनाव में पार्टी के लिए एक बेहतरीन विकल्प हो सकते है। प्रदेश और कांगड़ा की सियासत में बुटेल परिवार के वर्चस्व पर कोई संशय नहीं है। वहीँ गोकुल निजी तौर पर पार्टी आलाकमान की भी पसंद माने जाते है। उन्हें कई राज्यों में पार्टी के प्रचार संभालने का अनुभव भी है जो उनके पक्ष में जा सकता है। प्रदेश में भी गोकुल बुटेल एक ऐसा नाम है जिसे लेकर संभवतः किसी को कोई ऐतराज नहीं होगा। यानी गोकुल के नाम पर कांग्रेस एकजुट होकर मैदान में उतर सकती है।
** प्रतिभा सिंह और सुरेश कश्यप, दोनों है वर्तमान में सांसद हिमाचल में दोनों मुख्य राजनीतिक दलों के अध्यक्षों में एक बात समान है, दोनों ही लोकसभा सांसद भी है। कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह मंडी से सांसद है, तो भाजपा अध्यक्ष सुरेश कश्यप शिमला से। मौजूदा राजनैतिक परिवेश में इन दोनों में एक समानता और है, वो ये है कि बीते विधानसभा चुनाव में ये दोनों ही अपने -अपने संसदीय क्षेत्रों में अपने दलों को बढ़त नहीं दिला पाएं। ये बेहद दिलचस्प आंकड़ा है कि प्रदेश के सभी सांसदों के क्षेत्रों में उनके दल पिछड़ गए और दोनों राजनैतिक दलों के प्रदेश अध्यक्ष भी इसमें शामिल है। जाहिर है ऐसे में 2024 की राह इन दोनों ही नेताओं के लिए आसान नहीं होने वाली। पहले बात भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप की करते है। दो बार विधायक रह चुके कश्यप वर्तमान में शिमला से सांसद है और करीब पौने तीन साल से भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी। पर विधानसभा चुनाव में जिन सुरेश कश्यप के कन्धों पर पार्टी के मिशन रिपीट का बोझथा वो अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में फीके रहे। शिमला संसदीय क्षेत्र की 17 सीटों में से भाजपा को महज तीन पर जीत नसीब हुई। संसदीय क्षेत्रवार देखे तो शिमला में भाजपा सबसे ज्यादा कमजोर रही। ऐसे में 2024 में क्या भाजपा लगातार चौथी बार इस संसदीय सीट पर जीत दर्ज करेगी, ये बड़ा सवाल है। वैसे माहिर मान रहे है कि इससे भी बड़ा सवाल ये है कि क्या भाजपा फिर सुरेश कश्यप पर दांव खेलेगी ? संभवतः पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव में सुरेश कश्यप की जगह अन्य विकल्पों पर भी विचार करें। अब बात प्रतिभा सिंह की करते है। विधानसभा चुनाव में मंडी संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली 17 में से सिर्फ पांच सीटों पर कांग्रेस को जीत मिली थी। ये एकमात्र ऐसा संसदीय हलका है जहाँ कांग्रेस पिछड़ी। ऐसे में जाहिर है प्रतिभा सिंह के जादू पर भी सवाल उठे है। बावजूद इसके इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि प्रतिभा सिंह ही हिमाचल कांग्रेस का वो एकमात्र चेहरा है जो मोदी दौर में भी लोकसभा पहुंचने में कामयाब रही है। माहिर मान रहे है कि प्रतिभा सिंह की स्थिति अब भी ठीक ठाक है। 2024 में उनकी राह कितनी आसान होती है और कितनी कठिन, ये दरअसल दो बातों पर निर्भर करेगा। पहला, क्या मोदी लहर का कितना असर होता है और दूसरा उनके सामने चेहरा कौन होता है। सुक्खू राज में छाया शिमला संसदीय क्षेत्र शिमला संसदीय क्षेत्र को सुक्खू सरकार में दिल खोलकर मिला है। शिमला संसदीय क्षेत्र में कांग्रेस के 13 विधायक है और इनमें से पांच को मंत्री पद मिला है। इसके अलावा तीन विधायकों को सीपीएस बनाया गया है। प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह का भी शिमला में ख़ासा प्रभाव है और कार्यकारी अध्यक्ष विनय कुमार भी इसी क्षेत्र से आते है। जाहिर है ऐसे में भाजपा को यहाँ खूब जोर लगाना होगा। जिला मंडी में जयराम फैक्टर असरदार मंडी संसदीय क्षेत्र की अगर बात करें तो इसमें जिला मंडी के 9 विधानसभा क्षेत्र आते है और इन सभी पर विधानसभा चुनाव में भाजपा को जीत मिली है। इस जीत का सबसे बड़ा कारण है पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष जयराम ठाकुर। माहिर मानते है कि अगर जयराम ठाकुर खुद मंडी से मैदान में उतारते है तो इसका बड़ा लाभ भाजपा को हो सकता है।
लोकसभा चुनाव में बेशक अभी एक साल से अधिक का वक्त हो लेकिन सांसद बनने के चाहवान नेता प्रो. एक्टिव हो चुके है। प्रदेश के चारों संसदीय क्षेत्रों में कमोबेश ये ही स्थिति है जिनमें जाहिर है कांगड़ा संसदीय क्षेत्र भी शामिल है। इस सीट पर पिछले तीन चुनाव भाजपा जीती है, वहीं कांग्रेस को आखिरी बार 2004 में यहाँ विजय श्री मिली थी। तब चौधरी चंद्र कुमार सांसद बने थे। इसके बाद 2009 में भाजपा के राजन सुशांत ने जीत दर्ज की और 2014 में शांता कुमार सांसद बने। वहीं 2019 में शांता कुमार के चुनावी राजनीति को अलविदा कहने के बाद भाजपा के किशन कपूर यहाँ से सांसद है। बहरहाल बात करते है कांगड़ा में भाजपा की। मौजूदा सांसद किशन कपूर पार्टी की स्थापना के वक्त से ही भाजपाई है और उससे पहले भी जनसंघ में सक्रिय रहे है। पांच दशक लम्बे अपने राजनैतिक करियर में किशन कपूर कई बार विधायक और मंत्री रहे है। कपूर गद्दी समुदाय का बड़ा चेहरा है और एक बार फिर भाजपा टिकट के दावेदार भी। पर इस बार किशन कपूर की राह आसान नहीं दिखती। दरअसल बतौर सांसद किशन कपूर के नाम कोई बड़ी उपलब्धि नहीं दिखती। इसके अलावा हालहीं में हुए विधानसभा चुनाव में उनके संसदीय क्षेत्र में भाजपा को 17 में से महज 5 सीटें मिली है। कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में भाजपा के इस कमजोर प्रदर्शन का खामियाजा भी किशन कपूर को उठाना पड़ सकता है। ऐसे में माहिर मान रहे है कि बार भाजपा कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से किसी नए चेहरे को मैदान में उतार सकती है। बहरहाल कयासबाजी जोरों पर है कि अगर किशन कपूर नहीं तो फिर भाजपा का उम्मीदवार कौन हो सकता है। इस फेहरिस्त में करीब आधा दर्जन नाम शामिल है। इनमें एक नाम धर्मशाला के पूर्व विधायक विशाल नेहरिया का भी है। किशन कपूर के सांसद बनने के बाद नेहरिया 2019 के उपचुनाव में पहली बार विधायक बने थे, पर 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने उन्हें टिकट नहीं दिया। हालांकि नेहरिया को लेकर जमीनी स्तर पर कोई ख़ास नाराजगी नहीं थी, बावजूद इसके पार्टी ने उनका टिकट काट दिया। इसके बाद उनके समर्थकों में खासा रोष था, लेकिन नेहरिया ने बगावत का रास्ता न अपनानाते हुए पार्टी के बैनर तले काम किया। इसका लाभ नेहरिया को मिल सकता है। 34 साल के विशाल नेहरिया भी गद्दी समुदाय से आते है जो इस संसदीय क्षेत्र में निर्णायक भूमिका निभाता है। ये फैक्टर भी नेहरिया के पक्ष में जा सकता है। बहरहाल नेहरिया के अलावा भी कई दावेदार है लेकिन निसंदेह विशाल नेहरिया का दावा खारिज नहीं किया जा सकता।
सूबे की सुक्खू सरकार में पालमपुर को दो कैबिनेट रैंक मिले है। यूँ तो पालमपुर वालों को आस मंत्री पद की थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बहरहाल पालमपुर को 2 कैबिनेट रैंक दिए गए है जिसमें पहले है विधायक आशीष बुटेल जिन्हें मुख्य संसदीय सचिव यानी सीपीएस का दर्जा दिया गया है और दूसरे है गोकुल बुटेल जिन्हें मुख्यमंत्री का आईटी सलाहकार बनने के साथ-साथ इनोवेशन का जिम्मा दिया गया है। यानी सुक्खू राज में पालमपुर का सियासी रुतबा बरकरार है। कांग्रेस के लिए बुटेल परिवार ने हमेशा पालमपुर में पार्टी का झंडा बुलंद किया है। कभी पीसीसी के पहले अध्यक्ष और वरिष्ठ कांग्रेस नेता कुञ्ज बिहारी लाल यहाँ से चुनाव लड़ते थे, तो आगे चलकर उनके भाई बृज बिहारी लाल बुटेल इसी पालमपुर से पांच बार विधायक बने। बृज बिहारी लाल बुटेल कई दफा मंत्री भी रहे और विधानसभा स्पीकर भी रहे। अब नई पीढ़ी के हाथ में कमान है। बृज बिहारी लाल बुटेल के बेटे आशीष बुटेल यहाँ से चुनाव लड़ते है और वर्तमान में दूसरी बार विधायक बनकर सीपीएस बने है। तो कुञ्ज बिहारी लाल बुटेल के पोते गोकुल बुटेल बेशक चुनावी राजनीति में न हो लेकिन पार्टी में उनका रसूख लगातार बढ़ा है। आशीष ने दोनों बार भाजपा के बड़े चेहरों को हराया : आशीष बुटेल ने इस बार दूसरी दफा पालमपुर से जीत दर्ज की है। इससे पहले आशीष बुटेल के पिता बृज बिहारी लाल बुटेल पालमपुर से 5 बार विधायक रहे है। बृज बिहारी लाल बुटेल वीरभद्र सरकार में मंत्री भी रहे और विधानसभा अध्यक्ष भी रहे है। अब 2017 से उनकी राजनैतिक विरासत को उनके पुत्र आशीष बुटेल आगे बढ़ा रहे है। आशीष ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत इंडियन युथ कांग्रेस से की थी। 2017 में अपना पहला चुनाव उन्होंने भाजपा की वरिष्ठ नेता इंदु गोस्वामी को हराकर जीता था। हालांकि उस मर्तबा प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी थी। वहीं इस बार उन्होंने भाजपा के प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर को हराया है। अब आशीष सुक्खू सरकार में सीपीएस बने है और माना जा रहा है कि उन्हें कई महत्वपूर्ण महकमों के साथ अटैच किया जा सकता है। लगातार बढ़ा का गोकुल का सियासी कद: गोकुल बुटेल पूर्ण राज्य बनने के बाद हिमाचल के सबसे पहले कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष कुंज बिहारी लाल बुटेल के पौत्र है। गोकुल बुटेल एआईसीसी के संयुक्त सचिव है। उन्हें 2012 से 2017 तक वीरभद्र सरकार में चीफ आईटी सलाहकार के साथ कैबिनेट रैंक से नवाज़ा गया था। इस बार भी सुक्खू सरकार ने उन्हीं पर भरोसा जताया है। दिलचस्प बात ये है कि उन्हें इनोवेशन विंग का जिम्मा भी मिला है। जानकार मान रहे है कि इस दिशा में सुक्खू सरकार जल्द कोई बड़ा ऐलान कर सकती है। बता दें कि गोकुल बुटेल राहुल गाँधी के भी करीबी माने जाते है और देश के कई राज्यों में कांग्रेस के लिए काम कर चुके है। हिमाचल विधानसभा चुनाव में भी पार्टी के वॉर रूम का जिम्मा उन्हीं के पास था जिसे उन्होंने बखूबी निभाया। कांग्रेस हो या भाजपा, दोनों ही राजनैतिक दलों की सियासत में हमेशा पालमपुर का ख़ास स्थान रहा है। इसी पालमपुर से पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार चुनाव लड़ते थे और ये उनका गृह क्षेत्र भी है। भाजपा के राम मंदिर आंदोलन का आगाज़ भी पालमपुर से ही हुआ था। वहीं वर्तमान में ये भाजपा नेता और राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी और प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर का कर्म क्षेत्र है। पर 2007 के बाद यहाँ भाजपा को जीत नसीब नहीं हुई। अब इसी पालमपुर को कांग्रेस की सुक्खू सरकार ने दो कैबिनेट रैंक देकर बड़ा तोहफा दिया है। आशीष बुटेल और गोकुल बुटेल दोनों दमदार नेता है और इनका सियासी रसूख बढ़ने से निसंदेह कांग्रेस और मजबूत होगी।
भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के कार्यकाल को एक्सटेंड करने के बाद क्या भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप के कार्यकाल को भी एक्सटेंड करेगी, ये यक्ष प्रश्न है। नड्डा का कार्यकाल इसी साल 20 जनवरी को समाप्त हो रहा था, लेकिन बतौर राष्ट्रीय अध्यक्ष नड्डा की परफॉर्मेंस को देखते हुए पार्टी ने नड्डा के कार्यकाल को जून, 2024 तक एक्सटेंड कर दिया है। अब हिमाचल प्रदेश भाजपा की कमान संभाले सुरेश कश्यप का कार्यकाल भी 18 जनवरी को समाप्त हो रहा है, लेकिन सुरेश कश्यप के कार्यकाल में भाजपा के खाते में एक के बाद एक शिकस्त दर्ज हुई है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद भी प्रदेश भाजपा संगठन सवालों के घेरे में है। ऐसे में जाहिर है कि अब भाजपा को मजबूत नेतृत्व की दरकार है। जानकार मान रहे है कि नड्डा को तो विस्तार मिल गया, लेकिन सुरेश कश्यप के कार्यकाल को भी विस्तार मिलेगा इसकी संभावना कम ही है। दरअसल पार्टी ने 2019 अंत में डॉ राजीव बिंदल को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी थी। कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले में बिंदल का नाम खूब उछला तो बिंदल ने इस्तीफा दे दिया। हालांकि इसके बाद बिंदल को क्लीन चिट मिली। बिंदल के स्थान पर सुरेश कश्यप को नया अध्यक्ष बनाया गया। तब तक पार्टी की परफॉरमेंस भी अव्वल थी। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप कर चुकी थी और दो उपचुनाव भी जीत चुकी थी। पर सुरेश कश्यप के आने के बाद पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से पार्टी को दो में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद एक लोकसभा उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव भी पार्टी हार गई। 2022 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को हार का सामना करना पड़ा। जाहिर है ऐसे में सवाल उठना तो लाजमी है। गौर करने वाली बात ये भी है कि प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप शिमला से सांसद भी है और उनके अपने संसदीय क्षेत्र में भाजपा सबसे ज्यादा पिछड़ी है। शिमला संसदीय क्षेत्र की 17 में से सिर्फ तीन सीटों पर भाजपा को जीत मिली है। ऐसे में पार्टी सुरेश कश्यप पर फिर भरोसा जतायेगी, इसकी सम्भावना कम ही लगती है। बहरहाल माना जा रहा है कि जल्द भाजपा को नया प्रदेश अध्यक्ष मिलेगा और नए अध्यक्ष के सामने 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले शिमला नगर निगम चुनाव की कड़ी चुनौती होगी। दरअसल शिमला नगर निगम के 41 वार्ड तीन निर्वाचन क्षेत्रों के अधीन आते है, शिमला शहरी, कसुम्पटी और शिमला ग्रामीण। विधानसभा चुनाव में इन तीनो ही निर्वाचन क्षेत्रों में कांग्रेस को शानदार जीत मिली है, तो भाजपा का सूपड़ा साफ हुआ है। ऐसे में अध्यक्ष जो भी बने, डगर कठिन होने वाली है।
तख्त पलट चुका है और सीएम पद का ताज अब सुखविंदर सिंह सुक्खू के सर पर है। कांग्रेस के वादों पर जनता ने ऐतबार किया और अब इन वादों को पूरा करने की बारी कांग्रेस की है। कांग्रेस की सत्ता वापसी की पटकथा रणनीतिकारों ने उन दस गारंटियों की बिसात पर लिखी थी जिन्हें अब पार्टी को पूरा करना होगा। पहली गारंटी यानी पुरानी पेंशन बहाल करने के लिए अधिसूचना जारी कर दी है। अब जल्द प्रदेश के सभी सरकारी कर्मचारियों को पुरानी पेंशन योजना का लाभ मिलेगा। पर नौ गारंटियां अभी बाकी है, सुक्खू सरकार का बड़ा इम्तिहान अभी बाकी है। सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू बार- बार दोहरा रहे है कि चुनाव के दौरान कांग्रेस द्वारा दी गई हर गारंटी पूरी होगी। पर सीएम ये याद दिलाना भी नहीं भूलते कि तमाम वादे पांच साल के लिए किये गए है। यानी स्पष्ट है कि सरकार इन वादों को पूरा करने की मंशा तो रखती है लेकिन उन्हें पूरा करने में वक्त लग सकता है। दरअसल प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति भी इन वादों को जल्द पूरा करने में बाधा है। प्रदेश पर 75 हजार करोड़ का कर्ज है और करीब 11 हजार करोड़ कर्मचारियों की देनदारी बकाया है। इस 86 हजार करोड़ के अतिरिक्त अब ओपीएस लागू करने से भी सरकार पर करीब 900 करोड़ का भार बढ़ा है। ऐसे में जाहिर है सरकार को वादे पूरे करने है तो आय भी बढ़ानी होगी। इसका असर आम आदमी की जेब पर भी पड़ेगा। मसलन डीजल पर तीन रुपये प्रति लीटर वेट बढ़ाकर सरकार ने ओपीएस का प्रबंध किया है, ऐसा खुद सीएम का कहना है। आगे भी सरकार कड़े फैंसले लेगी, इसका इशारा भी सीएम दे चुके है। यानी अब सुक्खू सरकार के लिए ये तलवार की धार पर चलने के समान है। ये देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह सुक्खू सरकार जनता की नाराजगी मोल लिए बिना इन वादों की कसौटी पर खरा उतरती है। कांग्रेस पार्टी ने सत्ता में आने से पहले कई वादे किए थे, ये सिर्फ वादे नहीं थे, गारंटियां थी। इन्हीं गारंटियों के बूते कांग्रेस के प्रचार प्रसार को हवा मिली और पार्टी सत्ता कब्ज़ाने में कामयाब रही। एक गारंटी पूरी जरूर हुई है मगर अभी नौ शेष है। विधानसभा चुनाव तो पार्टी इन वादों के बूते जीत चुकी है मगर आने वाले लोकसभा चुनाव में भी इन वादों का असर दिख सकता है। यानी इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि सुक्खू सरकार का कामकाज और पूरी हुई गारंटियों का नंबर तय करेगा कि कांग्रेस 2024 लोकसभा चुनाव में बेहतर कर पाती है या फिर भाजपा का डंका बजता है। ऐसे में जाहिर है सुक्खू सरकार भी चाहेगी कि जल्द से जल्द, अधिक से अधिक गारंटियां पूरी हो। सुक्खू सरकार को अभी डेढ़ महीना भी नहीं हुआ है और सरकार पुरानी पेंशन का वादा पूरा कर चुकी है। इसी के साथ-साथ दो अन्य गारंटियों के लिए कैबिनेट सब कमेटी का गठन भी हो चुका है। सरकार ने पहली कैबिनेट की बैठक में महिलाओं को 1500 देने व युवाओं को रोज़गार देने के लिए सब कमेटी का गठन किया गया है। महिलाओं को 1500 रुपये प्रतिमाह देने के लिए चौधरी चंद्र कुमार, कर्नल धनीराम शांडिल और अनिरुद्ध सिंह के नेतृत्व में कमेटी बनाई गई है। ये कमेटी 30 दिन में इस वादे को पूरा करने के लिए ब्लू प्रिंट सौपेंगी। वहीं माना जा रहा है कि इसके बाद इसे चरणबद्ध तरीके से लागू किया जा सकता है। इसके साथ एक अन्य कैबिनेट सब कमेटी का भी गठन किया गया है जो प्रदेश की नई रोजगार नीति बनाने के लिए आगामी 30 दिन में अपनी रिपोर्ट देगी। यानी एक गारंटी पूरी हो चुकी है और बाकी दो गारंटियों के लिए सरकार तैयारी कर चुकी है। इन तीन गारंटियों के अलावा भी प्रदेश की जनता से कई बड़े वादे किये गए है। इनमें 300 यूनिट बिजली मुफ्त देना, दो रूपए किलो गोबर खरीदना, बागवानों द्वारा फलों की कीमत तय करने का वायदा, युवाओं के लिए 680 रुपये करोड़ का स्टार्ट-अप फंड बनाना, हर गांव में मोबाइल क्लीनिक से मुफ्त इलाज करवाना, हर विधानसभा में 4 अंग्रेजी माध्यम स्कूल खोलना ,गाय-भैंस पालकों से हर दिन 10 लीटर दूध खरीदने जैसे वादे पेंडिंग है। आगामी 25 जनवरी को हिमाचल का पूर्ण राज्यत्व दिवस समारोह भी होना है और उस दौरान प्रदेश की जनता को सरकार क्या देती है इसपर भी निगाहें रहेगी। माहिर मान रहे है कि स्टार्ट अप फण्ड और 300 यूनिट फ्री बिजली के वादे को लेकर जल्द कोई ऐलान हो सकता है। सुक्खू सरकार का आगाज अच्छा है... सुक्खू सरकार एक सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ काम करती दिख रही है। प्रदेश की खराब आर्थिक स्थिति पर सीएम सुक्खू खुलकर बोल रहे है और इसे स्वीकार भी कर रहे है। आर्थिकी की गाड़ी पटरी पर लाने के लिए सीएम खुलकर जनता से समर्थन मांग रहे है और हर वादे को पूरा करने का संकल्प भी बार -बार दोहरा रहे है। सुखाश्रय कोष की स्थापना हो और चयन आयोग को सस्पेंड करने का निर्णय, सक्खू सरकार के इन फैसलों को अच्छा जन समर्थन मिला है। ओपीएस लागू कर सीएम सुक्खू फिलहाल कर्मचारियों के हीरो भी बन चुके है। डी नोटिफाई के मुद्दे पर भी सीएम सुक्खू ने आर्थिक स्थिति के तर्क के साथ जनता के बीच अपना पक्ष मजबूती से रखा है। वहीं करीब चार साल बाद देश के किसी राज्य में कांग्रेस की सरकार बनी है, ऐसे में जाहिर है पार्टी आलाकमान भी चाहेगा कि सुक्खू सरकार हर वादे की कसौटी पर खरा उतरे। बहरहाल आगाज अच्छा है, पर आगे डगर कठिन जरूर है। ऐसे में सीएम सुक्खू किस तरह जन अपेक्षाओं पर खरा उतारते है, ये देखना दिलचस्प होगा।
सुक्खू कैबिनेट में रिक्त तीन मंत्री पदों में से हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को एक मंत्री पद की उम्मीद है। प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू और उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री, दोनों ही हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से है। ऐसे में माना जा रहा है कि शेष तीन में से अधिक से अधिक एक पद ही इस संसदीय क्षेत्र को और मिल सकता है। पर दिलचस्प बात ये है कि इस संसदीय क्षेत्र से अभी मंत्री पद के चार प्रमुख दावेदार है। यानी एक पद और चार दावेदार। ये है घुमारवीं विधायक राजेश धर्माणी, सुजानपुर विधायक राजेंद्र राणा, बड़सर विधायक इंद्रदत्त लखनपाल और धर्मपुर विधायक चंद्रशेखर। दिलचस्प बात ये है कि धर्माणी, राणा और लखनपाल तीसरी बात जीतकर विधानसभा पहुंचे है, जबकि चंद्रशेखर पहली बार विधायक बने है। धर्माणी जिला बिलासपुर से विधानसभा पहुंचे कांग्रेस के इकलौते विधायक है, तो राणा और लखनपाल मुख्यमंत्री के जिले हमीरपुर से है। वहीं धर्मपुर विधायक चंद्रशेखर दस सीटों वाले जिला मंडी से इकलौते कांग्रेसी विधायक है। धर्मपुर जिला मंडी की इकलौती सीट है जो हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के अधीन आती है। मंत्री पद के इन दावेदारों की सियासी बैलेंस शीट देखे तो किसी का भी दावा कमतर नहीं लगता। ऐसे में इनमें से किसी एक का चुनाव आसान नहीं होने वाला। वहीँ जानकार मान रहे है कि पार्टी इन्ही चार में से किसी एक को विधानसभा उपाध्यक्ष भी बना सकती है, जबकि अन्य दो नेताओं को कैबिनेट रैंक दी जा सकती है। जानकार मान रहे है कि मंत्री पद के लिए राजेंद्र राणा की अनदेखी करना आसान नहीं होने वाला। राणा सुजानपुर से तीसरी बार विधायक बने है और 2017 में सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल को हरा चुके है। इस बार भी उन्होंने भाजपा की पूरी जोर आजमाइश के बावजूद कैप्टन रंजीत सिंह को हराया है। राणा कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष भी है और होली लॉज के करीबी है। पर उनका हमीरपुर जिला से होना उनकी राह की मुश्किल हो सकता है। राणा राजपूत समुदाय से है और सुक्खू कैबिनेट में अब तक 6 राजपूतों का होना भी इन दोनों के लिए अड़चन बन सकता है। वहीँ इंद्रदत्त लखनपाल बड़सर से लगातार तीसरी बार विधायक है। लखनपाल भी होली लॉज खेमे से है। पर मुख्यमंत्री के जिला से होना उनकी राह में भी अड़चन माना जा रहा है। लखनपाल ब्राह्मण है और अब तक कैबिनेट में सिर्फ एक ब्राह्मण का होना उनके पक्ष में जा सकता है। तीसरे दावेदार राजेश धर्माणी घुमारवीं से तीसरी बार विधायक बने है। उन्होंने जयराम सरकार में मंत्री रहे राजेंद्र गर्ग को बड़े अंतर से हराया है। धर्माणी सीएम सुक्खू के करीबी है और जिला बिलासपुर से इकलौते कांग्रेसी विधायक है, ऐसे में उनका दावा मजबूत है। धर्माणी भी ब्राह्मण समुदाय से आते है और ये भी उनके पक्ष में जा सकता है। वहीँ चंद्रशेखर जिला मंडी से इकलौते कांग्रेसी विधायक है। इन्होंने करीब तीस साल बाद धर्मपुर सीट कांग्रेस की झोली में डाली है। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि जिला मंडी में लगातार कमजोर होती जा रही पार्टी यहाँ मंत्री पद दे सकती है। कांग्रेस के लिए मंडी को नज़र अंदाज़ करना बिलकुल भी नहीं है। ऐसे में अगर ये एक मंत्रिपद हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को मिला तो किसकी ताजपोशी होगी इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है।
सुक्खू मंत्रिमंडल विस्तार के पहले चरण में मंडी जिला भी जगह नहीं बना पाया है। दरअसल, कांग्रेस को मंडी जिला की दस में से सिर्फ एक सीट मिल पाई है। कांग्रेस के बड़े-बड़े दिग्गज भी जिला मंडी में परास्त हुए है। केवल धर्मपुर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस की लाज बची है जहाँ जयराम सरकार में मंत्री रहे महेंद्र सिंह के बेटे रजत ठाकुर को हराकर चंद्रशेखर विधानसभा पहुंचे है। जाहिर है दस सीटों वाले जिला मंडी को सरकार में उचित प्रतिनिधित्व दिए जाना सरकार की सियासी मजबूरी बन गई है, ऐसे में कयास थे कि चंद्रशेखर कैबिनेट में जगह बनाने में कामयाब हो सकते है, मगर ऐसा नहीं हो पाया। अब अगले कैबिनेट विस्तार पर निगाहें टिकी है और ये देखना रोचक होगा कि क्या मंडी में जड़ें मजबूत करने को सुक्खू कैबिनेट में चंद्रशेखर को स्थान मिलेगा। साल 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मंडी जिला की एक भी सीट नहीं मिली थी। इसके बाद भी मंडी जिला में कांग्रेस की स्थिति बेहतर नहीं हुई। मंडी लोकसभा का चुनाव भी पार्टी नहीं जीती। स्थानीय निकाय, जिला परिषद् और नगर निगम चुनाव में भी पार्टी हारी। इसके बाद मंडी लोकसभा का उपचुनाव तो कांग्रेस जीत गई मगर उसमें भी पार्टी को मंडी लोकसभा के अंतर्गत आने वाली जिला की नौ सीटों में से सिर्फ एक पर लीड मिली, बाकी आठ सीटों पर कांग्रेस पिछड़ गई थी। इस चुनाव में भी पार्टी सिर्फ एक सीट पर जीत दर्ज कर पाई है। ज़ाहिर है अगर मंडी को वापस जीतना है, तो तवज्जो देनी ही होगी। मंडी के धर्मपुर से जीत कर आए विधायक चंद्रशेखर के राजनैतिक सफर की बात करे तो वामपंथ से कांग्रेस विचारधारा में आए चंद्रशेखर पिछले तीन विधानसभा चुनावों से प्रतिद्वंदी महेंद्र सिंह को कड़ी टक्कर देते आए हैं, लेकिन वह महेंद्र सिंह के जीत के तिलिस्म को तोड़ नहीं सके थे। अपना पहला विधानसभा चुनाव चंद्रशेखर ने 2007 में धर्मपुर विधानसभा सीट से लड़ा लेकिन वो महेंद्र सिंह ठाकुर से चुनाव हार गए। फिर 2012 में भी चंद्रशेखर ने कांग्रेस टिकट पर चुनाव लड़ा और एक बार फिर उन्हें हार का मुँह देखना पड़ा। 2017 में भी ये सिलसिला जारी रहा और चंद्रशेखर फिर चुनाव हार गए। लम्बे समय तक धर्मपुर विधानसभा सीट पर महेंद्र सिंह ठाकुर का दबदबा रहा है ऐसे में इस तिलिस्म को तोड़ पाना चंद्रशेखर के लिए आसान नहीं था, लेकिन इस बार मैदान में रजत ठाकुर थे और चंद्रशेखर ने रजत ठाकुर को हरा कर विधानसभा की दहलीज लांघ ली। अब धर्मपुर वालों को उम्मीद है कि जयराम कैबिनेट में जिस तरह महेंद्र सिंह मंत्री थे, उसी तरह अब सुक्खू कैबिनेट में चंद्रशेखर शामिल किए जायेंगे। जानकार मानते है की जिला मंडी राजनीतिक दृष्टि से बेहद अहम जिला है और ऐसे में चंद्रशेखर को अहम् पद मिल सकता है। क्षेत्रीय संतुलन को साधने के लिहाज से उन्हें या तो मंत्रिमंडल में शामिल किया जायेगा या फिर उन्हें विधानसभा उपाध्यक्ष के पद से भी पार्टी नवाज सकती है। बहरहाल चंद्रशेखर को क्या ज़िम्मा मिलता है, इसके लिए इन्तजार बरकरार है।
मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबियों में गिने जाने वाले घुमारवीं विधानसभा क्षेत्र के विधायक राजेश धर्माणी मंत्रिमंडल विस्तार के पहले चरण में मंत्री नहीं बन पाए हैं। चुनाव परिणामों के बाद से धर्माणी लगातार मुख्यमंत्री सुक्खू के साथ थे। समर्थकों को उम्मीद थी कि बिलासपुर जिले से जीत कर आए एक मात्र कांग्रेस विधायक राजेश धर्माणी मंत्रिमंडल में शामिल होंगे। मगर अब तक ऐसा नहीं हो पाया है। कहा तो ये भी गया कि धर्माणी से पूछा जा चुका था कि उन्हें कौन सा विभाग चाहिए, लेकिन अंतिम सूची से उनका नाम काट दिया गया। मंत्री पद न मिलने से धर्माणी के समर्थक खूब आहत हुए है। मंत्री न बनाने पर उनके एक समर्थक ने तो रोष प्रकट करते हुए मुंडन भी करवा लिया। सोशल मीडिया पर भी बिलासपुर जिले को मंत्री पद की खूब मांग हो रही है। अब धर्माणी को मंत्री पद मिलता है या नहीं ये तो वक्त ही बताएगा, बहरहाल इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि धर्माणी मंत्री पद के प्रबल दावेदार है। अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सचिव राजेश धर्माणी इस मर्तबा भाजपा सरकार के मंत्री राजेंद्र गर्ग को हराकर विधानसभा पहुंचे है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के गृह जिला बिलासपुर के घुमारवीं से तीसरी बार विधायक बने राजेश धर्माणी की हाईकमान और मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू से भी नजदीकियां हैं। उनकी जुझारू छवि को देखते हुए पार्टी ने उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर कई जिम्मेदारियां भी सौंपी। बिलासपुर जिले से कांग्रेस का सिर्फ एक विधायक जीत कर आया है और वो राजेश धर्माणी है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने अपने मंत्रीमंडल में जिन प्रोफेशनल्स को शामिल करने की बात कही थी उनमे से एक राजेश धर्माणी भी हो सकते है। धर्माणी ने एनआईटी हमीरपुर से बीटेक सिविल और फिर एमबीए की पढ़ाई की है। 1990 में राजेश धर्माणी ने राजनीति में एंट्री की और इसके बाद वो प्रदेश युवा कांग्रेस के महासचिव, प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव, जिला कांग्रेस के अध्यक्ष के पद पर रहे। धर्माणी कांग्रेस चार्जशीट कमेटी के अध्यक्ष भी रहे हैं। धर्माणी ने 2007 में घुमारवीं विधानसभा सीट से अपना पहला चुनाव लड़ा था और तब भाजपा के कर्मदेव को 1931 वोटों से हराया था। फिर 2012 में राजेश धर्माणी ने भाजपा के राजेंद्र गर्ग को 3,208 वोट से हराया। उस समय सरकार ने उन्हें मुख्य संसदीय सचिव नियुक्त किया, लेकिन 2017 के चुनाव में धर्माणी को 10,435 वोटों से हार का सामना करना पड़ा। इस बार धर्माणी पूर्व मंत्री राजेंद्र गर्ग को हराने में कामयाब रहे। धर्माणी कांग्रेस के ईमानदार नेताओं में से एक है और अपनी स्वच्छ छवि के लिए जाने जाते है। इसके बावजूद उन्हें मंत्री पद नहीं मिलना कई सवाल खड़े कर रहा है। माना जा रहा है कि शिमला संसदीय सीट को अधिक तवज्जो देने के चक्कर में धर्माणी का पत्ता कटा है। धर्माणी के समर्थक तो ये तक कह रहे है कि सीएम सुक्खू पर भरोसे की वजह से धर्माणी ने अपने हक़ की लड़ाई नहीं लड़ी। अब कैबिनेट के अगले विस्तार में धर्माणी मंत्री बनते है या नहीं, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है।
सुक्खू कैबिनेट में एससी वर्ग के एक और कैबिनेट मंत्री बनाये जाने की अटकलें है और इन अटकलों के बीच जयसिंहपुर विधायक यादविंदर गोमा का नाम चर्चा में है। गोमा इस बार विधानसभा पहुंचे कांग्रेस के दस एससी विधायकों में से एक है और जिला कांगड़ा से आते है। यानी जातिगत और क्षेत्रीय, दोनों पैमानों पर गोमा फिट बैठते है। जिला कांगड़ा से इस बार कांग्रेस के तीन एससी विधायक जीते है, बैजनाथ से किशोरी लाल, जयसिंहपुर से यादविंदर गोमा और इंदोरा से मलेंद्र राजन। इनमें से किशोरी लाल को सीपीएस बनाया जा चुका है। वहीँ मलेंद्र राजन पहली बार विधानसभा पहुंचे है, जबकि गोमा दूसरी बार के विधायक है। ऐसे में 37 वर्षीय गोमा के समर्थक खासे उत्साहित है। विदित रहे कि सुक्खू कैबिनेट में अभी तीन मंत्री पद रिक्त है और संभव है इनमें से एक पद एससी ( अनुसूचित जाति ) वर्ग के किसी विधायक को मिले। अब तक मुख्यमंत्री सहित कुल नौ मंत्रियों की शपथ हुई है और उनमें से सिर्फ एक मंत्री पद एससी विधायक को मिला है। हिमाचल प्रदेश में 17 एससी सीटें है जिनमें से दस पर कांग्रेस जीती है। इन दस में से एक मंत्री और दो सीपीएस बनाये गए है। कर्नल धनीराम शांडिल को मंत्री पद मिला है और मोहन लाल ब्राक्टा और किशोरी लाल सीपीएस बनाये गए है। पर माहिर मान रहे है कि कम से कम एक एससी विधायक को अभी मंत्री पद मिल सकता है। बताया जा रहा है कि पार्टी आलाकमान भी चाहता है कि एससी वर्ग को कैबिनेट में उचित प्रतिनिधित्व मिले। जयसिंहपुर विधायक यादविंदर गोमा की दावेदारी क्यों मजबूत है ये समझने के लिए सुक्खू कैबिनेट में क्षेत्रीय संतुलन को भी समझना होगा। कांग्रेस के दस एससी विधायकों में से सबसे ज्यादा पांच शिमला संसदीय क्षेत्र से जीते है। इनमें सोलन से कर्नल धनीराम शांडिल, कसौली से विनोद सुल्तानपुरी, रेणुकाजी से विनय कुमार, रोहड़ू से मोहनलाल ब्राक्टा और रामपुर से नंदलाल शामिल है। इनमें से कर्नल शांडिल को मंत्री और मोहनलाल ब्राक्टा को सीपीएस बनाया गया है। वहीँ शिमला पार्लियामेंट्री से कुल पांच मंत्री बनाये जा चुके है। ऐसे में विनय कुमार, नंदलाल या विनोद सुल्तानपुरी को मंत्री पद मिलना बेहद मुश्किल है। सिरमौर जिले से हर्षवर्धन चौहान मंत्री बन चुके है इसलिए भी विनय कुमार की दावेदारी कमज़ोर हुई है। हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस के दो एससी विधायक है, भोरंज से सुरेश कुमार और चिंतपूर्णी से सुदर्शन बबलू। मुख्यमंत्री और उपमुख्यमंत्री दोनों ही इसी संसदीय क्षेत्र से है और क्रमशः हमीरपुर और ऊना ज़िलों से ही है। ऐसे में पहली बार विधानसभा पहुंचे इन दोनों विधायकों का मंत्री बनना भी मुश्किल है। यदि तीन मंत्री पदों में से इस संसदीय क्षेत्र से कोई मंत्री बनता है तो वो राजेश धर्माणी या राजेंद्र राणा में से कोई एक हो सकता है। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र से कांग्रेस का कोई एससी विधायक नहीं जीता है। बहरहाल समीकरण यादविंदर गोमा के पक्ष में बनते दिख रहे है। यदि कांग्रेस एक और एससी चेहरे को कैबिनेट में शामिल करती है तो प्रबल सम्भावना है कि यादविंदर गोमा मंत्री बन सकते है।
2017 के विधानसभा चुनाव में सुजानपुर सीट से भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल को हराकर प्रदेश की सियासी तस्वीर बदलने वाले राजेंद्र राणा इस बार तीसरी दफा विधानसभा पहुंचे है। यूँ तो प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई है, पर राजेंद्र राणा भी उन चंद चेहरों में शुमार है जिनके हिस्से में अब तक कुछ नहीं आया। प्रदेश कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष राजेंद्र राणा को उनके समर्थक तो बतौर सीएम प्रोजेक्ट कर रहे थे, लेकिन सियासी ग्रह दशा का फेर देखिये कि राणा को मंत्री पद तक नहीं मिला। दरअसल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू भी जिला हमीरपुर से ही है, इसके चलते राणा का पत्ता कट गया। माहिर मान रहे है कि पहले कैबिनेट विस्तार की तरह ही अगले कैबिनेट विस्तार में भी राजेंद्र राणा के हाथ खाली ही रहेंगे। सियासी नजर से देखे तो राजेंद्र राणा का सियासी वजन इतना भी कम नहीं है कि उनको पूरी तरह दरकिनार किया जा सके। इस चुनाव में राजेंद्र राणा के सामने यूँ तो कैप्टेन रणजीत सिंह थे, लेकिन खुद प्रो प्रेम कुमार धूमल ने कैप्टेन के लिए मोर्चा संभाला था। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने भी सुजानपुर को विशेष समय दिया था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुजानपुर में रैली की थी। बावजूद इसके राजेंद्र राणा ने जीत दर्ज कर अपना सियासी कद और ऊँचा किया। राणा के कांग्रेस आलाकमान से भी अच्छे संबंध है। पर इसके बावजूद राणा को सुक्खू कैबिनेट में न तो अब तक जगह मिली है और आगे भी इसकी संभावना कम ही ही। ऐसा क्यों है, ये भी आपको बताते है। ** पहला कारण : खुद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू जिला हमीरपुर से है। ऐसे में हमीरपुर से किसी अन्य नेता को मंत्रिमंडल में स्थान मिलना मुश्किल है। ** दूसरा कारण : राजेंद्र राणा को होली लॉज कैंप का माना जाता है। चुनाव नतीजों से पहले राजेंद्र राणा वो पहले नेता थे जिन्होंने सीएम पद हेतु प्रतिभा सिंह के समर्थन की बात कही थी। किन्तु सीएम की कुर्सी सुक्खू को मिली। ** तीसरा कारण : यूँ तो राजेंद्र राणा कांग्रेस आलाकमान के भी करीबी माने जाते है लेकिन चुनाव से पहले उनके भाजपा में जाने के कयास लगते रहे। हालांकि राणा ने खुलकर इस कयासबाजी का खंडन भी किया और कांग्रेस में ही रहे। पर माहिर मानते है कि उक्त अफवाहों ने राणा को नुक्सान जरूर पहुंचाया। बहरहाल सियासत में कब समीकरण बदल जायें, कुछ कहा नहीं जा सकता। राणा के समर्थक इसी आस में है कि अगले कैबिनेट विस्तार में उन्हें जगह जरूर मिलेगी। वहीं जानकार मान रहे है कि यदि राणा को मंत्री पद न भी मिला तो भी उन्हें कोई अहम जिम्मेदारी दिए जाएं लगभग तय है।
प्रदेश को सीएम और डिप्टी सीएम मिल चुके थे और मंत्रिमंडल विस्तार से पहले कयास लग रहे थे कि उम्र की बाधा 82 वर्षीय कर्नल धनीराम शांडिल को मंत्री पद से दूर कर देगी। पर कर्नल का मिजाज ऐसा नहीं है कि आसानी से हार मान लें। अमूमन शांत रहकर मसलों को हल करने वाले कर्नल दिल्ली पहुंचे और अपने अंदाज में सियासी फायरिंग शुरू कर दी। दिलचस्प बात ये है कि दिल्ली से मंत्री पद पर नहीं बल्कि सीधे डिप्टी सीएम पद पर उनका दावा आ गया। कर्नल के समर्थकों ने खुलकर कहा कि पार्टी आलाकमान ने ठाकुर सीएम और ब्राह्मण डिप्टी सीएम तो बना दिए लेकिन उन्हें भरोसा है कि दलित समुदाय की भी उपेक्षा नहीं होगी। साथ में कर्नल शांडिल का पूर्व फौजी होना भी भुनाया गया और पार्टी के प्रति उन्ही वफादारी भी याद दिलाई गई। नतीजन, हालात बदले और पार्टी आलाकमान ने दिल्ली से कर्नल शांडिल के नाम पर मुहर लगा दी। 82 वर्षीय कर्नल अब सुक्खू कैबिनेट के सबसे उम्रदराज मंत्री बन चुके है। उनकी ताजपोशी के बाद एक बार फिर सोलन में उत्साह का आलम है। उधर कर्नल धनीराम शांडिल के मंत्री बनने से दून विधायक राम कुमार चौधरी और अर्की विधायक संजय अवस्थी को सीपीएस पद से संतोष करना पड़ा है। माना जा रहा है कि अगर शांडिल मान जाते तो विशेषकर राम कुमार चौधरी को मंत्री पद मिल सकता था, मगर ऐसा हुआ नहीं। विदित रहे कि कर्नल धनीराम शांडिल वीरभद्र सरकार में भी कैबिनेट मंत्री रहे थे। जंग के मैदान से सियासत के मैदान में आएं फौज से रिटायरमेंट के बाद राजनीति में आने वाले कर्नल शांडिल पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस से 1999 में शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद चुने गए थे। इसके बाद कर्नल कांग्रेस में शामिल हो गए और 2004 में कांग्रेस टिकट से चुनाव लड़कर दूसरी बार सांसद बने। कर्नल दस जनपथ के करीबी रहे है और वे कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल होने वाले हिमाचल प्रदेश के पहले नेता रहे है। 2009 में कर्नल लोकसभा चुनाव हार गए लेकिन इसके बाद 2012 में वे प्रदेश की सियासत में आ गए। उन्होंने 2012 में सोलन सदर सीट से चुनाव लड़ा और पहली बार विधायक बने। इसके बाद उन्हें मंत्री पद भी मिला। 2017 में भी वे जीतने में कामयाब रहे और इस बार तीसरी दफा विधानसभा पहुंचे है। बहरहाल कर्नल धनीराम शांडिल अब मंत्री भी बन चुके है। वीरभद्र सरकार में मंत्री रहते हुए कर्नल ने सोलन विधानसभा क्षेत्र में साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक के कार्य करवाएं थे और अब फिर उनके मंत्री बनने से उम्मीद है कि सोलन का विकास रफ्तार पकड़ेगा।
सुधीर शर्मा, ये वो नाम है जिसके चर्चे वीरभद्र सरकार में हर तरफ थे। सुधीर को तब सरकार में नंबर दो माना जाता था और कहते है तब सुधीर की रज़ा में ही वीरभद्र सिंह की रज़ा होती थी। फिर सियासी फिजा कुछ यूँ बदली कि 2017 में सुधीर विधानसभा भी नहीं पहुंच पाएं। 2019 के उपचुनाव से भी उन्होंने खुद को दूर कर लिया और माना जाता है कि होली लॉज से भी पहले सी नजदीकियां नहीं रही। हालांकि सुधीर को अब भी होली लॉज कैंप का ही माना जाता है। वहीं इस बार सुधीर शर्मा ने विधानसभा चुनाव जीतकर खुद की जमीन को मजबूत तो कर लिया, लेकिन चुनाव से पहले उनके भाजपा से संपर्क में होने के चर्चे खूब हुए। सुधीर ने खुलकर इन चर्चाओं का खंडन तो किया, लेकिन सियासत में अगर बात निकलती है तो दूर तलक जाती है। अब क्या सच और क्या झूठ, ये अलग बात है, पर मुद्दे की बात ये है कि बेशक झूठी ही सही लेकिन इन चर्चाओं का खामियाजा कहीं सुधीर शर्मा को मंत्री पद गंवाकर भुगतान न पड़ जाएँ। बहरहाल सुक्खू कैबिनेट के पहले विस्तार में सुधीर शामिल नहीं थे, अब सिर्फ तीन मंत्री पद शेष है और सुधीर शर्मा के समर्थक इसी आस में है कि उन्हें जगह जरूर मिलेगी। क्या सुधीर शर्मा को सुक्खू कैबिनेट में स्थान मिलेगा, ये बात आगे बढ़ाने से सियासी समीकरणों को समझने के लिए थोड़ा अतीत में झांकना जरूरी है। 2012 में कांग्रेस की सत्ता वापसी के बाद सत्ता वीरभद्र सिंह संभाल रहे थे और संगठन के सरदार थे सुखविंदर सिंह सुक्खू, जो अब सीएम की कुर्सी पर विराजमान है। तब सत्ता और संगठन के बीच की खाई किस कदर गहराई थी, ये किसी से छिपा नहीं है। कई मौकों पर वीरभद्र सिंह ने खुलकर सुक्खू पर ब्यानबाण छोड़े और उधर सुक्खू डटे भी रहे और खड़े भी रहे। पर वक्त टिक कर कहाँ रहता है, वीरभद्र सिंह के निधन के बाद हाल और हालात दोनों बदल गए। हालांकि होली लॉज का सियासी तिलिस्म बरकरार है लेकिन दरबारी कुछ कम हो गए। बेशक प्रतिभा सिंह के हाथ में अब प्रदेश संगठन की कमान है और विक्रमादित्य सिंह की लोकप्रियता निरंतर बढ़ती रही है, लेकिन सियासी शतरंज के जो दांव वीरभद्र सिंह जानते थे, उसकी कमी जरूर खली है। अब भी होली लॉज का मान अधिमान बरकरार है, विक्रमादित्य सिंह के मंत्री बनने से नई ऊर्जा भी आई है, लेकिन ये तो मानना होगा कि अब सुक्खू ही सरताज है। बदली हुई इस सियासत में अब होली लॉज अपने निष्ठावानों के लिए लड़ रहा है। पर क्या इस फेहरिस्त में सुधीर शर्मा भी प्रमुख तौर पर है, इस सवाल का जवाब बहुत कुछ तय कर सकता है। उधर, पहले मंत्रिमंडल विस्तार में सुधीर शर्मा को जगह न मिलने के बाद धर्मशाला में 3 जनवरी को हुई जनसभा का एक वीडियो खूब वायरल हो रहा है जिसमें सुधीर हाथ पकड़ते दिख रहे है और सुक्खू हाथ छुड़ाते। अब सुधीर क्या सुक्खू कैबिनेट में कुर्सी तक पहुंच पाएंगे, इसे लेकर कयासबाजी जारी है। आपको बता दें जिला कांगड़ा से एक मंत्री पद किसी ब्राह्मण चेहरे को मिल सकता है और इस लिस्ट में सुधीर शर्मा और संजय रतन के नाम प्रमुख तौर पर शामिल है। रोचक बात ये है कि दोनों ही होली लॉज कैंप से माने जाते है और संजय रतन को सुधीर का भी करीबी माना जाता है। मंत्री पद के लिए सुधीर शर्मा का दावा इसलिए भी खारिज नहीं किया जा सकता क्योंकि धर्मशाला प्रदेश की दूसरी राजधानी है और इस धर्मशाला के विकास में सुधीर का योगदान नकारा नहीं जा सकता। स्मार्ट सिटी हो या नगर निगम का दर्जा, वो सुधीर ही थे जिन्होंने हमेशा धर्मशाला के हक की दमदार पैरवी की थी। ऐसे में अगर उन्हें मंत्री पद मिलता है तो दूसरी राजधानी के विकास को पंख लग सकते है। इसके अलावा उनका परिवार हमेशा कांग्रेस का निष्ठावान रहा है, वे दिग्गज कांग्रेस नेता पंडित संतराम के सुपुत्र है। उनके भाजपा में जाने की कितनी भी अफवाहें रही हो लेकिन सुधीर ने जैसा कहा था, वे कांग्रेस में ही है।
सुक्खू मंत्रिमंडल में सात मंत्रियों ने शपथ ले ली है लेकिन अब भी तीन मंत्री पद रिक्त है। मंत्री पद के प्रबल दावेदारों में शामिल सुधीर शर्मा और राजेश धर्माणी का नाम एक दिन पहले तक लगभग तय माना जा रहा था, लेकिन सात नवनियुक्त मंत्रियों की लिस्ट में इन दोनों ही नेताओं के नाम पर मोहर नहीं लगी। लिहाजा दोनों ही नेताओं के समर्थकों में निराशा है। आलम ये है कि राजेश धर्माणी के एक समर्थक ने तो विरोध में अपने बाल तक मुंडवा लिए। इन दोनों के अलावा पहले मंत्रिमंडल विस्तार में एक और नेता के हाथ निराशा आई है, वो है सुंदर सिंह ठाकुर। मंत्री पद के चाहवान सुंदर सिंह ठाकुर को सीपीएस बनाकर सेट कर दिया गया। दरअसल माना जा रहा था कि मंडी संसदीय क्षेत्र से दो मंत्री पद दिए जा सकते है, एक नाम जगत सिंह नेगी का तय था और दूसरा नाम सुंदर ठाकुर का माना जा रहा था। किन्तु ऐसा हुआ नहीं। बहरहाल अब भी सुक्खू कैबिनेट के तीन स्थान रिक्त है और इन स्थानों के लिए सुधीर और राजेश धर्माणी के अलावा भी कई दावेदार है। इन तीन स्थानों को भरते वक्त कांग्रेस को क्षेत्रीय संतुलन के साथ -साथ जातिगत संतुलन का भी विशेष ख्याल रखना होगा। सीएम सहित अब तक नौ मंत्री शपथ ले चुके है। पहले जातिगत नजरिये से सुक्खू कैबिनेट पर निगाह डालते है। मुख्यमंत्री सहित कुल नौ मंत्रियों में से 6 राजपूत है, एक ब्राह्मण, एक एससी और एक ओबीसी। ऐसे में शेष तीन पदों पर मुमकिन है कि एससी और ब्राह्मण विधायकों को तवज्जो मिले। अब संसदीय क्षेत्रवार मौजूदा मंत्रिमंडल पर निगाह डाले तो शिमला संसदीय क्षेत्र को पांच, मंडी संसदीय क्षेत्र को एक और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को भी एक ही मंत्री पद मिला है। वहीँ मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री दोनों ही हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से आते है। जिला के हिसाब से देखे तो सबसे ज्यादा तीन मंत्री पद शिमला को मिले है, इसके अलावा सोलन, सिरमौर, कांगड़ा और किन्नौर को एक -एक मंत्री पद मिला है। मुख्यमंत्री हमीरपुर जिला से है, तो उप मुख्यमंत्री ऊना जिला से। चम्बा जिला को विधानसभा अध्यक्ष का पद मिला चुका है। अब तक सबसे बड़े जिला कांगड़ा को सिर्फ एक मंत्री पद मिला है और ऐसे में संभव है कि कांगड़ा को दो मंत्री पद और मिले। शेष एक मंत्री पद जिला बिलासपुर या जिला मंडी में से किसी एक को मिल सकता है। दिलचस्प बात ये है कि बिलासपुर और मंडी से कांग्रेस के सिर्फ एक -एक विधायक जीते है, मंडी की धर्मपुर सीट से चंद्रशेखर और बिलासपुर की घुमारवीं सीट से राजेश धर्माणी विधानसभा पहुंचे है। माहिर मान रहे है कि इन दोनों में से किसी एक को मंत्री पद मिल सकता है और दूसरे को कैबिनेट रैंक या विधानसभा उपाध्यक्ष बनाकर सेटल किया जा सकता है। रोचक बात ये है कि ये दोनों ही सीटें हमीरपुर संसदीय क्षेत्र में आती है, यानी हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को सीएम और डिप्टी सीएम के अतिरिक्त एक मंत्री और मिल सकता है। जानकार मान रहे है कि शेष दो मंत्री जिला कांगड़ा और कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के हिस्से जायेंगे। इनमें से एक मंत्री एससी कोटे से हो सकता है और दूसरा ब्राह्मण। जो एससी चेहरा चर्चा में है वो है जयसिंहपुर से दूसरी बार विधायक बने यादविंदर गोमा। दरअसल बताया जा रहा है कि पार्टी आलाकमान चाहता है कि अधिक से अधिक एससी चेहरों को कैबिनेट में जगह मिले, ऐसे में संभव है कि गोमा कई वरिष्ठ नेताओं को पछाड़ कर मंत्री पद ले जाएं। वहीँ ब्राह्मण चेहरे की बात करें तो सुधीर शर्मा के अलावा ज्वालामुखी विधायक संजय रतन मजबूत दावेदार है। इनके अलावा रघुबीर बाली भी ब्राह्मण है। पहले मंत्रिमंडल विस्तार में सुधीर शर्मा की शपथ न होने के बाद माहिर मान रहे है कि संजय रतन का दावा भी अब मजबूत है।
प्रदेश की सुक्खू सरकार ने छः मुख्य संसदीय सचिवों की नियुक्ति की है। कुल्लू सदर से विधायक सुंदर सिंह ठाकुर, रोहड़ू से विधायक मोहन लाल ब्राक्टा, दून से विधायक राम कुमार चौधरी, पालमपुर से विधायक आशीष बुटेल, बैजनाथ से विधायक किशोरी लाल और अर्की से विधायक संजय अवस्थी को सरकार ने मुख्य संसदीय सचिव बनाया है। इनमें से सूंदर सिंह ठाकुर, आशीष बुटेल और राम कुमार चौधरी को मंत्री पद की दौड़ में भी माना जा रहा था, लेकिन इन्हें सरकार ने मुख्य संसदीय सचिव बनाया है। रविवार को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने सभी 6 विधायकों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। सुंदर सिंह ठाकुर : दूसरी बार बने है विधायक 57 वर्षीय सुंदर सिंह ठाकुर लगातार दूसरी बार कुल्लू सदर सीट से जीतकर विधानसभा पहुंचे है। सुंदर सिंह ने पंजाब विश्वविद्यालय से बीएससी (मेडिकल) और हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय से विधि स्नातक (एलएलबी) की उपाधि प्राप्त की। ठाकुर बागवानी एवं होटल व्यवसाय से जुड़े हैं। सूंदर सिंह ठाकुर ने वर्ष 1985-86 में हिमसा चंडीगढ़ के संगठन सचिव के रूप में कार्य किया। इसके उपरांत वर्ष 1989-91 तक हिमाचल प्रदेश एनएसयूआई के उपाध्यक्ष, 1991 में पंचायत समिति सदस्य, वर्ष 1991-94 तक पंचायत समिति कुल्लू के अध्यक्ष, वर्ष 1994-99 तक जिला परिषद कुल्लू के उपाध्यक्ष रहे। वर्ष 2009-2012 तक हिमाचल प्रदेश युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष, हिमाचल प्रदेश कांग्रेस समिति के राज्य प्रतिनिधि तथा वर्ष 2012 से हिमाचल प्रदेश कांग्रेस समिति के महासचिव पद पर रहे। ठाकुर ने 2003-08 तक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड तथा वर्ष 2013 से 2017 तक हिमाचल प्रदेश खेल परिषद के सदस्य के रूप में कार्य किया। सुंदर सिंह दिसंबर 2017 में 13वीं विधानसभा के लिए बतौर विधायक चुने गए और जनरल डेवलपमेंट एंड सबोर्डिनेट लेजिस्लेशन कमेटी के सदस्य रहे। दिसंबर 2022 में यह 14वीं विधानसभा के लिए पुनः विधायक के रूप में चुने गए। मोहन लाल ब्राक्टा : लगातार तीसरी बार बने विधायक 57 वर्षीय मोहन लाल ब्राक्टा ने विधि स्नातक की शिक्षा ग्रहण की है और एक अधिवक्ता के तौर पर सक्रिय रहे हैं। ब्राक्टा वर्ष 2012 में पहली बार राज्य विधानसभा के लिए चुने गए। वर्ष 2013 से 2017 तक इन्होंने प्राक्कलन, ग्राम नियोजन, सार्वजनिक उपक्रम, कल्याण, विशेषाधिकार एवं नीति समितियों के सदस्य के रूप में कार्य किया। इसके बाद 2017 में 13वीं विधानसभा के लिए यह पुनः निर्वाचित हुए और कल्याण, नियम एवं ई-गवर्नेंस व सामान्य मामले समितियों के सदस्य रहे। दिसंबर 2022 में 14वीं विधानसभा के लिए यह पुनः बतौर विधायक चुने गए है। मोहन लाल ब्राक्टा को होली लॉज खेमे का माना जाता है। राम कुमार चौधरी : मंत्री पद की दौड़ में थे शामिल राम कुमार चौधरी को सियासत विरासत में मिली है। उनके पिता लज्जा राम कई बार विधायक और मुख्य संसदीय सचिव रहे है। राम कुमार चौधरी ने लोक प्रशासन में स्नातकोत्तर की शिक्षा प्राप्त की है और रियल एस्टेट व्यवसाय से जुड़े हैं। राम कुमार चौधरी हरिपुर संदोली ग्राम सुधार सभा के अध्यक्ष रहे हैं। इसके अतिरिक्त चौधरी वर्ष 1993-95 में प्रदेश एनएसयूआई के महासचिव, वर्ष 2003 में राज्य युवा कांग्रेस के महासचिव तथा हिमाचल प्रदेश कांग्रेस समिति के वर्तमान में महासचिव हैं। वर्ष 2006 से 2011 तक यह जिला परिषद सोलन के अध्यक्ष रहे। यह दिसंबर 2012 में पहली बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए बतौर विधायक चुने गए। दिसंबर 2022 में 14वीं विधानसभा के लिए पुनः विधायक चुने गए है। आशीष बुटेल : शांता कुमार के गृह क्षेत्र में कांग्रेस को मजबूत किया पूर्व विधानसभा अध्यक्ष तथा पूर्व कैबिनेट मंत्री बृज बिहारी लाल बुटेल के सुुपुत्र आशीष बुटेल दूसरी बार पालमपुर से विधायक बने है। पालमपुर भाजपा के वरिष्ठ नेता शांता कुमार का गृह क्षेत्र है और यहाँ से बुटेल ने दोनों मर्तबा भाजपा के दिग्गज नेताओं को हराया है। 2017 में उन्होंने इंदु गोस्वामी को हराया था और इस बार भाजपा के प्रदेश महामंत्री त्रिलोक कपूर को हराया है। बुटेल ने सिम्बोयसिस कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय पुणे से वाणिज्य स्नातक की उपाधि प्राप्त की है। आशीष बुटेल को वर्ष 2011 से 2013 तक लोकसभा युवा कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे हैं। वह वर्ष 2014 से हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव हैं। वह वर्ष 2017 में पहली बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए तथा प्राक्कलन एवं ग्रामीण योजना समितियों के सदस्य रहे। वह दिसम्बर, 2022 में 14वीं विधानसभा के लिए पुनः निर्वाचित हुए। आशीष बुटेल जिला कांगड़ा बॉस्केटबाल संघ के भी अध्यक्ष हैं। उनकी सामाजिक कार्यों तथा अध्ययन में विशेष रूचि है। किशोरी लाल : बैजनाथ से दूसरी बार बने है विधायक किशोरी लाल जिला कांगड़ा के बैजनाथ से दूसरी बार विधायक बने है। वह पांच बार पंचायत प्रधान तथा उप-प्रधान रहे हैं। वह ब्लॉक एवं जिला कांग्रेस कमेटी के महासचिव, जिला कांग्रेस कमेटी के वरिष्ठ उपाध्यक्ष और प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सदस्य भी रहे हैं। किशोरी लाल दिसम्बर, 2012 में प्रथम बार हिमाचल प्रदेश विधानसभा के लिए निर्वाचित हुए तथा दिसम्बर, 2022 में पुनः विधायक के रूप में चुने गए हैं। बैजनाथ पंडित संत राम की कर्मभूमि रही है और इसी सीट से उनके पुत्र सुधीर शर्मा भी दो बार विधायक बने है। ये सीट आरक्षित होने बाद यहाँ से कांग्रेस ने किशोरी लाल को चेहरा बनाया और वे तीन में से दो चुनाव जीतने में सफल रहे। संजय अवस्थी : क्रिकेट के मैदान से सियासी मैदान तक पहुंचे अवस्थी 57 वर्षीय संजय अवस्थी अर्की से दूसरी बार विधायक बने है। अवस्थी को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का करीबी माना जाता है। संजय अवस्थी वर्ष 1996 से 2006 तक जिला क्रिकेट संघ सोलन के अध्यक्ष तथा वर्ष 2000 से 2005 तक नगर परिषद सोलन के पार्षद रहे। वह वर्तमान में हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के महासचिव तथा अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य है। संजय अवस्थी 30 अक्टूबर, 2021 को विधानसभा उप-चुनाव में प्रथम बार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए तथा दिसम्बर, 2022 में 14वीं विधानसभा के लिए पुनः निर्वाचित हुए। संजय अवस्थी ने रणजी ट्रॉफी राष्ट्रीय क्रिकेट चैम्पियनशिप में हिमाचल का प्रतिनिधित्व किया है।
विक्रमादित्य सिंह हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के बेटे है। महज 28 साल की उम्र में विक्रमादित्य सिंह 2017 में पहली बार शिमला ग्रामीण सीट से विधायक बने थे। इस बार विक्रमादित्य सिंह दूसरी बार विधायक बने है और अब 33 साल की उम्र में मंत्री भी बन गए है। अलबत्ता विक्रमादित्य सिंह को सियासत विरासत में मिली है लेकिन वे हिमाचल प्रदेश के सबसे लोकप्रिय नेताओं में से है। अमूमन प्रदेश के हर निर्वाचन क्षेत्र में उनके समर्थक है और वे बीते चुनाव में कोंग्रस के स्टार प्रचारक भी थे। विक्रमादित्य ने इतिहास में स्नातक उपाधि सेंट स्टीफनज महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की। विक्रमादित्य 2013 से 2018 तक हिमाचल प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे हैं। विक्रमादित्य सिंह के मंत्री बनने के बाद उनके समर्थकों में ख़ासा उत्साह है और होली लॉज में एक बार फिर दिवाली सा माहौल है। गौरतलब है कि उनकी माता और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह भी सीएम पद की दौड़ में थी लेकिन पार्टी ने सुखविंदर सिंह सुक्खू को सीएम बनाया। इसके बाद होली लॉज समर्थकों में निराशा थी लेकिन अब विक्रमादित्य सिंह के मंत्री बनने से फिर नए उत्साह का संचार हुआ है।
कसुम्पटी निर्वाचन क्षेत्र से आठ बार कांग्रेस जीती है लेकिन ऐसा पहली बार हुआ हुआ है कि कसुम्पटी के विधायक को मंत्री पद मिला हो। अनिरुद्ध सिंह कसुम्पटी से लगातार तीसरी बार विधायक बने है। 2012 में अनिरुद्ध पहली बार विधायक बने थे और तब से अपराजित है। इस बार अनिरुद्ध ने जयराम सरकार में मंत्री रहे सुरेश भारद्वाज को बड़े अंतर से हराया था और उसके बाद से ही उनके मंत्री पद की अटकलें लग रही थी। हुआ भी ऐसा ही, अनिरुद्ध सिंह मंत्री बन गए। अनिरुद्ध राज्य युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष, भारतीय युवा कांग्रेस के राज्य महासचिव, राज्य एवं शिमला लोकसभा क्षेत्र पी.वाई.सी. के उपाध्यक्ष रहे हैं। आई.वाई.सी. के राष्ट्रीय समन्वयक, अनिरुद्ध ने जिला परिषद के चुनाव से अपने राजनितिक करियर की शुरुआत की थी। 2005 और 2010 में चमयाणा वार्ड से जिला परिषद् के सदस्य रहे और 2011 से 2013 तक जिला परिषद शिमला के अध्यक्ष रहे हैं। 2012 में अनिरुद्ध सिंह ने अपना पहला विधानसभा चुनाव लड़ा और जीता भी। अनिरुद्ध कांग्रेस के राष्ट्रिय सचिव भी है और सीएम सुखविंदर सिंह सुक्खू के बेहद करीबी माने जाते है।
रोहित ठाकुर को सियासत विरासत में मिली है। वे हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल के पौत्र हैं। रोहित ठाकुर 2000 से 2004 तक प्रदेश युवा कांग्रेस राज्य समिति के सदस्य रहे। 2008 से 2011 तक हिमाचल प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव भी रहे है। रोहित ठाकुर 2003 में पहली बार जुब्बल कोटखाई सीट से विधायक बने थे। इसके बाद उन्होंने 2012 के विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की। रोहित 2013 से 2017 तक मुख्य संसदीय सचिव रहे। 2021 में हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर ने तीसरी बार जीत दर्ज की। इस बार फिर रोहित ठाकुर ने जुब्बल कोटखाई विधानसभा सीट से जीत हासिल की है। चार बार के विधायक रोहित ठाकुर को मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू का करीबी माना जाता है और उनका मंत्री बनना लगभग तय माना जा रहा था। माहिर मानते है कि रोहित को बागवानी विभाग के साथ -साथ कोई अन्य अहम महकमा मिलेगा।
** पहले कैबिनेट विस्तार में जिला कांगड़ा को सिर्फ एक मंत्री पद मिला हिमाचल प्रदेश के 12 जिलों में से पांच जिलों को अभी तक मंत्री पद नहीं मिला है। हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू जिला हमीरपुर से है और उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री जिला ऊना से। इनके अलावा रविवार को पांच जिलों से मंत्री बनाएं गए है। जिला शिमला से विक्रमादित्य सिंह,अनिरुद्ध सिंह और रोहित ठाकुर मंत्री बने है, जिला सोलन से कर्नल धनीराम शांडिल, जिला सिरमौर से हर्षवर्धन चौहान, जिला कांगड़ा से चंद्र कुमार और जिला किन्नौर से जगत सिंह नेगी को मंत्री पद मिला है। वहीं 5 जिलों को कोई मंत्री पद नहीं मिला है। इनमें जिला मंडी, बिलासपुर, चम्बा, लाहौल स्पीति और जिला कुल्लू शामिल है। अब तीन मंत्री पद शेष है और सम्भवतः जिला कांगड़ा को दो मंत्री पद और मिलेंगे। यानी तीन जिलों को संभवतः मंत्री पद नहीं मिलेगा। जिला चम्बा में कांग्रेस के दो विधायक जीते है और इसी जिला से विधानसभा स्पीकर कुलदीप सिंह पठानिया आते है, ऐसे में ये लगभग तय है कि चम्बा से अब कोई और मंत्री नहीं होगा। जिला कुल्लू में भी कांग्रेस के दो विधायक जीते है और इनमें से एक विधायक सुंदर सिंह ठाकुर मंत्री पद की दौड़ में थे, लेकिन उन्हें सीपीएस बनाया गया है। ऐसे में सम्भवतः कुल्लू को भी मंत्री पद नहीं मिलेगा। वहीं जनजातीय जिला लाहुल स्पीति की इकलौती सीट भी कांग्रेस ने ही जीती है, लेकिन जनजातीय जिला किन्नौर से जगत सिंह नेगी के मंत्री बनने के बाद माना जा रहा है कि लाहुल स्पीति को भी मंत्री पद से वंचित रहना पड़ेगा। जिला बिलासपुर से कांग्रेस को सिर्फ घुमारवीं सीट पर जीत मिली है और विधायक राजेश धर्माणी अब भी मंत्री पद की दौड़ में है। इसी तरह जिला मंडी की दस में से सिर्फ एक सीट धर्मपुर में कांग्रेस जीती है और विधायक चंद्रशेखर को भी मंत्री पद या कोई अन्य अहम दायित्व मिलना तय है।
जगत सिंह नेगी किन्नौर से पांचवी बार विधायक बने है और कांग्रेस के तेजतर्रार नेता है। उन्होंने बी.ए.एल.एल.बी. की शिक्षा डी.ए.वी. महाविद्यालय चण्डीगढ़ और पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ से ग्रहण की है। जगत सिंह नेगी 1980 से 1995 तक जिला सेब एवं सब्जी उत्पादक संघ किन्नौर के संस्थापक अध्यक्ष रहे हैं। इसके साथ ही जगत सिंह 1980 से 1995 तक जिला बार संघ किन्नौर के अध्यक्ष तथा जिला युवा कांग्रेस कमेटी किन्नौर के अध्यक्ष भी रहे हैं। 1996 से 2011 तक जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष रहे। 1996 और 2005 से 2009 तक हिमाचल प्रदेश फुटबाल संघ के उपाध्यक्ष एवं अध्यक्ष रहे। जगत सिंह नेगी ने पहली बार 1995 के उपचुनाव में जीत दर्ज की थी। फिर 2003 में भी किन्नौर सीट पर जगत सिंह नेगी ने ही जीत हासिल की। 2007 का चुनाव वे हार गए लेकिन उसके बाद 2012 , 2017 और इस बार के चुनाव में लगातार तीन दफा जीत कर नेगी ने जीत की हैट्रिक लगाई है। जगत सिंह नेगी इससे पहले विधानसभा उपाध्यक्ष भी रह चुके है और विपक्ष में रहते हुए अक्सर आक्रामक रहे है। संभवतः नेगी किन्नौर से पहले ऐसे विधायक है जो पुरे पांच वर्ष मंत्री रहेंगे।
हर्षवर्धन चौहान उन नेताओं में शुमार है जो प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की दौड़ में माने जा रहे थे। अलबत्ता सीएम पद की दौड़ में तो हर्षवर्धन पिछड़ गए लेकिन मंत्री पद की दौड़ में हर्षवर्धन जीत गए। हर्षवर्धन चौहान का जन्म 14 सितम्बर 1964 को हुआ है। हर्षवर्धन चौहान को राजनीति विरासत में मिली है। उनके पिता गुमान सिंह चौहान 1972 से 1985 तक लगातार चार बार शिलाई से चुनाव जीते। हालांकि 1990 में हर्षवर्धन का चुनावी राजनीति में आगाज़ हार के साथ हुआ, लेकिन इसके बाद उन्होंने 1993 से 2007 तक लगातार चार बार जीत दर्ज की। 2012 में हर्षवर्धन को हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2017 में उन्होंने वापसी की और इस बार भी जीत उनके ही हिस्से में आई। हर्षवर्धन जिला सिरमौर की शिलाई सीट से रिकॉर्ड छठी बार विधायक बने है। हर्षवर्धन चौहान कांग्रेस के पुराने वफादार है। हर्षवर्धन मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू के भी नजदीकी माने जाते है और आलाकमान की भी गुड बुक्स में है। उनके लम्बा राजनैतिक जीवन बेदाग़ है और वे जिला सिरमौर के सबसे लोकप्रिय चेहरों में से एक है। सुक्खू कैबिनेट में हर्षवर्धन चौहान का शामिल होना तय माना जा रहा था और हुआ भी बिलकुल वैसा ही। इस बार हर्षवर्धन चौहान को मंत्रीपद से नवाजा गया है।
1977 में चौधरी चंद्र कुमार ने अपना पहला चुनाव निर्दलीय लड़ा था। तब ज्वाली सीट का नाम था गुलेर, जो 2008 के परिसीमन के बाद ज्वाली पड़ा। अपना पहला चुनाव चौधरी चंद्र कुमार हार गए और सियासत से दूरी बनाकर शिमला के सेंट बीड्स कॉलेज में पढ़ाने लगे, लेकिन चंद्र कुमार सियासत से अधिक समय तक दूरी नहीं बना पाए और नौकरी छोड़ कर कांग्रेस पार्टी में शामिल हुए और फिर सियासत में एंट्री की। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में सिर्फ 1990 को छोड़कर पांच बार चौधरी चंद्र कुमार को जीत मिली। इस दौरान वे वीरभद्र सिंह के करीबी रहे और मंत्री भी रहे। उनके कद को देखते हुए पार्टी ने उन्हें 2004 में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़वाया और वे लोकसभा पहुंच गए। फिर 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी ने एक बार फिर चौधरी चंद्र कुमार को मैदान में उतारा लेकिन वे भाजपा के अर्जुन सिंह से हार गए। इस बार चंद्र कुमार फिर मैदान में थे और जीत दर्ज करने में कामयाब भी रहे। चंद्र कुमार प्रदेश के सबसे बड़े जिला काँगड़ा से संबंध रखते है। कहते है जिला कांगड़ा प्रदेश की सत्ता का रास्ता प्रशस्त करता है और इस बार कांग्रेस को जिला में 10 सीटों पर जीत मिली है। काँगड़ा में ओबीसी फैक्टर का भी खासा प्रभाव देखने को मिलता है और चंद्र कुमार काँगड़ा का बड़ा ओबीसी चेहरा है। ऐसे में क्षेत्रीय और जातीय समीकरणों को देखते हुए भी चंद्र कुमार का मंत्रीपद तय माना जा रहा था। अब सुक्खू कैबिनेट में चंद्र कुमार का नाम शामिल हो चूका है और जिला काँगड़ा को भी मंत्री पद मिल चूका है। चंद्र कुमार कांग्रेस के प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष भी है।
** 7 में से 5 मंत्री शिमला संसदीय क्षेत्र से ** 6 में से 3 सीपीएस शिमला संसदीय क्षेत्र से सुक्खू सरकार ने सात मंत्रियों और छ सीपीएस सहित कुल 13 नियुक्तियां की है। दिलचस्प बात ये है कि इन 13 में से आठ नियुक्तियां शिमला संसदीय क्षेत्र के विधायकों की हुई है। कुल सात में से पांच मंत्री शिमला संसदीय क्षेत्र से है और एक -एक मंत्री कांगड़ा और मंडी संसदीय क्षेत्र से है। कर्नल धनीराम शांडिल, हर्षवर्धन चौहान, रोहित ठाकुर, अनिरुद्ध सिंह और विक्रमादित्य सिंह शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले निर्वाचन क्षेत्रों से विधायक है। वहीं कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से ज्वाली के विधायक चंद्र कुमार को मंत्री बनाया गया है और मंडी सांसदी क्षेत्र के तहत किन्नौर से विधायक जगत सिंह नेगी मंत्री बने है। इसी तरह सीपीएस की बात करें तो शिमला संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाले तीन निर्वाचन क्षेत्रों के विधायकों को सीपीएस पद पर तैनाती मिली है। इनमें अर्की से विधायक संजय अवस्थी, दून से विधायक राम कुमार चौधरी और रोहड़ू से विधायक मोहन लाल ब्राक्टा शामिल है। वहीं कांगड़ा संसदीय क्षेत्र से दो सीपीएस बनाएं गए है, पालमपुर विधायक आशीष बुटेल और बैजनाथ विधायक किशोरी लाल। मंडी संसदीय क्षेत्र की बात करें तो कुल्लू सदर से विधायक सुंदर सिंह को भी सीपीएस बनाया गया है। संसदीय क्षेत्र के लिहाज से देखे तो अब तक सुक्खू सरकार में हमीरपुर संसदीय क्षेत्र को मुख्यमंत्री और उप मुख्यमंत्री के पद मिले है, शिमला संसदीय क्षेत्र को पांच मंत्री पद और तीन सीपीएस मिले है, कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को एक मंत्री पद, विधानसभा स्पीकर का पद और दो सीपीएस मिले है, जबकि मंडी संसदीय क्षेत्र के हिस्से में अब तक एक मंत्री पद और एक सीपीएस का पद आया है। माहिर मान रहे है कि कैबिनेट विस्तार में कांगड़ा संसदीय क्षेत्र को दो मंत्री पद मिल सकते है, जबकि एक मंत्रिपद और विधानसभा उपाध्यक्ष का पद हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के हिस्से जा सकता है। घटा मंडी संसदीय क्षेत्र का सियासी वजन : जयराम सरकार में मंडी संसदीय क्षेत्र से खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के अलावा दो मंत्री थे। मनाली से विधायक रहे गोविन्द सिंह ठाकुर और लाहुल स्पीति से विधायक डॉ राम लाल मारकंडा को मंत्री पद मिला था। वहीं करीब डेढ़ वर्ष तक मंडी सदर विधायक अनिल शर्मा भी मंत्री रहे थे। वहीं सुक्खू सरकार में अब तक मंडी संसदीय क्षेत्र से सिर्फ जगत सिंह नेगी को ही मंत्री पद मिला है और मुमकिन है अब इस क्षेत्र को कोई अन्य मंत्री पद न मिले। कुल्लू सदर से विधायक सुंदर सिंह ठाकुर मंत्रिपद की दौड़ में थे, लेकिन उन्हें सीपीएस बनाया गया है। गौरतलब है कि मंडी संसदीय क्षेत्र से सत्तारूढ़ कांग्रेस को 17 में से 5 सीटें मिली है।
सुक्खू कैबिनेट के विस्तार में सोलन विधायक डॉक्टर कर्नल धनीराम शांडिल को मंत्री पद मिला है। 82 वर्षीय कर्नल शांडिल एससी समुदाय से आते है और गाँधी परिवार के करीबी माने जाते है। सेना में बतौर कर्नल सेवाएं देने के बाद 1999 में शांडिल की राजनीति में एंट्री हुई, तब शांडिल ने पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस से शिमला संसदीय क्षेत्र से लोकसभा का चुनाव लड़ा और जीता भी। इसके बाद कर्नल धनी राम शांडिल कांग्रेस में शामिल हो गए और 2004 में दोबारा लोकसभा का चुनाव लड़ा और दूसरी दफा जीतकर सांसद बने। 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें एक बार फिर प्रत्याशी बनाया, लेकिन भाजपा के वीरेंद्र कश्यप से शांडिल चुनाव हार गए। फिर 2012 में कर्नल धनीराम शांडिल ने पहली बार सोलन विधानसभा सीट से चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की। इसके बाद उन वीरभद्र सरकार में सामजिक न्याय एवं आधिकारिता मंत्री बनाया गया। 2017 में कर्नल शांडिल ने सोलन सदर सीट से फिर चुनाव लड़ा और अपने दामाद डॉक्टर राजेश कश्यप को हराकर फिर से विधायक बने। इस बार शांडिल ने शानदार जीत की हैट्रिक लगाकर 3858 मतो से भाजपा प्रत्याशी डॉ राजेश कश्यप को मात दी है। कर्नल शांडिल उन नेताओं में से एक है जो हाईकमान के बेहद करीबी माने जाते है। वे कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य भी रहे है। कांग्रेस सरकार बनने के बाद शांडिल का नाम मुख्यमंत्री फेहरिस्त में भी शामिल था, लेकिन सुखविंदर सिंह सुक्खू के मुख्यमंत्री बनने के बाद से ही वरिष्ठता के आधार पर कर्नल शांडिल का नाम मंत्रिपद के दावेदारों में तय माना जा रहा था। अब जैसा अपेक्षित था हुआ भी बिलकुल वैसा ही, सुक्खू मंत्रिमंडल में कर्नल शांडिल के नाम पर मोहर लग गई है और सोलन को मंत्री पद मिल चूका है।
* सुक्खू सरकार ने 6 सीपीएस भी बनाएं * जिला शिमला को मिले तीन मंत्री पद आखिरकार इंतजार खत्म हुआ और हिमाचल प्रदेश की सुखविंदर सिंह सुक्खू सरकार का कैबिनेट विस्तार रविवार को हो गया। सुक्खू कैबिनेट में दस मंत्री पद रिक्त थे जिनमें से सात मंत्री बनाए गए हैं, जबकि तीन मंत्री पद अब भी खाली है। राजभवन शिमला में शपथ ग्रहण समारोह हुआ। मुख्य सचिव प्रबोध सक्सेना ने कार्यवाही का संचालन किया और राज्यपाल राजेंद्र विश्वनाथ आर्लेकर ने सात विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाई। इनमें सबसे पहले कर्नल धनीराम शांडिल को शपथ दिलाई गई। इसके बाद विधायक चंद्र कुमार, हर्षवर्धन चौहान, जगत सिंह नेगी, रोहित ठाकुर, अनिरुद्ध सिंह और विक्रमादित्य सिंह ने मंत्री पद की शपथ ली। सुक्खू कैबिनेट के पहले विस्तार में शिमला को तीन मंत्री मिले हैं। विधायक विक्रमादित्य, रोहित ठाकुर और अनिरुद्ध मंत्री बने हैं। जबकि पहले कैबिनेट विस्तार में जिला कांगड़ा से सिर्फ चौधरी चंद्र कुमार को ही मंत्री बनाया गया है। किन्नौर से जगत सिंह नेगी, जिला सोलन से धनीराम शांडिल और जिला सिरमौर से हर्षवर्धन चौहान को मंत्री बनाया गया है। मंत्रियों के तीन पद अभी खाली रहेंगे। इससे पहले मुख्यमंत्री सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने छह मुख्य संसदीय सचिवों को पद एवं गोपनीयता की शपथ दिलाई। आशीष बुटेल, सुंदर सिंह ठाकुर, मोहन लाल ब्राक्टा, राम कुमार चौधरी, किशोरी लाल और संजय अवस्थी ने मुख्य संसदीय सचिव पद की शपथ ली। गौरतलब है कि विधानसभा चुनाव के नतीजे 9 दिसंबर को आये थे। 10 दिसंबर को सुखविंदर सुक्खू को मुख्यमंत्री और मुकेश अग्निहोत्री को उपमुख्यमंत्री चुना गया। इसके बाद 11 दिसंबर को सीएम और डिप्टी सीएम को शपथ दिलवाई गई थी। किन्तु, लगभग एक माह बीत जाने के बाद भी कैबिनेट का विस्तार नहीं हुआ था। इसको लेकर विपक्ष भी हमलावर था। आखिरकार रविवार को इंतजार खत्म हुआ और सात मंत्रियों ने शपथ ली। वहीं तीन मंत्री पद अभी भी रिक्त है। जल्द होगा मंत्रिमंडल विस्तार : सीएम सुक्खू सात मंत्रियों की शपथ के बाद मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने कहा कि मंत्रिमंडल का विस्तार जल्द होगा। तीन खाली पदों पर भी जल्द मंत्री बनाए जाएंगे। ईमानदार लोगों को मंत्री बनाया गया है। हाईकमान को सूची दी थी। अभी सात लोगों को ही मंत्री बनाने का फैसला हुआ है।
2012 की तरह ही इस बार फिर जिला चम्बा सत्ता के साथ नहीं गया है। जिला की पांच में से तीन सीटों पर भाजपा ने बाजी मारी है, लेकिन सरकार कांग्रेस की बनी है। इन दो मौकों को छोड़ दिया जाएँ तो लम्बे समय से ये सिलसिला रहा है कि प्रदेश में जिसकी सरकार बनती है वो ही पार्टी चंबा में भी बाजी मारती है। आंकड़ों पर निगाह डाले तो भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद 1982 से 2022 तक हिमाचल प्रदेश में 10 विधानसभा चुनाव हुए, जिनमें से आठ बार प्रदेश में उसी दल या गठबंधन की सरकार बनी है जिसने जिला चंबा में बढ़त हासिल की है। इस बार चम्बा जिला में चम्बा सदर और भटियात सीट पर कांग्रेस ने बाजी मारी है, तो भरमौर, डलहौज़ी और चुराह में भाजपा जीती है। वहीं 2017 के चुनाव की बात करे तो भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए चार सीटें जीती थी, जबकि केवल एक सीट डलहौजी पर कांग्रेस को जीत मिली थी। इस बार भाजपा ने चार सीटिंग विधायकों में से सिर्फ दो को मैदान में उतारा था और दो नए चेहरों को मौका दिया। 2017 में चुराह से हंसराज, चम्बा सदर से पवन नय्यर, भरमौर से जिया लाल और भटियात से विक्रम जरियाल, भाजपा टिकट पर जीत कर विधानसभा पहुंचे थे। पर इस बार इनमें से दो का रास्ता भाजपा ने टिकट आवंटन के साथ ही रोक दिया। चुराह से हंसराज और भटियात से विक्रम जरियाल को तो भाजपा ने टिकट दिया, लेकिन चम्बा सदर से सीटिंग विधायक पवन नैय्यर और भरमौर से सीटिंग विधायक जियालाल का टिकट काट दिया। भरमौर से पार्टी ने डॉ जनकराज को मैदान में उतारा, तो सदर सीट पर नाटकीय घटनाक्रम के बाद निवर्तमान विधायक की पत्नी नीलम नय्यर को टिकट दिया गया। वहीँ डलहौजी से भाजपा ने एक बार फिर आशा कुमारी के खिलाफ डीएस ठाकुर को मैदान में उतारा था। उधर कांग्रेस ने चार पुराने प्रत्याशी उतारे थे और एक नए चेहरे को मौका दिया गया। डलहौज़ी से आशा कुमारी, सदर सीट से नीरज नय्यर, भरमौर से ठाकुर सिंह भरमौरी, भटियात से कुलदीप सिंह पठानिया को कांग्रेस ने फिर मैदान में उतारा, जबकि चुराह सीट से पार्टी ने यशवंत खन्ना को मौका दिया। भरमौर: भरमौरी के अनुभव पर भारी पड़े डॉ जनकराज मंडी संसदीय उपचुनाव में भरमौर विधानसभा सीट पर कांग्रेस को लीड मिली थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में उल्टा हुआ। दरअसल, इस बार भाजपा ने यहाँ से सीटिंग विधायक जियालाल का टिकट काट कर नए चेहरे के तौर पर आईजीएमसी के एमएस रहे डॉ जनकराज को टिकट दिया, तो उधर कांग्रेस ने अपने अनुभवी चेहरे ठाकुर सिंह भरमौरी को ही मैदान में उतारा था। डॉ जनकराज ने यहाँ करीब पांच हजार वोट के अंतर से ठाकुर सिंह भरमौरी को पटकनी दी और अपने पहले ही चुनाव में विधानसभा की चौखट चढ़ने में कामयाब रहे। डॉ जनकराज ने आईजीएमसी शिमला में सेवाएं देते हुए हमेशा चम्बा वालों का विशेष ख्याल रखा है। कहते है अगर उनके क्षेत्र से कोई अनजान व्यक्ति भी मदद के लिए उनके पास शिमला पंहुचा तो उन्होंने तन-मन -धन से हमेशा सहायता की। चुनाव प्रचार के दौरान भी डॉ जनकराज फील्ड में बीमारों का उपचार करते दिखे। उनकी सादगी और आम लोगों से जुड़ाव ठाकुर सिंह भरमौरी के लम्बे अनुभव पर भारी पड़ गया। भरमौर में कांग्रेस टिकट को लेकर भी खींचतान थी। युवा कांग्रेस महासचिव सुरजीत भरमौरी भी यहाँ टिकट के दावेदार थे, पर पार्टी ने ठाकुर सिंह भरमौरी के अनुभव पर भरोसा जताया। अलबत्ता यहाँ कांग्रेस में खुलकर बगावत न हुई हो लेकिन माना जा रहा है कि सुरजीत के समर्थक इससे खफा थे। जो फ्लोटिंग वोट डॉ जनकराज के साथ गया है, संभवतः सुरजीत उसमें सेंध लगा सकते थे। डलहौजी : विधानसभा नहीं पहुंची सीएम पद की दावेदार 2017 में जब जिला चम्बा की चार विधानसभा सीटों पर भाजपा ने फतेह हासिल की थी ,तब डलहौज़ी विधानसभा सीट एक मात्र ऐसी सीट थी जहाँ कांग्रेस को जीत मिली थी। पर इस बार चुनाव शुरू होने के साथ ही डलहौजी में आशा कुमारी के हारने के कयास लग रहे थे। हालांकि आशा कुमारी सीएम पद के दावेदारों में शुमार थी और उनके समर्थक उन्हें भावी सीएम के तौर पर प्रमोट भी कर रहे थे। किन्तु जनता ने बदलाव का मन बना लिया था और आशा कुमारी को यहाँ करीब दस हजार वोट के बड़े अंतर से हार का सामना करना पड़ा। परिसीमन बदलने से पहले डलहौज़ी विधानसभा सीट बनीखेत के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर आशा कुमारी का दबदबा रहा है। 1985 से आशा कुमारी यहाँ पांच बार विधायक रही है। 1990 और 2007 के बाद इस बार फिर भाजपा इस सीट पर कमल खिलाने में कामयाब रही है। इस बार भाजपा से फिर डीएस ठाकुर मैदान में थे जिन्होंने पिछले चुनाव में भी आशा कुमारी को कड़ी टक्कर दी थी। आशा कुमारी प्रदेश कांग्रेस का बड़ा नाम है और विधानसभा चुनाव में स्टार प्रचारक भी थी। किन्तु पुरे चुनाव में आशा कुमारी अपने निर्वाचन क्षेत्र तक सिमित रही। संभवतः उन्हें अंदाजा था कि उनकी राह आसान नहीं होने वाली। हालांकि आशा कुमारी के प्रयास अंत में सफल सिद्ध नहीं हुए। चुराह : हंसराज की हैट्रिक चुराह विधानसभा सीट पर इस बार कांग्रेस ने एक नए चेहरे यशवंत सिंह खन्ना को मैदान में उतारा था। जबकि अपने बयानों से चर्चा में रहने वाले चुराह के सिटींग विधायक हंसराज भाजपा से एक बार फिर मैदान में थे। माहिर मान रहे थे कि इस बार हंसराज के लिए विधानसभा पहुंचना मुश्किल हो सकता है, किन्तु ऐसा हुआ नहीं। हंसराज ने करीब ढाई हजार के अंतर से चुनाव जीत इस बार हैट्रिक लगा ली है। परिसीमन बदलने से पहले चुराह विधानसभा सीट राजनगर के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को जनता का बराबर प्यार मिला है। 2012 में हंसराज पहली दफा मैदान में उतरे और जीत गए। 2017 में भी हंसराज ने ही रिपीट किया, और इस मर्तबा तीसरी बार जीते। चुराह के जातीय समीकरणों का लाभ तो हंसराज को मिलता ही है, साथ ही उनकी छवि भी काम करने वाले नेता की है। निर्वाचन क्षेत्र के बाहर के लोगों के लिए हंसराज उनके विवादित बयानों की वजह से चर्चा का केंद्र रहते है, लेकिन क्षेत्र में उनकी छवि दमदार नेता की है। चम्बा : हर्ष महाजन गए और कांग्रेस आ गई ! चम्बा सदर सीट पर इस बार सबकी निगाहें टिकी थी। कभी वीरभद्र सिंह के बेहद करीबी रहे हर्ष महाजन चुनाव से पहले भाजपा में शामिल हो गए थे। हर्ष महाजन 1993 से 2007 तक तीन बार चंबा विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे है। तीन दफा जीत की हैट्रिक लगाने के बाद महाजन ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के चुनावों का जिम्मा संभाला। तब से महाजन चुनावी राजनीति से दूर ही रहे, लेकिन इत्तेफाक ये रहा कि तब से चम्बा सदर सीट पर कांग्रेस को लगातार हार का सामना ही करना पड़ रहा था। अब महाजन इस बार भाजपा में गए, तो भाजपा हार गई। इस सीट पर टिकट आवंटन के बाद से भाजपा असहज दिखी। पहले पार्टी ने इंदिरा कपूर को टिकट दिया लेकिन सीटिंग विधायक पवन नैय्यर के विद्रोह के चलते अंतिम समय में उनकी पत्नी नीलम नय्यर को टिकट दे दिया। इसके बाद इंदिरा कपूर भी बगावत कर मैदान में उतर गई। उधर कांग्रेस ने पिछला चुनाव लड़े नीरज नैय्यर को फिर मैदान में उतारा। नीरज सात हजार से अधिक मतों के अंतर से चुनाव जीत गए। भाजपा में हुई बगावत का लाभ यहाँ नीरज नय्यर को मिला। साथ ही नीरज बीते पांच साल से लगातार मैदान में थे जिसका लाभ भी उन्हें मिला। वहीं भाजपा का विधायक की पत्नी को टिकट देना पार्टी के भीतर भी कुछ लोगों को नहीं जमा। कांग्रेस को परिवारवाद पर घेरने वाली भाजपा चम्बा में परिवारवाद की ध्वजवाहक बन गई। भटियात : कांग्रेस जीती, अब मंत्री पद की आस भटियात विधानसभा सीट पर इस बार दो पुराने प्रतिद्वंदी एक बार फिर आमने-सामने थे। भाजपा से यहाँ सीटिंग विधायक विक्रम जरियाल मैदान में थे, तो कांग्रेस से कुलदीप पठानिया। पिछले नतीजों पर गौर करे तो यहाँ विक्रम जरियाल लगातार दो बार कमल खिलाने में सफल रहे थे। कुलदीप 2012 में सिर्फ 112 वोट से हारे थे, जबकि 2017 में ये अंतर सात हजार के करीब था। पर इस बार कुलदीप पठानिया को जीत मिली और उन्होंने जरियाल को करीब पंद्रह सौ वोट से शिकस्त दी। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कुलदीप सिंह पठानिया मंत्री पद के भी दावेदार है। माना जा रहा है कि उन्हें मंत्री पद या विधानसभा स्पीकर -डिप्टी स्पीकर में से कोई पद मिल सकता है। 2017 में भाजपा को चार सीटें देने वाले जिला चम्बा को तब विधानसभा उपाध्यक्ष का पद मिला था। क्या अब जिला में कांग्रेस को दो सीटें मिलने के बावजूद चम्बा को मंत्री पद मिलेगा, इस पर सबकी निगाहें टिकी है।
एक बार फिर राज्य सचिवालय के कमरा नंबर 202 का इतिहास बरकरार रहा। बीते करीब ढाई दशक का इतिहास बताता है कि कमरा नंबर 202 में बैठने वाले कैबिनेट मंत्री जीतकर वापस विधानसभा नहीं पहुंचते और इस बार भी कुछ ऐसा ही देखने को मिला। सचिवालय के कमरा नंबर 202 में बैठने वाले पूर्व मंत्री डॉ. रामलाल मारकंडा इस बार चुनाव हार गए। अब प्रदेश में कांग्रेस की सत्ता वापसी हो चुकी है और ये कमरा नंबर 202 फिर चर्चा में आ गया है। बहरहाल सबसे बड़ा सवाल ये है कि इस बार इस कमरे में कौन बैठेगा ? जो मंत्री कमरा नंबर 202 में बैठकर सरकार का कामकाज निपटाएगा क्या अगली बार चुनाव जीत पायेगा ? इन सभी सवालों का जवाब देना तो मुश्किल है, लेकिन इतना ज़रूर है कि जो विधायक मंत्री पद को लेकर आश्वस्त हैं, उनके समर्थक उन्हें इस कमरे में न बैठने की सलाह दे रहे हैं। हिमाचल प्रदेश राज्य सचिवालय का कमरा नंबर 202 वो कमरा है जिसमें बैठने वाला मंत्री अगला चुनाव हार जाता है। इस कमरे में मंत्री बनने पर जगत प्रकाश नड्डा, आशा कुमारी, नरेंद्र बरागटा और सुधीर शर्मा भी बैठे है और ये सभी तत्कालीन मंत्री रहते हुए अगला चुनाव हार गए। गौरतलब है कि वर्ष 1998 से 2003 तक तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री एवं भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा इस कमरे में बैठे। नड्डा 2003 का चुनाव हार गए। फिर वीरभद्र सरकार में मंत्री रही आशा कुमारी 2007 का विधानसभा चुनाव हार गई। 2007 में प्रदेश में फिर धूमल सरकार बनी और नरेंद्र बरागटा कैबिनेट मंत्री बने और इसी कमरे में बैठे। बरागटा भी 2012 का चुनाव हार गए। इसके बाद वीरभद्र सरकार में शहरी विकास मंत्री रहे सुधीर शर्मा भी इस कमरे में बैठे और 2017 का विधानसभा चुनाव हार गए। वहीं इस बार जयराम सरकार में मंत्री रहे डॉ रामलाल मारकंडा चुनाव हारे है जो इसी कमरा नंबर 202 में बैठते थे। मारकंडा ने बताया था अंधविश्वास पूर्व मंत्री डॉ. राम लाल मारकंडा की भी इस कमरे के ग्रहण से बच नहीं पाए है। लाहुल स्पीति से इस बार चुनाव लड़े मारकंडा को कांग्रेस के रवि ठाकुर ने 1616 वोट से शिकस्त दी है। 2017 में जब डॉ. रामलाल मारकंडा को मंत्री पद मिला और उन्हें कमरा नम्बर 202 अलॉट हुआ तो उन्होंने इसे अंधविश्वास ही बताया था। पर अब इसे अंधविश्वास कह लीजिये या फिर कुछ और, इस कमरे की परम्परा अब भी बरकरार है।
शिमला स्थित सचिवालय में हिमाचल प्रदेश के नए मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने पदभार ग्रहण कर लिया है। सीएम के सचिवालय पहुंचने पर महिला पुलिस की टुकड़ी ने उन्हें गार्ड ऑफ ऑनर दिया। इस दौरान मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ने कहा कि एक गरीब परिवार का व्यक्ति भी मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालेगा, यह उन्होंने कभी सोचा नहीं था। उन्होंने मुख्यमंत्री पद तक पहुंचाने के लिए प्रदेश की जनता का आभार जताया। सीएम सुक्खू ने कहा कि हिमाचल में भ्रष्टाचार को रोकने के लिए सरकार जीरो टॉलरेंस की नीति पर काम करेगी। इसके लिए जल्द ट्रांसपेरेंसी एक्ट लाया जाएगा। उन्होंने कहा कि लोगों ने जिस उम्मीद से उन्हें मौका दिया, उनकी सेवा करने का उससे पूरी निष्ठा से निभाएंगे। सीएम ने कहा कि पार्टी के सभी वरिष्ठ नेताओं के अनुभवों से सीख कर सरकार को आगे चलाएंगे।
हिमाचल प्रदेश में जिला ऊना के राजनीतिक कद को ऊंचा उठाने का काम मुकेश अग्निहोत्री ने कर दिया है। पत्रकारिता के सफल सफर के बाद राजनीति का सफर शुरू करने वाले मुकेश अग्निहोत्री ने पहले ही चुनाव में जीत से आगाज किया और अब तक लगातार पांच चुनावों में जीत दर्ज कर रिकॉर्ड स्थापित कर चुके है। 2003 में मुकेश अग्निहोत्री ने पहली बार विधायक बनने के साथ ही मुख्य संसदीय सचिव का पद प्राप्त किया, उसके बाद 2012 से 2017 तक मंत्री रहे और फिर ऊना जिला के लिए नेता विपक्ष का पद लेकर के आए। बतौर नेता प्रतिपक्ष मुकेश लगातार 5 वर्ष तक आक्रामकता के साथ कांग्रेस पार्टी को संजीवनी देने का काम करते रहे और पार्टी की सत्ता वापसी में उनकी अहम भूमिका रही है। जिला ऊना को 45 वर्ष पहले 1977 में मुख्यमंत्री पद मिलते-मिलते रह गया था, जब महज एक वोट से शांता कुमार मुख्यमंत्री बन गए थे और रणजीत सिंह पिछड़ गए थे। इस बार भी ऊना को मुख्यमंत्री पद मिलने की उम्मीद थी, अलबत्ता मुख्यमंत्री पद तो नहीं मिला, लेकिन मुकेश अग्निहोत्री ने अपने कद, काठ व पकड़ के चलते हिमाचल प्रदेश के पहले उप मुख्यमंत्री के पद को ऊना में लाकर एक खुशी का माहौल जरूर दे दिया है। मुकेश अग्निहोत्री के उप मुख्यमंत्री बनने की खबर जैसे में पहुंची उनके समर्थकों में जहां खुशी की लहर दौड़ गई। पूरे ऊना जिला में जश्न का माहौल रहा। मुख्यमंत्री पद के लिए प्रबल दावेदारों में गिने जाने वाले मुकेश अग्निहोत्री कांग्रेस पार्टी के वफादार सिपाही के रूप में मैदान में डटे रहे और कांग्रेस हाईकमान व विधायकों के समर्थन ने उन्हें उपमुख्यमंत्री का ओहदा दिला दिया। निश्चित रूप से मुकेश अग्निहोत्री आक्रामक नेता हैं और प्रदेश में इस समय एक कर्मठ नेतृत्व की जरूरत भी कांग्रेस को है, जो पार्टी के साथ-साथ सरकार को भी मजबूती प्रदान कर सके। कांग्रेस हाईकमान ने नेता विपक्ष के रूप में लगातार संघर्ष करने वाले मुकेश अग्निहोत्री को आगे बढ़ाने के लिए उप मुख्यमंत्री का पद सौंप कर ऊना जिला के राजनीतिक पद को बढ़ा दिया है। लगातार बढ़ते रहे मुकेश हिमाचल प्रदेश के पहले उप मुख्यमंत्री मुकेश अग्निहोत्री ने पत्रकारिता से अपने सफर को शुरू किया और पत्रकारिता में भी अपना लोहा मनवाया। वे ऊना से शिमला गए, शिमला से दिल्ली गए और दिल्ली से सीधे राजनीति में विधानसभा के चुनाव के लिए आए और लगातार सफलता के पायदान चढ़ते रहे। उन्होंने हरोली विधानसभा क्षेत्र को भी लगातार आगे बढ़ाने का काम किया और हर चुनाव में उनकी जीत का अंतर बढ़ता रहा। अब मुकेश अग्निहोत्री प्रदेश के नेता के रूप में आगे बढ़ेंगे। हमीरपुर संसदीय हल्के से सीएम और डिप्टी सीएम हालांकि हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से ही मुख्यमंत्री व उपमुख्यमंत्री देना कांग्रेस के नेतृत्व की अपने आप में बड़ी रणनीति है, खासतौर पर ऐसे वक्त में जब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा हमीरपुर क्षेत्र से, कैबिनेट के मंत्री अनुराग ठाकुर हमीरपुर क्षेत्र से हैं। ऐसे में कांग्रेस ने भी रणनीति के तहत सरकार के दो महत्वपूर्ण पद इस क्षेत्र को दे दिए हैं। सरकार का कार्यकाल चुनौतीपूर्ण रहेगा ही। मुकेश अग्निहोत्री के रूप में एक ताकत आक्रामकता कांग्रेस के पास है, जो विधानसभा के अंदर व बाहर काम आएगी। यह रहा चुनावी सफर मुकेश अग्निहोत्री ने पहला चुनाव 2003 में संतोषगढ़ विधानसभा क्षेत्र से लड़ा और जीत प्राप्त की जिसमें उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के उस समय के प्रदेश अध्यक्ष को चुनाव में हराया। उसके बाद 2007 में उन्होंने विधानसभा का चुनाव लड़ा और जीत प्राप्त की, फिर 2012 में विधानसभा का चुनाव लड़ा हरोली विधानसभा क्षेत्र से, इसके बाद मुकेश अग्निहोत्री ने 2017 में विधानसभा का चुनाव लड़ा हरोली विधानसभा क्षेत्र से और अब 2022 में उन्होंने लगातार अपने मार्जिन को बढ़ाते हुए 9148 मतों से जीत प्राप्त की।
पांवटा साहिब में भाजपा के तीन बागी उम्मीदवारों के मैदान में होने से क्या निवर्तमान ऊर्जा मंत्री बेहतर कर पाएंगे, इस सवाल पर आठ दिसंबर को आये नतीजों ने विराम लगा दिया है। सुखराम चौधरी ने तमाम कयासों को गलत साबित करते हुए बड़े मार्जिन से चुनाव जीता। जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट से छठी बार भाजपा टिकट के साथ मैदान में थे। चौधरी ने 1998 में हार के साथ शुरुआत की थी लेकिन इसके बाद 2003 और 2007 में वे जीते। तब इस सीट का नाम पौंटा दून था, फिर 2008 में परिसीमन के बाद यह सीट पौंटा साहिब हो गयी। 2012 में उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2017 में वे फिर जीते। इसके बाद वर्ष 2020 में हुए जयराम कैबिनेट के विस्तार में उन्हें मंत्री पद भी मिल गया। सुखराम चौधरी इस बार जीत का चौका लगाने के फ़िराक में थे और वे सफल भी हुए। सुखराम चौधरी ने 8596 मतों से जीत हासिल की। उधर, कांग्रेस ने फिर इस सीट से किरनेश जंग को मैदान में उतारा। किरनेश पहली बार 2003 में लोकतान्त्रिक मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। फिर 2007 में कांग्रेस के टिकट पर हारे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया लेकिन वे निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पर 2017 में कांग्रेस टिकट पर फिर हार गए। ऐसे में इस बार कांग्रेस से उनके टिकट को लेकर संशय बना हुआ था लेकिन आखिरकार उन्हें पार्टी ने टिकट दे दिया। ये किरनेश जंग का पांचवा चुनाव था और उनके खाते में सिर्फ एक जीत है। स्वाभाविक है ऐसे में उनके लिए इस बार जीत हासिल करना बेहद जरूरी था लेकिन वे इस बार भी चुनाव हार गए। अब निसंदेह हार के बढ़ते क्रम से किरनेश जंग की राह बेहद मुश्किल होने वाली है। खेर, निवर्तमान ऊर्जा मंत्री के जीतने से पांवटा साहिब में भाजपा फिर पावर में आ गयी है
आख़िरकार कसौली विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने 15 वर्षों के बाद वापसी कर ही ली। बीते तीन चुनावों की तरह इस बार भी कसौली सीट पर कांटे की टक्कर देखने को मिली। इस बार निवर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के साथ भाजपा की पूरी टीम जीत का चौका लगाने के लिए मैदान में थे, तो दूसरी तरफ कांग्रेस और विनोद सुल्तानपुरी जीत का सूखा खत्म करने के लिए जदोजहद करते दिखे। डॉ राजीव सैजल खुद जीत को लेकर आश्वस्त थे लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी विनोद सुल्तानपुरी ने इस बार चुनाव जीत कर निवर्तमान स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के सियासी चौका लगाने के फ़िराक पर पानी फेर दिया और 6768 मतों से जीत हासिल कर ली। अतीत पर गौर करें तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। 2003 में प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सरकार में रघुराज मंत्री बने। मंत्री बनने के बाद कसौली के लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी और शायद इसी का खामियाजा रघुराज को 2007 में उठाना पड़ा, जब वे चुनाव हार गए। इसके बाद राजीव सैजल ने जीत की हैट्रिक लगाकर जयराम सरकार में मंत्री पद भी हासिल किया। वर्ष 2012 में कांग्रेस ने चेहरा बदला और युवा विनोद सुल्तानपुरी को यहां से अपना प्रत्याशी बनाया। दो युवा नेताओं के बीच इस चुनाव में कांटेदार टक्कर हुई और हार व जीत का मार्जिन भी काफी करीबी रहा। राजीव सैजल ने विनोद सुल्तानपुरी को मात्र 24 मतों से शिकस्त दी। वर्ष 2017 में कांग्रेस व भाजपा दोनों दलों ने एक बार फिर इन्हीं दोनों प्रत्याशियों को चुनावी रण में उतार दिया। इस बार भी दोनों के बीच कांटे की टक्कर देखने को मिली। हालांकि डा. सहजल ने वर्ष 2012 के मार्जिन व अपनी स्थिति को थोड़ा बेहतर करते हुए 442 मतों से जीत प्राप्त की। लगातार दो चुनावों में मामूली अंतर से हार का मुंह देख रहे कांग्रेस के विनोद सुल्तानपुरी के लिए वर्ष 2022 का चुनाव उनके राजनीतिक करियर के लिए काफी महत्वपूर्ण था। कांग्रेस के टिकट चाहवानों को दरकिनार करते हुए विनोद सुल्तानपुरी एक बार फिर पार्टी टिकट पाने में कामयाब रहे। भाजपा ने भी जीत की हैट्रिक लगा चुके डा. राजीव सैजल पर ही दांव खेला। तीसरी बार विनोद सुल्तानपुरी और राजीव सैजल चुनावी मैदान में आमने सामने थे। नतीजन भाजपा के 15 सालों के तिलिस्म को तोड़ते हुए विनोद सुल्तानपुरी ने कसौली में वापसी करवाई।
रामपुर निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस का अभेद गढ़ रहा है। देश में आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाएं, तो यहां हमेशा कांग्रेस का परचम लहराया है। वहीं भाजपा की बात करें तो 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद से 9 चुनाव हुए है, लेकिन पार्टी को कभी यहां जीत का सुख नहीं मिला। पर बीते कुछ चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो कांग्रेस और वीरभद्र परिवार के इस गढ़ में पार्टी की जीत का अंतर कम जरूर हुआ है। 1990 की शांता लहर में भी कांग्रेस के सिंघीराम यहाँ से 11856 वोट से जीते थे, लेकिन 2017 आते -आते ये अंतर 4037 वोटों का रह गया। 1993 में कांग्रेस यहाँ 14478 वोट से जीती तो 1998 में जीत का अंतर 14565 वोट था। जबकि 2003 के चुनाव में ये अंतर बढ़कर 17247 हो गया। तीनों मर्तबा यहाँ से सिंघी राम ही पार्टी प्रत्याशी थे। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 4037 वोट का रहा। इस बार भाजपा ने रामपुर विधानसभा क्षेत्र में टिकट बदल युवा चेहरे कौल सिंह नेगी को मैदान में उतारा था जबकि कांग्रेस ने भारी विरोध के बावजूद वर्तमान विधायक नंदलाल पर ही दांव खेला। नंदलाल को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बेंसी दिखी है, मगर उनके प्रचार का ज़िम्मा खुद राज परिवार ने संभाला था। उधर कौल नेगी ने भी प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। कौल नेगी इस सीट पर कमल तो नहीं खिला पाए लेकिन कांग्रेस के प्रत्याशी को जबरदस्त टक्कर दे कर जीत के अंतर को न के बराबर साबित किया। इस चुनाव में नन्द लाल मात्र 567 वोट से जीत दर्ज कर गए।
जिला कांगड़ा प्रदेश की सियासत का रास्ता प्रशस्त करता है और कांगड़ा के नूरपुर विधानसभा क्षेत्र में सियासी पारा हमेशा से हाई रहा है। नूरपुर भाजपा के तेजतर्रार नेता राकेश पठानिया का क्षेत्र है। बावजूद इसके इस बार चुनाव से पहले ही भाजपा में काफी उठापठक और अंतर्कलह देखने को मिली। दरअसल भाजपा के जिला महामंत्री रणवीर सिंह निक्का चुनाव से पहले ही काफी सक्रिय दिखे और लगातार टिकट की मांग करते आये। निक्का ने यह तक ऐलान कर दिया था कि यदि पार्टी टिकट नहीं देती है तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ेंगे। निक्का ने विभिन्न रैली और आयोजनों में उनके साथ जन समर्थन का बेहतर प्रदर्शन किया। शायद पार्टी निक्का के शक्ति प्रदर्शन से भांप चुकी थी कि निक्का अगर बागी लड़ते है तो भाजपा को इसका नुकसान होगा। नतीजन भाजपा ने रणवीर सिंह निक्का को टिकट दिया और राकेश पठानिया को फतेहपुर भेज दिया। निक्का ने बेहतरीन तरीके से चुनाव लड़ा और बड़े मार्जिन के अंतर् से कांग्रेस के प्रत्याशी अजय महाजन को हरा दिया। हालाँकि नूरपुर सीट पर तो निक्का का सिक्का चला लेकिन राकेश पठानिया फतेहपुर सीट पर चुनाव हार गए। उधर, नूरपुर निर्वाचन क्षेत्र में पिछले चार चुनाव के नतीजों पर गौर फरमाएं तो यहाँ की जनता ने हर पांच वर्ष में बदलाव किया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में सत महाजन ने कांग्रेस को इस सीट पर जीत दिलाई। 2007 के विधानसभा चुनाव में राकेश पठानिया आज़ाद उमीदवार के रूप में मैदान में उतरे और जीत का परचम लहराया। 2012 में कांग्रेस ने अजय महाजन पर दांव खेला और जनता ने कांग्रेस पार्टी पर विश्वास जताया। 2017 के विधानसभा चुनाव में राकेश पठानिया भाजपा में शामिल हुए और इस सीट पर भाजपा की जीत हुई। इस बार कांग्रेस ने फिर अजय महाजन को टिकट दिया था जबकि भाजपा ने निक्का को चुनावी मैदान में उतार था। इस चुनाव में नूरपुर में रणवीर सिंह निक्का ने जीत दर्ज की है और पहली बार विधानसभा पहुंचे, जबकि अजय महाजन विजय प्राप्त नहीं कर सके।
जिला किन्नौर में इस बार भी विधानसभा चुनाव में भरपूर रोमांच देखने को मिला। पहले दिन से ही कांग्रेस और भाजपा दोनों तरफ जमकर खींचतान दिखी। कांग्रेस में जहाँ सीटिंग विधायक और वरिष्ठ नेता जगत सिंह नेगी का टिकट अंतिम समय तक लटका रहा, तो भाजपा ने पूर्व विधायक तेजवंत नेगी का टिकट काटकर युवा सूरत नेगी को मैदान में उतारा। खफा होकर तेजवंत भी चुनावी समर में कूद गए और इस मुकाबले को त्रिकोणीय बना दिया। नतीजन, भाजपा के बगावत का फायदा कांग्रेस प्रत्याशी जगत सिंह नेगी को मिला और जगत नेगी हैट्रिक लगाने में कामयाब रहे। जगत सिंह नेगी को 20696 मत मिले और भाजपा प्रत्याशी सूरत नेगी को 13732 वोट प्राप्त हुए जबकि भाजपा के बागी तेजवंत नेगी ने 8574 मत लेकर भाजपा को डैमेज किया। किन्नौर के चुनावी इतिहास पर नज़र डाले तो अब तक सिर्फ ठाकुर सेन नेगी (तेते जी) ही जीत की हैट्रिक लगा सके है। ठाकुर सेन नेगी 1967 से 1982 तक लगातार चार चुनाव जीते। दिलचस्प बात ये है कि वे तीन बार निर्दलीय और एक बार लोकराज पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते। फिर वे भाजपा में शामिल हो गए और एक बार 1990 में भाजपा टिकट से भी जीतने में कामयाब हुए। ठाकुर सेन नेगी के अलावा जगत सिंह नेगी ही इकलौते ऐसे नेता है जो हैट्रिक लगाने में सफल हुए है।
भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष और शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद सुरेश कश्यप के संसदीय क्षेत्र में भाजपा को करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा है। संसदीय क्षेत्र की 17 सीटों में से भाजपा को सिर्फ 3 पर जीत मिली। इन 17 में से 13 पर कांग्रेस को विजय मिली तो एक पर निर्दलीय को। प्रदेश के चारों संसदीय क्षेत्रों में से शिमला संसदीय क्षेत्र में पार्टी सबसे कमजोर रही। शिमला संसदीय क्षेत्र में जिला सोलन की पांच सीटें आती है और ये सभी पांच सीटें भाजपा हारी है। इनमें से कसौली और दून सीट पर 2017 में भाजपा जीती थी, लेकिन ये दो सीटें भी भाजपा हार गई। इनमें कसौली सीट से मंत्री राजीव सैजल को शिकस्त मिली है। वहीं सोलन सीट पर भाजपा लगातार तीसरी बार हारी है। अर्की और नालागढ़ में तो भाजपा तीसरे स्थान पर रही है। नालागढ़ में भाजपा के बागी केएल ठाकुर ने जीत दर्ज की है। इस तरह संसदीय क्षेत्र के तहत जिला सिरमौर की सभी पांच सीटें आती है। यहाँ भी भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिली है, जबकि तीन पर कांग्रेस का कब्ज़ा रहा। ये सुरेश कश्यप का गृह जिला है। 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नाहन, पच्छाद और पावंटा साहिब सीट जीती थी और कांग्रेस को शिलाई और रेणुकाजी में विजय मिली थी। इस बार भाजपा पच्छाद और पावंटा साहिब सीट पर कब्ज़ा रखने में तो कामयाब यही लेकिन नाहन सीट हार गई। नाहन से पार्टी के दिग्गज नेता और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल को शिकस्त मिली है। वहीं रेणुकाजी और शिलाई सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा बरकरार रहा। संसदीय क्षेत्र शिमला के तहत जिला शिमला की सात सीटें आती है। जिला की रामपुर के अतिरिक्त सभी सीटें शिमला संसदीय क्षेत्र में ही आती है। इनमें से 6 पर कांग्रेस को जीत मिली है और सिर्फ एक सीट भाजपा के खाते में गई है। वहीं 2017 की बात करें तो भाजपा शिमला शहरी, जुब्बल कोटखाई और चौपाल में जीती थी, पर इस बार सिर्फ चौपाल सीट ही भाजपा के खाते में आई। वहीं शिमला ग्रामीण, कसुम्पटी, और रोहड़ू सीट पर कांग्रेस का कब्ज़ा बरकरार रहा। ठियोग सीट सीपीआईएम के कब्जे में थी, जिस पर इस बार कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर जीते है। दो मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष हारे शिमला संसदीय क्षेत्र से जयराम कैबिनेट में तीन मंत्री थे, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव सैजल और सुखराम चौधरी। इनमें से सिर्फ सुखराम चौधरी को ही जीत मिली है। भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व विधानसभा अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल भी नाहन से चुनाव हार गए। वहीं हाटी फैक्टर का लाभ भी भाजपा को ज्यादा मिलता नहीं दिखा। हाटी बाहुल शिलाई और रेणुका जी सीट पर कांग्रेस को ही जीत मिली। दो सीटों पर कांग्रेस की बगावत ने बचाया अगर पच्छाद और चौपाल सीट पर कांग्रेस के बागी उम्मीदवार मैदान में नहीं होते तो इन दोनों सीटों पर भी भाजपा की जीत मुश्किल हो सकती थी। एक किस्म से कांग्रेस की बगावत भाजपा के लिए संजीवनी सिद्ध हुई। ये भी बता दें कि नालागढ़ में कांग्रेस के सीटिंग विधायक को पार्टी में लेकर चुनाव लड़वाने का फैसला भी पार्टी को उल्टा पड़ा है।
विधानसभा चुनाव के नतीजे तस्दीक करते है कि जयराम सरकार को उनके मंत्रियों का प्रदर्शन ले बैठा। खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इस बार सबसे बड़ी जीत दर्ज की और उनके गृह जिला मंडी में भी पार्टी का शानदार प्रदर्शन जारी रहा। किन्तु जयराम ठाकुर के अलावा उनकी कैबिनेट में मंत्री रहे बिक्रम ठाकुर और सुखराम चौधरी ही चुनाव जीत पाए है। कुल नौ मंत्रियों की सीट पर भाजपा हारी है और आठ मंत्री चुनाव हारे है। चुनाव हारने वाले मंत्रियों में सुरेश भारद्वाज, डॉ रामलाल मारकंडा, वीरेंद्र कंवर, गोविंद सिंह ठाकुर, राकेश पठानिया, डॉ. राजीव सैजल, सरवीण चौधरी और राजेंद्र गर्ग शामिल हैं। इनके अलावा जयराम कैबिनेट में जल शक्ति मंत्री रहे महेंद्र सिंह ठाकुर की सीट से उनके पुत्र रजत ठाकुर भी चुनाव हार गए। जाहिर है अगर ये मंत्री भी सरकार के मुखिया जयराम ठाकुर जैसा प्रदर्शन कर पाते तो संभवतः हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदल गया होता। गौरतलब है कि जयराम ठाकुर के अलावा मंत्रिमंडल में शामिल 11 चेहरों में से इस बार पार्टी ने 10 को फिर मैदान में उतारा था। पर इनमें से दो मंत्रियों की सीट पार्टी ने बदल दी थी। ये मंत्री थे सुरेश भारद्वाज और राकेश पठानिया। ये फैसला उल्टा पड़ा और ये दोनों ही बड़े अंतर से चुनाव हारे। इसके अलावा डॉ रामलाल मारकंडा, वीरेंद्र कंवर, गोविंद सिंह ठाकुर, डॉ. राजीव सैजल, सरवीण चौधरी और राजेंद्र गर्ग भी चुनाव हारे। सिर्फ बिक्रम ठाकुर और सुखराम चौधरी ही चुनाव जीते सके। वहीं मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर अपनी सीट धर्मपुर से अपने पुत्र रजत ठाकुर के लिए टिकट चाहते थे और पार्टी ने रजत को ही टिकट दिया। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट पर महेंद्र सिंह लगातार सात चुनाव जीत चुके थे लेकिन उनके बेटे को टिकट देना पार्टी को उल्टा पड़ गया। क्या एंटी इंकम्बेंसी नहीं भांप पाई भाजपा ? मंत्रियों की हार के बाद भाजपा के टिकट आवंटन को लेकर भी सवाल उठ रहे है। अगर मंत्रियों की हार के अंतर पर निगाह डाले तो वीरेंद्र कँवर 7579 वोट, राजेंद्र गर्ग 5611 वोट, सुरेश भारद्वाज 8655 वोट, राकेश पठानिया 7354 वोट, डॉ राजीव सैजल 6768 और सरवीण चौधरी 12243 के बड़े अंतर से चुनाव हारे। ये अंतर इन मंत्रियों के खिलाफ एंटी इंकम्बेंसी को दर्शाता है। मंत्री गोविंद ठाकुर 2957 और डॉ रामलाल मारकंडा 1616 के अंतर से हारे। सवाल ये है कि क्या भाजपा इस एंटी इंकम्बेंसी को भांप नहीं पाई। भाजपा के गढ़ को किया 32 साल बाद ध्वस्त कुटलैहड़ ऐसा विधानसभा क्षेत्र है जो पिछले 32 वर्षों से भाजपा का अभेद्य दुर्ग रहा है, लेकिन इस चुनाव में पहले दिन से ही यहाँ भाजपा को कांग्रेस से कड़ी चुनौती देखने को मिली। इस बार फिर इस सीट से भाजपा ने वीरेंद्र कंवर को प्रत्याशी बनाया था, जो लगातार 4 बार के विधायक थे और जयराम सरकार में ग्रामीण विकास एवं पंचायती राज मंत्री रहे। उनके मुकाबले में कांग्रेस ने देवेंद्र कुमार भुट्टो को चुनावी रण में उतारा था। कांग्रेस कार्यकर्ताओं को देवेंद्र कुमार भुट्टो से चुनाव में करिश्मे की आस थी। कांग्रेस के प्रत्याशी ने प्रदेश के मुद्दों और स्थानीय समस्याओं को जमकर भुनाया। नतीजन कांग्रेस प्रत्याशी देवेंद्र कुमार भुट्टो ने मंत्री वीरेंद्र कंवर को 7579 मतों के बड़े अंतर से हराया। देवेंद्र कुमार ने शुरू से ही बढ़त बना ली,जिसे भाजपा प्रत्याशी अंत तक तोड़ नही पाए। देवेंद्र कुमार को कुल 66808 मतों में से 36636 मत पड़े,जबकि वीरेंद्र कंवर को 29057 मत मिले। शिक्षा मंत्री के हैट्रिक लगाने का सपना टूटा जयराम कैबिनेट में शिक्षा मंत्री रहे गोविन्द सिंह ठाकुर के टिकट को लेकर किन्तु-परन्तु की स्थिति पहले दिन से ही देखने को नहीं मिली थी। क्या इस सीट पर गोविन्द सिंह ठाकुर बेहतर कर पाएंगे, ये सवाल खूब उठे। सवाल उठना लाजमी था, पिछले साल हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में भी गोविंद ठाकुर यहाँ पार्टी की साख नहीं बचा पाए थे। उस उपचुनाव में मनाली से भाजपा प्रत्याशी को लीड नहीं मिल पाई थी। जाहिर है ऐसे में उठ रहे सवालों पर विराम लगाने के लिए गोविन्द सिंह ठाकुर को मनाली सीट पर जीत हासिल करने का दबाव था, लेकिन उनके हैट्रिक लगाने के इस स्वप्न को कांग्रेस के भुवनेश्वर गौड़ ने तोड़ दिया और मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर चुनाव हार गए। भुवनेश्वर गौड़ परिसीमन के बाद अस्तित्व में आई मनाली सीट से जीतने वाले कांग्रेस के पहले विधायक बने हैं। सोलन में भाजपा शून्य, स्वास्थ्य मंत्री भी हारे सोलन के पांच सीटों में से सोलन सदर, अर्की, दून और कसौली सीट पर कांग्रेस का हाथ भारी पड़ा जबकि नालागढ़ सीट पर निर्दलीय ने चुनाव जीता है। कसौली सीट पर स्वास्थ्य मंत्री डॉ. राजीव सैजल को चुनाव में हार का सामना करना पड़ा। वे यहां से लगातार 3 विधानसभा चुनाव जीत चुके थे। इस बार वे सियासी चौका लगाने को लेकर आश्वस्त थे किन्तु उन्हें इस सीट से तीसरी बार में कांग्रेस के उम्मीदवार विनोद सुल्तानपुरी ने स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल चुनाव को 6768 मतों से हराया। वन मंत्री नहीं कर पाए फ़तेहपुर को फ़तेह फतेहपुर विधानसभा सीट पर भाजपा को टिकट बदलना भारी पड़ गया और फतेहपुर की जनता ने भाजपा के कद्दावर मंत्री राकेश पठानिया चुनाव हार गए। राकेश पठानिया इससे पहले नूरपुर सीट से चुनाव लड़ते आये है और इस बार भाजपा ने उनका टिकट बदल कर उन्हें फतेहपुर भेजा था। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने पूरी ताकत झोंकी लेकिन वे विफल हुए और कांग्रेस के भवानी सिंह पठानिया ने जीत अपने नाम कर ली। उपचुनाव के बाद कांग्रेस के प्राइम फेस बने रहे भवानी सिंह पठानिया यहां से लगातार दूसरी बार विधायक चुने गए हैं। कांग्रेस के भवानी सिंह को 32452 वोट मिले, जबकि भाजपा के राकेश पठानिया को 25884 वोट हासिल हुए। मंत्री सरवीण को नहीं मिला शाहपुर का साथ शाहपुर सीट को भाजपा का गढ़ माना जाता है। इस सीट पर तीन दशक से भाजपा की सरवीण चौधरी का वर्चस्व रहा। भाजपा की सरवीण चौधरी 2007 से लगातार चुनाव जीतती आ रही हैं। किन्तु इस विधानसभा चुनाव में जयराम कैबिनेट में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय संभाल रही सरवीण चौधरी अपनी सीट नहीं बचा पाई। इस बार कांग्रेस के केवल सिंह पठानिया ने कमल खिलने नहीं दिया। केवल सिंह को जहां 35862 वोट मिले हैं, वहीं, भाजपा की सरवीण चौधरी को 23931 वोट ही हासिल हुए। कुसुम्पटी सीट पर हार गए भारद्वाज कसुम्पटी विधानसभा सीट कांग्रेस का गढ़ रहा है। यहां से कांग्रेस पिछले 15 साल से जीत दर्ज करती आ रही है। इस बार भी कांग्रेस ने सिटींग एमएलए अनिरुद्ध सिंह को चुनावी मैदान में उतारा था जबकि भाजपा ने मंत्री सुरेश भरद्वाज को शिमला शहरी से टिकट न देकर कुसुम्पटी भेजा था। भाजपा को उम्मीद थी कि टिकट के फेरबदल से कुसुम्पटी सीट भाजपा के झोली में आएगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। इस बार भी बड़े मार्जन के साथ अनिरुद्ध सिंह ने यहां से जीत दर्ज की। 2017 के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह 9800 वोटों से जीते थे और इस बार उन्होंने 8431 वोटों से जीत हासिल की। घुमारवीं में मंत्री राजेंदर गर्ग चुनाव हारे जिला बिलासपुर की घुमारवीं विधानसभा सीट पर खाद्य आपूर्ति मंत्री राजेंदर गर्ग को कांग्रेस के राजेश धर्माणी ने हराया। गर्ग करीब साढ़े पांच हजार के अंतर से चुनाव हारे। गर्ग की टिकट को लेकर भी सवाल उठते रहे और माना जा रहा था कि एंटी इंकम्बेंसी भांपते हुए पार्टी किसी नए चेहरे को मैदान में उतारेगी, किन्तु ऐसा हुआ नहीं और पार्टी ने राजेंद्र गर्ग को ही टिकट दिया। लाहौल स्पीति से तकनीकी शिक्षा मंत्री भी हारे लाहौल स्पीति में तकनीकी शिक्षा मंत्री डॉ रामलाल ठाकुर भाजपा प्रत्याशी के तौर पर तीसरी दफा चुनावी मैदान में थे और जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे थे। उनके हैट्रिक लगाने की उम्मीदों पर कांग्रेस प्रत्याशी रवि ठाकुर ने पानी फेर दिया और 1616 मतों से कांग्रेस उम्मीदवार रवि ठाकुर ने मंत्री को पराजित किया है। इस क्षेत्र में मंडी संसदीय उपचुनाव में भी भाजपा पिछड़ी थी।
बेशक जयराम ठाकुर रिवाज न बदल सके हो लेकिन मंडी तो जयराम ठाकुर की ही रही है। जिला मंडी की 9 सीटों पर भाजपा का कब्जा दिखाता है कि मंडी वालों ने जयराम ठाकुर के नाम पर वोट दिया है। सिर्फ धर्मपुर को छोड़कर हर सीट भाजपा की झोली में गई है। जो दम खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने जिला में दिखाया अगर ऐसा ही मंत्री भी कर पाते तो सम्भवतः रिवाज भी बदल जाता। बहरहाल जयराम ठाकुर ने साबित कर दिखाया कि मंडी उन्हीं की है। 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला मंडी की 9 सीटें भाजपा की झोली में गई थी, जबकि एक सीट जोगिन्दरनगर पर निर्दलीय विधायक प्रकाश राणा जीते थे। राणा पांच साल भाजपा के एसोसिएट विधायक रहे और चुनाव से कुछ वक्त पहले भाजपा में आ गए। इस तरह सभी दस सीटें भाजपा की ही रही थी। वहीं इस बार भी भाजपा ने नौ सीटें जीतकर साबित कर दिया कि मंडी में पार्टी का वर्चस्व कायम है। 2017 के बाद से अगर जिला मंडी में भाजपा के प्रदर्शन पर निगाह डाले तो हर मौके पर पार्टी हावी रही है। पंचायती राज और स्थानीय निकाय चुनाव के बाद पार्टी ने मंडी नगर निगम चुनाव में एकतरफा जीत हासिल की। इसके बाद पिछले वर्ष के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव के नतीजे पर अगर निगाह डाले तो संसदीय क्षेत्र के तहत आने वाली जिला की नौ में से आठ सीटों पर भाजपा को लीड मिली थी। तब अन्य क्षेत्रों से मिली जीत ही प्रतिभा सिंह की जीत का कारण बनी। यानी 2017 से कांग्रेस लगातार जिला मंडी में हारती आ रही है। इस बार के चुनाव की अगर बात करें तो मंडी में वरिष्ठ कांग्रेस नेता ठाकुर कौल सिंह ने खुद को एक किस्म से मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ा। शायद वे मान कर चल रहे थे कि वे तो चुनाव जीत ही रहे है, उनके नाम पर बाकी सीटों पर भी कांग्रेस को फायदा होगा। पर नतीजों ने वहम तोड़ दिया है। खुद कौल सिंह चुनाव हार गए। उनकी पुत्री चंपा ठाकुर भी चुनाव हारी। कांग्रेस से हारने वाले बड़े नेताओं में जिला अध्यक्ष और पूर्व मंत्री प्रकाश चौधरी और पूर्व सीपीएस सोहन लाल भी शामिल है। मंडी में ओपीएस का मुद्दा भी हावी था, पर मंडी वालों में मतदान करते वक्त जयराम ठाकुर के चेहरे को सबसे ज्यादा तवज्जो दी। ये रहे परिणाम : सराज : रिकॉर्ड अंतर से जीते जयराम सराज में खुद सीटिंग सीएम जयराम ठाकुर मैदान में थे और उनकी जीत को लेकर किसी के मन में कोई संशय नहीं था। जयराम कितने अंतर से जीतेंगे, इसी पर सबकी निगाहें टिकी थी। जयराम ठाकुर ने रिकॉर्ड 38183 वोट के अंतर से जीत दर्ज की। मंडी सदर : यहाँ पंडित सुखराम परिवार अपराजित मंडी सदर सीट पर पंडित सुखराम के परिवार का कब्जा बरकरार रहा। एक बार फिर इस सीट पर भाजपा प्रत्याशी अनिल शर्मा ने जीत दर्ज की है। उनका मुकाबला ठाकुर कौल सिंह की बेटी चंपा ठाकुर से था लेकिन अनिल शर्मा दस हज़ार से भी ज्यादा मार्जन से जीते। इस सीट पर पंडित सुखराम का परिवार अपराजित है। सुंदरनगर : बगावत भी नहीं रोक पाई जम्वाल को इस सीट पर भाजपा के प्रदेश महामंत्री राकेश जम्वाल ने लगातार दूसरी जीत दर्ज की। भाजपा के बागी प्रत्याशी अभिषेक ठाकुर के मैदान में होने के बावजूद जम्वाल आठ हज़ार से ज्यादा अंतर से जीते। यहाँ कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सोहनलाल को हार का सामना करना पड़ा। द्रंग : मुख्यमंत्री बनना चाहते थे, विधायक भी नहीं बन पाएं द्रंग से ठाकुर कौल सिंह की हार ने बता दिया कि जिला मंडी में कांग्रेस किस कदर कमजोर है। कौल सिंह वरिष्ठता और अनुभव का राग अलापते हुए सीएम पद पर दावेदारी जताते रह गए और जनता ने उन्हें लगातार दूसरी बार विधानसभा भी नहीं पहुंचने दिया। उन्हें भाजपा के पूर्ण चंद ठाकुर ने 618 वोट से पराजित किया। बल्ह : चौधरी की लगातार दूसरी हार बल्ह से पूर्व मंत्री और कांग्रेस के जिला अध्यक्ष प्रकाश चौधरी लगातार दूसरी बार हारे। इस बार भी उन्हें भाजपा के इन्द्र सिंह ने हराया। चौधरी 1307 वोट से हार गए। जोगिन्दर नगर : फिर जीत गए राणा पिछली बार निर्दलीय चुनाव जीते प्रकाश राणा इस बार यहाँ से भाजपा टिकट पर चुनाव लड़े और 4339 वोट से जीते। यहाँ माना जा रहा था कि ठाकुर गुलाब सिंह को टिकट न देने के चलते दिख रहे रोष का खमियाजा भाजपा को भुगतना पड़ सकता है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। कांग्रेस ने यहाँ से सुरेंद्र पाल को टिकट दिया था। सरकाघाट : कमल खिलने से नहीं रोक पाएं पवन जानकार मान रहे थे कि इस बार सरकाघाट सीट पर कांग्रेस वापसी कर सकती है। पार्टी प्रत्याशी पवन कुमार ने दमखम से चुनाव भी लड़ा था लेकिन वे 1807 वोट से हार गए। यहाँ भाजपा ने नए चेहरे दिलीप ठाकुर को मैदान में उतारा था। करसोग : दस हजार से अधिक अंतर से जीते दीप राज इस सीट से भाजपा ने सीटिंग विधायक हीरालाल का टिकट काटकर दीप राज को मैदान में उतारा था। उधर, कांग्रेस ने दिग्गज नेता मनसा राम के पुत्र महेश राज पर दांव खेला। यहाँ दीप राज ने दस हज़ार से ज्यादा अंतर से शानदार जीत दर्ज की। नाचन : संसदीय उपचुनाव का नतीजा नहीं दोहरा पाई कांग्रेस मंडी संसदीय उपचुनाव में नाचन जिला मंडी का इकलौता ऐसा निर्वाचन क्षेत्र था जहाँ कांग्रेस को लीड मिली थी। बावजूद इसके भाजपा ने सीटिंग विधायक विनोद कुमार पर भरोसा जताया और वे भरोसे पर खरा भी उतरे। विनोद ने 8956 वोट से कांग्रेस के नरेश कुमार को हराया। धर्मपुर : सिर्फ यहाँ ही जीती कांग्रेस इस सीट पर 1990 से लगातार महेंद्र सिंह ही जीते, चाहे पार्टी कोई भी हो। यहाँ आखिरी बार 1993 में कांग्रेस जीती थी और तब महेंद्र सिंह ही पार्टी प्रत्याशी थे। इस बार यहाँ भाजपा ने महेंद्र सिंह की जगह उनके बेटे रजत ठाकुर को मैदान में उतारा ,लेकिन रजत कांग्रेस के चंद्रशेखर से 3026 वोट के अंतर से हार गए। बदलाव और बगावत के बावजूद जीती भाजपा भाजपा ने जिला मंडी में चार सीटिंग विधायकों को इस बार टिकट नहीं दिया। बदलाव के बावजूद तीन जीतने में कामयाब रहे। सिर्फ महेंद्र सिंह की सीट धर्मपुर में भाजपा हारी। वहीं मंडी सदर और सुंदरनगर सीट पर भाजपा बगावत के बावजूद जीत दर्ज करने में कामयाब रही।
केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर निसंदेह हिमाचल का वो चेहरा है जिसे देश-विदेश में भी लोग न सिर्फ पहचानते है, बल्कि पसंद भी करते है। वर्तमान में मोदी सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय तथा युवा एवं खेल मंत्रालय का भार संभाल रहे 48 वर्षीय अनुराग ठाकुर हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से चौथी बार सांसद है। 2019 में जब मोदी सरकार दूसरी बार सत्ता में लौटी तो अनुराग ठाकुर को वित्त राज्य मंत्री बनाया गया था। फिर जुलाई 2021 में उनका कद बढ़ा और वे केंद्रीय कैबिनेट मंत्री बन गए। हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर में जन्में और पले बढ़े अनुराग ठाकुर के पिता प्रो. प्रेम कुमार धूमल दो बार हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे है। पर इसका मतलब ये नहीं है कि अनुराग आसानी से सियासत में स्थापित हो गए। उन्होंने एक आम कार्यकर्ता की तरह वर्षों संगठन में काम किया और हर मौके पर खुद को साबित भी किया। 2010 में वे भाजयुमो के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और लगातार तीन टर्म तक इस पद पर रहे। संभवतः वे भाजयुमो में अब तक के सबसे लोकप्रिय अध्यक्ष रहे है। क्रिकेट की सियासत में भी अनुराग ठाकुर की खासी दिलचस्पी रही है। साल 2000 में अनुराग हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन के अध्यक्ष बने और चार बार इस पद पर रहे। प्रदेश में धर्मशाला स्टेडियम उन्हीं की देन है। इसी बीच मई 2016 में अनुराग ठाकुर बीसीसीआई के प्रेजिडेंट भी बने लेकिन लोढ़ा कमिटी की सिफारिशों पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आने के बाद उन्हें ये पद छोड़ना पड़ा। बहरहाल भाजपा समर्थकों का एक बड़ा तबका ये चाहता है कि अनुराग प्रदेश की कमान संभाले। उधर बार-बार अनुराग ठाकुर दोहराते रहे है कि वे केंद्र में खुश है और फिलवक्त प्रदेश की सियासत में एंट्री का उनका कोई इरादा नहीं है। पर हिमाचल की सियासत से अनुराग को अलग नहीं रखा जा सकता। वैसे भी जानकार मान रहे है कि आठ दिसंबर को रिवाज नहीं बदला तो भाजपा में बहुत कुछ बदलना है। ऐसे में मुमकिन है कि 2027 आते-आते समीरपुर से शिमला का सियासी मार्ग फिर प्रशस्त हो जाएँ। पर अनुराग ठाकुर केंद्र की राजनीति का भी बड़ा नाम है। वर्तमान में कैबिनेट मंत्री है। अनुराग पार्टी के उन चुनिंदा चेहरों में से एक है जो अक्सर कैमरे के आगे आकर सरकार की बात रखते है। अनुराग ठाकुर हिमाचल प्रदेश के उन गिने चुने नेताओं में से है जिनकी पहचान देश के हर कोने में है। ऐसे में अगर अनुराग केंद्र में भी जमे रहते है तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनमें सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने की क्षमता है।
भारतीय जनता पार्टी दुनिया का सबसे बड़ा राजनैतिक दल हैं और इस पार्टी की कमान भी एक हिमाचली नेता के हाथ में हैं। केंद्रीय मंत्री रहे जगत प्रकाश नड्डा वर्तमान में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। उनका जन्म बिहार में हुआ और प्रारंभिक शिक्षा भी, पर जड़े हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर से जुड़ी है। उनका राजनैतिक सफर भी हिमाचल प्रदेश से ही परवान चढ़ा। भाजपा के कद्दावर नेताओं में गिने जाने वाले नड्डा का ने अपने सियासी सफर की शुरूआत साल 1975 में जेपी आंदोलन से की थी। देश के सबसे बड़े आंदोलनों में गिने जाने वाले इस आंदोलन में नड्डा भी शामिल हुए थे। इस आंदोलन में हिस्सा लेने के बाद जेपी नड्डा बिहार की भाजपा की स्टूडेंट विंग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए थे। जेपी नड्डा ने 1977 में अपने कॉलेज में छात्रसंघ का चुनाव लड़ा था और जीत दर्ज कर वो पटना यूनिवर्सिटी के सचिव बन गए। फिर पटना यूनिवर्सिटी से स्नातक होने के बाद नड्डा ने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में लॉ की पढ़ाई शुरू कर दी। इस दौरान उन्होंने हिमाचल प्रदेश यूनिवर्सिटी में भी छात्रसंघ का चुनाव लड़ा और उसमें जीत दर्ज की। भाजपा द्वारा नड्डा को वर्ष 1991 में अखिल भारतीय जनता युवा मोर्चा का राष्ट्रीय महासचिव नियुक्त किया गया था। इसके बाद आया वर्ष 1993, जब जेपी नड्डा ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा की बिलासपुर सीट से चुनाव लड़ा और जीत हासिल की। इसके बाद उन्हें राज्य विधानसभा में विपक्ष का नेता चुना गया था। नड्डा ने वर्ष 1998 और साल 2007 में इस सीट से फिर जीत दर्ज की। इस दौरान उन्हें प्रदेश कैबिनेट में भी जगह दी गई। उन्हें वर्ष 1998 में हिमाचल प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया और वर्ष 2007 में वो वन पर्यावरण और संसदीय मामलों के मंत्री रहे। अपने राजनीतिक करियर में नड्डा जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, छत्तीसगढ़, तेलंगाना, केरल, राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश समेत कई राज्यों के प्रभारी भी रहे है। साल 2012 में पार्टी ने उन्हें हिमाचल प्रदेश की तरफ से राज्यसभा में भेजा था। इसके बाद भाजपा में नड्डा का कद लगातार बढ़ता चला गया। वे मोदी सरकार में स्वास्थ्य मंत्री भी रहे। फिर 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद उन्हें पार्टी का कार्यकारी राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया गया। इसके बाद 20 जनवरी 2020 को उन्हें भारतीय जनता पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया। आगामी 20 जनवरी को उनका कार्यकाल पूरा हो रहा है लेकिन माना जा रहा कि 2024 के लोकसभा चुनाव तक वे ही पार्टी के अध्यक्ष बने रह सकते है।
प्रदेश की सियासत में नारी शक्ति का असर कभी फीका नहीं रहा। हालाँकि हिमाचल के सियासी क्षितिज पर बेहद कम महिलाएं अब तक अपना नाम चमकाने में कामयाब रही और शायद इसका बड़ा कारण ये है कि प्रदेश के प्रमुख राजनैतिक दलों ने कभी महिलाओं पर ज्यादा भरोसा जताया ही नहीं। पर कई चेहरे ऐसे है जिनके बगैर हिमाचल की सियासी कहानी अधूरी हैं। कई महिलाएं न सिर्फ विधानसभा में जनता की आवाज बनी, बल्कि मंत्री भी रही। देश की प्रथम स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर भी हिमाचल प्रदेश से ही सांसद थी। वहीं प्रदेश की सियासत में एक मौका ऐसा भी आया जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गई। दरअसल वर्ष 2003 में हिमाचल की सत्ता में कांग्रेस की वापसी हुई थी। 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था, फिर जब 2003 में मुख्यमंत्री चुनने की बारी आई तो ठियोग विधायक और कांग्रेस की तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष विद्या स्टोक्स से वीरभद्र सिंह को चुनौती मिली। प्रदेश में माहौल बना की शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाए। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमें से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। इस बार हुए चुनाव में अगर प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनती है तो दो महिलाएं सीएम पद की दौड़ में है। पहली है प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह और दूसरा नाम है वरिष्ठ कांग्रेस नेता आशा कुमारी का। बहरहाल महिला सीएम का इन्तजार इस बार भी खत्म होगा या नहीं, ये तो आगामी कुछ दिनों में ही पता चलेगा। आठ बार विधायक बनी विद्या स्ट्रोक्स वरिष्ठ कांग्रेस नेता विद्या स्टोक्स कांग्रेस से आठ बार विधायक चुनी गई। उनका रिकॉर्ड कोई दूसरी महिला नेता नहीं तोड़ पाई है। स्ट्रोक्स पहली बार 1974 में विधायक बनी थी। वह विधानसभा की अध्यक्ष भी रही है और नेता विपक्ष भी बनी। स्ट्रोक्स 1974, 1982, 1985, 1990,1998, 2003, 2007 व 2012 में विधायक रही। 1998 में जीती थी सबसे अधिक 6 महिलाएं हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर नज़र डाले तो 1998 के विधानसभा चुनाव में सबसे अधिक 6 महिलाओं ने जीत दर्ज की। इस चुनाव में कांग्रेस की विप्लव ठाकुर, मेजर कृष्णा मोहिनी, विद्या स्ट्रोक्स, आशा कुमारी और भाजपा की उर्मिल ठाकुर और सरवीण चौधरी ने जीत दर्ज की। हालांकि बाद में भाजपा नेता महेंद्र नाथ सोफत की याचिका पर सोलन का चुनाव सुप्रीम कोर्ट द्वारा रद्द घोषित कर दिया गया जहाँ से पहले मेजर कृष्णा मोहिनी को विजेता घोषित किया गया था। वहीं 1998 में परागपुर में हुए उप चुनाव में निर्मला देवी ने जीत दर्ज की। सरला शर्मा से सरवीण चौधरी तक प्रदेश में 1972 में पहली बार सरला शर्मा मंत्री बनी। फिर 1977 में श्यामा शर्मा मंत्री रही। उसके बाद आशा कुमारी, विप्लव ठाकुर, चंद्रेश कुमारी, विद्या स्टोक्स मंत्री रही। वहीं जयराम सरकार में सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्री सरवीण चौधरी इससे पहले धूमल सरकार में भी मंत्री रह चुकी है। सिर्फ तीन महिलाएं पहुंची लोकसभा लोकसभा की बात करें तो वर्ष 1952 में राजकुमारी अमृत कौर प्रदेश की पहली महिला सांसद बनी। इसके बाद चंद्रेश कुमारी वर्ष 1984 में कांगड़ा से सांसद चुनी गई। वहीं प्रतिभा सिंह मंडी सीट से तीसरी बार लोकसभा सांसद है। वे वर्ष 2004 और 2013 के उप चुनाव में भी विजेता रही थी। 1956 में लीला देवी बनी थी राज्यसभा सांसद अपर हाउस राज्यसभा की बात करें तो आज तक हिमाचल प्रदेश की कुल 7 महिलाएं राज्यसभा में पहुँच सकी है। सबसे पहले वर्ष 1956 में कांग्रेस नेता लीला देवी राज्यसभा के लिए चुनी गई। इसके बाद 1968 में सत्यावती डांग, 1980 में उषा मल्होत्रा, 1996 में चंद्रेश कुमारी, 2006 व 2014 में विप्लव ठाकुर को कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश से राज्यसभा भेजा। वहीं भाजपा से 2010 में बिमला कश्यप व 2020 में वर्तमान राज्यसभा सांसद इंदु गोस्वामी राज्यसभा पहुंची।
हिमाचल प्रदेश में अगली सरकार चुनने के लिए 12 नवंबर को मतदान हो चुका है। आठ दिसंबर को नतीजा भी सामने होगा और तब तक दोनों ही मुख्य राजनीतिक दल अपनी जीत का दावा कर रहे है। भाजपा रिवाज बदलने की बात दोहरा रही है, तो कांग्रेस तख़्त और ताज बदलने की। रिवाज बदला तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही होंगे, पर सवाल ये है कि यदि तख्त पलटा तो मुख्यमंत्री का ताज किसके सिर होगा ? मतदान के बाद कांग्रेस के तमाम बड़े नेता दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता वापसी का दावा कर रहे है। इस दावे के पीछे कई कारण है, मसलन माना जा रहा है कि पुरानी पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे कांग्रेस के पक्ष में गए है। इसके अलावा पार्टी का टिकट आवंटन भी बेहतर दिखा है और सीमित बगावत भी कांग्रेस के दावे को और बल दे रही है। ऐसे में कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो कांग्रेस के सत्ता वापसी के दावे में दम दिख रहा है। बहरहाल, सवाल ये ही है कि अगर प्रदेश में तख्त पलटा तो ताज किसके सिर सजेगा ? 1985 से लेकर 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनावों में वीरभद्र सिंह ही कांग्रेस का मुख्य चेहरा रहे। हालांकि उनके रहते भी कांग्रेस में सीएम पद को लेकर कई मर्तबा संशय रहा है, लेकिन हर बार वीरभद्र इस दौड़ में इक्कीस रहे। 1993 में पंडित सुखराम, 2003 में विद्या स्टोक्स और 2012 में ठाकुर कौल सिंह के अरमानों पर वीरभद्र सिंह ने पानी फेरा। अब वीरभद्र सिंह नहीं रहे है और इस बार यदि कांग्रेस सत्ता में लौटी तो किसके अरमान पूरे होते है और किसके अरमानों पर पानी फिरता है, ये देखना रोचक होगा। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में कई चेहरे ऐसे है जिनका नाम भावी सीएम को तौर पर चर्चा में है। कई नेताओं के समर्थक मुख्यमंत्री के तौर पर उन्हें प्रोजेक्ट कर रहे है, तो कई नेता वरिष्ठता और अनुभव के आधार पर अपना दावा आगे रख रहे है। जबकि कई मुख्य दावेदार अब तक बिलकुल शांत है और संभवतः आंकड़ों को अपने पक्ष में करने में जुटे है। दरअसल, बाजी वहीं मारेगा जिसके पास आलाकमान के आशीर्वाद के साथ समर्थक विधायकों का संख्याबल भी होगा। ऐसे में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो मुख्यमंत्री पद के लिए रोचक मुकाबला देखने को मिल सकता है। पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर और आशा कुमारी वो प्रमुख नाम है जिनके समर्थक खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। इनके अलावा एक और नाम समर्थकों द्वारा जमकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, वो है युवा नेता विक्रमादित्य सिंह। हालांकि ये वर्तमान स्थिति में व्यवहारिक नहीं लगता, पर इससे विक्रमादित्य की लोकप्रियता का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। इनके अलावा आलाकमान के अपनी नजदीकी के बूते कर्नल धनीराम शांडिल भी रेस में बताये जा रहे है। समर्थक हर्षवर्धन चौहान और चौधरी चंद्र कुमार के नाम को भी आगे कर रहे है। यहां जिक्र सबका जरूरी है क्यों कि ये वो ही कांग्रेस है जिसने वरिष्ठ नेताओं को किनारे कर, तमाम कयासों को गलत साबित करते हुए पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बना दिया था। प्रतिभा सिंह : विस चुनाव नहीं लड़ा, पर दावा कम नहीं हिमाचल प्रदेश को कभी महिला मुख्यमंत्री नहीं मिली है। अब तक 6 पुरुषों को ही मुख्यमंत्री बनने का गौरव मिला है। ऐसे में इस बार सुगबुगाहट है कि क्या प्रदेश को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलेगी ? ऐसे में निसंदेह प्रतिभा सिंह एक बेहद मजबूत दावेदार है। पार्टी आलाकमान को भी वीरभद्र सिंह के नाम के असर का बखूबी अंदाजा है और उपचुनाव के नतीजों में इसका असर भी दिख चुका है। इस बार भी चुनाव सामग्री में जिस तरह स्व वीरभद्र सिंह के नाम का इस्तेमाल किया गया है वो 'वीरभद्र ब्रांड' में आलाकमान के भरोसे को दर्शाता है। वहीं मंडी संसदीय उपचुनाव जीतकर प्रतिभा सिंह भी अपनी काबिलियत सिद्ध कर चुकी है। इसके बाद उन्हें प्रदेश संगठन की कमान भी दी गई। हालांकि प्रतिभा सिंह ने खुद विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है, बावजूद इसके बतौर मुख्यमंत्री प्रतिभा सिंह का दावा कम नहीं है। वैसे अब तक न तो प्रतिभा सिंह ने खुलकर सीएम पद के लिए अपनी दावेदारी आगे रखी है और न ही खुलकर इंकार किया है। वे 'वेट एंड वॉच' की नीति पर आगे बढ़ रही है। हालांकि होलीलॉज कैंप के कुछ नेता जरूर उनकी दावेदारी जताते रहे है। बहरहाल प्रतिभा सिंह मुख्यमंत्री बने या न बने लेकिन होलीलॉज के प्रभाव को नकारा नहीं जा सकता। सुखविंद्र सिंह सुक्खू : दावे को कमतर आंकना भूल सुखविंद्र सिंह सुक्खू वो नेता है जो अपनी शर्तों पर सियासत करते आएं है। जो नेता वीरभद्र सिंह से टकराते हुए खुद की सियासी जमीन तैयार कर ले, उसके दावे को कमतर आंकना किसी के लिए भी बड़ी भूल सिद्ध हो सकता है। सुक्खू कांग्रेस प्रचार समिति के अध्यक्ष भी है और अगर पार्टी सत्ता में लौटी तो श्रेय उनको भी जायेगा। आलाकमान से उनकी नजदीकी भी जगजागीर है। सीएम बनने के सवाल पर सुखविंद्र सिंह सुक्खू एक मंजे हुए नेता की तरह जवाब देते आ रहे है। मतदान से पहले वे एक ही बात दोहरा रहे थे, कि पहले विधायक बनना होगा। अब मतदान के बाद सुक्खू साफ़ कह रह है कि चुने हुए विधायक सीएम तय करेंगे। दरअसल सुक्खू के जिन समर्थकों को इस बार टिकट मिला है, माना जा रहा उनमें से अधिकांश अपनी-अपनी सीटों पर अच्छा कर रहे है। इसके अलावा ये ही मुमकिन है कि होलीलॉज कैंप के बाहर के कई अन्य नेता भी खुद का दावा कमजोर पड़ने पर अपने समर्थकों सहित सुक्खू का साथ दे सकते है। यानी सुक्खू संख्याबल के मामले में भी कम नहीं माने जा सकते। ठाकुर कौल सिंह: वरिष्ठता और अनुभव की बिसात पर दावा करीब पांच दशक लम्बे अपने राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस ने निष्ठावान सिपाही है। जानकार मानते है कि अगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सहमति नहीं बनती है तो कौल सिंह ठाकुर वो नाम है जिसपर वरिष्ठता का हवाला देकर सहमति बनाई जा सकती है। होलीलॉज से भी कौल सिंह ठाकुर के सम्बन्ध अब बेहतर दिख रहे है, ऐसे में उन्हें इसका लाभ मिल सकता है। हालांकि कुछ लोग मानते है कि ठाकुर कौल सिंह की राह में जी 23 गुट को उनका समर्थन आड़े आ सकता है। पर इससे वे पहले ही मुकर चुके है। यहां एक फैक्टर और काम कर सकता है, वो होगा जिला मंडी में कांग्रेस का प्रदर्शन। दरअसल 2017 के चुनाव में मंडी में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुला था। ऐसे में अगर इस बार कांग्रेस अच्छा करती है तो ठाकुर कौल सिंह इसका क्रेडिट लेने में पीछे नहीं हटेंगे। मुकेश अग्निहोत्री : ये भी पकड़ सकते है ओकओवर का रास्ता नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री कांग्रेस के तेज तर्रार नेताओं में से हैं, जो 5 साल भाजपा सरकार को विधानसभा के भीतर से लेकर बाहर तक घेरते रहे हैं। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई तो बड़ा सवाल था कि आखिर सदन में कांग्रेस की अगुवाई कौन करेगा ? निगाहें उम्रदराज वीरभद्र सिंह पर थी और उन्होंने अपना भरोसा जताया मुकेश अग्निहोत्री पर। सदन में मुकेश अग्निहोत्री ने दमदार तरीके से न सिर्फ कांग्रेस का प्रतिनिधित्व किया बल्कि हर मुमकिन मौके पर जयराम सरकार को भी जमकर घेरा। अब यदि कांग्रेस सत्ता में वापसी करती है तो सीएम पद के दावेदारों में मुकेश अग्निहोत्री भी शामिल है। अग्निहोत्री होलीलॉज कैंप के माने जाते है और वीरभद्र सिंह के बाद होलीलॉज निष्ठावान विधायकों के लिए खासी अहमियत रखते है। ऐसे में माहिर मानते है कि होलीलॉज और मुकेश के बीच सीएम को लेकर एक राय दिख सकती है, चेहरा चाहे कोई भी हो। आशा कुमारी : ये रानी भी है सीएम पद की दौड़ में डलहौजी सीट से फिर एक बार किस्मत आजमा रही आशा कुमारी भी सीएम पद की दौड़ में है। आशा कुमारी दो बार प्रदेश में मंत्री रही है। केंद्र में भी उनका अच्छा रसूख है। वे पंजाब की प्रभारी भी रह चुकी है और पार्टी आलाकमान के नजदीक मानी जाती है। अब आशा कुमारी न सिर्फ सातवीं बार विधायक बनने के पथ पर है, बल्कि प्रदेश में कांग्रेस सरकार बनने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार भी है। अलबत्ता आशा कुमारी ने अपनी दावेदारी को लेकर कभी कुछ नहीं कहा है लेकिन समर्थक उन्हें भी बतौर भावी सीएम प्रोजेक्ट कर रहे है। आशा भी मुकेश अग्निहोत्री की तरह होलीलॉज की करीबी रही है और वीभद्र सिंह के निधन के बाद बदले समीकरणों में दमदार दिख रही है। ये दिग्गज भी है दौड़ में पांच बार के विधायक राम लाल ठाकुर भी सीएम पद के दावेदारों में शुमार है। उन्हें 10 जनपथ का करीबी भी माना जाता है। अपने जमाने के जाने माने कबड्डी खिलाड़ी रहे राम लाल ठाकुर सियासी मैदान के भी मंजे हुए खिलाड़ी है। इस बार रामलाल ठाकुर चुनाव जीते तो छठी बार विधायक बनेंगे। वहीं दो बार सांसद रहने वाले कर्नल धनीराम शांडिल इस बार सोलन सीट से हैट्रिक लगाने के इरादे से मैदान में है। कर्नल भी गाँधी परिवार के करीबी है। हिमाचल में एससी समुदाय से कोई नेता कभी मुख्यमंत्री नहीं बना, ऐसे में कर्नल एक विकल्प हो सकते है। एक अन्य दावेदार हर्षवर्धन चौहान भी माने जा रहे है। हर्षवर्धन के खाते में शिलाई से पांच जीत दर्ज है और इस बार वे भी छठी जीत के इरादे से चुनावी मैदान में उतरे है। उनके पिता गुमान सिंह चौहान भी शिलाई से चार बार विधायक रहे है। इस बार हाटी फैक्टर के बावजूद अगर हर्षवर्धन चौहान जीत जाते है, तो जाहिर है उनका दावा भी मजबूत होगा।
कॉलेज में छात्रों को पढ़ाते-पढ़ाते न जाने कब सियासत ने प्रोफेसर साहब को अपनी तरफ खींच लिया। एक दिन पंजाब में अपनी नौकरी छोड़ी और अपने प्रदेश हिमाचल वापस लौट आएं। शुरुआत की भाजपा के एक आम कार्यकर्त्ता के तौर पर, और देखते ही देखते प्रदेश में सत्ता के शीर्ष तक पहुंच गए। हिमाचल प्रदेश की सियासत में प्रो प्रेमकुमार धूमल किसी परिचय के मोहताज नहीं है। वे पहले ऐसे गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री है जिन्होंने पूरे पांच साल सरकार चलाई, वो भी दो बार। वे इकलौते ऐसे नेता है जिन्होंने पांच साल हिमाचल प्रदेश में गठबंधन सरकार चलाकर दिखाई। इसलिए उन्हें सियासत का प्रोफेसर भी कहा जाता है। करीब दो दशक तक हिमाचल में भाजपा का सर्वमान्य चेहरा रहे प्रो धूमल बेशक इस बार चुनावी मैदान में नहीं उतरे है, पर अब भी उनका सियासी रसूख बरकरार है। बढ़ती उम्र का कुछ असर सेहत पर भी दिखता है, पर ताव और तेवर, दोनों कायम है। आज भी हिमाचल भाजपा में प्रो प्रेमकुमार धूमल की लोकप्रियता, उनकी कार्यशैली और उनकी जमीनी पकड़ का कोई विकल्प नहीं दिखता। दरअसल विकल्प हो भी नहीं सकता, धूमल तो आखिर कोई और हो भी नहीं सकता। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ प्रदेश की सत्ता में लौटी भाजपा के सितारे 1993 के विधानसभा चुनाव के बाद गर्दिश में थे। तब दो बार मुख्यमंत्री रहे शांता कुमार सहित पार्टी के बड़े - बड़े दिग्गज चुनाव हार गए थे और भाजपा महज आठ सीटों पर सिमट कर रह गई थी। चुनाव के बाद पार्टी के एक और दिग्गज नेता जगदेव चंद का निधन हो गया और विधायकों की संख्या रह गई सात। तब हालात ऐसे बने कि पहली बार विधानसभा में पहुंचे जगत प्रकाश नड्डा को विपक्ष का नेता बनाया गया। इस पर वीरभद्र सिंह फिर मुख्यमंत्री बन चुके थे और प्रदेश में कांग्रेस का प्रभाव फिर तेजी से बढ़ रह था। इस हार के बाद पहली बार प्रदेश में शांता कुमार के खिलाफ भाजपा के भीतर से आवाज उठने लगी थी। 1998 का चुनाव आते -आते भाजपा में बहुत कुछ बदल चुका था और प्रदेश के समीकरण भी। नरेंद्र मोदी प्रदेश के प्रभारी थे, जो इस बात को समझ चुके थे कि 'नो वर्क नो पे' वाले सीएम रहे शांता कुमार के नाम पर फिर चुनाव लड़ना और जीतना बेहद मुश्किल है। पर मोदी के दिमाग में सत्ता वापसी का सारा प्लान मानो फिट था और इस प्लान का केंद्र थे प्रो प्रेम कुमार धूमल। दरअसल प्रो प्रेम कुमार धूमल तब मोदी के करीबी हो गए और प्रदेश की राजनीति में भी उनका ठीक ठाक कद था। मोदी को भी उनकी क्षमता का अहसास हो चुका था। सो, मोदी ने पार्टी आलाकमान को मनाया और चुनाव से पहले ही धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। पार्टी का दांव ठीक पड़ा और भाजपा सत्ता में लौटी। पर सरकार बनाना इतना आसान नहीं था। 1998 में प्रदेश की तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण पहले चरण में चुनाव नहीं हुए थे। 65 में से कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। जबकि भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। पंडित सुखराम की नई पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस के पास भी चार विधायक थे। वहीं नतीजों के बाद बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। ऐसे में किसी दल के पास बहुमत का आंकड़ा नहीं था। उधर, पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा तो छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। पर भाजपा इसके लिए तैयार नहीं थी। फिर काफी सियासी उथल पुथल हुई और आखिरकार प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी। ये प्रदेश की पहली ऐसी गठबंधन सरकार थी जो पूरे पांच साल चली। इसके बाद हुए तीन सीटों के चुनाव और एक उपचुनाव में से तीन पर भाजपा जीती और एक पर हिमाचल विकास कांग्रेस। यानी निर्दलीय पर से तो निर्भरता खत्म हो गई थी पर पंडित सुखराम जैसे मंजे हुए नेता के साथ पांच साल गठबंधन सरकार चलाना आसान नहीं था। इसके बदले सुखराम के पांचो विधायकों को मंत्री बनाना पड़ा। भाजपा के कई नेता, खासतौर से शांता गुट के कई नेता अब भी इसे गलत करार देते है। इसके बाद से करीब दो दशक तक हिमाचल प्रदेश में प्रो प्रेम कुमार धूमल ही सर्वमान्य नेता रहे। 2003 के विधानसभा चुनाव में प्रो धूमल एक बार फिर भाजपा के सीएम फेस थे लेकिन भाजपा सत्ता में वापसी नहीं कर पाई। इसके बाद उनके नेतृत्व में 2007 का चुनाव लड़ा गया जिसमें भाजपा ने फिर सत्ता कब्जाई और धूमल दूसरी बार सीएम बने। दूसरी बार वे एक जनवरी 2008 से 25 दिसंबर 2012 तक हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। 2017 में भाजपा को जिताया पर खुद चुनाव हार गए धूमल हिमाचल प्रदेश में 2017 विधानसभा चुनाव का प्रचार चरम पर था। कांग्रेस मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ रही थी, पर भाजपा ने चुनाव से दस दिन पहले तक सीएम फेस घोषित नहीं किया था। भाजपा की सारी राजनीति धूमल बनाम नड्डा के नाम के कयासों के इर्द गिर्द घूम रही थी। इसका असर भी दिख रह था। भाजपा का कंफ्यूज कार्यकर्ता वीरभद्र के आगे कुछ हल्का दिख रहा था। 9 नवंबर को वोटिंग होनी थी और 30 अक्टूबर तक भाजपा ने सीएम फेस की घोषणा नहीं की थी। कांग्रेस भी भाजपा को बिना दूल्हे की बारात कहकर खूब चुटकी ले रही थी। माना जाता है कि तब प्रो प्रेम कुमार धूमल भाजपा आलाकमान की एकमात्र पसंद नहीं थे, लेकिन वीरभद्र की कांग्रेस को टक्कर देने वाला कोई और दिख भी नहीं रहा था। सो, सारे गुणा भाग करके आखिरकार 30 अक्टूबर को पार्टी के तत्कालीन राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने सिरमौर के पच्छाद में हुई रैली के दौरान प्रो प्रेम कुमार धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। धूमल के नाम की घोषणा होते ही मानो भाजपा में जान सी आ गई, देखते-देखते समीकरण बदले और भाजपा ने बेहद मजबूती से चुनाव लड़ा। 18 दिसंबर को जब नतीजे आये तो भाजपा ने 44 सीटों पर जीत दर्ज कर सत्ता में शानदार वापसी की। पर इन 44 सीटों में सुजानपुर की सीट नहीं थी, इन 44 सीटों में प्रो प्रेम कुमार धूमल की सीट नहीं थी। भाजपा तो जीत गई थी, पर भाजपा को जिताने वाले धूमल खुद चुनाव हार बैठे। अगले मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर। इसके बाद हिमाचल भाजपा की सियासत ठीक उसी तरह बदलना शुरू हुई जैसे 1998 के बाद होता दिखा था। इस बार नहीं है चुनावी मैदान में भले ही धूमल साल 2017 का चुनाव हार गए थे मगर उनके समर्थकों को आस थी की इस बार धूमल दोबारा चुनाव लड़ेंगे और प्रदेश में अगर भाजपा की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री भी होंगे। लेकिन चुनाव से पहले दिल्ली में हुई भाजपा प्रदेश चुनाव समिति की बैठक के बाद सियासी गलियारों में चर्चा आम हुई कि प्रो धूमल चुनाव नहीं लड़ रहे है। अगले दिन इसका औपचारिक ऐलान भी हो गया। ये प्रदेश के हज़ारों धूमल निष्ठावान कार्यकर्ताओं के लिए झटका था। बाद में कहा गया कि धूमल साहब खुद चुनाव नहीं लड़ना चाहते थे और पहले ही ऐसा मन बना चुके थे। साल 2022 का चुनाव वो चुनाव है जिसमें कई दशकों बाद न धूमल मैदान में है और न वीरभद्र सिंह। माहिर मानते है कि प्रो धूमल का चुनाव न लड़ना इस चुनाव का टर्निंग पॉइंट साबित हो सकता है और नतीजों के बाद इस पर मुहर लग सकती है। दरअसल धूमल ऐसे नेता है जिनका प्रभाव प्रदेश की सभी 68 सीटों पर है और अगर वे चुनाव लड़ते तो समर्थकों में आस रहती। उनके मैदान में न होने से उनके समर्थक निश्चित तौर पर निराश जरूर हुए है। बने सड़कों वाले मुख्यमंत्री जब प्रो धूमल पहली बार सीएम बने तो केंद्र में एनडीए की सरकार थी और प्रधानमंत्री थे अटल बिहारी वाजपेयी। उस दौर में देशभर में प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के माध्यम से सड़कों का जाल बिछाया गया था और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। पहाड़ी राज्य होने के चलते हिमाचल में ये ये कार्य आसान नहीं था लेकिन धूमल सरकार ने इसमें कोई कसर नहीं छोड़ी। इसलिए धूमल सड़क वाले मुख्यमंत्री के तौर पर भी जाने जाते है। दोनों बेटों ने चमकाया नाम प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल के दो बेटे है। केंद्र सरकार में खेल, युवा मामलों, सूचना और प्रसारण मंत्री और हमीरपुर संसदीय क्षेत्र से सांसद अनुराग ठाकुर धूमल के बड़े बेटे है और बीसीसीआई के कोषाध्यक्ष अरुण धूमल के छोटे बेटे है। अनुराग ठाकुर के रूप में धूमल के निष्ठावान भविष्य का मुख्यमंत्री भी देखते है। हालांकि अनुराग का कद केंद्र की सियासत में भी तेजी से बढ़ा रहा है और क्या वे प्रदेश की सियासत में लौटेंगे, ये देखना रोचक होगा। कॉलेज में प्रवक्ता थे, नौकरी छोड़ चुनी राजनीति प्रेम कुमार धूमल का जन्म 10 अप्रैल 1944 को हमीरपुर जिले के समीरपुर गांव में हुआ। इनकी प्रारंभिक शिक्षा मिडिल स्कूल भगवाड़ा में हुई और मैट्रिक हमीरपुर के डीएवी हाई स्कूल टौणी देवी से। 1970 में इन्होंने दोआबा कॉलेज जालंधर में एमए इंग्लिश में सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। इसके बाद पंजाब यूनिवर्सिटी के जालंधर स्थित कॉलेज में प्रवक्ता के रूप में कार्य किया और बाद दोआबा कॉलेज जालंधर चले गए। नौकरी करते हुए उन्होंने एलएलबी भी की। इसी के साथ धूमल कई सामजिक संगठनों के साथ भी जुड़े रहे। राजनीति में प्रो धूमल का कद रातों रात नहीं बढ़ा था और यूँ ही कोई धूमल बन भी नहीं सकता। सियासत में आने के लिए धूमल ने प्रोफेसर की नौकरी छोड़ी और शुरुआत की भाजपा के युवा संगठन से। 1980-82 में धूमल भाजयुमो के प्रदेश सचिव रहे। पर चर्चा में आये 1989 में जब उन्होंने हमीरपुर संसदीय सीट पर हुए उपचुनाव में जीत दर्ज की और लोकसभा पहुँच गए। इससे पहले 1984 का चुनाव वे हार चुके थे। इसके बाद 1993-98 में वो हिमाचल प्रदेश बीजेपी के अध्यक्ष रहे। इस बीच 1996 के लोकसभा चुनाव में भी उन्हें हार का सामना करना पड़ा था।
कोई उन्हें 'एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर' मानता है, तो कोई कमजोर मुख्यमंत्री, लेकिन जयराम ठाकुर को लेकर एक बात सब मानते है, वो है उनकी मेहनत और सरलता जिसकी बदौलत छात्र राजनीति के नारे लगाते -लगाते जयराम हिमाचल प्रदेश की सत्ता के शीर्ष तक पहुंचे है। 2017 में जब भाजपा के सीएम फेस प्रो प्रेम कुमार धूमल चुनाव हार गए तो सबसे बड़ा सवाल ये ही था कि अब मुख्यमंत्री कौन होगा ? सवाल था कि क्या पार्टी धूमल को ही मौका देगी, या कोई और मुख्यमंत्री होगा। भाजपा में कई चाहवान थे और जयराम ठाकुर के अलावा जगत प्रकाश नड्डा, महेंद्र सिंह ठाकुर, सुरेश भारद्वाज, डॉ राजीव बिंदल के नाम को लेकर भी चर्चा थी। उधर धूमल गुट के कई निष्ठावान विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर चुके थे। जीत कर आएं 44 विधायकों में से आधे से अधिक धूमल के साथ बताये जा रहे थे। फिर तमाम चिंतन -मंथन के बाद आलाकमान ने जयराम ठाकुर के नाम की घोषणा की। ऐसा नहीं है कि जयराम सिर्फ इसलिए सीएम बने क्यों कि धूमल चुनाव हार गए थे। सीएम पद के तो कई दावेदार थे, जयराम ही क्यों ? जयराम ठाकुर के राजनीतिक सफर पर निगाह डालें तो इसका जवाब भी मिल जाता है। एक समय में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के पिता बढ़ई का काम किया करते थे। आर्थिक स्थिति माली थी लेकिन उन्होंने जयराम ठाकुर की शिक्षा में कोई कसर नहीं छोड़ी। जयराम ठाकुर ने मंडी से बीए पास किया और मास्टर्स की पढ़ाई के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी का रुख किया। इसी दौरान वे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद में शामिल हो गए। इस तरह छात्र राजनीति से उनका राजनीतिक सफर शुरु हो चुका था। जयराम ठाकुर वर्ष 1986 में एबीवीपी के संयुक्त प्रदेश सचिव बने। वर्ष 1989 से 93 तक जम्मू-कश्मीर में संगठन में कार्य किया। वर्ष 1993 से 1995 तक वह भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के प्रदेश सचिव व प्रदेश अध्यक्ष भी रहे। अपने कामकाज से वे संघ के भी करीबी हो गए। वर्ष 1998 में वह पहली बार चच्योट से विधायक चुने गए। वर्ष 2000 से 2003 तक वह जिला मंडी भाजपा अध्यक्ष रहे और 2003 से २००५ तक भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे। इसके बाद 2003 तथा 2007 में चच्योट विधानसभा सीट से लगातार जीत हासिल करते रहे। वर्ष 2007 में उन्होंने भाजपा के अध्यक्ष के तौर पर चुनावों में जीत दर्ज न करने का मिथक को तोड़ते हुए लगातार तीसरी जीत हासिल की और धूमल सरकार में पंचायती राज मंत्री बने। परिसीमन के बाद उन्होंने 2012 में सिराज से चुनाव लड़ा और जीते और ये सिलसिला 2017 में भी जारी रहा। हिमाचल प्रदेश में 2017 के विधानसभा चुनाव में जयराम ठाकुर को उनके अच्छे प्रदर्शन का इनाम मिला। उन्होंने खुद की विधानसभा सीट पर तो शानदार जीत दर्ज की ही, जिला मंडी के अंतर्गत आने वाली 10 विधानसभा सीटों में से बीजेपी को 9 सीटें मिली। इस बढ़िया प्रदर्शन का श्रेय भी जयराम ठाकुर को दिया गया। इसी वजह से पार्टी के शीर्ष नेतृत्व ने उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया। 2017 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर की चुनौतियां कम नहीं रही। उन्होंने धूमल का स्थान लिया था तो स्वाभाविक है चुनौतियां कम होनी भी नहीं थी। पर आहिस्ता -आहिस्ता जयराम ठाकुर रंग में आते गए और खुद को साबित भी किया। माहिर उनकी ताजपोशी के बाद से ही मानते रहे कि पार्टी के भीतर उनकी मुखालफत जैसी स्थिति बन सकती है, पर ऐसा एक भी मौका नहीं आया। इस बीच भाजपा पार्टी ने पहले 2019 के लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप किया और फिर धर्मशाला और पच्छाद का उपचुनाव भी जीता। स्थानीय निकाय चुनाव में भी पार्टी का पलड़ा भारी रहा। पर 2021 में पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से दो में भाजपा को हार मिली। फिर 2021 के अंत में हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव में भी पार्टी हारी और जयराम की मुश्किलों में इजाफा होना शुरू हुआ। इसके बाद तो कयास लगने लगे कि आलाकमान सीएम फेस भी बदल सकता है। पर जयराम ने इसका जवाब ये कहकर दिया कि 'मैं हूँ और मैं ही रहूँगा। हुआ भी ऐसा ही। न सिर्फ जयराम ठाकुर की कुर्सी तब बची रही बल्कि आलाकमान ने उनके चेहरे पर ही हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने का ऐलान किया। अब इस बार जयराम ठाकुर ने हिमाचल प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलने का नारा दिया है। अगर जयराम ठाकुर रिवाज बदल देते है तो वे वीरभद्र सिंह के बाद ऐसा करने वाले पहले मुख्यमंत्री होंगे। कॉलेज के टी स्टॉल पर बैठकर बनाते थे रणनीति हिमाचल के सीएम बने जयराम ठाकुर की सादगी के किस्से आज भी वल्लभ कॉलेज मंडी के गलियारों में गूंजते हैं, खासकर कैंटीन में। यह कैंटीन कॉलेज के बिलकुल साथ सटा मामू टी-स्टाल था। यहां एबीवीपी का छात्र नेता होते हुए दिन भर साथियों के साथ जयराम ठाकुर सियासी चर्चा करते थे। उनकी सादगी और ईमानदारी का हर कोई प्रशंसक था। वे जब जरूरत पड़े तो मामू टी स्टाल का गल्ला संभालने से भी पीछे नहीं रहते। जब मुख्यमंत्री पद के लिए जयराम के नाम पर मुहर लगी तो पूरे मंडी में माहौल उत्सव सा था। मुख्यमंत्री बनने के बाद जयराम ठाकुर मामू टी स्टाल गए और उनका आशीर्वाद लिया। पहली बार चुनाव लड़ने को नहीं थे पैसे जयराम ठाकुर समृद्ध आर्थिक पृष्ठभूमि से नहीं थे। 1993 में जयराम ठाकुर ने प्रदेश की चुनावी राजनीति में एंट्री हुई। उन्हें चच्योट विधानसभा से टिकट दिया गया। वही भारतीय जनता पार्टी के टिकट मिलने से जयराम ठाकुर तो खुश थे, लेकिन परिवार में पिता और मां नाराज थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। इस वजह से पिता नहीं चाहते थे कि वह चुनाव लड़े, फिर भी जयराम ठाकुर ने हिम्मत नहीं हारी और चुनावी मैदान में उतरे। इस चुनाव में हालांकि उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। जयराम ठाकुर ने चुनाव में 1998 में जीत का स्वाद चखा। उन्हें इसी विधानसभा सीट से फिर टिकट मिला जिसमें वह जीत दर्ज की। संघ प्रचारकों के सम्मेलन में मिले दो दिल हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का निजी जीवन खुली किताब है, लेकिन उनकी पत्नी डॉ. साधना और उनके मिलने की कहानी दिलचस्प है। जयराम ठाकुर और उनकी पत्नी का राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से गहरा नाता रहा है। डॉ साधना मूल रूप से कर्नाटक की रहने वाली हैं, लेकिन बाद में वह कनार्टक से जयपुर शिफ्ट हो गई थी। जयराम ठाकुर का ससुराल जयपुर के झोटवाड़ा में है। नब्बे के दशक में जम्मू में आयोजित संघ प्रचारकों के सम्मेलन में जयराम की मुलाकात राजस्थान की प्रचारक डॉ. साधना से हुई। यहीं पर जयराम ठाकुर की उनकी पत्नी से जान-पहचान बनी और बाद में दोनों ने शादी करने का फैसला किया और 1995 में दोनों की शादी हुई। डा. साधना पेशे से डॉक्टर हैं और अपने पति की कामयाबी में इनका भी अहम योगदान है। डा. साधना ने घर को तो बखूबी संभाला ही, साथ में अपनी पति के हर कार्य में उनका साथ दिया और हर समय एक मजबूत ढाल की तरह उनके साथ खड़ी रही। हालांकि जब जयराम ठाकुर की शादी हुई उस वक्त जय राम ठाकुर पहला चुनाव हारे हुए थे और राजनीति में अभी उनकी नई-नई पहचान ही बन रही थी। साधना ठाकुर के पिता श्रीनाथ राव भी आरएसएस नेता रहे हैं। कर्मचारियों के विरोध का करना पड़ा सामना बतौर मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपने कार्यकाल में हर वर्ग का ख्याल रखा, लेकिन कर्मचारियों का विरोध भी उन्हें खूब सहना पड़ा। 2017 में जब भाजपा की सरकार बनी तो कर्मचारियों को उम्मीद थी की पुरानी पेंशन बहाली के लिए प्रदेश सरकार कुछ कदम उठाएगी। परन्तु सत्ता में आने के बाद जब कोई बदलाव होता नहीं दिखा तो शुरुआत हुई उस संघर्ष की जो आगे चल कर प्रदेश के कर्मचारियों सबसे बड़े आंदोलन में तब्दील हो गया। पुरानी पेंशन को लेकर ये आंदोलन रातों रात खड़ा नहीं हुआ। पहले कई बार पेन डाउन स्ट्राइक हुई और फिर कर्मचारी सड़क पर उतर आएं। मामला विधानसभा घेराव तक पहुंच गया। कभी भारी संख्या में कर्मचारी धर्मशाला पहुंचे तो कभी शिमला, पेंशन व्रत हुए, पेंशन संकल्प रैली हुई, पेंशन अधिकार रैली हुई। कर्मचारियों के इन प्रदर्शनों में उमड़ा जनसैलाब स्पष्ट संकेत देता रहा था कि कर्मचारी मानने को तैयार नहीं थे। मगर सरकार हर बार आर्थिक परिस्थितियों का हवाला देती रही। कर्मचारियों का ये संघर्ष बहुत कम समय में एक आंदोलन में बदल गया। कर्मचारी संगठनों ने खूब हल्ला बोला और सीएम जयराम ठाकुर के लिए " जोइया मामा शुनदा नहीं" के नारे तक लगे। सरकार द्वारा 2009 की अधिसूचना लागू कर प्रदेश के कर्मचारियों को मनाने का भी प्रयास भी हुआ, मगर कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली की मांग पर अड़े रहे। पुरानी पेंशन बहाली को लेकर इस चुनाव में कर्मचारियों ने 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान चलाया, जो भाजपा के जी का जंजाल बनता दिख रहा है। अफसरशाही पर पकड़ को लेकर उठते रहे सवाल जयराम ठाकुर पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अक्सर सवाल उठे है। विरोधी इसे लेकर जयराम ठाकुर को कमजोर मुख्यमंत्री साबित करने में जुटे रहे। दरसअल अपने इस कार्यकाल में जयराम सरकार ने कई मर्तबा अपने फैसले बदले। इसके अलावा कई क्षेत्रों में मंत्रियों की बैठकों में अधिकारीयों की अनुपस्थिति चर्चा में रही, तो कभी किसी मीटिंग में अधिकारी और मंत्री के बीच खींचतान की ख़बरें बाहर आई। पर जयराम ठाकुर ने कई मौकों पर अफसरशाही पर पकड़ को लेकर अपना पक्ष रखा। वे कहते रहे है कि लताड़ लगाकर काम करवाना उनका तरीका नहीं है, प्यार से भी काम होता है।
हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अलबत्ता कभी प्रदेश के मुख्यमंत्री तो नहीं बन सके, लेकिन वे अपने आप में हिमाचल की सियासत का एक अध्याय थे। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहे जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल रहे और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पर बदले में पंडित जी ने अपने सभी पांच विधायकों के लिए मंत्री पद लिया। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता। पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरुआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से जब भी चुनाव लड़ा, हर बार जीत हासिल की। सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके भी आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर राम लाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर राम लाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। 1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह फिर पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। इसके बाद 1996 में पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। सीबीआई की एक टीम उनके आवास पर छापेमारी की थी और पैसा बरामद किया था। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री पद और कांग्रेस पार्टी का साथ, दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इसके बाद ही पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई। केंद्र की सियासत में रहा रसूख केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है। वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी 1993 में कांग्रेस की सत्ता वापसी के बाद पंडित सुखराम भी सीएम पद के दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के आगे उनका दावा टिका नहीं। फिर अगला चुनाव आते-आते पंडित जी कांग्रेस छोड़ चुके थे और 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने अपनी पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। तब पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई थी। 2017 में दिया कांग्रेस को झटका पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और इसके बाद कांग्रेस में वापस भी लौट आएं। फिर उन्होंने 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और वीरभद्र सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। उनके इस सियासी पेंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। पर पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। वहीं उनके बेटे अनिल शर्मा भाजपा में ही रहे। इसी वर्ष मई में पंडित सुखराम ने दुनिया को अलविदा कह दिया और उनके निधन के बाद उनके परिवार ने भाजपा में रहने का निर्णय लिया। मंडी ने हमेशा साथ दिया, इस बार परिवार का इम्तिहान ! इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। अब उनके निधन के बाद उनके बेटे अनिल शर्मा ने भाजपा टिकट से मंडी सदर सीट से चुनाव लड़ा है और इस बार ये देखना रोचक होगा कि क्या मंडी पंडित जी के निधन के बाद भी उनके परिवार का साथ देगी।
वो 14 फरवरी 1980 का दिन था। शिमला सर्दी की लहर में थरथरा रहा था। एक माह पहले दिल्ली की सत्ता में कांग्रेस वापस लौटी थी। उसके बाद से ही पूरे देश में नेताओं के दल-बदल से सरकारें गिरने का सिलसिला भी शुरू हो चुका था। हिमाचल प्रदेश में भी जनता पार्टी के विधायकों में भगदड़ मची हुई थी। प्रतिदिन एक-एक, दो-दो करके विधायक पार्टी को छोड़कर कांग्रेस में शामिल हो रहे थे। 14 फरवरी तक शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के खेमे में जा चुके थे और शांता कुमार समझ चुके थे कि अब हाथ पैर मारने का फायदा नहीं है। सो उन्होंने अपना इस्तीफा राज्यपाल अमीरुद्दीन खां को दे दिया। अपने कार्यालय से उन्होंने अपनी पत्नी को फ़ोन किया, उन्हें बुलाया और दोनों सिनेमा देखने चले गए। फिल्म थी जुगनू। इस्तीफा देकर फिल्म देखने जाने वाला मुख्यमंत्री हिन्दुस्तान के इतिहास में शायद ही दूसरा कोई हो। दूसरा कोई हो भी नहीं सकता, शांता सिर्फ एक ही हो सकते है। हिमाचल के पहले गैर कांग्रेसी मुख्यमंत्री बनने का खिताब शांता कुमार के नाम है, इसी के साथ शांता कुमार प्रदेश के एकलौते ब्राह्मण मुख्यमंत्री भी है। कांग्रेस के एकछत्र राज को तोड़ जनता पार्टी की सरकार बनाने में शांता कुमार का बड़ा हाथ था। अपने उसूलों, और नियमों पर चलने वाले शांता भगवत गीता और स्वामी विवेकानंद को अपने जीवन का आधार मानते है। इन्हीं आदर्शों पर चलते हुए शांता ताउम्र राजनीति करते रहे। शांता कुमार का जन्म 12 सितंबर 1934 को जगन्नाथ शर्मा और कौशल्या देवी के घर हुआ। पंडित के घर पैदा होने वाले शांता कुमार को आज हिमाचल के अलावा पूरा देश जानता है। शांता कुमार ने जेबीटी की पढ़ाई की और उसके बाद एक स्कूल में टीचिंग का काम करने लगे। लेकिन जल्द ही टीचिंग से उनका मोहभंग हो गया। वो दिल्ली चले गए और वहां संघ के साथ काम करने लगे। हालांकि उन्होंने पढ़ाई नहीं छोड़ी और ओपन यूनिवर्सिटी से वकालत की डिग्री हासिल की। शांता के राजनीतिक करियर का आगाज वर्ष 1964 में हुआ। शांता ने पंचायत चुनाव लड़ा और पंच बन गए। ये बस शुरुआत थी। वर्ष 1967 आया और शांता ने जिला कांगड़ा के पालमपुर से अपना पहला चुनाव लड़ा लेकिन चुनाव हार गए। पर इसके बाद धीरे-धीरे शांता विपक्ष का चेहरा बनते गए। 1972 का साल आया और शांता एक बार फिर विधानसभा चुनाव के रण में उतरे। इस बार क्षेत्र था जिला कांगड़ा का खेरा। इस मर्तबा शांता चुनाव जीत गए और विधानसभा में विपक्ष की आवाज़ के तौर पर उनकी पहचान स्थापित हो गई। फिर इंदिरा गांधी सरकार ने 25 जून 1975 को देश में आपातकाल लागू किया। इमरजेंसी लगी तो राजनैतिक हालात बदल गए और शांता कुमार को भी नाहन जेल में बंद कर दिया गया, जहाँ उनका साहित्यकार अवतार देखने को मिला। जेल में रहते हुए शांता कुमार ने कई उपन्यास लिखे, जिसका श्रेय वे कांग्रेस को देते है। 21 महीने तक लगे इस आपातकाल को 21 मार्च 1977 को खत्म किया गया था। इसके बाद हिमाचल में विधानसभा का चौथा चुनाव हुआ। कई मायनों में साल 1977 का ये विधानसभा चुनाव खास बन गया। इस चुनाव में सूबे में जनता पार्टी ने बढ़त बनाई थी और शांता कुमार मुख्यमंत्री बने। ये वो चुनाव था जब प्रदेश में पहली बार गैर कांग्रेसी सरकार आई थी और तब खुद के अपने एक वोट की बदौलत शांता कुमार ने सीएम बनकर इतिहास रचा था। दरअसल 1977 के विधानसभा चुनाव में प्रदेश में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली थी। जबकि कांग्रेस को महज 9 सीट मिली थी। उस चुनाव में 6 निर्दलीय भी जीते थे और सभी ने जनता पार्टी को समर्थन दिया। इस तरह कुल विधायकों का आंकड़ा पहुंच गया 59। चुनाव के बाद बारी आई मुख्यमंत्री चुनने की। सीएम पद के लिए शांता कुमार का मुकाबला हमीरपुर के लोकसभा सदस्य ठाकुर रणजीत सिंह से था। सीएम पद के लिए एक गुट ने सांसद रणजीत सिंह का नाम आगे किया, तो दूसरे ने शांता कुमार के नाम का प्रस्ताव रखा। दोनों गुट सीएम पद पर समझौता करने को तैयार नहीं थे। ऐसे में वोटिंग ही इकलौता रास्ता रह गया था। शांता कुमार के अलावा कुल 58 विधायक थे और जब वोटिंग हुई तो इनमें से 29 ने शांता कुमार का समर्थन किया और 29 ने रणजीत सिंह का। इसके बाद जो हुआ वो इतिहास है। तब अपने ही वोट से शांता कुमार के समर्थक विधायकों का आंकड़ा 30 पहुंचा और इस तरह वे पहली बार मुख्यमंत्री बने। बतौर मुख्यमंत्री अपने पहले कार्यकाल में शांता कुमार ने कई महत्वपूर्ण कार्य किये। अन्तोदय योजना के जरिये उन्होंने गरीबों के बीच अपनी पैठ बनाई। गांव- गांव तक पानी के हैंडपंप पहुंचाए और पानी वाला मुख्यमंत्री कहलाये। सब कुछ ठीक चल रहा था, मगर 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। फरवरी 1980 में जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। इसका ज़िक्र शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा निज पथ का अविचल पंथी में भी किया है , शांता कहते है कि "एक एक करके विधायक जनता पार्टी का साथ छोड़ कर कांग्रेस में जा रहे थे। मैं अपने एक पत्रकार मित्र को रोज फोन पर यूं पूछता था, ‘आज का स्कोर...?’ उसके पास पार्टी छोड़ने वालों के संबंध में जो समाचार होता था, वह मुझे बता देता था। मुझे स्पष्ट दिख रहा था कि अब सरकार नहीं टिकेगी। जिन कारणों से और जिस तरीके से विधायक पार्टी छोड़ रहे थे, उसका कोई इलाज हमारे पास नहीं था। मैं चुपचाप तमाशा देख रहा था। कुछ मित्र नाराज होते कि मैं सरकार बचाने के लिए प्रयत्न नहीं कर रहा हूं। जैसे एक डूबते जहाज का कैप्टन चुपचाप बैठा धीरे-धीरे डूबते जहाज को देखता है, ठीक वैसी ही स्थिति मेरी भी थी।" दरअसल तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। सो ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार के उसूल नहीं टिके। शांता कुमार ने भी इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। बताते है कि अगले दिन लाल कृष्ण आडवाणी ने शांता कुमार को फोन किया और पूछा कौन सी फिल्म देखी। शांता ने जवाब दिया जुगनू, साथ ही फिल्म का रिव्यू भी दे दिया। बोले, 'बहुत अच्छी फिल्म है आप भी देखकर आइये।' शांता ने अपनी आत्मकथा में इस बात का भी ज़िक्र किया है कि तब उनके पास भी सियासी जोड़ तोड़ के लिए धनबल जैसी चीज़ों का प्रस्ताव था, मगर शांता अपने आदर्शवाद पर टिके रहे और उन्होंने इस्तीफा देना बेहतर समझा। भाजपा को हिमाचल में किया खड़ा वर्ष 1980 में ही भारतीय जनता पार्टी का गठन भी हुआ। अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, भैरों सिंह शेखावत के साथ शांता कुमार भी उस दौर में पार्टी में मुख्य चेहरों में शुमार थे। इसके बाद 10 वर्षों तक शांता कुमार ने भाजपा को हिमाचल में खड़ा करने का काम किया। पार्टी के गठन के बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही भाजपा को 29 सीटें मिली थी, जो कांग्रेस से महज दो सीटें कम थी। 1989 में शांता कुमार संसद भी पहुंचे और उसके बाद 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा का सीएम फेस रहे। चुनाव में भाजपा को प्रचंड जीत मिली और शांता एक बार फिर मुख्यमंत्री शांता हो गए। दिसंबर 1992 में बाबरी कांड के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव ने शांता की सरकार को बर्खास्त कर दिया जिसके बाद 1993 में फिर चुनाव हुए।1990 में जिस भाजपा को प्रचंड जीत मिली थी वो 1993 में मजह 8 सीटों पर सिमट कर रह गई। खुद शांता कुमार भी चुनाव हार गए। हार का कारण ये नहीं था कि उन्होंने काम नहीं किया, बल्कि शांता अपने काम की वजह से ही हारे। कांग्रेस के रोटी-कपडा- मकान के घिसे पीटे नारे को लोगों ने शांता के आत्मनिर्भर हिमाचल के नारे पर तरजीह दी। तब उनकी हार का कारण था कर्मचारियों की नाराज़गी। भारी पड़ा 'नो वर्क नो पे' का फरमान हिमाचल में आज भी सत्ता का रास्ता कर्मचारियों के वोट तय करते है। 1990 में मुख्यमंत्री बनने के बाद शांता कुमार ने बतौर मुख्यमंत्री निजी क्षेत्र को प्रदेश में हाइड्रो प्रोजेक्ट लगाने की अनुमति दी थी। तब किन्नौर में एक हाइड्रो प्लांट लगा था। इसी के विरोध में सरकारी कर्मचारी हड़ताल पर चले गए। शांता भी उसूलों के पक्के थे सो 'नो वर्क नो पे' का फ़रमान जारी कर दिया। 29 दिन चली इस हड़ताल का पैसा कर्मचारियों को नहीं दिया गया। साथ ही इस दौरान करीब 350 कर्मचारियों को उन्होंने बर्खास्त कर दिया। सो जब अगला चुनाव आया तो कर्मचारियों ने भी शांता कुमार से बराबर बदला लिया। शांता की देन है पानी की रॉयल्टी हिमाचल प्रदेश को हर वर्ष करीब दो हजार करोड़ रुपये पानी की रॉयल्टी से मिलते है। ये शांता कुमार की ही देन है। जब पहली बार उन्होंने विधानसभा में इस मुद्दे को उठाया था तो विपक्ष ने जमकर खिल्ली उड़ाई थी। पर कांग्रेस की केंद्र सरकार को ये बात समझ आ गई और हिमाचल को उसका हक मिला। इसका जिक्र भी शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा में किया है। मोदी की पसंद नहीं थे शांता 1993 चुनाव की हार के बाद शांता कुमार प्रदेश की सियासत में वापसी नहीं कर सके।1998 चुनाव से पहले नरेंद्र मोदी हिमाचल के प्रभारी थे और माना जाता है उनसे शांता की बनती नहीं थी। मोदी की पसंद प्रो प्रेम कुमार धूमल थे और चुनाव से पहले भाजपा ने धूमल को सीएम फेस घोषित कर दिया। इसके बाद पंडित सुखराम के समर्थन से धूमल ने पांच वर्ष सत्ता सुख भोगा। शांता कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच हमेशा एक लकीर रही है। गोधरा दंगों के बाद शांता कुमार ने नरेंद्र मोदी के बारे में कहा था कि अगर मैं गुजरात का मुख्यमंत्री होता तो त्यागपत्र दे देता। पत्नी संतोष शैलजा ने निभाया हर कदम पर साथ कहते है शांता कुमार के शांता कुमार होने में उनकी धर्मपत्नी संतोष शैलजा की भूमिका भी कम नहीं रही है। संतोष शैलजा शांता कुमार के हर निर्णय में उनके साथ रही। अमृतसर में जन्मी संतोष शैलजा ने अपनी मां को नहीं देखा था। मौसियों ने पाला पोसा और वह दिल्ली के डीएवी स्कूल में पढ़ाने लगी। वहीं शांता कुमार भी पढ़ाते थे। नजदीकी और समझ बढ़ी तो संबंध स्थायी हो गया। हिमाचल प्रदेश लौटे तो यहां की संस्कृति को ऐसे आत्मसात किया कि शांता के पैतृक गांव गढ़ के बुजुर्ग भी कहने लगे, 'लगता नहीं कि बहू बाहर से आई है। ' शांता कुमार राजनीति में आए, आपातकाल में जेल गए तो संतोष शैलजा ने अध्यापन जारी रखते हुए माता-पिता दोनों भूमिकाओं में बच्चों की परवरिश की। वे खुद भी राजनीति में आ सकती थी लेकिन उन्होंने ऐसा किया नहीं। अपनी आत्मकथा में भी शांता ने इसका जिक्र किया है। जब अनुरोध था, अवसर था, उन्होंने तब भी राजनीति में आने से इनकार किया। आत्मकथा में लिखा, भाजपा भी सिद्धांतों से समझौते करने लगी है शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा "निजपथ का अविचल पंथी" लिखी है जिसमें उन्होंने न सिर्फ अपने जीवन के बल्कि राजनीति के भी कई राज खोले है। पूर्व मुख्यमंत्री शांता कुमार ने अपनी आत्मकथा के माध्यम से भाजपा को भी बड़ी नसीहत दी है। उनका मानना है कि धीरे-धीरे सत्ता की राजनीति में भारतीय जनता पार्टी भी समझौते करने लगी है। राजनीति के प्रदूषण का प्रभाव भाजपा पर भी पड़ना शुरू हो गया है। इस प्रदूषण से उस युग के उनके जैसे थोड़े से बचे हुए नेता बहुत व्यथित होते हैं। शांता ने ये भी लिखा कि "पार्टी के एक पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ने तो मुझे यहां तक कहा था कि यह वह पार्टी ही नहीं है, जिसमें हम थे, इसलिए व्यथित मत हुआ करो।" उन्होंने आत्मकथा में लिखा, " पूरी राजनीति लगभग भटक चुकी है। अब तो सत्ता प्राप्ति के लिए और विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए दंगे तक करवाए जाते हैं। दल-बदल में नेताओं का क्रय-विक्रय होता है और पता नहीं क्या कुछ किया जाता है। पूरे देश की भ्रष्ट होती हुई इस राजनीति में आशा की एकमात्र अंतिम किरण भाजपा भी यदि भटक गई तो फिर देश का भविष्य कैसा होगा। भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक आधार राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) है। एक समय था जब संघ के प्रमुख नेता इस बात पर ध्यान करते थे कि पार्टी मूल्यों की राजनीति से कहीं समझौता न कर ले। धीरे-धीरे संघ का यह मार्गदर्शन कम होता जा रहा है। मैं इस सारी स्थिति से चिंतित हूं। "