करीब दस साल जमीनी मेहनत करने के बाद और कांग्रेस की अंतर्कलह की बिसात पर जब पंजाब में आम आदमी पार्टी को शानदार जीत मिली, तो पार्टी की नजरें पडोसी प्रदेश हिमाचल पर आकर टिक गई। आनन -फानन में पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल के दो शानदार कार्यक्रम भी हिमाचल में करवा दिए गए और कांग्रेस-भाजपा से कुछ नेता-कार्यकर्ता भी इम्पोर्ट कर पार्टी कुछ हद तक माहौल बनाने में कामयाब दिखी। शुरुआत बेहतर थी और लगने लगा कि अलबत्ता आप आगामी विधानसभा चुनाव में सरकार न बना पाएं, लेकिन दमदार उपस्थिति जरूर दर्ज करवाएगी। पर करीब बीते एक माह में पार्टी हिमाचल में पटरी से उतरी दिखी है। व्यवस्था परिवर्तन कर नया हिमाचल बनाने का दावा करने वाली आप करीब डेढ़ माह में अपना प्रदेश संग ठन तक नहीं बना पाई। एकाध प्रवक्ता रोजाना पत्रकार वार्ताएं जरूर कर रहे है लेकिन क्या लोग उन्हें गंभीरता से ले रहे है, बहरहाल ये बड़ा सवाल है। पेपर लीक प्रकरण जैसे अस्थायी मुद्दे को छोड़ दे तो प्रदेश के उन बड़े मुद्दों को पार्टी छूने में असफल रही है, जो यहां सत्ता परिवर्तन की बिसात बनते है। शायद पार्टी अब तक ये समझ ही नहीं पा रही कि हिमाचल प्रदेश में दिल्ली मॉडल के नाम पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। हिमाचल में जीतना है तो हिमाचल के मुद्दों की बात करनी होगी। निसंदेह पंजाब की भगवंत मान सरकार का प्रदर्शन भी हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में बड़ा फैक्टर होगा। प्रदेश के कई निर्वाचन क्षेत्र पंजाब की सीमा पर है। कई क्षेत्रों में बोली-भाषा और रीति -रिवाज भी पंजाब जैसा है। वहीं हिमाचल में हुकूमत के कई निर्णय भी पंजाब की तर्ज पर लिए जाते है, मसलन कर्मचारियों का वेतनमान। ऐसे में यदि भगवंत मान सरकार का जादू पंजाब में चला तो असर हिमाचल में भी दिखेगा। पर अब पंजाब सरकार कोई बड़ा जादू करती नहीं दिख रही। गायक और कांग्रेस नेता सिद्धू मुसेवाला की हत्या के बाद पंजाब की कानून व्यवथा पर भी सवाल उठ रहे है। यदि मान सरकार वहां ठीक नहीं करती है तो यहाँ हिमाचल में भी इसका प्रतिकूल असर पड़ना जायज है, हालांकि अभी भी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी है। इस बीच दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सत्येंद्र जैन पर ईडी की कार्रवाई भी आप के लिए बड़ा झटका साबित हुई है। पिछले कई महीनों से जैन लगातार हिमाचल के दौरे कर रहे थे और हिमाचल में पार्टी के प्रमुख रणनीतिकार थे। पर अब जैन ईडी की हिरासत में है और हिमाचल में पार्टी का कोई बड़ा नेता नहीं दिख रहा। उधर जैन की गिरफ्तारी पर विपक्षी भी आप की स्वच्छ और ईमानदार छवि पर सवाल उठा रहे है। नहीं शामिल हुआ कोई बड़ा चेहरा : चर्चा थी कि कई सियासी शूरवीर आम आदमी पार्टी के सम्पर्क में है। इनमें दोनों ही दलों के नेता शामिल बताये जा रहे थे। एक मंत्री, पूर्व मंत्री और कई विधायकों -पूर्व विधायकों को लेकर भी कयास लग रहे थे। पर अब तक पार्टी पहली पंक्ति के किसी भी नेता को साथ जोड़ने में कामयाब नहीं रही। पार्टी के पास हिमाचल प्रदेश में कोई फेस नहीं है और बगैर फेस पार्टी शायद ही बेहतर कर पाएं। ग्राउंड रियलिटी : जानकार मान रहे है कि दोनों ही दलों के असंतुष्ट नेता भी फ़िलहाल आप में जाने से कतरा रहे है। संभवतः टिकट आवंटन के बाद जरूर नाराज और बागी नेता आप में जाते दिखे, लेकिन ऐसा हुआ भी तो इसका व्यापक असर होना मुश्किल होगा। वर्तमान में नादौन, कसौली, ज्वालामुखी और पांवटा साहिब जैसे चंद निर्वाचन क्षेत्रों में जरूर स्थानीय नेताओं के दम पर पार्टी टिकी हुई है, लेकिन प्रदेश में आलाकमान का न होना पार्टी की बड़ी कमजोरी साबित हो रहा है। दोनों के समीकरण बिगाड़ सकती है आप : बेशक आगामी विधानसभा चुनाव में आप सरकार बनांने की दौड़ में नहीं दिख रही लेकिन पार्टी की मौजूदगी दोनों ही दलों का गणित जरूर बिगाड़ सकती है। उत्तराखंड और गोवा विधानसभा चुनाव में पार्टी ने कांग्रेस के समीकरण खराब किये थे, जिससे भाजपा का मिशन रिपीट सफल हो पाया। पर हिमाचल में पार्टी किसके समीकरण ज्यादा खराब करेगी, ये फिलहाल विश्लेषण का संदर्भ है।
' न टिकट को लेकर कलह और न मुख्यमंत्री की कुर्सी का मोह, बस फिक्र है कि पहले पहले सत्ता का वनवास खत्म हो। हाथ का निशान सबसे ऊपर होगा और सामूहिक नेतृत्व में चुनाव लड़ा जायेगा'... ये तो हुई उस दावे की बात जो लगातार कांग्रेस के दिग्गज दोहरा रहे है। कार्यकर्ताओं को भी एकता का पाठ पढ़ाया जा रहा है और जनता के सामने एकजुटता के कसीदे पढ़े जा रहे है। अब बात करते है संभावित स्थिति की जिसके रुझान अभी से आने शुरू हो गए है। हालात दरअसल कुछ ऐसे बनते दिख रहे है कि भाजपा से लोहा लेने से पहले कांग्रेस का मुकाबला कांग्रेस से होता दिख रहा है। ऐसा कई निर्वाचन क्षेत्रों में होता प्रतीत हो रहा है। बीते दिनों प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष प्रतिभा सिंह जब किन्नौर पहुंची तो स्थानीय विधायक और युवा कांग्रेस के समर्थक उनके सामने ही आपस में लड़ पड़े। लड़ाई इतनी ज़यादा बढ़ गई पुलिस को बीच में दखल देना पड़ा। किन्नौर विधायक जगत सिंह नेगी ने मंच से अपने सम्बोधन में यूथ कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष निगम भंडारी और यूथ किन्नौर कांग्रेस की जमकर खरी खोटी सुनाई, उन्हें भाजपा की बी टीम तक कह दिया, उन्हें फर्जीवाड़े का अध्यक्ष बताया। दरअसल जगत सिंह होलीलॉज के करीबी है तो निगम भंडारी सुक्खू गुट के। वैसे ये पहली दफा नहीं है जब ऐसा कुछ कांग्रेस के बीच गठित हुआ हो। बीते दिनों नालागढ़ में भी इस तरह की झलकियां देखने को मिल चुकी है, जहाँ कई नेता अभी से टिकट को लेकर आक्रामक दिख रहे है। इसे अनुशासनहीनता समझ लीजिये या नेताओं का अहम, जो भी हो ये कांग्रेस की एकजुटता की पोल तो खोल ही रहा है। अगर पार्टी ऐसी स्थिति से नहीं बच पाई तो सत्ता वापसी मुश्किल होगी। क्या कारगर होगा महा कार्यकारिणी का फार्मूला ? कांग्रेस द्वारा गुटबाजी या संभावित बिखराव के डर से हिमाचल जैसे छोटे से प्रदेश में जंबो कार्यकारिणी का गठन किया गया है, मगर पार्टी आपसी कलह संभाल पाती है या नहीं, इस पर कुछ भी कहना जल्दबाजी होगा। पार्टी ने हर धड़े को खुश रखने के मकसद से महा कार्यकारिणी तो बनाई है, मगर नेता संतुष्ट नज़र नहीं आ रहे। डर है कि जिनकी रूचि सत्ता में है, पार्टी उन्हें संगठन में एडजस्ट कर संभावित भीतरघात और विद्रोह नहीं थाम पायेगी। पुराणी रवायत से बचना होगा : हिमाचल कांग्रेस में अपने समर्थकों को जीतवाने के साथ -साथ विरोधियों को सेट करने की पुरानी रवायत चली आ रही है। अगर ये सिलसिला जारी रहता है तो सत्ता वापसी की डगर मुश्किल हो सकती है। हालांकि पार्टी के तमाम बड़े नेता सामूहिक लीडरशिप की बात बार -बार दोहरा रहे है। पर ये भी सत्य है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने के लिए आलाकमान के आशीर्वाद के साथ -साथ संख्या बल भी अहम् होगा। इसी निजी संख्या बल के फेर में कहीं पार्टी जादुई आंकड़े से पीछे न रह जाए, असल डर इसी बात का है।
कांगड़ा संसदीय क्षेत्र के तहत कांगड़ा जिला के अंतर्गत आता जयसिंहपुर विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। यह विधानसभा क्षेत्र साल 2008 में हुए विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन के चलते अस्तित्व में आया, जिसमें राजगीर विधानसभा क्षेत्र और थुरल विधानसभा क्षेत्र का समायोजन किया गया। जब यह थुरल विधानसभा थी तो इस पर राजपूत मतदाताओं की बहुलता थी, लेकिन अब दलित मतदाताओं की संख्या ज्यादा है। जयसिंहपुर विधानसभा क्षेत्र उन 16 विधानसभा क्षेत्रों में शामिल है, जहां पुरुषों के मुकाबले महिला वोटर ज्यादा हैं और जीत- हार की चाबी महिलाओं के हाथ है। इस सीट पर पहला विधानसभा चुनाव जीतने का रिकॉर्ड कांग्रेस के नाम दर्ज है तो दूसरे चुनाव में भाजपा जीत दर्ज करने में सफल हुई है, लेकिन इस बार तीसरी पार्टी के रूप में आम आदमी पार्टी की एंट्री से इस विधानसभा के चुनाव के रोचक होने की सम्भावना है। देखना यह भी दिलचस्प होगा कि कांग्रेस और भाजपा यहाँ पुराने मोहरों पर ही दांव खेलती हैं, अथवा नए चेहरे आजमाती है। कांग्रेस के खाते में पहली जीत 2012 के विधानसभा चुनाव में जयसिंहपुर विधानसभा क्षेत्र के लिए पहली बार चुनाव हुआ। भाजपा ने राजगीर के पूर्व विधायक रहे आत्मा राम पर दांव खेला तो कांग्रेस ने राजगीर के ही पूर्व विधायक मिलखी राम गोमा के बेटे यादविंदर गोमा को चुनावी समर में उतार दिया। जयसिंहपुर विधानसभा सीट के लिए हो रहे पहले ही चुनाव में भाजपा विचारधारा से सम्बन्ध रखने वाले रविन्द्र धीमान ने निर्दलीय मैदान में उतर कर मुकाबले को तिकोना बना डाला। आजाद उम्मीदवार के तौर पर आठ हजार से ज्यादा वोट लेकर रविन्द्र धीमान ने भाजपा के चुनावी समीकरणों को बुरी तरह से बिगाड़ दिया, नतीजतन कांग्रेस के यादविंद्र गोमा बम्पर जीत के साथ चुनाव जीते थे। पहले चुनाव निर्दलीय लड़े, दूसरे चुनाव में बने भाजपा विधायक पहले चुनाव में निर्दलीय उम्मीदवार के तौर पर उतर कर भाजपा के समीकरणों को बिगाड़ने वाले रविन्द्र धीमान को भाजपा ने 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने पार्टी टिकट थमाया तो संगठन के भीतर उनका जबरदस्त विरोध हुआ। बावजूद इसके रविन्द्र धीमान ने दस हजार से ज्यादा वोटों से कांग्रेस विधायक यादविंदर गोमा को हराकर इस सीट पर जीत दर्ज कर पार्टी में अपने विरोधियों के मुंह पर करारा तमाचा रसीद किया और चुनाव विश्लेषकों के मुंह पर भी ताला जड़ दिया। आप की एंट्री से बिगड़ेंगे कांग्रेस- भाजपा के समीकरण पूर्व विधायक मिलखी राम गोमा के बेटे यादवेन्द्र गोमा ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत युवा कांग्रेस से की। उनको राजनीति विरासत में मिली है। 2012 में पहला चुनाव लड़ा और पहली ही बार वह विधायक चुने गए। यादवेन्द्र गोमा ने पहला चुनाव जिस बड़े अंतर से जीता था, अगले ही चुनाव में भाजपा से उतनी ही बड़ी हार का मुंह देखना पडा। इस सीट पर कांग्रेस और भाजपा दोनों एक- एक बार बम्पर जीत दर्ज कर चुके हैं, लेकिन इस बार देखना आम आदमी पार्टी के मैदान में होने से देखना रोचक होगा कि किसका पलड़ा भारी पड़ता है? जयसिंहपुर के हिस्से में आया विकास इस सरकार में जयसिंहपुर के लिए एचआरटीसी डिपो और जल शक्ति विभाग के डिवीजन के साथ बीएमओ आफिस खोलने की घोषणा हुई है। अंद्रेटा स्कूल में कॉमर्स कक्षाएं व टटेहल स्कूल में साइंस कक्षाएं चलाने की सौगात मिली है। पॉलिटेक्निक कॉलेज तलवाड़ में इलेक्ट्रिकल व कंप्यूटर ट्रेड चलाने और लोक निर्माण विश्राम गृह जयसिंहपुर में अतिरिक्त चार कमरों की स्वीकृति दी गई है। लाहडू में वेटरनरी कॉलेज, गंदड़ में पीएचसी व पंचरुखी में सीएचसी खोलने की घोषणा हुई है। विकास के ये काम भाजपा के कितने काम आते हैं, आने वाला वक्त ही तय करेगा। भाजपा – कांग्रेस की मजबूरियां जयसिंहपुर भाजपा संगठन में पिछले विधानसभा चुनाव में जो विरोध मुखर हुआ था, अंदरखाते वह तेज़ हुआ है। पिछली बार की तरह इस बार भी रविन्द्र धीमान को अपने घर में विरोध का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी और कांग्रेस के उम्मीदवार रहे यादविंदर गोमा के लिए इसलिए चुनावी चुनौती है कि कांग्रेस छोड़ भाजपा में जाने को लेकर उनका नाम उछलता रहा है। विपक्ष में रहते हुए गोमा यहां के स्थानीय मुद्दों को लेकर ज्यादातर समय गौण ही रहे हैं, जबकि यहां की खड्डों में अवैध खनन की ख़बरें सुर्खियाँ बटोरती आई हैं।
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने स्वास्थ मंत्री सत्येंद्र जैन और डिप्टी सीएम मनीष सिसोदिया के बचाव में कहा कि मेरा प्रधानमंत्री से हाथ जोड़कर अनुरोध है कि आम आदमी पार्टी के सभी मंत्रियों, विधायकों को एक साथ जेल में डाल दीजिए। सभी एजेंसियों को बोल दीजिए कि एक साथ सारी जांच कर लें। आप एक एक मंत्री को गिरफ़्तार करते हैं इससे जनता के लिए किये जाने वाले कामों में रुकावट होती है।स्वास्थ्य मंत्री सतेंद्र जैन को ईडी ने कथित मनी लॉन्ड्रिंग के मामले में अरेस्ट किया गया है। गुरुवार को की गयी पत्रकार वार्ता में केजरीवाल ने कहा कि "मुझे लगता है कि सत्येंद्र जैन और मनीष सिसोदिया को फर्जी मामलों में जेल में डालकर ये लोग दिल्ली में शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो अच्छे काम हो रहे हैं उन्हें रोकना चाहते हैं। परन्तु चिंता मत कीजिए मैं ऐसा नहीं होने दूंगा, सभी अच्छे काम चलते रहेंगे"।
केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के आठ साल पूरा होने पर कांग्रेस ने चार सवाल पूछे हैं। मंगलवार को शिमला में भाजपा की तरफ से मनाए जा रहे जश्न पर हिमाचल कांग्रेस कांग्रेस चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष व स्क्रीनिंग कमेटी के सदस्य सुखविंदर सिंह सुक्खू ने निशाना साधा है। उन्होंने कहा कि मोदी जी शिमला आ रहे हैं, तो प्रदेश को कुछ सौगातें देकर जाएं, पिछले दौरों की तरह सपने न बेचें। उन्होंने हिमाचल प्रदेश की जनता के साथ किया कोई भी वादा पूरा नहीं किया है। लोग खुद को ठगा महसूस करते आ रहे हैं। महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी कम करने के लिए क्या किया, प्रधानमंत्री को बताना होगा। सेब पर आयात शुल्क कब बढ़ेगा, हाटी समुदाय को एसटी का दर्जा कब दिया जाएगा, मोदी इस पर भी अपनी चुप्पी तोड़ें। प्रदेश को विशेष आर्थिक पैकेज दें। प्रदेश में घोषित फोरलेन के लिए केंद्र सरकार जल्दी बजट करे। अभी तक यह जुमला साबित हुए हैं। भाजपा से कांग्रेस के सवाल--- आसमान छूती महंगाई कब कम होगी गैस सिलिंडर 1000 रुपये पार हो चुका है। पेट्रो पदार्थों की कीमतें 100 रुपये के आसपास हैं। यह 70 साल में पहली बार है। खाद्य पदार्थों के दामों में आग लगी है। आम जनता को कब राहत देंगे। भ्रष्टाचार पर कार्रवाई कब-- हिमाचल की भाजपा सरकार में भ्रष्टाचार चरम पर है। पुलिस भर्ती पेपर लीक में करोड़ों रुपये की डील हुई। पुलिस के पास से ही पेपर लीक हो गया। स्वास्थ्य विभाग में कोविड काल में करोड़ों का भ्रष्टाचार हुआ। राजीव बिंदल को कुर्सी तक गंवानी पड़ी। सरकार पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबी है। भ्रष्ट नेताओं पर कब कार्रवाई करेंगे। बेरोजगारों को रोजगार कब-- हिमाचल प्रदेश में 12 लाख से अधिक बेरोजगार हैं। प्रदेश की जयराम सरकार रोजगार देने में पूरी तरह विफल रही। डबल इंजन की सरकार बताए, बेरोजगारों को रोजगार कब तक मिलेगा। युवाओं के भविष्य से सरकार कब खिलवाड़ बंद करेगी। किसानों, हाटी समुदाय को सौगात क्यों नहीं-- सेब की खेती करने वाले किसानों को वादे के बावजूद आज तक राहत क्यों नहीं दी। क्यों सेब पर आयात शुल्क नहीं बढ़ाया। उनके साथ विश्वासघात कब बंद होगा। हाटी समुदाय को आज तक एसटी का दर्जा नहीं दिया। उनके अरमानों से डबल इंजन सरकार कब खेलना बंद करेगी।
जुब्बल कोटखाई से उप चुनाव में रहे प्रत्याशी चेतन सिंह बरागटा ने आज कोटखाई जोन के बाघी, रत्नाडी, कलबोग, क्यारवी, चोगन कुल्टी, रामनगर व चमेरा बूथ में जन आभार कार्यक़म में पहुंचे। इस दौरान जनता व कार्यकर्ताओं ने चेतन बरागटा का हर्षोल्लास से ढोल नगाड़ों के साथ भव्य स्वागत किया। गौरतलब है कि पिछले कल जुब्बल जोन के पंदराणु, हाटकोटी और मंढोल बुथों पर हुई बैठको में भी सैकड़ों कार्यकर्ता उपस्थित रहे। बूथ की बैठको में भारी भीड़ का इकट्ठा होना इस बात का परिचायक है कि चेतन बरागटा पर जनता का विश्वास और अधिक सुदृढ़ हुआ है। चेतन ने कहा कि कलबोग में उप तहसील कार्यालय खोलने के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का धन्यवाद करते हैं। स्व. नरेन्द्र बरागटा के प्रयासों वो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के आशीर्वाद से गुम्मा बाघी 30 किलोमीटर सड़क को पक्का किया गया। आज उबादेश की सभी पंचायतों को जोड़ने वाली सभी सड़कें चका- चक है जिसका पुरा श्रेय प्रदेश सरकार जाता है। चेतन बरागटा ने कहा कि कलबोग से बखरेल, चूईला,मेल फर्स्ट और मेल सैकेंड की टायरिग आजकल युद्ध स्तर पर चल रही है जिसके लिए वो मुख्यमंत्री के आभारी हैं। स्व नरेंद्र बरागटा का जुब्बल नावर कोटखाई को आदर्श विधानसभा क्षेत्र बनाने का स्वप्न था। जिसके लिए उन्होंने कोविड काल के बावजूद जुब्बल शावर कोटखाई विधानसभा क्षेत्र में लगभग साढ़े तीन सौ करोड़ रुपये की लागत से विकासात्मक कार्यों को आरम्भ करवाया था। एस.डी. एम. कोटखाई की स्थायी नियुक्ति के लिए क्षेत्र की जनता की ओर से चेतन सिंह बरागटा ने मुख्यमंत्री का आभार व्यक्त किया तथा जुब्बल में भी एस.डी.एम. की स्थाई नियुक्ति के लिए मुख्यमंत्री से आग्रह किया। चेतन बरागटा ने कहा कि कांग्रेस के मित्रो को कोटखाई में एस. डी.एम. की नियुक्ति से शायद प्रसन्नता नही हुई, शायद इसीलिए अभी तक प्रदेश सरकार का विधायक रोहित ठाकुर ने आभार तक व्यक्त नही किया है। बल्कि इसके उल्ट एस. डी. एम. की नियुक्ति पर हुई अटकलों पर तंज कसते हुए सोशल मीडिया में जरूर दिखे। लेकिन अब एस डी एम कोटखाई की नियुक्ति पर चल रही अटकलों पर विराम लग गया है। चेतन सिंह बरागटा ने कहा कि दलगत राजनीति से ऊपर उठकर हमे सकारात्मकता अपनाते हुए विकासात्मक कार्यों का स्वागत करना चाहिए। कार्यक्रमो में जिला परिषद सदस्य अनिल काल्टा, क्यारवी पंचायत प्रधान मंतीश चौहान, चौगन कुल्टी के प्रधान अंकुश,उप प्रधान संजीव किष्टा,कलबोग पंचायत उप प्रधान महेंद्र चौहान,रतनाडी पंचायत उप प्रधान प्रितम सिंह नेगी सहित सैकड़ों कार्यकर्ता उपस्थित रहे।
कांग्रेस अध्यक्ष अभी भी रजवादशाही में विश्वास करती हैं। भाजपा प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना ने भाजपा मुख्यालय दीपकमल चक्कर शिमला में मीडिया से बात करते हुए कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के हॉली लॉज में निमंत्रण पत्र देने पर कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष प्रतिभा सिंह द्वारा दी गई टिप्पणियों को सुनकर काफी दुख हुआ है। भाजपा एक ऐसी संस्कृति का पालन करती है ,जो पार्टी लाइन से ऊपर है और प्रधानमंत्री के समारोह के लिए किसी विपक्षी दल के अध्यक्ष को आमंत्रित करना हमारे लिए सम्मान की बात है। उन्होंने कहा कि हम राष्ट्रीय अखंडता में विश्वास करते हैं जबकि कांग्रेस समाज के विभाजन में विश्वास करती है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर एक सच्चे भाजपा कार्यकर्ता हैं और पार्टी की विचारधारा का पालन करते हैं ,जयराम एक कार्यकर्ता थे, फिर विधायक, मंत्री और अब एक मुख्यमंत्री और उन्हें पता है कि एक सच्चा कार्यकर्ता क्या है। खन्ना ने कहा कि कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष में रानी की तरह काम करने की प्रवृत्ति है, वे एक आम आदमी के बारे में क्या जानते हैं। ऐसा लगता है कि कांग्रेस अभी भी रजवादशाही के पुराने जमाने और परंपरा से उबर नहीं पाई है और वे आम जनता से दूर रहना चाहती हैं। मैंने खुद देखा है कि जयराम ठाकुर आम आदमी के मुख्यमंत्री हैं जब बच्चे उनके साथ सेल्फी लेने के लिए हमेशा उत्साहित रहते हैं। कांग्रेस को छोटे मुद्दे पर राजनीति बंद कर देनी चाहिए और खुले दिल से हिमाचल की प्रगति को देखना चाहिए।
भाजपा प्रदेश प्रभारी अविनाश राय खन्ना ने शिमला के ढली वार्ड में आम जनमानस से रैली में आने के लिए निमंत्रण दिया लोगों से बातचीत करते हुए उन्होंने कहा यह बड़े सौभाग्य की बात है कि केंद्र सरकार के 8 साल पूर्ण होने पर राष्ट्रीय कार्यक्रम शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान में होने जा रहा है। इस मौके पर उन्होंने कार्यकर्ताओं को मोदी सरकार के 8 साल पूर्ण होने पर छोटी पत्रिका का वितरण भी किया। इस रैली को लेकर कार्यकर्ताओं में काफी उत्साह देखने को मिल रहा है। कुछ स्थानों से लाभार्थी सुबह 3:00 बजे इस कार्यक्रम को का हिस्सा बनने के लिए अपने घरों से निकलना शुरू हो जाएंगे ताकि वह समय पर पहुंचकर इस कार्यक्रम का हिस्सा बन सके। उन्होंने कहा की इस समारोह से देश के किसानों को किसान सम्मान निधि का वितरण देश के यशस्वी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किया जाएगा और लगभग आधे घंटे तक पूरे देश के किसानों और लाभार्थियों के साथ वर्चुअल माध्यम से बातचीत की जाएगी। उन्होंने सभी से आग्रह किया है जब प्रधानमंत्री जी वर्चुअल माध्यम से लाभार्थियों के साथ बातचीत करेंगे सभी लोग शांति बनाए रखें ताकि सभी लाभार्थियों के साथ ठीक से बातचीत हो सके।
पुलिस पेपर लीक भर्ती मामले को लेकर हिमाचल प्रदेश युवा कांग्रेस क्रमिक भूख हड़ताल पर लगातार 15 दिनों से सभी जिला मुख्यालय कार्यालय के बाहर बैठे थे, आज शिमला जिलाधीश कार्यालय के बाहर हिमाचल प्रदेश कांग्रेस के सह प्रभारी संजय दत्त जी और प्रदेश युवा कांग्रेस के अध्यक्ष नेगी निगम भंडारी जी की मौजूदगी में क्रमिक भूख हड़ताल पर फिलहाल विराम लगाकर अशन को तोड़ दिया गया है,सह प्रभारी संजय दत्त ने कहा के युवा कांग्रेस और कांग्रेस हिमाचल के सौहार्द को खराब नहीं करना चाहती है,हम नहीं चाहते कि देश के प्रधानमंत्री के दौरे के दौरान प्रदेश का सौहार्द पूर्ण वातावरण खराब हो इसलिए हिमाचल प्रदेश युवा कांग्रेस ने अपने क्रमिक अनशन को 15 दिन में समाप्त कर दिया है, यह भी कटु सत्य है कि प्रदेश में जब भी प्रधानमंत्री जी का दौरा हुआ है प्रदेश के लोगों को निराशा ही हाथ में लगी है,लेकिन हमारी यह अटल मांग है कि प्रदेश के 74000 युवाओं के साथ जो कुठाराघात हुआ है, और पात्र युवाओं को दरकिनार कर सरेआम नौकरियों को बेचा गया है इसमें जो भी लोग दोषी हैं वह सभी लोग सलाखों के पीछे होने चाहिए संजय दत्त ने कहा कि प्रधानमंत्री जी प्रदेश में आ रहे हैं और सीबीआई उनके अधिकार क्षेत्र में आती है युवा कांग्रेस की ये मांग है कि प्रधानमंत्री जी तुरंत हस्तक्षेप करें और सीबीआई को निर्धारित समय अवधि के अंदर इस जांच को पूरा करने के लिए आदेश दिए जाए। हिमाचल प्रदेश युवा कांग्रेस माननीय प्रधानमंत्री जी को प्रदेश के 12 जिलों के मुख्यालय में जिलाधीश के माध्यम से इस संदर्भ में ज्ञापन सौंपेगी , बाकी और अन्य 11 जिलों में आज क्रमिक भूख हड़ताल जारी रहेगी और कल दोपहर तक वरिष्ठ कांग्रेस नेताओं के सहयोग से इसे भी तोड़ा जाएगा,अगर दोषियों पर कार्यवाही नही की जायेगी तो युवा कांग्रेस और सभी वरिष्ठ कांग्रेस के साथी आने वाले दिनों में जनता के सहयोग से इस आंदोलन को विधानसभा स्तर पर और उग्र करेगी और युवाओं को न्याय दिलवा कर रहेगी।
फर्स्ट वर्डिक्ट. मंडी विधानसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू हो चुका है और अमूमन हर क्षेत्र में विभिन्न राजनैतिक दलों से टिकट के चाहवान प्रो एक्टिव है। जिला मंडी का नाचन हलका भी इससे इतर नहीं है। टिकट की रस्साकशी के बीच नाचन का सियासी आंगन भी फिलवक्त टेढ़ा दिख रहा है। यहाँ जीत की हैट्रिक लगा चुकी भाजपा के सामने जहाँ सीट बचाने की चुनौती है तो कांग्रेस पर बेहतर करने का दबाव। मौजूदा विधायक विनोद कुमार लगातार दो जीत दर्ज कर चुके है और इस बार भी टिकट के प्रबल दावेदार है। किन्तु मंडी लोकसभा उपचुनाव में नाचन से कांग्रेस को मिली लीड उनकी राह का काँटा बन सकती है। लोकसभा सीट के तहत आने वाली जिला की नौ सीटों में से सिर्फ नाचन ही ऐसी सीट थी जहाँ भाजपा पिछड़ी। डॉ ललित चंद्रकांत भी भाजपा टिकट के प्रबल दावेदार है। डॉ चंद्रकांत आईजीएमसी में सहायक प्रोफेसर हैं और सक्रिय राजनीति में उतरने के लिए उन्होंने सरकार से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति मांगी है। वह लम्बे वक्त से संघ से जुड़े हुए हैं। डॉ चंद्रकांत के अलावा कमलकांत भी टिकट की रेस में शामिल है। नाचन हलका अप्पर व लोअर नाचन में बंटा है। विनोद कुमार मूलतः अप्पर नाचन से संबंध रखते हैं। ऐसे में लोअर नाचन के विकास कार्यो की अनदेखी के आरोप उन पर लगते है। 2012 में पहली बार विधायक बने विनोद कुमार ने क्षेत्र में अपनी अच्छी पैठ बनाई थी। 2017 के विधानसभा चुनाव में वह करीब 17 हजार मत से विजयी हुए थे। ऐसे में उनका दावा इस बार भी मजबूत होने वाला है। कांग्रेस की बात करें तो यहां एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति है। पूर्व प्रत्याशी लाल सिंह कौशल के अलावा टिकट की दौड़ में बीडी चौहान, दामोदर चौहान, शिवानी चौहान, नरेश चौहान, जसबीर, संजू डोगरा, प्रेम लाल गुड्डू व सीएल चौहान भी शामिल हैं। सभी लोगों ने क्षेत्र में जनसंपर्क अभियान छेड़ रखा है। टिकट को लेकर अपने आकाओं के यहां हाथ पैर पार रहे हैं। सभी ने अलग-अलग नेताओं की डोर पकड़ रखी है। पर लोकसभा उपचुनाव की तरह अगर सभी नेताओं ने एकजुटता दिखाई तो भाजपा की मुश्किल बढ़ना तय है। उधर, देश की सबसे युवा प्रधान रही जबना चौहान को भी यहां कम नहीं आंका जा रहा है। जबना 2016 में 21 वर्ष की उम्र में देश की सबसे युवा पंचायत प्रधान बनी थीं। अब जबना आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुकी है। भाजपा का मजबूत किला रहा है नाचन : जिला मंडी का नाचन निर्वाचन क्षेत्र को भाजपा का मजबूत किला माना जाता है। वर्ष 1980 में भाजपा का गठन हुआ था और उसके बाद 1982 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में ही नाचन में भाजपा का खाता खुल गया। तब भाजपा टिकट पर दिलेराम ने जीत दर्ज की थी, जो 1977 में भी जनता पार्टी के टिकट पर विधायक बने थे। इसके बाद 1990 और वर्ष 2007 में भी दिलेराम ने ये सीट भाजपा की झोली में डाली। इसके बाद 2012 और 2017 में मौजूदा विधायक विनोद कुमार ने भाजपा टिकट पर यहाँ से जीत दर्ज की। वहीँ कांग्रेस यहाँ से लगातार तीन चुनाव हार चुकी है। कांग्रेस के लिए टेक चंद डोगरा लम्बे वक्त तक यहाँ मुख्य चेहरा रहे है। डोगरा ने पार्टी को 1985, 1998 और 2003 में जीत दिलाई, जबकि 1993 में वे बतौर निर्दलीय चुनाव जीते।
- रामपुर में घटता जा रहा कांग्रेस की जीत का अंतर फर्स्ट वर्डिक्ट। शिमला जिला शिमला का रामपुर निर्वाचन क्षेत्र कांग्रेस का अभेद गढ़ है। देश में आपातकाल के बाद हुए 1977 के चुनाव को छोड़ दिया जाएँ तो यहाँ हमेशा कांग्रेस का परचम लहराया है। वहीँ भाजपा की बात करें तो 1980 में पार्टी की स्थापना के बाद से 9 विधानसभा चुनाव हुए है ,लेकिन पार्टी को कभी जीत का सुख नहीं मिला। पर बीते कुछ चुनाव के नतीजों पर नजर डाले तो कांग्रेस और वीरभद्र परिवार के इस गढ़ में पार्टी की जीत का अंतर कम जरूर हुआ है। 1990 की शांता लहर में भी कांग्रेस के सिंघीराम यहाँ से 11856 वोट से जीते थे, लेकिन 2017 आते -आते ये अंतर 4037 वोटों का रह गया। 1993 में कांग्रेस यहाँ 14478 वोट से जीती तो 1998 में जीत का अंतर 14565 वोट था। जबकि 2003 के चुनाव में ये अंतर बढ़कर 17247 हो गया। तीनों मर्तबा यहाँ से सिंघी राम ही पार्टी प्रत्याशी थे। 2007 में कांग्रेस ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और नंदलाल को मैदान में उतारा। नंदलाल को जीत तो मिली लेकिन अंतर घटकर 6470 वोट का रह गया। 2012 में नंदलाल 9471 वोट से जीते तो 2017 में अंतर 4037 वोट का रहा। रामपुर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह का गृह क्षेत्र है। वीरभद्र सिंह यहां के राजा थे और राज परिवार के प्रति यहाँ की जनता हमेशा निष्ठावान रही है। उनके निधन के बाद उनके पुत्र विक्रमादित्य सिंह को भी जनता का उतना ही प्यार मिलता रहा है, जैसा वीरभद्र सिंह को मिलता था। यहाँ से चेहरा कोई भी हो पर यहाँ प्रभाव राजपरिवार का ही है। अलबत्ता ये क्षेत्र आरक्षित होने के चलते यहाँ से कभी भी राज परिवार खुद चुनाव नहीं लड़ सका लेकिन ये कहना गलत नहीं होगा कि वोट उन्हीं के चेहरे पर पड़ते है। 6 बार यहाँ से चुनाव जीत चुके सिंघीराम भी कभी वीरभद्र सिंह के करीबी थे, लेकिन दोनों में दूरियां बढ़ी तो राज परिवार का आशीर्वाद नंदलाल को मिला। इस बार भी कांग्रेस यहाँ से फिर नंदलाल को मौका दे सकती है, जो राजपरिवार के करीबी माने जाते है। भाजपा की बात करें तो 1990, 1993 और 1998 में भाजपा ने यहाँ से निन्जूराम को मैदान में उतारा, पर कांग्रेस ने एकतरफा जीत दर्ज की। 2003 में भाजपा ने उम्मीदवार बदला और बृजलाल को मौका दिया लेकिन बृजलाल रिकॉर्ड 17247 मतों से हारे। 2007 में भी भाजपा ने बृजलाल पर ही भरोसा जताया। तब हार का अंतर कम जरूर हुआ लेकिन जीत का सूखा कायम रहा। 2012 में भाजपा ने यहाँ से प्रत्याशी बदला और प्रेम सिंह धरैक को मौका दिया, पर प्रेम सिंह भी करीब साढ़े नौ हज़ार वोट से चुनाव हार गए। हालांकि 2017 में प्रेम सिंह का प्रदर्शन बेहतर रहा और हार का अंतर करीब चार हज़ार वोट रहा। कौल सिंह भी दावेदार : रामपुर में इस बार भाजपा टिकट के कई चाहवान है। बीते दो चुनाव लड़ चुके प्रेम सिंह धरैक के अलावा कौल सिंह नेगी को भी टिकट का प्रमुख दावेदार माना जा रहा है। कौल सिंह को हाल ही में हिमको फेडरेशन का चेयरमैन भी बनाया गया है। वहीं 6 बार कांग्रेस टिकट पर चुनाव जीतने वाले सिंघी राम भी अब भाजपा में शामिल हो चुके है। सिंघी राम ने लगाया छक्का, तो नंदलाल की हैट्रिक : 1977 में जनता दल के टिकट पर निन्जु राम ने यहां से जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1982 से लेकर 2003 तक हुए लगातार 6 विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सिंघी राम ने जीत दर्ज की। जबकि 2007, 2012 और 2017 में जीत दर्ज कर कांग्रेस के ही नंदलाल भी जीत की हैट्रिक बना चुके है।
फर्स्ट वर्डिक्ट. शिमला बेदाग़ छवि वाले मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सरकार पर अब पुलिस भर्ती पेपर लीक मामले का दाग लगा है। जयराम सरकार की चुनरी में लगे इस दाग के धब्बे गहरे है और निश्चित तौर पर विधानसभा चुनाव से पहले विपक्ष इन्हें हल्का पड़ने नहीं देगा। तंत्र की इस नाकामी का ठीकरा सरकार के सर फूटना लाजमी है। हालांकि सरकार ने हरसंभव एक्शन लिया है लेकिन ये प्रकरण अब सियासी रंग ले चूका है। कोरोना काल में हुए स्वास्थ्य घोटाले के बाद ये पहला ऐसा बड़ा मामला है जिसने सरकार की छवि को तार -तार कर दिया है। स्वास्थ्य घोटाले की आंच मंद करने के लिए तब पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल को कुर्सी की बलि देनी पड़ी थी, तो अब सरकार ने मामला सीबीआई को सौप कर अपनी स्वच्छ छवि बचाये रखने का प्रयास किया है। पर असल बात ये है कि इस प्रकरण में सरकार की खासी छीछा लेदर हो चुकी है। व्यवस्था पर सवाल उठ रहे है और सवाल न सिर्फ विरोधी राजनैतिक दल उठा रहे है अपितु आम जनता भी सोशल मीडिया पर जमकर भड़ास निकाल रही है। व्यवस्था पर सवाल उठना लाज़मी भी है क्यों कि सरकार और पुलिस प्रशासन की नाक तले पुलिस कांस्टेबल परीक्षा का प्रश्नपत्र लीक हो गया। जिस पुलिस भर्ती परीक्षा के आयोजन पर हिमाचल पुलिस अपनी पीठ थपथपा रही थी, वही लिखित परीक्षा खाकी पर दाग बन गई है। यहां बड़ा सवाल ये भी है की जब पुलिस महकमा ही अपनी परीक्षा पारदर्शिता के साथ नहीं करवा पा रहा है तो दूसरे विभागों में इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है। इस मामले के सामने आते ही बेरोज़गारी के मसले पर सरकार को पहले से घेर रहा विपक्ष भी और अधिक सक्रीय हो गया है। ज़ाहिर है चुनाव से पहले यह मुद्दा सत्तारूढ़ भाजपा के लिए गले की फांस बन गया है। यह मामला हजारों परिवारों से जुड़ा है। पुलिस कांस्टेबल की भर्ती 70 हजार से अधिक युवाओं ने दी है। खासकर जिन युवाओं ने अपनी मेहनत से पेपर पास कर मेरिट में जगह बनाई है, उनके सपनों पर पानी फिर गया है। यही वजह है कि कांग्रेस के साथ -साथ आम आदमी पार्टी और माकपा भी इस मुद्दे को जोर शोर से उठा रही है। जयराम सरकार इस मामले में निष्पक्ष जांच का दावा ज़रूर कर रही है मगर आलोचनाओं का दौर थम नहीं रहा। हिमाचल में पुलिस भर्ती का लिखित पेपर पहली बार लीक हुआ है। दरअसल पुलिस ने पहली बार पेपर तैयार और प्रिंट करने का सिस्टम बदला था। अब आरोपों के घेरे मेें पुलिस भी है, इसलिए अब इस मामले की जांच सीबीआई को सौंप दी गई है। जेओए भर्ती भी सवालों के घेरे में : इस मामले ने सिर्फ सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल ही खड़े नहीं किये बल्कि बीते कुछ सालों में सफल न हो पाई उन भर्ती प्रक्रियाओं की याद भी दिला दी जिनसे प्रदेश के बेरोज़गार युवा अब तक परेशान है। पुलिस भर्ती के आलावा जेओए भर्ती भी सवालों के घेरे में है। अन्य महकमों में भी भर्तियां अभी लंबित चल रही हैं। शिक्षा विभाग में आठ हजार मल्टी टास्क वर्करों की भर्ती अभी तक पूरी नहीं हुई है। जेबीटी भर्ती भी लटकी हुई है। दिन प्रति दिनप्रदेश में बेरोज़गार युवाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। बेरोज़गारी एक ऐसा मसला बन चूका जिसका निवारण सरकार के पास नहीं दिखाई देता। इस पर भर्ती परीक्षाओं के पेपर लेक होने से युवाओं में रोष है।
फर्स्ट वर्डिक्ट. शिमला केंद्र की मोदी सरकार ने अपने आठ साल की वर्षगांठ मनाने के लिए शिमला को चुना है। 31 मई को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिमला आ रहे है। मोदी रिज मैदान से एक जनसभा को संबोधित करेंगे। सियासी चश्मे से देखे तो जाहिर है चुनावी वर्ष है इसीलिए इस राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम की मेजबानी का मौका शिमला को मिला है। पर कारण जो भी हो, हिमाचल प्रदेश के लिए ये एक उपलब्धि जरूर है। जाहिर है मोदी सरकार शिमला में आठ साल मनाएगी तो देश भर में इसकी चर्चा भी खूब होगी। मेजबानी हिमाचल प्रदेश कर रहा है तो हिमाचल का विशेष जिक्र भी होगा और सम्भवतः प्रदेश को कोई विशेष सौगात भी मिल जाएं। बताया जा रहा है कि पीएम मोदी को बुलाने के लिए मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने खास प्रयास किये है और उनके निमंत्रण को स्वीकार कर पीएम मोदी ने भी जयराम को आशीर्वाद दे दिया है। हिमाचल प्रदेश में मिशन रिपीट को सफल करने के लिए 'मोदी मैजिक' भाजपा का सहारा है। दरअसल संगठनात्मक बदलाव के बाद प्रदेश कांग्रेस भी प्रोएक्टिव नज़र आ रही है और कांग्रेस में ज़मीनी स्तर पर बदलाव की भी उम्मीद है। कांग्रेस लगातार प्रदेश सरकार को महंगाई और बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर घेर रही है और अब पुलिस कांस्टेबल पेपर लीक मामले के बाद ये हमले और भी तेज़ होते दिखाई दे रहे है। वहीं इस बार आम आदमी पार्टी भी मैदान में है। भले ही आम आदमी पार्टी अब तक प्रदेश में संगठनात्मक तौर पर कुछ बड़ा न कर पाई हो मगर पार्टी को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता। इसीलिए पार्टी विद डिसिप्लिन भाजपा कोई कसर नहीं छोड़ना चाहती। ऐसे में पीएम मोदी का चेहरा आगे रखकर ही पार्टी मैदान में उतरने जा रही है। भाजपा ने साल 2017 का चुनाव प्रो प्रेम कुमार धूमल के चेहरे पर लड़ा था। तब अंतिम समय तक पार्टी ने चेहरा घोषित नहीं किया था। तब भाजपा तो चुनाव जीत गई मगर खुद धूमल सफल नहीं हो पाए थे। पर इस बार अभी से ये लगभग स्पष्ट किया जा चुका है कि चुनाव में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही पार्टी को लीड करेंगे। हालांकि उपचुनाव में भी मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही लीड कर रहे थे, मगर परिणाम अनुकूल नहीं रहे थे। बावजूद इसके पार्टी जयराम ठाकुर के चेहरे पर भरोसा जताती दिख रही है। उपचुनाव से सबक लेते हुए पार्टी कोई रिस्क नहीं ले रही है, इसीलिए अभी से भाजपा पूरी तरह चुनावी मोड में है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की जनसभा में भाजपा ने 50 हजार कार्यकर्ताओं की भीड़ जुटाने का लक्ष्य रखा है। इस आयोजन के जरिये प्रदेश में भाजपा माहौल बदलने की तैयारी में है। खुद मुख्यमंत्री की देखरेख में आयोजन की रूपरेखा को अमलीजामा पहनाया जा रहा है। क्या विधानसभा चुनाव में चलेगा मोदी मैजिक : मोदी मैजिक की बात करें तो ये ध्यान में रखना बेहद ज़रूरी है कि लोकसभा चुनाव में तो हिमाचल के लोग पीएम मोदी के नाम पर वोट करते है, लेकिन विधानसभा चुनाव में ऐसा नहीं होता। 2017 में हुए विधानसभा चुनाव में पीएम मोदी की चुनावी रैलियों के बावजूद पार्टी ऊना, फतेहपुर, कुल्लू और पालमपुर जैसे विधानसभा क्षेत्रों में अपना झंडा नहीं लहरा पाई थी।
- कांग्रेसी नेता भाजपा में जाकर बन रहे मुख्यमंत्री - परिवर्तन की जगह चिंतन मंथन के दौर में ही अटकी है पार्टी असम के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा, त्रिपुरा के नए मुख्यमंत्री मानिक साहा, मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह, नागालैंड में नेफियू रियो, अरुणाचल के मुख्यमंत्री पेमा खांडू, ये तमाम वो नेता है जो कांग्रेस से भाजपा में गए और मुख्यमंत्री बन गए। सेवन सिस्टर कहे जाने वाले नार्थ ईस्ट के साथ राज्यों में से इस वक्त पांच में भाजपा की सरकार है और इन पांचो राज्यों में मुख्यमंत्री वो नेता है जो कांग्रेस से भाजपा में गए। कांग्रेस आलाकमान की इससे बड़ी नाकामी भला और क्या हो सकती है। हिमाचल प्रदेश जैसे कुछ राज्य अब तक अपवाद जरूर है लेकिन बाकी देश में हाल बेहाल है। बीते कुछ समय में कई बड़े नेता पार्टी छोड़ चुके है, तो कई हाशिए पर है और कभी भी इनकी रवानगी का समाचार मिल सकता है। बावजूद इसके नेतृत्व परिवर्तन की जगह पार्टी में अब तक चिंतन - मंथन का दौर ही चला हुआ है। 'ये खेल है कब से जारी, बिछड़े सभी बारी बारी'. कैफ़ी आजमी के लिखे गीत के ये अल्फ़ाज़ आज कांग्रेस की स्थिति बयां करने के लिए बिलकुल उपयुक्त है। जैसा कैफ़ी साहब ने लिखा था, वैसा ही कुछ कांग्रेस के साथ घट रहा है। एक - एक कर नेता -कार्यकर्त्ता पार्टी का साथ छोड़ते जा रहे है। हालहीं में उदयपुर में तीन दिन तक नव संकल्प शिविर में कांग्रेस का चिंतन -मंथन हुआ और इसके तीसरे ही दिन गुजरात से नतीजों का पहला रुझान आ गया। हार्दिक पटेल ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया है। साल के अंत में गुजरात में विधानसभा के चुनाव होने है, इससे ठीक पहले हार्दिक का पार्टी से रुक्सत होना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। ये अचानक नहीं हुआ, कांग्रेस क्या पुरे देश को पता था कि पार्टी आलाकमान की लचर कार्यशैली से उकता चुके हार्दिक ऐसा कदम उठा सकते है। पर कांग्रेस को मानो इस बात का ही इन्तजार था, शायद हार्दिक पार्टी के लिए गैर जरूरी लग रहे होंगे। बहरहाल कारण जो भी हो हार्दिक का जाना कांग्रेस के लिए बड़ा झटका है। इससे पहले कांग्रेस के नव संकल्प शिविर के दौरान ही पंजाब से पार्टी के दमदार नेता सुनील जाखड़ ने गुड बाय कह दिया था। उनके जाने के कुछ दिन पहले ही पूर्व केंद्रीय मंत्री अश्वनी कुमार ने पार्टी को अलविदा कहा था। वहीँ कैप्टेन अमरिंद्र सिंह को हटाकर और नवजोत सिंह सिद्धू को संगठन की कमान थमाकर पंजाब में हार की पटकथा तो पार्टी विधानसभा चुनाव से पहले ही लिख चुकी थी। ये बेफिजूल के परिवर्तन नहीं किये गए होते तो संभवतः पार्टी पंजाब में बेहतर करती। कई दिग्गज भाजपा में हुए है शामिल : बीते एक दशक पर नज़र डाले तो कांग्रेस के कई दिग्गज भाजपा में शामिल हुए है। मध्यप्रदेश में युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधियां तो अपने साथ -साथ कांग्रेस की सरकार भी ले गए थे। यूपी में एक दिन के मुख्यमंत्री रहे जगदंबिका पाल 2014 में बीजेपी में शामिल हुए थे। वह लगातार दो बार से बीजेपी के टिकट पर डुमरियागंज से सांसद हैं। इसी तरह कांग्रेस की पूर्व दिग्गज नेता रीता बहुगुणा जोशी 2016 में बीजेपी में शामिल हुई थीं। उन्होंने 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में लखनऊ कैंट से चुनाव लड़ा था। पार्टी का ब्राह्मण चेहरा जितेन प्रसाद भी पिछले साल भाजपा में शामिल हो गए। हरियाणा में चौधरी बीरेंद्र सिंह 2014 में कांग्रेस छोड़कर बीजेपी में शामिल हो गए थे। पीएम नरेंद्र मोदी के पहले कार्यकाल में उन्हें इस्पात मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई थी। गुरुग्राम से सांसद राव इंद्रजीत सिंह भी 2014 में भाजपा में शामिल हुए थे। इसी तरह महाराष्ट्र में कांग्रेस के दिग्गज नेता राधाकृष्ण विखे पाटिल 2019 में कांग्रेस छोड़ बीजेपी में शामिल हुए थे। पूर्व मुख्यमंत्री नारायण राणे भी अब भाजपा में शामिल हो चुके है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एसएम कृष्णा भी अब भाजपा में है। ऐसी सैकड़ों उदहारण है जहाँ कांग्रेस के अच्छे जनाधार वाले नेताओं ने भाजपा में शामिल होकर पार्टी का जनाधार बढ़ाया है।
फर्स्ट वर्डिक्ट. कांगड़ा 'गुरु गुड़ रहे चेला हो गए शक्कर' , 2017 के विधानसभा चुनाव में नगरोटा बगवां निर्वाचन क्षेत्र में हाल ऐसा ही था। तब कभी स्व. जीएस बाली के समर्थक रहे अरुण कुमार 'कूका' ने चुनावी मैदान में बाली को पटकनी देकर अपना लोहा मनवाया था। अब खुद बाली दुनिया में नहीं रहे लेकिन उनके पुत्र रघुवीर बाली कांग्रेस की अगुवाई करते दिख रहे है। वहीँ अरुण कुमार 'कूका' भाजपा का प्राइम फेस बने हुए है। ऐसे में आगामी चुनाव में संभवतः जूनियर बाली और कूका के बीच टक्कर देखने को मिले। नगरोटा बगवां विधानसभा क्षेत्र का विकास प्रदेश भर में चर्चा का विषय रहा है। टांडा मेडिकल कॉलेज, राजीव गांधी राजकीय इंजीनियरिंग कॉलेज, परिवहन निगम का डिपो व आरएम कार्यालय, सिविल अस्पताल और ऐसे अन्य कई बड़े काम स्वर्गीय जीएस बाली की फेहरिस्त में शामिल हैं जिनके माध्यम से क्षेत्र की जनता को स्थानीय स्तर पर बेहतर सुविधाएं मिली हो। अब उनके पुत्र रघुवीर अपने पिता द्वारा कराए गए कार्यों के सहारे उनकी सियासी विरासत सँभालते दिख रहे है। उधर भाजपा की बात करे तो अरुण कुमार 'कूका' ही भाजपा का प्राइम फेस है। एक समय कूका भी जीएस बाली के समर्थक थे। 2012 में कूका ने जीएस बाली के खिलाफ निर्दलीय मैदान में थे तब जीएस बाली ने कूका को 2743 वोटों से हराया था। फिर 2017 में कूका ने बाजी पलटी और भाजपा टिकट पर चुनाव लड़ बाली को पटकनी दी। गुटबाजी बड़ी चुनौती : स्व. जीएस बाली और स्व वीरभद्र सिंह के बीच हमेशा खट्टे मीठे संबंध रहे है। 2017 में कांग्रेस की हार का बड़ा कारण गुटबाजी को भी माना जाता है। इस बार कांग्रेस रघुवीर को मैदान में उतारती है तो उनके लिए भी गुटबाज़ी साधना बड़ी चुनौती होगा। बाली का रहा है दबदबा : जीएस बाली1998 में पहली बार नगरोटा बगवां के विधायक चुने गए थे। उसके बाद 2003 व 2007 में उन्होंने चुनाव जीता। 2003 से 2007 के बीच वे परिवहन मंत्री रहे। 2012 में चौथी बार नगरोटा से उन्होंने चुनाव जीता और एक बार फिर परिवहन मंत्री बने। वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार भी माने जाते थे।
फर्स्ट वर्डिक्ट। कुल्लू कुल्लू के मन को जो एक बार भाता है, वो अगली बार बदल दिया जाता है। 1985 से लेकर अब तक कुल्लू निर्वाचन क्षेत्र ऐसी विधानसभा सीट रही है जहाँ हर पांच साल बाद परिवर्तन हुआ है। कोई भी चेहरा यहाँ लगातार दो बार नहीं जीता। ख़ास बात ये है कि चेहरे के साथ -साथ यहाँ कोई राजनैतिक दल भी लगातार दो बार नहीं जीता। पिछले चुनाव में यहाँ सुंदर सिंह ठाकुर ने जीत दर्ज कर इस सीट को कांग्रेस के नाम किया। अब इस बार सत्ता परिवर्तन की प्रथा का असर दिखता है या सुंदर सिंह ठाकुर रिपीट करते है, बहरहाल ये बड़ा सवाल है। वर्तमान विधायक सुंदर सिंह ठाकुर 2012 में भी कुल्लू निर्वाचन क्षेत्र से कांग्रेस का चेहरा थे, लेकिन तब सुंदर सिंह तीसरे स्थान पर रहे थे। 2017 में फिर कांग्रेस ने सुंदर सिंह पर दाव खेला और उन्होंने दिग्गज नेता महेश्वर सिंह को हराकर जीत दर्ज की। सुंदर सिंह जिला में कांग्रेस के इकलौते विधायक है और इस नाते बीते कुछ वक्त में कुल्लू कांग्रेस का प्राइम फेस भी बन चुके है। चुनाव से पहले ही प्रदेश कांग्रेस की नई कार्यकारिणी में सुंदर सिंह को वरिष्ठ उपाध्यक्ष का पद दिया गया है। ऐसे में ये तय माना जा रहा है कि इस बार भी कांग्रेस से टिकट सुंदर सिंह को ही मिलेगा। हालांकि कई अन्य चाहवान भी टिकट की कतार में जरूर है। कुल्लू की सियासत में रियासत का भी ख़ासा दखल है। कुल्लू रियासत के राजा जगत सिंह के वंशज एवं भगवान रघुनाथ के छड़ीबरदार महेश्वर सिंह भाजपा का एक बड़ा चेहरा है। न केवल कुल्लू निर्वाचन क्षेत्र में, बल्कि पुरे जिला में महेश्वर सिंह का खासा दबदबा है।1977 में महेश्वर पहली बार विधायक चुने गए। 1982 में दोबारा वह विधायक बने 1989 में नौवीं लोकसभा के सदस्य चुने गए। इसके बाद वे 1992 में राज्यसभा सांसद बने और 1999 में उन्होंने फिर लोकसभा का चुनाव जीता। इसके बाद महेश्वर सिंह ने भाजपा को अलविदा कहकर अपनी राजनीतिक पार्टी 'हिमाचल लोकहित पार्टी' का गठन किया। तब 2012 में भाजपा ने राम सिंह को मैदान में उतारा लेकिन हिमाचल लोकहित पार्टी से महेश्वर सिंह ने चुनाव जीता। 2017 में भाजपा से राम सिंह टिकट की मांग कर रहे थे, लेकिन टिकट मिला महेश्वर सिंह को। उस समय कांग्रेस ने इस सीट पर जीत हासिल की। अब इस मर्तबा भी भाजपा में महेश्वर सिंह और राम सिंह सहित टिकट के कई दावेदार है। ऐसे में इस दफा भाजपा किसे मैदान में उतारती है ये तो आना वाला समय ही बताएगा। लोकसभा उपचुनाव में पिछड़ी थी भाजपा : मंडी लोकसभा उपचुनाव में भी महेश्वर सिंह को टिकट मिलने के कयास लग रहे थे लेकिन बाद में टिकट ब्रिगेडियर खुशाल ठाकुर को मिला। जिला कुल्लू के सभी निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा पिछड़ी और ये ही कांग्रेस की जीत का बड़ा कारण भी बना। जानकार मानते है कि यदि मंडी लोकसभा उपचुनाव में भाजपा ने महेश्वर सिंह को टिकट दिया होता तो नतीजा बदल सकता था। आप में जा रहे नाराज नेता : कांग्रेस-भाजपा से नाराज और टिकट की उम्मीद छोड़ चुके दोनों ही दलों के नेता आप का दामन थाम रहे हैं। हाल ही में कुल्लू जिला से कांग्रेस के उपाध्यक्ष अनुराग प्रार्थी ने भी पार्टी से इस्तीफा दे दिया। हालांकि प्रदेश में आम आदमी पार्टी अधिक सक्रिय नहीं दिख रही है। ऐसे में कुल्लू विधानसभा सीट पर आम आदमी पार्टी का कितना इम्पैक्ट पड़ेगा, ये तो आने वाला समय ही बताएगा। आखिरी बार कुंज लाल ठाकुर ने किया था रिपीट : कांग्रेस के वरिष्ठ नेता स्व लाल चंद प्रार्थी 1972 तक कुल्लू निर्वाचन क्षेत्र के सबसे ताकतवर नेता थे। पर आपातकाल के बाद 1977 में हुए चुनाव में जनता दल के टिकट पर कुंज लाल ठाकुर ने जीत दर्ज की। भाजपा के गठन के बाद कुंज लाल ठाकुर भाजपा में शामिल हुए 1982 में भाजपा के टिकट पर चुनाव जीते। इसके बाद कोई भी चेहरा लगातार दो बार कुल्लू में चुनाव नहीं जीता। 1985, 1993 और 2003 में कांग्रेस के राज कृष्ण गौर चुनाव जीतने में कामयाब रहे, 1990 में भाजपा के कुंज लाल ठाकुर और 1998 में भाजपा के चंद्र सेन ठाकुर ने जीत दर्ज की। 2007 में कुंज लाल ठाकुर के पुत्र और वर्तमान शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह ठाकुर कुल्लू से चुनाव जीते, वहीँ 2012 में महेश्वर सिंह और 2017 में कांग्रेस के सूंदर सिंह चुनाव जीते।
अरविन्द शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनज़र बढ़ते सियासी तपन की जद में जिला चंबा का भटियात निर्वाचन क्षेत्र भी आ चुका है। बीते कुछ वक्त में दूसरी बार विधायक बन विधानसभा पहुँचे विक्रम जरियाल ने ख़ुद अपनी लोकप्रियता को खासा नुकसान पहुँचाया है। इसकी सबसे बड़ी वजह कई मौक़ों पर दिखने वाले विधायक के कड़े तेवर हैं, जो उनकी अपनी शालीन एवं सौम्य छवि के विपरीत हैं। साथ ही प्रदेश की अपनी ही सरकार होने के बावजूद भटियात क्षेत्र के लिए कोई बड़ी उपलब्धि लाना भी उनके लिए दूर की कौड़ी साबित हुआ है। पिछले साढ़े चार वर्ष में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर भी भटियात में एक मर्तबा पहुंचे हैं, जबकि बाकि समूचे चंबा में अक्सर मुख्यमंत्री के दौरे होते रहते हैं। कांगड़ा और चंबा की सीमा से लगते इस विधानसभा क्षेत्र के बाबत अगर बुनियादी सुविधाओं की बात की जाए तो अच्छे स्वास्थ्य और अच्छी शिक्षा जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए यहाँ के बाशिंदों को टाँडा मेडिकल कॉलेज कांगड़ा और धर्मशाला का रुख करना पड़ता है। अगर इस क्षेत्र के स्वास्थ्य केंद्रों, आयुर्वेदिक डिस्पेंसरियो, प्लस टू किए गए स्कूलों की उद्घाटन पट्टिकाओं पर नज़र डालें तो ज्यादातर पर कुलदीप पठानिया का नाम दर्ज है। हालांकि पिछले दिनों कैबिनेट में भटियात को लेकर चवाड़ी में पीडब्ल्यूडी डिवीजन खोले जाने की घोषणा जरूर जरियाल के लिए हर्ष का विषय हो सकता है, पर अभी तक यह घोषणा ही है। मौजूदा संभावित प्रत्याशियों के परिपेक्ष में पूर्व के आंकड़ों पर नज़र डालें तो भटियात विधानसभा में राजपूत व अनुसूचित जाति के मतदाताओं की बहुलता है। अगर 2012 के विधानसभा को देखें तो जरियाल यह चुनाव भारी मतों से जितने में सफल रहे थे, जबकि चार बार के विधायक रहे पठानिया आसानी से हार गए थे। इसका कारण था यहाँ से निर्दलीय उम्मीदवार रहे भूपिंदर सिंह चौहान जिन्होंने दस हज़ार के आस-पास मत प्राप्त किये थे। साफ़ तौर पर मतों का विभाजन यहाँ दिखता है। 2017 में फिर जरियाल को यहाँ के लोगों ने विधानसभा पहुँचाया। तब विक्रम सिंह जरियाल ने कुलदीप सिंह पठानिया को 6885 वोटों के मार्जिन से हराया था। इस बार यूँ तो दोनों ही मुख्य राजनीतिक दलों से टिकट के कई दावेदार है पर संभवतः जरियाल और पठानिया फिर आमने -सामने होंगे। आज के इस सूचना -क्रांति वाले आधुनिक दौर में भी कोई चाहे लाख ख़ुद को समझदार मान कर चलें लेकिन सियासी शतरंज की बिसात पुराने तरीके से ही बिछाई जाती हैं। भटियात में भी ये ही कहानी है। यहाँ भी जातीय ध्रुवीकरण और मत विभाजन फैक्टर पर आधारित वोट बैंक की राजनीति को नज़र अन्दाज़ नहीं किया जा सकता। इस सीट पर गुज्जर, गद्दी और पिछड़े वर्ग के मतदाता जिसके पक्ष में एकजुट होकर वोट करेंगे, उसकी राह आसान होगी। बाकि पिछले दो -एक महीनों से प्रदेश में सक्रिय हुई आम आदमी पार्टी का ऊँट इस विधानसभा क्षेत्र में किस करवट बैठता है यह देखना भी दिलचस्प होगा। शांता ने गोद लिया, पर हालात नहीं बदले ... दत्तक पुत्र नाम से जाने वाले लाहड़ू के साथ लगते गांव परछोड़ को सांसद रहते हुए शांता कुमार ने गोद लिया था, लेकिन शांता भी इस गांव को गोद लेने की घोषणा ही कर पाए थे और कभी इस गाँव में जा नहीं सके। परछोड़ गांव में फिन्ना सिंह नहर का निर्माण पिछले कई वर्षों से चल रहा है और उस नहर के निर्माण कार्य को शुरू करवाने के श्रेय का दावा कांग्रेसी और भाजपाई दोनों करते आए हैं। पर हकीकत ये है कि अब तक कार्य अधर में लटका है। जरियाल का प्रधान से विधायक तक का सफर : विक्रम सिंह जरियाल राजनीति में आने से पहले भारतीय सेना में रहे। इसके बाद वे टुंडी पंचायत के प्रधान रहे। तदोपरांत दो बार जिला परिषद सदस्य चुने गए, जिसके बाद भाजपा ने उन्हें ज़िला सचिव बनाया। 2012 के चुनावों में जरियाल पहली बार विधायक चुने गए।
अरविन्द शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट ज्वाली विधानसभा हलके में भाजपा के टिकट के लिए दो सशक्त दावेदार मैदान में है। एक फूल और दो माली वाली ये स्थिति भाजपा की चिंता बढ़ाती दिख रही है। 2017 विधानसभा चुनाव में पार्टी के पक्ष में चुनाव न लड़ने वाले संजय गुलेरिया तब से न सिर्फ भाजपा संगठन में बने हुए है, बल्कि पिछले साढ़े चार वर्षों में उन्होंने ख़ुद को इस विधानसभा क्षेत्र में और मज़बूत किया है। जबकि अर्जुन ठाकुर विधायक तो है पर अपने कामकाज से कोई विशिष्ट पहचान स्थापित करते नहीं दिखते। मौजूदा दौर में जो राजनीतिक माहौल बनता दिख रहा है और जिस तरह के सियासी एक्सपेरिमेंट सत्ता प्राप्ति के लिए भाजपा द्वारा किए जा रहे हैं, इसमें कोई दो राय नहीं कि एंटी इनकम्बेंसी वाले क्षेत्रों में पार्टी चेहरे बदलने से गुरेज न करे। हालांकि ज्वाली में अर्जुन ठाकुर के लिए यह कार्यकाल एक सुनहरा मौका था, लेकिन अर्जुन के तीर इस विधानसभा क्षेत्र में गढ़ी संजय की नज़रों को नहीं भेद पाए है। ज्वाली में भाजपा के दो गुटों का विभाजन इस तरह से किया जा सकता है, एक देहर के इस पार नगरोटा सूरियां -हरसर -घाड़ जरोट वाला इलाका जो कि संजय गुलेरिया का गुट है। इक्का -दुक्का लोगों को छोड़ दें तो ज़्यादातर यहाँ संजय समर्थक हैं। दूसरा देहर के उस पार ज्वाली -गुगलाड़ा वाला इलाका जिसमें ज्यादातर अर्जुन समर्थक हैं। पिछले चुनाव में अर्जुन का साथ देने वाले संजय गुलेरिया से उनकी दूरियों के मुख्य कारणों पर नज़र दौड़ाएँ तो सबसे बड़ी वजह गुलेरिया समर्थकों की उपेक्षा है। गुलेरिया समर्थकों का आरोप है कि अर्जुन ठाकुर पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं को जो कि हरबंस राणा के समय से भाजपा से जुड़े रहे हैं, उनको पार्टी के किसी भी कार्यक्रम में नहीं बुलाते। बुलाना तो दूर की बात अर्जुन उनको प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे। उनका ये भी आरोप है कि अर्जुन ने भाजपा के मूल कार्यकर्ताओं को नज़र अन्दाज़ कर अपने इर्द -गिर्द उन ठेकेदारों की फ़ौज जमा कर रखी है जिन्होंने पिछले साढ़े चार सालों में करोड़ों रुपए कमाए हैं। ये स्थिति निसंदेह भाजपा के लिए बेहतर नहीं हैं। अब बात करते हैं ग्राउंड रियलिटी की। ज्वाली में कई ऐसे मुद्दे है जो अर्जुन के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी का सूत्रधार बन सकते है। मसलन पिछले साढ़े चार साल से नगरोटा सूरियां कालेज में प्रिंसिपल की ख़ाली पड़ी पोस्ट, चार महीने पहले सीएम द्वारा नगरोटा को उप तहसील का दर्जा दिए जाने की घोषणा के बाद वहाँ तहसीलदार को ना ला पाना, पिछले साढ़े चार सालों से नगरोटा सूरियां में बीएमओ की ख़ाली पोस्ट, नगरोटा -देहरा चौक के पास सात वर्ष पूर्व शुरू किए गए टूरिज्म सेंटर का निर्माण कार्य पूर्ण हो जाने पर भी उद्घाटन नहीं कर पाना, अर्जुन खब्बल में टूरिज्म के तैयार हट्स का उद्घाटन नहीं करवा पाना ( फलस्वरूप उनको वाइल्ड लाइफ़ वालों को देना पड़ा लेकिन फिर भी क्रियान्वित नहीं हो पाए), लम्बे अरसे से गज खड्ड पर प्रस्तावित जरोट -नगरोटा सूरियाँ पुल के लिए शिलान्यास का एक भी पत्थर तक न लगवा पाना इत्यादि। इन मुद्दों को लेकर न केवल विपक्ष हमलावर है बल्कि भाजपा के अंदर से भी आवाज उठ रही है। पिछले लम्बे समय से संजय गुलेरिया की ज्वाली विधानसभा क्षेत्र में निरंतर सक्रियता उनकी हर हाल में चुनावी मैदान में उतरने की मंशा को स्पष्ट ही नहीं करती बल्कि अर्जुन ठाकुर को भाजपा टिकट पाने की राह को और भी मुश्किल कर सकती है। इस बार ज्वाली विधानसभा क्षेत्र के परिणाम तो ख़ैर भविष्य के गर्भ में छिपे हैं लेकिन फ़िलवक्त दो -दो प्रत्याशियों के चलते ज्वाली विधानसभा क्षेत्र में भाजपा की राह जरूर मुश्किल हो सकती है। पहले गुलेर अब ज्वाली, चौधरी चंद्र कुमार का रहा दबदबा : ज्वाली विधानसभा क्षेत्र 2008 के परिसीमन के बाद अस्तित्व में आया। ये निर्वाचन क्षेत्र अनारक्षित है। इससे पहले फतेहपुर और ज्वाली दोनों एक हुआ करते थे। फ़तेहपुर को ज्वाली से अलग किया गया और पहले का गुलेर विधानसभा क्षेत्र अब ज्वाली विधानसभा क्षेत्र के नाम से जाना जाता है। ज्वाली ( पहले गुलेर ) परंपरागत रूप से कांग्रेस के दबदबे वाली सीट रही है। हरबंस राणा ने यहां बीजेपी से तीन बार सफलता हासिल की है। इसके अलावा यहाँ ज़्यादातर चौधरी चंद्र कुमार ही जीतते आए हैं। परिसीमन के बाद पहली बार 2012 में हुए विधानसभा चुनाव में चौधरी चंद्र कुमार के पुत्र नीरज भारती ने जीत दर्ज की। इससे पहले नीरज भारती 2007 में भी विधायक चुने गए थे। अगर पिछले चुनाव यानी 2017 की बात की जाए तो यहाँ भारतीय जनता पार्टी ने जीत दर्ज की थी। गुलेरिया के साथ आने से चंद्र कुमार का गढ़ भेद पाएं थे अर्जुन : 2017 के हुए चुनाव में भाजपा के अर्जुन ठाकुर ने चंद्र कुमार को 8213 वोटों के अंतर से शिकस्त दी थी। तब अर्जुन ठाकुर को कुल 36,999 मत मिले जबकि चौधरी चंद्र कुमार ने 28,786 वोट हासिल किए थे। 2017 के परिणामों का विश्लेषण करें तो अर्जुन ठाकुर की जीत का मुख्य कारण संजय गुलेरिया का उनके पक्ष में आना था। ज्वाली विधानसभा क्षेत्र तथा भाजपा में अपनी ख़ूब पैठ रखने वाले संजय गुलेरिया गज़ पार यानी नगरोटा सूरियाँ से ताल्लुक रखते हैं। पिछली बार अगर संजय गुलेरिया बतौर आजाद प्रत्याशी भी चुनावी मैदान में उतरे होते तो भाजपा की इस सीट पर हार तय मानी जा रही थी, लेकिन भाजपा संगठन संजय गुलेरिया को मनाने में कामयाब रहा।
2017 के विधानसभा चुनाव नतीजों में भाजपा का आंकड़ा 44 पहुंच गया था, पर जीते हुए उम्मीदवारों की सूची में खुद तत्कालीन प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतपाल सिंह सत्ती का नाम नदारद था। ऊना सदर की जनता ने सत्ती की उम्मीद पर पानी फेर दिया और पांच साल के लिए सियासी जायदाद कांग्रेस के सतपाल रायजादा के नाम कर दी। लगातार तीन चुनाव जीतने के बाद भाजपा प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती का चुनाव हार जाना तब बड़ा घटनाक्रम था। दरअसल, भाजपा के सीएम उम्मीदवार प्रो प्रेम कुमार धूमल भी चुनाव हार चुके थे और जाहिर है अगर सत्ती चुनाव जीते होते तो सीएम पद की दौड़ में उनका नाम भी शामिल होता। प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उनका दावा निसंदेह मजबूत रहने वाला था, मगर ऐसा हो न सका। अब इस वर्ष के अंत में फिर विधानसभा चुनाव होने है और एक बार फिर भाजपा के सतपाल का मुकाबला कांग्रेस के सतपाल से होना तय माना जा रहा है। यूँ तो दोनों तरफ टिकट के अन्य दावेदार भी है लेकिन फिलवक्त ऐसा कोई नहीं दिखता जो टिकेट की दौड़ में इन दोनों दिग्गजों को पछाड़ सके। ऊना के बढ़ते तापमान के साथ -साथ सियासी ताप भी प्रखर है और दोनों ही मुख्य उम्मीदवार अभी से दमखम सहित मैदान में टिके है। ऊना के सियासी अतीत की बात करें तो ऊना भाजपा का मजबूत गढ़ रहा है। भाजपा के गठन के बाद 1982 में हुए पहले ही विधानसभा चुनाव में ऊना में पार्टी का खाता खुल गया था। 1977 में जनता दाल के टिकट पर चुनाव लड़ने वाले देशराज 1982 में भाजपा के उम्मीदवार थे और दोबारा जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। 1985 में कांग्रेस के वीरेंद्र गौतम ने ये सीट पार्टी की झोली में डाली लेकिन 1990 फिर एक बार भाजपा के देशराज यहाँ से विधायक बने। इसके बाद 1993 में कांग्रेस के ओपी रतन और 1998 में फिर कांग्रेस के वीरेंदर गौतम ने यहाँ से जीत दर्ज की। पर 2003 में भाजपा ने सतपाल सिंह सत्ती को मैदान में उतारा और सत्ती ने जीत दर्ज की। इसके बाद 2007 और 2012 में भी सत्ती ही जीते। पर 2017 में जनता का साती से कुछ मोहभंग हुआ और कांग्रेस को जीत मिली। पर हार के बावजूद सत्ती निरंतर सक्रिय है और संभवतः इस बार भी पार्टी प्रत्याशी होंगे। तीसरी बार आमने -सामने हो सकते है सत्ती और रायजादा : ऊना में पिछले दो मुकाबले सतपाल रायजा और सतपाल सत्ती के बीच हुए है। 2012 में सतपाल सत्ती करीब 4700 वोट से जीते तो 2017 में सतपाल रायजादा करीब तीन हज़ार वोट से जीते। रायजादा कांग्रेस के सीएम पड़ा के प्रबल दावेदार सुखविंदर सिंह सुक्खू के करीबी माने जाते है। बतौर विधायक उनका कामकाज ठीक ठाक है लेकिन सतपाल सिंह सत्ती की जमीनी पकड़ पर भी कोई संशय नहीं है। ये तय है कि इस बार भी यहाँ कड़ा मुकाबला देखने को मिलेगा। ऊना में आम आदमी पार्टी पर भी नज़र रहने वाली है। ये क्षेत्र पंजाब से लगता हुआ है जहाँ आप की सरकार है। ऐसे में आप यहाँ कैसा करती है और किसके समीकरण बनाती -बिगाड़ती है , ये देखना भी रोचक होगा ।
कांग्रेस, कहीं नहीं जाऊंगा छोड़ कर - कहा पार्टी में पुराने लोगों को तवज्जो दिए जाने की जरूरत पंकज सिंगटा। धर्मशाला जिला कांगड़ा के ज्वाली विधानसभा क्षेत्र से पूर्व में विधायक रहे और पूर्व में सीपीएस रहे नीरज भारती का विवादों से पुराना नाता रहा है। अपनी बेबाकी के चलते नीरज भारती अक्सर चर्चा में रहते है। नीरज भारती के बोल विपक्ष को तो चुभते ही है, लेकिन कई बार अपनी पार्टी को भी कठघरे में ला खड़ा करते है। पर नीरज भारती ताल ठोक कर कहते है कि कांग्रेस उनके खून में है। इस पर भी कोई सवाल नहीं है कि नीरज भारती के समर्थकों की खासी तादाद है। आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी भूमिका, पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा के साथ उनकी तल्खियां और कांग्रेस की वर्तमान स्थिति जैसे कई विषयों पर फर्स्ट वर्डिक्ट ने नीरज भारती से खास चर्चा की। पेश है इस चर्चा के मुख्य अंश .... सवाल : हो सकता है आप इस सवाल से ऊब गए हो परन्तु हम सर्व प्रथम ये ही जानना चाहते है कि आपके सुधीर शर्मा के साथ क्या मतभेद है ? जवाब : इस सवाल से मैं तो नहीं ऊबा हूँ लेकिन हो सकता है जो लोग मुझे सुनते है, वो इस बात से ऊब गए हो, लेकिन आपने यह सवाल किया है तो मैं जरूर जवाब दूंगा। ऐसी कोई गंभीर घटना नहीं थी, लेकिन छोटा मोटा मन मुटाव है और वह आगे भी रहेगा, क्योंकि मुझसे धोखेबाज़ी बर्दाश्त नहीं होती है। मैं यारी दोस्ती में जान देने और लेने के लिए भी तैयार हूँ। ऐसी ही धोखेबाज़ी धर्मशाला के पूर्व विधायक सुधीर शर्मा ने भी की थी। मैं फेसबुक पर बहुत सारी ऐसी चीजें लिखता रहता हूँ जो मुझे पसंद नहीं आती क्योंकि फेसबुक खुद ही पूछता है कि " व्हाट्स ऑन योर माइंड"। तो मैं लिख देता हूँ। उस समय जब धर्मशाला में यह घटना हुई थी उसका कारण यह था कि मैंने सुधीर के लिए कुछ लिखा था, लेकिन उनके जो समर्थक थे उन्हें वह बात पसंद नहीं आई। इस वजह से उनके साथ थोड़ा मन मुटाव हो गया था। उन लोगों से मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं है, सुधीर शर्मा से है और वह आगे भी जारी रहेगी। सवाल : आपने कहा कि सुधीर शर्मा ने धोखेबाज़ी की है, धर्मशाला में जो भी घटना हुई वह सबके सामने है। उस घटना से आपके निजी मतभेद सबके सामने आए। कांग्रेस में एक डिसीप्लेनेरी कमेटी बनाई गयी है, क्या इस घटना के बारे में वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई? जवाब : इस घटना में पार्टी के खिलाफ कोई भी बात नहीं हुई है। यह मेरा और सुधीर का निजी मामला है, हालाँकि वह कुछ नहीं बोलता क्योंकि उसे मंद मंद मुस्कुराने की आदत है। वह दूसरों के कन्धों पर बन्दुक रख कर चलाने वाला इंसान है, लेकिन मैं खुद सामने खड़ा होता हूँ। मेरे साथ कोई गलत करेगा तो मैं उससे खुद निपटना जानता हूँ। पार्टी में डिसीप्लेनेरी कमेटी है लेकिन वह तभी बोलती है, यदि हम पार्टी के खिलाफ कुछ बोलेंगे या पार्टी के खिलाफ कुछ गलत करें। सुधीर के साथ मेरी जो निजी रंजिश है वह तो रहेगी ही, फिर चाहे पार्टी मुझे स्वीकार करे या न करे। सवाल : आगामी चुनावों की बात करे तो यह बातें निकल कर आ रही है कि आपके पिता चौधरी चंद्र कुमार ज्वाली से चुनाव लड़ने वाले है, आप नहीं। यदि आपके पिता चुनाव लड़ते है तो आपने अपने लिए किस तरह की भूमिका तय की है? जवाब : ज्वाली, चौधरी चंद्र कुमार की कर्म भूमि रही है। पिछले दो चुनावों से ही हमें ज्वाली नाम सुनने को मिल रहा है, उससे पहले इस विधानसभा क्षेत्र का नाम गुलेर हुआ करता था। चौधरी चंद्र कुमार ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत इसी क्षेत्र से की है। हालांकि मैंने वहां से 3 चुनाव लड़े है। जब चौधरी चंद्र कुमार जी ने शांता कुमार को हराकर लोकसभा चुनाव जीता, उस समय 2004 में उपचुनाव हुआ। मैंने वह चुनाव लड़ा था लेकिन उस समय मैं जीत नहीं पाया था। इसके बाद 2007 में पार्टी ने मुझ पर विश्वास जताया और मुझे फिर से टिकट दिया और मैं वहां से चुनाव जीत गया। 2012 में एक बार फिर मुझे चुनाव लड़ने का मौका मिला और स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की सरकार बनी और मुझे मुख्य संसदीय सचिव के रूप में कार्य करने का मौका मिला और मुझे शिक्षा विभाग में जिम्मेवारी सौंपी गयी थी। मैंने अपने क्षेत्र के विकास के लिए कई कार्य किये थे। अपने क्षेत्र के स्कूलों के विकास के लिए मैंने कई कार्य किये थे। जहाँ तक बात है 2017 के विधानसभा चुनावों की, तो मेरी ख्वाईश थी की मेरे पिता यहाँ से चुनाव लड़े और जीते और उसके बाद रिटायरमेंट ले ले, लेकिन 2017 का चुनाव हम नहीं जीत पाए। ज्वाली मेरे पिता की कर्मभूमि है और मैं चाहता हूँ कि वह यहाँ से विधायक बने और उसके बाद वह रिटायरमेंट ले। सवाल : हाल ही में कांग्रेस में परिवर्तन हुआ है। नए अध्यक्ष नियुक्त किए गए है और चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए है। ऐसे में यदि इस बार कांग्रेस की सरकार बन कर आती है तो मुख्यमंत्री कौन होगा। इस बारे में आप अपनी निजी राय क्या रखते है ? जवाब : मुख्यमंत्री बनने के लिए सबसे पहले तो अपनी अपनी सीटें जितनी पड़ेगी और सरकार बनानी पड़ेगी। अगर आप अपनी सीटें जीत भी जाते हैं और दूसरों को हराने की कोशिश करते हैं और सरकार नहीं बना पाते हैं तो मुख्यमंत्री बनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के जाने के बाद कांग्रेस पार्टी में एक बड़ा रिक्त स्थान आ गया है और उनके जैसा नेता हिमाचल को मिलना बहुत ही मुश्किल है। सभी लोग कोशिश कर रहे है कि वह मुख्यमंत्री बने और सरकार बनाएं, लेकिन सबसे पहली बात यह है कि यदि जीतेंगे तभी सरकार बना पाएंगे। सबसे पहले अपनी सीटें जितनी होगी और उसके साथ साथ दूसरों की सीटें जितवानी होगी, तभी सरकार बनाएंगे। फिलहाल नाम तो मैं नहीं ले सकता क्योंकि जितने भी लोग इस दौड़ में है, सभी माननीय सम्मानीय है और सभी लोग योग्य भी है, लेकिन इसके बारे में आने वाला वक्त ही फैसला करेगा। सवाल : कांग्रेस को एक छोटे से राज्य में 4 कार्यकारी अध्यक्ष बनाने पड़े है। कांगड़ा जिला से भी पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है। आपको क्या लगता है कि यह फार्मूला कितना सही साबित हो सकता है ? जवाब : ऐसा फार्मूला तब बनाया जाता है जब कोई भाग रहा हो और उस पर बेड़ियाँ डालनी हो। ऐसी किसी पोस्ट से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि आखिर में फैसले तो अध्यक्ष ही करता है। आज कल तो वैसे भी पार्टियों को छोड़ने का रिवाज़ सा ही चल पड़ा है। इतने लोग कपड़े नहीं बदलते है जितनी लोग आज कल पार्टियां बदल रहे है। मैं बस यही कहना चाहूंगा कि जिन्हें भी पार्टी द्वारा कार्यकारी अध्यक्ष या अन्य जिम्मेवारियां दी गयी है, वह इसे अच्छे से निभाएं और अच्छा कार्य करें। मैं बस आलाकमान से एक आग्रह करना चाहूंगा कि पुराने लोगो को नज़रअंदाज़ न किया जाएं और उनके साथ विश्वासघात न किया जाएं। पुराने लोगों ने अपनी पूरी जवानी, अपनी पूरी उम्र पार्टी को बनाने में लगाई है और पार्टी के साथ स्तम्भ की तरह खड़े रहे है। आप पंजाब का ही हाल देख लीजिए, सुनील जाखड़ बीते दिनों पार्टी छोड़ कर चले गए और अब वह भाजपा में शामिल हो गए है। इससे पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह पार्टी छोड़ गए है और इनके जैसे कई नेता पार्टी को छोड़ कर जा चुके है। मैं बस चाहता हूँ कि पुराने लोगों को नज़रअंदाज़ न किया जाए और उन्हें तवज्जो दी जाए। पुराने लोगों ने ही पार्टी के लिए कार्य किया है और पार्टी के लिए हमेशा आगे खड़े रहे है। सवाल : क्या आप मानते है कि चूक वहां हो रही है जहाँ पुराने लोगों को मौका नहीं दिया जा रहा है ? जवाब : बिल्कुल मैं यह बात मानता हूं क्योंकि पुराने लोग पार्टी के स्तंभ है। पुराने लोग पार्टी को इतना आगे लेकर आए है। हालांकि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उन लोगों को भी पार्टी की वजह से ही सम्मान मिला है, लेकिन पार्टी भी उन्हीं लोगों की वजह से मजबूत हुई है। मैं कुछ दिन पहले सुन रहा था, राहुल गांधी बोल रहे थे कि हम अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ेंगे, लेकिन विचारधारा की लड़ाई तो आप तब लड़ेंगे जब आपके पास अपनी विचारधारा रहेगी। कांग्रेस पार्टी की विचारधारा भाजपा, जनसंघ और आरएसएस से बिल्कुल अलग है। वह लोग कट्टरपंथी है लेकिन कांग्रेस सब को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी है। लेकिन भाजपा, आरएसएस और जनसंघ के कट्टरपंथी लोग पार्टी में आएंगे तो विचारधारा को कैसे बचाएंगे। पार्टी में पुराने लोगों को पूछे बिना पार्टी के अंदर फैसले लिए जाएंगे, और ऐसे लोगों की बातों पर फैसले लिए जाएंगे जो आज यहाँ है और कल वहां है तो विचारधारा कैसे बचेगी। सवाल : आरोप लगाने के बावजूद भी आप कांग्रेस पार्टी में टिके है, ऐसा क्या लगाव है पार्टी के साथ ? जवाब : मेरे तो खून में कांग्रेस पार्टी है। मेरे पिताजी कांग्रेस विचारधारा, गांधीवादी विचारधारा के आदमी है। उस समय इस विधानसभा क्षेत्र का नाम गुलेर हुआ करता था और उस वक्त दूर-दूर के इलाकों के विधायक बनते थे। भाजपा के हो या कांग्रेस के हो ज्वाली से कोई भी विधायक नहीं बनता था। मेरे पिता सरकारी नौकरी में थे और हमारे इलाके की नज़रअंदाजगी को लेकर उन्होंने सरकारी नौकरी का त्याग कर दिया। वह कांग्रेस विचारधारा के थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने 1977 में पहला चुनाव बतौर आजाद उम्मीदवार लड़ा और वह बहुत ही कम अंतर से चुनाव हार गए। इसके बाद जनता पार्टी के लोगों ने मेरे पिता को पार्टी में शामिल होने और टिकट देने की बात कही थी, लेकिन उन्होंने जनता दल का टिकट लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं एक बार कांग्रेस पार्टी के टिकट के लिए फिर से कोशिश करूंगा यदि मुझे टिकट मिलती है तो मैं चुनाव लडूंगा, और यदि नहीं मिलती है तो मैं चुनाव नहीं लडूंगा। नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वे शिमला के मशहूर कॉलेज सेंड बीट्स में बतौर जियोग्राफी के प्रोफेसर के रूप में नौकरी करने लगे। इसके बाद 1982 में उन्हें कांग्रेस का टिकट मिला और उन्होंने चुनाव लड़ा। तब से लेकर मेरे पिता कांग्रेस में है। मेरे खून में कांग्रेस है, हमने कांग्रेस पार्टी ही देखी है। यदि कांग्रेस पार्टी नज़रअंदाज़ करेगी तो, मैं भाजपा में या कहीं और नहीं जा सकता। मैं अपना विरोध दर्ज करता रहूंगा लेकिन कांग्रेस छोड़ किसी और पार्टी में नहीं जाऊंगा। अगर ज्यादा नज़रअंदाज किया जाता है तो पहला चुनाव भी पिता जी ने बतौर आज़ाद उमीदवार लड़ा था और अगला भी ऐसे ही लड़ लेंगे, लेकिन भाजपा या आम आदमी पार्टी में जाने का कोई मतलब नहीं बनता है। आम आदमी पार्टी ने तो वैसे भी ड्रामा बना के रखा है। उनसे दिल्ली अभी संभाली नहीं जा रही है |
नेरचौक अजय सूर्या नगर परिषद नेर चौक में गड़बड़ घोटाला,स्थानीय ठेकेदारों ने लगाया भाई भतीजावाद का आरोप नेर चौक नगर परिषद में रातोरात मनमर्जी से ही सुविधानुसार नियम बदले जा रहे है, जिसमे कुछ स्वयंभू नेता अपने खास लोगों को मनचाहा काम दिलवाने के लिए खूब मशक्कत कर रहे है। आलम ऐसा हो गया है कि अपनी सुविधा अनुसार इन टेंडरों का खेल कभी ऑनलाइन तो कभी ऑफ लाइन चल रहा है।हालात ऐसे हैं कि टेंडर आवेदन करने के अंतिम तारीख को कार्यालय का कोई अधिकारी आवेदन फार्म तक नहीं ले रहे और बेरोजगार ठेकेदारों को एक टेबल से दूसरे टेबल पर घुमाया जा रहा है।कल बुधवार को कुछ 10 कार्यों के आफ लाइन टेंडर फार्म खरीदने का अंतिम दिन था और कुछ स्थानीय ठेकेदार जो अखबार में टेंडर विज्ञापन पढ़कर आये थे, वो सभी दिनभर नेर चौक नगर परिषद कार्यालय में चक्कर लगाते रहे पर मज़ाल हो कि दफ्तर के किसी बाबू ने इनका आवेदन स्वीकार्य किया हो। आइये जानते है कि टेंडरों के गड़बड़ घोटाले का पूरा मामला आखिर है क्या ? गत 31 मार्च के टेंडर विज्ञापन के अनुसार कुल 28 टेंडर जिन सबकी अनुमानित लागत करीब एक करोड़ रुपये है , उनके ऑनलाइन टेंडरों के लिए 25 अप्रेल तक का समय दिया जाता है, परंतु सूत्रों के अनुसार ऑनलाइन टेंडर में भाई भतीजावाद को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता था और पारदर्शी तरीके से कार्य करना ही पड़ता है , तो टेंडर आवेदन करने से एक दिन पहले ही गत 23 अप्रैल को यह सभी टेंडरों को रद्द करने के आदेश जारी कर दिए जाते हैं।उपरोक्त प्रक्रिया के कुछ दिन बाद कार्यालय और स्वयम्भू नेताओ की मिलीभगत से उपरोक्त 28 टेंडरों से 18 टेंडर ही ऑनलाइन आवेदन के लिए रखे जाते है और बाकी 10 गोल मोल करने के प्रयास शुरू कर दिए जाते है जिनकी अनुमानित लागत करीब 35 लाख रु है ताकि अपने कुछ खास लोगो को लाभ दिया जा सके। जिनके ऑफलाइन टेंडरों को 19 मई तक आवेदन के लिए रखा जाता है। जब कुछ ठेकेदार जिसमे गुलशन ठाकुर, सुनील, भीम।सिंह, वालिया, अभिषेक, आदि ने कल उपरोक्त कार्यो के टेंडर फार्म खरीदने के लिए आवेदन करने के लिए नप कार्यालय जाते है, तो उन्ही स्वंयभू नेताओ के इशारे पर कार्यालय में कोई भी अधिकारी या क्लर्क यह आवेदन लेने के लिए तैयार तक नहीं होता और तकनीकी अधिकारियों का बहाना बनाकर अपनी नौकरी को बचाने की कोशिश करता है।स्थानीय ठेकेदारों ने आरोप लगाए है कि नेर चौक नगर परिषद के कुछ पार्षद अपने परिजनों को काम दिलवाना चाहते है जहाँ से उनको मोटी कमीशन मिलती रहे और सूत्रों की माने तो कुछ काम तो ऐसे है जिनको स्वयम्भू नेतागण पहले से ही पूर्ण करवा चुके है और अब उनके टेंडर की कागज़ी प्रक्रिया काम पूरा होने के बाद में लगाई जा रही है, जो कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा। आम आदमी पार्टी ने नेता एवं पूर्व पार्षद रजनीश सोनी ने भाजपा के नेतृत्व में नेर चौक नप कार्यालय में चल रहे गड़बड़ घोटाले की निष्पक्ष जांच के लिए विजिलेंस में शिकायत दर्ज करवाई है और विजिलेंस अधिकारियों से निवेदन किया है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि कौन कौन से ऐसे काम है जो पहले से बिना टेंडर प्रक्रिया के पूर्ण किये जा रहे थे तथा ऐसे जुड़े भृष्ट ठेकेदारों को तुरतं प्रभाव से ब्लैकलिस्ट किया जाए और जो जनप्रतिनिधियों ने यह भ्रस्टाचार फैलाया है उनको उनके पदों से बर्खास्त किया जाए।
राज सोनी। फर्स्ट वर्डिक्ट करसोग की जनता के लिए पार्टी का चिन्ह बाद में, अपनी पसंद पहले आती है। बीते 12 विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डाले तो यहाँ तीन बार निर्दलीय उम्मीदवार जीते है। भाजपा के गठन से पहले यहाँ 1977 में जनता पार्टी जीती, तो 1998 में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस को भी करसोग का प्यार मिला। वर्तमान में यहाँ भाजपा का कब्ज़ा है और कांग्रेस भी मैदान में डटी दिख रही है। यक़ीनन यहाँ आगामी चुनाव बेहद रोचक होने वाला है। पहले बात कांग्रेस की करें तो पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती अंतर्कलह को साधना है। क्षेत्र में मनसा राम के बेटे महेश राज अभी से टिकट की कतार में है तो दूसरी ओर पूर्व में दो बार विधायक रहे मस्त राम तथा काफी समय से कांग्रेस पार्टी में कार्य कर रहे जगत राम, अधिवक्ता रमेश कुमार, निर्मला चौहान, हिरदाराम तथा उत्तम चंद चौहान भी ग्राउंड में डटे हुए है। अतीत में झांके तो 1993 व 2003 में कांग्रेस ने मस्त राम को मैदान में उतारा था, और दोनों बार मस्त राम ने करसोग सीट कांग्रेस की झोली में डाली। 2017 के चुनाव में मस्त राम पार्टी से टिकट की मांग कर रहे थे लेकिन तब कांग्रेस ने मनसा राम को मैदान में उतारा। टिकट बंटवारे को लेकर मस्त राम ने कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ा और निर्दलीय मैदान में उतरे। इसका लाभ भाजपा को हुआ और ये सीट भाजपा की झोली में गई। उधर, भाजपा की बात करें तो वर्तमान में हीरा लाल विधायक है। वर्ष 2007 में उन्होंने ही मनसा राम के विजयरथ पर लगाम लगाई थी, लेकिन जनता ने अगले चुनाव में फिर से मनसा राम को कमान सौंप दी। 2017 में भाजपा ने हीरा लाल को दोबारा से मौका दिया था और तब कांग्रेस की बगावत के चलते वे जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। मनसा राम का रहा है दबदबा करसोग की सियासत में मनसा राम का दबदबा रहा है। मनसा राम कुल 9 बार चुनावी संग्राम में उतरे और पांच बार करसोग से विधायक बने जिसमें 4 बार कैबिनेट मंत्री तथा एक बार सीपीएस रहे। पिछले कई चुनावों के नतीजों पर नज़र डाले तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि करसोग की जनता ने पार्टी चिन्ह के बिना भी मनसा राम पर अपना प्यार बरसाया है। 1967 में मनसा राम ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीता भी। दूसरी बार 1972 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और जीते लेकिन 1977 में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। मनसा राम ने 1982 में फिर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। इसके बाद 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस और 2012 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर मनसा राम इस क्षेत्र से विधायक बने। अब उनके पुत्र भी कांग्रेस से टिकट मांग रहे है। अब आने वाले विधानसभा चुनावों में देखना यह होगा की जनता किसको चुनेगी और किसके भाग्य का सितारा चमकेगा।
अरविंद शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट शाहपुर विधान सभा क्षेत्र, नाम इतना शाही है कि जुबाँ पर आते ही इसके शाही होने का आभास होता है! सियासत में शाहपुर के हिस्से जो शाही नाम आते हैं वह भी काफ़ी शाही रसूख़ रखते हैं, कांग्रेस से पहले एक नाम ‘चलता’ था मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ़ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता है, मेजर का पॉलिटिकल करेक्टर ऐसा रहा है कि जनता दल के बाद जब उनका नाम बहुजन समाज पार्टी की कसौटी पर कसा था तो जनता को इसमें खोट ही नज़र आया बस कांग्रेस के टिकट की कसौटी पर मेजर खरा सोना साबित हुए थे, कांग्रेस छोड़ने के बाद जब भी मेजर ने कोई पारी खेली तो वह सरवीन की तेज़ गेंदों पर अपनी विकेट को उखड़ते देखने पर मजबूर हो गए, यहाँ इन दोनो के बाद तीसरा नाम आता है कांग्रेस के केवल पठानिया का, मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल कांग्रेस के ‘हाथ’ पर भाग्य आज़माते हुए बीते नौ वर्षों से अपनी ही क़िस्मत से लड़ रहे हैं, सियासी तौर पर अगर शाहपुर की कुर्सी के ग्रह-गोचर देखे जाएँ तो यूँ कहना ग़लत ना होगा कि मेजर मनकोटिया -केवल पठानिया दोनो एक दूसरे की सियासी कुंडलियों में साढ़सत्ती लिए बैठे हैं जो कि हर बार पिछले कई वर्षों से सरवीन के लिए शाहपुर के सिहाँसन का योग बनाते आए है। हर बार एक दूसरे के लिए धूमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं, इस फेर में केवल एक बार अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे तो फिर दोबारा हार के हार पहनने को मजबूर हो गए, अगर सियासतन शाहपुर की फ़िज़ाओं की स्वरलहरियों की बात की जाए तो सरवीन के सुरमई सियासी संगीत की बीण पर कांग्रेस के हालात साँप की तरह नाचते नज़र आए हैं और जिनकी फुँकार ने कांग्रेस को ही फूँका है ! मेजर शांत नहीं हुए और केवल से भिड़ते रहे नतीजा यह हुआ ना मेजर ख़ुद जीत पाए ना केवल को जीतने दिया, एक बार मेजर जब बसपा की टिकेट पर धर्मशाला भी शिफ़्ट हुए तो अपनी जगह अपने अनन्य भक्त ओंकार राणा को केवल के सामने छोड़ गए, मेजर ख़ुद तो धर्मशाला से हार गए मगर शाहपुर में ओंकार राणा दूसरे नम्बर पर रहे! शाहपुर में कांग्रेस मत-भिक्षुओं के रोल में जितनी ख़ाली कटोरा लेकर घूमती है, भाजपा अकेले अपने कटोरे को शाहपुर में भारी रूप से भरने में कामयाब रहती है, अगर सामान्य लहजे में कहें तो शाहपुर में कांग्रेस की साँझी हार में भाजपा अपनी अकेली जीत सुनिशिच्त करती आ रही है जबकि यह भी हक़ीक़त है की इतने बड़े-बड़े नामों के बावजूद शाहपुर का वजूद बहुत छोटा बन के रह जाता है, विकास के नाम पर शाहपुर को वही मिलता आ रहा है जो साथ लगते विधान सभा क्षेत्रों से बचा-खुचा रह जाता है, शाहपुर के रहनुमाओं के बिना किसी संघर्ष के चलते किराए की कोख में पल रहे कुपोषित केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्थाई कैंपस जिसे ना जाने कब कौन छीन ले जाए के अलावा शाहपुर की झोली में कोई सौग़ात नहीं नज़र आती , सड़कों के नाम पर जर्जर रास्तों से रोज़ गुज़रने वाले बोह -दरिणी -कनोल -सल्ली -नोहली -करेरी-घेरा -चमियारा के बाशिंदे अभी तक सही सड़कों जैसी मूलभूत सुविधाओं से जूझ रहे हैं ! ज़्यादा चर्चा में ना जाया जाए तो वर्षों से तीन की तिकड़ी के तिकड़मों में पिसती और मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित शाहपुर की जनता इस बार आने वाले चुनावों में क्या हेर-फेर करती है ! ख़ैर ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा ! लेकिन इस बार मेजर और केवल का हाथ बँटाते हुए आम आदमी पार्टी भी कहीं सरवीन के सियासी हालात फिर से बेहतरीन ना कर दे !
सुनैना कश्यप. फर्स्ट वर्डिक्ट रतन पाल, तेजवंत नेगी, बलदेव शर्मा, बलदेव ठाकुर जैसे नेताओं की डगर होगी मुश्किल पार्टी विद डिफरेंस भाजपा मिशन रिपीट के लिए कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। संगठन, संसाधन और संतुलन के साथ -साथ पार्टी ये भी सुनिश्चित करना चाहती है कि उपचुनाव की तर्ज पर विधानसभा चुनाव में कोई रणनीतिक चूक न हो। ऐसे में माना जा रहा है कि आगामी चुनाव में पार्टी कई निर्वाचन क्षेत्रों में चेहरे बदलने वाली है। इसके लिए बाकायदा ग्राउंड फीडबैक लिया जाएगा, जिसका आधार न सिर्फ इंटरनल सर्वे होगा बल्कि बाहरी एजेंसियों से भी सर्वे करवाया जा सकता है। वहीँ लगातार दो या अधिक चुनाव हारने वाले नेताओं के टिकट भी आगामी विधानसभा चुनाव में कटना तय माना जा रहा है। प्रदेश में ऐसे 6 निर्वाचन क्षेत्र है जहाँ पार्टी टिकट पर एक ही उम्मीदवार लगातार दो चुनाव हार चूका है। इनमें अर्की से रतन सिंह पाल, बड़सर से बलदेव शर्मा, हरोली से प्रो राम कुमार, रामपुर से प्रेम सिंह धरैक और किन्नौर से तेजवंत नेगी लगातार दो चुनाव हार चुके है। वहीँ ठियोग से पार्टी सिंबल पर दो चुनाव हारने वाले राकेश वर्मा का स्वर्गवास हो चूका है। अर्की से रत्न सिंह पाल 2017 का विधानसभा चुनाव और 2021 में हुआ उपचुनाव हार चुके है तो अन्य सभी नेता 2012 व 2017 का विधानसभा चुनाव हार चुके है। फतेहपुर निर्वाचन क्षेत्र से बलदेव ठाकुर भी लगातार तीन चुनाव हार चुके है, किन्तु 2017 में वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव हारे थे जबकि 2012 और 2021 का उपचुनाव पार्टी सिंबल पर हारे है। जाहिर है इन सभी उम्मीदवारों का दावा टिकट के लिए कमजोर जरूर हुआ है। हालांकि स्थिति -परिस्थिति के लिहाज से इनमें से एकाध अपवाद जरूर हो सकते है। क्षेत्रवार बात करें तो रामपुर और हरोली में भाजपा की बनिस्पत कांग्रेस बेहद मजबूत है, इस बार से इंकार नहीं किया जा सकता। इन दोनों सीटों पर टिकट बदले या न बदले, नतीजा बदलना बेहद मुश्किल है। वहीँ ठियोग में भी कांग्रेस - सीपीआईएम का मैच अगर फिक्स सा होता है तो भाजपा के लिए उम्मीद कम ही होगी। सही मायनों में अगर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ तो ही भाजपा इस सीट पर बेहतर कर पायेगी। पर अन्य चार सीटें ऐसी है जहाँ भाजपा दमखम से लड़े और कोई रणनीतिक चुन न हो तो जीत की सम्भावना भी प्रबल होगी। बड़सर में भी दो चुनाव हारने के बाद बलदेव शर्मा की राह मुश्किल हो सकती है। हालांकि यहां बलदेव में समकक्ष कोई अन्य चेहरा अब भी नहीं दिखता। बलदेव के पक्ष में एक बात और जा सकती है, 2012 में जहाँ वे करीब ढाई हज़ार के अंतर से हारे थे तो 2017 में ये अंतर करीब 400 वोट का था। पर एक खेमा चाहता है कि इस बार यहाँ से पार्टी नए चेहरे को मौका दें। अर्की की बात करें तो रतन सिंह पाल के अतिरिक्त पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा भी दावेदारों की फेहरिस्त में है। यहाँ पार्टी किसी नए उम्मीदवार को भी मैदान में उतार सकती है। बीते दिनों ही पार्टी ने प्रतिभा कंवर को प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा का प्रवक्ता नियुक्त किया है। प्रतिभा भी सक्रीय है और टिकट की दावेदार है। वहीँ एक अन्य पत्रकार का नाम भी टिकट की रेस में है, जिनकी क्षेत्र में अच्छी पकड़ है। वहीँ फतेहपुर में जानकार मान कर चल रहे है की इस बार फिर पार्टी कृपाल परमार को मौका दे सकती है। लगातार तीन चुनाव हार चुके बलदेव को एक और मौका मिलना मुश्किल है। वहीँ जनजातीय जिला किन्नौर में ठाकुर सेन नेगी के बाद तेजवंत नेगी ही भाजपा का चेहरा रहे है। पर पिछले दो चुनाव हार चुके तेजवंत की राह इस बार मुश्किल होगी। बीते कुछ वक्त में पार्टी में सूरत नेगी के बढ़ते कद ने तेजवंत का तेज जरूर कुछ कम किया है। टिकट के लिए भी सूरत का दावा मजबूत है। यहाँ भाजपा के लिए उम्मीदवार का चयन बड़ी चुनौती है।
फर्स्ट वर्डिक्ट. मंडी हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अब नहीं रहे। हिमाचल प्रदेश उनके जाने से गमगीन है। पंडित सुखराम का इस दुनिया से रुक्सत होना हिमाचल के सियासत के एक अध्याय का खत्म होना है। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहलाए जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल हुए और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता।पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरूआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से 13 बार चुनाव लड़ा और हर बार जीत हासिल की। केंद्र की सियासत में भी था रसूख : केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है। वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी : 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने कांग्रेस से अलग होकर हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। पंडित सुखराम के पांच विधायक जीतकर आये थे। भाजपा और कांग्रेस को 31-31 सीटें मिली, लेकिन सुखराम की हिविकां ने प्रो धूमल को समर्थन देकर वीरभद्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सरकार बनाने से रोक दिया। तब कांटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इनमें से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी और तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस से सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था, लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। 2017 में दिया कांग्रेस को झटका : पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और फिर 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। माना जाता है कि उनके इस सियासी पैंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। 2019 में हुई कांग्रेस में वापसी : पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। कई मौकों पर खुद पंडितजी ने इसका जिक्र भी किया। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। बहरहाल पंडित जी दुनिया से रुक्सत कर चुके है। पंडित सुखराम ने एक लम्बी उम्र काटी, सत्ता सुख भोगा, विवादों में भी रहे, पर 95 साल की उम्र तक भी उनका सियासी रसूख ऐसा था कि उन्हें हल्के में लेने की भूल कोई नहीं कर सकता था। इसलिए पंडित सुखराम हिमाचल की सियासत के चाणक्य कहलाएं। मंडी तो पंडित सुखराम की ही थी ! 'मंडी हमारी है और हमारी ही रहेगी ' सियासत में अक्सर नेता इस तरह के बयान देते है। मंडी को लेकर तरह -तरह के दावे होते है। पर अगर कोई ऐसा है जिसे सही मायने में मंडी ने बाहें फैलाकर स्वीकार किया तो वो थे पंडित सुखराम। कुल 13 मर्तबा मंडी सदर हलके से पंडित जी या उनके पुत्र अनिल शर्मा विधायक बने, पार्टी चाहे कोई भी रही हो। पंडित जी सियासत में किसी भी मुकाम पर रहे हो, किसी भी ओहदे पर रहे हो लेकिन उन्होंने मंडी का विशेष ख्याल रखा। आज भी मंडी के सेरी मंच पर जाकर पता लगता है कि किसी सोच के साथ उस शहर को विकसित किया गया है, वो भी उस दौर में। इसीलिए मंडी के लोग पंडित जी को विकास का मसीहा मानते है। कोई किसी भी राजनैतिक विचारधारा का क्यों न हो, दबी जुबान में ही सही लेकिन ये जरूर स्वीकार करता है कि मंडी के विकास में पंडित सुखराम का योगदान अमिट है। नब्बे के दशक में पंडित सुखराम केंद्र में दूरसंचार मंत्री थे और उस दौर में बड़े शहरों में भी टेलीफोन का कनेक्शन लेने के लिए महीनों -सालों इंतजार करना पड़ता था। पर पंडित जी के राज में मंडी में टेलीफोन की घंटी खूब बजी। जिसने चाहा उसे कनेक्शन मिला, मंडी वालों के लिए विभाग का सिर्फ एक ही नियम था,वो था जल्द से जल्द कनेक्शन देना। केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी पंडित सुखराम लोगों की पहुंच में थे, बिल्कुल सरल और जमीन से जुड़े हुए। छोटी -छोटी समस्याएं लेकर भी लोग पंडित जी के पास पहुंच जाते और हर छोटी समस्या को भी पंडित सुखराम पूरी तल्लीनता से सुनते और हरसंभव हल करते। सिंबल कोई भी रहा पर मंडी वालों ने दिया साथ : इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। और मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए पंडित सुखराम सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर रामलाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह दूसरी बार पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। वीरभद्र के मिशन रिपीट पर फेरा पानी 1998 के विधानसभा चुनाव से पहले पंडित सुखराम ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी, नाम था हिमाचल विकास कांग्रेस। विधानसभा चुनाव में पंडित जी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरे लेकिन उनके खाते में पांच सीटें ही आई। ऐसे में पंडित जी का मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पूरा नहीं हुआ लेकिन जिस कदर उन्होंने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई जिससे वीरभद्र सिंह भी मुख्यमंत्री नहीं बन सके। पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई और ये पहला मौका था जब कोई गठबंधन सरकार पांच साल चली भी। इसके बाद ही उन्हें हिमाचल की सियासत का चाणक्य कहा जाने लगा। वो स्कैंडल जिसने बदल कर रख दी पंडित सुखराम की सियासत तारिख थी 8 अगस्त 1996 । पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। 16 अगस्त को सीबीआई की एक टीम उनके दिल्ली के सफदरजंग स्थित आवास पर पहुंची और छापेमारी की। 80 के दशक में बोफोर्स घोटाले की वजह सत्ता खोने वाली कांग्रेस 90 के दशक में संचार घोटाले की वजह से फिर विवादों से घिर गई। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री और कांग्रेस पार्टी का साथ दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इस 5 करोड़ 91 लाख के घोटाले की वजह से विपक्षी भाजपा ने तब 1996 में 10 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। उस वक्त पंडित सुखराम के घर से 2.45 करोड़ रुपये बरामद हुए थे। इसके अलावा सीबीआई की एक टीम ने सुखराम के हिमाचल के मंडी स्थित बंगले पर भी छापेमारी की थी। टीम को वहां से 1.16 करोड़ रुपये मिले थे। पैसे दो संदूकों और 22 सूटकेस में रखे थे, जिनमें से अधिकांश सूटकेस पूजा वाले घर में रखे हुए थे।सीबीआई की जांच में पता चला था कि केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने पद का इस्तेमाल करते हुए हैदराबाद की एक निजी फर्म को ठेका दिया और बदले में तीन लाख रुपये की रिश्वत ली। सुनवाई के दौरान सुखराम ने अदालत में दलील दी कि उनके आवास से बरामद रुपए कांग्रेस पार्टी के हैं। उन्होंने दावा किया कि ये पैसा जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी फंड के रूप में इस्तेमाल करने के लिए भेजा गया। हालांकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने सीबीआइ की पूछताछ में बरामद राशि के पार्टी फंड होने से इनकार कर दिया था ।
रविवार को हमीरपुर के टाउन हॉल में जिला भाजपा द्वारा रखे गए स्वागत कार्यक्रम में राज्यसभा के नवनियुक्त सांसद डॉक्टर सिकंदर कुमार का भव्य स्वागत किया गया। भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा की जिला इकाई द्वारा इस कार्यक्रम को सफल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई गई। कार्यक्रम में पहुंचने पर विशेष रूप से भाजपा जिला अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक बलदेव शर्मा विधायक नरेंद्र ठाकुर एवं कमलेश कुमारी सहित एचआरटीसी के वाइस चेयरमैन विजय अग्निहोत्री कामगार कल्याण बोर्ड के चेयरमैन राकेश बबली बाल विकास आयोग की चेयरमैन वंदना योगी कांगड़ा ग्रामीण सोसाइटी बैंक के चेयरमैन कमलनयन कौशल विकास निगम के चेयरमैन नवीन शर्मा ने डॉक्टर सिकंदर का पुष्प गुच्छ देकर स्वागत अभिनंदन किया। इस मौके पर मौजूद सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ताओं ने हार पहनाकर डॉक्टर सिकंदर का स्वागत किया। स्वागत कार्यक्रम के दौरान विभिन्न सामाजिक संगठनों पार्टी पदाधिकारियों कार्यकर्ताओं व मोर्चों के अध्यक्षों सहित पंचायत व अन्य प्रतिनिधियों ने डॉक्टर सिकंदर का स्वागत अभिनंदन किया। सम्मानित करने वालों में जिला अनुसूचित जाति मोर्चा की टीम पांचों मंडलों के अनुसूचित जाति मोर्चा के मंडल अध्यक्ष व उनकी टीम अनुसूचित जाति मोर्चा के जिला अध्यक्ष मदनलाल मंडल हमीरपुर के अध्यक्ष जोगिन्दर कौंडल नादौन मंडल के अध्यक्ष प्रकाश भोरंज मंडल के अध्यक्ष विजय कुमार बड़सर मंडल के अध्यक्ष राम रतन ग्राम पंचायत भदोही की प्रधान एवं भाजपा जिला उपाध्यक्ष उषा बिरला रीना देवी ब्लॉक समिति अध्यक्ष औद्योगिक प्रकोष्ठ के जिला अध्यक्ष कमलेश परमार प्यारे लाल शर्मा रसील सिंह मनकोटिया इत्यादि सहित हमीरपुर शहर के कई वरिष्ठ एवं प्रबुद्ध जनों ने डॉक्टर सिकंदर को सम्मानित किया। इसके साथ साथ ही कामगार कल्याण बोर्ड के चेयरमैन राकेश बबली कौशल विकास निगम के चेयरमैन नवीन शर्मा ने भी डॉक्टर सिकंदर कुमार को समृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर हमीरपुर जिला के सह प्रभारी एवं भाजपा प्रदेश सह मीडिया प्रभारी सुमित शर्मा भाजपा प्रदेश सचिव तिलक राज प्रदेश कार्यसमिति सदस्य रघुवीर सिंह ठाकुर अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रदेश महामंत्री कबीर कुमार जिला महामंत्री हरीश शर्मा अभय वीर सिंह लवली बीना शर्मा राजकुमार वर्मा आदर्श कांत तेज प्रकाश चोपड़ा रमेश शर्मा देशराज शर्मा अंकुश दत्त शर्मा विकास शर्मा अजय रिंटू चमन ठाकुर अशोक ठाकुर अजय शर्मा संजीव शर्मा सुरेश सोनी गजन राम शर्मा जोगिंदर कुमार सुरेंद्र मिन्हास सुरेश ठाकुर अनिल कौशल कमलेश सिंह विक्रम ठाकुर प्रेम सिंह वर्मा कविता ठाकुर सीमा देवी मीना ठाकुर प्रमिला कुमारी सुनील कपिल सुमन कपिल अमन गुप्ता विनय कुमार संदीप भारद्वाज मनोज मन्हास नितिन पटियाल विशाल पठानिया जगदीश ठाकुर अनिल परमार कुलदीप ठाकुर हरदयाल सिंह पवन शर्मा अनिल शर्मा कैप्टन रंजीत सिंह बृजेश धटवालिया सुभाष बनयाल बिक्रम बिहार रमणीक परमार इत्यादि सहित अन्य लोग उपस्थित रहे ।
उदयपुर में चल रहे कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान पार्टी द्वारा समाजिक न्याय और आधिकारिता मामलो के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। इस कमेटी में देश भर के कई बड़े नेता शामिल किये गए है। हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस के दिग्गज नेता डॉ कर्नल धनि राम शांडिल को भी इस कमेटी में शामिल किया गया है। बता दें कि कर्नल धनीराम शांडिल वो वरिष्ठ नेता है जो नेतृत्व करने की काबिलियत रखते है। शांडिल दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे है, कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रहे है और वर्तमान में दूसरी दफा सोलन निर्वाचन क्षेत्र से विधायक है। वे गांधी परिवार की गुड बुक्स में है, पर उनकी असल ताकत उनका बेदाग़ राजनैतिक करियर है। एक बात और कर्नल शांडिल के पक्ष में जाती है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है और शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है। कर्नल शांडिल हिमाचल प्रदेश के पहले ऐसे नेता रहे है जिन्हें कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल किया गया था। बीते दिनों ही शांडिल को पार्टी आलाकमान ने चुनाव मेनिफेस्टो तैयार करने का अहम जिम्मा भी सौंपा है। अब उन्हें पार्टी द्वारा गठित समाजिक न्याय और आधिकारिता मामलों की कमिटी में भी स्थान मिला है।
मोदी सरकार केंद्र में आठ वर्ष पुरे करने जा रही हैं। इस उपलक्ष पर भाजपा का राष्ट्रीय कार्यक्रम का आयोजन हिमाचल की राजधानी शिमला में आयोजित होने जा रहा हैं । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता कार्यक्रम में शिरकत करने शिमला आएंगे। राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान में 31 मई को इसका आयोजन होगा। विधानसभा चुनावों की नजदीकी को देखते हुए भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के सहारे मिशन रिपीट की ओर एक कदम आगे बढ़ने जा रही हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम की मंजूरी मिलते ही प्रदेश सरकार तैयारियों में जुट गई है। इसी कड़ी में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लगातार प्रदेश में दौरे हो रहे हैं। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भी प्रदेश में सक्रिय हो गए हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल होने के लिए केंद्रीय मंत्रियों सहित भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और पार्टी के बड़े पदाधिकारी शिमला आएंगे। हिमाचल प्रदेश को पहली बार इस तरह के राष्ट्रीय कार्यक्रम की मेजबानी करने का मौका मिल रहा है। केंद्र सरकार से कार्यक्रम की मंजूरी मिलते ही शुक्रवार को राज्य सचिवालय में मुख्य सचिव रामसुभग सिंह की अध्यक्षता में बैठकों का दौर जारी रहा।
मंडी हमारी है, मंडी फलाने की है, सियासत में अक्सर नेता इस तरह के बयान देते है। मंडी को लेकर तरह -तरह के दावे होते है। पर अगर कोई ऐसा है जिसे सही मायने में मंडी ने बाहें फैलाकर स्वीकार किया तो वो थे पंडित सुखराम। कुल 13 मर्तबा मंडी सदर हलके से पंडित जी या उनके पुत्र अनिल शर्मा विधायक बने, पार्टी चाहे कोई भी रही हो। पंडित जी सियासत में किसी भी मुकाम पर रहे हो, किसी भी ओहदे पर रहे हो लेकिन उन्होंने मंडी का विशेष ख्याल रखा। आज भी मंडी के सेरी मंच पर जाकर पता लगता है कि किसी सोच के साथ उस शहर को विकसित किया गया है, वो भी उस दौर में। इसीलिए मंडी के लोग पंडित जी को विकास का मसीहा मानते है। कोई किसी भी राजनैतिक विचारधारा का क्यों न हो ,दबी जुबान में ही सही लेकिन ये जरूर स्वीकार करता है कि मंडी के विकास में पंडित सुखराम का योगदान अमिट है। नब्बे के दशक में पंडित सुखराम केंद्र में दूरसंचार मंत्री थे और उस दौर में बड़े शहरों में भी टेलीफोन का कनेक्शन लेने के लिए महीनों -सालों इन्तजार करना पड़ता था। पर पंडित जी के राज में मंडी में टेलीफोन की घंटी खूब बजी। जिसने चाहा उसे कनेक्शन मिला, मंडी वालों के लिए विभाग का सिर्फ एक ही नियम था, वो था जल्द से जल्द कनेक्शन देना। केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी पंडित सुखराम लोगों की पहुंच में थे, बिल्कुल सरल और जमीन से जुड़े हुए। छोटी -छोटी समस्याएं लेकर भी लोग पंडित जी के पास पहुंच जाते और हर छोटी समस्या को भी पंडित सुखराम पूरी तल्लीनता से सुनते और हरसंभव हल करते। सिंबल कोई भी रहा पर मंडी वालों ने दिया साथ : इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला।
The appearance of Khalistan flags at the gates of the Himachal Pradesh Assembly sparked controversy in the election-bound state, especially as it never saw such activity even at the height of militancy in nearby Punjab. After this slugfest ensued between the opposition and ruling party with Congress and AAP accusing the government of a lackadaisical approach to law and order. The political mud-slinging was raised even higher in Himachal when Chief Minister Jai Ram Thakur showed a picture on his mobile phone of Leader of the Opposition Mukesh Agnihotri with a man wearing a Khalistani T-shirt. The Opposition parties questioned the ruling BJP’s claims, particularly coming so soon after the Punjab Assembly elections where it had leveled similar pro-Khalistani charges at the Aam Aadmi Party. Having trounced the other parties, including the BJP, in Punjab, AAP is planning a serious political fray in Himachal with the coming election. The Congress called the planting of the pro-Khalistan flags and banners on the Assembly complex walls a security lapse. About the photo displayed by Thakur, Congress leader Agnihotri said: “This is Jai Ram Thakur’s government, asking people to change their clothes is not my job.”Agnihotri also said that the event where the photo was taken was attended by a senior BJP leader as well. “All this is a ploy to deflect attention from the real issue of paper leak in police recruitment,” he said. Last month, days after AAP won in Punjab, alleged Khalistani flags had sprung up in Una, Himachal. In June, the SFJ is set to hold a “referendum” for Khalistan in Himachal. AAP in charge of Himachal Durgesh Pathak called the incidents “strange”. “The Khalistanis have nothing to do with Himachal. If their activities are being witnessed in Himachal, there might be two things — either the Jai Ram Thakur govt is totally incompetent or defunct, or that the BJP is hand in glove with these Khalistani elements.” Aside from these political defaming games, this Khalistan issue is getting on to the nerves of Himachal as the day after a rocket-propelled grenade was fired at the Intelligence Wing headquarters of Punjab Police in Mohali, Khalistani outfit Sikhs for Justice (SFJ) warned Himachal Chief Minister Jairam Thakur, saying the attack could have also been on the Shimla Police headquarters."This grenade attack could have taken place at the Shimla Police headquarters," SFJ's self-styled general counsel Gurpatwant Singh Pannun warned in an audio message The cops have already registered a case under section 153-A, 153-B IPC, and section 3 of HP Open Places (Prevention of Disfigurement) Act, 1985 has been registered against unidentified persons for placing flags of Khalistan on the outer boundary of Vidhan Sabha. HP DGP Sanjay Kundu constituted a Special Investigation Team (SIT) that will be headed by Santosh Patial, for the investigation of this case.
India's head coach Rahul Dravid will be participating in the Bharatiya Janata Party (BJP) Yuva Morcha's National Working Committee session in Dharamshala scheduled to be held from May 12 to May 15. Chief Minister Jai Ram Thakur will also participate in the three-day session. As many as 139 delegates from across the country will register their presence in the session. "The National Working Committee of BJP Yuva Morcha will be held in Dharamshala from May 12 to 15. The national leadership of BJP and the leadership of Himachal Pradesh will be involved. BJP National President JP Nadda, National Organization Minister, and Union Minister will also attend the session. This comes ahead of the Himachal Pradesh Assembly elections, which are slated to be held this year. In the 2017 Assembly Election result, BJP won 44 seats--well past the halfway mark of 35-while the incumbent Congress got 21 and others got three seats of a total of 68 Assembly seats.
हिमाचल में सियासी पारा हाई है और हर राजनैतिक दल में टिकट के चाहवान प्रो एक्टिव। चाहवानों की इस कतार में कई युवा नेता भी शमिल है और इनमें से एक हैं प्रदेश युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष यदुपति ठाकुर। विधानसभा चुनाव, युवा कांग्रेस की भागीदारी और सरकाघाट के मुद्दों को लेकर फर्स्ट वर्डिक्ट के लिए भावना शांडिल ने यदुपति ठाकुर से ख़ास चर्चा की। हर सवाल पर उन्होंने बेबाकी से अपनी राय रखी। ठाकुर ने कहा कि 2017 में उनका टिकट इसलिए कटा था क्यों कि तब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू थे और वे राजा गुट से हैं। साथ ही उन्होंने जयराम सरकार पर सरकाघाट से सौतेला व्यवहार करने का आरोप भी लगाया। पेश हैं इस बातचीत के मुख्य अंश ... सवाल- इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होने है, आप भी अपने गृह क्षेत्र सरकाघाट में काफी सक्रियता से काम करते दिख रहे है, क्या आप भी टिकट के चाहवान है ? जवाब - राजनीति समाज सेवा का अभिन्न अंग है। मैंने 17 साल पूर्व राजनीति का सफर छात्र राजनीति से शुरू किया था। मैं एनएसयूआई के नेशनल बॉडी का अध्यक्ष भी रहा हूँ। आप अंदाजा लगा सकते है कि इस दौरान मैंने कितने उतार चढ़ाव देखे होंगे। मैंने हमेशा पार्टी संगठन को मजबूती देने की यथासंभव कोशिश की हैं और हर वक्त हम चट्टान की तरह पार्टी के साथ खड़े रहे। साथ ही आम जन से संवाद बनाये रखा, जरूरतमंद लोगों की सहायता की। इस कार्य को देखते हुए राहुल गान्धी जी ने हौंसला अफजाई की और सम्मान भी दिया। जहां तक आपका प्रश्न विधानसभा के चुनाव को लेकर है, मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि मैं चुनाव भी लड़ने का इच्छुक हूँ और पूर्ण रूप से तैयार भी। बीते बारह वर्षों से मैं अपने क्षेत्र के लोगों के हर सुख दुख में शामिल रहा हूँ और मुझे लगता है कि मैं टिकट के लिए योग्य हूँ। शेष, पार्टी आलाकमान तय करेगा, लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस बार निराशा हाथ नहीं लगेगी। सवाल- बीते दो चुनाव में सरकाघाट सीट पर भाजपा ही काबिज हुई है, हार का कारण क्या मानते है आप ? जवाब - मैं बताना चाहूंगा कि 2017 के चुनाव में टिकट आवंटन सूची में मेरा भी नाम शामिल था लेकिन किसी कारणवश मेरा टिकट काट दिया गया। उस दौरान पीसीसी के अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू जी थे और हम स्वर्गीय राजा वीरभद्र गुट से आते थे, तो ऐसे में मेरा टिकट काट दिया गया। कांग्रेस से जिन्हें टिकट मिला हमने उनका भी भरपूर साथ दिया और चुनाव प्रचार में साथ रहे। दुर्भाग्यवश करीब दस हजार वोट से कांग्रेस पराजित हुई और इसके पीछे मुख्य कारण था प्रत्याशी की असक्रियता। मेरा मानना है कि अगर उस दौरान चेहरा दमदार होता तो निसंदेह सरकाघाट से कांग्रेस जीतती। सवाल- बतौर युवा कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष आपसे जानना चाहेंगे कि विधानसभा चुनाव में युवा कांग्रेस की क्या रणनीति रहेगी, जिससे कांग्रेस की सत्ता वापसी हो सके? जवाब- युवा कांग्रेस हर गांव, हर बूथ पर पहुँच रही है और सदस्यता अभियान भी तेजी से चल रहा है। बहुत जल्द हम बेरोजगार युवाओं के समर्थन में सड़क पर उतरेंगे। प्रदेश का दौरा करेंगे। आप देखिये भाजपा की नीतियां जन विरोधी है, हर वर्ग आज परेशान है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नशा माफिया और कर्मचारी-बागवानों की हर समस्या को साधने में भाजपा पूर्ण रूप से फैल हो चुकी है। ना केवल कांग्रेस से जुड़े युवा बल्कि देश का हर युवा इन जन विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है। हम भी इन मुद्दों को लेकर आमजन के बीच जा रह हैं। आज प्रदेश सरकार कर्ज के तले दब चुकी है और इनका डबल इंजन खराब है। कोरोना काल से लेकर अब तक भाजपा सरकार ने हम सभी को ठगने का काम किया है, कर्ज लो और खुद ऐश करो की मंशा से यह काम कर रहे है। यही कारण है कि उपचुनाव में प्रदेश की प्रबुद्ध जनता ने इनकी अकड़ को सीधा किया और चारो सीट पर कांग्रेस को विजयी बनाया। स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में जितने भी प्रदेश के विकास कार्य हुए उनका श्रेय भाजपा के विधायक ले रहे है। सरकाघाट विधानसभा क्षेत्र में भी जनता इनको आइना दिखाएगी और शत प्रतिशत प्रदेश में कांग्रेस की दमदार सरकार बनेगी। सवाल- आपके क्षेत्र में कांग्रेस उतनी सक्रिय नहीं दिखती या यूँ कहें एकजुट नहीं दिखती। इसका कारण मतभेद है या मनभेद ? जवाब - देखिये आप सही कह रहे है सरकाघाट कांग्रेस उतनी एक्टिव नहीं है, लेकिन युवा कांग्रेस के बैनर तले हमने हर मुद्दे पर आवाज उठाई है, यथासंभव लोगों के बीच रहे है और जो कार्य एक पार्टी के कार्यकर्ता का होता है उसे बखूबी निभाया भी है। अब श्रीमती प्रतिभा सिंह को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कमान दी है और कांग्रेस पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। आने वाले समय में काफी बदलाव होंगे, और निश्चित तौर पर छंटनी भी होने की संभावना है। व्यक्तिगत तौर से मेरा प्रयास रहेगा की हम बूथ लेवल पर जाकर कांग्रेस को मजबूती प्रदान करें इसके लिए युवा कांग्रेस तैयार है। सवाल- आप लगातार कहते रहे है कि सरकाघाट में विकास की गति थम गयी है, क्या तथ्य है आपके पास ? जवाब - सरकाघाट की जनता भाजपा सरकार को माफ़ नहीं करेगी। मौजूदा विधायक प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल के गुट से आते थे और मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर। अब ऐसे में इनकी गुटबाजी के चलते बीते चार साल में केवल एक बार ही मुख्यमंत्री हमारे क्षेत्र में आये है। मुख्यमंत्री ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की हैं, सरकाघाट के साथ सौतेला व्यवहार हुआ हैं। जो गलती से कुछ एक घोषणाएं उन्होंने की हैं वे सभी स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की देन है, जिनका क्रेडिट यह लोग लेने की कोशिश करते है। भाजपा और भाजपाई केवल पट्टिकाओं की राजनीति करने में माहिर है, इनकी वजह से न विकास हो रहा है न प्रदेशवासियों का भला। आप ग्रामीण क्षेत्र में जा करा देखिए तो, ग्रामीण प्रवेश में रह रहे लोगों को तीन -तीन दिन बाद पेयजल की आपूर्ति हो रही है, जो भी मटमैला और दूषित है। सड़कों की टारिंग की जाती है लेकिन हफ्ते के अंदर ही सड़क के टारिंग उखड़ जाती है, यह खानापूर्ति केवल इनके चेहते ठेकदारों को लाभ देने के लिए की जा रही है। जनता के पैसे का दुरूपयोग किया जा रहा है और जब कोई वर्ग अपनी मांगों को लेकर सरकार के पास जाता है तो उनके कहा जाता है की सरकार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। सरकाघाट की जनता शिक्षित भी है और इनके झूठे वादों से वाकिफ भी, अब भाजपा के जाने का समय आ चुका है।
मुकम्मल मुलाकातें हो रही है, बकायदा योजना तैयार की जा रही है। नए गठबंधन बन रहे है और हालात बदलने की तैयारी जोरो पर है। विधानसभा चुनाव से पहले सोलन निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के कुछ चेहरे एकसाथ आते दिख रहे है। मकसद साफ है कि टिकट के लिए जानदार तरीके से दावा ठोका जाएं। दरअसल, पिछले चुनाव में पार्टी ने चुनाव से ठीक पहले वीआरएस लेकर सियासत में आएं डॉ राजेश कश्यप को टिकट दिया था। तब टिकट के कई दावेदार थे लेकिन पार्टी के निर्णय ने सबको चौंका दिया। तब मुख्य तौर पर कुमारी शीला, तरसेम भारती और एच एन कश्यप टिकट की दौड़ में थे, पर सबके हाथ निराशा लगी। पार्टी के इस निर्णय से असंतोष भी उपजा और नतीजन डॉ राजेश कश्यप चुनाव नहीं जीत सके। पर तब से अब तक कश्यप निरंतर सक्रिय है और इस बार वे ही टिकट के प्रबल दावेदार है। अब ताजा खबर ये है कि कश्यप की राह रोकने को उनके विरोधियों ने हाथ मिला लिया है, मंशा साफ है कि उनमें से ही किसी एक को टिकट मिले। टिकट किसे मिलता है ये तो वक्त ही बताएगा, पर ऐसी स्थिति में भाजपा की राह निसंदेह मुश्किल जरूर होने वाली है। ताजा स्थिति की बात करें तो सर्वविदित है कि डॉ राजेश कश्यप ही पार्टी के प्राइम फेस है। कश्यप सक्रिय है पर अब तक सबको साथ लाने में कामयाब नहीं हो सके है। साढ़े चार साल का वक्त मिलने के बावजूद भी पार्टी का एक बड़ा तबका उनके साथ चलता नहीं दिख रहा। हालाँकि आलाकमान जरूर उन पर मेहरबान रहा है। उधर अन्य चेहरों की बात करें तो उनमें भी कोई ऐसा नहीं है जो अपनी कार्यशैली से पार्टी को टिकट देने के लिए विवश कर सके। तरसेम भारती पहले खराब स्वास्थ्य के चलते फील्ड से दूर थे और अब भी प्रो एक्टिव नहीं दिख रहे। कुमारी शीला की बात करें तो इस मर्तबा तो वे जिला परिषद् का चुनाव भी नहीं जीत पाई थी, ऐसे में पार्टी को जीत का भरोसा दिलाना उनके लिए भी मुश्किल होगा। हालांकि उनकी जमीनी पकड़ को कमतर नहीं आँका जा सकता। एच एन कश्यप भी सियासी सरगर्मियों से लगभग गायब ही है। कई अन्य चाहवान तो ऐसे भी है जो इच्छा तो विधायक बनने की रखते है लेकिन उनकी कार्यशैली पार्षद का चुनाव जीतने लायक भी नहीं दिख रही। पर यहाँ ये जहन में भी रखना होगा कि पूर्व सांसद और डॉ राजेश के बड़े भाई वीरेंद्र कश्यप भी टिकट मिलने पर चुनाव लड़ने को तैयार है। कांग्रेस में सिर्फ एक दावेदार : सोलन कांग्रेस की बात करें तो कर्नल धनीराम शांडिल ही फिलवक्त इकलौते उम्मीदवार है और संभवतः वे ही पार्टी प्रत्याशी होंगे। वैसे भी माना जाता है कि कर्नल का टिकट 10 जनपथ से फाइनल होता है। पार्टी का एक तबका उनके साथ बेशक न दिख रहा हो लेकिन बावजूद इसके कांग्रेस की स्थिति अभी तो भाजपा से बेहतर है। कर्नल का सरल स्वभाव और ईमानदार छवि भी कांग्रेस के लिए लाभदायक सीड हो सकते है।
नए अध्यक्ष के साथ -साथ हिमाचल प्रदेश कांग्रेस को चार कार्यकारी अध्यक्ष भी मिले है। इन चार कार्यकारी अध्यक्षों में से एक नाम है पवन काजल का, जो अब कांग्रेस का नूर है। काजल कांगड़ा सीट से विधायक है और जिला कांगड़ा में बतौर ओबीसी नेता उनका अच्छा रसूख है। खास बात ये है कि अब काजल कांगड़ा में कांग्रेस का प्राइम फेस बनते दिख रहे है। थोड़ा फ्लैशबैक में चले तो वीरभद्र सरकार के समय जिला कांगड़ा ने दो कांग्रेसी नेताओं की तूती बोलती थी, सुधीर शर्मा और स्व जीएस बाली। दोनों मंत्री थे, दोनों ब्राह्मण और दोनों भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखे जाते थे। पर बाली अब इस दुनिया में नहीं है और सुधीर के सियासी तारे गर्दिश में दिख रहे है। पार्टी का ही एक तबका खुलकर उनके खिलाफ मुखर है। इस बीच रफ्ता - रफ्ता पवन काजल विधायक का सियासी कद बढ़ता रहा और अब जब कांगड़ा से कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की बारी आई तो पार्टी आलाकमान ने उन्हें इस पद से नवाजा। स्वाभाविक है उनकी ये तरक्की कई नेताओं के अरमान कुचल सकती है। पवन काजल 2012 में पहली बार विधायक बने, तब वे आजाद उम्मीदवार थे। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सिंह ने उन्हें कांग्रेस में शामिल कर लिया। 2017 में काजल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और फिर जीत गए। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया। तब भी खुद वीरभद्र सिंह ने उनके लिए प्रचार किया था। कहते है कांग्रेस में शामिल होते वक्त काजल दरअसल कांग्रेस में नहीं जुड़े थे, बल्कि वीरभद्र सिंह के साथ आये थे। अब उनका झुकाव होलीलॉज की तरफ ही रहता है या वे संतुलन बनाकर ही आगे बढ़ते है, ये देखना भी रोचक होने वाला है। ओबीसी वोट पर निगाहें : जिला कांगड़ा में ओबीसी वोट बैंक का अच्छा प्रभाव है। अमूमन हर सीट पर ओबीसी वोट जीत -हार का अंतर पैदा कर सकता है। काजल को मजबूत करके कांग्रेस की नज़र इसी वोट बैंक पर है। ओबीसी वर्ग की बात करें तो कांग्रेस के पास चौधरी चंद्र कुमार के रूप में भी एक मजबूत चेहरा हैं और पवन काजल भी उन नेताओं में शुमार है जिनके समर्थक हर क्षेत्र में है। ऐसे में पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाना कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध हो सकता है। जब दिग्गज हारे तब भी जीते काजल : 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला कांगड़ा की 15 सीटों में से सिर्फ तीन सीटें कांग्रेस ने जीती थी। खास बात ये है तब वीरभद्र कैबिनेट में मंत्री रहे जीएस बाली और सुधीर शर्मा सहित बड़े -बड़े दिग्गज धराशाई हो गए थे। पर पवन काजल ने 6 हज़ार से अधिक वोटों से जीत दर्ज की थी। उनके अतिरिक्त सुजानपुर से स्व सुजान सिंह पठानिया और पालमपुर से आशीष बुटेल ही चुनाव जीत पाए थे।
वीरभद्र नाम संजीवनी, कांग्रेस सुमिरे दिन -रात ...भाजपा के साधन, संसाधन और संगठन का तोड़ कांग्रेस को वीरभद्र सिंह के नाम में दिख रहा है। कांग्रेस के लिए सत्ता वापसी के धुरी पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह ही रहेंगे, इस बात पर औपचरिक मुहर लग चुकी है। तमाम गुट और तमाम नेता एक सुर में बोल रहे है कि कांग्रेस वीरभद्र सिंह के विकास मॉडल पर ही चुनाव लड़ेगी। ऐसे कई नेता भी जिनकी सियासी बिसात का आधार ही वीरभद्र सिंह का विरोध रहा है। स्पष्ट है कि आलाकमान के साथ -साथ प्रदेश के नेताओं को भी वीरभद्र सिंह के नाम पर ही चुनावी समर में उतरने में अपनी भलाई दिख रही है। बीते दिनों शिमला के चौड़ा मैदान में हुई रैली में फिर सिद्ध हो गया कि हिमाचल कांग्रेस में अब भी वीरभद्र सिंह के बराबर सियासी वजन किसी का नहीं है, ‘राजा नहीं फकीर है, हिमाचल की तकदीर है’.. नारा अब भी असरदार है। वीरभद्र सिंह के नाम का असर उपचुनाव में स्पष्ट दिखा, अब कांग्रेस इसी नाम के सहारे सत्ता वापसी की आस में है। उधर, प्रतिभा सिंह के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का का निजी आवास हॉलीलॉज फिर एक बार प्रदेश कांग्रेस की सियासत का केंद्र बन गया है। अर्से तक वीरभद्र सिंह के निष्ठावान रहे कार्यकर्त्ता - समर्थक अब प्रतिभा सिंह का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ा रहे है। हालांकि दावेदारों की फेहरिस्त में शामिल अन्य नेताओं के समर्थक भी पीछे नहीं है। हकीकत : संख्या बल तय करेगा सीएम ! मुख्यमंत्री बनने के लिए सभी के रास्ते खुले हैं, लेकिन इसके लिए पहले विधायक बनना जरूरी है। बहुमत मिलने पर हाईकमान ही इसे तय करेगा। चुनाव वीरभद्र मॉडल पर लड़ा जायेगा। पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता ये ही बात दोहरा रहे हैं। पर आलाकमान के साथ -साथ संख्याबल भी सीएम तय करेगा। वीरभद्र स्टाइल पॉलिटिक्स तो ये ही कहती है। ऐसे में सभी चाहवान पहले ये सुनिश्चित करना चाहेंगे कि विधानसभा में उनके निष्ठावान अधिक पहुंचे। ऐसे में जाहिर है टिकट आवंटन की भी बड़ी भूमिका होगी।
आहिस्ता - आहिस्ता ही सही लेकिन उपचुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद से लग रही नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों पर अब लगभग विराम लग चूका है और ये भी तय है की पार्टी जयराम ठाकुर के चेहरे पर ही अगला विधानसभा चुनाव लड़ेगी। बताया जा रहा है कि बीते दिनों दिल्ली में हुई भाजपा हाईकमान की बैठक में इस बात पर मुहर लग चुकी है, हालांकि इस संदर्भ में अब तक पार्टी ने औपचारिक तौर पर कुछ नहीं कहा है। जाहिर है अब जयराम समर्थक बाग-बाग है और उम्मीद लगाए बैठे अन्य नेताओं के समर्थकों के अरमानों पर पानी फिर चूका है। खैर ये सियासत है, यहां उतार चढ़ाव होते रहते है, अब असल सवाल ये है की जयराम ठाकुर के नेतृत्व में भाजपा के लिए मिशन रिपीट की राह आसान होगी या कठिन। यहाँ ये जहन में रखना भी जरूरी है कि जयराम न सिर्फ सरकार का चेहरा है बल्कि भाजपा प्रदेश संगठन में भी फिलवक्त जयराम ठाकुर का असर दिख रहा है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बेशक सुरेश कश्यप हो लेकिन जानकार मानते है कि संगठन के बड़े निर्णयों में जयराम ठाकुर का ही प्रभाव है। अब इसे लेकर माहिर बंटे हुए है, कुछ इसे पार्टी की ताकत मानते है तो कई का मानना है कि पार्टी को इसका नुक्सान होगा। यहाँ गौर करने वाली बात ये भी है कि सुरेश कश्यप की ताजपोशी के बाद जमीनी स्तर पर पार्टी संगठन में कोई व्यापक बदलाव नहीं हुआ है। यानि संगठन में अधिकांश वे ही लोग है जिनकी नियुक्ति पूर्व अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल के समय हुई थी। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जो संगठन भाजपा की ताकत माना जाता है वो उपचुनाव में कुछ हद तक कमजोर दिखा था। अब इसके अपने सियासी मायने है और सबका अपना -अपना विश्लेषण। कयास लगते रहे, पर नहीं बदला संगठन : उपचुनाव में मिली शिकस्त के बाद ये कयास भी लग रहे थे कि संभवतः पार्टी संगठन में व्यापक बदलाव करें, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी वर्तमान संगठन के साथ ही विधानसभा चुनाव के रण में उतरती है या इसे धार देने के लिए आवश्यक बदलाव होते है, ये देखना रोचक होगा। विशेषकर कई जिलों में पार्टी संगठन को पैना किये जाने की जरूरत है। मजबूत संगठन और नेतृत्व सुनिश्चित कर पार्टी कुछ हद तक अंतर्कलह और असंतोष को भी साधने में कामयाब हो सकती है। पर असल सवाल ये ही है कि क्या पार्टी के रणनीतिकार भी ऐसा सोचते है। पहला इम्तिहान शिमला नगर निगम चुनाव : ये जहन में रखना भी जरूरी है कि विधानसभा चुनाव से पहले जयराम ठाकुर के सामने एक बड़ा इम्तिहान और है, ये है शिमला नगर निगम चुनाव। यदि नगर निगम चुनाव में पार्टी बेहतर नहीं कर पाती है तो स्वाभाविक है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की स्थिति भी असहज हो सकती है। ऐसे में मुमकिन है कि नेतृत्व परिवर्तन का जिन्न फिर बाहर आ जाएं।
प्रदेश कांग्रेस के संगठन में हुए बदलाव के बाद भाजपा को एक बार फिर परिवारवाद के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरने का मौका मिल गया है। प्रतिभा सिंह की ताजपोशी के बाद से भाजपाई नेता लगातार वंशवाद के मुद्दे पर कांग्रेस पर हमला बोल रहे है। उधर कांग्रेसी भी ये याद दिलाने से नहीं चूक रहे कि जिन अनुराग ठाकुर को भाजपा का एक तबका भावी सीएम करार देने में जुटा है, वो भी उन्हीं के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र है। बहरहाल चुनावी बेला में आरोप - प्रत्यारोप का दौर जारी है। पर हिमाचल कि सियासत पर नज़र डाले तो वंशवाद और परिवारवाद नई बात नहीं है। चाहे वीरभद्र परिवार हाे, धूमल परिवार या अन्य कई नेता, राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनका परिवार हमेशा तैयार दिखा है। छ बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह के हाथ में अब कांग्रेस की कमान है। इससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के साथ उनके पुत्र विक्रमदित्य भी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इसी तरह से धूमल परिवार में भी ऐसी ही स्थिति है। 2017 के विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार पराजित हुए जिसके बाद धूमल परिवार की सियासी धाक कुछ कम हुई। मगर सांसद अनुराग सिंह ठाकुर ने विरासत की सियासत काे ज़िंदा भी रखा और सियासी रसूख भी बढ़ाया। 2019 के आम चुनाव के बाद अनुराग केंद्रीय मंत्री हो चुके है। कांग्रेस के अन्य नेताओं की बात करें तो हिमाचल प्रदेश विधानसभा के पूर्व स्पीकर बीबीएल बुटेल पिछले चुनाव से ही रिटायर हो गए और उनके बेटे आशीष बुटेल ने माेर्चा संभाल लिया। फतेहपुर उपचुनाव में पूर्व विधायक स्व सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया जीतकर विधानसभा पहुंचे। वहीँ जुब्बल कोटखाई से पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल के पौत्र रोहित ठाकुर तीसरी बार जीतकर विधानसभा पहुंचे। पूर्व सांसद चंद्र कुमार के बेटे एवं पूर्व सीपीएस नीरज भारती भी 2012 में विधायक बने, हालांकि उन्हें 2017 में हार मिली। सुधीर शर्मा, जगत सिंह नेगी, अजय महाजन समेत कई ऐसे नेता हैं जाे सक्रीय राजनीति कर रहे हैं और अपने बुजुर्गों की राजनैतिक विरासत को संभाले हुए है। भाजपा में भी लिस्ट कम नहीं है। स्व कुंजलाल ठाकुर के पुत्र गाेविंद सिंह ठाकुर वर्तमान में मंत्री है। मंडी विधायक अनिल शर्मा भी पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर जीते थे। मंत्री महेंद्र सिंह की बेटी वंदना गुलेरिया जिला परिषद् सदस्य है और अब मंत्री के बेटे भी राजनीती में सक्रीय है। इसी तरह नरेंद्र ठाकुर भी परिवार की राजनैतिक विरासत को ही संभाल रहे है। क्या स्टैंड पर कायम रहेगी भाजपा : जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भाजपा ने पूर्व विधायक स्व नरेंद्र बरागटा के पुत्र चेतन बरागटा को टिकट नहीं दिया और इसका कारण परिवारवाद बताया गया। पर सवाल ये है कि क्या भाजपा अपने स्टैंड पर कायम रहेगी। जानकार ऐसा नहीं मानते। मुमकिन है कि जल्द भाजपा में चेतन की एंट्री भी हो और अगली बार उन्हें टिकट भी मिले। ऐसे कई नेता भी है जिन पर परिवारवाद का टैग है और जो टिकट के दावेदार है। कोई नेता पुत्र है तो कोई पूर्व सांसद का भाई।
मंडी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला विधानसभा क्षेत्र सुंदरनगर सियासी तौर पर काफी महत्वपूर्ण माना जाता है, इस सीट पर राजपूत वोटरों का दबदबा होने के चलते विधायक भी राजपूत ही रहे है। इस सीट पर हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन हुआ है, इस बात की तस्दीक करते है 1998 से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव। भाजपा ने 1982 से 2007 तक रूप सिंह पर ही विश्वास जताया है। पहली बार उन्हें 1982 में टिकट मिला और वो लगातार 1990 तक विधायक बने। 1993 के चुनाव में कांग्रेस से शेर सिंह और भाजपा से रूप सिंह मैदान में थे और उस दौरान 5537 वोट के अंतर् से शेर सिंह ने रूप सिंह को हराया और 23 साल सियासी तौर पर दंडक वन में गुज़ारने के बाद कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई। 1998 के चुनाव में भाजपा से फिर रूप सिंह ठाकुर को टिकट मिला जबकि कांग्रेस से शेर सिंह चुनावी मैदान में थे और रूप सिंह ने 769 वोट के अंतर से जीत हासिल की। 2003 के चुनाव में कांग्रेस ने टिकट बदला और कांग्रेस ने सोहन लाल को प्रत्याशी बनाया जो कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता भी थे और कांग्रेस सरकार में संसदीय सचिव भी रहे और भाजपा ने फिर रूप सिंह को टिकट दिया और करीब 4638 के अंतर् से रूप सिंह हार गए। इसी तरह 2007 में रूप सिंह ने सोहन लाल को हराया। 2012 के चुनाव में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और तब सोहन लाल जीते लेकिन उस दौरान भाजपा में काफी हलचल हुई। हमेशा की तरह भाजपा से रुप सिंह को टिकट मिलने के कयास लग रहे थे और टिकट की दौड़ में भाजपा के एक और नेता राकेश जम्वाल शामिल थे। उस चुनाव में भाजपा ने चेहरा बदला और राकेश जम्वाल को सुंदरनगर विधानसभा सीट से भाजपा का प्रत्याशी बनाया। तब रूप सिंह ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की अंतरकलह के कारण सुंदरनगर विधानसभा क्षेत्र में सोहन लाल ठाकुर बीजेपी को पीछे छोड़ने में सफल रहे। 2012 के चुनाव में सोहन लाल ठाकुर ने 8990 मतों से बड़ी जीत दर्ज की। 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी रुप सिंह ठाकुर दूसरे नंबर पर रहे जो इस विधानसभा को जीतने में सबसे ज्यादा बार सफल रहे थे। वह बीजेपी से टिकट न मिलने के कारण निर्दलीय चुनाव लड़े और बीजेपी प्रत्याशी राकेश जम्वाल को तीसरे नंबर पर करने में सफल रहे। बीजेपी में बगावत होने पर इसका सीधा फायदा कांग्रेस प्रत्याशी सोहन लाल ठाकुर को मिला। 2017 के चुनाव में भाजपा से राकेश जम्वाल जीते और सोहन लाल को करीब 9263 वोट से पराजित किया। सियासी माहिरों का मानना है कि इस बार के चुनाव में भी 2012 के चुनाव की तरह समीकरण बन सकते है। वर्तमान स्थिति को देखे तो पूर्व मंत्री रूप सिंह के बेटे अभिषेक ठाकुर भी चुनावी ताल ठोकते नज़र आ रहे हैं। मौजूदा दौर में भाजपा सरकार के प्रति एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर के साथ -साथ पंजाब जीत कर हिमाचल में राजनैतिक उलट-फेर करती नज़र आ रही आम आदमी पार्टी के चलते सुंदरनगर में भी रूप सिंह ठाकुर के राजनैतिक वारिस अभिषेक ठाकुर के पास भाजपा के सियासी आँकड़े बिगाड़ने का पुनः खुला मौक़ा है चाहे वो आम आदमी पार्टी से चुनावी मैदान में उतरे या आज़ाद लेकिन सीधे तौर पर यहाँ फिलहाल घाटे में भाजपा ही नज़र आ रही है।
स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव का पहला वोटर होने का श्रेय हिमाचल प्रदेश के श्याम सरन नेगी को जाता है। श्याम सरन नेगी, मूलतः किन्नौर (कल्पा) के निवासी है। आज उनकी उम्र करीब 105 वर्ष है। नेगी के चेहरे में तजुर्बे की झुर्रियां और क्षीण आवाज़ के बावजूद जब भी जिक्र मतदान को लेकर होता है तो उनके चेहरे की रौनक यह बयां करती है कि मतदाता देश की रीढ़ की हड्डी है। श्याम सरन नेगी का जन्म 1 जुलाई 1917 को हिमाचल प्रदेश के कल्पा में हुआ। वह एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर हैं। स्वतंत्र भारत के पहले मतदाता के तौर पर मशहूर नेगी को भारतीय लोकतंत्र का लीविंग लीजेंड भी कहा जाता है। 1947 में ब्रिटिश राज के अंत के बाद देश के पहले चुनाव फरवरी 1952 में हुए लेकिन सर्दी के मौसम में भारी बर्फबारी की संभावनाओं की वजह से किन्नौर के मतदाताओं को पांच महीने पहले ही वोट करने का मौका दिया गया था। 71 वर्ष पूर्व आजाद भारत का प्रथम चुनाव हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त थे आईसीएस सुकुमार सेन, जिन्होंने 1951-52 और 1957 का चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराया था। पहले चुनाव ने देश को बहुत कुछ दिखाया, सिखाया और साबित भी किया। बता दें कि सर्वप्रथम इसी अक्टूबर महीने की 25 तारीख को 1951 की सुबह आजाद भारत में मतदान की शुरुआत हुई थी। हिमाचल प्रदेश अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने वाला पहला राज्य बना था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने 68 चरणों में चुनाव की योजनाएं बनाई थी। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के कल्पा गांव निवासी स्कूल टीचर श्याम शरन नेगी को अपने गांव से अलग प्रशासन द्वारा मतदान केंद्र प्रभारी बनाया गया था। नेगी एक वोट के मूल्य को समझते थे। वे मतदान शुरू होने से एक घंटे पहले यानि सुबह 6:00 बजे ही अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के मतदान केंद्र पर पहुंच गए। वहां उन्होंने अधिकारियों को बताया की उन्हें जल्द अपने स्कूल भी पहुंचना है। तैनात अधिकारी ने उन्हें 6:30 बजे मतपत्र दिया और नेगी पहले मतदाता बन गए। श्याम सरन नेगी ने 1951 के बाद से हर आम चुनाव में मतदान किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गूगल ने नेगी पर एक फिल्म बनाई थी- प्लेज टू वोट यह फिल्म इंटरनेट पर खूब वायरल हुई थी, इसे फिल्मों के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन सहित तमाम दूसरे ब्रैंड एंबैसडरों ने भी देखा था।
◆ ठाकुर की ठकुराई का सवाल,जिया का "जिया" जनता में नहीं ◆डाक्टर जनक ने पकड़ी नब्ज़,सामने खड़े ललित अरविंद शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट भरमौर की साल दिसंबर में भोर कैसी होगी? क्या ठाकुर सिंह भरमौरी अपनी ठकुराई फिर से हासिल करेंगे या फिर मौजूदा विधायक जिया लाल से जनता फिर जिया लगाएगी? या डॉ जनक इन दोनों की नब्ज परख के अपना कोई इलाज हासिल कर लेंगे? क्या डॉ जनक के साथ जिला परिषद सदस्य ललित भी इतने लालायित हो जाएंगे कि इन तीनों को टक्कर देने से परहेज नहीं बरतेंगे ? चंबा जिले के छोर के इस विधानसभा क्षेत्र में आगामी विधानसभा चुनावों में जंग दिलचस्प होने के आसार बनते जा रहे हैं। हालांकि अभी तक मैदान में सीधे-सीधे जंग ठाकुर सिंह भरमौरी और जिया लाल के बीच दिख रही है,बशर्ते भाजपा की उस लिस्ट में उनका नाम न हो,जिसमें टिकट कटने के कई नाम दर्ज होने की बात कही जा रही है। खैर,दिलचस्प इसलिए है कि भाजपा के घरेलू डॉक्टर के नाम से मशहूर डॉक्टर जनक के बाबत भी यह बात एक बार से फिर सिर उठा चुकी है कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो जाहिर सी बात होगी कि भाजपा का दिल जिया लाल से भर चुका साबित होगा। कांग्रेस में भी कमोवेश यही हालात हैं। ठाकुर सिंह भरमौरी अस्वस्थ चले आ रहे हैं। ऐसे में उनके बेटे अमित भरमौरी फ्रंट फुट पर दौड़ रहे हैं। अगर परिवारवाद की बात ही हावी रही तो यहां भी पिता की जगह पुत्र ले सकता है। नए चेहरों में कांग्रेस के ही जिला परिषद सदस्य ललित भी अपना नाम दावेदारों की लिस्ट में शामिल करवा चुके हैं। दरअसल, मौजूदा भाजपा विधायक जिया लाल के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर भाजपा की छवि में फ्रैक्चर की वजह बन सकता है। यही वजह है कि भाजपा के भीतर अब जिया लाल से जिया न लगाने की बातें उठनी शुरू हो गई हैं। पॉवर प्रोजेक्ट्स इशुज़ की वजह से भी जिया की पॉलिटिकल पॉवर में डिस्चार्ज की वजह बनती बताई जा रहीं हैं। ऐसे में विकल्प के तौर पर डॉ जनक को भरमौर के पहाड़ों में भाजपा का कल्प वृक्ष माना जा रहा है। कांग्रेस में ठाकुर सिंह भरमौरी की छत्र छाया बरसों से बनी हुई है। मगर हैल्थ इशुज़ की वजह से पॉलिटिकल इशुज़ बन रहे हैं। ऐसे में उनके बेटे अमित भरमौरी सियासी विरासत को संभालने के लिए खूब ताकत झोंक रहे हैं। मगर सामने जिला परिषद सदस्य और कांग्रेसी झंडाबरदार ललित के भी टिकट के लिए लालायित बताए जा रहे हैं , हालांकि ललित आने वाले समय में आम आदमी पार्टी का भी रुख कर सकते हैं। पंचायती राज व्यवस्था के यह सिपाही भी अपने सियासी प्रतिद्वंदियों के खिलाफ तलवार उठाने को तैयार बताए जा रहे हैं। ऐसे में भरमौर में कई सियासी मोर नाचते हुए नजर आने शुरू हो गए हैं। बादल गरज रहे हैं,बिजलियां गर्ज रहीं हैं। देखना यह दिलचस्प होगा कि जब वोटों की बाढ़ आएगी तो किस की किश्ती लहरों को पार करेगी और किसकी डूबती है ?
कर्नल धनीराम शांडिल को कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव मेनिफेस्टो कमिटी का चेयरमैन नियुक्त किया है। कर्नल वर्तमान में सोलन से विधायक है और दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद भी रह चुके है। 2012 में कर्नल शांडिल पहली बार विधायक बने थे और वीरभद्र सरकार में मंत्री भी रहे है। कर्नल शांडिल हिमाचल प्रदेश के पहले ऐसे नेता रहे है जिन्हें कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल किया गया था। अब शांडिल को पार्टी आलाकमान ने चुनाव मेनिफेस्टो तैयार करने का अहम जिम्मा सौंपा है। फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने कर्नल शांडिल के साथ विशेष बातचीत की, पेश है मुख्य अंश... सवाल : प्रदेश कांग्रेस में व्यापक बदलाव हुए है। इसे लेकर आप क्या कहेंगे ? जवाब : केंद्रीय नेतृत्व ने बहुत बढ़िया और संतुलित बदलाव किये है। कांग्रेस कलेक्टिव लीडरशिप में चुनाव में उतरेंगी और सत्ता में निसंदेह वापस लौटेगी। ऐसा नहीं है कि कुलदीप राठौर जी के नेतृत्व में पार्टी अच्छा नहीं कर रही थी। उन्हीं के नेतृत्व में हमने चार विधानसभा चुनाव जीते। पर कई मर्तबा बदलाव के साथ ऊर्जा भी आती है और ऐसे में मैं मानता हूँ ये बदलाव पार्टी को और मजबूत करेगा। सवाल : टॉप लेवल पर तो बदलाव हो गया, क्या आप मानते है कि संगठन में जमीनी स्तर पर भी बदलाव होना चाहिए ? जवाब : मैं मानता हूँ कि संगठन को मजबूत किये जाने की जरूरत है और इसके लिए यदि बदलाव आवश्यक है तो बदलाव सही। प्रतिभा सिंह जी के नेतृत्व में हमारा संगठन निश्चित तौर पर नई ऊर्जा और जोश के साथ काम करेगा। हम सब साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस शानदार जीत दर्ज करेगी। सवाल : दशकों से वीरभद्र सिंह पार्टी का चेहरा रहे है। ऐसे में चुनाव में कांग्रेस का चेहरा कौन होगा ? जवाब : हाथ का निशान चेहरा होगा और कलेक्टिव लीडरशिप में हम चुनाव लड़ेंगे। पार्टी आलाकमान और चुने हुए विधायक मुख्यमंत्री का चयन करेंगे। फिलहाल तो मैं इतना कह सकता हूँ कि हर नेता, हर कार्यकर्ता पूरी शिद्दत से पार्टी की सत्ता वापसी के लिए प्रतिबद्ध है। हम सब एक है और साथ में सब मजबूत है। सवाल : आप मैनिफेस्टो कमिटी के चेयरमैन है। किन मुद्दों को शामिल किया जायेगा मैनिफेस्टो कमेटी में ? जवाब : हम हर निर्वाचन क्षेत्र के महत्वपूर्ण मुद्दों को इसमें शामिल करेंगे। हर वर्ग के मुद्दे इसमें शामिल होंगे, चाहे वो कर्मचारी हो, बागवान हो, महिलाएं हो, बुजुर्ग हो, युवा हो या कोई और। एक बात मैं और कहना चाहता हूँ, कांग्रेस सच की राजनीति करती है। हमारा मैनिफेस्टो भाजपा की तरह झूठ का पुलिंदा नहीं होगा, जो वादा करेंगे उसे पूरा भी करेंगे। सवाल : आखिरी सवाल आपके अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर है। चुनाव को लेकर कितने आश्वस्त है आप ? जवाब : मंत्री रहते हुए मैंने 463 करोड़ के काम किये थे और उन्हीं के फीते अब तक भाजपाई काट कर अपना समय काट रहे है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जी ने पहला शिलान्यास ट्रांसपोर्ट नगर का किया था, साढ़े चार साल में उनसे एक ईंट तक नहीं लगी। हमारे सरकार के कार्यकाल में शामती बाईपास का अधिकांश निर्माण कार्य पूरा हो गया था, जो थोड़ा सा बचा था वो भी इनसे नहीं हो पाया। ये बोल बच्चनों की सरकार है और जनता इन्हें पहचान चुकी है। वर्तमान में भी मैंने हर ब्लॉक, हर पंचायत, हर गांव, हर वार्ड के विकास में हरसंभव सहयोग किया है। मैं दिखावे की राजनीति नहीं करता, जो मैंने किया है वो जनता देख रही है और निश्चित तौर पर फिर कांग्रेस विजयी होगी।
बीते दिनों डिप्टी सीएलपी लीडर बनने के बाद शिलाई विधायक हर्षवर्धन चौहान अपने क्षेत्र में पहुंचे तो उत्साहित समर्थकों ने उन्हें भावी मुख्यमंत्री करार देते हुए जमकर नारेबाजी की। निसंदेह पांच बार के विधायक हर्षवर्धन कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार है और कांग्रेस के आधा दर्जन से ज्यादा भावी मुख्यमंत्रियों में एक नाम उनका भी है। इधर हर्षवर्धन को पार्टी ने प्रमोट किया तो उधर इसी दौरान हाटी समुदाय को लेकर भाजपा ने बड़ी जीत हासिल कर ली। दशकों से लंबित हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने की मांग पर पार्टी ने एक सकारात्मक कदम बढ़ाया। यदि आचार सहिंता लगने से पहले भाजपा इस मुद्दे पर निर्णायक स्थिति में पहुंच सकी तो, निसंदेह इस मुद्दे का सीधा इम्पैक्ट इस बार के चुनाव में दिखेगा। ऐसे में कद बढ़ने के बावजूद हर्षवर्धन के लिए चुनावी डगर कठिन हो सकती है। गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय दर्जा मिलने को लेकर कई दशकों से हाटी समुदाय के लोग संघर्ष कर रहे है। चुनावी फिजा के समय ही नेताओं द्वारा इस मुद्दे को खूब हवा दी जाती है, लेकिन नतीजों के बाद कुछ नहीं होता। ये मसला 154 पंचायतों से सीधे जुड़ा है। इसके दायरे में शिलाई विधानसभा क्षेत्र की सभी पंचायतें आती है, यानी इस बार के चुनाव में शिलाई सीट पर इसका पूरा इम्पैक्ट देखने को मिल सकता है। चुनाव से पहले यदि इसकी नोटिफिकेशन जारी हो जाती है तो भाजपा के लिए हाटी का मुद्दा संजीवनी साबित हो सकता है। कांग्रेस का गढ़ रही है शिलाई सीट : इतिहास पर नज़र डाले तो 1972 से लेकर 1985 तक शिलाई सीट पर कांग्रेस का ही कब्ज़ा रहा है। 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता दल के जगत सिंह नेगी ने कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान को हरा कर शिलाई सीट पर कब्ज़ा किया। 1993 से 2007 तक कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान ने इस सीट पर सत्ता का सुख भोगा। 2007 के चुनाव में तो भाजपा के बलदेव तोमर की जमानत तक जब्त हुई। पर 2012 के चुनाव आए तो भाजपा ने फिर बलदेव तोमर पर भरोसा जताया और तोमर ने हर्षवर्धन चौहान को परास्त कर शिलाई सीट पर कमल खिलाया। इसके बाद 2017 के चुनाव में हर्षवर्धन चौहान ने फिर जीत दर्ज कर शिलाई सीट कांग्रेस की झोली में डाली।
प्रतिभा सिंह को प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलने के साथ ही अर्की निर्वाचन क्षेत्र के सियासी समीकरण भी बदलने के आसार है। उपचुनाव में पार्टी ने सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबी और 2012 में पार्टी प्रत्याशी रहे संजय अवस्थी को अपना उम्मीदवार बनाया था। इसके बाद होलीलॉज के करीबी रहे राजेंद्र ठाकुर ने अपने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दी थी। हालांकि ठाकुर ने बतौर निर्दलीय चुनाव तो नहीं लड़ा लेकिन पार्टी के लिए काम भी नहीं किया। तब से अब तक ठाकुर कांग्रेस से बाहर है। पर अब प्रतिभा सिंह की ताजपोशी के बाद जानकार मानते है कि राजेंद्र ठाकुर की जल्द पार्टी में वापसी संभव है। हालांकि अब तक खुद ठाकुर इस विषय पर खुलकर नहीं बोल रहे लेकिन होलीलॉज से उनके नजदीकी जगजाहिर है। एक पक्ष ये भी है कि राजेंद्र ठाकुर आगामी विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरना चाहते है। अर्की में फिलवक्त संजय अवस्थी का टिकट कटना मुमकिन नहीं लगता और ऐसे में जाहिर है ठाकुर यदि कांग्रेस में आ भी गए तो भी उन्हें टिकट नहीं मिलेगा। सो ठाकुर किसी अन्य राजनीतिक विकल्प पर विचार कर सकते है या फिर निर्दलीय भी ताल ठोक सकते है। बहरहाल, ठाकुर के अगले कदम पर सबकी निगाहें टिकी है। भाजपा को कम आंकना ठीक नहीं .... अर्की उपचुनाव में भाजपा की स्थिति ठीक नहीं थी। पार्टी का एक बड़ा तबका प्रत्याशी के चयन से नाखुश था और ये नाराजगी जमीनी स्तर पर साफ दिख रही थी। इस पर ये स्व. वीरभद्र सिंह का निर्वाचन क्षेत्र है तो सहानुभूति भी खूब दिख रही थी। शुरुआती दौर में तो लग रहा था कि भाजपा की हार का अंतर दस हज़ार के आसपास भी रह सकता है। पर अंतर रहा करीब 3200 का। ऐसे में यदि भाजपा एकजुट होकर चुनाव लड़े तो कांग्रेस की राह आसान नहीं होगी। इसी के चलते राजेंद्र ठाकुर की भूमिका इस चुनाव में अहम् हो सकती है।
- टिकट के लिए मजबूत हुआ मुसाफिर का दावा एक बार फिर प्रदेश कांग्रेस की कमान होलीलॉज को सौंप दी गई है। प्रतिभा सिंह तो प्रदेश अध्यक्ष बनी ही है, वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कई नेताओं को भी पार्टी ने अहम पदों पर जिम्मेदारी दी है। इस फेरबदल ने कई नेताओं की सुस्त होती दिख रही सियासत को भी चुस्त कर दिया है। ऐसा ही एक नाम है गंगूराम मुसाफिर का। पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से रिकॉर्ड सात बार विधायक रहे मुसाफिर वीरभद्र सिंह के खासमखास सिपाही रहे हैं। गंगूराम मुसाफिर लगातार बीते तीन चुनाव हार चुके है और इस बार उनके टिकट को लेकर संशय की स्थिति है। पर अब उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया गया है। ऐसे में ये तय है कि इस बार भी टिकट के लिए उनका दावा मजबूत रहने वाला है। गंगूराम मुसाफिर ने 1982 से लेकर 2007 तक के विधानसभा चुनाव में लगातार सात बार जीत दर्ज की। 1982 में मुसाफिर ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और जीता, लेकिन 1985 से वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। वह मंत्री के अलावा हिमाचल विधानसभा के स्पीकर भी रह चुके हैं। पर 2012 के विधानसभा चुनाव में मुसाफिर को भाजपा के सुरेश कश्यप से 2805 वोटों से हार मिली। 2017 में कांग्रेस ने फिर मुसाफिर को मैदान में उतारा लेकिन जनता ने उन्हें फिर नकार दिया। इसके बाद 2019 के उपचुनाव में भी कांग्रेस ने मुसाफिर पर भरोसा जताया लेकिन मुसाफिर जीतने में असफल रहे। लगातार तीन चुनाव हारने के बाद और दयाल प्यारी की एंट्री से भी इस बार मुसाफिर की राह आसान नहीं दिख रही थी, विशेषकर वीरभद्र सिंह के निधन के बाद। उधर, क्षेत्र में एक तबका दयाल प्यारी को टिकट देने का हिमायती दिख रहा था, लेकिन अब बदले राजनीतिक समीकरणों के बाद गंगूराम मुसाफिर फिर टिकट की रेस में बाजी मार सकते है। मुश्किल हो सकती है दयाल प्यारी की राह : दयाल प्यारी लम्बे समय तक भाजपा में रही लेकिन जब भाजपा में 2019 में उन्हें टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ी। वे जीत नहीं सकी लेकिन चुनाव में अपनी दमदार मौजूदगी जरूर दर्ज करवाई। उनका भाजपा में कई नेताओं के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा है और शायद इसी के चलते उनकी भाजपा में घर वापसी नहीं हुई। इस बीच 2021 में वे कांग्रेस में शामिल हो गई। इसके बाद से ही मुसाफिर विरोधी गुट उन्हें टिकट देने की हिमायत कर रहा है। पर अब होलीलॉज और मुसाफिर के मजबूत होने के बाद दयाल प्यारी की राह मुश्किल हो सकती है।
अगर सत्ता मिली, तो दिलचस्प होगा चुनाव के बाद का चुनाव सियासी जुदाई का दंश झेल रहे होलीलॉज के निष्ठावानों में एक नई ऊर्जा का प्रवाह होता दिखाई दे रहा है। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक देख बीते दिनों कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी और लोकसभा सांसद प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है। दरअसल, वर्तमान परिवेश में कांग्रेस के पास वीरभद्र सिंह की विरासत पर भरोसा करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दिख रहा था। विशेषकर उपचुनाव में वीरभद्र सिंह के नाम का असर साबित होने के बाद तो ये तय था कि पार्टी आलाकमान जो भी निर्णय लेगा उसमें होलीलॉज को तवज्जो मिलेगी, और हुआ भी ऐसा ही। हालांकि प्रदेश की सरदारी संभालने के लिए महत्वाकांक्षी नेताओं की फेहरिस्त लम्बी थी और इनमें कई दमदार नेता शामिल थे। ऐसे में पार्टी में अंतर्कलह की स्थिति पैदा न हो इसके लिए पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी महत्वपूर्ण पद सौंपे गए है। मुकेश अग्निहोत्री का नेता प्रतिपक्ष के लिए पद बरकरार रखा गया, तो सुखविंद्र सिंह सुक्खू को चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपी गई। अलबत्ता अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी अहम् जिम्मेदारियां देकर संतुलन साधने का प्रयास किया गया है, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नई कार्यकारिणी में भी वीरभद्र कैंप की मौजूदगी अधिक दिखती है। यानी वीरभद्र सिंह के नाम का असर और रसूख बरकरार दिख रहा है। कांग्रेस की नई कार्यकारिणी में शामिल चारों कार्यकारी अध्यक्ष वीरभद्र सिंह के समर्थक माने जाते है। चम्बा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हर्ष महाजन होलीलॉज के करीब है और सिर्फ वे कई बार वीरभद्र सिंह के चुनाव प्रभारी भी रह चुके है। कहते है कि साल 2012 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में हर्ष महाजन का सबसे बड़ा योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त पवन काजल, राजेंद्र राणा और विनय कुमार भी वीरभद्र सिंह के समर्थक रहे है। पवन काजल तो वीरभद्र सिंह के पसंदीदा नेताओं में से एक थे और उन्हें कांग्रेस में लाने वाले भी वीरभद्र सिंह ही थे। पिछले लोकसभा के दौरान वीरभद्र ने स्वयं फील्ड पर उतर कर उनके लिए वोट भी मांगे थे। वहीं शिलाई विधानसभा क्षेत्र से विधायक हर्षवर्धन चौहान को विधानसभा में डिप्टी सीएलपी लीडर बनाया गया है। हर्षवर्धन चौहान शिलाई विधानसभा क्षेत्र से चौथी बार विधायक बने हैं। वह पूर्व वीरभद्र सरकार में मुख्य संसदीय सचिव भी रह चुके हैं। वे वीरभद्र के करीब न सही लेकिन उनसे दूर भी नहीं है। पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से वीरभद्र सिंह के पक्के समर्थक रहे जीआर मुसाफिर को एक बार फिर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया गया है। गंगूराम मुसाफिर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह के खासमखास सिपाही रहे हैं। चीफ व्हिप बनाए गए जगत सिंह नेगी, सीनियर वाइस प्रेजिडेंट इंद्र दत्त लखनपाल और कुल्लू से विधायक सुंदर सिंह ठाकुर भी इसी खेमें के माने जाते है। इन सभी के अलावा कार्यकारिणी में शामिल कई अन्य नेता भी वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है जिसमें आशा कुमारी, मुकेश अग्निहोत्री, आशीष बुटेल और सुधीर शर्मा के नाम शामिल है। यहाँ ये जहन में रखना भी जरूरी है कि वर्तमान में मुकेश अग्निहोत्री की अपनी लॉबी है, कई विधायक उनके समर्थक है। पर इसका मतलब ये भी नहीं अग्निहोत्री होलीलॉज से दूर हो गए है। ये सियासत है, आपस में मिली भगत से बड़े मुकाम हासिल किये जा सकते है। इसमें कोई संशय नहीं कि अगर कांग्रेस सत्ता में लौटी तो चुनाव के बाद का चुनाव बेहद दिलचस्प होगा।
' हिमाचल में तीसरे मोर्चे या पार्टी का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा'..जब से आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी है, भाजपा -कांग्रेस के कई नेता एक सुर में ये ही सियासी राग अलाप रहे है। पर ये सत्य नहीं है। 1998 के चुनाव में तीसरी पार्टी ही किंगमेकर थी। तब हिमाचल विकास कांग्रेस की वजह से भाजपा सरकार बनी और कांग्रेस ने पांच साल सत्ता विरह भोगा। 1998 के बाद अब पहली बार हिमाचल प्रदेश में कोई तीसरी पार्टी दमखम से मैदान में उतरती दिख रही है। आम आदमी पार्टी का दावा है कि सरकार उनकी बनेगी, सियासत में ऐसे दावे सभी करते है सो आप भी कर रही है। ये अलग बात है कि आप के पास फिलवक्त वो जमीनी संगठन नहीं दिख रहा जो उसे कांग्रेस -भाजपा के मुकाबले में लाकर खड़ा कर दें। पर असल सवाल ये है कि 'किंग' न सही क्या आम आदमी पार्टी 'किंग मेकर' बन सकती है। क्या जो 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस ने किया था वैसा आप कर पायेगी। इसका जवाब तो आने वाला समय ही देगा लेकिन ये तय है कि आप को हल्के में लेना कांग्रेस -भाजपा दोनों को भारी जरूर पड़ सकता है। ऐसे किंग मेकर बने थे पंडित सुखराम : 1993 में प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में लौटी और वीरभद्र सिंह ने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। सरकार का कामकाज ठीक ठाक था और प्रदेश में वीरभद्र सिंह सरकार के खिलाफ कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं थी, अपितु कुछ हद तक प्रो इंकम्बैंसी जरूर दिख रही थी। पर कांग्रेस के भीतर सब कुछ ठीक नहीं था। दरअसल पंडित सुखराम और वीरभद्र सिंह की महत्वकांक्षाएं पहले से ही टकराती आ रही थी। 1982 में जब ठाकुर राम लाल को बदलने का वक्त आया था तो पार्टी में वीरभद्र सिंह को पंडित सुखराम पर तवज्जो दी गई थी। फिर 1990 में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में पार्टी हारी तो पंडित सुखराम को आस थी कि अगली मर्तबा मुख्यमंत्री का ताज उनके सिर सजेगा। पर ऐसा हुआ नहीं और 1993 में भी वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री बने। हालांकि तब सांसद रहे पंडित सुखराम को केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार में टेलीकॉम मंत्री का पद दिया गया था। मंत्री रहते पंडित जी ने मंडी का खूब विकास किया लेकिन 1996 में उन पर टेलीकॉम घोटले का आरोप लगा और उसके बाद कांग्रेस से उनकी राह जुड़ा हो गई। 1998 आते - आते पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया और उनकी पार्टी में कई कांग्रेसी विधायक और नेता भी जुड़े गए जिनमें महेंद्र सिंह और रामलाल मारकंडा सहित कई बड़े नाम थे। पार्टी पुरे दमखम से लड़ी और माहौल कुछ ऐसा बना कि विधासभा कि लड़ाई त्रिकोणीय हो गई। जब नतीजे आएं तो पंडित जी की पार्टी सत्ता में तो नहीं आई पर किंगमेकर की भूमिका में जरूर आ गई। त्रिशंकु विधानसभा में पांच सीटें हिमाचल विकास कांग्रेस ने जीती और उनके बगैर सरकार का गठन मुमकिन नहीं था। पंडित जी ने वीरभद्र सिंह के साथ न जाकर प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा गठबंधन सरकार को समर्थन दिया। गठबंधन की ये सरकार बनी भी और पहली बार हिमाचल में पांच साल गठबंधन की सरकार चली भी। 23 सीटों पर तह कांटे का मुकाबला : 1998 के विधानसभा चुनाव में काँटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इनमें से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी जिसमें तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस ने सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। तब यदि हिमाचल विकास कांग्रेस न होती तो 1998 में वीरभद्र दूसरी बार रिपीट कर जाते। इससे पहले 1985 में उन्हीं के नेतृत्व में आखिरी बार हिमाचल में कोई सरकार रिपीट हुई थी। बगैर चेहरे के नहीं बनेगी 'आप' की बात ! पंडित सुखराम हिमाचल की सियासत का वो नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। हिमाचल विकास कांग्रेस का चेहरा खुद पंडित सुखराम थे। जबकि आम आदमी पार्टी अब तक अरविन्द केजरीवाल के चेहरे पर आगे बढ़ रही है। प्रदेश का कोई ऐसा चेहरा पार्टी के साथ नहीं है जो पंडित सुखराम जैसा सियासी वजन रखताहो। मज़बूत हिमाचली चेहरे का न होना आप की सबसे बड़ी कमजोरी है और जानकार मानते ही कि यदि चेहरा न मिला तो इस बार के चुनाव में आप की भूमिका "वोट कटवा" से ज्यादा शायद न रहे। पंजाब में पार्टी दस साल की मेहनत के बाद सत्ता में लौटी है, पर हिमाचल में ढंग से काम करते अभी जुमा - जुमा चार दिन हुए है।
बैठकों का दौर जारी है और उम्मीद कायम। रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कांग्रेस में एंट्री पर राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले तमाम लोगों की निगाहें टिकी है, विशेषकर कांग्रेस के निष्ठावान अब आशावान दिख रहे है। उम्मीद है कि अगर प्रशांत की एंट्री हो गई तो शायद आवश्यक बदलाव की राह भी खुल जाएं। दरअसल ये सर्वविदित है कि कांग्रेस में टॉप टू बॉटम बदलाव जरूरी है, पर पार्टी आलाकमान मानो वक्त काट रहा है। ऐसे में खबरें सामने आ रही है कि प्रशांत किशोर ने पार्टी को पुर्नजीवित करने का ब्लूप्रिंट पेश किया है और जल्द पार्टी इस पर आगे बढ़ सकती है। खासबात ये है कि इसमें उन राज्यों को लेकर भी विशेष योजना है जिनमें इस साल के अंत में या अगले साल विधानसभा चुनाव है। इसी वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव है, तो अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में चुनाव है। हिमाचल प्रदेश में पार्टी संगठन में बदलाव के कयासों के बीच पार्टी आलाकमान और रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बीच हो रही मैराथन बैठकों पर सबकी निगाहें टिकी है। अब प्रशांत और कांग्रेस के बीच बात बनी तो ये तय है कि हिमाचल में भी संभावित बदलाव प्रशांत किशोर के हिसाब से होंगे। शायद ये ही कारण है कि अब तक हिमाचल में पार्टी ने कोई बड़ा निर्णय नहीं लिया है जबकि चुनाव में मात्र कुछ माह ही शेष है। वीरभद्र फैक्टर अब भी असरदार : उपचुनाव में कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन का एक बहुत बड़ा कारण स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति सहानुभूति भी था। वीरभद्र सिंह के निधन के बाद जिस तरह का जनसैलाब उमड़ा था वैसे शायद ही कभी देखने को मिला हो। अब भी वीरभद्र सिंह के नाम का असर प्रदेश में दिखता है। वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह वर्तमान में विधायक है, तो वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह सांसद है। कुछ क्षेत्र विशेष में तो इस परिवार के प्रति लोगों का लगाव स्पष्ट दिखता है। ऐसे में जानकार मानते है कि सत्ता वापसी के लिए होलीलॉज को विशेष तवज्जो मुमकिन है। पर वंशवाद इसमें रोड़ा है। अब इसे लेकर प्रशांत किशोर की क्या सोच रहती है ये देखना रोचक होगा, बशर्ते पहले प्रशांत किशोर की एंट्री तो हो।
एंटी इंकम्बेंसी साधने के लिए चेहरे बदल देना भाजपा की सियासी प्रयोगशाला का नया पैंतरा है। पिछले वर्ष गुजरात के निकाय चुनाव से शुरू हुआ ये प्रयोग बदस्तूर जारी है। इसके बाद एंटी इंकम्बेंसी भांपते हुए पार्टी ने गुजरात में मुख्यमंत्री सहित समस्त कैबिनेट बदल दी, तो उत्तराखंड में चुनाव से पूर्व दो बार मुख्यमंत्री को बदल डाला। बेशक हिमाचल प्रदेश में जयराम सरकार को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं दिख रही है और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सरल और ईमानदार छवि अब तक उनकी ढाल बनी हुई है, लेकिन कई मंत्रियों और विधायकों के लिए जमीनी स्तर पर असंतोष की स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में जानकार मानते है कि पार्टी कई मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटने से भी गुरेज नहीं करेगी। टिकट आवंटन से पहले बकायदा कई सर्वे होंगे और जिसकी रिपोर्ट ठीक नहीं, उसे टिकट नहीं। ऐसे में कई मंत्रियों और विधायकों को झटका लग सकता है। माना जा रहा है कि कई विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी नए चेहरों पर दाव खेल सकती है। उपचुनाव में गलत टिकट आवंटन का खामियाजा भुगत चुकी भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में फूंक - फूंक कदम रखेगी। तब तीनों विधानसभा क्षेत्र हो या मंडी संसदीय क्षेत्र, पार्टी के टिकट आवंटन पर हर जगह सवाल उठे। अर्की में पार्टी का बड़ा खेमा रतन सिंह पाल के विरोध में था लेकिन पार्टी इसे भाप नहीं पाई। फतेहपुर में 2017 में बगावत कर चुनाव लड़ने वाले बलदेव ठाकुर को टिकट देकर कृपाल परमार को नाराज किया, तो जुब्बल कोटखाई में परिवारवाद के नाम पर दस साल पार्टी में लगा चुके चेतन का टिकट काटने की भूल कर दी। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र में तो ऐसा लगा मानो चुनाव खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही लड़ रहे हो। ऐसे में विधानसभा चुनाव में पार्टी सुनिश्चित करना चाहेगी कि टिकट वितरण में कोई चूक न हो। अधिकारी - पत्रकार भी कतार में : आगामी विधानसभा चुनाव में कई अधिकारी और पत्रकार भी सियासत में किस्मत आजमाते दिख सकते है। विशेषकर भाजपा टिकट के लिए इनमें से कई चाहवान है। कई अधिकारी - पत्रकार तो अब ग्राउंड में भी दिखने लगे है। वहीँ चुनावी बेला में कई और चेहरे पैराशूट से मैदान में उतर सकते है। 2017 में भाजपा ने आईजीएमसी के डॉक्टर राजेश कश्यप को सोलन से मैदान में उतारा था, अब फिर आईजीएमसी के एक डॉक्टर को लेकर कयास लग रहे है।
6 अप्रैल को मंडी में हुए हिट रोड शो के बाद 23 अप्रैल का दिन कांगड़ा में रैली के लिए मुकर्रर था। स्थान चुना गया शाहपुर। आप का दावा था कि इस बार रैली सुपरहिट होगी। माहौल ऐसा जमेगा कि भाजपा -कांग्रेस के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाएगी। हालांकि आप के तरकश में न तो हिमाचल प्रदेश का कोई बड़ा सियासी चेहरा था और सच कहे तो जमीनी स्तर पर भी प्रबंधन बेहतर नहीं दिख रहा था। फिर भी तीर निशाने पर लगा। हालाँकि शुरूआती दौर में खाली कुर्सियां दिखी तो लगा कि आप को अति आत्मविश्वास ले बैठा। पर सूरज चढ़ते चढ़ते माहौल भी बनने लगा और पंडाल खचाखच भर गया। इससे एक दिन पहले यानी 22 अप्रैल को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी कांगड़ा के नगरोटा बंगवा में रोड शो व रैली कर चुनावी हुंकार भरी थी। सियासी नजर से परखे तो नड्डा के कार्यक्रम की टीआरपी एवरेज थी, न कमाल और न बुरा। ऐसे में जाहिर है आप पर भी दबाव था। पर बगैर मजबूत जमीनी संगठन के भी आप का आयोजन बेहतर रहा। ये न सिर्फ भाजपा के लिए, बल्कि कांग्रेस के लिए भी आई ओपनर है। अलबत्ता अभी तो आप के पास प्रदेश में मजबूत चेहरा नहीं हैं, यदि चेहरा मिल गया तो दोनों दलों के लिए मुश्किल तय होगी। नेताओं को केजरीवाल का निमंत्रण : हिमाचल में आप के पास चेहरा नहीं है और कांगड़ा की रैली में भी कोई बड़ा सियासी चेहरा पार्टी में शामिल नहीं हुआ। ये आप के सामने बड़ी चुनौती है। केजरीवाल भी इस बात को जानते है और इसीलिए मंच से भाजपा-कांग्रेस के नेताओं को आप ज्वाइन करने का निमंत्रण दे गए। टू दी पॉइंट बोले केजरीवाल : मंडी के कार्यक्रम की तरह ही कांगड़ा में भी अरविन्द केजरीवाल टू दी पॉइंट बोले। शिक्षा,स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार, भ्रष्टाचार और बिजली के मुद्दों पर दिल्ली मॉडल की खूबियां बताई और फ्री बिजली के मुद्दे पर जयराम ठाकुर को नकलची बताकर सीधा निशाना भी साध गए।
आगाज ठीक है, पर बेहतर हो सकता था। जानकार मान रहे है कि हिमाचल की सियासत के दुर्ग कहे जाने वाले कांगड़ा में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का चुनावी उद्घोष पूरे शबाब में नहीं दिखा। विशेषकर जब अगले ही दिन अरविंद केजरीवाल की जनसभा में भी कमोबेश उतनी ही भीड़ उमड़ी, तो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के प्रबंधन पर सवाल उठना तो लाजमी है। हिमाचल प्रदेश में कुल 7792 बूथ है और हर बूथ पर भाजपा के त्रिदेव ( बूथ पालक, बूथ अध्यक्ष, पन्ना प्रमुख) है। जमीनी संगठन भी मजबूत है और संसाधनों के लिहाज से भी पार्टी ताकतवर। दूसरी तरफ हिमाचल में जुम्मा -जुम्मा चार दिन पहले आई आम आदमी पार्टी, जिसके पास न संगठन है और न ही प्रदेश में गहरी सियासी जड़ें। अब राजनैतिक आयोजनों के बाद अगर दोनों की तुलना करनी पड़े तो भाजपा के लिए ये सोचने का संदर्भ जरूर है। यहाँ ये जहन में रखना जरूर आवश्यक है कि एक माह के अंदर हिमाचल में ये नड्डा का दूसरा रोड शो था और इसके बाद भी उनके दौरे हिमाचल में जारी रहेंगे। स्पष्ट है भाजपा मिशन रिपीट में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती। वहीँ जगत प्रकाश नड्डा के लिए तो हिमाचल प्रदेश जीतना प्रतिष्ठता का सवाल भी है क्यों कि ये उनका गृह राज्य है। बहरहाल इस बात के लिए भाजपा की तारीफ जरूर करनी होगी कि पार्टी प्रो एक्टिव दिख रही है और ये खूबी ही भाजपा को सम्भवतः अन्य पार्टियों से अलग बनाती है। नड्डा के अलावा मई में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सहित कई अन्य केंद्रीय मंत्री हिमाचल प्रदेश का रुख करेंगे। वहीं जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिलासपुर में एम्स का उद्घाटन करने आएंगे। कांग्रेस को बदलना होगा गियर : कांगड़ा की सियासत में अगर बात कांग्रेस की करें तो अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में फिलहाल पार्टी की गतिविधियां लगभग शून्य ही है। इसे कांग्रेस की विफलता ही कहेंगे कि मौजूदा समय में वो चर्चा से भी गायब है। पर कांग्रेस के काडर को हल्का लेने की भूल नहीं की जा सकती। हाल फिलहाल तो हिमाचल प्रदेश में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही संभावित है, बाकी राजनीति में कुछ भी मुमकिन है।