वीरभद्र सिंह, वो वटवृक्ष है जिनकी छाया में हिमाचल कांग्रेस का सूर्य सदा उदयमान रहा। वो राजा जिसके सियासी कौशल के आगे बड़े -बड़े नतमस्तक हुए। अर्से से हिमाचल में कांग्रेस का मतलब वीरभद्र सिंह ही रहा है। उनका निवास होलीलॉज अर्से से सियासत का केंद्र बिंदु रहा और आज उनके जाने के बाद भी है। उनके कद का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने वीरभद्र मॉडल को आगे रखकर चुनाव लड़ा है। अखबारों में कांग्रेस के प्रचार का सबसे बड़ा विज्ञापन अब भी वीरभद्र सिंह का दिखा है। निसंदेह हिमाचल प्रदेश की सियासत में वीरभद्र सिंह सबसे बड़ा नाम है। उनका राजनैतिक सफर भी इसकी तस्दीक करता है। 1982 में वीरभद्र सिंह ने पहली बार प्रदेश की सत्ता संभाली थी और 2012 में छठी बार सीएम पद की शपथ ली। 2017 तक वीरभद्र सिंह सीएम रहे और इस दरमियान कई नेताओं का वक्त आया और चला गया, पर वीरभद्र सिंह का तो मानो दौर चल रहा था। वीरभद्र 59 साल के राजनीतिक जीवन में 6 बार मुख्यमंत्री, तीन बार केंद्रीय मंत्री और पांच बार सांसद रहे और जब तक आखिरी सांस ली हिमाचल कांग्रेस में वीरभद्र का ही दबदबा रहा। अलबत्ता जब वे अस्पताल में मौत से संघर्ष करते रहे, तब भी उनका होना मात्र ही निष्ठावान कांग्रेसियों को ऊर्जा देता रहा। वीरभद्र सिंह का रुतबा इतना ऊंचा रहा है कि पार्टी के बड़े नेता भी मुखर होकर उनका विरोध नहीं कर पाए। वे सर्वमान्य नेता बने रहे, अपनों के लिए भी और विरोधियों के लिए भी। शिमला का बिशप कॉटन स्कूल हिमाचल का ही नहीं अपितु देश के प्रतिष्ठित स्कूलों में शुमार है। उस दौर में जब रामपुर- बुशहर रियासत के राजकुमार वीरभद्र ने बिशप कॉटन स्कूल में दाखिला लिया था तो किसी ने नहीं सोचा होगा कि स्कूल का नाम उस शख्सियत से जुड़ने जा रहा है जो आगे चलकर 6 बार हिमाचल का सीएम बनेगा। स्कूल पास आउट करने के बाद वीरभद्र ने दिल्ली के सेंट स्टीफेंस कॉलेज में हिस्ट्री होनोर्स में बीए और एमए की। हसरत थी हिस्ट्री का प्रोफेसर बन छात्रों को पढ़ाने की। पर देश के प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनके लिए कुछ और ही सोच रखा था और वीरभद्र सिंह राजनीति में आ गए। जो वीरभद्र छात्रों को इतिहास पढ़ाना चाहते थे, उन्होंने खुद इतिहास बना दिया। सबसे अधिक समय तक हिमाचल का सीएम रहने का रिकॉर्ड वीरभद्र सिंह के ही नाम है। वे करीब 22 वर्ष और कुल 6 बार हिमाचल के सीएम रहे है। 1962 में हुई चुनावी राजनीति में एंट्री प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की प्रेरणा से उन्होंने राजनीति में आने का निर्णय लिया था। नेहरू की बेटी और तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष इंदिरा गांधी भी तब वीरभद्र से खासी प्रभावित थी। इंदिरा के कहने पर 1959 में वीरभद्र सिंह दिल्ली से हिमाचल लौटे और लोगों के बीच जाकर उनके लिए काम करना शुरू किया। वीरभद्र का ताल्लुक तो रामपुर- बुशहर रियासत से था, लेकिन जल्द ही वे शिमला क्षेत्र में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बन गए। नतीजन 1962 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने उन्हें महासू ( वर्तमान शिमला ) सीट से उम्मीदवार बनाया। 28 वर्ष के वीरभद्र आसानी से चुनाव जीत गए और पहली मर्तबा लोकसभा पहुंचे। इसके बाद 1967 और 1972 में वीरभद्र मंडी से चुनाव लड़ लोकसभा पहुंचे। हालांकि इमरजेंसी के बाद 1977 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र को हार का मुँह देखना पड़ा। पर उन्होंने अपनी निष्ठा नहीं बदली और इंदिरा गांधी के वफादार बने रहे। 1980 में फिर चुनाव हुए और वीरभद्र सिंह एक बार फिर जीत कर लोकसभा पहुँच गए। 1982 में इंदिरा सरकार में उन्हें उद्योग राज्य मंत्री भी बना दिया गया। 1983 में हुई हिमाचल की सियासत में एंट्री वीरभद्र वर्ष 1962 से चुनावी राजनीति में है पर हिमाचल प्रदेश की सियासत में उनका आगमन हुआ वर्ष 1983 में। वर्ष 1983 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार थी और मुख्यमंत्री थे ठाकुर रामलाल। तब वीरभद्र केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार में मंत्री थे। तभी टिंबर घोटाले के आरोप के चलते ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा और पार्टी हाईकमान ने भरोसा जताया वीरभद्र सिंह पर। इसके बाद से हिमाचल प्रदेश की सियासत वीरभद्र सिंह के इर्द गिर्द घूमती रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1993 में फिर की वापसी 1990 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा। खुद वीरभद्र सिंह भी जुब्बल कोटखाई से चुनाव हार गए थे। ऐसा लगने लगा था कि शायद ही वीरभद्र इसके बाद कभी सीएम बने। ऐसा इसलिए भी था क्योंकि तब पंडित सुखराम और विद्या स्ट्रोक्स का भी हिमाचल और कांग्रेस में खासा दबदबा था। पर जो आसानी से हार मान ले, वो वीरभद्र सिंह नहीं बनते। हार के बाद वीरभद्र ने संगठन में अपनी जड़ें और मजबूत की और विपक्ष का सबसे बड़ा चेहरा बने रहे। शांता सरकार की गिरती लोकप्रियता को भी उन्होंने जमकर भुनाया। 1993 में शांता सरकार गिरने के बाद जब चुनाव हुए तो वीरभद्र सिंह तीसरी बार प्रदेश के सीएम बने। 1998 में भी कांग्रेस प्रदेश में सबसे बड़ी पार्टी बनकर सामने आई, लेकिन पंडित सुखराम के सहयोग से सरकार भाजपा की बनी। 2003 में फिर वीरभद्र सिंह की वापसी हुई और वे दिसंबर 2007 तक हिमाचल के मुख्यमंत्री रहे। 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने केंद्र का रुख किया और 2009 से 2012 तक केंद्र में मंत्री रहे। 2012 में कई नेताओं के मंसूबों पर फेरा पानी 2012 विधानसभा चुनाव के वक्त वीरभद्र सिंह की आयु 78 के पार थी। केंद्र में मंत्री होने के चलते शायद ही किसी को वीरभद्र के लौटने की उम्मीद रही हो। कांग्रेस में भी कई चाहवान सीएम की कुर्सी पर आंखें गड़ाए बैठे थे। पर वीरभद्र को तो अभी दिल्ली से शिमला वापस लौटना था। चुनाव से पहले वीरभद्र ने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया और हिमाचल लौट आये। हालांकि तब आलाकमान वीरभद्र के हाथ कांग्रेस की कमान सौंपने के लिए राजी नहीं था। पिछले कई साल से प्रदेश में कांग्रेस की जड़ें मज़बूत कर रहे कौल सिंह ठाकुर और आलाकमान के करीबी सुखविंदर सिंह सुक्खू मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे। मगर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर वीरभद्र ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी, 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' वीरभद्र ने दिल्ली दरबार को स्पष्ट कर दिया था कि सीएम तो वे ही होंगे, चाहे पार्टी कोई भी हो।आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। 83 की उम्र में कांग्रेस ने बनाया सीएम फेस साल था 2017 का। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव का बिगुल बज चुका था। भाजपा में सीएम फेस को लेकर दुविधा थी और अंतिम क्षण तक पार्टी सीएम फेस घोषित करने से बचती रही। उधर, कांग्रेस के सामने कोई दुविधा नहीं थी। 83 वर्ष के वीरभद्र सिंह पार्टी के सीएम कैंडिडेट थे और अकेले भाजपा से लोहा ले रहे थे। संभवतः इससे पहले और इसके बाद भी इतने उम्रदराज नेता को हिंदुस्तान में कभी भी, किसी भी चुनाव में सीएम फेस घोषित नहीं किया गया। दिलचस्प बात ये है कि इस निर्णय को लेकर शायद ही कांग्रेस आलाकमान के मन में कोई दुविधा रही हो। खेर, कांग्रेस चुनाव हार गई पर हिमाचल में वीरभद्र का जलवा उनकी अंतिम सांस तक बरकरार रहा। पीएम इंदिरा गांधी से विवाह की अनुमति लेने गए वीरभद्र सिंह का विवाह दो बार हुआ। 20 साल की उम्र में जुब्बल की राजकुमारी रतन कुमारी से उनकी पहली शादी हुई। किन्तु कुछ वर्षों बाद ही रतन कुमारी का देहांत हो गया। इसके बाद 1985 में उन्होंने प्रतिभा सिंह से शादी की। प्रतिभा सिंह से वीरभद्र सिंह की शादी का किस्सा भी बेहद दिलचस्प है। दरअसल वीरभद्र सिंह की पहली पत्नी के निधन के बाद वीरभद्र की माता उनसे दूसरी शादी करने के लिए कहा करती थी, लेकिन वीरभद्र काफी सालों तक नहीं माने। काफी मनाने के बाद जब वीरभद्र माने तो सहमति प्रतिभा सिंह के नाम पर बनी। उस वक्त वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री थे तो वीरभद्र सिंह पीएम इंदिरा गांधी से भी मिलने गए और उनसे से भी इसकी आज्ञा ली। हालाँकि तब इंदिरा ने उनसे कहा था की ये आपका निजी जीवन है इसका राजनीति से कोई लेना देना नहीं। सिर्फ यही नहीं वीरभद्र ने उस ज़माने में प्रतिभा से भी उनकी इच्छा पूछी थी। दरससल प्रतिभा सिंह, वीरभद्र सिंह से उम्र में काफी छोटी थी। ऐसे में वीरभद्र नहीं चाहते थे कि उनकी इच्छा के खिलाफ कुछ भी हो। प्रतिभा भी राजी हुई तो फिर बिना किसी शोर के काफी सादे तरीके से शादी हुई। कहते है जिस दिन वीरभद्र की शादी हुई उस दिन भी वे मुख्यमंत्री कार्यालय में काम कर रहे थे। आज प्रतिभा सिंह कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष है और उनके बेटे विक्रमादित्य सिंह शिमला ग्रामीण से विधायक। कई नेताओं के अरमान कुचले अपनी सियासी पारी में वीरभद्र सिंह न सिर्फ दूसरे राजनीतिक दलों से लोहा लिया बल्कि पार्टी के भीतर भी अपना तिलिस्म बरकरार रखा। वो उन अपवादों में शामिल है जिन्होंने आलाकमान की हां में हां नहीं मिलाई बल्कि जिनकी ताकत के आगे कई मौकों पर आलाकमान भी झुका। वीरभद्र की सियासी महारथ के आगे कई दिग्गज नेताओं का सीएम बनने का अरमान आजीवन अधूरा रहा जिनमें राजनीति के चाणक्य माने जाने वाले पंडित सुखराम और विद्या स्टोक्स भी शामिल है। 2012 के विधानसभा चुनाव से पहले भी वीरभद्र सिंह ने केंद्र से वापसी कर प्रदेश की सियासत का रुख किया और न सिर्फ भाजपा की बाजी पलट दी अपितु पार्टी के भीतर भी कई नेताओं के अरमान कुचल दिए। सर्वमान्य : चार निर्वाचन क्षेत्रों से जीते हिमाचल की सियासत में यदि कोई ऐसा नेता है जिसका वर्चस्व पूरे प्रदेश में दिखा तो वे थे वीरभद्र सिंह। उनकी जमीनी पकड़ का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे चार निर्वाचन क्षेत्रों से विधायक रहे। जुब्बल -कोटखाई से उनकी शुरुआत हुई, फिर रोहड़ू को अपना गढ़ बनाया, तदोपरांत शिमला ग्रामीण से जीतकर विधानसभा पहुंचे और अपने अंतिम चुनाव में अर्की से जीतकर अपनी लोकप्रियता का लोहा मनवाया। हिमाचल में उन जैसा सर्वमान्य नेता निसंदेह कोई नहीं हुआ।
हिमाचल का ये नेता जब भी मुख्यमंत्री बना, अपनी सियासी तिकड़म से बना। एक बार अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेता डॉ यशवंत सिंह परमार को हटाकर सीएम पद कब्जाया, तो अगली बार शांता कुमार की जनता पार्टी के विधायकों को अपनी तरफ मिला लिया और कुर्सी हथिया ली। तीसरे मौके पर बहुमत नहीं था, तो निर्दलीयों को साध कर अपनी राजनीतिक कुशलता साबित कर दी। हम बात कर रहे है ठाकुर रामलाल की। वही ठाकुर राम लाल जो 1957 से 1998 तक 9 बार जुब्बल कोटखाई से विधायक चुने गए। उन्हें विरोधियों ने देवदार के पेड़ खाने वाला सीएम तक कहा। फिर ये ही ठाकुर रामलाल जब आंध्र प्रदेश के राज्यपाल बने तो विरोधियों ने उन्हें लोकतंत्र खाने वाला राज्यपाल कहा। ठाकुर रामलाल ही वो नेता थे जिन्होंने 18 साल सीएम रहे डॉ यशवंत सिंह परमार की राजनीतिक विदाई का ताना बाना बुना और उन्हें हिमाचल का तिकड़मबाज सीएम कहा गया। ठाकुर को हिमाचल प्रदेश में जोड़ तोड़ की राजनीति का जनक कहा जाता है। पहली बार रामलाल ने ही सूबे में राजनीतिक दांव-पेंच दिखाया था और मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे। साल 1957 में पहली बार ठाकुर रामलाल जुब्बल कोटखाई से विधायक बने। ठाकुर साहब 9 बार विधानसभा पहुंचे और हर बार उन्होंने जुब्बल कोटखाई का प्रतिनिधित्व किया। रामलाल ने हर बार बड़े अंतर से चुनाव में जीत हासिल की। साल 1977 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी और कई दिग्गज चुनाव हार गए थे। उस वक्त भी ठाकुर रामलाल ने जुब्बल कोटखाई से 60 फीसदी से ज्यादा वोट पाकर जीत हासिल की थी। 28 जनवरी 1977 को हिमाचल निर्माता और पहले मुख्यमंत्री डॉ यशवंत सिंह परमार इस्तीफा दे देते है। इसे डॉ परमार की समझ कहे या ठाकुर राम लाल की पॉलिटिकल मैनेजमेंट, कि खुद डॉ परमार पार्टी आलाकमान का रुख भांपते हुए ठाकुर रामलाल के नाम का प्रस्ताव देते है। उसी दिन शाम को ठाकुर रामलाल पहली बार हिमाचल के सीएम पद की शपथ लेते है। ऐसा अकस्मात नहीं हुआ था। दरअसल इससे करीब एक सप्ताह पहले ठाकुर रामलाल 22 विधायकों की परेड प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के समक्ष करवा चुके थे। वैसे भी इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय गांधी के करीबी हो चुके थे। रामलाल, डॉ परमार की कैबिनेट में स्वास्थ्य मंत्री थे और उन्होंने संजय के नसबंदी अभियान को अपने क्षेत्र में पूरे जोर- शोर के साथ चलाया था। इसका लाभ भी उन्हें मिला। इस तरह ठाकुर रामलाल पहली बार मुख्यमंत्री बने। पर करीब तीन माह बाद ही प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया और बतौर मुख्यमंत्री उनका पहला टर्म समाप्त हुआ। आपातकाल के बाद देश में कांग्रेस विरोधी लहर थी और हिमाचल भी इससे अछूता नहीं रहा। विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया। प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी और शांता कुमार अगले मुख्यमंत्री बने। पर शांता भी सत्ता का सुख ज्यादा नहीं भोग पाए। फरवरी 1980 में ठाकुर रामलाल ने एक बार फिर अपनी तिकड़मबाजी दिखाई और शांता कुमार के 22 विधायक ठाकुर रामलाल के साथ हो लिए। रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी और ठाकुर रामलाल फिर मुख्यमंत्री बन गए। 1982 में फिर चुनाव हुए और हिमाचल में पहली बार किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को 31 सीटें मिली जो बहुमत से चार कम थी और 6 निर्दलीय विधायक भी चुन कर आये थे। तब तक भाजपा का गठन भी हो चुका था और भाजपा भी शांता कुमार की अगुवाई में सरकार बनाने की जद्दोजहद में जुट गई। तब भाजपा को 29 सीटें मिली थी और दो सीटें जनता पार्टी ने जीती थी। नतीजन सारा दारोमदार निर्दलीय विधायकों पर था। तब एक बार फिर ठाकुर रामलाल की राजनीतिक करामात कांग्रेस के काम आई और 5 निर्दलीय विधायकों के समर्थन से रामलाल तीसरी बार हिमाचल के मुख्यमंत्री बने। एक गुमनाम पत्र ने गिरा दी कुर्सी सीएम ठाकुर रामलाल के लिए सब कुछ ठीक चल रहा था। इसी बीच जनवरी 1983 में हिमाचल प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश को एक गुमनाम पत्र मिलता है। पत्र में लिखा गया था कि ठाकुर रामलाल के दामाद पद्म सिंह, बेटे जगदीश और उनके मित्र मस्तराम द्वारा जुब्बल-कोटखाई व चौपाल इलाके में सरकारी भूमि से देवदार की लकड़ी काटी जा रही है, जिसकी कीमत करोड़ों में है। न्यायाधीश ने जांच बैठाई, जिसके बाद ठाकुर रामलाल पर खुले तौर पर टिम्बर घोटाले के आरोप लगने लगे। शायद ठाकुर रामलाल इस स्थिति को भी संभाल लेते लेकिन उनसे एक और चूक हो गई जिसका खामियाजा उन्हें सीएम की कुर्सी गंवा कर चुकाना पड़ा। दरअसल ठाकुर रामलाल ने दिल्ली में पत्रकार वार्ता कर ये कह दिया कि उन्हें राजीव गांधी ने आश्वासन दिया है कि उन्हें टिम्बर घोटाले को लेकर परेशान नहीं किया जायेगा। इसके बाद राजीव गांधी पर आरोप लगने लगे कि वे भ्रष्टाचार के आरोपी का बचाव कर रहे है। नतीजन ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देना पड़ा। दिलचस्प बात ये रही कि जिस तरह डॉ यशवंत सिंह परमार ने इस्तीफा देकर ठाकुर रामलाल का नाम प्रस्तावित किया था, उसी तरह ठाकुर रामलाल को इस्तीफा देकर वीरभद्र सिंह के नाम का प्रस्ताव देना पड़ा। राज्यपाल बनकर भी रहे विवादों में ठाकुर रामलाल के बतौर मुख्यमंत्री सफर पर तो वीरभद्र सिंह के सत्ता संभालने के बाद ही विराम लग गया था, किन्तु अभी तो ठाकुर रामलाल पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगना बाकी था। कांग्रेस ने रामलाल को आंध्र प्रदेश का राज्यपाल बनाकर भेज दिया था। आंध्र में 1983 में चुनाव हुए थे जिसमें एन टी रामाराव मुख्यमंत्री बने थे। इसी दौरान अगस्त 1983 में एन टी रामाराव उपचार के लिए विदेश चले गए। ठाकुर रामलाल की राजनीतिक महत्वाकांक्षा अभी बाकी थी, सो रामलाल ने कांग्रेस नेता विजय भास्कर राव को बिना विधायकों की परेड के ही सीएम बना दिया। वे इंदिरा के दरबार में अपनी कुव्वत बढ़ाना चाहते थे, पर हुआ उल्टा। एनटी रामाराव वापस वतन लौटे और व्हील चेयर पर बैठ दिल्ली में 181 विधायकों के साथ जुलूस निकाला। कांग्रेस की जमकर थू-थू हुई और रातों रात ठाकुर रामलाल के स्थान पर शंकर दयाल शर्मा को राज्यपाल बना दिया गया। इसके बाद रामलाल ने कांग्रेस छोड़ी, वापस भी आये पर स्थापित नहीं हो पाए। वीरभद्र को चुनाव हराने वाला नेता हिमाचल की सियासत में वीरभद्र सिंह से बड़े कद का नेता शायद ही दूसरा कोई हो। वीरभद्र अपने राजनीतिक जीवन में सिर्फ एक चुनाव हारे है और उनको हराने वाले थे ठाकुर रामलाल। जब ठाकुर रामलाल को आंध्र प्रदेश के राज्यपाल के पद से हटाया गया तो वो हिमाचल प्रदेश की सियासत में लौटे। उन्होंने कांग्रेस पार्टी से इस्तीफा दे दिया और जनता दल का दामन थाम लिया। साल 1990 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर ने जुब्बल कोटखाई से पर्चा भरा। उनके खिलाफ कांग्रेस ने दिग्गज नेता और सीटिंग सीएम वीरभद्र सिंह मैदान में उतरे। उस विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल ने वीरभद्र सिंह को चुनाव हराकर साबित कर दिया था कि उस क्षेत्र में उनसे बड़ा कोई नेता नहीं हुआ। दिलचस्प बात ये है कि सीएम बनने के बाद वीरभद्र सिंह इसी सीट से 1983 का उपचुनाव जीते थे और 1985 में इसी सीट से जीतकर दूसरी बार सीएम बने थे। विरासत को संभाल रहे रोहित ठाकुर 1990 के चुनाव के बाद ठाकुर रामलाल कांग्रेस में वापस लौट आएं। वे 1993 और 1998 का विधानसभा चुनाव फिर जुब्बल कोटखाई सीट से लड़े और जीते भी। साल 2002 में ठाकुर रामलाल का निधन हो गया। उनकी राजनीतिक विरासत को अब उनके पोते रोहित ठाकुर संभाल रहे है। 2003 हुए चुनाव में रोहित ठाकुर पहली बार जुब्बल कोटखाई विधानसभा क्षेत्र से मैदान में उतरे और चुनाव जीते भी। पर साल 2007 का चुनाव रोहित ठाकुर भारतीय जनता पार्टी के नरेंद्र बरागटा से हार गए। साल 2012 में रोहित ने नरेंद्र बरागटा को फिर हराया लेकिन साल 2017 में बाजी पलटी और नरेंद्र बरागटा फिर रोहित ठाकुर को हराकर विधानसभा पहुंचे। हालांकि नरेंद्र बरागटा के स्वर्गवास के बाद पिछले साल हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर ने एक बार फिर जीत दर्ज की। इस बार भी रोहित ठाकुर ने ही जुब्बल कोटखाई से चुनाव लड़ा है।
25 जनवरी 1971, कड़कड़ाती ठंड के बावजूद शिमला का रिज मैदान लोगों से खचाखच भरा था। बर्फ के फाहे गिर रहे थे, मगर जनता अपनी जगह से हिलने को तैयार नहीं थी। इंतजार था देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का। इंतजार था हिमाचल प्रदेश के भारतीय गणराज्य के 18वां राज्य बनने का। ठंड थी, तो लगा शायद मैडम आज न पहुँच पाए। पर जोश इतना कि लोग इंतज़ार करते रहे और आखिरकार मैडम प्राइम मिनिस्टर आई भी। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी वहां पहुंची और बर्फ के फाहों के बीच हिमाचल प्रदेश के पूर्ण राज्यत्व की घोषणा राजधानी शिमला के रिज मैदान के टका बैंच से की। हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने के लिए एक शख्स ने कड़ी मेहनत की थी। ये वो इंसान था जो अंग्रेज़ो से भी लड़ा और अपने ही देश के रियासती शासकों से भी। हम बात कर रहे है हिमाचल प्रदेश के निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार की। कहते है अगर डॉक्टर परमार न होते तो हिमाचल, हिमाचल न होता। डा. परमार ऐसी शख्सियत थे, जिन्होंने प्रदेश का इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदल कर रख दिया था। इसका जीता जागता प्रमाण पूर्ण राज्य के रूप में प्रदेशवासियों के सामने है। वो परमार ही थी जिनके बूते प्रदेश की सीमाओं को और बड़ा कर दिया गया था, वो भी उस वक्त जब प्रदेश को पंजाब में मिलाने की पुरजोर बात चल रही थी। अंग्रेजों और रियासती शासन के खिलाफ मुखर रहने वाले डॉ. परमार पहाड़ और पहाड़ियों के हितों के लिए भी हमेशा संजीदगी के साथ सक्रिय रहे। बात चाहे हिमाचल के गठन की हो या फिर पूर्ण राज्यत्व का दर्जा दिलाने की, उनके योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। कहते है सियासत महाठगिनी है, ये कब किस ओर पलट जाये कुछ कहा नहीं जा सकता। डॉ परमार के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। 28 जनवरी 1977 के दिन सियासत का पहिया घूमा और प्रदेश निर्माता डॉ यशवंत सिंह परमार को बतौर मुख्यमंत्री अपना त्याग पत्र देना पड़ा। जो शख्स चंद मिनटों पहले मुख्यमंत्री था, जिसने हिमाचल के निर्माण में अमिट योगदान दिया था, या यूँ कहे कि जिसकी वजह से हिमाचल का गठन संभव हो पाया था वो प्रदेश के मुख्यमंत्री नहीं रहे। इसके बाद यशवंत सिंह परमार शिमला बस स्टैंड पहुंचे, वहां खड़ी सिरमौर जाने वाली एचआरटीसी की बस में बैठे, टिकट लिया और अपने गांव बागथन के लिए रवाना हो गए। 18 साल तक मुख्यमंत्री रहने के बाद इस्तीफा देकर बस से वापस घर लौटने वाला सीएम, शायद ही हिन्दुस्तान में दूसरा कोई होगा। डॉ यशवंत सिंह परमार की ईमानदारी का इससे बड़ा प्रमाण क्या होगा, कि उनके अंतिम समय में उनके बैंक खाते में महज 563 रुपये और 30 पैसे थे। प्रदेश निर्माण करने वाले मुख्यमंत्री ने न तो खुद के लिए कोई मकान बनवाया, न कोई वाहन खरीदा और न ही अपने पद और ताकत का गलत इस्तेमाल कर अपने परिवार के किसी व्यक्ति या रिश्तेदार की नौकरी लगवाई। जज की नौकरी त्यागी और प्रजामण्डल आंदोलन में हुए शामिल रजवाड़ा शाही के दौर में सिरमौर रियासत के राजा के वरिष्ठ सचिव हुआ करते थे शिवानंद सिंह भंडारी। उन्हीं भंडारी के घर चार अगस्त 1906 को एक बालक का जन्म हुआ, जिसका नाम खुद राजा द्वारा यशवंत सिंह रखा गया। उनका जन्म बागथन क्षेत्र के चन्हालग गांव में हुआ था। यह गांव अब ग्राम पंचायत लानाबांका के तहत आता है। बचपन से ही यशवंत पढ़ाई में तेज थे। डॉ. परमार की माता का नाम लक्ष्मी देवी था। कहते है कि लोक संस्कृति और पारंपरिक खानपान के प्रति डॉ. यशवंत सिंह परमार का विशेष लगाव रहा तो यह उनकी मां से मिले संस्कार की बदौलत संभव हुआ। डॉ. परमार की शुरुआती शिक्षा शमशेर हाई स्कूल नाहन से हुई। क्षेत्र में उच्च शिक्षा के लिए कोई कॉलेज नहीं था, तो उन्होंने लाहौर के फोरमैन क्रिश्चियन कॉलेज दाखिला लिया। 1928 में बीए ऑनर्स किया। पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर से डिग्री लेने के बाद उन्होंने कैनिंग कॉलेज लखनऊ में प्रवेश लिया। लखनऊ के इस कॉलेज से समाज शास्त्र में एमए किया। इसके बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की डिग्री हासिल की। साथ ही डॉक्ट्रेट भी की। डॉक्ट्रेट का विषय था 'द सोशल एंड इकोनॉमिक बैक ग्राउंड ऑफ द हिमालयन पॉलिएड्री', यानी बहुपति प्रथा। खेर, शिक्षा पूर्ण करने के बाद परमार वापस अपने गृह क्षेत्र सिरमौर आ गए, जहां उन्हें सिरमौर रियासत में बतौर न्यायाधीश नियुक्त किया गया। 1937 से 1940 तक परमार जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यभार संभालते रहे। वर्ष 1941 में डॉ. परमार ने राज्य की सेवाओं से इस्तीफा दे दिया। दरअसल सिरमौर रियासत के सब-जज और बाद में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के पद पर पदोन्नति मिलने के बावजूद परमार ने गलत को गलत कहने से गुरेज़ नहीं किया। परमार ने रियासत के विरुद्ध ही एक क्रांतिकारी एवं निर्भीक निर्णय पारित किया जिसके कारण 1941 में सात वर्ष के लिए उन्हें निष्कासित कर दिया गया। ये वो दौर था जब ब्रिटिश हुकूमत के दिन ढलने लगे थे और आज़ादी का आंदोलन प्रखर हो रहा था। परमार भी आजादी के मतवालों के संपर्क में आ गए। इस दौरान शिमला हिल स्टेट्स प्रजामंडल का भी गठन हुआ, जिसमें परमार भी सक्रिय रूप से शामिल हो गए। आखिरकार 15 अगस्त 1947 को हिन्दुस्तान स्वतंत्र हो गया, किन्तु पहाड़ी रियासतों का हिन्दुस्तान में विलय नहीं हुआ। पंजाब हिल स्टेट के तहत पड़ने वाली पाँच बड़ी रियासतों-चम्बा, मंडी, बिलासपुर, सिरमौर और सुकेत के अलावा शिमला हिल स्टेट के नाम से जानी जाने वाली 27 छोटी रियासतों में गुलामी का अंधकार छाया रहा। परमार हमेशा चाहते थे कि इन रियासतों का भी विलय हो। यह उनकी दूरदर्शी सोच ओर अथक प्रयासों का ही परिणाम था कि 26 जनवरी 1948 को शिमला में आयोजित हुई सार्वजनिक सभा में एक ऐतिहासिक प्रस्ताव पारित कर राष्ट्रीय नेतृत्व से अनुरोध किया गया कि यहां की सभी पहाड़ी रियासतों को इकट्ठा करके, एक नए राज्य का गठन किया जाए। इसलिए कहलाते है प्रदेश निर्माता 28 जनवरी 1948 को सोलन के दरबार हॉल में 28 रियासतों के राजाओं की बैठक हुई जिसमें सभी ने पर्वतीय इलाकों को रियासती मंडल बनाने का प्रस्ताव पारित कर इसे 'हिमाचल' का नाम अनुमोदित किया गया। हालांकि डॉ परमार प्रदेश का 'हिमालयन एस्टेट' नाम रखना चाहते थे, किन्तु बघाट रियासत के राजा दुर्गा सिंह व अन्य कुछ राजा 'हिमाचल' नाम पर अड़ गए, जिसके बाद प्रदेश का नाम हिमाचल प्रदेश रखा गया। ये नाम पंडित दिवाकर दत्त शास्त्री द्वारा सुझाया गया था। बैठक के प्रजा मंडल का प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल से मिला और आखिरकार 15 अप्रैल, 1948 को 30 रियासतों को मिलाकर हिमाचल राज्य का गठन हुआ। तब इसे मंडी, महासू, चंबा और सिरमौर चार जिलों में बांट कर प्रशासनिक कार्यभार एक मुख्य आयुक्त को सौंपा गया। बाद में इसे 'सी' केटेगरी राज्य बनाया गया। पर डॉ परमार का सपना अभी अधूरा था। डॉ. परमार हिमाचल को पूर्ण राज्य बनाना चाहते थे, जिसके लिए अब वह अपने साथियों के साथ राजनीतिक संघर्ष में जुट गए। 1977 तक रहे सीएम देश के पहले आम चुनाव के साथ ही वर्ष 1952 में प्रदेश का पहला चुनाव हुआ, जिसके बाद डॉ परमार प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने और वर्ष 1977 तक मुख्यमंत्री रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ. परमार ने हिमाचल के चहुँमुखी विकास के लिए रात-दिन एक कर दिया। उठते-बैठते, सोते-जागते उन्हें इस पर्वतीय क्षेत्र को आधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित करने के साथ ही इसे एक सुदृढ़ रूप-आकार देने की धुन सवार रहती थी। इसी क्रम में उन्हें अपने ही प्रदेश के चम्बा जिला और महासू जिले के सोलन क्षेत्र में जाने के लिए दूसरे प्रदेश से होकर जाने की मजबूरी बहुत पीड़ा देती थी। इसके अतिरिक्त वे पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, लाहौल, स्पीति, शिमला तथा हिन्दीभाषी पर्वतीय क्षेत्रों के अपूर्ण विकास के प्रति भी अत्यधिक चिन्तित रहते थे। जहाँ चाह हो वहाँ राह न निकले, यह नहीं हो सकता। फलस्वरूप 1965 में हिमाचल तथा पंजाब के पर्वतीय क्षेत्रों का एकीकरण करते हुए पंजाब राज्य पुनर्गठन का प्रस्ताव लाया गया, लेकिन पंजाब के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रताप सिंह कैरों पंजाब के पर्वतीय क्षेत्र को हिमाचल में शामिल किये जाने के विरुद्ध थे। अंततः पंजाब राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिशों के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब राज्य का पुनर्गठन हुआ। इसके अनुसार पंजाब के कांगड़ा, कुल्लू, शिमला और लाहौल-स्पीति जिलों के साथ ही अंबाला जिले का नालागढ़ उप-मंडल, जिला होशियारपुर की ऊना तहसील का कुछ भाग और जिला गुरुदासपुर के डलहौजी व बकलोह क्षेत्र को हिमाचल में शामिल कर दिया गया। इस बीच नवंबर 1966 में पंजाब के पहाड़ी क्षेत्रों का भी हिमाचल में विलय हुआ और वर्तमान हिमाचल का गठन हुआ। आखिरकार 25 जनवरी,1971 का दिन आया और डॉ परमार का स्वप्न पूरा हुआ। तब इंदिरा गांधी देश की प्रधानमंत्री थी और उस दिन काफी बर्फबारी हो रही थी। इंदिरा गांधी बर्फबारी के बीच शिमला के रिज मैदान पहुंची और हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान करने की घोषणा की। डॉ. परमार 18 साल तक मुख्यमंत्री रहे। इस दौरान उन्होंने प्रदेश के विकास के लिए काफी काम किया। हिमाचल में सड़कों का जाल बिछाने का श्रेय यशवंत परमार को ही जाता है। वो सड़कों को पहाड़ की भाग्य रेखा कहते थे। इसके अलावा भी कई ऐसे काम किए जो हिमाचल के विकास और निर्माण में सहायक हुए। हिमाचलियों के हितों की रक्षा के लिए लागू की 118 आजकल धारा 118 को लेकर हिमाचल में खूब बवाल मचा है। धारा 118 डॉ परमार की ही देन है। डॉक्टर परमार से कुछ ऐसे लोग मिले थे, जिन्होंने अपनी जमीन बेच दी थी और बाद में वे उन्हीं लोगों के यहां नौकर बन गए थे। इसके चलते उन्हें डर था कि अन्य राज्यों के धनवान लोग हिमाचल में भूस्वामी बन जाएंगे और हिमाचल प्रदेश के भोले भाले लोग अपनी जमीन खो देंगे। इसलिए 1972 में हिमाचल प्रदेश में एक विशेष कानून बनाया गया था, ताकि ऐसा न हो। हिमाचल प्रदेश टेनंसी एंड लैंड रिफॉर्म्स एक्ट 1972 में एक विशेष प्रावधान किया गया ताकि हिमाचलियों के हित सुरक्षित रहें। इस एक्ट के 11वें अध्याय ‘कंट्रोल ऑन ट्रांसफर ऑफ लैंड’ में आने वाली धारा 118 के तहत ‘गैर-कृषकों को जमीन हस्तांतरित करने पर रोक’ है। सिर्फ तीन प्राथमिकताएं, सड़क , सड़क और सड़क डॉ. यशवंत सिंह परमार दूरदर्शी व्यक्तित्व के धनी थे। मुख्यमंत्री रहते उनसे जब केंद्र सरकार ने पूछा कि हिमाचल के लिए उनकी तीन प्राथमिकताएं क्या-क्या हैं तो वह बोले-सड़क, सड़क और सड़क। परमार मानते थे कि जब तक राज्य के गांवों की कनेक्टिविटी नहीं होगी, तब तक यहां पर विकास संभव नहीं है। सड़कें ही पहाड़ी राज्य में लाइफलाइन है और विकास के लिए पहली जरूरत भी। संजय गांधी की राजनीति में फिट नहीं बैठे डॉ परमार डॉ यशवंत सिंह परमार प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गांधी के करीबी थे। किन्तु कहा जाता है संजय गाँधी की राजनीति में वे फिट नहीं बैठे। वहीं इमरजेंसी के दौरान ठाकुर रामलाल संजय के करीबी हो गए, ऐसा इसलिए भी था क्योंकि संजय के नसबंदी अभियान में ठाकुर रामलाल ने बढ़चढ़ कर योगदान दिया था। इमरजेंसी हटने के बाद ठाकुर रामलाल ने अपने समर्थक विधायकों की परेड दिल्ली दरबार में करवा दी। इसके बाद डॉ परमार भी समझ गए कि अब बतौर मुख्यमंत्री उनका सफर समाप्त हो चुका है और उन्होंने इस्तीफा दे दिया। 2 मई 1981 को डॉ परमार ने अपनी अंतिम सांस ली। राजनीतिक सफर पर एक नजर 1946 में डॉ. परमार हिमाचल हिल्स स्टेटस रिजनल कॉउन्सिल के प्रधान चुने गए। 1947 में ग्रुपिंग एंड अमलेमेशन कमेटी के सदस्य व प्रजामंडल सिरमौर के प्रधान रहे। उन्होंने सुकेत आंदोलन में बढ़-चढक़र हिस्सा लिया और प्रमुख कार्यों में से एक रहे। 1948 से 1950 तक अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे। 1950 में हिमाचल कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने। अपने सक्षम नेतृत्व के बल पर 31 रियासतों को समाप्त कर हिमाचल राज्य की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो आज पहाड़ी राज्यों का आदर्श बनने की ओर अग्रसर है। डॉ. परमार 1952 में प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री बने। 1956 में वे संसद सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। 1962 में दोबारा प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। 24 जनवरी, 1977 को उन्होंने मुख्यमंत्री पद से त्याग पत्र दे दिया। इसके चार वर्ष पश्चात 2 मई, 1981 को हिमाचल के सिरमौर डॉ. परमार ने दुनिया को अलविदा कह दिया। लेखक भी थे परमार राजनीति के अलावा डॉ. परमार को साहित्य में दिलचस्पी थी। वो न सिर्फ़ किताबें पढ़ना पसंद करते थे, बल्कि ख़ुद भी एक लेखक थे। उन्होंने अपने जीवन में 8 किताबें लिखी। इनमें पालियेन्डरी इन द हिमालयाज, हिमाचल पालियेन्डरी इटस शेप एण्ड स्टेटस, हिमाचल प्रदेश केस फार स्टेटहुड और हिमाचल प्रदेश एरिया एण्ड लैंग्वेजेज जैसी नामक शोध आधारित पुस्तकें भी शामिल है। वह पर्यावरण प्रेमी थे। एक भाषण मे उन्होंने कहा था .. "वन हमारी बहुत बड़ी संपदा है, सरमाया है। इनकी हिफाजत हर हिमाचली को हर हाल में करनी है, नंगे पहाड़ों को हमें हरियाली की चादर ओढ़ाने का संकल्प लेना होगा। प्रत्येक व्यक्ति को एक पौधा लगाना होगा और पौधे ऐसे हो, जो पशुओं को चारा दे, उनसे बालन मिले और बड़े होकर इमारती लकड़ी के साथ आमदनी भी दे। वानिकी से पूरे प्रदेश मे संपन्नता आएगी।" ये है परमार का सत्यानंद स्टोक्स से कनेक्शन डॉ यशवंत सिंह परमार ने दो शादियां की। 26 जनवरी 1924 को चंद्रावती चौहान से उनका विवाह हुआ। उनके चार पुत्र है, जितेंद्र सिंह परमार, जयपाल सिंह परमार, लव परमार और कुश परमार थे। कुश परमार नाहन से विधायक रह चुके हैं। 1969 में चंद्रावती का निधन हो गया। इसके बाद वर्ष 1974 में डॉ यशवंत सिंह परमार ने सत्यवती डांग से दूसरी शादी की। सत्यवती हिमाचल में सेब लाने वाले सत्यानंद स्टोक्स की बेटी थी। वे भी विवाहिता थी और पहली शादी से उन्हें दो बेटियां थी। सत्यवती डांग भी कांग्रेस में सक्रिय थी और वे राज्यसभा सांसद भी रही है।
सिर्फ चार संसदीय सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में सियासत हमेशा किंग साइज रही है। देश की पहली स्वास्थ्य मंत्री राजकुमारी अमृत कौर इसी हिमाचल प्रदेश से सांसद थी। आपातकाल के बाद 1977 में इसी हिमाचल प्रदेश में प्रचंड बहुमत के साथ जनता पार्टी की सरकार बनी थी, जो 1980 में दल बदल की भेंट चढ़ गई। 1992 में हिमाचल भी उन चार राज्यों में शामिल था, जहाँ 6 दिसंबर को हुए बाबरी विध्वंस के बाद कानून व्यवस्था का हवाला देकर सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया था। यानी हिमाचल प्रदेश की सियासत में हमेशा रोमांच भरपूर रहा है। हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का गौरव अब तक 6 लोगों को मिला है। पहले मुख्यमंत्री डॉ वाईएस परमार जिला सिरमौर से थे। ठाकुर रामलाल और वीरभद्र सिंह जिला शिमला से, शांता कुमार जिला कांगड़ा से, प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर से और जयराम ठाकुर जिला मंडी से है। यानी प्रदेश के पांच जिलों को अब तक सीएम पद मिला है। अब 2022 के विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को ये तय होगा कि अगली सरकार किसकी बनेगी। यदि प्रदेश में भाजपा सरकार रिपीट करती है तो ये तय है कि अगले मुख्यमंत्री भी जयराम ठाकुर ही होंगे। वहीं अगर कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई तो सीएम पद के दावेदारों की फेहरिस्त लंबी है। कांग्रेस से अब तक सीएम रहे तीनों दिग्गज नेता अब इस दुनिया में नहीं है, सो ये तय है कि कांग्रेस सरकार बनी तो प्रदेश को बतौर सीएम नया चेहरा मिलेगा। हिमाचल प्रदेश में आखिरी बार 1985 में सरकार रिपीट हुई थी और वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने थे। उनके बाद कोई रिपीट नहीं कर पाया। हालांकि 1998 में वीरभद्र सिंह ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ली थी लेकिन बहुमत न होने के चलते उनको इस्तीफा देना पड़ा। प्रदेश में दो बार राष्ट्रपति शासन भी लगा है, एक बार 1977 में और एक बार 1992 में। 1977 में शांता कुमार के नेतृत्व में पहली बार गठबंधन सरकार बनी लेकिन पांच साल चली नहीं। 1990 में भी भाजपा और जनता पार्टी गठबंधन की सरकार बनी, पर वो भी पांच साल नहीं चली। फिर 1998 में बनी भाजपा -हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार वो पहली गठबंधन सरकार है जो पांच साल चल सकी। हिमाचल प्रदेश के इतिहास पर निगाह डालें तो आजादी के बाद 15 अप्रैल 1948 को हिमाचल अस्तित्व में आया। 26 जनवरी 1950 को हिमाचल को पार्ट सी स्टेट का दर्जा मिला। तब देश में दस पार्ट सी स्टेट थे जिनमें हिमाचल प्रदेश और बिलासपुर, दोनों शामिल थे। फिर 1 जुलाई 1954 को बिलासपुर हिमाचल का हिस्सा बना। इसके बाद 1 नवंबर 1956 को हिमाचल को केंद्र शासित प्रदेश बनाया गया। तदोपरांत 1 नवंबर 1966 को पंजाब के कई हिस्से कांगड़ा समेत हिमाचल में शामिल हुए। 18 दिसंबर 1970 को हिमाचल प्रदेश एक्ट पास किया गया और आखिरकार 25 जनवरी 1971 को हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिला। पार्ट सी स्टेट बनने के बाद 1952 से 1957 तक यशवंत सिंह परमार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। हालाँकि इस बीच हिमाचल प्रदेश नवंबर 1956 में टेरिटोरियल काउंसिल बन चुका था। 1957 में हुए चुनाव में कांग्रेस फिर बहुमत के साथ लौटी और ठाकुर करम सिंह टेरिटोरियल काउंसिल के चेयरमैन चुने गए। 1962 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1967 में हुए अगले चुनाव में भी ये कर्म जारी रहा। 1972 का चुनाव आते -आते हिमाचल को पूर्ण राज्य का दर्जा मिल चुका था और उस चुनाव में कांग्रेस एक बार फिर विजयी रही और यशवंत सिंह परमार मुख्यमंत्री बने। 1977 में बनी पहली गैर कांग्रेसी सरकार 1977 के विधानसभा चुनाव से पहले हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस का एकछत्र राज था। 1972 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 53 सीटें जीती थी और यशवंत सिंह परमार फिर मुख्यमंत्री बने थे। हालांकि 1977 आते -आते हालात बदल चुके थे। देश में लगे आपातकाल के बाद कांग्रेस को लेकर पूरे देश में गुस्सा था और हिमाचल प्रदेश भी इससे अछूता नहीं था। वहीँ चुनाव से कुछ दिन पूर्व ही कांग्रेस ने यशवंत सिंह परमार को हटाकर ठाकुर रामलाल को मुख्यमंत्री बना दिया था। तब तक प्रदेश में शांता कुमार की अगुवाई में जनता पार्टी भी अपने पाँव मजबूत कर चुकी थी। नतीजन विधानसभा चुनाव में जनता पार्टी को 53 सीटें मिली, जबकि कांग्रेस को महज 9। उस चुनाव में 6 निर्दलीय जीते थे। चुनाव के बाद शांता कुमार और रणजीत सिंह को बराबर विधायकों का समर्थन प्राप्त था और तब अपने ही वोट से शांता कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने। 1980 में अल्पमत में आ गई शांता सरकार 1977 में प्रचंड बहुमत के साथ बनी शांता कुमार की सरकार करीब तीन साल बाद अल्पमत में आ गई। तब जनता पार्टी के 22 विधायकों ने कांग्रेस का दामन थाम लिया और रही सही कसर निर्दलियों ने पूरी कर दी। ठाकुर रामलाल की जोड़ तोड़ के आगे शांता कुमार ने इस्तीफा दिया और फिल्म देखने चले गए। फिल्म का नाम था जुगनू। तब दल बदल कानून नहीं हुआ करता था। इस तरह 1980 में कांग्रेस सत्ता में लौटी और ठाकुर रामलाल दूसरी बार सीएम बने। पहले ही चुनाव में टक्कर दे गई भाजपा 1982 के चुनाव से पहले भाजपा का गठन हो चुका था। जनसंघ और आरएसएस विचारधारा के अधिकांश नेता अब भाजपा का चेहरा थे , जिनमें शांता कुमार भी शामिल थे। 1982 के चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में जबरदस्त टक्कर देखने को मिली। कांग्रेस ने उस चुनाव में 31 सीटें जीती जबकि भाजपा को 29 सीट मिली। जनता पार्टी 2 पर सिमट गई और 6 निर्दलीय विधायकों के हाथ में सत्ता की चाबी आ गई। ठाकुर रामलाल का गुणा भाग फिर काम कर गया और सत्ता कांग्रेस के पास ही रही। 1985 में वीरभद्र ने करवा दिया रिपीट 1985 आते -आते कांग्रेस के भीतर बहुत कुछ बदल चुका था। टिम्बर घोटाले के आरोपों के बीच 1983 में ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो चुके थे। इसके बाद 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद देशभर में कांग्रेस को लेकर सहानुभूति थी और लोकसभा चुनाव में पार्टी को इसका भरपूर लाभ मिला था। वीरभद्र सिंह भी स्थिति को भांप चुके थे और सियासी लाभ के लिए उन्होंने समय से पहले 1985 में ही चुनाव करवा दिए। कांग्रेस को इसका लाभ मिला और पार्टी 58 सीट जीतकर प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। ये आखिरी बार था जब प्रदेश में कोई सरकार रिपीट हुई। 1990 में प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आई भाजपा 1990 आते -आते भाजपा मजबूत हो चुकी थी और प्रदेश में वीरभद्र सरकार को लेकर एंटी इंकम्बेंसी व्याप्त थी। देश में राम मंदिर आंदोलन के स्वर भी उठ रहे थे। तब प्रदेश में भाजपा ने जनता पार्टी के साथ गठबंधन करके चुनाव लड़ा और इस गठबंधन को प्रचंड जीत मिली। भाजपा गठबंधन 57 सीटें जीतने में कामयाब रहा, जबकि कांग्रेस को महज 9 सीटें मिली। चुनाव के बाद शांता कुमार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। हालांकि 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार ने तब भाजपा शासित चार राज्यों की सरकारों को कानून व्यवस्था का हवाला देकर बर्खास्त कर दिया था, जिसमे शांता कुमार की सरकार भी थी। 1993 में कर्मचारी लहर भाजपा पर पड़ी भारी 1993 में कांग्रेस के लिए सत्ता की राह आसान थी। दरअसल मुख्यमंत्री रहते हुए शांता कुमार ने 'नो वर्क नो पे' का फरमान जारी कर प्रदेश के कर्मचारियों से पन्गा ले लिया था। जैसा अपेक्षित था कर्मचारी लहर में भाजपा टिक नहीं सकी और उसे महज आठ सीटों से संतोष करना पड़ा। खुद शांता कुमार चुनाव हार गए। उधर कांग्रेस को 52 सीटें मिली थी। तब पंडित सुखराम भी मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार थे, लेकिन वीरभद्र सिंह के सियासी तिलिस्म के आगे उनका अरमान पूरा नहीं हुआ। हिमाचल के इतिहास का सबसे रोचक चुनाव 1998 में वीरभद्र सिंह सत्ता वापसी को लेकर आश्वस्त थे और इसलिए उन्होंने समय से कुछ पहले ही चुनाव करवा दिए। उधर, तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह भी अलग हो चुकी थी और पंडित सुखराम अपनी अलग पार्टी हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन कर चुके थे। पंडित जी को कम आंकना ही शायद वीरभद्र सिंह की भूल थी। जब नतीजा आया तो पंडित सुखराम किंग मेकर की भूमिका में थे। तब तीन सीटों पर भारी बर्फबारी के कारण चुनाव नहीं हुए थे। कांग्रेस 31 सीटों पर जीती थी और बीजेपी 29। बीजेपी के एक विधायक का हार्ट अटैक से निधन हो गया था। भाजपा के एक बागी रमेश धवाला निर्दलीय चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और हिमाचल विकास कांग्रेस के पास चार विधायक थे। बहुमत का आंकड़ा 33 था और कांग्रेस के पास 31 विधायक थे। उधर पंडित सुखराम के समर्थन से भाजपा 33 का आंकड़ा को छू रही थी लेकिन एक विधायक के निधन ने उसका खेल बिगाड़ दिया था। सो सारी गणित आकर टिकी निर्दलीय रमेश धवाला पर। धवाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाएं। कहानी में ट्विस्ट अभी बाकी था। कहते है रमेश धवाला जब शिमला की तरफ आ रहे थे तो उनका एक तरह से अपहरण हो गया। फिर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में धवाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं और उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया। इसके बाद वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया और रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह चौथी बार सीएम बन गए। वीरभद्र सिंह ने जैसे -तैसे सरकार बना तो ली लेकिन सरकार चली नहीं। तब रमेश धवाला को मंत्री पद भी दिया गया और कहते है धवाला को मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। तब भाजपा के प्रभारी थे नरेंद्र मोदी। कहते है धवाला को सीएम हाउस के एक कर्मचारी के जरिये सन्देश भेजा गया और सचिवालय जाते वक्त धवाला गाड़ी के उतर कर भाजपा खेमे में चले गए। सब कुछ तय रणनीति के अनुसार फिल्मी अंदाज में हुआ। इसके बाद भाजपा ने सरकार बनने का दावा पेश किया। राज्यपाल ने पहले तो बीजेपी को मना कर दिया, पर कुछ दिन बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया और सरकार बनाने को आमंत्रित किया। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया जिसमें रमेश धवाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। वीरभद्र सिंह भी समझ चुके थे कि बाजी उनके हाथ से जा चुकी है। जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया। इस तरह राज्य में प्रेम कुमार धूमल की सरकार बन गई। मौसम साफ होने के बाद प्रदेश की तीन सीटों पर चुनाव हुआ और एक सीट पर उपचुनाव। इनमें से तीन सीटें भाजपा जीती और एक हिमाचल विकास कांग्रेस। ऐसे में कांग्रेस की रही -सही उम्मीद भी खत्म हो गई। 2003 : मैडम दिल्ली में थी, शिमला में विधायकों की परेड हो गई 2003 आते -आते प्रदेश के सियासी समीकरण बदल चुके थे। प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर थी और हिमाचल विकास कांग्रेस और भाजपा के बीच भी दूरियां दिखने लगी थी। उस चुनाव में कांग्रेस 43 सीटें जीतकर सत्ता में लौटी जबकि 16 सीटों पर सिमट कर रह गई। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस 49 सीटों पर चुनाव तो लड़ी लेकिन सिर्फ मंडी सदर सीट पर उसे जीत मिली थी। इस तरह कांग्रेस आसानी से सत्ता में लौटी। दिलचस्प बात ये है कि तब 1993 की तरह ही एक बार फिर कांग्रेस में सीएम पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। माना जाता है तब विद्या स्टोक्स पार्टी आलाकमान के करीब थी और नतीजों के बाद सीएम पद के लिए लॉबिंग भी शुरू कर चुकी थी। प्रदेश में माहौल बना कि शायद मैडम स्टोक्स सोनिया गांधी से अपनी नज़दीकी के बूते सीएम बनने में कामयाब हो जाएं। बताया जाता है कि तब मैडम स्टोक्स ने दिल्ली दरबार में विधायकों के समर्थन का दावा भी पेश कर दिया था। विद्या दिल्ली में थी और इधर वीरभद्र सिंह ने शिमला में अपना तिलिस्म साबित कर दिया। दरअसल तभी शिमला में वीरभद्र सिंह ने मीडिया के सामने अपने 22 विधायकों की परेड करा कर अपनी ताकत और कुव्वत का अहसास आलाकमान को करवा दिया। इसके बाद जो परेड में शामिल नहीं हुए उनमे से भी अधिकांश होलीलॉज दरबार में पहुंच गए। सो वीरभद्र सिंह पांचवी बार मुख्यमंत्री बन गए और प्रदेश को महिला सीएम मिलने का इंतज़ार खत्म नहीं हो सका। 2007 में भी कायम रहा परिवर्तन का रिवाज 2007 के विधानसभा चुनाव में भी प्रदेश में सत्ता परिवर्तन का रिवाज बरकरार रहा। भाजपा तब प्रो प्रेम कुमार धूमल के चेहरे पर चुनाव लड़ी तो कांग्रेस वीरभद्र सिंह के। सत्ता में आने पर दोनों ही तरफ सीएम फेस को लेकर कोई संशय नहीं था। तब सत्ता मिली भाजपा को और पार्टी 41 सीटें जीतने में कामयाब रही। वहीं कांग्रेस 23 सीटें ही जीत सकी। उस चुनाव में बहुजन समाज पार्टी भी दमखम से लड़ी। 67 सीटों पर चुनाव लड़ बहुजन समाज पार्टी ने सात प्रतिशत से ज्यादा वोट लिए। हालांकि पार्टी को सिर्फ एक सीट मिली, पर कई सीटों पर पार्टी ने कांग्रेस का खेल जरूर खराब किया। इस तरह प्रेम कुमार धूमल दूसरी बार मुख्यमंत्री बने। इसके बाद 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह ने एक बार फिर केंद्र की सियासत का रुख किया। वीरभद्र सिंह मंडी संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़े और सांसद बन गए। इसके बाद उन्हें केंद्र में मंत्री पद भी मिला। इस तरह रिकॉर्ड छठी बार सीएम बने वीरभद्र सिंह 2012 का चुनाव आते -आते वीरभद्र सिंह केंद्र से मंत्री पद त्याग कर प्रदेश में लौट आएं थे। जाहिर है वीरभद्र सिंह की नजर फिर सीएम पद पर थी। उधर कांग्रेस में काफी कुछ बदल चुका था। ठाकुर कौल सिंह मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे और प्रदेश में कांग्रेस की अगुवाई कर रहे थे। माना जाता है कांग्रेस आलाकमान भी बदलाव के मूड में था। पर वीरभद्र सिंह हार मानने वाले नहीं थे। इस खींचतान का असर कांग्रेस के प्रचार अभियान में भी दिख रहा था। फिर चुनाव से कुछ दिन पहले देखने को मिला वीरभद्र सिंह का मास्टर स्ट्रोक। शिमला में पत्रकार वार्ता कर वीरभद्र सिंह ने आलाकमान को दो टूक चेतावनी दी। उन्होंने कहा सोनिया गांधी चाहे तो सात दिन में कांग्रेस की स्थिति बेहतर हो सकती है। तब वीरभद्र सिंह ने कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और सेना नृत्य करेगी।' इशारा साफ था और आलाकमान भी समझ गया। आखिरकार आलाकमान झुका और वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया और वे छठी बार सीएम बने। तब कांग्रेस 36 सीटें जीतने में कामयाब रही। 2012 के बाद से ही देश का राजनीतिक परिदृश्य भी बदलने लगा। हालांकि 2013 में हुए मंडी संसदीय क्षेत्र के उपचुनाव में वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह जीत गई लेकिन 2014 की मोदी लहर में कांग्रेस लोकसभा की सभी चार सीटें हारी। भाजपा को तो जीता दिया पर धूमल हार गये 18 दिसंबर 2017 को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव के नतीजे आये और 44 सीटों के साथ भाजपा की सरकार बनी। पर पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो. प्रेम कुमार धूमल 1911 वोटों से परास्त हो गए। कहते है इस चुनाव में भाजपा की स्थिति अच्छी नहीं थी, इसी के चलते 30 अक्टूबर को राजगढ़ की रैली में अमित शाह ने धूमल को सीएम फेस घोषित किया। धूमल ने भाजपा को तो जीता दिया लेकिन जनता ने धूमल को ही हरा दिया। इस चुनाव में वीरभद्र कैबिनेट के पांच मंत्री हारे थे। नतीजों के बाद आई मुख्यमंत्री चुनने की बारी। धूमल का दावा हार का बावजूद मजबूत था। कई विधायक उनके लिए अपनी सीट छोड़ने की पेशकश कर रहे थे। किन्तु भाजपा आलाकमान बदलाव चाहता था और मौका मिला जयराम ठाकुर को। पांच बार के विधायक और वरिष्ठ नेता जयराम ठाकुर को लेकर कोई विद्रोह नहीं हुआ। इसके बाद कैबिनेट चुनते वक्त भी धूमल की राय को कुछ तवज्जो मिली। पर आहिस्ता-आहिस्ता जयराम ठाकुर मजबूत होते गए और धूमल गुट की उपेक्षा की खबरें सामने आने लगी। बहरहाल प्रदेश में विधानसभा चुनाव हो चुके है और आठ दिसम्बर को नतीजे सामने होंगे। अगली सरकार को लेकर अटकलों का दौर जारी है।1985 के बाद से चला आ रहा सत्ता परिवर्तन का रिवाज बदलता है या बरकरार रहता है, यह देखना रोचक होगा।
ऊर्जा मंत्री सुखराम चौधरी के निर्वाचन क्षेत्र पांवटा साहिब में क्या भाजपा पावर में रहेगी, इस पर सबकी निगाहें टिकी है। जयराम सरकार में कैबिनेट मंत्री सुखराम चौधरी इस सीट से छठी बार भाजपा टिकट के साथ मैदान में है। चौधरी ने 1998 में हार के साथ शुरुआत की थी लेकिन इसके बाद 2003 और 2007 में वे जीते। तब इस सीट का नाम पांवटा दून था, फिर 2008 में परिसीमन के बाद यह सीट पांवटा साहिब हो गयी। 2012 में उन्हें फिर हार का सामना करना पड़ा लेकिन 2017 में वे फिर जीते। इसके बाद वर्ष 2020 में हुए जयराम कैबिनेट के विस्तार में उन्हें मंत्री पद भी मिल गया। जाहिर है मंत्री पद के बाद लोगों की आशाएं भी उनसे बढ़ी है और इस बार इस सीट पर उनकी राह मुश्किल जरूर है। उधर, कांग्रेस ने फिर इस सीट से किरनेश जंग को मैदान में उतारा है। किरनेश पहली बार 2003 में लोकतान्त्रिक मोर्चा के टिकट पर चुनाव लड़े थे लेकिन हार गए थे। फिर 2007 में कांग्रेस के टिकट पर हारे। 2012 में कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया लेकिन वे निर्दलीय चुनाव जीतने में कामयाब रहे। पर 2017 में कांग्रेस टिकट पर फिर हार गए। ऐसे में इस बार कांग्रेस से उनके टिकट को लेकर संशय बना हुआ था लेकिन आखिरकार उन्हें पार्टी ने टिकट दे दिया। ये किरनेश जंग का पांचवा चुनाव है और उनके खाते में सिर्फ एक जीत है। स्वाभाविक है ऐसे में उनके लिए इस बार जीत बेहद जरूरी है। इस सीट पर आम आदमी के प्रत्याशी मनीष ठाकुर का जिक्र भी जरूरी है। मनीष युवा कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष रहे है और कांग्रेस छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए है। अब मनीष के होने से इस चुनाव में किसको कितना फर्क पड़ा है, ये विशेलषण का विषय जरूर है। अगर मनीष कांग्रेस के वोट में ज्यादा सेंध लगा गए है तो किरनेश की मुश्किलें बढ़ सकती है। निसंदेह मनीष ने भी दमखम से चुनाव लड़ा है और यहाँ उलटफेर की संभावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। इसके अलावा भारतीय जनता पार्टी के पूर्व महामंत्री मनीष तोमर, रोशन लाल चौधरी और सुनील कुमार चौधरी भी चुनावी मैदान में है। दिलचस्प बात ये है कि इस सीट से 9 उम्मीदवारों ने चुनाव लड़ा है। अब बात करते है ग्राउंड रियलिटी की। इस निर्वाचन क्षेत्र में बाहती बिरादरी का खासा प्रभाव है। सुखराम चौधरी भी इसी बिरादरी से आते है। पर इस बार इसी बिरादरी से रोशन लाल चौधरी और सुनील कुमार चौधरी भी चुनावी मैदान में है और अगर ये सुखराम के वोट बैंक में सेंध लगाने में कामयाब रहे है, तो यहाँ ऊर्जा मंत्री के लिए मुश्किल हो सकती है। भाजपा के पूर्व महामंत्री का चुनाव लड़ना भी उनके लिए चिंता का विषय जरूर रहा है। इस पर एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों का असर भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। बहरहाल पांवटा साहिब निर्वाचन क्षेत्र में मुकाबला कड़ा है और इस सीट पर कौन जीतता है , इसका अनुमान लगाना मुश्किल है।
'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर', 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब स्व. जीएस बाली के कभी समर्थक रहे अरुण कुमार 'कुक्का' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। दबंग नेता और वीरभद्र कैबिनेट में दमदार मंत्री रहे जीएस बाली इस तरह चुनाव हारेंगे, ये किसी ने नहीं सोचा था। पर तब चुनाव नजदीक आते -आते सियासी समीकरण कुछ ऐसे बदले कि बड़ा उलटफेर हो गया। कुक्का एक हजार वोट से जीते थे। इससे पहले वे 2012 में भी बाली के विरुद्ध चुनाव लड़े थे और तब वे करीब 2800 वोट से हारे थे। ये आंकड़ा बताता है कि नगरोटा बगवां की सियासी बैटल फील्ड में कुक्का को कमजोर योद्धा आंकना बड़ी भूल हो सकती है। अब आते है मौजूदा चुनाव पर। दिग्गज नेता जीएस बाली का पिछले वर्ष निधन हो गया था और उनके बाद उनकी सियासी विरासत को आगे बढ़ा रहे है उनके पुत्र आरएस बाली। वे पहले से ही सियासत में सक्रिय है और अब जीएस बाली के निधन के बाद उन्हीं को सीट से मैदान में उतरा गया है। आरएस बाली का मुकाबला उन्हीं अरुण कुमार कुक्का से है जिन्होंने पिछले चुनाव में उनके पिता को हराया था। क्षेत्र में उनको लेकर कुछ सहानुभूति भी दिखी है और स्व. जीएस बाली द्वारा करवाए गए विकास कार्यों का हिसाब किताब भी आरएस बाली को बखूबी याद है। ऐसे में वे दमदार तरीके से चुनाव लड़े है और जीत को लेकर आश्वस्त है। अब जनता ने इस बार आरएस बाली पर भरोसा जताया है या फिर भाजपा के अरुण कुमार 'कुक्का' पर भरोसा बरकरार रखा है, इस पर सबकी निगाहें टिकी हुई है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आना है,लेकिन इतना तय है कि ये मुकाबले कांटे का है। यहाँ जीत -हार का अंतर एक बार फिर बेहद कम हो सकता है।
** द्रंग में ठाकुर कौल सिंह की निगाह नौवीं जीत पर प्रदेश में अगर कांग्रेस की सरकार बनती है तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? इसका जवाब तो वक्त ही देगा लेकिन फिलवक्त कई ऐसे नाम है जिनको लेकर कयासबाजी जारी है। मुख्यमंत्री पद के इन्हीं दावेदारों में शामिल है कौल सिंह ठाकुर जो लगातार अपनी वरिष्ठता और अनुभव को लेकर सीएम पद के लिए दावा ठोक रहे है। करीब 50 साल लम्बे राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस के निष्ठावान सिपाही भी है। ऐसे में जाहिर है उनका दाव कमजोर नहीं माना जा सकता। पर मुख्यमंत्री बनने से पहले कौल सिंह ठाकुर को विधायक बनना होगा। इस बार फिर कौल सिंह द्रंग विधानसभा सीट से मैदान में है और उनकी सीट पर सबकी निगाहें टिकी है। यूँ तो द्रंग विधानसभा सीट कौल सिंह ठाकुर का गढ़ मानी जाती है। कौल सिंह ठाकुर द्रंग से कुल आठ बार चुनाव जीते है और ये ही वजह है कि ये सीट कांग्रेस का अभेद दुर्ग बनी रही। कौल सिंह ठाकुर पहली बार 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव जीते थे। इसके बाद वे कांग्रेस में शामिल हो गए। 1990 और 2017 के अलावा यहाँ हर बार कौल सिंह ठाकुर को ही जीत हासिल हुई है। 2017 के विधानसभा चुनाव में कौल सिंह भाजपा प्रत्याशी जवाहर ठाकुर से चुनाव हार गए थे। दरअसल तब ठाकुर कौल सिंह के खिलाफ उनके ही करीबी रहे पूर्ण चंद ठाकुर ने कांग्रेस से बगावत करके चुनाव लड़ा था, जिसका फायदा यहाँ भाजपा को मिला। अब द्रंग सीट से कौल सिंह ठाकुर एक बार फिर मैदान में है। उनके खिलाफ भाजपा ने यहां अपने सिटींग विधायक का टिकट काट कर पूर्ण चंद ठाकुर को मैदान में उतारा है। अब भाजपा का ये फैसला कितना सही साबित होगा ये तो वक्त ही बताएगा। बहरहाल, कौल सिंह ठाकुर का क्षेत्र में अपना जनाधार है और एक किस्म से वे सीएम पद पर दावे के साथ चुनाव लड़े है। इस बार वे जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। अब यदि समीकरण पक्ष में रहे और कौल सिंह ठाकुर चुनाव जीत गए तो उनकी निगाह निश्चित तौर पर 2012 का अपना अधूरा सपना पूरा करने पर होगी।
इतिहास तस्दीक करता है कि प्रदेश में जिसकी सरकार बनती है वो ही पार्टी चंबा में भी बाजी मारती है। आंकड़ों पर निगाह डाले तो भाजपा के अस्तित्व में आने के बाद 1982 से 2017 तक हिमाचल प्रदेश में 9 विधानसभा चुनाव हुए है। इनमें से आठ बार प्रदेश में उसी दल या गठबंधन की सरकार बनी है जिसने जिला चंबा में बढ़त हासिल की है। सिर्फ 2012 का विधानसभा चुनाव अपवाद है, जब भाजपा ने चंबा में तीन सीटें जीती लेकिन प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी। पिछले चुनाव की बात करे तो भाजपा ने शानदार प्रदर्शन करते हुए चार सीटें जीती थी, जबकि केवल एक सीट पर कांग्रेस को जीत मिली। इस बार जिला चम्बा के नतीजों पर सबकी निगाह रहने वाली है और इसके दो विशेष कारण है, पहला हर्ष महाजन और दूसरा कारण आशा कुमारी। वीरभद्र सिंह के करीबी रहे हर्ष महाजन की कुछ माह पूर्व ही बतौर प्रदेश कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष ताजपोशी हुई थी। पर किसी को भनक भी नहीं लगी और महाजन कांग्रेस के लिए रणनीति बनाते बनाते अचानक भाजपाई हो गए। उनका प्रभाव पुरे ज़िले में माना जाता है। ऐसे में उनके दल बदलने से किसको कितना नफा नुकसान होता है, ये देखना रोचक होगा। वहीं डलहौजी से कांग्रेस उम्मीदवार आशा कुमारी कांग्रेस सरकार आने की स्थिति में सीएम पद की दावेदार हो सकती है, इसके चलते भी चम्बा पर निगाह रहने वाली है। इस बार ये चेहरे मैदान में : वर्तमान चुनाव की बात करें तो इस बार चम्बा जिला में चार सीटिंग विधायकों में भाजपा ने दो के टिकट काटे है। भाजपा ने तीन पुराने उम्मीदवार मैदान में उतारे है। जबकि कांग्रेस ने चार पुराने प्रत्याशी उतारे है और एक नए चेहरे को मौका दिया है। अब देखना ये होगा कि क्या पिछली बार की तरह इस बार भी भाजपा चम्बा में अपने शानदार प्रदर्शन को बरकरार रख पाएगी या फिर कांग्रेस यहाँ बेहतर करेगी। हंसराज, पवन नय्यर, जिया लाल और विक्रम जरियाल, 2017 में जिला चम्बा से भाजपा टिकट पर जीत कर ये चार विधायक शिमला विधानसभा तक पहुंचे थे। पर इस बार इनमें से दो का रास्ता भाजपा ने टिकट आवंटन के साथ ही रोक दिया है। चुराह से हंसराज और भटियात से विक्रम जरियाल को तो भाजपा ने टिकट दिया, लेकिन चम्बा सदर से सीटिंग विधायक पवन नैय्यर और भरमौर से सीटिंग विधायक जियालाल का टिकट काट दिया। भरमौर से पार्टी ने डॉ जनकराज को मैदान में उतारा है तो सदर सीट पर नाटकीय घटनाक्रम के बाद निवर्तमान विधायक की पत्नी नीलम नय्यर को टिकट दिया है। यहां पार्टी ने पहले इंदिरा कपूर को टिकट दिया था लेकिन अंतिम समय में टिकट बदल दिया गया। इसके बाद इंदिरा कपूर ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है। वहीँ डलहौजी से भाजपा ने एक बार फिर आशा कुमारी के खिलाफ डीएस ठाकुर को ही मैदान में उतारा है। उधर, कांग्रेस में डलहौज़ी से सीटिंग विधायक आशा कुमारी सहित 2017 के चार उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है। इनमें सदर सीट से नीरज नय्यर, भरमौर से ठाकुर सिंह भरमौरी, भटियात से कुलदीप सिंह पठानिया शामिल है। जबकि चुराह सीट से पार्टी ने यशवंत खन्ना को मौका दिया है। कर्मचारी फैक्टर का दिखा असर : ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो चम्बा में कर्मचारियों की अच्छी तादाद है। यहां पुरानी पेंशन का मुद्दा भी हावी दिखा है। ऐसे में यहां नजदीकी मुकाबलों में कांग्रेस को एडवांटेज मिल सकता है।
** चुराह सीट पर इस बार कड़ा मुकाबला, कुछ भी मुमकिन ** यशवंत खन्ना ने दमदार तरीके से लड़ा है चुनाव दो बार चुराह से विधानसभा की राह पकड़ने वाले हंसराज क्या तीसरी बार विधानसभा पहुंच पाएंगे ? ये बढ़ा सवाल है। अक्सर चर्चा में रहने वाले विधानसभा उपाध्यक्ष और चुराह के सिटींग विधायक हंसराज को यहां से भाजपा ने एक बार फिर मैदान में तो उतार दिया, पर चुराह उन सीटों में से एक हो सकती है जहां इस बार बड़े चेहरे धराशाई हो सकते है। हालांकि यहां के क्षेत्रीय और जातीय समीकरण के लिहाज से हंसराज की जमीनी पकड़ को लेकर कोई संशय नहीं है, लेकिन यदि प्रदेश में सत्ता बदलाव के लिए मतदान हुआ है तो हंसराज भी इस लहर की चपेट में आ सकते है। परिसीमन बदलने से पहले चुराह विधानसभा सीट राजनगर के नाम से जानी जाती थी। इस सीट पर भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दलों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। ये वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व मंत्री विद्याधर की सीट रही है और वे तीन बार यहां से विधायक रहे। उनके बाद उनके पुत्र सुरेंद्र भारद्वाज यहां से 2003 और 2007 में विधायक रहे। फिर परिसीमन बदलने के बाद राजनगर सीट का नाम हुआ चुराह और 2012 में हंसराज पहली दफा यहाँ मैदान में उतरे और जीते भी। 2017 में भी हंसराज ने ही रिपीट किया। दोनों मौकों पर उन्होंने सुरेंद्र भारद्वाज को हराया। इस बार हंसराज तीसरी बार भाजपा मैदान में है। उधर दो बार हार का मुँह देखने के बाद इस बार कांग्रेस ने यहां से चेहरा बदल दिया। इस बार कांग्रेस ने एक नए चेहरे यशवंत सिंह खन्ना को मैदान में उतारा है। यशवंत को सीटिंग विधायक के खिलाफ एंटी इंकम्बैंसी और ओपीएस जैसे मुद्दों से तो आशा है ही, लेकिन साथ ही उन्होंने चुनाव भी बेहद मजबूती से लड़ा है। निसंदेह इस बार चुराह में हंसराज की राह आसान नहीं होने जा रही। इस सीट पर बेहद कड़ा मुकाबला है और नतीजे आने का इंतज़ार जारी है।
** त्रिकोणीय मुकाबले में मोहन लाल ब्राक्टा जीत को लेकर आश्वस्त रोहड़ू विधानसभा सीट, वो सीट है जो वीरभद्र सिंह की कर्मभूमि के नाम से जानी जाती है। रोहड़ू सीट पर हमेशा वीरभद्र सिंह का प्रभाव रहा है। बीते चालीस वर्षों में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी केवल 2009 के उपचुनाव में। आज भी इस सीट पर स्व वीरभद्र सिंह से बड़ा और असरदार कोई नाम नहीं दिखता। अब उनके बाद उनके परिवार के लिए भी रोहडू वालों के दिल में विशेष स्थान दिखता है। निसंदेह वीरभद्र फैक्टर अब भी रोहड़ू में बड़ा असर रखता है और कांग्रेस के मोहन लाल ब्राक्टा होलीलॉज के बेहद करीबी माने जाते है। ऐसे में जाहिर है कि इस बार भी वीरभद्र फैक्टर यहां ब्राक्टा के लिए संजीवनी साबित हो सकता है। भाजपा से शशि बाला एक बार फिर मैदान में है, लेकिन इस बार भी उनकी डगर कठिन नज़र आ रही है। उधर बतौर निर्दलीय मैदान में रहे राजेंद्र धीरटा की परफॉर्मेंस पर भी इस बार निगाह रहेगी। बड़ा दिलचस्प है रोहड़ू का इतिहास: रोहड़ू का इतिहास बड़ा दिलचस्प रहा है। यहां वीरभद्र सिंह ने 1990 से लेकर 2007 तक लगातार पांच बार जीत दर्ज की। इसके बाद ये सीट आरक्षित हो गई और वीरभद्र ने 2012 का चुनाव शिमला ग्रामीण से लड़ा। रोहड़ू विधानसभा क्षेत्र आरक्षित होने के बाद कांग्रेस ने यहां मोहन लाल ब्राक्टा को टिकट दिया और वे रिकार्ड मत लेकर जीते। 2017 में भी रोहड़ू से मोहन लाल ब्राक्टा की ही जीत हुई। बीते चालीस साल में भाजपा यहां सिर्फ एक बार जीती है, वो भी केवल 2009 के उपचुनाव में। दरअसल 2009 के लोकसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह मंडी से जीतकर सांसद बन गए और रोहड़ू में उपचुनाव हुआ। इस उपचुनाव में भाजपा में खुशीराम बालनाहटा विजयी रहे थे। उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी मनजीत सिंह ठाकुर को हराया था, पर उपचुनाव के दौरान लोगों से किए वादे भाजपा पूरा नहीं कर सकी और 2012 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले खुशी राम बालनाटाह तथा उनके समर्थकों ने भी भाजपा से किनारा कर लिया। अब इस बार फिर रोहड़ू में भाजपा की राह मुश्किल दिख रही है। मोहन लाल ब्राक्टा को लेकर क्षेत्र में कोई ख़ास एंटी इंकम्बेंसी भी नहीं दिखी है और यदि इस बार फिर वीरभद्र फैक्टर चलता है तो जाहिर है कि इसका सीधा लाभ ब्राक्टा को मिल सकता है। बहरहाल रोहड़ू में किसकी जीत होती है इसके लिए 8 दिसंबर का इंतजार है।
**त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा के सामने सीट बचाने की चुनौती इंदौरा वो सीट है जहाँ एक निर्दलीय उम्मीदवार ने भाजपा -कांग्रेस दोनों की धुकधुकी बढ़ाई हुई है। इस सीट से भाजपा के बागी मनोहर धीमान ने निर्दलीय चुनाव लड़ा है और इसमें कोई संशय नहीं है कि इसका असर दोनों तरफ के परंपरागत वोट पर भी दिख सकता है। यानी यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिला है। इंदौरा उन सीटों में से एक है जहाँ भाजपा ने इस बार भी महिला चेहरे को मैदान में उतारा है। भाजपा ने फिर मौजूदा विधायक रीता धीमान को टिकट दिया, हालाँकि भाजपा के इस फैसले के खिलाफ मनोहर धीमान ने मोर्चा खोल दिया और निर्दलीय मैदान में उतर गए। दरअसल इंदौरा में 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे। जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही थी। 2012 में जीत के बाद मनोहर लाल धीमान कांग्रेस के एसोसिएट विधायक रहे, लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव के करीब 6 माह पूर्व मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी, लेकिन भाजपा ने रीता धीमान पर ही दांव खेला। तब किसी तरह भाजपा ने मनोहर को मना लिया था। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। इस बार फिर भाजपा ने मनोहर को टिकट नहीं दिया लेकिन इस दफा पार्टी बगावत साधने में नाकामयाब रही और नाराज हो कर मनोहर धीमान भी बतौर निर्दलीय मैदान में उतरे है। पिछ्ले दो चुनावों में अंतर्कलह के कारण कांग्रेस को इस सीट पर हार का सामना करना पड़ा है, जबकि इस बार अंतर्कलह और बगावत के मर्ज से भाजपा ग्रस्त दिखी है। रीता धीमान को लेकर क्षेत्र में एंटी इंकम्बैंसी भी दिखती रही है। अब बगावत के साथ -साथ एंटी इंकमबैंसी ने यहाँ भाजपा की परेशानी जरूर बढ़ाई है। इस बीच कांग्रेस की बात करे तो कांग्रेस ने भी इस बार टिकट बदल कर मलेंद्र राजन को मैदान में उतारा है। मलेंद्र राजन ने 2012 में निर्दलीय चुनाव लड़ा था, हालाँकि तब उनकी जमानत तक नहीं बच पाई थी। पर तब से अब तक निसंदेह मलेंद्र राजन इस क्षेत्र में मजबूत जरूर हुए है। उधर भाजपा की बगावत का लाभ भी कांग्रेस को मिल सकता है। बहरहाल इस त्रिकोणीय मुकाबले में किसी को कम नहीं आँका जा सकता। इंदौरा में कांग्रेस को भाजपा की बगावत से आस है, तो मनोहर को साहनुभूति से। ऐसे में क्या भाजपा इस सीट को बचा पायेगी, फिलवक्त ये बड़ा सवाल है।
** मुश्किल हो सकती है भाजपा और आप की राह 'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
रिश्ते-नाते अपनी जगह है और सियासत अपनी जगह। कुछ ऐसा ही सूरत ए हाल सोलन सदर सीट का है। यहां चुनावी दंगल में इस बार भी ससुर दामाद आमने सामने है। कांग्रेस से डॉ कर्नल धनीराम शांडिल और भाजपा से डॉ राजेश कश्यप मैदान में है। गौरतलब है कि 2017 में भी मुख्य मुकाबला ससुर-दामाद के बीच ही देखने को मिला था तब ससुर ने दामाद को पटखनी दे कर जीत हासिल की थी जबकि इस बार दामाद जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है। खैर जीत का ताज किसके सर सजता है ये तो नतीजे आने के बाद ही पता लगेगा। बहरहाल सोलन में इस बार कड़ा मुकाबला तय है। सोलन का इतिहास भी बेहद रोचक रहा है। वर्ष 2000 में सोलन विधानसभा क्षेत्र में उपचुनाव हुआ था। तब अप्रत्याशित तौर पर पूर्व मंत्री महेंद्र नाथ सोफत का टिकट काट कर भाजपा ने डॉ राजीव बिंदल को टिकट दिया था, और पहली बार बिंदल विधायक बने थे। इसके बाद डॉ बिंदल ने 2003 और 2007 में भी जीत दर्ज की। 2007 से 2012 तक बिंदल मंत्री भी रहे और सोलन की राजनीति में उनका खूब डंका बजा। लेकिन 2012 में सोलन सीट आरक्षित हो गई तो डॉ राजीव बिंदल नाहन चले गए। इसके बाद से सोलन में भाजपा दो चुनाव हार चुकी है और दोनों बार कांग्रेस के कर्नल धनीराम शांडिल विधायक बने। 2012 में उन्होंने भाजपा की कुमारी शीला को हराया, तो 2017 में अपने दामाद और भाजपा उम्मीदवार डॉ राजेश कश्यप को। इस बार फिर ससुर- दामाद में मुकाबला हुआ है और कांटे की टक्कर में कुछ भी मुमकिन है। यूं तो सोलन भाजपा में गुट विशेष और डॉ राजेश कश्यप के बीच के मतभेद जगजाहिर है, लेकिन इस बार बाहरी तौर पर पार्टी एकजुट दिखी है। अब अगर ज्यादा भीतरघात नहीं हुआ है तो भाजपा यहाँ जीत का सूखा समाप्त कर सकती है। यहाँ डॉ राजेश कश्यप के लगातार पांच साल फील्ड में सक्रिय रहने का लाभ भी भाजपा को मिल सकता है। उधर कांग्रेस की बात करे तो लगातार दो चुनाव जीतने के बाद कर्नल शांडिल इस बार जीत की हैट्रिक लगाने की तैयारी में है। ओपीएस और कर्नल की क्लीन इमेज के बूते पार्टी फिर जीत को लेकर आश्वस्त है।
**दून में हमेशा हाई रहता है सियासी पारा, इस बार का भी नजदीकी मुकाबला मैदानी और पहाड़ी इलाकों में बटी दून विधानसभा सीट पर हमेशा सियासी पारा हाई ही रहा है। ये ऐसी सीट है जहाँ अक्सर चुनावी मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होता रहा है। इस बार भी समीकरण कुछ ऐसे ही दिखे है। यहां भाजपा से वर्तमान विधायक परमजीत सिंह पम्मी और कांग्रेस के राम कुमार चौधरी आमने-सामने है। बीते तीन दशक में दून विधानसभा सीट की राजनीति बेहद दिलचस्प रही है। 1990 की शांता लहर में जनता दल के टिकट पर चौधरी लज्जा राम विधायक चुन कर आये थे। पर 1993 आते -आते चौधरी लज्जा राम ने पार्टी बदल ली और कांग्रेस का हाथ थाम लिया। इसके बाद 1993, 1998 और 2003 के विधानसभा चुनाव में चौधरी लज्जा राम यहाँ से विधायक रहे। पर इसके बाद से दून में हर बार बदलाव हुआ है। 2007 के चुनाव में चौधरी लज्जा राम को भाजपा की विनोद चंदेल ने परास्त कर इस सीट पर पहली बार कमल खिलाया। फिर आया 2012 का बेहद रोचक चुनाव। कांग्रेस ने चौधरी लज्जा राम के पुत्र राम कुमार चौधरी को मैदान में उतारा, तो वहीँ भाजपा ने विनोद चंदेल को ही टिकट थमाया। इस मुकाबले में जीत राम कुमार चौधरी की हुई, पर दिलचस्प बात ये रही कि भाजपा चौथे पायदान पर रही। दरअसल, कांग्रेस और भाजपा दोनों ही दलों से बागी उम्मीदवार भी मैदान में थे। भाजपा के बागी दर्शन सिंह जहाँ 11 हज़ार से अधिक वोट लेकर दूसरे स्थान पर रहे, तो कांग्रेस के बागी परमजीत सिंह पम्मी भी 10 हज़ार से ज्यादा वोट ले गए और तीसरे स्थान पर रहे। इस बीच अगला चुनाव आते -आते समीकरण बदल गए। राम कुमार के रहते परमजीत सिंह पम्मी को कांग्रेस में भविष्य नहीं दिख रहा था, सो पम्मी ने भाजपा का दामन थाम लिया। जैसा अपेक्षित था 2017 में भाजपा ने पम्मी को मैदान में उतारा और कांग्रेस से एक बार फिर राम कुमार चौधरी मैदान में थे। इस मुकाबले में पम्मी ने जीत दर्ज की। अब फिर दून में ये दोनों आमने -सामने है। ये है वर्तमान स्थिति : मौजूदा चुनाव की बात करें तो मुख्य मुकाबला एक बार फिर राम कुमार चौधरी और परमजीत पम्मी के बीच दिख रहा है। पर इस बार पम्मी की राह कुछ मुश्किल जरूर हो सकती है। दरअसल इस क्षेत्र में भाजपा का एक खेमा पम्मी के खिलाफ दिखता रहा है। हालांकि पार्टी में बगावत तो नहीं हुई लेकिन भीतरघात की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता है। उधर कांग्रेस के राम कुमार चौधरी करीब एक साल पहले से ही चुनावी मूड में दिखे है जिसका लाभ उन्हें मिल सकता है। इसके अलावा एंटी इंकमबैंसी और ओपीएस जैसे फैक्टर भी कांग्रेस की आस का बड़ा कारण है। बहरहाल नतीजा आठ दिसंबर को आएगा और तब तक कयासों का सिलिसला जारी रहने वाला है।
** कसौली के त्रिकोणीय मुकाबले में स्वास्थ्य मंत्री डॉ सैजल का असल इम्तिहान ** दमखम से लड़े है विनोद सुल्तानपुरी, 'करो या मरो' का चुनाव ** हरमेल धीमान ने दोनों तरफ लगाई है सेंध, रोचक है जंग 2007 का विधानसभा चुनाव चल रहा था और कसौली विधानसभा सीट से वीरभद्र सरकार के पशुपालन मंत्री और पांच बार के विधायक रघुराज मैदान में थे। उनका मुकाबला था भाजपा के डॉ राजीव सैजल से। 36 साल के सैजल का ये पहला चुनाव था। पर कसौली की जनता ने रघुराज पर डॉ राजीव सैजल को वरीयता दी और डॉ सैजल चुनाव जीत गए। दरअसल मंत्री बनने के बाद कसौली वालों की अपेक्षाएं रघुराज से बढ़ गई थी और इन्ही अपेक्षाओं का बोझ उन पर भारी पड़ा। तब जीत के साथ आगाज करने वाले डॉ सैजल अब तक जीत की हैट्रिक लगा चुके है और इस बार जीत का चौका लगाने के इरादे से मैदान में है। खास बात ये है कि इस बार डॉ राजीव सैजल भी मंत्री रहते हुए चुनाव लड़े है और उनसे भी जनता की बेशुमार अपेक्षाएं रही है। जाहिर है ऐसे में ये चुनाव डॉ राजीव सैजल के आसान बिल्कुल नहीं रहा है। सैजल ने दमखम के साथ चुनाव लड़ा है और ऐसे में अब देखना ये होगा कि क्या डॉ सैजल जनता का दिल चौथी बार जीत पाएं है। यूँ तो कसौली निर्वाचन क्षेत्र लम्बे अर्से तक कांग्रेस का गढ़ रहा है। 1982 से 2003 तक हुए 6 विधानसभा चुनावों में से पांच कांग्रेस ने जीते और पांचों बार प्रत्याशी थे रघुराज। सिर्फ 1990 की शांता लहर में एक मौका ऐसा आया जब रघुराज भाजपा के सत्यपाल कम्बोज से चुनाव हारे। इसके बाद 2007 से इस सीट पर सैजल ही जीतते आ रहे है और इस बार भी पार्टी ने उन्हीं पर भरोसा जताया है। उधर डॉ सैजल के विरुद्ध लगातार दो चुनाव मामूली अंतर से हारने वाले विनोद सुल्तानपुरी को कांग्रेस ने तीसरा मौका दिया है। जाहिर है ऐसे में विनोद के लिए ये 'करो या मरो' वाला चुनाव रहा है और इसकी झलक उनकी जमीनी मेहनत में भी दिखी है। पिछले दोनों ही मौकों पर कांग्रेस की अंतर्कलह सुल्तापुरी को भारी पड़ी थी लेकिन इस बार कांग्रेस भी मोटे तौर पर एकजुट दिखी है और चुनाव प्रबंधन भी बेहतर दिखा है। ऐसे में जाहिर है इस बार विनोद का दावा हल्का नहीं है। कसौली के चुनाव को इस बार त्रिकोणीय बनाया है हरमेल धीमान ने। कसौली भाजपा के वरिष्ठ नेता व भाजपा एससी मोर्चा के पूर्व प्रदेश उपाध्यक्ष रहे हरमेल धीमान ने कुछ माह पूर्व भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया था और आप प्रत्याशी के तौर पर दमखम से चुनाव लड़ा है। नतीजा जो भी रहे पर हरमेल धीमान इस चुनाव में बड़ा अंतर डाल गए है। जानकार मानते है कि हरमेल धीमान ने सिर्फ एकतरफ सेंध नहीं लगाई, बल्कि दोनों ओर फर्क डाला है। ऐसे में जाहिर है कसौली का चुनाव इस बार बेहद दिलचस्प है।
** भाजपा ने सुरेश भारद्वाज की जगह संजय सूद को दिया टिकट ** कांग्रेस में इस बार बागी नहीं, सीपीआईएम भी मैदान में शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र वर्तमान शहरी विकास मंत्री सुरेश भारद्वाज का गढ़ रहा है। भारद्वाज इस क्षेत्र से चार बार चुनाव जीत चुके है। मगर इस बार भाजपा ने भारद्वाज का टिकट बदल कर उन्हें कसुम्पटी विधानसभा क्षेत्र भेज दिया। भारद्वाज ने कसुम्पटी से चुनाव लड़ा और शिमला शहरी से भाजपा ने एक नए चेहरे संजय सूद को मैदान में उतार दिया। एक चाय वाले यानी भाजपा प्रत्याशी संजय सूद के मैदान में होने से शिमला शहरी सीट के चर्चे प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश में हुए। वहीं कांग्रेस ने भी पिछली बार की अपनी गलती को सुधारा है और हरीश जनारथा को मैदान में उतारा है। जबकि इस बार माकपा ने इस विधानसभा क्षेत्र से टिकेंद्र पंवर को मैदान में उतारा है। 2017 में इस विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस ने आनंद शर्मा के करीबी हरभजन भज्जी को टिकट दिया था। इस बात से नाराज होकर वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कांग्रेस नेता हरीश जनारथा ने बगावत की और निर्दलीय तौर पर मैदान में उतर गए। केवल हरीश जनारथा ही इस टिकट आवंटन से असंतुष्ट नहीं थे, बल्कि कई पार्षद ओर कांग्रेस के कई कार्यकर्त्ता भी उनके साथ खड़े हो गए थे। इसके अलावा माकपा की ओर से शिमला नगर पालिका के पूर्व महापौर संजय चौहान भी मैदान में थे। तब जीत बीजेपी प्रत्याशी सुरेश भारद्वाज की हुई, जबकि दूसरे स्थान पर निर्दलीय प्रत्याशी हरीश जनारथा रहे। सुरेश भारद्वाज को कुल 14,012 मत मिले, जबकि जनार्था को 12,109 मत मिले। तीसरे स्थान पर माकपा के संजय चौहान रहे थे, जबकि कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी सिर्फ 2680 मत पाकर चौथे स्थान पर रहे थे। बीते चुनाव में यहां कांग्रेस अपनी ज़मानत भी नहीं बचा पाई थी, मगर इस बार हालत बदले हुए है। जीत की हैट्रिक लगा चुके है भारद्वाज : शिमला शहरी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा का खासा प्रभाव दिखता रहा है। इस क्षेत्र में साल 1967 से 1982 तक चार बार दौलत राम विधायक रहे। इसके बाद 1985 में हुए चुनाव में इस सीट से कांग्रेस प्रत्याशी हरभजन सिंह भज्जी विधायक बने। साल 1990 में इस क्षेत्र से सुरेश भारद्वाज बतौर भाजपा प्रत्याशी पहली बार विधायक बने। साल 1993 में माकपा के तेज़तर्रार नेता राकेश सिंघा भी शिमला से विधायक रह चुके है। 1996 में हुए उपचुनाव में इस क्षेत्र में कांग्रेस की जीत हुई और आदर्श कुमार विधायक बने। इसके बाद 1998 में हुए चुनाव में भाजपा से नरेंद्र बरागटा की जीत हुई। साल 2003 में कांग्रेस ने एक बार फिर हरभजन सिंह भज्जी को टिकट दिया और वे ये चुनाव जीत गए। इसके बाद 2007 , 2012 और 2017 के चुनाव में लगातार भाजपा से सुरेश भारद्वाज ही विधायक चुन कर आते रहे है। मौजूदा चुनाव की बात करें तो यहां भाजपा ने नए उम्मीदवार संजय सूद को मैदान में उतारा है। सम्भवतः भाजपा को लगा हो कि सुरेश भारद्वाज के लिए क्षेत्र में एंटी इंकम्बैंसी है और इसी लिए पार्टी ने ये फेरबदल किया है। वहीं कांग्रेस ने हरीश जनारथा को मैदान में उतारा है जो लगातार सक्रीय रहे है। कांग्रेस से इस बार कोई बागी मैदान में नहीं है जिसका लाभ पार्टी को होता दिख रहा है। यहां सीपीआईएम भी मौजूदगी दर्ज करवाती दिख रही है। बहरहाल यहां हरीश जनारथा इस बार जीत को लेकर आश्वस्त दिख रहे है।
** गोविन्द सिंह ठाकुर के लिए मुश्किल हो सकती है विधानसभा पहुंचने की डगर चुनाव को लेकर सबकी अपनी राय और अपने -अपने विश्लेषण है, लेकिन मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर के निर्वाचन क्षेत्र मनाली में इस बार भाजपा की स्थिति ज्यादा सहज नहीं होने वाली, इसके संकेत काफी वक्त पहले ही मिल गए थे। दरअसल, पिछले वर्ष हुए मंडी संसदीय उपचुनाव में इस क्षेत्र से मंत्री भाजपा को लीड नहीं दिला पाए थे। क्षेत्र में मंत्री को लेकर एंटी इंकम्बेंसी की झलक भी दिखती रही। ऐसे में माना जा रहा था कि भाजपा इस सीट पर कोई प्रयोग कर सकती है, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भाजपा ने फिर एक बार मनाली से ट्राइड एंड टेस्टेड गोविंद ठाकुर को ही मैदान में उतारा है। अब सीट पर भाजपा के साथ -साथ गोविन्द सिंह ठाकुर की भी साख दांव पर लगी हुई है। बहरहाल, लगातार दो चुनाव जीत चुके गोविन्द सिंह ठाकुर जीत की हैट्रिक लगा पाते है या इस बार मनाली में परिवर्तन होता है, ये तो आठ दिसम्बर को ही तय होगा। मनाली विधानसभा सीट के अतीत पर निगाहें डाले तो, 2008 में परिसीमन बदलने के बाद कुल्लू से अलग होकर मनाली विधानसभा सीट अस्तित्व में आई। मनाली में अब तक कुल दो बार विधानसभा चुनाव हुए है और दोनों दफा यहाँ भाजपा का राज रहा। 2012 में कुल्लू के पूर्व विधायक रहे गोविंद सिंह ठाकुर ने मनाली विधानसभा सीट पर भाजपा की टिकट पर चुनाव लड़ा और तब कांग्रेस के भुवनेशवर गौड़ को हरा कर विधानसभा पहुंचे। फिर 2017 में गोविन्द सिंह ठाकुर ने कांग्रेस के हरिचंद शर्मा को हरा कर जीत दर्ज की। माना जाता है कि बीते दोनों चुनावों में यहाँ कांग्रेस की आपसी कलह के चलते भाजपा को लाभ पहुंचा। 2017 में जीतने के बाद ठाकुर को मंत्री पद भी मिल गया। जयराम कैबिनेट में पहले उन्हें वन, खेल व परिवहन जैसे महत्वपूर्ण विभाग सौंपे गए और फिर शिक्षा मंत्रालय उन्हें सौंपा गया। वे मंत्री बने तो जाहिर है उनसे लोगों की अपेक्षाएं भी बढ़ी। अब इन अपेक्षाओं पर वे खरा उतरे या नहीं, ये इस चुनाव के नतीजे तय करेंगे। उधर कांग्रेस से इस बार भुवनेश्वर गौड़ मैदान में है और कांग्रेस काफी हद तक एकजुटता से चुनाव लड़ती दिखी है। इस पर ओपीएस और एंटी इंकम्बेंसी का लाभ भी कांग्रेस को हो सकता है। जाहिर है ऐसे में इस मर्तबा गोविन्द सिंह ठाकुर के लिए विधानसभा की डगर कठिन है।
भाजपा का मास्टरस्ट्रोक या सबसे बड़ी भूल? आखिर क्यों बदला गया मंत्री सुरेश भारद्वाज का निर्वाचन क्षेत्र ? शिमला शहरी सीट पर जीत की हैट्रिक लगाने वाले भारद्वाज को आखिर कसुम्पटी क्यों भेजा गया ? क्या कसुम्पटी में पार्टी को दमदार चेहरे की थी दरकार, या फिर कुछ और है माजरा ? जब भाजपा ने प्रत्याशियों की सूची जारी की, तो दो मंत्रियों का टिकट बदल देना आसानी से किसी के गले से नहीं उतरा। जिन दो मंत्रियों के हलके बदले गए है उनमें मंत्री सुरेश भारद्वाज भी शामिल थे। शिमला शहरी सीट से सुरेश भारद्वाज चार बार विधायक रहे है पिछले तीन चुनाव भारद्वाज लगातार जीते है। सबसे पहले 1990 में भारद्वाज शिमला शहर से विधायक बने उसके बाद लगातार 2007 से 2017 तक भारद्वाज ने शिमला शहरी सीट पर राज किया। इसके बावजूद भी भाजपा ने भारद्वाज को कसुम्पटी ट्रांसफर कर दिया। कुछ लोग मानते है कि इस बदलाव का कारण कसुम्पटी में लगातार हार रही भारतीय जनता पार्टी को मजबूत करना है, तो कुछ का मानना है कि भारद्वाज को लेकर शिमला शहरी में पर्याप्त एंटी इंकम्बेंसी का अंदेशा भाजपा को था और इसलिए भाजपा ने यहाँ किसी नए चेहरे को उतारना वाजिब समझा। बहरहाल अब मतदान हो चुका है और अब कसुम्पटी में भारद्वाज का सीधा मुकाबला कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह से है। वही अनिरुद्ध सिंह जो इस बार जीत की हैट्रिक लगाने को आश्वस्त दिख रहे है और उनके समर्थक लगातार उन्हें मंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। अब कसुम्पटी में अनिरुद्ध सिंह जीत की हैट्रिक लगाते है या सुरेश भारद्वाज अपनी प्रतिष्ठा को बरकरार रख पाते है, ये तो नतीजे आने के बाद ही पता चलेगा। अतीत पर निगाह डालें तो कसुम्पटी में भाजपा के लिए राह आसान नहीं दिख रही है। आखिरी बार रूप दास कश्यप ने यहां 1998 में भाजपा को जीत दिलाई थी, लेकिन 2003 में रूप दास कश्यप करीब तीन हजार वोट के अंतर से हार गए। तब निर्दलीय सोहन लाल ने जीत दर्ज की थी। ये आखिरी मौका था जब भाजपा कुसुम्पटी में मुकाबले में दिखी। इसके बाद हुए तीन चुनाव में भाजपा तीन उम्मीदवार बदल चुकी है और तीनों बार पार्टी को शिकस्त ही मिली है। 2007 में पार्टी ने तरसेम भारती को टिकट दिया, लेकिन भारती करीब साढ़े सात हजार मतों के अंतर से हारे। 2012 में भाजपा ने प्रेम सिंह को और 2017 में विजय ज्योति को मैदान में उतारा और दोनों करीब दस हजार के अंतर से हारे। इन दोनों ही मौकों पर कांग्रेस के अनिरुद्ध सिंह का कसुम्पटी में शानदार प्रदर्शन रहा। लगातार 10 साल तक विधायक रहने के बाद भी अनिरुद्ध सिंह को लेकर कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं दिख रही है। कसुम्पटी में अनिरुद्ध सिंह का सरल स्वभाव लोगों को पसंद है और वे लगातार जनता के बीच भी रहे है। अनिरुद्ध ने इस बार भी चुनाव पूरे दमखम से लड़ा है और कांग्रेस इस क्षेत्र में सहज दिखाई दे रही है। उधर सुरेश भारद्वाज को लेकर विरोध के स्वर भी उठते रहे है। हालांकि समय रहते पार्टी द्वारा बगावत को तो साध लिया गया, लेकिन भीतरघात की संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में अब अगर कसुम्पटी में भाजपा बेहतर नहीं कर पाती है तो टिकट आवंटन को लेकर तो सवाल उठेंगे ही, साथ ही सुरेश भारद्वाज की साख भी यहां दांव पर लगी हुई है।
'प्रदेश का मुख्यमंत्री कैसा हो, सुक्खू भाई जैसा हो' ,चुनाव प्रचार के दौरान नादौन विधानसभा क्षेत्र में ये नारा खूब बुलंद रहा। इस बार सुखविंद्र सिंह सुक्खू के समर्थक उन्हें भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देख रहे है। नादौन में जहाँ भी सुक्खू प्रचार के लिए पहुंचे, समर्थक ये ही नारा दोहराते दिखे। इस बार कांग्रेस ने बेशक सामूहिक नेतृत्व में और बगैर सीएम फेस के चुनाव लड़ा है ,लेकिन इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है और नादौन विधानसभा सीट से सुखविंद्र सिंह सुक्खू चुनाव जीत कर आते है तो मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सुक्खू का दावा बेहद मजबूत है। नादौन की सियासी फ़िज़ाओं में सुगबुगाहट तेज़ है कि मुमकिन है इस बार नादौन विधानसभा क्षेत्र को मुख्यमंत्री मिल जाएँ। ऐसे में जाहिर है इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि भावी सीएम फैक्टर का लाभ इस चुनाव में सुक्खू को मिला हो। नादौन के इतिहास की बात करें तो नादौन विधाभसभा सीट यूँ तो कांग्रेस का गढ़ रही है। यहां से नारायण चंद पराशर तीन बार विधायक रहे। नारायण चंद पराशर के बाद सुखविंद्र सिंह सुक्खू ने इस सीट पर राज किया है। 2003 से अब तक सुखविंद्र सिंह सुक्खू नादौन सीट पर तीन बार जीत चुके है, हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव में सुक्खू को 6750 मतों के अंतर से हार का सामना करना पड़ा था। पर फिर 2017 में सुक्खू ने जीत हासिल की। कांग्रेस में सुक्खू के अलावा कभी कोई अन्य चेहरा विकल्प के तौर पर नहीं उभरा। इस बीच भाजपा की बात करे तो एक बार फिर विजय अग्निहोत्री मैदान में है। अग्निहोत्री एक दफा सुक्खू को पटकनी भी दे चुके है और इस बार फिर मैदान में डटे हुए है। नादौन में भाजपा के लिए ऐसा भी कहा जाता है कि अगर यहां भाजपा एकजुट हो जाए तो शायद कांग्रेस की राह इतनी आसान न हो। अब भाजपा एकजुट है या नहीं ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वहीँ इस बार आम आदमी पार्टी ने नादौन के सियासी समीकरण ज़रूर बदले है। दरअसल इस बार आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी शैंकी ठुकराल ने पुरे दमखम के साथ चुनाव लड़ा है। अब देखना ये होगा कि शैंकी किसके वोट बैंक में कितनी सेंध लगाते है। नादौन में फिलवक्त सुक्खू जीत को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है। सुक्खू ने भावी सीएम के टैग के साथ चुनाव लड़ा है। ऐसे में जाहिर है इसका लाभ भी उन्हें मिलता दिख रहा है। बहरहाल, जनादेश ईवीएम में कैद है और सभी अपनी -अपनी जीत का दावा कर रहे है।
'कांग्रेस आ रही है' पार्टी के होर्डिंग्स और प्रचार सामग्री पर छापा ये नारा अब पार्टी के नेताओं की जुबां पर आ गया है और पुरे आत्मवश्वास के साथ पार्टी के तमाम बड़े नेता दो तिहाई बहुमत के साथ सत्ता वापसी का दावा कर रहे है। कांग्रेस के तमाम दिग्गज एक सुर में रिवाज बदलने का सियासी राग दोहरा रहे है। रिकॉर्ड मतदान और प्रदेश का सियासी इतिहास भी कांग्रेस के दावे को मजबूत करता है। इसके अलावा माहिर मानते है कि पुरानी पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे भी संभवतः कांग्रेस के पक्ष में गए है। बेहतर टिकट आवंटन और सीमित बगावत भी कांग्रेस के दावे को और बल दे रहे है। यानी कोई बड़ा उलटफेर नहीं हुआ तो कहा जा सकता है कि कांग्रेस आ सकती है। हालांकि, जनादेश आठ दिसंबर को आएगा और तब तक इन दावों और विश्लेषणों में कितना दम है, इसके लिए इंतजार करना होगा। बहरहाल, अगर कांग्रेस सात में आई तो मुख्यमंत्री कौन बनेगा, ये फिलवक्त सबसे बड़ा और पेचीदा सवाल है। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में एक से बढ़कर एक दिग्गज नेता है, सब सियासी महारथी और सब दावेदार। कम से कम आठ चेहरे ऐसे है जिनका नाम उनके समर्थक खुलकर मुख्यमंत्री के लिए प्रोजेक्ट कर रहे है। हालांकि ये तमाम नेता खुद शांत है और उम्मीद से विपरीत इस अनुशासन के लिए निसंदेह पार्टी बधाई की हकदार भी है। वरना वीरभद्र सिंह के निधन के बाद एक बड़ा वर्ग ये मानता था कि पार्टी में 'अपनी डफली अपना राग' की स्थिति खुलकर सामने आ जाएगी। हिमाचल प्रदेश कांग्रेस को लेकर सबसे बड़ा सवाल ये था कि पार्टी किसके चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। पर कांग्रेस ने सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने का निर्णय लिया और लड़ा भी। आगे भी ये एकजुटता और अनुशासन कायम रह पाता है या नहीं, ये तो समय के गर्भ में छिपा है पर चुनाव तक तो कांग्रेस ने कमाल कर के दिखा ही दिया। अब ज्यूँ ज्यूँ नतीजों का दिन नजदीक आ रहा है, पार्टी के भीतर की खलबली मचना स्वाभविक है। जाहिर है कई दिग्गज नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी पर निगाह गड़ाएं हुए है और अब पार्टी आलाकमान का आशीर्वाद और समर्थक विधायकों का संख्याबल ये तय करेगा कि किसके अरमान पूरे होते है। पार्टी में मुख्यमंत्री पद के दावेदारों की बात करें तो प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू, नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री, वरिष्ठ नेता कौल सिंह ठाकुर, रामलाल ठाकुर और आशा कुमारी वो प्रमुख नाम है जिनके समर्थक खुलकर उन्हें मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट कर रहे है। इनके अलावा एक और नाम समर्थकों द्वारा जमकर प्रोजेक्ट किया जा रहा है, वो है युवा नेता विक्रमादित्य सिंह। हालांकि ये वर्तमान स्थिति में व्यावहारिक नहीं लगता, पर इससे विक्रमादित्य की लोकप्रियता का अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है। बहरहाल मौजूदा परिवेश में नजर डाले तो सीएम पद की दौड़ में शामिल इन नेताओं में से किसकी इच्छा पूरी होती है, ये समर्थक विधायकों का संख्याबल भी तय करेगा। पार्टी के भीतर इसे लेकर सिसायत जरूर चरम पर है, पर सुखद बात ये है कि पार्टी के भीतर की ये सियासत अनुशासन के दायरे में हो रही है। 5नए सियासी गठजोड़ संभव कांग्रेस के टिकट आवंटन पर निगाह डाले तो होलीलॉज के निष्ठावानों के अलावा सबसे ज्यादा टिकट सुक्खू कैंप को मिले है। दोनों तरफ के निष्ठवानो में से किसके कितने समर्थक जीतकर आते है, ये सीएम पद के चयन के लिहाज से महत्वपूर्ण होगा। इन दोनों के बीच ठाकुर कौल सिंह भी है जो जिला मंडी में कांग्रेस की प्रचंड जीत का दावा कर रहे है। कौल सिंह और होलीलॉज का सियासी गठजोड़ एक बार फिर मुमकिन है और ऐसे में प्रतिभा सिंह या ठाकुर कौल सिंह का दावा मजबूत हो सकता है। जानकार मान रहे है कि अगर प्रतिभा सिंह के नाम पर सहमति नहीं बनती है तो होलीलॉज, कौल सिंह ठाकुर के साथ जा सकता है। हालांकि ये सिर्फ कयास है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री भी होलीलॉज के करीबी रहे है, ऐसे में उनका नाम भी खारिज नहीं किया जा सकता। आशा कुमारी भी दावेदार है और संभवतः होलीलॉज कैंप के साथ ही आगे बढ़ रही है। उधर सुखविंद्र सिंह सुक्खू तो अपने समर्थकों के साथ मजबूत दिख ही रहे है। रामलाल ठाकुर और हर्षवर्धन चौहान जैसे अन्य नेता किस रणनीति पर आगे बढ़ते है, ये देखना भी रोचक होगा। क्या होलीलॉज के समानांतर एक और सियासी गठजोड़ होता है या नहीं, ये देखना दिलचस्प होने वाला है। क्या होलीलॉज निष्ठावानों की गिनती भी कम -ज्यादा होगी, इस पर भी निगाह टिकी है। कमतर नहीं दिख रहे सुक्खू अपनी शर्तों पर सियासत करते आएं सुखविंद्र सिंह सुक्खू के दावे को कमतर आंकना किसी के लिए भी बड़ी भूल सिद्ध हो सकता है। जो नेता वीरभद्र सिंह से टकराते हुए खुद की सियासी जमीन बचा ले, वो आसानी से हार कैसे मान सकता है। सुक्खू के जिन समर्थकों को टिकट मिला है उनमें से अधिकांश अपनी अपनी सीटों पर अच्छा करते दिख रहे है। इसके अलावा होलीलॉज कैंप के बाहर के कई अन्य नेता भी खुद का दावा कमजोर पड़ने पर अपने समर्थकों सहित सुक्खू का साथ दे सकते है। यानी सुक्खू संख्याबल के मामले में भी कम नहीं माने जा सकते। पार्टी आलाकमान के भी वे नजदीकी माने जाते है। 'प्रतिभा' की 'प्रतिभा' पर संशय नहीं हिमाचल प्रदेश को आज तक महिला मुख्यमंत्री नहीं मिली है और ऐसे में प्रतिभा सिंह एक मजबूत दावेदार है। पार्टी आलाकमान को वीरभद्र सिंह के नाम के असर का बखूभी इल्म है और उपचुनाव के नतीजों में इसका असर भी दिख चूका है। इस बार भी चुनाव सामग्री में जिस तरह वीरभद्र सिंह के नाम का इस्तेमाल किया गया है वो इसे साफ़ दर्शाता है। मंडी संसदीय उपचुनाव जीतकर प्रतिभा सिंह भी अपनी प्रतिभा दिखा चुकी है और शायद ये ही बतौर प्रदेश अध्यक्ष उनकी नियुक्ति का अहम् कारण बना। जानकार मानते है कि अब भी बतौर मुख्यमंत्री प्रतिभा सिंह का दावा मजबूत है। सबसे वरिष्ठ कौल सिंह ठाकुर करीब 50 साल लम्बे राजनीतिक सफर में कौल सिंह ठाकुर ने पंचायत समिति से लेकर कैबिनेट मंत्री तक का फासला तय किया है। वे प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे है और कांग्रेस ने निष्ठावान सिपाही है। जानकार मानते है कि अगर मुख्यमंत्री पद के दावेदारों में सहमति नहीं बनती है तो कौल सिंह ठाकुर वो नाम है जिसपर वरिष्ठता का हवाल देकर आलाकमान सबको मना सकता है। होलीलॉज से भी कौल सिंह ठाकुर के सम्बंध बेहतर दिख रहे है, ऐसे में वरिष्ठता का लाभ उन्हें मिल सकता है। होलीलॉज के समर्थक पर टिकी मुकेश की दावेदारी मुकेश अग्निहोत्री ने नेता प्रतिपक्ष रहते हुए बीते पांच साल में जयराम सरकार को घेरने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मुकेश भी सीएम पद के प्रबल दावेदार है, हालांकि उनकी दावेदारी होलीलॉज के भरोसे ज्यादा टिकी दिखती है। दरअसल जिस तरह सुखविंद्र सिंह सुक्खू के अपने कई समर्थक और निष्ठावान चुनावी मैदान में है, उस तरह मुकेश अग्निहोत्री का अपना कोई अलग कैंप नहीं दिखता। ऐसे में क्या होलीलॉज उन्हें प्रोजेक्ट करता है, ये देखना रोचक होगा। संभवतः मुकेश होलीलॉज के साथ ही आगे बढ़ेंगे, लेकिन उनकी दावेदारी को हल्का नहीं लिया जा सकता। वे होलीलॉज की पसंद भी हो सकते है।
अप्रैल 1983 में कांग्रेस आलाकमान ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल को हटाकर वीरभद्र सिंह को हिमाचल प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया था। इसके बाद वीरभद्र सिंह के जीवित रहते जब भी कांग्रेस की सरकार बनी, सीएम वे ही बने। कुल 6 बार सीएम रहे वीरभद्र सिंह के निधन के बाद पहली बार विधानसभा चुनाव हुए है और यदि कांग्रेस सरकार बनाती है तो सीएम कौन होगा, ये देखना रोचक होने वाला है। ऐसा नहीं है कि 6 बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेना वीरभद्र सिंह के लिए आसान रहा हो। अपने सियासी तिलिस्म के बूते कई बार वीरभद्र सिंह ने हारी हुई बाजी पलट दी और साबित किया क्यों उनका कोई सानी नहीं रहा। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा के चुनाव 1987 में होने थे लेकिन वीरभद्र सिंह ने समय से पहले वर्ष 1985 में ही चुनाव करवा दिए। 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद पुरे देश में कांग्रेस के पक्ष में लहर थी जिसे वीरभद्र भाप गए थे और उनका ये निर्णय ठीक साबित हुआ। 1985 में वीरभद्र सिंह दूसरी बार सीएम बने। 1990 आते -आते प्रदेश में सत्ता विरोधी लहर हावी थी और कांग्रेस सत्ता से बाहर हो गई। इसके बाद बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद केंद्र सरकार ने हिमाचल सरकार को भी बर्खास्त कर दिया और 1993 में फिर चुनाव हुए। शांता सरकार से कर्मचारियों की नाराजगी के चलते कांग्रेस प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में लौटी। इसके बाद सबसे बड़ा सवाल ये था की मुख्यमंत्री कौन होगा। दरअसल पंडित सुखराम भी सीएम पद के प्रबल दावेदार थे लेकिन वीरभद्र सिंह की सियासी गणित पंडितजी पर भारी पड़ी और वीरभद्र तीसरी बार सीएम बने। तब कौल सिंह ठाकुर ने वीरभद्र सिंह का साथ दिया था और ये टीस आज भी पंडितजी के परिवार की जुबां से छलक ही जाती है। 1993 में पंडित सुखराम सीएम बनते -बनते रह गए थे और ताउम्र सीएम नहीं बन पाएं। इसके बाद 1998 का चुनाव आया। तब वीरभद्र सिंह रिपीट को लेकर आश्वस्त थे। तब तक पंडित सुखराम और कांग्रेस की राह अलग हो चुकी थी और पंडित जी हिमाचल विकास कांग्रेस बना चुके थे। उस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा में कांटे का मुकाबला हुआ लेकिन निर्दलीय जीते रमेश धवाला और पंडित सुखराम आखिरकार भाजपा के साथ गए और पांच साल भाजपा और हिमाचल विकास कांग्रेस की सरकार चली। दिलचस्प बात ये है कि वीरभद्र सिंह 1998 में सीएम पद की शपथ भी ले चुके थे लेकिन उन्हें सुखराम का साथ नहीं मिला और बहुमत न होने के चलते उन्हें कुछ ही दिनों में इस्तीफा देना पड़ा। 2003 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई लेकिन सीएम वीरभद्र सिंह ही होंगे ये तय नहीं था। नतीजे आने के बाद विद्या स्टोक्स भी दावेदारी की तैयारी में थी। कहते है मैडम स्टोक्स अपना दावा ठोकने दिल्ली चली गई थी। पर पीछे से शिमला में वीरभद्र ने बाजी पलट दी और मीडिया के सामने विधायकों की परेड कराकर उनके दावे पर पूर्ण विराम लगा दिया। इस तरह मैडम स्टोक्स को मात देकर वीरभद्र सिंह पांचवी बार सीएम बने। 2007 में कांग्रेस फिर सत्ता से बाहर हुई और 2012 में पार्टी ने फिर वीरभद्र सिंह के चेहरे पर चुनाव लड़ा और वीरभद्र सिंह छठी बार सीएम बने। 2012 में अपने ही अंदाज में चेताया था आलकमान को 2007 में सत्ता से बाहर होने के बाद वीरभद्र सिंह ने 2009 में लोकसभा चुनाव लड़ा और केंद्रीय मंत्री बन गए। पर 2011 में वे केंद्र से फिर प्रदेश की सियासत में लौट आएं। तब कांग्रेस कौल सिंह ठाकुर के नेतृत्व में आगे बढ़ती दिख रही थी और वीरभद्र सिंह को फेस घोषित करने से पार्टी बच रही थी। इसी दौरान चुनाव से चंद दिन पहले वीरभद्र सिंह ने शिमला में पत्रकार वार्ता कर कहा कि अगर सोनिया गाँधी चाहे तो वे फिर कांग्रेस को सत्ता में ला सकते है। तब वीरभद्र सिंह ने आलकमान को चेताते हुए कहा था 'मैं ढोलक बजाऊंगा और मेरी सेना नृत्य करेगी।' दबाव रंग लाया और आलाकमान ने वीरभद्र सिंह को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया। इसके बाद वे ही सीएम बने।
कांग्रेस के कई बड़े नेता अपनी अपनी सम्बंधित सीटों पर कांटे के मुकाबले में फंसे दिख रहे है। इनमें से कई तो मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी है। नजदीकी मुकाबले में इन सीटों पर कुछ भी संभव है, ऐसे में जाहिर है आठ दिसम्बर को कई नेताओं के अरमानो पर पानी फिर सकता है। डलहौज़ी सीट पर कांग्रेस की वरिष्ठ नेता आशा कुमारी और भाजपा के डीएस ठाकुर में कांटे का मुकाबला दिख रहा है। इस सीट पर सभी की निगाह टिकी है और यहाँ कुछ भी मुमकिन है। शायद ये ही कारण है कि चुनाव के दौरान आशा कुमारी ने अपनी सीट पर भी अधिकांश समय दिया। अन्य क्षेत्रों में आशा कुमारी प्रचार करती नहीं दिखी। इसी तरह सोलन सीट से कर्नल धनीराम शांडिल नजदीकी मुकाबले में फंसे दिख रहे है। उनका मुकाबला उनके दामाद और भाजपा प्रत्याशी डॉ राजेश कश्यप से है। दोनों के बीच 2017 में भी मुकाबला हुआ था, जिसे शांडिल ने महज 671 वोट के अंतर से जीता था। शिलाई में वरिष्ठ नेता हर्षवर्धन चौहान और बलदेव तोमर में मुकाबला है। यहाँ हाटी फैक्टर के सहारे भाजपा जीत की उम्मीद में है और यदि हाटी फैक्टर चला है तो हर्षवर्धन की मुश्किल बढ़ सकती है। वहीं कांग्रेस के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कुलदीप राठौर ठियोग से चुनाव लड़ रहे है और बहुकोणीय मुकाबले में फंसे दिख रहे है। यहाँ निर्दलीय इंदु वर्मा, सीपीआईएम के राकेश सिंघा और भाजपा के अजय श्याम मैदान में है। इस सीट पर कुलदीप का असल इम्तिहान है। वहीं नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री की सीट हरोली पर भी भाजपा ने पूरी ताकत लगा दी है। यहाँ से प्रो रामकुमार मैदान में है और भाजपा नियोजित रणनीति के तहत यहाँ चुनाव लड़ती दिखी है। हालांकि मुकेश ने पुरे दमखम से चुनाव लड़ा है। इस सीट पर कितना अंतर रहता है इस पर निगाह जरूर टिकी है।
क्या हिमाचल प्रदेश में भाजपा संगठन में सर्जेरी की दरकार है, ये वो सवाल है जो या तो आठ दिसंबर के बाद तूल पकड़ेगा या गायब हो जायेगा। दरअसल, पिछले साल हुए मंडी संसदीय उपचुनाव और तीन विधानसभा सीटों के उपचुनाव में करारी शिकस्त के बाद भाजपा संगठन को लेकर कई सवाल उठे थे। तब कयास लग रहे थे कि पार्टी चेहरा बदल सकती है और संगठन में भी बदलाव संभव है। मंथन हुआ, चिंतन हुए लेकिन बदलाव नहीं हुआ। सरकार का फेस जयराम ही रहे और संगठन सुरेश कश्यप के हाथों में ही रहा। तब बदलाव न करने का निर्णय सही था या नहीं, ये भी आठ दिसम्बर को तय होगा। जाहिर है नतीजे प्रतिकूल रहे तो जवाब उन लोगों को देना होगा जिनके भरोसे पार्टी रिवाज बदलने का दावा करती रही है। पूर्व अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती की जगह भाजपा ने 2019 के अंत में डॉ राजीव बिंदल को प्रदेश संगठन की कमान सौंपी थी। बिंदल ने चार्ज लेते ही कई नियुक्तियां की और भाजपा संगठन में उनकी कार्यशैली की छाप स्पष्ट दिखने लगी। इसके बाद कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले में बिंदल का नाम उछला तो उन्होंने इस्तीफा दे दिया। दिलचस्प बात ये है की स्वास्थ्य महकमा सीएम के पास था और इस्तीफा प्रदेश अध्यक्ष ने दिया। हालांकि इसके बाद बिंदल को क्लीन चिट मिली। बिंदल के स्थान पर सुरेश कश्यप को नया अध्यक्ष बनाया गया। तब तक पार्टी की परफॉरमेंस अव्वल थी। 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद पार्टी लोकसभा चुनाव में क्लीन स्वीप कर चुकी थी और दो उपचुनाव भी जीत चुकी थी। पर सुरेश कश्यप के आने के बाद पार्टी सिंबल पर हुए चार नगर निगम चुनाव में से पार्टी को दो में हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद एक लोकसभा उपचुनाव और तीन विधानसभा उपचुनाव भी पार्टी हार गई। जाहिर है ऐसे में सवाल उठना तो लाजमी है। अब विधानसभा चुनाव के नतीजे भी यदि प्रतिकूल रहते है तो बतौर अध्यक्ष सुरेश कश्यप की परफॉरमेंस पर बात तो होगी ही। पर यदि भाजपा हिमाचल प्रदेश में रिवाज बदलने में कामयाब रही तो प्रदेश अध्यक्ष सुरेश कश्यप को भी इसका श्रेय मिलेगा। ऐसा हो पाया तो सुरेश कश्यप और जयराम ठाकुर मिलकर इतिहास रच देंगे। गजब का तालमेल, पक्ष में गया या नहीं ? डॉ राजीव बिंदल और सुरेश कश्यप दोनों का काम करने का तरीका अलग है। पर बिंदल ने अध्यक्ष रहते जो टीम नियुक्त की थी अमूमन उसी टीम के साथ कश्यप ने काम किया है। यानी अध्यक्ष तो बदला लेकिन भाजपा की टीम में ज्यादा बदलाव नहीं हुआ। इसके अलावा आम तौर पर भाजपा में सरकार और संगठन दोनों अलग -अलग काम करते है, सामंजस्य होता है लेकिन दोनों स्वायत्त तरीके से काम करते है। पर सुरेश कश्यप के रहते सरकार और संगठन दोनों पर जयराम ठाकुर का ही पूर्ण प्रभाव दिखा। संगठन, सरकार की छाया बना दिखा। अब ये गजब का तालमेल भाजपा के पक्ष में गया या नहीं, ये नतीजे ही तय करेंगे। भीतरघात और बगावत ने बढ़ाई टेंशन ! भीतरघात की आशंका से झूझ रही भाजपा की चिंता कुछ वायरल ऑडियो भी बढ़ा रहे है। बीत दिनों एक पूर्व मंत्री का बताया जा रहा वायरल ऑडियो ये दर्शाने के लिए काफी है कि किस कदर पार्टी में अनुशासनहीनता है। हालांकि इसकी सत्यता की पुष्टि नहीं हुई है। इसके अलावा करीब एक तिहाई सीटों पर बागियों का होना भी ये बताता है कि पार्टी में किस हद तक अंसतोष की स्थिति है।
हिमाचल प्रदेश चुनाव के लिए मतदान संपन्न हो चूका है और प्रत्याशियों की किस्मत ईवीएम में कैद हो गई है। किसकी सरकार बनेगी और किसकी नहीं, इस सवाल के साथ-साथ एक और सवाल भी सियासी गलियारों में गूंज रहा है। ये सवाल है कि क्या इस बार सरकार बनाने में निर्दलीय अहम भूमिका निभाएंगे ? दरअसल, इस बार 412 प्रत्याशियों में से 99 प्रत्याशी बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं। इन 99 निर्दलीयों में से मुख्य तौर पर करीब एक दर्जन चेहरों पर फिलवक्त दोनों मुख्य राजनैतिक दलों की निगाह टिकी है। निर्दलीयों की लम्बी फेहरिस्त में कम से कम एक दर्जन नाम ऐसे है जो अपने-अपने क्षेत्रों में चुनाव जीतने की स्थिति में दिखाई दे रहे है। इनमें से कितने जीतते है, ये तो आठ दिसम्बर को पता चलेगा, लेकिन इनमें से किसी को कम नहीं आँका जा सकता। दोनों पार्टियां यदि स्पष्ट बहुमत नहीं ले पातीं तो निर्दलीय चुनाव जीते नेता निश्चित तौर पर निर्णायक भूमिका में आ जाएंगे। बता दें की इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले बागियों में दो सीटिंग विधायक और 6 पूर्व विधायक शामिल है। पिछले चुनाव बतौर निर्दलीय जीत कर इस चुनाव से ठीक पहले भाजपा में शामिल हुए बने देहरा विधायक होशियार सिंह और भाजपा की ज्यादा नहीं बनी और उन्हें फिर निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा। जबकि आनी से मौजूदा विधायक किशोरी लाल का टिकट भाजपा ने काटा तो वे भी निर्दलीय मैदान में उतर गए। इनके अलावा 6 पूर्व विधायकों ने भी निर्दलीय चुनाव लड़ा है। इनमें कांग्रेस से गंगूराम मुसाफिर, सुभाष मंगलेट, जगजीवन पाल का नाम शामिल है, तो भाजपा से तेजवंत नेगी, केएल ठाकुर और मनोहर धीमान बागी होकर चुनाव लड़ रहे है। जाहिर है निर्दलीय मैदान में उतरे इन आठ विधायकों और पूर्व विधायकों को कम नहीं आँका जा सकता। ये सभी वो चेहरे है जो फिर विधानसभा पहुंचने का दमखम रखते है। वहीं यदि कांग्रेस और भाजपा के बीच कांटे का मुकाबला होता है तो इनमें से जीतने वालों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो सकती है। इन आठ के अलावा कई निर्दलीय उम्मीदवार ऐसे है जो इस चुनाव में उलटफेर करने का दमखम रखते है। इनमें प्रमुख नाम है अर्की से राजेंद्र ठाकुर, हमीरपुर से आशीष शर्मा और ठियोग से इंदु वर्मा। राजेंद्र ठाकुर पूर्व कांग्रेसी है और अर्की उपचुनाव के दौरान उन्होंने कांग्रेस छोड़ दी थी। अब राजेंद्र ठाकुर खुलकर कह रहे है कि अगर वे विधायक बने तो वे उसके साथ जायेंगे जिसकी सरकार बनेगी। वहीं आशीष शर्मा ने चुनाव के दौरान कांग्रेस ज्वाइन की और दो दिन में छोड़ भी दी। आशीष ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और हमीरपुर में उनका दावा मजबूत है। वहीँ ठियोग से इंदु वर्मा पुरे दमखम से चुनाव लड़ी है। बड़सर से भाजपा के बागी संजीव शर्मा और जसवां परागपुर से निर्दलीय कैप्टन संजय पराशर को भी कम नहीं आँका जा सकता। अभी से जुटे दोनों राजनैतिक दल आठ दिसम्बर को नतीजे आएंगे और उससे पहले दोनों मुख्य राजनैतिक दल निर्दलीय चुनाव लड़ने वाले नेताओं से संपर्क में है ताकि जरुरत पड़ने पर उनको साथ लिया जा सके। हिमाचल प्रदेश की सियासी अतीत पर निगाह डाले तो 1998 में एक निर्दलीय विधायक के हाथ में सत्ता की चाबी थी। जाहिर है कि ऐसे में दोनों प्रमुख राजनैतिक दल अभी से उन संभावित निर्दलीय उम्मीदवारों को साधने में जुट गए है जो विधानसभा की दहलीज लांघ सकते है। तब ध्वाला बने थे भाजपा के लिए हीरो साल 1998 के चुनाव में भी एक निर्दलीय ने प्रदेश की सियासत की स्थिति बेहद दिलचस्प बना दी थी। तब भाजपा के लिए निर्दलीय उम्मीदवार रमेश ध्वाला हीरो बनकर उभरे थे। रमेश ध्वाला को भाजपा ने टिकट नहीं दिया था, वह बागी बनकर बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव जीते थे। इस चुनाव में न तो भाजपा को बहुमत मिला और न ही कांग्रेस को। सरकार बनाने की जोर आजमाइश जारी थी। ध्वाला ने बीजेपी को समर्थन देने के लिए शर्त रख दी कि प्रेम कुमार धूमल के बदले शांता कुमार को मुख्यमंत्री बनाया जाए। पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस ने बीजेपी को समर्थन दे दिया था। इस तरह बीजेपी के साथ भी विधायकों की संख्या 32 हो गई। हालांकि वो अब भी बहुमत के आंकड़े से पीछे थी। अब ध्वाला बतौर निर्दलीय उम्मीदवार अपना समर्थन देने के लिए शिमला की ओर चल पड़े। कहते है की ध्वाला जैसे ही शिमला पहुंचे, उन्हें कांग्रेस नेताओं ने अपने कब्जे में ले लिया और उन्हें सीधे होली लॉज ले गए। वीरभद्र सिंह समेत तमाम नेताओं ने उन्हें कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए समर्थन देने का आग्रह किया। तमाम तरह के प्रलोभन भी दिए गए। कहा जाता है की धवला को डराया धमकाया भी गया था। ध्वाला ये सब खुद स्वीकार कर चुके हैं। फिर अचानक एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ध्वाला ने बताया कि वे वीरभद्र सिंह को अपना समर्थन देते हैं। उन्होंने एक और विधायक के समर्थन का दावा किया था। वीरभद्र सिंह ने तत्कालीन राज्यपाल रमा देवी के पास जाकर सरकार बनाने का दावा पेश किया। रात के 2 बजे विधायकों की परेड हुई और वीरभद्र सिंह की सरकार बन गई। रमेश ध्वाला को सरकार में मंत्री पद भी दिया गया। हालाँकि ये कहानी यहीं खत्म नहीं हुई, ध्वाला भाजपा के बागी थे और कांग्रेस को डर था की वे समर्थन वापस ले सकते है, इसलिए उन्हें मुख्यमंत्री आवास में रखा गया था। कुछ दिनों बाद नरेंद्र मोदी ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर कहा कि रमेश ध्वाला को हम वापस लाएंगे और कांग्रेस की सरकार गिरेगी। कहा जाता है कि सीएम आवास में काम करने वाले एक कर्मचारी के ज़रिये नैपकिन पर रमेश धवाला के लिए एक संदेश लिखकर भेजा गया। फिर उसी कर्मचारी के जरिये ध्वाला ने भी मैसेज भेजा कि उन्हें सीएम आवास से निकाला जाए, तो वे बीजेपी के साथ आ जाएंगे। ध्वाला वहां से निकले और सीधे नरेंद्र मोदी के पास पहुंचे। फिर नरेंद्र मोदी ने राज्यपाल को फोन कर बताया कि सरकार का एक विधायक उन्हें समर्थन दे रहा है, इसलिए बीजेपी को सरकार बनाने के लिए बुलाया जाए। कहा जाता है की उस वक्त राज्यपाल ने बीजेपी को मना कर दिया। परन्तु कुछ समय बाद जब दिल्ली में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी। तब राज्यपाल ने खुद प्रेम कुमार धूमल को फोन किया कि आइए और सरकार बनाने का दावा पेश कीजिए। 12 मार्च 1998 को विधानसभा का सत्र बुलाया गया। रमेश ध्वाला और हिमाचल विकास कांग्रेस के सभी विधायक भी आए। दूसरी ओर वीरभद्र सिंह दावा करते रहे कि उनके पास अब भी रमेश ध्वाला का समर्थन है। अंत में जब बहुमत साबित करने की बात आई तो उससे पहले ही वीरभद्र सिंह ने इस्तीफा दे दिया और उनकी सरकार गिर गई।
थोड़े शिकवे भी है, कुछ शिकायत भी है, लेकिन नाराज़गी इस कदर नहीं दिखती कि साथ छोड़ दिया जाए। डॉ राजीव सैजल और कसौली में उनका साथ देते आ रहे लोगों के बीच का सम्बन्ध कुछ ऐसा ही दिख रहा है। यहाँ जीत की हैट्रिक लगा चुके डॉ राजीव सैजल अब जीत का चौका लगाना चाहते है और लगातार उनका जनसम्पर्क जारी है। सैजल स्वास्थ्य मंत्री है तो जाहिर है कि लोगों की अपेक्षाएं भी उनसे बढ़ी है, और सैजल ने उन पर खरा उतरने का प्रयास भी किया है। बावजूद इसके अगर कहीं कुछ ठसक है भी, तो डॉ राजीव सैजल के सामने आने से दूर हो जाती है। दरअसल डॉ सैजल न सिर्फ ईमानदार नेता के तौर पर जाने जाते है, बल्कि उनका सरल व्यक्तित्व उन्हें सीधे लोगों से जोड़ता है। बड़ों के पाँव छूकर सैजल जीत का आशीर्वाद ले रहे है तो छोटो को झप्पी डालकर अपना बनाने का हुनर उन्हें बखूबी आता है। ये ही कारण है कि इस बार भी चौथी बार मैदान में होने के बावजूद कसौली में उनका दावा दमदार है। कसौली के इतिहास पर निगाह डाले तो लम्बे समय तक इस सीट पर कांग्रेस का कज्बा रहा और 2007 में डॉ राजीव सैजल ने सीट कांग्रेस से छीनी। तब से अब तक सैजल ने यहाँ कांग्रेस को वापसी नहीं करने दी। हालांकि इस क्षेत्र में कांग्रेस का अच्छा काडर है, और पिछले डॉ चुनाव डॉ सैजल मामूली अंतर से जीते है, पर जीत तो आखिरकार जीत होती है। सैजल इस बार भी जीत को लेकर आश्वस्त है। सैजल साफ कहते है कि लगातार पंद्रह साल के बाद भी लोगों का उनसे कोई मोहभंग नहीं हुआ है। वे जितने सरल तब थे, उतने ही आज है और सदा ऐसे ही रहेंगे। कसौली कि जनता उनके लिए वोटर नहीं, उनका परिवार है। बहरहाल कसौली का दिल फिर से सैजल जीत पाते है या नहीं, ये तो आठ दिसंबर को ही पता चलेगा। पर नतीजा जो भी हो सैजल को यहाँ कम आंकना विरोधियों के लिए भूल सिद्ध हो सकती है। वैसे भी बीते चुनाव में अति आत्मविश्वास उनके विरोधियों को भारी पड़ा है।
दो बार सांसद, दो बार विधायक, वीरभद्र सरकार में मंत्री रहे और कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रहे कर्नल धनीराम शांडिल की गिनती उन चंद नेताओं में होती है जिनकी छवि पर कभी विरोधी भी सवाल नहीं उठा पाएं। अपनी ईमानदार छवि और सरल व्यक्तित्व के चलते बीते ढाई दशक में कर्नल ने हिमाचल प्रदेश की राजनीति में अपना एक ख़ास मुकाम बनाया है। कर्नल शांडिल उन नेताओं में से है जो बोलने में नहीं करने में यकीन रखते है। वीरभद्र सरकार में मंत्री रहते हुए कर्नल ने साढ़े चार सौ करोड़ से अधिक के कार्य सोलन में करवाएं थे। कर्नल धनीराम शांडिल एक बार फिर विधानसभा चुनाव के मैदान में है। सोलन सीट से वे लगातार दो चुनाव जीत चुके है और इस बार उनकी नज़र जीत की हैट्रिक पर है। सोलन सीट पर कांग्रेस लगातार तीन चुनाव हार चुकी थी, तब वर्ष 2012 में कर्नल ने यहाँ कांग्रेस की वापसी करवाई। इसके बाद उन्हें वीरभद्र सरकार में कैबिनेट मंत्री का पद मिला। 2017 में भी कर्नल विजयी रहे। अब तीसरी बार वे सोलन से विधानसभा चुनाव लड़ रहे है। जानकार मानते है कि अगर शांडिल जीत दर्ज करते है और प्रदेश में भी कांग्रेस की सरकार बनती है तो उन्हें बेहद अहम जिम्मेदारी मिलना तय है। वहीँ उनके समर्थक उन्हें बतौर सीएम भी प्रोजेक्ट कर रहे है। कई जनसभाओं में उनके लिए नारेबाजी हो रही है। बहरहाल आठ दिसंबर को ये तय होगा कि कर्नल जीत की हैट्रिक लगा पाते है या नहीं, पर फिलहाल वे जोर शोर से प्रचार कर जनता के बीच जा रहे है। वे कांग्रेस मैनिफेस्टो कमेटी के चेयरमैन भी है सो जनता के बीच कांग्रेस के हर वादे पर अपनी बात रख रहे है। शांडिल का कहना है कि कांग्रेस घोषणा पत्र का हर वादा उनका वचन है, पार्टी पुरानी पेंशन भी बहाल करेगी और महिलाओं को सम्मान राशि भी मिलेगी।
पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का अभेद किला रही जुब्बल कोटखाई सीट पर पिछले पांच चुनाव में कांग्रेस व भाजपा दोनों को जनता ने बराबर का प्यार दिया है। 2003 के विधानसभा चुनाव में ठाकुर रामलाल के पोते रोहित ठाकुर जीते, तो 2007 में पूर्व बागवानी मंत्री रहे नरेंद्र बरागटा ने इस सीट पर कब्ज़ा किया। 2012 के विधानसभा चुनाव में फिर जनता ने कांग्रेस के रोहित ठाकुर को जुब्बल कोटखाई की सीट पर विजय बनाया। जबकि 2017 के विधानसभा चुनाव में नरेंद्र बरागटा ने जीत हासिल की। नरेंद्र बरागटा के निधन के बाद अक्टूबर 2021 में हुए उपचुनाव में रोहित ठाकुर को फिर जीत मिली। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में भी ये सिलसिला बरकरार रहता है या नहीं, ये देखना रोचक होगा। वर्तमान स्थिति की बात करें तो कांग्रेस से रोहित ठाकुर मैदान में है और चेतन बरागटा भी भाजपा में वापसी कर चुके है। भाजपा ने वापसी के बाद चेतन पर ही दांव खेला है। इस बार माकपा से विशाल शांगटा भी मैदान में है। इसके अलावा आम आदमी पार्टी ने श्रीकांत चौहान को मैदान में उतारा है। पिछली बार की तरह इस बार भी चेतन बरागटा अपने पिता स्वर्गीय नरेंद्र बरागटा के दिखाए रास्ते पर आगे बढ़ते हुए सेब और बागवान हित के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे है। चेतन जनता के बीच जा कर बागवानी और बागवानों के हितों की बात कह रहे है। निसंदेह चेतन के आने से भाजपा में भी चेतना लौट आई है और पिछले चुनाव में जमानत जब्त करवाने के बाद पार्टी में टोटल मेकओवर दिखा है। चेतन को लेकर कोई विरोध नहीं दिखता और ये तय है कि इस बार मुकाबला कांटे का होगा। उधर रोहित ठाकुर फिर जीत को लेकर आश्वस्त है लेकिन माकपा ने विशाल शांगटा को मैदान में उतार कर इस चुनाव को रोचक कर दिया है। यदि प्रदेश सरकार से खफा वोट में शांगटा सेंध लगाते है तो रोहित की मुश्किलें बढ़ सकती है। बहरहाल जुब्बल कोटखाई का चुनाव बेहद रोचक होता दिख रहा है। इस कांटे के मुकाबले में कौन जीतता है ये तो आठ दिसंबर को तय होगा लेकिन नतीजा जो भी हो चेतन की भाजपा में रंग जरूर लाएगी।
कसौली निर्वाचन क्षेत्र में इस बार कांटे का मुकाबला देखने को मिल रहा है। स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल के गढ़ में इस बार आम आदमी पार्टी भी अच्छा करता दिख रही है। पार्टी प्रत्याशी हरमेल धीमान का धुआंधार प्रचार अभियान जारी है। हर पंचायत, हर गांव तक हरमेल पहुंच रहे है और लोगों से सीधा संवाद स्थापित कर रहे है। हरमेल धीमान कसौली निर्वाचन क्षेत्र के जाने माने समाजसेवी है और लंबे वक्त से इस क्षेत्र में सक्रिय है। सैकड़ों सामाजिक आयोजनों में लम्बे वक्त से हरमेल धीमान सहयोग करते आ रहे है और उनकी छवि एक ऐसे व्यक्ति की है जो किसी को किसी काम के लिए ना नहीं करता। उनकी ये छवि इस चुनाव में उन्हें लाभ पंहुचा सकती है। बता दें कि हरमेल भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए है। दिलचस्प बात ये है कि उनके साथ भाजपा से तो लोग है ही, काफी लोग कांग्रेस छोड़कर भी उनके साथ आप में शामिल हुए है। ऐसे में दोनों दलों से खफा लोगों के लिए हरमेल धीमान एक विकल्प है।
हिमाचल प्रदेश के बीते कई चुनावों पर निगाह डाले तो अक्सर बगावत का दंश भाजपा से ज्यादा कांग्रेस पर भारी पड़ता आया है। पर इस बार के विधानसभा चुनाव में बगावत ने भाजपा का सुकून उड़ाया हुआ है। प्रदेश में 68 विधानसभा सीटें है और एक चौथाई से भी ज्यादा सीटों पर भाजपा के बागी मैदान में है। ये आँकड़ा ये समझने के लिए काफी है कि भाजपा का चुनाव प्रबंधन हर बार की तरह सटीक नहीं रहा है। सवाल टिकट आवंटन पर भी उठ रहे है। बगावत की आग से पार्टी राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का गृह जिला भी अछूता नहीं है। ये हालत तब है जब पार्टी नामांकन वापसी की अंतिम तिथि तक कई उम्मीदवारों को मनाने में कामयाब रही, अन्यथा स्थिति और ज्यादा बिगड़ सकती थी। बहरहाल इस बगावत का चुनावी नतीजों पर क्या असर पड़ता है ये तो आठ दिसम्बर को ही पता चलेगा, पर फिलवक्त पार्टी डैमेज कंट्रोल कर रिवाज बदलने के अपने दावे पर कायम जरूर है। विदित रहे कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी 5 नवंबर को सोलन और सुंदरनगर की जनसभाओं में ये कह चुके है कि प्रत्याशी को देख कर नहीं बल्कि कमल का फूल देखकर वोट करें। जाहिर है इसका असर भी नाराज समर्थकों-कार्यकर्ताओं पर पड़ सकता है। पार्टी के तमाम वरिष्ठ नेता मोर्चा संभाले हुए है और बगावत की आग के बावजूद भाजपा मिशन रिपीट का दावा कर रही है। बिलासपुर : सुभाष शर्मा भाजपा ने यहाँ से त्रिलोक जम्वाल को टिकट दिया है। सुभाष ठाकुर का टिकट काटा गया है। भाजपा सुभाष ठाकुर को मनाने में तो कामयाब रही, लेकिन टिकट के एक अन्य दावेदार सुभाष शर्मा निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। झंडूता : राजकुमार कौंडल भाजपा ने मौजूदा विधायक जीतराम कटवाल को ही फिर टिकट दिया है। नाराज होकर पूर्व विधायक रिखी राम कौंडल के बेटे राजकुमार कौंडल चुनावी मैदान में है। मंडी : प्रवीण शर्मा पंडित सुखराम के पुत्र और वर्तमान विधायक अनिल शर्मा मंडी सदर सीट से भाजपा उम्मीदवार है। वहीँ टिकट के दावेदार रहे प्रवीण शर्मा ने बगावत कर दी है। प्रवीण के साथ काफी नेता-कार्यकर्ता भी है जिससे भाजपा की मुश्किलें बढ़ सकती है। सुंदरनगर : अभिषेक ठाकुर पूर्व विधायक रूप सिंह के पुत्र अभिषेक यहाँ से भाजपा के बागी है। पार्टी ने फिर मौजूदा विधायक राकेश जम्वाल को टिकट दिया है। फतेहपुर : कृपाल परमार फतेहपुर फ़तेह करने की राह में भाजपा के लिए कृपाल परमार सबसे बड़ा रोड़ा है। भाजपा ने मंत्री और नूरपुर से मौजूदा विद्याक राकेश पठानिया को यहाँ से टिकट दिया है जिससे नाराज हकार पूर्व प्रत्याशी कृपाल परमार ने बगावत कर दी है। पिछले चार चुनाव भाजपा यहाँ से हारी है। इंदौरा : मनोहर धीमान 2017 में भाजपा ने तब निर्दलीय विधायक रहे मनोहर धीमान को पार्टी में शामिल तो किया लेकिन टिकट नहीं दिया। तब मनोहर धीमान को मना लिया गया लेकिन इस बार ऐसा नहीं हो पाया। पार्टी ने रीता धीमान को टिकट दिया है जिसके बाद मनोहर ने बगावत कर दी है। शाहपुर : पंकु कांगडिया मंत्री सरवीण चौधरी के खिलाफ युवा नेता पंकु कांगडिया ने बगावत कर दी है और चुनावी मैदान में है। एंटी इंकम्बैंसी के साथ -साथ बगावत ने शाहपुर में सरवीण की मुश्किलें निश्चित तौर पर बढ़ाई है और इस बार यहाँ दिलचस्प मुकाबला तय है। कांगड़ा : कुलभाष चौधरी कांग्रेस से भाजपा में आए पवन काजल के विरोध में यहाँ से कुलभाष चौधरी ने बगावत का एलान कर दिया और निर्दलीय मैदान में है। धर्मशाला : विपिन नेहरिया दल बदल कर भाजपा में पहुंचे राकेश चौधरी को पार्टी ने टिकट दिया, जबकि मौजूदा विधायक विशाल नेहरिया का टिकट काट दिया गया। विशाल नेहरिया तो बागी नहीं हुए लेकिन पार्टी के एक अन्य नेता विपिन नेहरिया ने बगावत का बिगुल फेंक दिया और चुनावी मैदान में है। देहरा : होशियार सिंह 2017 में बतौर निर्दलीय जीते होशियार सिंह कुछ माह पूर्व ही भाजपा में शामिल हुए लेकिन भाजपा ने उनका टिकट काट दिया। अब दोनों की राह फिर जुदा हो चुकी है और होशियार सिंह भी चुनाव लड़ रहे है। ख़ास बात ये है कि पार्टी ने यहाँ से ज्वालामुखी के विधायक रमेश धवाला को मैदान में उतारा है। नालागढ़ : केएल ठाकुर कांग्रेस से बीते दिनों भाजपा में आएं मौजूदा विधायक लखविंद्र राणा को यहाँ से पार्टी ने टिकट दिया है। इसके चलते पूर्व विधायक केएल ठाकुर ने बगावत कर दी और निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। ठाकुर बीते पांच साल लगातार सक्रिय रहे, बावजूद इसके पार्टी ने कांग्रेस से आएं लखविंदर राणा को टिकट दिया। खफा होकर कई कार्यकर्ता और समर्थक भी केएल के साथ हो लिए है। किन्नौर : तेजवंत नेगी भाजपा ने यहां से सूरत नेगी को टिकट दिया है। पूर्व विधायक तेजवंत नेगी पिछला चुनाव महज 120 वोट से हारे थे, बावजूद इसके उन्हें मौका नहीं मिला। खफा होकर तेजवंत ने बगावत कर दी। आनी : किशोरी लाल मौजूदा विधायक किशोरी लाल का टिकट यहाँ से भाजपा ने काटा है। अब किशोरी लाल निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है। बंजार : हितेश्वर सिंह बंजार से भाजपा ने मौजूदा विधायक पर फिर से दाव खेला है। इसके बाद टिकट के चाहवान हितेश्वर सिंह ने बगावत का ऐलान कर दिया। हितेश्वर सिंह भाजपा के वरिष्ठ नेता महेश्वर सिंह के बेटे है। उनके बागी चुनाव लड़ने के चलते पार्टी ने कुल्लू सीट से महेश्वर सिंह का टिकट भी अंतिम समय में बदल दिया। कुल्लू : राम सिंह भाजपा ने अंतिम समय में महेश्वर सिंह का टिकट बदलकर नरोत्तम ठाकुर को दिया है। इसके बाद महेश्वर सिंह ने चुनाव लड़ने का ऐलान किया। पार्टी महेश्वर सिंह को मनाने में जुटी रही और मना भी लिया गया, लेकिन एक अन्य कद्दावर नेता राम सिंह मैदान में उतर गए और अब चुनाव लड़ रहे है। चम्बा सदर : इंदिरा कपूर यहाँ से पार्टी ने पहले इंदिरा कपूर को टिकट दिया लेकिन मौजूदा विधायक पवन नय्यर की नाराजगी के चलते अंतिम समय में उनकी पत्नी नीलम नय्यर को टिकट थमा दिया। इसके बाद इंदिरा कपूर अब निर्दलीय चुनाव लड़ रही है। हमीरपुर : नरेश दर्जी नरेश दर्जी हमीरपुर से निर्दलीय चुनाव लड़ रहे है और माना जा रहा है कि वे भाजपा के वोटों में ज़्यादा सेंध लगा सकते है। दर्जी की मौजूदगी ने इस चुनाव को रोचक बना दिया है। बड़सर : संजीव शर्मा भाजपा ने बड़सर से पूर्व प्रत्याशी बलदेव शर्मा की पत्नी माया शर्मा को टिकट दिया है। दरअसल यहाँ से भाजपा नेता राकेश शर्मा बबली भी टिकट के उम्मीदवार थे, किन्तु कुछ समय पहले उनका दुखद निधन हो गया। उनके निधन के उपरांत उनके भाई और भाजपा नेता संजीव शर्मा ने टिकट पर दावा जताया, लेकिन पार्टी ने माया शर्मा को मौका दिया। भोरंज : पवन कुमार पवन कुमार पूर्व में भाजयुमो भोरंज के मीडिया प्रभारी रह चुके हैं, लेकिन भाजपा से टिकट न मिलने के कारण इस बार निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं। पवन कुमार वर्तमान में समीरपुर वार्ड से जिला परिषद सदस्य हैं, इससे पूर्व भोरंज वार्ड से जिला परिषद सदस्य और दो बार अलग-अलग वार्डों से पंचायत समिति सदस्य निर्वाचित हो चुके हैं। पार्टी ने भोरंज से अनिल धीमान को टिकट दिया है।
पालमपुर सीट पर कांग्रेस का इतिहास मजबूत रहा है। यहां से चर्चित बुटेल परिवार के कैंडीडेट जीतते रहे हैं। इस सीट से बीजेपी ने सिर्फ तीन बार ही चुनाव में जीत हासिल की है और कांग्रेस का सात बार पालमपुर विधासभा क्षेत्र में कब्ज़ा रहा है। गौरतलब है कि इस सीट से बृज बिहारी लाल पांच बार विधायक चुने गए हैं। वहीं वर्ष 2017 में कांग्रेस ने आशीष बुटेल को यहाँ से मैदान में उतारा था और बीजेपी से इंदु गोस्वामी मैदान में थी। 2017 के चुनाव में आशीष बुटेल ने 4,324 वोटों से इंदू गोस्वामी को हराया था। अब एक बार फिर आशीष बुटेल मैदान में है और उनका मुकाबला भाजपा प्रत्याशी त्रिलोक कपूर से है। इस बार देखना दिलचस्व होगा की क्या एक बार फिर पालमपुर की जनता कांग्रेस पर भरोसा जताती है या यहां रिवाज़ बदलता है।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिला कांगड़ा की ज्वालामुखी विधानसभा क्षेत्र में भाजपा प्रत्याशी रविंदर सिंह रवि के पक्ष में चुनावी जनसभा को संबोधित करने पहुंचे। इस दौरान कांग्रेस पर कड़ा प्रहार करते हुए सीएम योगी ने कहा कि देश में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में आठ साल जो प्रगति हुई कांग्रेस उतना अपने 55 साल की सत्ता में नहीं कर पाई।उन्होंने कहा कि माफिया विकास के रास्ते का सबसे बड़ा अवरोधक (बैरियर) है। कांग्रेस ने हमेशा इसे पोषित किया। योगी ने कहा कि आजादी के अमृत महोत्सव काल में भारत उस ब्रिटेन को पछाड़कर दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना है जिसने कभी 200 साल तक हम पर राज किया था। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह झूठे वादे करने की हमारी आदत नहीं है। हमने जो भी वादे किए थे, उनको पूरा करके दिखाया है। जनता को गुमराह करके हम राजनीति नहीं करना चाहते। उन्होंने कहा कि हिमाचल की धरती ने इस देश को एक से एक बढक़र वीर सपूत दिए। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर देश को हिमाचल के सैनिकों की जरूरत पड़ जाए, तो हिमाचल के सैनिक पीछे नहीं हटेंगे। हिमाचल की राजनीति पर उन्होंने कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर कुछ केंद्र सरकार की, तो कुछ अपने स्तर पर योजनाएं चलाकर लोकप्रिय सीएम बन चुके हैं। महिलाओं के लिए टायलेट और हर घर में नल लगाकर पानी उपलब्ध करवा रहे हैं।
भाजपा राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा धर्मपुर विधानसभा क्षेत्र में चुनावी जनसभा को सम्बोधित करने पहुंचे। इस दौरान उन्होंने कहा कि आज दुनिया में पीएम नरेंद्र मोदी के कारण देश की तस्वीर बदल गई है आज मोबाइल उत्पादन में भारत दूसरे नंबर पर है, स्टील उत्पादन में भारत दूसरे नंबर पर है, सौर ऊर्जा में हम पांचवें नंबर पर पहुंच गए हैं, ब्रिटेन को पछाड़ कर भारत पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है। उन्होंने कहा कि आज न तो हरियाणा में कांग्रेस की सरकार है और न ही हिमाचल और पंजाब में। जेपी नड्डा ने कहा कि आज हिमाचल प्रदेश को बल्क ड्रग पार्क मिल रहा है। आने वाले समय में फार्मा में हिमाचल प्रदेश का बल्क ड्रग पार्क दुनिया के नक्शे पर देखा जाएगा। यही नहीं, यहां मेडिकल डिवाइस पार्क के साथ-साथ विकास के कई कार्य किए जा रहे हैं। पूर्व प्रधानमंत्री अटल गिहारी वाजपेयी ने हिमाचल इकोनॉमिक पैकेज दिया लेकिन 7 साल में कांग्रेस ने छीन लिया और कहा कि हरियाणा, पंजाब और जम्मू-कश्मीर में हमारी सरकार है तो हिमाचल को हम अकेले नहीं दे सकते।
नेता प्रतिपक्ष और हरोली से कांग्रेस के प्रत्याशी मुकेश अग्निहोत्री ने बुधवार को अपने विधानसभा क्षेत्र में कई नुक्कड़ सभाओं को संबोधित करते हुए चुनाव प्रचार किया। इस मौके पर उन्होंने दावा किया कि हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस के नाम की सुनामी चल रही है और इसमें भाजपा पूरी तरह से मलियामेट होने वाली है। उन्होंने कहा कि 10 दिन बाद हिमाचल में मित्रां दा नाम ही चलेगा। इस मौके पर मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि आने वाली कांग्रेस सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में कर्मचारियों को ओल्ड पेंशन स्कीम का अधिकार दिया जाएगा। उन्होंने कहा कि सरकारी नौकरी करने के बाद बुढ़ापे में पुरानी पेंशन ही एकमात्र सहारा होती है लेकिन अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने इस सहारे को भी कर्मचारियों से छीन लिया था। मुकेश ने कहा कि भाजपा आने वाले दिनों में दृष्टि पत्र में भी ओल्ड पेंशन स्कीम देने की बात कह दी लेकिन अब कोई फायदा नहीं अब कांग्रेस ने पहले ही कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम दे डाली है। नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि भाजपा गुंडागर्दी करते हुए चुनावी माहौल को अपने पक्ष में करने का प्रयास कर रही है और इसके तहत उनके विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस कार्यकर्ताओं के घर में छापेमारी करवाई गई हैं। लेकिन भाजपा को यह याद रखना चाहिए कि इस तरह से चुनाव नहीं जीते जाते। उन्होंने अधिकारियों कर्मचारियों को भी दो टूक शब्दों में चेतावनी दी है, मुकेश अग्निहोत्री ने कहा कि 10 दिन के भीतर हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है ऐसे में भाजपा की हिमायत करने वाले अधिकारियों और कर्मचारियों को गंभीर परिणाम भुगतने होंगे।
हिमाचल में कांग्रेस प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार और पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल रहने वाले 8 नेताओं को कांग्रेस ने पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया है। कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष प्रतिभा सिंह ने इन नेताओं को 6 साल के लिए निष्कासित किया है। इनमें आनी ब्लॉक कांग्रेस कमेटी के उपाध्यक्ष कैलाश शर्मा, जिला कांग्रेस कमेटी कुल्लू के महासचिव लोक राज ठाकुर, शेर सिंह ठाकुर व विजय कवंर, आनी से पंकज कुमार, शिमला शहरी से अभिषेक भरवालिया, सुलह से प्रदेश कांग्रेस कमेटी के सचिव सुनील कुमार व जसवां-परागपुर से मुकेश कुमार शामिल हैं। इससे पहले पार्टी प्रत्याशियों के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले 6 बागियों को 6 साल के लिए निष्कासित कर चुकी है। आने वाले दिनों में पार्टी प्रत्याशियों के खिलाफ प्रचार करने वाले कई नेताओं पर पार्टी अनुशासनात्मक कार्रवाई कर सकती है।
हिमाचल प्रदेश के हमीरपुर जिला में आज कांग्रेस के राष्ट्रीय नेता सचिन पायलट ने चुनावी जनसभा को संबोधित किया। इस सभा का आयोजन गांधी चौक पर पार्टी प्रत्याशी डॉक्टर पुष्पेंद्र वर्मा के समर्थन में किया गया था। सचिन पायलट ने अपने संबोधन के दौरान केंद्र व प्रदेश की भाजपा सरकार पर जमकर हल्ला बोला। उन्होंने कहा कि डबल इंजन की सरकार का एक इंजन जल्द ही हिमाचल में फेल होने वाला है। पायलट ने कहा है कि 12 नवंबर को डबल इंजन सरकार का एक इंजन हिमाचल सीज हो जाएगा। इस सरकार ने 5 साल में कुछ नहीं किया। OPS की मांग पर कर्मचारियों को यह सरकार कुछ नहीं दे पाई। अब धन-बल के जोर पर हिमाचल में चुनावी माहौल बनाने के लिए तरह-तरह के हथकंडे अपनाने पर इसकी नजर है। सचिन ने कहा कि कांग्रेस पार्टी अब तेजी से हिमाचल में अपने चुनाव प्रचार में आगे निकल रही है। हिमाचल में परिवर्तन की लहर साफ दिख रही है। लोग भाजपा के झूठे वादों में आने वाले नहीं हैं। सचिन पायलट ने कहा कि कांग्रेस ने जो भी वायदे जनता से किए हैं उन्हें पूरा किया है। उन्होंने कहा कि भाजपा कहती कुछ और है और करती कुछ है। उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हिमाचल में बार-बार वोट मांगने के लिए आ रहे हैं, लेकिन यहां महंगाई आसमान छू रही है। पेपर लीक हुए और बेरोजगारी बढ़ती चली गई। एक भी भाजपा नेता महंगाई कम करने की बात नहीं कर रहा है। सचिन पायलट ने कहा कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए कि कितने लोगों को रोजगार दिया गया है। उन्होंने कहा सत्ता वापसी के बाद कांग्रेस प्रदेश की दिशा और दशा बदलेगी। महंगाई-बेरोजगारी से राहत दिलाई जाएगी। कर्मचारियों की OPS की मांग पूरी की जाएगी, क्योंकि जिन प्रदेशों में कांग्रेस की सरकार है, वहां भी पुरानी पेंशन दी जा रही है।
जिला ऊना की गगरेट सीट इस बार हॉट सीट है और इस सीट पर दिलचस्प मुकाबला होता दिख रहा है। कांग्रेस ने यहाँ से हालहीं में पार्टी में शामिल हुए जिला परिषद् सदस्य चैतन्य शर्मा को टिकट दिया है। इससे नाराज होकर पूर्व विधायक रहे राकेश कालिया ने भाजपा का दामन थाम लिया है। उधर भाजपा ने फिर सीटिंग विधायक राजेश ठाकुर पर दाव खेला है। पर कालिया और ठाकुर के साथ आने के बावजूद भी ये मुकाबला फिलवक्त बराबरी का दिख रहा है। आम आदमी पार्टी भी यहाँ से मैदान में है और उसके प्रदर्शन पर भी निगाहें रहेंगी। इन सबके बीच लम्बे समय से क्षेत्र में सक्रीय रहे मनीष शारदा न तो चुनाव लड़ रहे है और न ही किसी प्रत्याशी के समर्थन में है। शारदा करीब एक दशक से इस क्षेत्र में निरंतर सक्रीय है और उनके समर्थकों की खासी तादाद है। माहिर मानते है कि शारदा यदि किसी प्रत्याशी के समर्थन में उतरते है तो इसका ख़ासा प्रभाव पड़ेगा। पर अब तक शारदा साइलेंट है और चुनाव से दुरी बनाये हुए है। विदित रहे कि गगरेट सीट पर लम्बे वक्त तक कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कुलदीप कुमार का कब्ज़ा रहा है। पर 2008 के परिसीमन के बाद ये सीट ओपन हुई और 2012 में यहाँ से राकेश कालिया ने चुनाव लड़ा। दरअसल कालिया चिंतपूर्णी से चुनाव लड़ते थे जो सीट 2008 में आरक्षित हो गई और ऐसे में कुलदीप कुमार और कालिया ने अपने चुनाव क्षेत्र की अदला बदली कर ली। 2012 में इसका लाभ दोनों को मिला और दोनों चुनाव जीत गए, पर 2017 में दोनों को शिकस्त मिली। 2017 में कालिया की हार का अंतर दस हजार के करीब था और कांग्रेस के तमाम सर्वे में भी कालिया पिछड़ते दिख रहे थे और ये ही उनके टिकट कटने का कारण बना। बहरहाल कालिया भाजपाई हो गए है और गगरेट का चुनावी संग्राम बेहद रोचक। फिलवक्त निगाहें मनीष शारदा पर भी टिकी है कि क्या वो अपने समर्थकों सहित किसी प्रत्याशी के लिए वोट मांगेंगे या चुप्पी बनाये रखेंगे।
भाजपा ने अपनी पहली लिस्ट में 10 सिटिंग विधायकों के टिकट काट दिए है। इनमें आनी के विधायक किशोरी लाल, करसोग के विधायक हीरालाल, द्रंग से जवाहर ठाकुर, सरकाघाट से कर्नल इंद्रसिंह, भोरंज से कमलेश कुमारी, बिलासपुर से सुभाष ठाकुर, ज्वाली से अर्जुन सिंह, धर्मशाला से विशाल नहरिया, भरमौर से जियालाल और चंबा से पवन नय्यर का नाम शामिल है। इनमें आनी से किशोरी लाल की जगह लोकेंद्र कुमार को, करसोग से हीरालाल की जगह दीपराज कपूर, द्रंग से जवाहर ठाकुर की पूर्ण चंद ठाकुर को प्रत्याशी बनाया है। सरकाघाट से कर्नल इंद्र सिंह की जगह दलीप ठाकुर, भोरंज से कमलेश कुमारी की डॉ. अनिल धीमान, बिलासपुर से सुभाष ठाकुर की संगठन महामंत्री त्रिलोक जमवाल को टिकट दिया है। ज्वाली से अर्जुन सिंह की जगह संजय गुलेरिया, धर्मशाला से विशाल नहरिया की जगह राकेश चौधरी, भरमौर से जियालाल की जगह इंदिरा गांधी मेडिकल कॉलेज (IGMC) के पूर्व एमएस डा.. जनकराज और चंबा से पवन नय्यर की जगह इंदिरा कपूर को उम्मीदवार बनाया गया है। मंडी जिले की धर्मपुर सीट से जयराम सरकार में मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर की जगह उनके बेटे रजत ठाकुर को उम्मीदवार बनाया गया है। महेंद्र सिंह ठाकुर इस बार चुनाव नहीं लड़ेंगे।
भाजपा ने हिमाचल विधानसभा चुनाव के लिए 62 उम्मीदवारों की पहली लिस्ट जारी कर दी है। इस लिस्ट में 5 महिलाएं शामिल है। साथ ही पार्टी हाईकमान ने 10 सिटिंग विधायकों के टिकट काट दिए है। राज्य में सिंगल फेज में 12 नवंबर को मतदान होगा। नतीजे 8 दिसंबर को घोषित होंगे। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर सिराज सीट से चुनाव लड़ेंगे। उनके खिलाफ कांग्रेस के चेतराम मैदान में हैं। अनिल शर्मा को मंडी और सतपाल सिंह सत्ती को उना से टिकट दिया गया है। करसोग सीट से दीपराज कपूर, सुंदरनगर से राकेश जमवाल, नाचन से विनोद कुमार और द्रंग सीट से पूर्णचंद ठाकुर को टिकट दिया गया है। जोगेंद्रनगर सीट से प्रकाश राणा, धर्मपुर से रजत ठाकुर, मंडी सदर से अनिल शर्मा, बल्ह से इंद्र सिंह गांधी और सरकाघाट सीट से दिलीप ठाकुर को उम्मीदवार बनाया गया है मंडी जिले की टिकटों में एक बड़ा बदलाव धर्मपुर सीट पर किया गया है। पार्टी ने यहां मौजूदा मंत्री महेंद्र सिंह ठाकुर की जगह उनके बेटे रजत ठाकुर को उम्मीदवार बनाया है। भाजपा ने कांगड़ा जिले में 15 सीटों में से 13 पर उम्मीदवारों का ऐलान क्र दिया है। फ़िलहाल देहरा-ज्वालामुखी होल्ड पर है। वहीं नूरपुर सीट से रणवीर सिंह निक्का, इंदौरा से रीटा धीमान, फतेहपुर से राकेश पठानिया, ज्वाली से संजय गुलेरिया, जसवां परागपुर से विक्रम ठाकुर, जयसिंहपुर से रविंद्र धीमान, सुलह से विपन परमार, नगरोटा बगवां से अरुण कुमार मेहरा, कांगड़ा से पवन काजल, शाहपुर से सरवीन चौधरी, धर्मशाला से राकेश चौधरी, पालमपुर से त्रिलोक कपूर और बैजनाथ से मुलखराज प्रेमी को टिकट दिया है। पार्टी ने चंबा जिले की पांचों सीटों पर टिकटों का ऐलान कर दिया गया। यहां चुराह सीट से मौजूदा एमएलए व डिप्टी स्पीकर हंसराज, भरमौर से जनकराज, चंबा सदर सीट इंदिरा कपूर और डलहौजी से बीएस ठाकुर और भटियात से विक्रम जरियाल को टिकट दिया गया है। भाजपा ने कुल्लू जिले में 4 सीटें में से 3 सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। फ़िलहाल कुल्लू सीट होल्ड पर है। इसमें मनाली सीट से गोविंद सिंह ठाकुर, बंजार से सुरेंद्र शौरी और आनी से लोकिंदर कुमार को टिकट दिया गया है। पूर्व सीएम प्रेमकुमार धूमल के गृह जिले हमीरपुर की 5 में से 4 सीटों पर भी उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया गया। यहां भोरंज सीट से अनिल धीमान, सुजानपुर से कैप्टन रणजीत सिंह, हमीरपुर सीट से नरेंद्र ठाकुर, नादौन से विजय अग्निहोत्री को टिकट दिया गया है। यहां बड़सर सीट से फिलहाल उम्मीदवार की घोषणा नहीं की गई। ऊना जिले की पांच में से 4 सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया गया। यहां चिंतपूर्णी सीट से बलबीर चौधरी, गगरेट से राजेश ठाकुर, ऊना से सतपाल सिंह सत्ती, कुटलैहड़ सीट से वीरेंद्र कंवर को उम्मीदवार बनाया गया है। यहां हरोली सीट से टिकट का ऐलान पहली लिस्ट में नहीं किया गया। बिलासपुर जिले की चारों सीटों से उम्मीदवार घोषित कर दिए गए। यहां बिलासपुर सदर सीट से मौजूदा विधायक सुभाष ठाकुर का टिकट काटकर उनकी जगह त्रिलोक जमवाल को उम्मीदवार बनाया गया है। इसके अलावा झंडुता सीट से जेआर कटवाल, घुमारवीं से राजेंद्र गर्ग और श्रीनयनादेवी सीट से रणधीर शर्मा को उम्मीदवार बनाया गया है। सोलन जिले की पांचों सीटों से टिकट घोषित कर दिए गए। यहां अर्की सीट से पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा को टिकट दी गई है। नालागढ़ सीट से हाल ही में कांग्रेस से 'घर वापसी' करने वाले लखविंद्र राणा, दून सीट से परमजीत सिंह पम्मी, सोलन से डॉ. राजेश कश्यप और कसौली सीट से मौजूदा विधायक डॉ. राजीव सैजल को उम्मीदवार बनाया गया है। भाजपा ने सिरमौर जिले की पांचों सीटों पर भी पार्टी ने कैंडिडेट्स का ऐलान कर दिया। पच्छाद सीट से रीना कश्यप, नाहन से डॉ. राजीव बिंदल, श्रीरेणुकाजी से नारायण सिंह, पांवटा साहिब से मौजूदा मंत्री सुखराम चौधरी और शिलाई सीट से बलदेव तोमर को टिकट दी गई है। शिमला जिले की 8 में से 7 सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा कर दी गई। यहां चौपाल सीट से बलबीर वर्मा, ठियोग से अजय श्याम, कुसुम्पटी से सुरेश भारद्वाज, शिमला शहरी से संजय सूद, शिमला ग्रामीण से रवि मेहता, जुब्बल कोटखाई से चेतन बरागटा, रोहडू से शशिबाला को उम्मीदवार बनाया गया है। सुरेश भारद्वाज 2017 में शिमला शहरी सीट से जीते थे। पार्टी ने इस बार उन्हें शिमला शहरी की जगह कुसुम्पटी से टिकट दिया है। शिमला जिले की रामपुर सीट से पार्टी ने फिलहाल टिकट का ऐलान नहीं किया है।
हिमाचल की ठंडी फिजाओं में चुनाव की गर्माहट आ गई है। प्रदेश में चुनावी चौसर बिछ गई है और शह -मात का सियासी खेल चरम पर है। 12 नवंबर को प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों पर मतदान होगा और 8 दिसंबर को ये स्पष्ट हो जाएगा कि प्रदेश में सत्तासीन कौन होगा। सियासत शबाब पर है और राजनैतिक दलों में टिकट आवंटन पर माथापच्ची हो रही है, साथ ही दोनों प्रमुख दल बगावत साधने की कवायद में जुट गए है। एक तरफ जहां कांग्रेस की अधिकांश टिकटें लगभग तय है, वहीं भाजपा का चिंतन मंथन जारी है। आम आदमी पार्टी भी प्रत्याशियों की पहली सूची जारी कर चुकी है और सम्भवतः जल्द दूसरी सूची जारी हो। भाजपा जहां मिशन रिपीट की कवायद में है तो वहीं कांग्रेस सत्ता वापसी के लिए हर संभव प्रयास कर रही है। इसी बीच आम आदमी पार्टी भी प्रदेश में अपने पैर जमाने की कोशिश कर रही है। अब जनता रिवाज़ बदलती है या तख़्त और ताज बदल देती है, ये देखना रोचक होगा। जैसे-जैसे राजनैतिक दल टिकट तय करने की ओर बढ़ रहे है, वैसे ही बगावती सुर भी तेज़ हो गए है। कांग्रेस के 57 टिकटों पर सहमति बन चुकी है, मगर कुछ टिकटों पर अब तक कांग्रेस वेट एंड वाच वाली स्थिति में है। वहीं भाजपा के टिकट आवंटन की बात करें तो इस बार पार्टी ने टिकट आवंटन के लिए एक नया रास्ता निकाला है। पार्टी हर कार्यकर्त्ता के मत को प्राथमिकता दे रही है और टिकट के आवंटन से पहले पार्टी द्वारा कार्यकर्ताओं की राय जानने के लिए गुप्त मतदान भी करवाया गया। हालांकि आखरी फैसला भाजपा हाईकमान को ही लेना है। हिमाचल के चुनावी रण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने खुद मोर्चा संभाला हुआ है। हिमाचल में प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ रैलियां कर चुके हैं और पार्टी एक तरह से पीएम मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ रही है। अमित शाह और जेपी नड्डा भी पूरी तरह एक्टिव है। ऐसे में भाजपा द्वारा कई तरह के सरप्राइज तय है। उम्मीदवारों के ऐलान से पहले वोटिंग कराना भी इसी तरह का सरप्राइज रहा। आम आदमी पार्टी टिकट की अपनी पहली सूची जारी कर चुकी है, मगर माना जा रहा है कि आगे की अधिकांश टिकटों के लिए पार्टी वेट एंड वाच की नीति अपना सकती है। सम्भवतः आप दोनों ही दलों के संभावित बागियों पर नज़र बनाये हुए है और आने वाले वक्त में दोनों ही दलों से रुष्ट जनाधार वाले नेताओं को पार्टी में शामिल करने की नीति पर आगे बढ़ सकती है। बहरहाल, किसकी बनेगी सरकार ये तो 9 दिसंबर को तय होगा पर हिमाचल प्रदेश में एक जोरदार चुनावी संग्राम तय है। न्यूनतम बगावत ही जीत का मंत्र जानकार मान कर चल रहे है कि जो भी राजनैतिक दल न्यूनतम अंतर्कलह और न्यूनतम बगावत सुनिश्चित करेगा , उसे लाभ मिल सकता है। सभी राजनैतिक दलों के रणनीतिकार अभी से संभावित बागियों को मनाने में जुटे हुए है। किसकी कवायद सफल होती है और किसकी नहीं, ये 29 अक्टूबर को नामांकन वापस लेने की अंतिम तिथि पर ही पता चलेगा। बहरहाल सभी का प्रयास ये ही है कि संभावित बागियों को नामांकन भरने से पहले ही मना लिया जाएं। निर्दलीय चेहरों ने बधाई रोचकता प्रदेश की कई सीटों पर कई उम्मीदवार निर्दलीय ही ताल ठोकते दिख रहे है। इनमे से कई को लेकर कभी भाजपा में जाने के कयास लगते है, तो कभी कांग्रेस या आप में। पर अब तक ऐसे कई चेहरे अकेले आगे बढ़ रहे है। इनकी मौजूदगी ने इस चुनाव को और रोचक बना दिया है। अगर ये निर्दलीय चुनाव लड़ते है तो कई सीटों के समीकरण बदल सकते है। मसलन गगरेट से चैतन्य शर्मा, जसवां परागपुर से कैप्टेन संजय पराशर जैसे कई नामो को लेकर लगातार कयासबाजी जारी है।
प्रदेश में चुनावी अखाड़ा पूरी तरह सज चूका है। आचार सहिंता लग चुकी है। सत्ता पक्ष अपने विकास कार्य गिना रहा है तो विपक्ष, सरकार की हर उस नाकामी को भुनाने का प्रयास कर रहा है जो भाजपा की डगर कठिन कर दे। कोशिश तो पूरी थी मगर इसके बावजूद भी प्रदेश के कुछ ऐसे मुद्दे है जो सरकार सुलझा नहीं पाई। ऐसे ही अनसुलझे मसलों में प्रदेश के कर्मचारियों का सबसे बड़ा मुद्दा भी शेष है। ये वो मुद्दा है जो सत्ता हिलाने की कुव्वत रखता है। हम बात कर रहे है प्रदेश के करीब एक लाख कर्मचारियों के सबसे बड़े मुद्दे, पुरानी पेंशन बहाली की। कर्मचारी किसी भी सरकार की रीढ़ होती है और जब कर्मचारी ही अपने भविष्य को लेकर सुरक्षित महसूस नहीं कर रहे है, तो ऐसे में किसी भी सरकार की डगर मुश्किल हो सकती हैं। एनपीएस कर्मचारी महासंघ से जुड़े हिमाचल के एक लाख से अधिक कर्मचारी पुरानी पेंशन बहाली के लिए लगातार संघर्ष करते रहे परन्तु वर्तमान सरकार के राज में पुरानी पेंशन बहाल नहीं हुई। एनपीएस कर्मचारी महासंघ के बैनर तले आंदोलन लगातार तीव्र होता गया। कर्मचारियों ने आचार सहिंता लगने तक क्रमिक अनशन भी किया और खुलकर 'वोट फॉर ओपीएस' का नारा दिया। तो कर्मचारी क्या भाजपा के मिशन रिपीट के लक्ष्य में सबसे बड़ी बाधा बनेंगे, ये सवाल फिलहाल बना हुआ है। निसंदेह सरकार के खिलाफ कर्मचारियों का ये प्रदर्शन विपक्ष में बैठी कांग्रेस के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। उधर भाजपा बार-बार ये याद दिला रही है कि प्रदेश में नई पेंशन स्कीम कांग्रेस की वीरभद्र सरकार ने लागू की थी। अब कर्मचारियों का क्या रुख रहता है, ये देखना रोचक होगा। क्या एनपीएस कर्मचारी महासंघ के आह्वान पर प्रदेश का कर्मचारी 'वोट फॉर ओपीएस' मुहीम का हिस्सा बनेगा, इसी सवाल के जवाब में सम्भवः अगली सरकार की तस्वीर छिपी है। गौरतलब है कि नई पेंशन स्कीम कर्मचारी महासंघ द्वारा 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान चलाया जा रहा है, जहां कर्मचारियों को ओपीएस के नाम पर वोट देने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। संघ की दो टूक है की जो भी पुरानी पेंशन बहाल करेगा वोट उसी को मिलेगा। जाहिर है पुरानी पेंशन बहाली का वादा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी कर रहे है, जबकि भाजपा अभी भी इस मुद्दे पर ढुलमुल रवैया अपनाएं हुए है। तो क्या भाजपा के मिशन रिपीट में 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान खलनायक की भूमिका निभा सकता है, या इस अभियान से व्यापक तौर पर प्रदेश का आम कर्मचारी दूर रहता है, इस पर निगाहें जरूर रहने वाली है। हर मंच से वचन दे रही कांग्रेस कांग्रेस के तमाम बड़े नेता बार -बार दोहरा रहे है कि सरकार बनने पर पहली कैबिनेट में ओपीएस बहाल होगी। हर मंच से इस बात को दोहराया जा रहा है। प्रियंका गाँधी की परिवर्तन प्रतिज्ञा रैली में उन्होंने भी पहली कैबिनेट में पुरानी पेंशन बहाली का वचन दिया। प्रियंका खुद क्रमिक अनशन पर बैठे कर्मचारियों से मिलने पहुंची और उन्हें आश्वस्त किया। ऐसे में क्या एनपीएस कर्मचारी महासंघ खुलकर कांग्रेस के लिए काम करेगा, ये देखना रोचक होगा। वैसे इसमें कोई संशय नहीं है कि यदि इनका 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान कामयाब रहा तो इसका स्वाभाविक लाभ कांग्रेस को हो सकता है। पर मूल सवाल ये ही है कि क्या 'वोट फॉर ओपीएस' मुहीम का बड़ा असर दिखेगा या प्रदेश का आम कर्मचारी अन्य मुद्दों को वोट का मुख्य आधार बनाएगा। कांग्रेस दे रही राजस्थान-छत्तीसगढ़ का उदाहरण देश के दो राज्यों में कांग्रेस शासित सरकार है, राजस्थान और छत्तीसगढ़। इन दोनों राज्यों में कांग्रेस पुरानी पेंशन बहाल कर चुकी है। झारखंड में कांग्रेस गठबंधन की सरकार है और वहाँ भी पुरानी पेंशन बहाल हो चुकी है। हिमाचल प्रदेश में भी कांग्रेस इन तीन राज्यों का हवाला देते हुए पुरानी पेंशन बहाल करने का वादा कर रही है। पार्टी का कहना है कि यदि वो सत्ता में लौटी तो पहली कैबिनेट में पुरानी पेंशन बहाल होगी। प्रियंका गाँधी ने भी अपनी परिवर्तन प्रतिज्ञा रैली में इसका जिक्र किया। जयराम देते रहे है आर्थिक हालात का हवाला वैसे आपको याद दिला दें की भाजपा के 2017 विधानसभा चुनाव के घोषणा पत्र में भी ये कहा गया था कि सरकारी विभागों में कर्मचारियों की पेंशन हेतु केंद्र सरकार से परामर्श के लिए सीएम की अगुवाई में पेंशन योजना समिति का गठन किया जाएगा। समिति तो बनी मगर कर्मचारियों को पुरानी पेंशन नहीं मिल पाई। दरअसल इस योजना को लागू करने के लिए एकमुश्त दो हजार करोड़ रुपये चाहिए और हर माह 500 करोड़ की जरूरत होगी। जयराम सरकार ने कई बार ये स्पष्ट किया कि फिलवक्त प्रदेश के आर्थिक हालात ऐसे नहीं है कि पुरानी पेंशन लागू की जा सके। हिमाचल सरकार अपने बलबूते ओल्ड पेंशन का भुगतान नहीं कर पाएगी, क्योंकि राज्य का राजकोष केंद्र सरकार से मिलने वाले रेवेन्यू डेफिसिट ग्रांट पर चलता है। 'आप' ने भी किया वादा आम आदमी पार्टी ने भी प्रदेश में ओपीएस बहाल करने का वादा किया है। बीते दिनों पार्टी में घर वापसी करने वाले वरिष्ठ नेता डॉ राजन सुशांत तो इस मुद्दे पर लम्बे समय से खुलकर बोलते रहे है। ऐसे में यदि कर्मचारी ओपीएस के नाम पर वोट करता है तो उसके पास आम आदमी पार्टी भी एक विकल्प होगा। जाने आखिर NPS का विरोध क्यों करते है कर्मचारी साल 2004 में केंद्र सरकार ने अपने कर्मचारियों की पेंशन योजना में एक बड़ा बदलाव किया था। इस बदलाव के तहत नए केंद्रीय कर्मचारी पुरानी पेंशन योजना के दायरे से बाहर हो गए। ऐसे कर्मचारियों के लिए सरकार ने नेशनल पेंशन सिस्टम (NPS) को लॉन्च किया। यह 1972 के केंद्रीय सिविल सेवा (पेंशन) नियम के स्थान पर लागू की गई और उन सभी सरकारी कर्मचारियों के लिए इस स्कीम को अनिवार्य कर दिया गया जिनकी नियुक्ति 1 जनवरी 2004 के बाद हुई थी। कुछ ही समय बाद हिमाचल प्रदेश सरकार ने भी सरकारी क्षेत्र में नियुक्त होने वाले कर्मियों के लिए पुरानी पेंशन स्कीम बंद कर नई पेंशन स्कीम लागू कर दी गई। शुरूआती दौर में कर्मचारियों ने इस स्कीम का स्वागत किया, लेकिन जब NPS का असल मतलब समझ आने लगा तो विरोध शुरू हो गया। दरअसल एनपीएस कर्मचारी के अंतिम मूल वेतन के मुताबिक न्यूनतम पेंशन की गारंटी नहीं देती। नई पेंशन स्कीम के अंतर्गत हर सरकारी कर्मचारी की सैलरी से अंशदान और DA जमा कर लिया जाता है। ये पैसा सरकार उसके एनपीएस अकाउंट में जमा कर देती है। रिटायरमेंट के बाद एनपीएस अकाउंट में जितनी भी रकम इक्कठा होगी उसमें से अधिकतम 60 फीसदी ही निकाला जा सकता है। शेष 40 फीसदी राशि को सरकार बाजार में इन्वेस्ट करती है और उस पर मिलने वाले सालाना ब्याज को 12 हिस्सों में बांट कर हर महीने पेंशन दी जाती है। यानि पेंशन का कोई तय राशि नहीं होती। पैसा कहां इन्वेस्ट करना है, ये फैसला भी सरकार का ही होगा। इसके लिए सरकार ने PFRDA नाम की एक संस्था का गठन किया है। कर्मचारियों का कहना है की उनका पैसा बाजार जोखिम के अधीन है और बाजार में होने वाले उलटफेर के चलते उनकी जमा पूंजी सुरक्षित नहीं है। पुरानी पेंशन स्कीम इससे कई ज़्यादा बेहतर मानी जाती है। उसमें सरकारी नौकरी के सभी लाभ मिला करते थे। पहले रिटायरमेंट पर प्रोविडेंट फण्ड के नाम पर एक भारी रकम और इसके साथ ताउम्र तय पेंशन जोकि मृत्यु के बाद कर्मचारी की पत्नी को भी मिला करती थी। NPS अच्छी है तो माननीयों के लिए क्यों नहीं ! मई 2003 के बाद से माननीय (सांसद व विधायकों ) को तो पेंशन का लाभ मिल रहा है, जबकि सरकारी कर्मचारी को एनपीएस का झुनझुना थमा दिया गया है। यदि यह योजना इतनी बढ़िया है तो सांसद व विधायकों को भी पेंशन के स्थान पर एनपीएस का ही लाभ देना चाहिए। यदि एक नेता पहले विधायक हो और फिर लोकसभा का चुनाव लड़े और सांसद बन जाए तो उसे दोनों तरफ से पेंशन मिलती है। इस देश में ये सुविधा सिर्फ और सिर्फ नेताओं को ही उपलब्ध है। क्या एनपीएस कर्मचारी महासंघ को हल्के में लेने की भूल कर बैठी भाजपा ? जयराम सरकार ने प्रदेश के कर्मचारियों की कई मांगे पूरी की। पर पुरानी पेंशन बहाली का मुद्दा हमेशा भाजपा के गले की फांस बना रहा। एनपीएस कर्मचारी महासंघ के बैनर तले ये मांग आहिस्ता-आहिस्ता आंदोलन का रूप लेती गई। विशेषकर पिछले दो साल में एनपीएस कर्मचारी महासंघ से काफी कर्मचारी जुड़ते गए। दूसरी ओर प्रदेश कर्मचारी महासंघ अध्यक्ष अश्वनी ठाकुर की अगुवाई में सरकार के साथ कदमताल करता चला। क्या भाजपा के रणनीतिकारों ओर निष्ठावानों ने एनपीएस कर्मचारी महासंघ को हल्के में लेने की भूल की, ये सवाल माहिरों के जहाँ में जरूर है। हालांकि इसका फैसला को चुनाव के नतीजे ही करेंगे। एनपीएस कर्मचारी महासंघ के अध्यक्ष प्रदीप ठाकुर इस वक्त प्रदेश के प्रभवशाली कर्मचारी नेताओं में शुमार है। यदि इनका 'वोट फॉर ओपीएस' अभियान सफल रहा तो निसंदेह बतौर कर्मचारी नेता प्रदीप ठाकुर का रुतबा भी बढ़ेगा। एनपीएस के क्रमिक अनशन में शामिल हुईं प्रियंका गांधी परिवर्तन प्रतिज्ञा महारैली से पहले प्रियंका गांधी 14 दिन से पुरानी पेंशन बहाली को लेकर क्रमिक अनशन पर बैठे कर्मचारियों से मिली। वह कर्मचारियों के अनशन में शामिल हुई और न्यू पेंशन स्कीम कर्मचारी एसोसिएशन के 'वोट फॉर ओपीएस का समर्थन' किया। उन्होंने कर्मचारियों को आश्वासन दिया कि कांग्रेस सरकार बनते ही पुरानी पेंशन योजना लागू की जाएगी। न्यू पेंशन स्कीम के प्रदेश अध्यक्ष प्रदीप ठाकुर भी मौजूद रहे। न्यू पेंशन स्कीम कर्मचारी एसोसिएशन के पदाधिकारी ओल्ड डीसी कार्यालय के बाहर पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली को लेकर क्रमिक अनशन पर बैठे हैं। एसोसिएशन के जिला अध्यक्ष अशोक ठाकुर ने कहा कि बार-बार पुरानी पेंशन की बहाली को लेकर पत्र लिखे जा रहे हैं, लेकिन कोई निर्णय नहीं ले रही। छत्तीसगढ़, राजस्थान और झारखंड में सरकार ने कर्मचारियों की मांग को मान लिया है। 1,35,000 कर्मचारी प्रदेश भर में हैं। करीब 10,000 कर्मचारी उसमें सोलन जिले के हैं। अब एसोसिएशन ने निर्णय लिया है कि उसी पार्टी को वोट दिया जाएगा, जो ओल्ड पेंशन की बहाली करेगी।
हाटीयों की बरसों की मांग को भाजपा ने पूरा किया है। बीते दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने ऐतिहासिक निर्णय लेते हुए गिरिपार के हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने का ऐलान किया था। चुनाव से पहले लिए गए इस फैसले को भाजपा का मास्टर स्ट्रोक माना जा रहा है। इस निर्णय से सिरमौर जिले की करीब डेढ़ लाख से अधिक की आबादी लाभान्वित होगी और इसका पूरा लाभ लेने के लिए भाजपा हर संभव प्रयास कर रही है। इसी उदेश्य से भाजपा द्वारा सिरमौर में हाटी आभार रैली करवाई गई जिसमें खुद केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने शिरकत की। अमित शाह गिरिपार के हाटी समुदाय के बीच पहुंचे और चुनावी उद्घोष किया। शाह ने गिरिपार की जनता को भाजपा की उपलब्धियां भी गिनवाई और कांग्रेस की नाकामियां भी। इस रैली में शाह ये तक कह गए की कांग्रेस ने हाटी समुदाय के साथ 55 साल अन्याय किया है। उन्हें उनके अधिकारों से वंचित रखा है। चुनाव से पहले इस उपलब्धि को खूब भुनाया जा रहा है और रैली में भी भाजपा के आभार के लिए भारी संख्या में हाटी वहां पहुंचे थे। अब ये भीड़ वोटों में तब्दील होती है या नहीं ये देखना रोचक होगा। बता दें कि सिरमौर जिले के गिरिपार क्षेत्र में रहने वाले हाटी समुदाय के लोग बीते पांच दशक से एसटी का दर्जा मांग रहे थे। दरअसल गिरिपार क्षेत्र के लोगों जैसी संस्कृति, परंपराओं और परस्पर संबंधों वाले उत्तराखंड के जौनसार बावर क्षेत्र के लोगों को 1967 में ही यह दर्जा दे दिया गया था, पर हिमाचल में ऐसा नहीं हुआ था। अब आखिरकार इन लोगों का दशकों का संघर्ष रंग लाया और उन्हें जनजातीय दर्जा मिलने जा रहा है। गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय दर्जा देने का मसला सीधे 154 पंचायतों से जुड़ा है और इसके दायरे में चार विधानसभा क्षेत्र आते है। आगामी विधानसभा चुनाव में शिलाई और श्रीरेणुकाजी के अतिरिक्त पच्छाद व पांवटा साहिब विधानसभा क्षेत्रों में भी ये मुद्दा निर्णायक भूमिका निभा सकता है। अब तक कई सरकारें आई और गई, लेकिन हाटी समुदाय को कोई भी सरकार जनजातीय दर्जा नहीं दिला पाई। जाहिर है ऐसे में भाजपा इस निर्णय का लाभ उठाने में कोई कसर नहीं छोड़ने वाली। वहीं अनुसूचित जाति (एससी) के लोगों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा नहीं दिया जा रहा है। दरअसल इस वर्ग के लोग इसके पक्ष में नहीं थे। एसटी में हाटी समुदाय के अन्य सभी लोग शामिल होंगे। एसटी दर्जे से सिरमौर जिले की 154 पंचायतें और 389 गांव कवर होंगे। इससे 1,59,716 लोग लाभान्वित होंगे, जबकि जिले के एससी के 90,446 लोग एसटी के दायरे में नहीं आएंगे। ऐसा कर भाजपा ने एससी समुदाय के संभावित रोष को भी साधने का प्रयास किया है। जौनसार बाबर को 1967 में मिला था दर्जा इसे विडंबना ही कहेंगे कि दूरदराज क्षेत्र से होने के बावजूद भी गिरिपार के हाटी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के दर्जे के साथ आने वाली प्रतिष्ठित सरकारी परिलब्धियां नहीं मिल पाई थी। इस समुदाय के प्रतिनिधि कई वर्षों से अपनी मांगों को लेकर संघर्षरत थे। मगर हुक्मरानों को हाटी समुदाय का मुद्दा सुलझाते इतना वक्त लग गया। गिरिपार का हाटी समुदाय उत्तराखंड के जौनसार बाबर क्षेत्र के जौनसारी समुदाय की तर्ज पर जनजातीय दर्जे की मांग कर रहा था। बता दें कि पूर्व में उत्तराखंड का जौनसार बाबर क्षेत्र सिरमौर रियासत का ही एक भाग था। जौनसार बाबर को 1967 में केंद्र सरकार ने जनजाति का दर्जा दिया था। जौनसार बाबर और सिरमौर के गिरिपार की लोक संस्कृति, लोक परंपरा, रहन-सहन एक समान है। इनके गांवों के नामों और भाषा में भी समानता है। बावजूद इसके जिला सिरमौर की 144 पंचायतों को ये दर्जा नहीं मिल पाया था। अब तक लंबित क्यों था मामला 1978 में पहली बार गिरीपार क्षेत्र के लिए जनजातीय दर्जे की मांग हेतु राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग को पत्र भेजा गया था । 1979 में जब पहली रिपोर्ट आई तो राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग जनजाति के लिए सिफारिश की गयी लेकिन उसके बाद भी मामला लंबित पड़ा रहा। इसके बाद विधानसभा में इसके तहत एक कमेटी गठित की गई जिसका नाम कन्हैया लाल कमेटी रखा गया। ट्राइबल कमीशन के सदस्य टीएस नेगी की कमेटी ने इलाके का दौरा किया और रिपोर्ट भी सौंपी। 1983 में केंद्रीय हाटी समिति बनाई गयी। वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी। राज्य सरकार ने प्रदेश विश्वविद्यालय के जनजातीय शोध एवं अध्ययन संस्थान को यह जिम्मा सौंपा। वर्ष 2011 में केंद्र सरकार ने राज्य सरकार से रिपोर्ट मांगी। राज्य सरकार ने प्रदेश विश्वविद्यालय के जनजातीय शोध एवं अध्ययन संस्थान को यह जिम्मा सौंपा। वर्ष 2016 में इसकी रिपोर्ट केंद्र सरकार को भेजी गई, जिसके बाद मामले की फाइल रजिस्ट्रार जनरल ऑफ इंडिया के पास लंबित थी। सितंबर 2018 में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने स्वयं हाटी मुद्दे को लेकर गृहमंत्री राजनाथ सिंह से चर्चा की। छह दिसंबर 2018 को तत्कालीन सांसद वीरेंद्र कश्यप के नेतृत्व में केंद्रीय हाटी समिति का एक प्रतिनिधिमंडल गृह मंत्री से मिला। आरजीआई को गृह मंत्री ने जल्द कार्यवाही के निर्देश दिए गए पर हुआ कुछ नहीं। अब भाजपा की डबल इंजन की सरकार में ये मांग पूरी हुई। चार विधानसभा क्षेत्रों में सीधा असर इस फैसले से पच्छाद की 33 पंचायतों और एक नगर पंचायत के 141 गांवों के कुल 27,261 लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 21,594 लोग एसटी में नहीं होंगे। रेणुका जी में 44 पंचायतों के 122 गांवों के 40,317 संबंधित लोगों को लाभ होगा। यहां एससी के 29,990 लोग बाहर होंगे। शिलाई विधानसभा क्षेत्र में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोग इसमें शामिल होंगे। 30,450 एससी के लोग इससे बाहर रहेेंगे। शिलाई में 58 पंचायतों के 95 गांवों के 66,775 लोगों को यह लाभ मिलेगा। एससी के 30,450 लोग यहां एसटी में नहीं होंगे। पांवटा में 18 पंचायतों के 31 गांवों के 25,323 लोग शामिल होंगे। यहां एससी के 9,406 लोग एसटी के दायरे से बाहर रहेंगे। विरोधियों के नारे को जयराम ने बनाया हथियार 'सिरमौर वालो, मामा ने अपना फर्ज पूरा कर दिया है। अब भांजों की बारी है।' सतौन, हाटी धन्यवाद रैली में प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने ये शब्द कहे। दरअसल, हिमाचल प्रदेश विधानसभा के मॉनसून सत्र के दौरान ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) के लिए संघर्ष कर रहे कर्मचारियों ने धरना दिया था। उस दौरान मामा संबोधन के साथ एक नारा भी दिया था। विपक्ष ने भी इसे सरकार के खिलाफ हथियार बनाया और अब मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने इसी नारे को सकारात्मक रूप से लेते हुए सिरमौर के लोगों को भांजा कहकर संबोधित किया है। मुख्यमंत्री के अनुसार हाटी आंदोलन के बाद से सिरमौर से उनका रिश्ता मामा भांजे का बन चूका है। रैली में जयराम ने ये भी कहा की यह रिश्ता सच में उनके लिए भावनात्मक है और हर स्तर पर वे हाटी समुदाय के अधिकार पूर्ण करने की लड़ाई लड़ते रहेंगे। जनजातीय घोषित होने पर मिलेगा ये फायदा - गिरिपार के युवाओं को सरकारी नौकरियों में आरक्षण मिलेगा और रोजगार के नए द्वार खुलेंगे। - केंद्र सरकार से विकास कार्यों के लिए अतिरिक्त मदद मिलेगी। - लुप्त होती जा रही हाटी लोक संस्कृति को नई पहचान मिलेगी। - क्षेत्र के विद्यार्थियों को शिक्षण संस्थानों में शिक्षा प्राप्त करने के लिए आर्थिक मदद मिलेगी। कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा सिरमौर की पांच सीटों में से तीन पर 2017 में भाजपा को जीत मिली थी। इनमें नाहन, पांवटा साहिब और पच्छाद सीटें शामिल थी। जबकि शिलाई और रेणुकाजी सीटें कांग्रेस के खाते में गई। इस बार भी यहाँ कड़ा मुकाबला तय है। आम आदमी पार्टी के आने से भी यहाँ रोचक मुकाबला होने की उम्मीद है। माना जा रहा है कि जो पार्टी न्यूनतम अंतर्कलह और भीतरघात सुनिश्चित करेगी, वो ही सिरमौर में बेहतर करेगी।
कहते है ना, मन के लड्डू छोटे क्यों, छोटे हैं तो फीके क्यों ... स्व वीरभद्र सिंह के बाद होलीलोज समर्थक और निष्ठावान इसी प्रयास में है कि कांग्रेस सरकार में आएं और प्रतिभा सिंह मुख्यमंत्री हो। समर्थक प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री के तौर पर उनके नाम को हवा देने में लगे है। बीते दिनों कुछ ऐसे ही अरमान रामपुर विधायक नंदलाल ने भरे मंच जाहिर किये। नंदलाल के अलावा और भी छोटे बड़े कई नेता है जो प्रतिभा सिंह के नाम को चर्चा में बनाये हुए है। यानी अगर कांग्रेस सत्ता में आई, तो कई और नंदलाल अपने अरमान बुलंद आवाज में जाहिर कर सकते है। बहरहाल, ये दूसरा सवाल है कि क्या प्रतिभा सिंह के रुप में प्रदेश को पहली महिला मुख्यमंत्री मिलेगी या नहीं। दरअसल, पहला सवाल ये है कि क्या कांग्रेस सत्ता में वापस आ पायेगी ? कांग्रेस आलाकमान ने पार्टी को सत्ता में लाने के लिए तीन लोगों को अहम दायित्व दिए है, प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह, चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री। पार्टी सत्ता में आई तो जीत का सेहरा इन्ही के सर बंधेगा और न आ पाई तो हार का ठीकरा भी इन्ही के सर फूटेगा। प्रतिभा सिंह प्रदेश अध्यक्ष है तो जाहिर है प्राथमिक जिम्मेदारी उन्हीं की होगी, चाहे अच्छा हो या बुरा। पर पिछले कुछ वक्त में जिस तरह से एक के बाद एक दिग्गज नेता कोंग्रस छोड़कर गए है, वो पार्टी के लिए शुभ संकेत नहीं है। चार में से दो कार्यकारी अध्यक्ष पार्टी छोड़कर जा चुके है और बाकी दो के नाम चर्चा में रहे है। हालांकि दोनों ने इसका खंडन किया है। अब तक भाजपा के इस दांव के जवाब में कांग्रेस कोई दमदार पलटवार नहीं कर पाई है। वहीं होलिलॉज के हनुमान कहे जाने वाले हर्ष महाजन के जाने से सीधे प्रतिभा सिंह की प्रबंधन क्षमता पर सवाल उठे है। इसके अलावा पार्टी के पास न भाजपा जैसा मजबूत संगठन दिखता है और न साधन-संसाधन। हाँ, प्रदेश में ओपीएस सहित कुछ ऐसे मुद्दे जरूर है जो कांग्रेस के लिए मददगार हो सकते है। पर इसके लिए भी पार्टी को दमदार और आक्रामक शैली में जनता के बीच जाने की जरुरत दिखती है। यहाँ ये भी जहन में रखना होगा कि अगर आम आदमी पार्टी सत्ता विरोधी वोट बांटती है, तो सीधा नुकसान कांग्रेस को होगा। इस सबके बावजूद अगर कांग्रेस 35 का जादुई आंकड़ा छू पाई तो ही दूसरा सवाल आएगा, कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा ? प्रतिभा सिंह की बतौर प्रदेश अध्यक्ष ताजपोशी के बाद अन्य नेताओं ने ये स्पष्ट किया था कि जो भी प्रदेश अध्यक्ष बनेगा वो चुनाव नहीं लड़ेगा। पर चुनाव तो मुख्यमंत्री बनने के बाद भी लड़ा जा सकता है। ऐसे में जानकार इस तथाकथित संधी के बावजूद प्रतिभा सिंह का दावा खारिज नहीं कर रहे। ऐसा इसलिए क्यूंकि अगर विधानसभा में होलीलॉज समर्थक विधायक ज्यादा संख्या में चुनकर पहुंचे तो सम्भवतः आलाकमान के लिए भी उनकी दावेदारी नकारना आसान नहीं होगा। इस पर महिला होने का लाभ भी उन्हें मिल सकता है। हालांकि क्या अब भी होलीलॉज स्व वीरभद्र सिंह की तरह विधायकों की परेड करवाने का दमखम रखता है, इसे लेकर कुछ संशय जरूर है। दरअसल 'रानी' ने अब तक तेवर के वैसे 'जेवर' नहीं पहने है जो वीरभद्र सिंह की पहचान हुआ करते थे, लेकिन अभी भी किसी निष्कर्ष पर निकलना जल्दबजी होगा। कहते है न, 'तेल देख, तेल की धार देख'। अलबत्ता उनकी जमीनी पकड़ वीरभद्र सिंह के मुकाबले नहीं है पर कांग्रेस की सियासत का केंद्र अब भी होलीलॉज ही बना हुआ है।
विधानसभा चुनाव के रण में भारतीय जनता पार्टी वर्तमान मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को फेस बना कर आगे बढ़ रही है। यूँ तो भाजपा में और भी कई कद्दावर नेता है मगर जयराम के आगे किसी अन्य को अब तक तवज्जो नहीं दी गई। वहीं दूसरी ओर कांग्रेस सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ने की तैयारी में है। कलह को साधने के लिए ये कांग्रेस का रामबाण जरूर हो सकता है, मगर ये भी सत्य है की बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के सरकार चुनना जनता के लिए आसान नहीं होता। जनता को ये मालूम नहीं कि अगर वो कांग्रेस को सत्ता में लाती है तो सरकार की चाबी किस नेता के हाथ में होगी। हिमाचल के सियासी इतिहास पर भी नज़र डाले तो अधिकांश मौकों पर राजनैतिक दलों ने चेहरे सामने रखकर चुनाव जीते है। पर कांग्रेस फिलहाल ऐसी स्थिति में नहीं दिखती। यदि पार्टी कोई एक चेहरा आगे लाती है तो भीतरघात और अंतर्कलह का खतरा बढ़ा जायेगा, और नहीं लाती है तो भी पार्टी को सत्ता में लाना आसान नहीं होगा। यानी आगे कुआँ और पीछे खाई। कांग्रेस करीब चार दशक बाद बिना वीरभद्र सिंह के चुनावी मैदान में उतर रही है। उनके रहते हुए कोंग्रस आलाकमान ने भले ही उन्हें चेहरा घोषित किया हो या नहीं, लेकिन जनता के बेसह उन्हें लेकर हमेशा स्पष्ट स्तिथि रही। 1985 से लेकर 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनावों में से पांच में वीरभद्र सिंह सीटिंग सीएम थे और कांग्रेस के रिवाज के मुताबिक उन्हीं के चेहरे पर चुनाव लड़ा गया। 1993 में अपने सियासी तिलिस्म से वीरभद्र सिंह ने पंडित सुखराम को मात दे सीएम की कुर्सी कब्जाई, तो 2003 में विधायकों की परेड करवा विद्या स्टोक्स के अरमानो पर पानी फेर दिया। हालांकि तब भी आम जनता के बेसह वे ही कांग्रेस का मुख्य चेहरा थे। जबकि 2012 में तो वीरभद्र सिंह ने ऐसे तेवर दिखाए कि पार्टी को उन्हीं के नाम पर चुनाव लड़ने को विवश होना पड़ा। अब 37 साल बाद बिना वीरभद्र सिंह के चुनाव में उतर रही कांग्रेस का अलसी इम्तिहान है।
हिमाचल प्रदेश में भाजपा के मिशन रिपीट की कमान खुद पीएम मोदी ने संभाल ली है। यूँ तो भाजपा हर चुनाव को गंभीरता से लेती है, लेकिन तीन सप्ताह में पीएम के तीन दौरे इस बात की तस्दीक करते है कि भाजपा हिमाचल प्रदेश में सियासी रिवाज बदलकर इतिहास रचना चाहती है। पहले मंडी में प्रधानमंत्री का कार्यक्रम रखा गया, फिर बिलासपुर /कुल्लू और अब प्रधानमंत्री चम्बा आ रहे है। ज़ाहिर है भाजपा की रणनीति मोदी मैजिक के सहारे चुनाव जीतने की है। पर असल सवाल ये है कि क्या मोदी मैजिक के आगे प्रदेश के अन्य मुद्दे गौण हो जायेंगे। बहरहाल ये तो वक्त ही बताएगा, पर फिलवक्त भाजपा प्रदेश में माहौल बनाने में जरूर कामयाब हुई है और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की मुश्किलें बढ़ना तय है। ग्राउंड रियलिटी की बात करें तो चुनावी वर्ष में बेरोजगारी, महंगाई, ओपीएस जैसे मामलों पर दिख रही जनता की नाराज़गी ने प्रदेश में भाजपा की चिंता जरूर बढ़ाई है। विपक्ष इन्हें भुनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन का सियासी रिवाज़ बदलने की भाजपा की कोशिश तो पूरी है ,मगर सरकार को लेकर जनता के बीच संभावित एंटी इंकम्बेंसी को खत्म कर पाने का तोड़ अब तक भाजपा के पास नहीं दिख रहा। इस पर प्रदेश भाजपा की गुटबाजी और उपचुनाव का कड़वा अनुभव भी भाजपा को सोचने पर मजबूर जरूर कर रहा है। जाहिर है ऐसे में हिमाचल में पार्टी की सबसे बड़ी उम्मीद खुद पीएम मोदी है। इसीलिए मिशन रिपीट के लिए भाजपा 'मोदी नाम' को ही सबसे बड़ा हथियार बना रही है। पीएम मोदी के प्रभाव की बात करें तो हिमाचल प्रदेश में हुए बीते दो लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर जमकर चला है। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने क्लीन स्वीप किया। इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रदेश की जनता ने लोकसभा चुनाव में उम्मीदवार से अधिक तवज्जो पीएम फेस मोदी को दी। केंद्र में मोदी सरकार के गठन के बाद हुए 2017 के विधानसभा चुनाव में भी भाजपा 44 सीटों पर जीत दर्ज कर सरकार बनाने में कामयाब रही। हालांकि तब फतेहपुर और पालमपुर सहित चंद निर्वाचन क्षेत्र ऐसे भी थे जहाँ पीएम मोदी की रैली के बावजूद भाजपा हारी। ऐसे में क्या इस विधानसभा चुनाव में भी मोदी फैक्टर अचूक साबित होगा, इसको लेकर सबकी अपनी-अपनी राय है। बहरहाल भाजपा पीएम मोदी के फेस के सहारे रिवाज बदलने की कोशिश में है। तो कांग्रेस को मुश्किल होगी ! एक के बाद एक कई कांग्रेसी दिग्ग्गज अब भाजपाई हो चुके है और जानकारों की माने तो ये सिलिसला अभी थमता नहीं दिख रहा। यदि कांग्रेस इस पर विराम नहीं लगा पाई तो उसकी सत्ता वापसी मुश्किल होगी।
कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा पहली बार हिमाचल प्रदेश में चुनाव प्रचार की जिम्मेदारी सँभालने वाली है। इसकी शुरुआत 14 अक्टूबर को सोलन में रैली से की जाएगी। एक तरफ जहां भाजपा के दिग्गज लगातार प्रदेश में बने हुए है, वहीं कांग्रेस के राष्ट्रीय नेतृत्व की मौजूदगी में ये पहली विशाल रैली होने वाली है। अब प्रियंका के प्रचार से प्रदेश में कांग्रेस की परिस्थिति कैसे बदलेगी, ये देखना रोचक होगा। फिलवक्त प्रदेश कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि गांधी परिवार का हिमाचल से विशेष लगाव है। इस कारण विधानसभा चुनाव को लेकर हाईकमान इस बार सख्त भी है। दूसरा कारण यह भी बताया जा रहा है कि राहुल गांधी भारत जोड़ो यात्रा में व्यस्त हैं। उनका हिमाचल में प्रचार करने का अभी कोई कार्यक्रम तय नहीं है। वहीं सोनिया गांधी स्वास्थ्य कारणों से प्रचार व रैलियों में भाग नहीं ले रही हैं। यही कारण है कि प्रियंका को प्रचार का जिम्मा सौंपा गया है। बीते पांच राज्यों के चुनाव में प्रियंका गाँधी ने उत्तर प्रदेश में चुनाव प्रचार का ज़िम्मा संभाला था। तब केंद्र की राजनीति में दूसरी बड़ी पार्टी की भूमिका निभाने वाली कांग्रेस राज्य में दो सीटों पर सिमट गई थी। पार्टी की महासचिव प्रियंका गांधी ने इस चुनाव के दौरान राज्य में पार्टी के पंजे को मज़बूती से संभाला और रोड शो और रैलियों के ज़रिए भीड़ भी बहुत जुटाई, लेकिन वो इसे वोटों में तब्दील करने में नाकामयाब रहीं थी। प्रियंका गांधी ने उत्तर प्रदेश चुनाव में 'लड़की हूं लड़ सकती हूं' का नारा दिया था और 'महिला घोषणापत्र' या 'वीमेन्स मेनिफ़ेस्टो' जारी कर बताया था कि उनकी पार्टी की प्राथमिकता महिलाएं होंगी। साथ ही उन्होंने महिला सशक्तीकरण के लिए कई वायदे किए जिसमें प्रमुख था 40 फ़ीसद सीटों पर महिलाओं की उम्मीदवारी। अब हिमाचल में क्या कोई नया प्रचार का तरीका प्रियंका लेकर आती है या नहीं, इस पर भी सबकी निगाहें टिकी हुई है।
बड़े दुखी होकर आश्रय आखिरकार कांग्रेस से निकले, जाते हुए बहुत निकले दिल के मलाल लेकिन फिर भी कम निकले....आखिरकार आश्रय शर्मा ने कांग्रेस को अलविदा कह ही दिया। वैसे जिस दिन अनिल शर्मा ने भाजपा के साथ रहने का ऐलान कर दिया था, उसी दिन ये तय हो गया था कि आश्रय भी जल्द कांग्रेस को अलविदा कह देंगे और हुआ भी ऐसा ही। जाते-जाते आश्रय अपनी दिल की भड़ास भी निकाल कर गए। उनके चुनाव लड़ने से लेकर अब तक कांग्रेस में उनपर क्या बीती,आश्रय ने प्रेस कांफ्रेंस में तमाम सितम बयां किये। इस 'दर्द-ए-आश्रय' के एपिसोड में वीरभद्र सिंह, कौल सिंह ठाकुर और कांग्रेस के तमाम वो नेता जो आश्रय के अनुसार उनके साथ नहीं खड़े थे, उन सभी का ज़िक्र हुआ। विशेषकर आश्रय ने वीरभद्र सिंह परिवार और कौल सिंह को लेकर भड़ास निकाली। अपने विदाई भाषण में आश्रय ने कहा कि पंडित सुखराम की आखिरी इच्छा थी कि उनकी अंतिम सांस उस पार्टी में निकले जहाँ उन्होंने ताउम्र काम किया है, इसलिए 2019 में वे कांग्रेस में वापस आएं। आशर्य ने ये भी कहा कि जब कांग्रेस के तमाम दिग्गज लोकसभा चुनाव लड़ने को तैयार नहीं थे तो राहुल गाँधी ने पंडित सुखराम से उन्हें चुनाव लड़ाने का आग्रह किया। फिर आश्रय ने वीरभद्र सिंह और ठाकुर कौल सिंह पर उनके विरोध में चुनाव में काम करने का आरोप भी जड़ा। साथ ही एक ऑडियो टेप का हवाला देकर वीरभद्र सिंह परिवार पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगा दिए। बहरहाल आश्रय का कांग्रेस में 'आश्रय' ठीक उसी तरह समाप्त हुआ, जैसा अपेक्षित था। पुराना है आने -जाने का ये सिलसिला एक दल से दूसरे में आने जाने का सुखराम परिवार का सिलसिला पुराना है। पहले पंडित सुखराम ने कांग्रेस छोड़कर हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई थी जिसके चलते 1998 में कांगेस की सत्ता वापसी नहीं हो सकी थी। पांच साल भाजपा के साथ गठबंधन सरकार में रहने के बाद सुखराम परिवार कांग्रेस में लौट आया और 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर विधानसभा चुनाव से ठीक पहले 2017 में पंडित सुखराम का परिवारकांग्रेस पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हुआ था। अनिल शर्मा ने भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था और जीत के बाद उन्हें प्रदेश सरकार में ऊर्जा मंत्री का पद मिला था। पर 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले पंडित सुखराम और आश्रय शर्मा ने कांग्रेस में वापसी कर ली थी, जबकि अनिल शर्मा भाजपा में रह गए थे। इसके बाद आश्रय ने कांग्रेस टिकट पर लोकसभा चुनाव लड़ा। इसके चलते अनिल शर्मा को मंत्रीपद से हाथ धोना पड़ा था और अनिल शर्मा भाजपा में होकर भी एक किस्म से भाजपा में नहीं थे। इस बीच बीती 24 तारीख को अनिल शर्मा ने भाजपा के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया था और उनके बेटे आश्रय ने भी कांग्रेस को अलविदा कह दिया।
हिमाचल प्रदेश की 68 विधानसभा सीटों में से रामपुर वो सीट है जहाँ कभी भाजपा को जीत नसीब नहीं हुई। यहां के राज परिवार यानी वीरभद्र सिंह के परिवार का असर इस सीट पर इस कदर है कि प्रत्याशी कोई भी हो, कांग्रेस को वोट राजपरिवार के नाम पर पड़ते है। मौजूदा विधायक नंदलाल भी राजपरिवार के करीबी है और तीन बार से विधायक है, किन्तु वीरभद्र परिवार के अभेद किले रामपुर में अब विधायक नंदलाल के खिलाफ मुखालफत के स्वर तेज होते दिख रहे है। कांग्रेस के ही एक गुट विशेष ने नदलाल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है और टिकट बदले जाने को आवाज बुलंद कर दी है। रामपुर की राजमाता प्रतिभा सिंह खुद प्रदेश कांग्रेस की प्रमुख है और उनकी ही क्षेत्र में कांग्रेसियों के ये तल्ख तेवर जाहिर है कई सवाल खड़े कर रहे है। उधर विधायक नन्दलाल राजपरिवार के आशीर्वाद के बुते एक बार फिर टिकट की दौड़ में आगे है। इसके साथ ही नंदलाल ने प्रतिभा सिंह को अगला मुख्यमंत्री भी घोषित करके अपनी निष्ठा का प्रमाण देने का प्रयास किया है। नंदलाल ने कहा कि अगली सरकार कांग्रेस की बनेगी और प्रतिभा सिंह मुख्यमंत्री बनेगी।
कसुम्पटी निर्वाचन हलके में पिछले चार चुनाव लगातार हार चुकी भाजपा की राह इस बार भी मुश्किल दिख रही है। दरअसल रूप दास कश्यप के बाद इस सीट पर भाजपा को कोई ऐसा नेता नहीं मिला जो विजय दिलवा सके। एक दमदार नेता की भाजपा की खोज कहाँ जाकर खत्म होती है, ये देखना रोचक होगा। रूप दास कश्यप के बाद भाजपा ने इस सीट पर तरसेम भारती, प्रेम ठाकुर और विजय ज्योति सेन को आजमाया, लेकिन ये सभी नेता विफल रहे। अब एक बार फिर विधानसभा चुनाव दस्तक दे चुके है और भाजपा प्रत्यशी कौन होगा, इसे लेकर अटकलें जारी है। जानकारों की माने तो इस सीट पर पार्टी किसी नए चेहरे को उतारने की तैयारी में है। अतीत पर निगाह डाले तो 2017 में भाजपा टिकट पर चुनाव लड़ने वाली विजय ज्योति सेन करीब साढ़े नौ हज़ार वोट से चुनाव हारी थी। गौर करने वाली बात ये है की उस चुनाव में सीपीआईएम प्रत्याशी ने साढ़े चार हज़ार से ज्यादा वोट लिए थे, फिर भी विजय ज्योति को कांग्रेस प्रत्याशी अनिरुद्ध सिंह से करारी शिकस्त मिली। 2012 में भाजपा ने प्रेम सिंह को टिकट दिया था लेकिन वे भी करीब दस हज़ार वोट से हारे। तब विजय ज्योति निर्दलीय चुनाव लड़ी थी और करीब साढ़े छ हज़ार वोट लेने में कामयाब हुई थी। 2007 में भाजपा ने तरसेम भारती को टिकट दिया था जो करीब सात हज़ार वोट से हारे थे। तब पार्टी के बागी रूपदास कश्यप दस हज़ार वोट ले गए थे, जो भाजपा की हार का मुख्य कारण बना। वहीं 2003 में रूपदास कश्यप करीब साढ़े तीन हज़ार वोट से हारे थे। अब चुनाव दस्तक दे चुके है और भाजपा का प्रत्याशी कौन होगा इसके लेकर अटकलों का बाज़ार गर्म है। पिछले चुनाव में पार्टी प्रत्याशी रही विजय ज्योति सेन मैदान में डटी है। उनके अतिरिक्त पृथ्वी विक्रम सेन, प्रेम ठाकुर, नरेश चौहान, राकेश शर्मा सहित कई दावेदार तो चर्चा में है ही, एक नाम और है जो भाजपा टिकट की दौड़ में शामिल है। ये दावेदार है भाजपा प्रदेश कार्यसमिति सदस्य केशव चौहान। राज्य सहकारी कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक के इलेक्टेड डायरेक्टर केशव चौहान को सीएम जयराम ठाकुर की गुडबुक्स में माना जाता है। माहिर मानते है कि चौहान की जमीनी पकड़ को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता और वे भी भाजपा टिकट के प्रमुख दावेदार है। बतौर समाजसेवी चौहान लम्बे समय तक क्षेत्र में सक्रिय है और इसका लाभ उन्हें मिल सकता है। बहरहाल इन सभी दावेदारों के अलावा भी कई और नाम है और जाहिर है टिकट किसी एक को मिलना है। उधर भाजपा के लिए सबसे जरूरी ये है कि मैदान में कोई बागी उम्मीदवार न हो।
विधानसभा चुनाव की रणभेरी बज चुकी है और प्रदेश में कभी भी आचार संहिता लग सकती है। माना जा रहा है कि नवंबर की शुरुआत में प्रदेश में मतदान हो सकता है। तमाम 68 विधानसभा सीटों पर चुनावी समां बंध चूका है और इन्ही में से एक सीट है कसौली, जिसे हॉट सीट माना जा रहा है। दरअसल ये प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल का निर्वाचन क्षेत्र है, वे यहाँ से लगातार तीन बार विधायक बन चुके है और संभवतः चौथी बार चुनाव लड़ने के लिए मैदान में हो। पर इस बार डॉ राजीव सैजल की राह आसान नहीं दिख रही, दरअसल मंत्री बनने के बाद लोगों की उनसे अपेक्षाएं काफी बढ़ गई और इन अपेक्षाओं के बोझ पर वे खरे उतरे या नहीं, ये फैक्टर ही चुनाव के नतीजे तय करेगा। पिछले तीन चुनाव के नतीजों पर नज़र डाले तो 2007 में डॉ राजीव सैजल नए कैंडिडेट थे और उनका मुकाबला वीरभद्र सरकार के मंत्री और कसौली के दिग्गज नेता रघुराज से था। पर एंटी इंकम्बैंसी रघुराज पर भारी पड़ी और सैजल आसानी से चुनाव जीत गए। हालांकि इससे अगले दो चुनाव डॉ सैजल हारते -हारते बचे है और दोनों ही बार उनका मुकाबला था विनोद सुल्तानपुरी से, जो इस बार फिर कांग्रेस के कैंडिडेट हो सकते है। जाहिर है विनोद को लेकर क्षेत्र में कुछ सहानुभूति है और डॉ सैजल के लिए एंटी इंकम्बैंसी, ऐसे में यहाँ सैजल को फूंक फूंक कर कदम रखने होंगे। इस बीच चर्चा भाजपा से किसी नए उम्मीदवार को उतारने की भी है लेकिन ऐसा कोई चेहरा फिलहाल मैदान में नहीं दीखता। सुल्तानपुरी के भाजपा में शामिल होने की अटकलें भी लगती रही है लेकिन फिर खुलकर इसका खंडन कर चुके है। निगाह अगर कांग्रेस की सियासत पर डाले तो कसौली में एक गुट विशेष को विनोद स्वीकार नहीं है और ये ही उनकी पिछली दो हार का कारण माना जाता है। हालहीं में एक राजस्व अधिकारी वीआरएस लेकर कांग्रेस में शामिल हुए है और माना जाता है कि विनोद विरोधी गुट इन्हे उम्मीदवार बनाना चाहता था, पर अब मौजूद स्थिति में विनोद का टिकट लगभग तय माना जा रहा है। कसौली में मौजूदा सियासी स्तिथि की चर्चा हरमेल धीमान के जिक्र के बिना पूरी नहीं हो सकती। कुछ माह पहले ही हरमेल धीमान भाजपा छोड़कर आम आदमी पार्टी में शामिल हुए है और इस निर्वाचन क्षेत्र में आम आदमी पार्टी का मुख्य चेहरा बन चुके है। हरमेल धीमान बतौर समाजसेवी वर्षों से सक्रिय है और ये फैक्टर चुनाव में उन्हें निसंदेह लाभ पहुचायेगा। दीलचस्प बात ये है की उनके साथ न सिर्फ भाजपा बल्कि कांग्रेस छोड़कर भी लोग आम आदमी पार्टी में आएं है। माहिर मानते है कि दोनों तरफ के नाराज नेता -कार्यकर्त्ता भी मौका आने पर हरमेल धीमान की मदद कर सकते है। बहरहाल कसौली में त्रिकोणीय मुकाबला तय है और यहाँ कौन जीतेगा और कौन हारेगा, कुछ नहीं कहा जा सकता। इस हॉट सीट पर हरमेल धीमान की मौजूदगी क्या गुल खिलाती है, ये देखना रोचक होगा।
पुरानी पेंशन बहाली आगामी विधानसभा चुनाव में बड़ा मुद्दा है। कांग्रेस जहां सत्ता वापसी पर OPS बहाली का ऐलान कर चुकी है, वहीं आम आदमी पार्टी भी इसके पक्ष में ऐलान कर रही है। भाजपा ने पांच साल में OPS बहाल नहीं की है और अब भी इस मुद्दे पर बचती दिख रही है। दरअसल यदि भाजपा हिमाचल में OPS बहाल करती है तो देश के अन्य राज्यों में भी उसे OPS बहाल करने का दबाव बढ़ेगा जहां वर्तमान में भाजपा की सरकारें है। भाजपा कांग्रेस के वादे को झूठा करार दे रही है लेकिन देश के दो राज्यों में इस वक्त कांग्रेस की सरकार है और दोनों इसे लागू कर चुके है। ऐसे में मुमकिन है कर्मचारी कांग्रेस पर भरोसा करें। ऐसा हुआ तो भाजपा के लिए मिशन रिपीट मुश्किल होगा। हिमाचल प्रदेश में एक लाख से ज्यादा कर्मचारी न्यू पेंशन स्कीम के दायरे में है और यदि इनका साथ कांग्रेस को मिलता है तो उसकी राह आसान हो सकती है। NPSEA के मुताबिक ये संख्या करीब एक लाख तीस हजार है।