कांग्रेस, कहीं नहीं जाऊंगा छोड़ कर - कहा पार्टी में पुराने लोगों को तवज्जो दिए जाने की जरूरत पंकज सिंगटा। धर्मशाला जिला कांगड़ा के ज्वाली विधानसभा क्षेत्र से पूर्व में विधायक रहे और पूर्व में सीपीएस रहे नीरज भारती का विवादों से पुराना नाता रहा है। अपनी बेबाकी के चलते नीरज भारती अक्सर चर्चा में रहते है। नीरज भारती के बोल विपक्ष को तो चुभते ही है, लेकिन कई बार अपनी पार्टी को भी कठघरे में ला खड़ा करते है। पर नीरज भारती ताल ठोक कर कहते है कि कांग्रेस उनके खून में है। इस पर भी कोई सवाल नहीं है कि नीरज भारती के समर्थकों की खासी तादाद है। आगामी विधानसभा चुनाव में उनकी भूमिका, पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा के साथ उनकी तल्खियां और कांग्रेस की वर्तमान स्थिति जैसे कई विषयों पर फर्स्ट वर्डिक्ट ने नीरज भारती से खास चर्चा की। पेश है इस चर्चा के मुख्य अंश .... सवाल : हो सकता है आप इस सवाल से ऊब गए हो परन्तु हम सर्व प्रथम ये ही जानना चाहते है कि आपके सुधीर शर्मा के साथ क्या मतभेद है ? जवाब : इस सवाल से मैं तो नहीं ऊबा हूँ लेकिन हो सकता है जो लोग मुझे सुनते है, वो इस बात से ऊब गए हो, लेकिन आपने यह सवाल किया है तो मैं जरूर जवाब दूंगा। ऐसी कोई गंभीर घटना नहीं थी, लेकिन छोटा मोटा मन मुटाव है और वह आगे भी रहेगा, क्योंकि मुझसे धोखेबाज़ी बर्दाश्त नहीं होती है। मैं यारी दोस्ती में जान देने और लेने के लिए भी तैयार हूँ। ऐसी ही धोखेबाज़ी धर्मशाला के पूर्व विधायक सुधीर शर्मा ने भी की थी। मैं फेसबुक पर बहुत सारी ऐसी चीजें लिखता रहता हूँ जो मुझे पसंद नहीं आती क्योंकि फेसबुक खुद ही पूछता है कि " व्हाट्स ऑन योर माइंड"। तो मैं लिख देता हूँ। उस समय जब धर्मशाला में यह घटना हुई थी उसका कारण यह था कि मैंने सुधीर के लिए कुछ लिखा था, लेकिन उनके जो समर्थक थे उन्हें वह बात पसंद नहीं आई। इस वजह से उनके साथ थोड़ा मन मुटाव हो गया था। उन लोगों से मेरी कोई निजी दुश्मनी नहीं है, सुधीर शर्मा से है और वह आगे भी जारी रहेगी। सवाल : आपने कहा कि सुधीर शर्मा ने धोखेबाज़ी की है, धर्मशाला में जो भी घटना हुई वह सबके सामने है। उस घटना से आपके निजी मतभेद सबके सामने आए। कांग्रेस में एक डिसीप्लेनेरी कमेटी बनाई गयी है, क्या इस घटना के बारे में वहां से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई? जवाब : इस घटना में पार्टी के खिलाफ कोई भी बात नहीं हुई है। यह मेरा और सुधीर का निजी मामला है, हालाँकि वह कुछ नहीं बोलता क्योंकि उसे मंद मंद मुस्कुराने की आदत है। वह दूसरों के कन्धों पर बन्दुक रख कर चलाने वाला इंसान है, लेकिन मैं खुद सामने खड़ा होता हूँ। मेरे साथ कोई गलत करेगा तो मैं उससे खुद निपटना जानता हूँ। पार्टी में डिसीप्लेनेरी कमेटी है लेकिन वह तभी बोलती है, यदि हम पार्टी के खिलाफ कुछ बोलेंगे या पार्टी के खिलाफ कुछ गलत करें। सुधीर के साथ मेरी जो निजी रंजिश है वह तो रहेगी ही, फिर चाहे पार्टी मुझे स्वीकार करे या न करे। सवाल : आगामी चुनावों की बात करे तो यह बातें निकल कर आ रही है कि आपके पिता चौधरी चंद्र कुमार ज्वाली से चुनाव लड़ने वाले है, आप नहीं। यदि आपके पिता चुनाव लड़ते है तो आपने अपने लिए किस तरह की भूमिका तय की है? जवाब : ज्वाली, चौधरी चंद्र कुमार की कर्म भूमि रही है। पिछले दो चुनावों से ही हमें ज्वाली नाम सुनने को मिल रहा है, उससे पहले इस विधानसभा क्षेत्र का नाम गुलेर हुआ करता था। चौधरी चंद्र कुमार ने अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत इसी क्षेत्र से की है। हालांकि मैंने वहां से 3 चुनाव लड़े है। जब चौधरी चंद्र कुमार जी ने शांता कुमार को हराकर लोकसभा चुनाव जीता, उस समय 2004 में उपचुनाव हुआ। मैंने वह चुनाव लड़ा था लेकिन उस समय मैं जीत नहीं पाया था। इसके बाद 2007 में पार्टी ने मुझ पर विश्वास जताया और मुझे फिर से टिकट दिया और मैं वहां से चुनाव जीत गया। 2012 में एक बार फिर मुझे चुनाव लड़ने का मौका मिला और स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की सरकार बनी और मुझे मुख्य संसदीय सचिव के रूप में कार्य करने का मौका मिला और मुझे शिक्षा विभाग में जिम्मेवारी सौंपी गयी थी। मैंने अपने क्षेत्र के विकास के लिए कई कार्य किये थे। अपने क्षेत्र के स्कूलों के विकास के लिए मैंने कई कार्य किये थे। जहाँ तक बात है 2017 के विधानसभा चुनावों की, तो मेरी ख्वाईश थी की मेरे पिता यहाँ से चुनाव लड़े और जीते और उसके बाद रिटायरमेंट ले ले, लेकिन 2017 का चुनाव हम नहीं जीत पाए। ज्वाली मेरे पिता की कर्मभूमि है और मैं चाहता हूँ कि वह यहाँ से विधायक बने और उसके बाद वह रिटायरमेंट ले। सवाल : हाल ही में कांग्रेस में परिवर्तन हुआ है। नए अध्यक्ष नियुक्त किए गए है और चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाए गए है। ऐसे में यदि इस बार कांग्रेस की सरकार बन कर आती है तो मुख्यमंत्री कौन होगा। इस बारे में आप अपनी निजी राय क्या रखते है ? जवाब : मुख्यमंत्री बनने के लिए सबसे पहले तो अपनी अपनी सीटें जितनी पड़ेगी और सरकार बनानी पड़ेगी। अगर आप अपनी सीटें जीत भी जाते हैं और दूसरों को हराने की कोशिश करते हैं और सरकार नहीं बना पाते हैं तो मुख्यमंत्री बनने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। स्वर्गीय वीरभद्र सिंह के जाने के बाद कांग्रेस पार्टी में एक बड़ा रिक्त स्थान आ गया है और उनके जैसा नेता हिमाचल को मिलना बहुत ही मुश्किल है। सभी लोग कोशिश कर रहे है कि वह मुख्यमंत्री बने और सरकार बनाएं, लेकिन सबसे पहली बात यह है कि यदि जीतेंगे तभी सरकार बना पाएंगे। सबसे पहले अपनी सीटें जितनी होगी और उसके साथ साथ दूसरों की सीटें जितवानी होगी, तभी सरकार बनाएंगे। फिलहाल नाम तो मैं नहीं ले सकता क्योंकि जितने भी लोग इस दौड़ में है, सभी माननीय सम्मानीय है और सभी लोग योग्य भी है, लेकिन इसके बारे में आने वाला वक्त ही फैसला करेगा। सवाल : कांग्रेस को एक छोटे से राज्य में 4 कार्यकारी अध्यक्ष बनाने पड़े है। कांगड़ा जिला से भी पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया है। आपको क्या लगता है कि यह फार्मूला कितना सही साबित हो सकता है ? जवाब : ऐसा फार्मूला तब बनाया जाता है जब कोई भाग रहा हो और उस पर बेड़ियाँ डालनी हो। ऐसी किसी पोस्ट से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता है, क्योंकि आखिर में फैसले तो अध्यक्ष ही करता है। आज कल तो वैसे भी पार्टियों को छोड़ने का रिवाज़ सा ही चल पड़ा है। इतने लोग कपड़े नहीं बदलते है जितनी लोग आज कल पार्टियां बदल रहे है। मैं बस यही कहना चाहूंगा कि जिन्हें भी पार्टी द्वारा कार्यकारी अध्यक्ष या अन्य जिम्मेवारियां दी गयी है, वह इसे अच्छे से निभाएं और अच्छा कार्य करें। मैं बस आलाकमान से एक आग्रह करना चाहूंगा कि पुराने लोगो को नज़रअंदाज़ न किया जाएं और उनके साथ विश्वासघात न किया जाएं। पुराने लोगों ने अपनी पूरी जवानी, अपनी पूरी उम्र पार्टी को बनाने में लगाई है और पार्टी के साथ स्तम्भ की तरह खड़े रहे है। आप पंजाब का ही हाल देख लीजिए, सुनील जाखड़ बीते दिनों पार्टी छोड़ कर चले गए और अब वह भाजपा में शामिल हो गए है। इससे पहले कैप्टन अमरिंदर सिंह पार्टी छोड़ गए है और इनके जैसे कई नेता पार्टी को छोड़ कर जा चुके है। मैं बस चाहता हूँ कि पुराने लोगों को नज़रअंदाज़ न किया जाए और उन्हें तवज्जो दी जाए। पुराने लोगों ने ही पार्टी के लिए कार्य किया है और पार्टी के लिए हमेशा आगे खड़े रहे है। सवाल : क्या आप मानते है कि चूक वहां हो रही है जहाँ पुराने लोगों को मौका नहीं दिया जा रहा है ? जवाब : बिल्कुल मैं यह बात मानता हूं क्योंकि पुराने लोग पार्टी के स्तंभ है। पुराने लोग पार्टी को इतना आगे लेकर आए है। हालांकि यह कहना भी गलत नहीं होगा कि उन लोगों को भी पार्टी की वजह से ही सम्मान मिला है, लेकिन पार्टी भी उन्हीं लोगों की वजह से मजबूत हुई है। मैं कुछ दिन पहले सुन रहा था, राहुल गांधी बोल रहे थे कि हम अपनी विचारधारा की लड़ाई लड़ेंगे, लेकिन विचारधारा की लड़ाई तो आप तब लड़ेंगे जब आपके पास अपनी विचारधारा रहेगी। कांग्रेस पार्टी की विचारधारा भाजपा, जनसंघ और आरएसएस से बिल्कुल अलग है। वह लोग कट्टरपंथी है लेकिन कांग्रेस सब को एक साथ लेकर चलने वाली पार्टी है। लेकिन भाजपा, आरएसएस और जनसंघ के कट्टरपंथी लोग पार्टी में आएंगे तो विचारधारा को कैसे बचाएंगे। पार्टी में पुराने लोगों को पूछे बिना पार्टी के अंदर फैसले लिए जाएंगे, और ऐसे लोगों की बातों पर फैसले लिए जाएंगे जो आज यहाँ है और कल वहां है तो विचारधारा कैसे बचेगी। सवाल : आरोप लगाने के बावजूद भी आप कांग्रेस पार्टी में टिके है, ऐसा क्या लगाव है पार्टी के साथ ? जवाब : मेरे तो खून में कांग्रेस पार्टी है। मेरे पिताजी कांग्रेस विचारधारा, गांधीवादी विचारधारा के आदमी है। उस समय इस विधानसभा क्षेत्र का नाम गुलेर हुआ करता था और उस वक्त दूर-दूर के इलाकों के विधायक बनते थे। भाजपा के हो या कांग्रेस के हो ज्वाली से कोई भी विधायक नहीं बनता था। मेरे पिता सरकारी नौकरी में थे और हमारे इलाके की नज़रअंदाजगी को लेकर उन्होंने सरकारी नौकरी का त्याग कर दिया। वह कांग्रेस विचारधारा के थे लेकिन उन्हें टिकट नहीं मिली। इसके बाद उन्होंने 1977 में पहला चुनाव बतौर आजाद उम्मीदवार लड़ा और वह बहुत ही कम अंतर से चुनाव हार गए। इसके बाद जनता पार्टी के लोगों ने मेरे पिता को पार्टी में शामिल होने और टिकट देने की बात कही थी, लेकिन उन्होंने जनता दल का टिकट लेने से इंकार कर दिया था। उन्होंने कहा था कि मैं एक बार कांग्रेस पार्टी के टिकट के लिए फिर से कोशिश करूंगा यदि मुझे टिकट मिलती है तो मैं चुनाव लडूंगा, और यदि नहीं मिलती है तो मैं चुनाव नहीं लडूंगा। नौकरी से इस्तीफा देने के बाद वे शिमला के मशहूर कॉलेज सेंड बीट्स में बतौर जियोग्राफी के प्रोफेसर के रूप में नौकरी करने लगे। इसके बाद 1982 में उन्हें कांग्रेस का टिकट मिला और उन्होंने चुनाव लड़ा। तब से लेकर मेरे पिता कांग्रेस में है। मेरे खून में कांग्रेस है, हमने कांग्रेस पार्टी ही देखी है। यदि कांग्रेस पार्टी नज़रअंदाज़ करेगी तो, मैं भाजपा में या कहीं और नहीं जा सकता। मैं अपना विरोध दर्ज करता रहूंगा लेकिन कांग्रेस छोड़ किसी और पार्टी में नहीं जाऊंगा। अगर ज्यादा नज़रअंदाज किया जाता है तो पहला चुनाव भी पिता जी ने बतौर आज़ाद उमीदवार लड़ा था और अगला भी ऐसे ही लड़ लेंगे, लेकिन भाजपा या आम आदमी पार्टी में जाने का कोई मतलब नहीं बनता है। आम आदमी पार्टी ने तो वैसे भी ड्रामा बना के रखा है। उनसे दिल्ली अभी संभाली नहीं जा रही है |
नेरचौक अजय सूर्या नगर परिषद नेर चौक में गड़बड़ घोटाला,स्थानीय ठेकेदारों ने लगाया भाई भतीजावाद का आरोप नेर चौक नगर परिषद में रातोरात मनमर्जी से ही सुविधानुसार नियम बदले जा रहे है, जिसमे कुछ स्वयंभू नेता अपने खास लोगों को मनचाहा काम दिलवाने के लिए खूब मशक्कत कर रहे है। आलम ऐसा हो गया है कि अपनी सुविधा अनुसार इन टेंडरों का खेल कभी ऑनलाइन तो कभी ऑफ लाइन चल रहा है।हालात ऐसे हैं कि टेंडर आवेदन करने के अंतिम तारीख को कार्यालय का कोई अधिकारी आवेदन फार्म तक नहीं ले रहे और बेरोजगार ठेकेदारों को एक टेबल से दूसरे टेबल पर घुमाया जा रहा है।कल बुधवार को कुछ 10 कार्यों के आफ लाइन टेंडर फार्म खरीदने का अंतिम दिन था और कुछ स्थानीय ठेकेदार जो अखबार में टेंडर विज्ञापन पढ़कर आये थे, वो सभी दिनभर नेर चौक नगर परिषद कार्यालय में चक्कर लगाते रहे पर मज़ाल हो कि दफ्तर के किसी बाबू ने इनका आवेदन स्वीकार्य किया हो। आइये जानते है कि टेंडरों के गड़बड़ घोटाले का पूरा मामला आखिर है क्या ? गत 31 मार्च के टेंडर विज्ञापन के अनुसार कुल 28 टेंडर जिन सबकी अनुमानित लागत करीब एक करोड़ रुपये है , उनके ऑनलाइन टेंडरों के लिए 25 अप्रेल तक का समय दिया जाता है, परंतु सूत्रों के अनुसार ऑनलाइन टेंडर में भाई भतीजावाद को बढ़ावा नहीं दिया जा सकता था और पारदर्शी तरीके से कार्य करना ही पड़ता है , तो टेंडर आवेदन करने से एक दिन पहले ही गत 23 अप्रैल को यह सभी टेंडरों को रद्द करने के आदेश जारी कर दिए जाते हैं।उपरोक्त प्रक्रिया के कुछ दिन बाद कार्यालय और स्वयम्भू नेताओ की मिलीभगत से उपरोक्त 28 टेंडरों से 18 टेंडर ही ऑनलाइन आवेदन के लिए रखे जाते है और बाकी 10 गोल मोल करने के प्रयास शुरू कर दिए जाते है जिनकी अनुमानित लागत करीब 35 लाख रु है ताकि अपने कुछ खास लोगो को लाभ दिया जा सके। जिनके ऑफलाइन टेंडरों को 19 मई तक आवेदन के लिए रखा जाता है। जब कुछ ठेकेदार जिसमे गुलशन ठाकुर, सुनील, भीम।सिंह, वालिया, अभिषेक, आदि ने कल उपरोक्त कार्यो के टेंडर फार्म खरीदने के लिए आवेदन करने के लिए नप कार्यालय जाते है, तो उन्ही स्वंयभू नेताओ के इशारे पर कार्यालय में कोई भी अधिकारी या क्लर्क यह आवेदन लेने के लिए तैयार तक नहीं होता और तकनीकी अधिकारियों का बहाना बनाकर अपनी नौकरी को बचाने की कोशिश करता है।स्थानीय ठेकेदारों ने आरोप लगाए है कि नेर चौक नगर परिषद के कुछ पार्षद अपने परिजनों को काम दिलवाना चाहते है जहाँ से उनको मोटी कमीशन मिलती रहे और सूत्रों की माने तो कुछ काम तो ऐसे है जिनको स्वयम्भू नेतागण पहले से ही पूर्ण करवा चुके है और अब उनके टेंडर की कागज़ी प्रक्रिया काम पूरा होने के बाद में लगाई जा रही है, जो कि बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का प्रयास किया जा रहा। आम आदमी पार्टी ने नेता एवं पूर्व पार्षद रजनीश सोनी ने भाजपा के नेतृत्व में नेर चौक नप कार्यालय में चल रहे गड़बड़ घोटाले की निष्पक्ष जांच के लिए विजिलेंस में शिकायत दर्ज करवाई है और विजिलेंस अधिकारियों से निवेदन किया है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि कौन कौन से ऐसे काम है जो पहले से बिना टेंडर प्रक्रिया के पूर्ण किये जा रहे थे तथा ऐसे जुड़े भृष्ट ठेकेदारों को तुरतं प्रभाव से ब्लैकलिस्ट किया जाए और जो जनप्रतिनिधियों ने यह भ्रस्टाचार फैलाया है उनको उनके पदों से बर्खास्त किया जाए।
राज सोनी। फर्स्ट वर्डिक्ट करसोग की जनता के लिए पार्टी का चिन्ह बाद में, अपनी पसंद पहले आती है। बीते 12 विधानसभा चुनाव के नतीजों पर नज़र डाले तो यहाँ तीन बार निर्दलीय उम्मीदवार जीते है। भाजपा के गठन से पहले यहाँ 1977 में जनता पार्टी जीती, तो 1998 में पंडित सुखराम की हिमाचल विकास कांग्रेस को भी करसोग का प्यार मिला। वर्तमान में यहाँ भाजपा का कब्ज़ा है और कांग्रेस भी मैदान में डटी दिख रही है। यक़ीनन यहाँ आगामी चुनाव बेहद रोचक होने वाला है। पहले बात कांग्रेस की करें तो पार्टी के लिए सबसे बड़ी चुनौती अंतर्कलह को साधना है। क्षेत्र में मनसा राम के बेटे महेश राज अभी से टिकट की कतार में है तो दूसरी ओर पूर्व में दो बार विधायक रहे मस्त राम तथा काफी समय से कांग्रेस पार्टी में कार्य कर रहे जगत राम, अधिवक्ता रमेश कुमार, निर्मला चौहान, हिरदाराम तथा उत्तम चंद चौहान भी ग्राउंड में डटे हुए है। अतीत में झांके तो 1993 व 2003 में कांग्रेस ने मस्त राम को मैदान में उतारा था, और दोनों बार मस्त राम ने करसोग सीट कांग्रेस की झोली में डाली। 2017 के चुनाव में मस्त राम पार्टी से टिकट की मांग कर रहे थे लेकिन तब कांग्रेस ने मनसा राम को मैदान में उतारा। टिकट बंटवारे को लेकर मस्त राम ने कांग्रेस पार्टी से नाता तोड़ा और निर्दलीय मैदान में उतरे। इसका लाभ भाजपा को हुआ और ये सीट भाजपा की झोली में गई। उधर, भाजपा की बात करें तो वर्तमान में हीरा लाल विधायक है। वर्ष 2007 में उन्होंने ही मनसा राम के विजयरथ पर लगाम लगाई थी, लेकिन जनता ने अगले चुनाव में फिर से मनसा राम को कमान सौंप दी। 2017 में भाजपा ने हीरा लाल को दोबारा से मौका दिया था और तब कांग्रेस की बगावत के चलते वे जीत दर्ज करने में कामयाब रहे। मनसा राम का रहा है दबदबा करसोग की सियासत में मनसा राम का दबदबा रहा है। मनसा राम कुल 9 बार चुनावी संग्राम में उतरे और पांच बार करसोग से विधायक बने जिसमें 4 बार कैबिनेट मंत्री तथा एक बार सीपीएस रहे। पिछले कई चुनावों के नतीजों पर नज़र डाले तो इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि करसोग की जनता ने पार्टी चिन्ह के बिना भी मनसा राम पर अपना प्यार बरसाया है। 1967 में मनसा राम ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीता भी। दूसरी बार 1972 में कांग्रेस के टिकट से चुनाव लड़े और जीते लेकिन 1977 में उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। मनसा राम ने 1982 में फिर निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। इसके बाद 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस और 2012 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़कर मनसा राम इस क्षेत्र से विधायक बने। अब उनके पुत्र भी कांग्रेस से टिकट मांग रहे है। अब आने वाले विधानसभा चुनावों में देखना यह होगा की जनता किसको चुनेगी और किसके भाग्य का सितारा चमकेगा।
अरविंद शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट शाहपुर विधान सभा क्षेत्र, नाम इतना शाही है कि जुबाँ पर आते ही इसके शाही होने का आभास होता है! सियासत में शाहपुर के हिस्से जो शाही नाम आते हैं वह भी काफ़ी शाही रसूख़ रखते हैं, कांग्रेस से पहले एक नाम ‘चलता’ था मेजर विजय सिंह मनकोटिया तो भाजपा की तरफ़ से सरवीन चौधरी का नाम सामने आता है, मेजर का पॉलिटिकल करेक्टर ऐसा रहा है कि जनता दल के बाद जब उनका नाम बहुजन समाज पार्टी की कसौटी पर कसा था तो जनता को इसमें खोट ही नज़र आया बस कांग्रेस के टिकट की कसौटी पर मेजर खरा सोना साबित हुए थे, कांग्रेस छोड़ने के बाद जब भी मेजर ने कोई पारी खेली तो वह सरवीन की तेज़ गेंदों पर अपनी विकेट को उखड़ते देखने पर मजबूर हो गए, यहाँ इन दोनो के बाद तीसरा नाम आता है कांग्रेस के केवल पठानिया का, मेजर के कांग्रेस से बाहर होने के बाद केवल कांग्रेस के ‘हाथ’ पर भाग्य आज़माते हुए बीते नौ वर्षों से अपनी ही क़िस्मत से लड़ रहे हैं, सियासी तौर पर अगर शाहपुर की कुर्सी के ग्रह-गोचर देखे जाएँ तो यूँ कहना ग़लत ना होगा कि मेजर मनकोटिया -केवल पठानिया दोनो एक दूसरे की सियासी कुंडलियों में साढ़सत्ती लिए बैठे हैं जो कि हर बार पिछले कई वर्षों से सरवीन के लिए शाहपुर के सिहाँसन का योग बनाते आए है। हर बार एक दूसरे के लिए धूमकेतु सिद्ध होते आए मेजर और केवल सरवीन के लिए कुर्सी -सेतु साबित हुए हैं, इस फेर में केवल एक बार अपनी ज़मानत ज़ब्त करवा बैठे तो फिर दोबारा हार के हार पहनने को मजबूर हो गए, अगर सियासतन शाहपुर की फ़िज़ाओं की स्वरलहरियों की बात की जाए तो सरवीन के सुरमई सियासी संगीत की बीण पर कांग्रेस के हालात साँप की तरह नाचते नज़र आए हैं और जिनकी फुँकार ने कांग्रेस को ही फूँका है ! मेजर शांत नहीं हुए और केवल से भिड़ते रहे नतीजा यह हुआ ना मेजर ख़ुद जीत पाए ना केवल को जीतने दिया, एक बार मेजर जब बसपा की टिकेट पर धर्मशाला भी शिफ़्ट हुए तो अपनी जगह अपने अनन्य भक्त ओंकार राणा को केवल के सामने छोड़ गए, मेजर ख़ुद तो धर्मशाला से हार गए मगर शाहपुर में ओंकार राणा दूसरे नम्बर पर रहे! शाहपुर में कांग्रेस मत-भिक्षुओं के रोल में जितनी ख़ाली कटोरा लेकर घूमती है, भाजपा अकेले अपने कटोरे को शाहपुर में भारी रूप से भरने में कामयाब रहती है, अगर सामान्य लहजे में कहें तो शाहपुर में कांग्रेस की साँझी हार में भाजपा अपनी अकेली जीत सुनिशिच्त करती आ रही है जबकि यह भी हक़ीक़त है की इतने बड़े-बड़े नामों के बावजूद शाहपुर का वजूद बहुत छोटा बन के रह जाता है, विकास के नाम पर शाहपुर को वही मिलता आ रहा है जो साथ लगते विधान सभा क्षेत्रों से बचा-खुचा रह जाता है, शाहपुर के रहनुमाओं के बिना किसी संघर्ष के चलते किराए की कोख में पल रहे कुपोषित केंद्रीय विश्वविद्यालय के अस्थाई कैंपस जिसे ना जाने कब कौन छीन ले जाए के अलावा शाहपुर की झोली में कोई सौग़ात नहीं नज़र आती , सड़कों के नाम पर जर्जर रास्तों से रोज़ गुज़रने वाले बोह -दरिणी -कनोल -सल्ली -नोहली -करेरी-घेरा -चमियारा के बाशिंदे अभी तक सही सड़कों जैसी मूलभूत सुविधाओं से जूझ रहे हैं ! ज़्यादा चर्चा में ना जाया जाए तो वर्षों से तीन की तिकड़ी के तिकड़मों में पिसती और मूलभूत सुविधाओं तक से वंचित शाहपुर की जनता इस बार आने वाले चुनावों में क्या हेर-फेर करती है ! ख़ैर ये तो आने वाला वक़्त ही बताएगा ! लेकिन इस बार मेजर और केवल का हाथ बँटाते हुए आम आदमी पार्टी भी कहीं सरवीन के सियासी हालात फिर से बेहतरीन ना कर दे !
सुनैना कश्यप. फर्स्ट वर्डिक्ट रतन पाल, तेजवंत नेगी, बलदेव शर्मा, बलदेव ठाकुर जैसे नेताओं की डगर होगी मुश्किल पार्टी विद डिफरेंस भाजपा मिशन रिपीट के लिए कोई रिस्क नहीं लेना चाहती। संगठन, संसाधन और संतुलन के साथ -साथ पार्टी ये भी सुनिश्चित करना चाहती है कि उपचुनाव की तर्ज पर विधानसभा चुनाव में कोई रणनीतिक चूक न हो। ऐसे में माना जा रहा है कि आगामी चुनाव में पार्टी कई निर्वाचन क्षेत्रों में चेहरे बदलने वाली है। इसके लिए बाकायदा ग्राउंड फीडबैक लिया जाएगा, जिसका आधार न सिर्फ इंटरनल सर्वे होगा बल्कि बाहरी एजेंसियों से भी सर्वे करवाया जा सकता है। वहीँ लगातार दो या अधिक चुनाव हारने वाले नेताओं के टिकट भी आगामी विधानसभा चुनाव में कटना तय माना जा रहा है। प्रदेश में ऐसे 6 निर्वाचन क्षेत्र है जहाँ पार्टी टिकट पर एक ही उम्मीदवार लगातार दो चुनाव हार चूका है। इनमें अर्की से रतन सिंह पाल, बड़सर से बलदेव शर्मा, हरोली से प्रो राम कुमार, रामपुर से प्रेम सिंह धरैक और किन्नौर से तेजवंत नेगी लगातार दो चुनाव हार चुके है। वहीँ ठियोग से पार्टी सिंबल पर दो चुनाव हारने वाले राकेश वर्मा का स्वर्गवास हो चूका है। अर्की से रत्न सिंह पाल 2017 का विधानसभा चुनाव और 2021 में हुआ उपचुनाव हार चुके है तो अन्य सभी नेता 2012 व 2017 का विधानसभा चुनाव हार चुके है। फतेहपुर निर्वाचन क्षेत्र से बलदेव ठाकुर भी लगातार तीन चुनाव हार चुके है, किन्तु 2017 में वे बतौर निर्दलीय उम्मीदवार चुनाव हारे थे जबकि 2012 और 2021 का उपचुनाव पार्टी सिंबल पर हारे है। जाहिर है इन सभी उम्मीदवारों का दावा टिकट के लिए कमजोर जरूर हुआ है। हालांकि स्थिति -परिस्थिति के लिहाज से इनमें से एकाध अपवाद जरूर हो सकते है। क्षेत्रवार बात करें तो रामपुर और हरोली में भाजपा की बनिस्पत कांग्रेस बेहद मजबूत है, इस बार से इंकार नहीं किया जा सकता। इन दोनों सीटों पर टिकट बदले या न बदले, नतीजा बदलना बेहद मुश्किल है। वहीँ ठियोग में भी कांग्रेस - सीपीआईएम का मैच अगर फिक्स सा होता है तो भाजपा के लिए उम्मीद कम ही होगी। सही मायनों में अगर त्रिकोणीय मुकाबला हुआ तो ही भाजपा इस सीट पर बेहतर कर पायेगी। पर अन्य चार सीटें ऐसी है जहाँ भाजपा दमखम से लड़े और कोई रणनीतिक चुन न हो तो जीत की सम्भावना भी प्रबल होगी। बड़सर में भी दो चुनाव हारने के बाद बलदेव शर्मा की राह मुश्किल हो सकती है। हालांकि यहां बलदेव में समकक्ष कोई अन्य चेहरा अब भी नहीं दिखता। बलदेव के पक्ष में एक बात और जा सकती है, 2012 में जहाँ वे करीब ढाई हज़ार के अंतर से हारे थे तो 2017 में ये अंतर करीब 400 वोट का था। पर एक खेमा चाहता है कि इस बार यहाँ से पार्टी नए चेहरे को मौका दें। अर्की की बात करें तो रतन सिंह पाल के अतिरिक्त पूर्व विधायक गोविंद राम शर्मा भी दावेदारों की फेहरिस्त में है। यहाँ पार्टी किसी नए उम्मीदवार को भी मैदान में उतार सकती है। बीते दिनों ही पार्टी ने प्रतिभा कंवर को प्रदेश भाजपा महिला मोर्चा का प्रवक्ता नियुक्त किया है। प्रतिभा भी सक्रीय है और टिकट की दावेदार है। वहीँ एक अन्य पत्रकार का नाम भी टिकट की रेस में है, जिनकी क्षेत्र में अच्छी पकड़ है। वहीँ फतेहपुर में जानकार मान कर चल रहे है की इस बार फिर पार्टी कृपाल परमार को मौका दे सकती है। लगातार तीन चुनाव हार चुके बलदेव को एक और मौका मिलना मुश्किल है। वहीँ जनजातीय जिला किन्नौर में ठाकुर सेन नेगी के बाद तेजवंत नेगी ही भाजपा का चेहरा रहे है। पर पिछले दो चुनाव हार चुके तेजवंत की राह इस बार मुश्किल होगी। बीते कुछ वक्त में पार्टी में सूरत नेगी के बढ़ते कद ने तेजवंत का तेज जरूर कुछ कम किया है। टिकट के लिए भी सूरत का दावा मजबूत है। यहाँ भाजपा के लिए उम्मीदवार का चयन बड़ी चुनौती है।
फर्स्ट वर्डिक्ट. मंडी हिमाचल की सियासत के चाणक्य पूर्व केंद्रीय संचार मंत्री पंडित सुखराम अब नहीं रहे। हिमाचल प्रदेश उनके जाने से गमगीन है। पंडित सुखराम का इस दुनिया से रुक्सत होना हिमाचल के सियासत के एक अध्याय का खत्म होना है। पंडित जी सिर्फ सियासत के चाणक्य ही नहीं बल्कि किंग मेकर भी कहलाए जाते थे। वो पंडित सुखराम ही थे जिनकी बदौलत 1998 में वीरभद्र दूसरी बार सरकार रिपीट करने में असफल हुए और प्रो प्रेम कुमार धूमल पहली बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने। पंडित सुखराम प्रदेश के वो एकमात्र नेता थे जिन्होंने अपने दम पर प्रदेश में तीसरी पार्टी बनाकर भाजपा और कांग्रेस जैसे बड़े राजनैतिक दलों को दिन में तारे दिखाए। बतौर केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने जो काम हिमाचल के विकास या खास तौर पर मंडी के लिए किये, उन्हें भुलाया नहीं जा सकता।पंडित सुखराम का जन्म 27 जुलाई 1927 को हिमाचल के कोटली गांव में रहने वाले एक गरीब परिवार में हुआ था। पंडित जी ने दिल्ली लॉ स्कूल से वकालत की और फिर अपने करियर की शुरूआत बतौर सरकारी कर्मचारी की। उन्होंने 1953 में नगर पालिका मंडी में बतौर सचिव अपनी सेवाएं दी। इसके बाद 1962 में मंडी सदर से निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीते। 1967 में इन्हें कांग्रेस पार्टी का टिकट मिला और फिर से चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे। इसके बाद पंडित सुखराम ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। पंडित सुखराम के परिवार ने मंडी सदर विधानसभा क्षेत्र से 13 बार चुनाव लड़ा और हर बार जीत हासिल की। केंद्र की सियासत में भी था रसूख : केंद्र की सियासत में भी पंडित सुखराम बड़ा नाम थे। सांसद रहते उन्होंने केंद्र में विभिन्न मंत्रालयों का कार्यभार संभाल। 1984 में सुखराम ने कांग्रेस पार्टी के टिकट पर पहला लोकसभा चुनाव लड़ा और प्रचंड जीत के साथ संसद पहुंचे। 1989 के लोकसभा चुनावों में उन्हें भाजपा के महेश्वर सिंह से हार का सामना करना पड़ा। 1991 के लोकसभा चुनावों में सुखराम ने महेश्वर सिंह को हराकर फिर से संसद में कदम रखा। 1996 में सुखराम फिर से चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंचे। उन्होंने खाद्य, नागरिक आपूर्ति एवं उपभोक्ता मामले राज्य मंत्री के रूप में कार्य किया। सुखराम पीवी नरसिम्हा राव की सरकार में टेलीकॉम मिनिस्टर भी रहे। उन्हें भारत में संचार क्रांति का जनक भी कहा जाता है। वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट पर फेरा था पानी : 1998 के विधानसभा चुनाव में पंडित सुखराम ने कांग्रेस से अलग होकर हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई जिसने वीरभद्र सिंह के मिशन रिपीट के अरमान पर पानी फेर दिया था। पंडित सुखराम के पांच विधायक जीतकर आये थे। भाजपा और कांग्रेस को 31-31 सीटें मिली, लेकिन सुखराम की हिविकां ने प्रो धूमल को समर्थन देकर वीरभद्र के नेतृत्व वाली कांग्रेस को सरकार बनाने से रोक दिया। तब कांटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इनमें से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी और तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस से सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था, लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। 2017 में दिया कांग्रेस को झटका : पंडित सुखराम ने 2003 में अपना आखिरी विधानसभा का चुनाव लड़ा और फिर 2007 में सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लिया। 2012 में उनके बेटे अनिल शर्मा ने सदर से चुनाव लड़ा और सरकार में मंत्री बने। इसके बाद से सुखराम परिवार वर्ष 2017 तक कांग्रेस में रहा। पर पंडित जी चुनाव से पूर्व सपरिवार भाजपा में शामिल हो गए। माना जाता है कि उनके इस सियासी पैंतरे ने ऐसी हवा बिगाड़ी कि कांग्रेस का जिला मंडी में खाता भी नहीं खुला। 2019 में हुई कांग्रेस में वापसी : पंडित सुखराम का अपने पोते आश्रय शर्मा को सियासत में स्थापित होते देखना चाहते थे। कई मौकों पर खुद पंडितजी ने इसका जिक्र भी किया। पोते को सांसद बनाने की चाहत में ही पंडित जी 2019 में वापस कांग्रेस में आएं। आश्रय को टिकट भी मिला लेकिन जीत नहीं मिल सकी। बहरहाल पंडित जी दुनिया से रुक्सत कर चुके है। पंडित सुखराम ने एक लम्बी उम्र काटी, सत्ता सुख भोगा, विवादों में भी रहे, पर 95 साल की उम्र तक भी उनका सियासी रसूख ऐसा था कि उन्हें हल्के में लेने की भूल कोई नहीं कर सकता था। इसलिए पंडित सुखराम हिमाचल की सियासत के चाणक्य कहलाएं। मंडी तो पंडित सुखराम की ही थी ! 'मंडी हमारी है और हमारी ही रहेगी ' सियासत में अक्सर नेता इस तरह के बयान देते है। मंडी को लेकर तरह -तरह के दावे होते है। पर अगर कोई ऐसा है जिसे सही मायने में मंडी ने बाहें फैलाकर स्वीकार किया तो वो थे पंडित सुखराम। कुल 13 मर्तबा मंडी सदर हलके से पंडित जी या उनके पुत्र अनिल शर्मा विधायक बने, पार्टी चाहे कोई भी रही हो। पंडित जी सियासत में किसी भी मुकाम पर रहे हो, किसी भी ओहदे पर रहे हो लेकिन उन्होंने मंडी का विशेष ख्याल रखा। आज भी मंडी के सेरी मंच पर जाकर पता लगता है कि किसी सोच के साथ उस शहर को विकसित किया गया है, वो भी उस दौर में। इसीलिए मंडी के लोग पंडित जी को विकास का मसीहा मानते है। कोई किसी भी राजनैतिक विचारधारा का क्यों न हो, दबी जुबान में ही सही लेकिन ये जरूर स्वीकार करता है कि मंडी के विकास में पंडित सुखराम का योगदान अमिट है। नब्बे के दशक में पंडित सुखराम केंद्र में दूरसंचार मंत्री थे और उस दौर में बड़े शहरों में भी टेलीफोन का कनेक्शन लेने के लिए महीनों -सालों इंतजार करना पड़ता था। पर पंडित जी के राज में मंडी में टेलीफोन की घंटी खूब बजी। जिसने चाहा उसे कनेक्शन मिला, मंडी वालों के लिए विभाग का सिर्फ एक ही नियम था,वो था जल्द से जल्द कनेक्शन देना। केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी पंडित सुखराम लोगों की पहुंच में थे, बिल्कुल सरल और जमीन से जुड़े हुए। छोटी -छोटी समस्याएं लेकर भी लोग पंडित जी के पास पहुंच जाते और हर छोटी समस्या को भी पंडित सुखराम पूरी तल्लीनता से सुनते और हरसंभव हल करते। सिंबल कोई भी रहा पर मंडी वालों ने दिया साथ : इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला। और मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए पंडित सुखराम सर्वविदित है कि पूर्व केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम की तमन्ना थी कि वे बतौर मुख्यमंत्री हिमाचल प्रदेश की भागदौड़ संभाले। पर वीरभद्र सिंह के होते ऐसा हो न सका। कई ऐसे मौके आए जब पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। पहला मौका आया साल 1983 में। तत्कालीन मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल का नाम टिम्बर घोटाले में आया तो पार्टी आलाकमान ने उनसे इस्तीफा ले लिया। नए मुख्यमंत्री के नाम को लेकर कयास लग रहे थे और इनमें से एक प्रमुख नाम था पंडित सुखराम का जो ठाकुर रामलाल की कैबिनेट में मंत्री भी थे। पर इंदिरा गांधी का आशीर्वाद मिला वीरभद्र सिंह को जो उस वक्त केंद्र में सियासत कर रहे थे। इस तरह वीरभद्र सिंह पहली बार मुख्यमंत्री बने और पंडित सुखराम मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए1990 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का सूपड़ा साफ़ होने के बाद वीरभद्र सिंह के नेतृत्व को लेकर सवाल उठ रहे थे। 1993 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने शानदार जीत हासिल की लेकिन मुख्यमंत्री पद को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं थी। कहते ही तब 20 से अधिक विधायक पंडित सुखराम के पक्ष में थे लेकिन जिला मंडी के ही कुछ नेता उनकी राह का रोड़ा बने और तीसरी बार वीरभद्र सिंह मुख्यमंत्री बने। इस तरह दूसरी बार पंडित जी मुख्यमंत्री बनते -बनते रह गए। वीरभद्र के मिशन रिपीट पर फेरा पानी 1998 के विधानसभा चुनाव से पहले पंडित सुखराम ने अपनी अलग पार्टी बना ली थी, नाम था हिमाचल विकास कांग्रेस। विधानसभा चुनाव में पंडित जी पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरे लेकिन उनके खाते में पांच सीटें ही आई। ऐसे में पंडित जी का मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पूरा नहीं हुआ लेकिन जिस कदर उन्होंने कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाई जिससे वीरभद्र सिंह भी मुख्यमंत्री नहीं बन सके। पंडित जी ने भाजपा के साथ गठबंधन सरकार बनाई और ये पहला मौका था जब कोई गठबंधन सरकार पांच साल चली भी। इसके बाद ही उन्हें हिमाचल की सियासत का चाणक्य कहा जाने लगा। वो स्कैंडल जिसने बदल कर रख दी पंडित सुखराम की सियासत तारिख थी 8 अगस्त 1996 । पंडित सुखराम का नाम टेलीकॉम घोटाले में सामने आया था। सीबीआई ने सुखराम, रुनु घोष और हैदराबाद स्थित एडवांस रेडियो फॉर्म कंपनी के मालिक पर केस दर्ज कर लिया था। 16 अगस्त को सीबीआई की एक टीम उनके दिल्ली के सफदरजंग स्थित आवास पर पहुंची और छापेमारी की। 80 के दशक में बोफोर्स घोटाले की वजह सत्ता खोने वाली कांग्रेस 90 के दशक में संचार घोटाले की वजह से फिर विवादों से घिर गई। नरसिम्हा राव सरकार में सुखराम के संचार मंत्री रहते हुए ये घोटाला हुआ। इस घोटाले ने न सिर्फ कांग्रेस की सरकार को हिला दिया बल्कि पंडित सुखराम को मंत्री और कांग्रेस पार्टी का साथ दोनों ही खोने पड़े। ये घोटाला पंडित सुखराम के जीवन का एक महत्वपूर्ण अध्याय बनकर रह गया। इस 5 करोड़ 91 लाख के घोटाले की वजह से विपक्षी भाजपा ने तब 1996 में 10 दिनों तक संसद नहीं चलने दी थी। उस वक्त पंडित सुखराम के घर से 2.45 करोड़ रुपये बरामद हुए थे। इसके अलावा सीबीआई की एक टीम ने सुखराम के हिमाचल के मंडी स्थित बंगले पर भी छापेमारी की थी। टीम को वहां से 1.16 करोड़ रुपये मिले थे। पैसे दो संदूकों और 22 सूटकेस में रखे थे, जिनमें से अधिकांश सूटकेस पूजा वाले घर में रखे हुए थे।सीबीआई की जांच में पता चला था कि केंद्रीय मंत्री पंडित सुखराम ने पद का इस्तेमाल करते हुए हैदराबाद की एक निजी फर्म को ठेका दिया और बदले में तीन लाख रुपये की रिश्वत ली। सुनवाई के दौरान सुखराम ने अदालत में दलील दी कि उनके आवास से बरामद रुपए कांग्रेस पार्टी के हैं। उन्होंने दावा किया कि ये पैसा जम्मू-कश्मीर में होने वाले विधानसभा चुनाव में पार्टी फंड के रूप में इस्तेमाल करने के लिए भेजा गया। हालांकि तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी ने सीबीआइ की पूछताछ में बरामद राशि के पार्टी फंड होने से इनकार कर दिया था ।
रविवार को हमीरपुर के टाउन हॉल में जिला भाजपा द्वारा रखे गए स्वागत कार्यक्रम में राज्यसभा के नवनियुक्त सांसद डॉक्टर सिकंदर कुमार का भव्य स्वागत किया गया। भाजपा अनुसूचित जाति मोर्चा की जिला इकाई द्वारा इस कार्यक्रम को सफल बनाने में प्रमुख भूमिका निभाई गई। कार्यक्रम में पहुंचने पर विशेष रूप से भाजपा जिला अध्यक्ष एवं पूर्व विधायक बलदेव शर्मा विधायक नरेंद्र ठाकुर एवं कमलेश कुमारी सहित एचआरटीसी के वाइस चेयरमैन विजय अग्निहोत्री कामगार कल्याण बोर्ड के चेयरमैन राकेश बबली बाल विकास आयोग की चेयरमैन वंदना योगी कांगड़ा ग्रामीण सोसाइटी बैंक के चेयरमैन कमलनयन कौशल विकास निगम के चेयरमैन नवीन शर्मा ने डॉक्टर सिकंदर का पुष्प गुच्छ देकर स्वागत अभिनंदन किया। इस मौके पर मौजूद सैकड़ों पार्टी कार्यकर्ताओं ने हार पहनाकर डॉक्टर सिकंदर का स्वागत किया। स्वागत कार्यक्रम के दौरान विभिन्न सामाजिक संगठनों पार्टी पदाधिकारियों कार्यकर्ताओं व मोर्चों के अध्यक्षों सहित पंचायत व अन्य प्रतिनिधियों ने डॉक्टर सिकंदर का स्वागत अभिनंदन किया। सम्मानित करने वालों में जिला अनुसूचित जाति मोर्चा की टीम पांचों मंडलों के अनुसूचित जाति मोर्चा के मंडल अध्यक्ष व उनकी टीम अनुसूचित जाति मोर्चा के जिला अध्यक्ष मदनलाल मंडल हमीरपुर के अध्यक्ष जोगिन्दर कौंडल नादौन मंडल के अध्यक्ष प्रकाश भोरंज मंडल के अध्यक्ष विजय कुमार बड़सर मंडल के अध्यक्ष राम रतन ग्राम पंचायत भदोही की प्रधान एवं भाजपा जिला उपाध्यक्ष उषा बिरला रीना देवी ब्लॉक समिति अध्यक्ष औद्योगिक प्रकोष्ठ के जिला अध्यक्ष कमलेश परमार प्यारे लाल शर्मा रसील सिंह मनकोटिया इत्यादि सहित हमीरपुर शहर के कई वरिष्ठ एवं प्रबुद्ध जनों ने डॉक्टर सिकंदर को सम्मानित किया। इसके साथ साथ ही कामगार कल्याण बोर्ड के चेयरमैन राकेश बबली कौशल विकास निगम के चेयरमैन नवीन शर्मा ने भी डॉक्टर सिकंदर कुमार को समृति चिन्ह देकर सम्मानित किया। इस अवसर पर हमीरपुर जिला के सह प्रभारी एवं भाजपा प्रदेश सह मीडिया प्रभारी सुमित शर्मा भाजपा प्रदेश सचिव तिलक राज प्रदेश कार्यसमिति सदस्य रघुवीर सिंह ठाकुर अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रदेश महामंत्री कबीर कुमार जिला महामंत्री हरीश शर्मा अभय वीर सिंह लवली बीना शर्मा राजकुमार वर्मा आदर्श कांत तेज प्रकाश चोपड़ा रमेश शर्मा देशराज शर्मा अंकुश दत्त शर्मा विकास शर्मा अजय रिंटू चमन ठाकुर अशोक ठाकुर अजय शर्मा संजीव शर्मा सुरेश सोनी गजन राम शर्मा जोगिंदर कुमार सुरेंद्र मिन्हास सुरेश ठाकुर अनिल कौशल कमलेश सिंह विक्रम ठाकुर प्रेम सिंह वर्मा कविता ठाकुर सीमा देवी मीना ठाकुर प्रमिला कुमारी सुनील कपिल सुमन कपिल अमन गुप्ता विनय कुमार संदीप भारद्वाज मनोज मन्हास नितिन पटियाल विशाल पठानिया जगदीश ठाकुर अनिल परमार कुलदीप ठाकुर हरदयाल सिंह पवन शर्मा अनिल शर्मा कैप्टन रंजीत सिंह बृजेश धटवालिया सुभाष बनयाल बिक्रम बिहार रमणीक परमार इत्यादि सहित अन्य लोग उपस्थित रहे ।
उदयपुर में चल रहे कांग्रेस के चिंतन शिविर के दौरान पार्टी द्वारा समाजिक न्याय और आधिकारिता मामलो के लिए एक कमेटी का गठन किया गया है। इस कमेटी में देश भर के कई बड़े नेता शामिल किये गए है। हिमाचल प्रदेश से कांग्रेस के दिग्गज नेता डॉ कर्नल धनि राम शांडिल को भी इस कमेटी में शामिल किया गया है। बता दें कि कर्नल धनीराम शांडिल वो वरिष्ठ नेता है जो नेतृत्व करने की काबिलियत रखते है। शांडिल दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद रहे है, कांग्रेस वर्किंग कमेटी के सदस्य रहे है और वर्तमान में दूसरी दफा सोलन निर्वाचन क्षेत्र से विधायक है। वे गांधी परिवार की गुड बुक्स में है, पर उनकी असल ताकत उनका बेदाग़ राजनैतिक करियर है। एक बात और कर्नल शांडिल के पक्ष में जाती है, वो है उनकी गुटबाजी से दुरी। प्रदेश कांग्रेस में कई धड़े है और शांडिल किसी भी गुट में शामिल नहीं है। कर्नल शांडिल हिमाचल प्रदेश के पहले ऐसे नेता रहे है जिन्हें कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल किया गया था। बीते दिनों ही शांडिल को पार्टी आलाकमान ने चुनाव मेनिफेस्टो तैयार करने का अहम जिम्मा भी सौंपा है। अब उन्हें पार्टी द्वारा गठित समाजिक न्याय और आधिकारिता मामलों की कमिटी में भी स्थान मिला है।
मोदी सरकार केंद्र में आठ वर्ष पुरे करने जा रही हैं। इस उपलक्ष पर भाजपा का राष्ट्रीय कार्यक्रम का आयोजन हिमाचल की राजधानी शिमला में आयोजित होने जा रहा हैं । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित सभी केंद्रीय मंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता कार्यक्रम में शिरकत करने शिमला आएंगे। राजधानी शिमला के ऐतिहासिक रिज मैदान में 31 मई को इसका आयोजन होगा। विधानसभा चुनावों की नजदीकी को देखते हुए भाजपा प्रधानमंत्री मोदी के सहारे मिशन रिपीट की ओर एक कदम आगे बढ़ने जा रही हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम की मंजूरी मिलते ही प्रदेश सरकार तैयारियों में जुट गई है। इसी कड़ी में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लगातार प्रदेश में दौरे हो रहे हैं। केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर भी प्रदेश में सक्रिय हो गए हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम में शामिल होने के लिए केंद्रीय मंत्रियों सहित भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री और पार्टी के बड़े पदाधिकारी शिमला आएंगे। हिमाचल प्रदेश को पहली बार इस तरह के राष्ट्रीय कार्यक्रम की मेजबानी करने का मौका मिल रहा है। केंद्र सरकार से कार्यक्रम की मंजूरी मिलते ही शुक्रवार को राज्य सचिवालय में मुख्य सचिव रामसुभग सिंह की अध्यक्षता में बैठकों का दौर जारी रहा।
मंडी हमारी है, मंडी फलाने की है, सियासत में अक्सर नेता इस तरह के बयान देते है। मंडी को लेकर तरह -तरह के दावे होते है। पर अगर कोई ऐसा है जिसे सही मायने में मंडी ने बाहें फैलाकर स्वीकार किया तो वो थे पंडित सुखराम। कुल 13 मर्तबा मंडी सदर हलके से पंडित जी या उनके पुत्र अनिल शर्मा विधायक बने, पार्टी चाहे कोई भी रही हो। पंडित जी सियासत में किसी भी मुकाम पर रहे हो, किसी भी ओहदे पर रहे हो लेकिन उन्होंने मंडी का विशेष ख्याल रखा। आज भी मंडी के सेरी मंच पर जाकर पता लगता है कि किसी सोच के साथ उस शहर को विकसित किया गया है, वो भी उस दौर में। इसीलिए मंडी के लोग पंडित जी को विकास का मसीहा मानते है। कोई किसी भी राजनैतिक विचारधारा का क्यों न हो ,दबी जुबान में ही सही लेकिन ये जरूर स्वीकार करता है कि मंडी के विकास में पंडित सुखराम का योगदान अमिट है। नब्बे के दशक में पंडित सुखराम केंद्र में दूरसंचार मंत्री थे और उस दौर में बड़े शहरों में भी टेलीफोन का कनेक्शन लेने के लिए महीनों -सालों इन्तजार करना पड़ता था। पर पंडित जी के राज में मंडी में टेलीफोन की घंटी खूब बजी। जिसने चाहा उसे कनेक्शन मिला, मंडी वालों के लिए विभाग का सिर्फ एक ही नियम था, वो था जल्द से जल्द कनेक्शन देना। केंद्रीय मंत्री रहते हुए भी पंडित सुखराम लोगों की पहुंच में थे, बिल्कुल सरल और जमीन से जुड़े हुए। छोटी -छोटी समस्याएं लेकर भी लोग पंडित जी के पास पहुंच जाते और हर छोटी समस्या को भी पंडित सुखराम पूरी तल्लीनता से सुनते और हरसंभव हल करते। सिंबल कोई भी रहा पर मंडी वालों ने दिया साथ : इसे मंडी वालों का पंडित सुखराम के प्रति स्नेह ही कहेंगे कि उन्होंने या उनके पुत्र अनिल शर्मा ने चाहे किसी भी सिंबल पर चुनाव क्यों न लड़ा हो, मंडी वालों ने हमेशा साथ दिया। पहली बार बतौर निर्दलीय चुनाव जीतने वाले पंडित सुखराम लम्बे वक्त तक कांग्रेस में रहे और हमेशा विधानसभा चुनाव जीते। इसके बाद जब 1998 में उन्होंने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाई तो भी मंडी ने उनका साथ दिया। 2017 में जब पंडित जी और उनका परिवार भाजपाई हो गए तो भी मंडी वालों का साथ उन्हें मिला।
The appearance of Khalistan flags at the gates of the Himachal Pradesh Assembly sparked controversy in the election-bound state, especially as it never saw such activity even at the height of militancy in nearby Punjab. After this slugfest ensued between the opposition and ruling party with Congress and AAP accusing the government of a lackadaisical approach to law and order. The political mud-slinging was raised even higher in Himachal when Chief Minister Jai Ram Thakur showed a picture on his mobile phone of Leader of the Opposition Mukesh Agnihotri with a man wearing a Khalistani T-shirt. The Opposition parties questioned the ruling BJP’s claims, particularly coming so soon after the Punjab Assembly elections where it had leveled similar pro-Khalistani charges at the Aam Aadmi Party. Having trounced the other parties, including the BJP, in Punjab, AAP is planning a serious political fray in Himachal with the coming election. The Congress called the planting of the pro-Khalistan flags and banners on the Assembly complex walls a security lapse. About the photo displayed by Thakur, Congress leader Agnihotri said: “This is Jai Ram Thakur’s government, asking people to change their clothes is not my job.”Agnihotri also said that the event where the photo was taken was attended by a senior BJP leader as well. “All this is a ploy to deflect attention from the real issue of paper leak in police recruitment,” he said. Last month, days after AAP won in Punjab, alleged Khalistani flags had sprung up in Una, Himachal. In June, the SFJ is set to hold a “referendum” for Khalistan in Himachal. AAP in charge of Himachal Durgesh Pathak called the incidents “strange”. “The Khalistanis have nothing to do with Himachal. If their activities are being witnessed in Himachal, there might be two things — either the Jai Ram Thakur govt is totally incompetent or defunct, or that the BJP is hand in glove with these Khalistani elements.” Aside from these political defaming games, this Khalistan issue is getting on to the nerves of Himachal as the day after a rocket-propelled grenade was fired at the Intelligence Wing headquarters of Punjab Police in Mohali, Khalistani outfit Sikhs for Justice (SFJ) warned Himachal Chief Minister Jairam Thakur, saying the attack could have also been on the Shimla Police headquarters."This grenade attack could have taken place at the Shimla Police headquarters," SFJ's self-styled general counsel Gurpatwant Singh Pannun warned in an audio message The cops have already registered a case under section 153-A, 153-B IPC, and section 3 of HP Open Places (Prevention of Disfigurement) Act, 1985 has been registered against unidentified persons for placing flags of Khalistan on the outer boundary of Vidhan Sabha. HP DGP Sanjay Kundu constituted a Special Investigation Team (SIT) that will be headed by Santosh Patial, for the investigation of this case.
India's head coach Rahul Dravid will be participating in the Bharatiya Janata Party (BJP) Yuva Morcha's National Working Committee session in Dharamshala scheduled to be held from May 12 to May 15. Chief Minister Jai Ram Thakur will also participate in the three-day session. As many as 139 delegates from across the country will register their presence in the session. "The National Working Committee of BJP Yuva Morcha will be held in Dharamshala from May 12 to 15. The national leadership of BJP and the leadership of Himachal Pradesh will be involved. BJP National President JP Nadda, National Organization Minister, and Union Minister will also attend the session. This comes ahead of the Himachal Pradesh Assembly elections, which are slated to be held this year. In the 2017 Assembly Election result, BJP won 44 seats--well past the halfway mark of 35-while the incumbent Congress got 21 and others got three seats of a total of 68 Assembly seats.
हिमाचल में सियासी पारा हाई है और हर राजनैतिक दल में टिकट के चाहवान प्रो एक्टिव। चाहवानों की इस कतार में कई युवा नेता भी शमिल है और इनमें से एक हैं प्रदेश युवा कांग्रेस के कार्यकारी अध्यक्ष यदुपति ठाकुर। विधानसभा चुनाव, युवा कांग्रेस की भागीदारी और सरकाघाट के मुद्दों को लेकर फर्स्ट वर्डिक्ट के लिए भावना शांडिल ने यदुपति ठाकुर से ख़ास चर्चा की। हर सवाल पर उन्होंने बेबाकी से अपनी राय रखी। ठाकुर ने कहा कि 2017 में उनका टिकट इसलिए कटा था क्यों कि तब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू थे और वे राजा गुट से हैं। साथ ही उन्होंने जयराम सरकार पर सरकाघाट से सौतेला व्यवहार करने का आरोप भी लगाया। पेश हैं इस बातचीत के मुख्य अंश ... सवाल- इस साल के अंत में विधानसभा के चुनाव होने है, आप भी अपने गृह क्षेत्र सरकाघाट में काफी सक्रियता से काम करते दिख रहे है, क्या आप भी टिकट के चाहवान है ? जवाब - राजनीति समाज सेवा का अभिन्न अंग है। मैंने 17 साल पूर्व राजनीति का सफर छात्र राजनीति से शुरू किया था। मैं एनएसयूआई के नेशनल बॉडी का अध्यक्ष भी रहा हूँ। आप अंदाजा लगा सकते है कि इस दौरान मैंने कितने उतार चढ़ाव देखे होंगे। मैंने हमेशा पार्टी संगठन को मजबूती देने की यथासंभव कोशिश की हैं और हर वक्त हम चट्टान की तरह पार्टी के साथ खड़े रहे। साथ ही आम जन से संवाद बनाये रखा, जरूरतमंद लोगों की सहायता की। इस कार्य को देखते हुए राहुल गान्धी जी ने हौंसला अफजाई की और सम्मान भी दिया। जहां तक आपका प्रश्न विधानसभा के चुनाव को लेकर है, मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ कि मैं चुनाव भी लड़ने का इच्छुक हूँ और पूर्ण रूप से तैयार भी। बीते बारह वर्षों से मैं अपने क्षेत्र के लोगों के हर सुख दुख में शामिल रहा हूँ और मुझे लगता है कि मैं टिकट के लिए योग्य हूँ। शेष, पार्टी आलाकमान तय करेगा, लेकिन मुझे पूर्ण विश्वास है कि इस बार निराशा हाथ नहीं लगेगी। सवाल- बीते दो चुनाव में सरकाघाट सीट पर भाजपा ही काबिज हुई है, हार का कारण क्या मानते है आप ? जवाब - मैं बताना चाहूंगा कि 2017 के चुनाव में टिकट आवंटन सूची में मेरा भी नाम शामिल था लेकिन किसी कारणवश मेरा टिकट काट दिया गया। उस दौरान पीसीसी के अध्यक्ष सुखविंदर सिंह सुक्खू जी थे और हम स्वर्गीय राजा वीरभद्र गुट से आते थे, तो ऐसे में मेरा टिकट काट दिया गया। कांग्रेस से जिन्हें टिकट मिला हमने उनका भी भरपूर साथ दिया और चुनाव प्रचार में साथ रहे। दुर्भाग्यवश करीब दस हजार वोट से कांग्रेस पराजित हुई और इसके पीछे मुख्य कारण था प्रत्याशी की असक्रियता। मेरा मानना है कि अगर उस दौरान चेहरा दमदार होता तो निसंदेह सरकाघाट से कांग्रेस जीतती। सवाल- बतौर युवा कांग्रेस कार्यकारी अध्यक्ष आपसे जानना चाहेंगे कि विधानसभा चुनाव में युवा कांग्रेस की क्या रणनीति रहेगी, जिससे कांग्रेस की सत्ता वापसी हो सके? जवाब- युवा कांग्रेस हर गांव, हर बूथ पर पहुँच रही है और सदस्यता अभियान भी तेजी से चल रहा है। बहुत जल्द हम बेरोजगार युवाओं के समर्थन में सड़क पर उतरेंगे। प्रदेश का दौरा करेंगे। आप देखिये भाजपा की नीतियां जन विरोधी है, हर वर्ग आज परेशान है। बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, नशा माफिया और कर्मचारी-बागवानों की हर समस्या को साधने में भाजपा पूर्ण रूप से फैल हो चुकी है। ना केवल कांग्रेस से जुड़े युवा बल्कि देश का हर युवा इन जन विरोधी नीतियों के खिलाफ आवाज उठा रहा है। हम भी इन मुद्दों को लेकर आमजन के बीच जा रह हैं। आज प्रदेश सरकार कर्ज के तले दब चुकी है और इनका डबल इंजन खराब है। कोरोना काल से लेकर अब तक भाजपा सरकार ने हम सभी को ठगने का काम किया है, कर्ज लो और खुद ऐश करो की मंशा से यह काम कर रहे है। यही कारण है कि उपचुनाव में प्रदेश की प्रबुद्ध जनता ने इनकी अकड़ को सीधा किया और चारो सीट पर कांग्रेस को विजयी बनाया। स्वर्गीय राजा वीरभद्र सिंह के कार्यकाल में जितने भी प्रदेश के विकास कार्य हुए उनका श्रेय भाजपा के विधायक ले रहे है। सरकाघाट विधानसभा क्षेत्र में भी जनता इनको आइना दिखाएगी और शत प्रतिशत प्रदेश में कांग्रेस की दमदार सरकार बनेगी। सवाल- आपके क्षेत्र में कांग्रेस उतनी सक्रिय नहीं दिखती या यूँ कहें एकजुट नहीं दिखती। इसका कारण मतभेद है या मनभेद ? जवाब - देखिये आप सही कह रहे है सरकाघाट कांग्रेस उतनी एक्टिव नहीं है, लेकिन युवा कांग्रेस के बैनर तले हमने हर मुद्दे पर आवाज उठाई है, यथासंभव लोगों के बीच रहे है और जो कार्य एक पार्टी के कार्यकर्ता का होता है उसे बखूबी निभाया भी है। अब श्रीमती प्रतिभा सिंह को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष की कमान दी है और कांग्रेस पार्टी में नई ऊर्जा का संचार हुआ है। आने वाले समय में काफी बदलाव होंगे, और निश्चित तौर पर छंटनी भी होने की संभावना है। व्यक्तिगत तौर से मेरा प्रयास रहेगा की हम बूथ लेवल पर जाकर कांग्रेस को मजबूती प्रदान करें इसके लिए युवा कांग्रेस तैयार है। सवाल- आप लगातार कहते रहे है कि सरकाघाट में विकास की गति थम गयी है, क्या तथ्य है आपके पास ? जवाब - सरकाघाट की जनता भाजपा सरकार को माफ़ नहीं करेगी। मौजूदा विधायक प्रोफेसर प्रेम कुमार धूमल के गुट से आते थे और मुख्यमंत्री बने जयराम ठाकुर। अब ऐसे में इनकी गुटबाजी के चलते बीते चार साल में केवल एक बार ही मुख्यमंत्री हमारे क्षेत्र में आये है। मुख्यमंत्री ने इस क्षेत्र की उपेक्षा की हैं, सरकाघाट के साथ सौतेला व्यवहार हुआ हैं। जो गलती से कुछ एक घोषणाएं उन्होंने की हैं वे सभी स्वर्गीय वीरभद्र सिंह की देन है, जिनका क्रेडिट यह लोग लेने की कोशिश करते है। भाजपा और भाजपाई केवल पट्टिकाओं की राजनीति करने में माहिर है, इनकी वजह से न विकास हो रहा है न प्रदेशवासियों का भला। आप ग्रामीण क्षेत्र में जा करा देखिए तो, ग्रामीण प्रवेश में रह रहे लोगों को तीन -तीन दिन बाद पेयजल की आपूर्ति हो रही है, जो भी मटमैला और दूषित है। सड़कों की टारिंग की जाती है लेकिन हफ्ते के अंदर ही सड़क के टारिंग उखड़ जाती है, यह खानापूर्ति केवल इनके चेहते ठेकदारों को लाभ देने के लिए की जा रही है। जनता के पैसे का दुरूपयोग किया जा रहा है और जब कोई वर्ग अपनी मांगों को लेकर सरकार के पास जाता है तो उनके कहा जाता है की सरकार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। सरकाघाट की जनता शिक्षित भी है और इनके झूठे वादों से वाकिफ भी, अब भाजपा के जाने का समय आ चुका है।
मुकम्मल मुलाकातें हो रही है, बकायदा योजना तैयार की जा रही है। नए गठबंधन बन रहे है और हालात बदलने की तैयारी जोरो पर है। विधानसभा चुनाव से पहले सोलन निर्वाचन क्षेत्र में भाजपा के कुछ चेहरे एकसाथ आते दिख रहे है। मकसद साफ है कि टिकट के लिए जानदार तरीके से दावा ठोका जाएं। दरअसल, पिछले चुनाव में पार्टी ने चुनाव से ठीक पहले वीआरएस लेकर सियासत में आएं डॉ राजेश कश्यप को टिकट दिया था। तब टिकट के कई दावेदार थे लेकिन पार्टी के निर्णय ने सबको चौंका दिया। तब मुख्य तौर पर कुमारी शीला, तरसेम भारती और एच एन कश्यप टिकट की दौड़ में थे, पर सबके हाथ निराशा लगी। पार्टी के इस निर्णय से असंतोष भी उपजा और नतीजन डॉ राजेश कश्यप चुनाव नहीं जीत सके। पर तब से अब तक कश्यप निरंतर सक्रिय है और इस बार वे ही टिकट के प्रबल दावेदार है। अब ताजा खबर ये है कि कश्यप की राह रोकने को उनके विरोधियों ने हाथ मिला लिया है, मंशा साफ है कि उनमें से ही किसी एक को टिकट मिले। टिकट किसे मिलता है ये तो वक्त ही बताएगा, पर ऐसी स्थिति में भाजपा की राह निसंदेह मुश्किल जरूर होने वाली है। ताजा स्थिति की बात करें तो सर्वविदित है कि डॉ राजेश कश्यप ही पार्टी के प्राइम फेस है। कश्यप सक्रिय है पर अब तक सबको साथ लाने में कामयाब नहीं हो सके है। साढ़े चार साल का वक्त मिलने के बावजूद भी पार्टी का एक बड़ा तबका उनके साथ चलता नहीं दिख रहा। हालाँकि आलाकमान जरूर उन पर मेहरबान रहा है। उधर अन्य चेहरों की बात करें तो उनमें भी कोई ऐसा नहीं है जो अपनी कार्यशैली से पार्टी को टिकट देने के लिए विवश कर सके। तरसेम भारती पहले खराब स्वास्थ्य के चलते फील्ड से दूर थे और अब भी प्रो एक्टिव नहीं दिख रहे। कुमारी शीला की बात करें तो इस मर्तबा तो वे जिला परिषद् का चुनाव भी नहीं जीत पाई थी, ऐसे में पार्टी को जीत का भरोसा दिलाना उनके लिए भी मुश्किल होगा। हालांकि उनकी जमीनी पकड़ को कमतर नहीं आँका जा सकता। एच एन कश्यप भी सियासी सरगर्मियों से लगभग गायब ही है। कई अन्य चाहवान तो ऐसे भी है जो इच्छा तो विधायक बनने की रखते है लेकिन उनकी कार्यशैली पार्षद का चुनाव जीतने लायक भी नहीं दिख रही। पर यहाँ ये जहन में भी रखना होगा कि पूर्व सांसद और डॉ राजेश के बड़े भाई वीरेंद्र कश्यप भी टिकट मिलने पर चुनाव लड़ने को तैयार है। कांग्रेस में सिर्फ एक दावेदार : सोलन कांग्रेस की बात करें तो कर्नल धनीराम शांडिल ही फिलवक्त इकलौते उम्मीदवार है और संभवतः वे ही पार्टी प्रत्याशी होंगे। वैसे भी माना जाता है कि कर्नल का टिकट 10 जनपथ से फाइनल होता है। पार्टी का एक तबका उनके साथ बेशक न दिख रहा हो लेकिन बावजूद इसके कांग्रेस की स्थिति अभी तो भाजपा से बेहतर है। कर्नल का सरल स्वभाव और ईमानदार छवि भी कांग्रेस के लिए लाभदायक सीड हो सकते है।
नए अध्यक्ष के साथ -साथ हिमाचल प्रदेश कांग्रेस को चार कार्यकारी अध्यक्ष भी मिले है। इन चार कार्यकारी अध्यक्षों में से एक नाम है पवन काजल का, जो अब कांग्रेस का नूर है। काजल कांगड़ा सीट से विधायक है और जिला कांगड़ा में बतौर ओबीसी नेता उनका अच्छा रसूख है। खास बात ये है कि अब काजल कांगड़ा में कांग्रेस का प्राइम फेस बनते दिख रहे है। थोड़ा फ्लैशबैक में चले तो वीरभद्र सरकार के समय जिला कांगड़ा ने दो कांग्रेसी नेताओं की तूती बोलती थी, सुधीर शर्मा और स्व जीएस बाली। दोनों मंत्री थे, दोनों ब्राह्मण और दोनों भावी मुख्यमंत्री के तौर पर देखे जाते थे। पर बाली अब इस दुनिया में नहीं है और सुधीर के सियासी तारे गर्दिश में दिख रहे है। पार्टी का ही एक तबका खुलकर उनके खिलाफ मुखर है। इस बीच रफ्ता - रफ्ता पवन काजल विधायक का सियासी कद बढ़ता रहा और अब जब कांगड़ा से कार्यकारी अध्यक्ष बनाने की बारी आई तो पार्टी आलाकमान ने उन्हें इस पद से नवाजा। स्वाभाविक है उनकी ये तरक्की कई नेताओं के अरमान कुचल सकती है। पवन काजल 2012 में पहली बार विधायक बने, तब वे आजाद उम्मीदवार थे। प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी और वीरभद्र सिंह ने उन्हें कांग्रेस में शामिल कर लिया। 2017 में काजल कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े और फिर जीत गए। इसके बाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भी पार्टी ने उन्हें उम्मीदवार बनाया। तब भी खुद वीरभद्र सिंह ने उनके लिए प्रचार किया था। कहते है कांग्रेस में शामिल होते वक्त काजल दरअसल कांग्रेस में नहीं जुड़े थे, बल्कि वीरभद्र सिंह के साथ आये थे। अब उनका झुकाव होलीलॉज की तरफ ही रहता है या वे संतुलन बनाकर ही आगे बढ़ते है, ये देखना भी रोचक होने वाला है। ओबीसी वोट पर निगाहें : जिला कांगड़ा में ओबीसी वोट बैंक का अच्छा प्रभाव है। अमूमन हर सीट पर ओबीसी वोट जीत -हार का अंतर पैदा कर सकता है। काजल को मजबूत करके कांग्रेस की नज़र इसी वोट बैंक पर है। ओबीसी वर्ग की बात करें तो कांग्रेस के पास चौधरी चंद्र कुमार के रूप में भी एक मजबूत चेहरा हैं और पवन काजल भी उन नेताओं में शुमार है जिनके समर्थक हर क्षेत्र में है। ऐसे में पवन काजल को कार्यकारी अध्यक्ष बनाना कांग्रेस का मास्टर स्ट्रोक सिद्ध हो सकता है। जब दिग्गज हारे तब भी जीते काजल : 2017 के विधानसभा चुनाव में जिला कांगड़ा की 15 सीटों में से सिर्फ तीन सीटें कांग्रेस ने जीती थी। खास बात ये है तब वीरभद्र कैबिनेट में मंत्री रहे जीएस बाली और सुधीर शर्मा सहित बड़े -बड़े दिग्गज धराशाई हो गए थे। पर पवन काजल ने 6 हज़ार से अधिक वोटों से जीत दर्ज की थी। उनके अतिरिक्त सुजानपुर से स्व सुजान सिंह पठानिया और पालमपुर से आशीष बुटेल ही चुनाव जीत पाए थे।
वीरभद्र नाम संजीवनी, कांग्रेस सुमिरे दिन -रात ...भाजपा के साधन, संसाधन और संगठन का तोड़ कांग्रेस को वीरभद्र सिंह के नाम में दिख रहा है। कांग्रेस के लिए सत्ता वापसी के धुरी पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह ही रहेंगे, इस बात पर औपचरिक मुहर लग चुकी है। तमाम गुट और तमाम नेता एक सुर में बोल रहे है कि कांग्रेस वीरभद्र सिंह के विकास मॉडल पर ही चुनाव लड़ेगी। ऐसे कई नेता भी जिनकी सियासी बिसात का आधार ही वीरभद्र सिंह का विरोध रहा है। स्पष्ट है कि आलाकमान के साथ -साथ प्रदेश के नेताओं को भी वीरभद्र सिंह के नाम पर ही चुनावी समर में उतरने में अपनी भलाई दिख रही है। बीते दिनों शिमला के चौड़ा मैदान में हुई रैली में फिर सिद्ध हो गया कि हिमाचल कांग्रेस में अब भी वीरभद्र सिंह के बराबर सियासी वजन किसी का नहीं है, ‘राजा नहीं फकीर है, हिमाचल की तकदीर है’.. नारा अब भी असरदार है। वीरभद्र सिंह के नाम का असर उपचुनाव में स्पष्ट दिखा, अब कांग्रेस इसी नाम के सहारे सत्ता वापसी की आस में है। उधर, प्रतिभा सिंह के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने से पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह का का निजी आवास हॉलीलॉज फिर एक बार प्रदेश कांग्रेस की सियासत का केंद्र बन गया है। अर्से तक वीरभद्र सिंह के निष्ठावान रहे कार्यकर्त्ता - समर्थक अब प्रतिभा सिंह का नाम मुख्यमंत्री पद के लिए आगे बढ़ा रहे है। हालांकि दावेदारों की फेहरिस्त में शामिल अन्य नेताओं के समर्थक भी पीछे नहीं है। हकीकत : संख्या बल तय करेगा सीएम ! मुख्यमंत्री बनने के लिए सभी के रास्ते खुले हैं, लेकिन इसके लिए पहले विधायक बनना जरूरी है। बहुमत मिलने पर हाईकमान ही इसे तय करेगा। चुनाव वीरभद्र मॉडल पर लड़ा जायेगा। पार्टी के सभी वरिष्ठ नेता ये ही बात दोहरा रहे हैं। पर आलाकमान के साथ -साथ संख्याबल भी सीएम तय करेगा। वीरभद्र स्टाइल पॉलिटिक्स तो ये ही कहती है। ऐसे में सभी चाहवान पहले ये सुनिश्चित करना चाहेंगे कि विधानसभा में उनके निष्ठावान अधिक पहुंचे। ऐसे में जाहिर है टिकट आवंटन की भी बड़ी भूमिका होगी।
आहिस्ता - आहिस्ता ही सही लेकिन उपचुनाव में मिली करारी शिकस्त के बाद से लग रही नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों पर अब लगभग विराम लग चूका है और ये भी तय है की पार्टी जयराम ठाकुर के चेहरे पर ही अगला विधानसभा चुनाव लड़ेगी। बताया जा रहा है कि बीते दिनों दिल्ली में हुई भाजपा हाईकमान की बैठक में इस बात पर मुहर लग चुकी है, हालांकि इस संदर्भ में अब तक पार्टी ने औपचारिक तौर पर कुछ नहीं कहा है। जाहिर है अब जयराम समर्थक बाग-बाग है और उम्मीद लगाए बैठे अन्य नेताओं के समर्थकों के अरमानों पर पानी फिर चूका है। खैर ये सियासत है, यहां उतार चढ़ाव होते रहते है, अब असल सवाल ये है की जयराम ठाकुर के नेतृत्व में भाजपा के लिए मिशन रिपीट की राह आसान होगी या कठिन। यहाँ ये जहन में रखना भी जरूरी है कि जयराम न सिर्फ सरकार का चेहरा है बल्कि भाजपा प्रदेश संगठन में भी फिलवक्त जयराम ठाकुर का असर दिख रहा है। भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बेशक सुरेश कश्यप हो लेकिन जानकार मानते है कि संगठन के बड़े निर्णयों में जयराम ठाकुर का ही प्रभाव है। अब इसे लेकर माहिर बंटे हुए है, कुछ इसे पार्टी की ताकत मानते है तो कई का मानना है कि पार्टी को इसका नुक्सान होगा। यहाँ गौर करने वाली बात ये भी है कि सुरेश कश्यप की ताजपोशी के बाद जमीनी स्तर पर पार्टी संगठन में कोई व्यापक बदलाव नहीं हुआ है। यानि संगठन में अधिकांश वे ही लोग है जिनकी नियुक्ति पूर्व अध्यक्ष डॉ राजीव बिंदल के समय हुई थी। इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि जो संगठन भाजपा की ताकत माना जाता है वो उपचुनाव में कुछ हद तक कमजोर दिखा था। अब इसके अपने सियासी मायने है और सबका अपना -अपना विश्लेषण। कयास लगते रहे, पर नहीं बदला संगठन : उपचुनाव में मिली शिकस्त के बाद ये कयास भी लग रहे थे कि संभवतः पार्टी संगठन में व्यापक बदलाव करें, पर ऐसा हुआ नहीं। पार्टी वर्तमान संगठन के साथ ही विधानसभा चुनाव के रण में उतरती है या इसे धार देने के लिए आवश्यक बदलाव होते है, ये देखना रोचक होगा। विशेषकर कई जिलों में पार्टी संगठन को पैना किये जाने की जरूरत है। मजबूत संगठन और नेतृत्व सुनिश्चित कर पार्टी कुछ हद तक अंतर्कलह और असंतोष को भी साधने में कामयाब हो सकती है। पर असल सवाल ये ही है कि क्या पार्टी के रणनीतिकार भी ऐसा सोचते है। पहला इम्तिहान शिमला नगर निगम चुनाव : ये जहन में रखना भी जरूरी है कि विधानसभा चुनाव से पहले जयराम ठाकुर के सामने एक बड़ा इम्तिहान और है, ये है शिमला नगर निगम चुनाव। यदि नगर निगम चुनाव में पार्टी बेहतर नहीं कर पाती है तो स्वाभाविक है कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की स्थिति भी असहज हो सकती है। ऐसे में मुमकिन है कि नेतृत्व परिवर्तन का जिन्न फिर बाहर आ जाएं।
प्रदेश कांग्रेस के संगठन में हुए बदलाव के बाद भाजपा को एक बार फिर परिवारवाद के मुद्दे पर कांग्रेस को घेरने का मौका मिल गया है। प्रतिभा सिंह की ताजपोशी के बाद से भाजपाई नेता लगातार वंशवाद के मुद्दे पर कांग्रेस पर हमला बोल रहे है। उधर कांग्रेसी भी ये याद दिलाने से नहीं चूक रहे कि जिन अनुराग ठाकुर को भाजपा का एक तबका भावी सीएम करार देने में जुटा है, वो भी उन्हीं के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र है। बहरहाल चुनावी बेला में आरोप - प्रत्यारोप का दौर जारी है। पर हिमाचल कि सियासत पर नज़र डाले तो वंशवाद और परिवारवाद नई बात नहीं है। चाहे वीरभद्र परिवार हाे, धूमल परिवार या अन्य कई नेता, राजनीतिक विरासत संभालने के लिए उनका परिवार हमेशा तैयार दिखा है। छ बार प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे वीरभद्र सिंह के निधन के बाद उनकी पत्नी प्रतिभा सिंह के हाथ में अब कांग्रेस की कमान है। इससे पहले 2017 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह के साथ उनके पुत्र विक्रमदित्य भी चुनाव जीतकर विधानसभा पहुंचे थे। इसी तरह से धूमल परिवार में भी ऐसी ही स्थिति है। 2017 के विधानसभा चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार पराजित हुए जिसके बाद धूमल परिवार की सियासी धाक कुछ कम हुई। मगर सांसद अनुराग सिंह ठाकुर ने विरासत की सियासत काे ज़िंदा भी रखा और सियासी रसूख भी बढ़ाया। 2019 के आम चुनाव के बाद अनुराग केंद्रीय मंत्री हो चुके है। कांग्रेस के अन्य नेताओं की बात करें तो हिमाचल प्रदेश विधानसभा के पूर्व स्पीकर बीबीएल बुटेल पिछले चुनाव से ही रिटायर हो गए और उनके बेटे आशीष बुटेल ने माेर्चा संभाल लिया। फतेहपुर उपचुनाव में पूर्व विधायक स्व सुजान सिंह पठानिया के पुत्र भवानी पठानिया जीतकर विधानसभा पहुंचे। वहीँ जुब्बल कोटखाई से पूर्व मुख्यमंत्री ठाकुर रामलाल के पौत्र रोहित ठाकुर तीसरी बार जीतकर विधानसभा पहुंचे। पूर्व सांसद चंद्र कुमार के बेटे एवं पूर्व सीपीएस नीरज भारती भी 2012 में विधायक बने, हालांकि उन्हें 2017 में हार मिली। सुधीर शर्मा, जगत सिंह नेगी, अजय महाजन समेत कई ऐसे नेता हैं जाे सक्रीय राजनीति कर रहे हैं और अपने बुजुर्गों की राजनैतिक विरासत को संभाले हुए है। भाजपा में भी लिस्ट कम नहीं है। स्व कुंजलाल ठाकुर के पुत्र गाेविंद सिंह ठाकुर वर्तमान में मंत्री है। मंडी विधायक अनिल शर्मा भी पिछला चुनाव भाजपा के टिकट पर जीते थे। मंत्री महेंद्र सिंह की बेटी वंदना गुलेरिया जिला परिषद् सदस्य है और अब मंत्री के बेटे भी राजनीती में सक्रीय है। इसी तरह नरेंद्र ठाकुर भी परिवार की राजनैतिक विरासत को ही संभाल रहे है। क्या स्टैंड पर कायम रहेगी भाजपा : जुब्बल कोटखाई उपचुनाव में भाजपा ने पूर्व विधायक स्व नरेंद्र बरागटा के पुत्र चेतन बरागटा को टिकट नहीं दिया और इसका कारण परिवारवाद बताया गया। पर सवाल ये है कि क्या भाजपा अपने स्टैंड पर कायम रहेगी। जानकार ऐसा नहीं मानते। मुमकिन है कि जल्द भाजपा में चेतन की एंट्री भी हो और अगली बार उन्हें टिकट भी मिले। ऐसे कई नेता भी है जिन पर परिवारवाद का टैग है और जो टिकट के दावेदार है। कोई नेता पुत्र है तो कोई पूर्व सांसद का भाई।
मंडी लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाला विधानसभा क्षेत्र सुंदरनगर सियासी तौर पर काफी महत्वपूर्ण माना जाता है, इस सीट पर राजपूत वोटरों का दबदबा होने के चलते विधायक भी राजपूत ही रहे है। इस सीट पर हर पांच साल बाद सत्ता परिवर्तन हुआ है, इस बात की तस्दीक करते है 1998 से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव। भाजपा ने 1982 से 2007 तक रूप सिंह पर ही विश्वास जताया है। पहली बार उन्हें 1982 में टिकट मिला और वो लगातार 1990 तक विधायक बने। 1993 के चुनाव में कांग्रेस से शेर सिंह और भाजपा से रूप सिंह मैदान में थे और उस दौरान 5537 वोट के अंतर् से शेर सिंह ने रूप सिंह को हराया और 23 साल सियासी तौर पर दंडक वन में गुज़ारने के बाद कांग्रेस की सत्ता वापसी हुई। 1998 के चुनाव में भाजपा से फिर रूप सिंह ठाकुर को टिकट मिला जबकि कांग्रेस से शेर सिंह चुनावी मैदान में थे और रूप सिंह ने 769 वोट के अंतर से जीत हासिल की। 2003 के चुनाव में कांग्रेस ने टिकट बदला और कांग्रेस ने सोहन लाल को प्रत्याशी बनाया जो कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता भी थे और कांग्रेस सरकार में संसदीय सचिव भी रहे और भाजपा ने फिर रूप सिंह को टिकट दिया और करीब 4638 के अंतर् से रूप सिंह हार गए। इसी तरह 2007 में रूप सिंह ने सोहन लाल को हराया। 2012 के चुनाव में भी सत्ता परिवर्तन हुआ और तब सोहन लाल जीते लेकिन उस दौरान भाजपा में काफी हलचल हुई। हमेशा की तरह भाजपा से रुप सिंह को टिकट मिलने के कयास लग रहे थे और टिकट की दौड़ में भाजपा के एक और नेता राकेश जम्वाल शामिल थे। उस चुनाव में भाजपा ने चेहरा बदला और राकेश जम्वाल को सुंदरनगर विधानसभा सीट से भाजपा का प्रत्याशी बनाया। तब रूप सिंह ने बतौर निर्दलीय चुनाव लड़ा। 2012 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की अंतरकलह के कारण सुंदरनगर विधानसभा क्षेत्र में सोहन लाल ठाकुर बीजेपी को पीछे छोड़ने में सफल रहे। 2012 के चुनाव में सोहन लाल ठाकुर ने 8990 मतों से बड़ी जीत दर्ज की। 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशी रुप सिंह ठाकुर दूसरे नंबर पर रहे जो इस विधानसभा को जीतने में सबसे ज्यादा बार सफल रहे थे। वह बीजेपी से टिकट न मिलने के कारण निर्दलीय चुनाव लड़े और बीजेपी प्रत्याशी राकेश जम्वाल को तीसरे नंबर पर करने में सफल रहे। बीजेपी में बगावत होने पर इसका सीधा फायदा कांग्रेस प्रत्याशी सोहन लाल ठाकुर को मिला। 2017 के चुनाव में भाजपा से राकेश जम्वाल जीते और सोहन लाल को करीब 9263 वोट से पराजित किया। सियासी माहिरों का मानना है कि इस बार के चुनाव में भी 2012 के चुनाव की तरह समीकरण बन सकते है। वर्तमान स्थिति को देखे तो पूर्व मंत्री रूप सिंह के बेटे अभिषेक ठाकुर भी चुनावी ताल ठोकते नज़र आ रहे हैं। मौजूदा दौर में भाजपा सरकार के प्रति एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर के साथ -साथ पंजाब जीत कर हिमाचल में राजनैतिक उलट-फेर करती नज़र आ रही आम आदमी पार्टी के चलते सुंदरनगर में भी रूप सिंह ठाकुर के राजनैतिक वारिस अभिषेक ठाकुर के पास भाजपा के सियासी आँकड़े बिगाड़ने का पुनः खुला मौक़ा है चाहे वो आम आदमी पार्टी से चुनावी मैदान में उतरे या आज़ाद लेकिन सीधे तौर पर यहाँ फिलहाल घाटे में भाजपा ही नज़र आ रही है।
स्वतंत्र भारत के पहले चुनाव का पहला वोटर होने का श्रेय हिमाचल प्रदेश के श्याम सरन नेगी को जाता है। श्याम सरन नेगी, मूलतः किन्नौर (कल्पा) के निवासी है। आज उनकी उम्र करीब 105 वर्ष है। नेगी के चेहरे में तजुर्बे की झुर्रियां और क्षीण आवाज़ के बावजूद जब भी जिक्र मतदान को लेकर होता है तो उनके चेहरे की रौनक यह बयां करती है कि मतदाता देश की रीढ़ की हड्डी है। श्याम सरन नेगी का जन्म 1 जुलाई 1917 को हिमाचल प्रदेश के कल्पा में हुआ। वह एक रिटायर्ड स्कूल मास्टर हैं। स्वतंत्र भारत के पहले मतदाता के तौर पर मशहूर नेगी को भारतीय लोकतंत्र का लीविंग लीजेंड भी कहा जाता है। 1947 में ब्रिटिश राज के अंत के बाद देश के पहले चुनाव फरवरी 1952 में हुए लेकिन सर्दी के मौसम में भारी बर्फबारी की संभावनाओं की वजह से किन्नौर के मतदाताओं को पांच महीने पहले ही वोट करने का मौका दिया गया था। 71 वर्ष पूर्व आजाद भारत का प्रथम चुनाव हुआ था। स्वतंत्र भारत के प्रथम मुख्य चुनाव आयुक्त थे आईसीएस सुकुमार सेन, जिन्होंने 1951-52 और 1957 का चुनाव सफलतापूर्वक संपन्न कराया था। पहले चुनाव ने देश को बहुत कुछ दिखाया, सिखाया और साबित भी किया। बता दें कि सर्वप्रथम इसी अक्टूबर महीने की 25 तारीख को 1951 की सुबह आजाद भारत में मतदान की शुरुआत हुई थी। हिमाचल प्रदेश अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने वाला पहला राज्य बना था। तत्कालीन मुख्य चुनाव आयुक्त ने 68 चरणों में चुनाव की योजनाएं बनाई थी। हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले के कल्पा गांव निवासी स्कूल टीचर श्याम शरन नेगी को अपने गांव से अलग प्रशासन द्वारा मतदान केंद्र प्रभारी बनाया गया था। नेगी एक वोट के मूल्य को समझते थे। वे मतदान शुरू होने से एक घंटे पहले यानि सुबह 6:00 बजे ही अपने गांव के प्राथमिक विद्यालय के मतदान केंद्र पर पहुंच गए। वहां उन्होंने अधिकारियों को बताया की उन्हें जल्द अपने स्कूल भी पहुंचना है। तैनात अधिकारी ने उन्हें 6:30 बजे मतपत्र दिया और नेगी पहले मतदाता बन गए। श्याम सरन नेगी ने 1951 के बाद से हर आम चुनाव में मतदान किया है। 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले गूगल ने नेगी पर एक फिल्म बनाई थी- प्लेज टू वोट यह फिल्म इंटरनेट पर खूब वायरल हुई थी, इसे फिल्मों के सुपरस्टार अमिताभ बच्चन सहित तमाम दूसरे ब्रैंड एंबैसडरों ने भी देखा था।
◆ ठाकुर की ठकुराई का सवाल,जिया का "जिया" जनता में नहीं ◆डाक्टर जनक ने पकड़ी नब्ज़,सामने खड़े ललित अरविंद शर्मा। फर्स्ट वर्डिक्ट भरमौर की साल दिसंबर में भोर कैसी होगी? क्या ठाकुर सिंह भरमौरी अपनी ठकुराई फिर से हासिल करेंगे या फिर मौजूदा विधायक जिया लाल से जनता फिर जिया लगाएगी? या डॉ जनक इन दोनों की नब्ज परख के अपना कोई इलाज हासिल कर लेंगे? क्या डॉ जनक के साथ जिला परिषद सदस्य ललित भी इतने लालायित हो जाएंगे कि इन तीनों को टक्कर देने से परहेज नहीं बरतेंगे ? चंबा जिले के छोर के इस विधानसभा क्षेत्र में आगामी विधानसभा चुनावों में जंग दिलचस्प होने के आसार बनते जा रहे हैं। हालांकि अभी तक मैदान में सीधे-सीधे जंग ठाकुर सिंह भरमौरी और जिया लाल के बीच दिख रही है,बशर्ते भाजपा की उस लिस्ट में उनका नाम न हो,जिसमें टिकट कटने के कई नाम दर्ज होने की बात कही जा रही है। खैर,दिलचस्प इसलिए है कि भाजपा के घरेलू डॉक्टर के नाम से मशहूर डॉक्टर जनक के बाबत भी यह बात एक बार से फिर सिर उठा चुकी है कि वो चुनाव लड़ सकते हैं। अगर ऐसा हुआ तो जाहिर सी बात होगी कि भाजपा का दिल जिया लाल से भर चुका साबित होगा। कांग्रेस में भी कमोवेश यही हालात हैं। ठाकुर सिंह भरमौरी अस्वस्थ चले आ रहे हैं। ऐसे में उनके बेटे अमित भरमौरी फ्रंट फुट पर दौड़ रहे हैं। अगर परिवारवाद की बात ही हावी रही तो यहां भी पिता की जगह पुत्र ले सकता है। नए चेहरों में कांग्रेस के ही जिला परिषद सदस्य ललित भी अपना नाम दावेदारों की लिस्ट में शामिल करवा चुके हैं। दरअसल, मौजूदा भाजपा विधायक जिया लाल के खिलाफ एंटी इनकम्बेंसी फैक्टर भाजपा की छवि में फ्रैक्चर की वजह बन सकता है। यही वजह है कि भाजपा के भीतर अब जिया लाल से जिया न लगाने की बातें उठनी शुरू हो गई हैं। पॉवर प्रोजेक्ट्स इशुज़ की वजह से भी जिया की पॉलिटिकल पॉवर में डिस्चार्ज की वजह बनती बताई जा रहीं हैं। ऐसे में विकल्प के तौर पर डॉ जनक को भरमौर के पहाड़ों में भाजपा का कल्प वृक्ष माना जा रहा है। कांग्रेस में ठाकुर सिंह भरमौरी की छत्र छाया बरसों से बनी हुई है। मगर हैल्थ इशुज़ की वजह से पॉलिटिकल इशुज़ बन रहे हैं। ऐसे में उनके बेटे अमित भरमौरी सियासी विरासत को संभालने के लिए खूब ताकत झोंक रहे हैं। मगर सामने जिला परिषद सदस्य और कांग्रेसी झंडाबरदार ललित के भी टिकट के लिए लालायित बताए जा रहे हैं , हालांकि ललित आने वाले समय में आम आदमी पार्टी का भी रुख कर सकते हैं। पंचायती राज व्यवस्था के यह सिपाही भी अपने सियासी प्रतिद्वंदियों के खिलाफ तलवार उठाने को तैयार बताए जा रहे हैं। ऐसे में भरमौर में कई सियासी मोर नाचते हुए नजर आने शुरू हो गए हैं। बादल गरज रहे हैं,बिजलियां गर्ज रहीं हैं। देखना यह दिलचस्प होगा कि जब वोटों की बाढ़ आएगी तो किस की किश्ती लहरों को पार करेगी और किसकी डूबती है ?
कर्नल धनीराम शांडिल को कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनाव मेनिफेस्टो कमिटी का चेयरमैन नियुक्त किया है। कर्नल वर्तमान में सोलन से विधायक है और दो बार शिमला संसदीय क्षेत्र से सांसद भी रह चुके है। 2012 में कर्नल शांडिल पहली बार विधायक बने थे और वीरभद्र सरकार में मंत्री भी रहे है। कर्नल शांडिल हिमाचल प्रदेश के पहले ऐसे नेता रहे है जिन्हें कांग्रेस वर्किंग कमिटी में शामिल किया गया था। अब शांडिल को पार्टी आलाकमान ने चुनाव मेनिफेस्टो तैयार करने का अहम जिम्मा सौंपा है। फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने कर्नल शांडिल के साथ विशेष बातचीत की, पेश है मुख्य अंश... सवाल : प्रदेश कांग्रेस में व्यापक बदलाव हुए है। इसे लेकर आप क्या कहेंगे ? जवाब : केंद्रीय नेतृत्व ने बहुत बढ़िया और संतुलित बदलाव किये है। कांग्रेस कलेक्टिव लीडरशिप में चुनाव में उतरेंगी और सत्ता में निसंदेह वापस लौटेगी। ऐसा नहीं है कि कुलदीप राठौर जी के नेतृत्व में पार्टी अच्छा नहीं कर रही थी। उन्हीं के नेतृत्व में हमने चार विधानसभा चुनाव जीते। पर कई मर्तबा बदलाव के साथ ऊर्जा भी आती है और ऐसे में मैं मानता हूँ ये बदलाव पार्टी को और मजबूत करेगा। सवाल : टॉप लेवल पर तो बदलाव हो गया, क्या आप मानते है कि संगठन में जमीनी स्तर पर भी बदलाव होना चाहिए ? जवाब : मैं मानता हूँ कि संगठन को मजबूत किये जाने की जरूरत है और इसके लिए यदि बदलाव आवश्यक है तो बदलाव सही। प्रतिभा सिंह जी के नेतृत्व में हमारा संगठन निश्चित तौर पर नई ऊर्जा और जोश के साथ काम करेगा। हम सब साथ मिलकर चुनाव लड़ेंगे और कांग्रेस शानदार जीत दर्ज करेगी। सवाल : दशकों से वीरभद्र सिंह पार्टी का चेहरा रहे है। ऐसे में चुनाव में कांग्रेस का चेहरा कौन होगा ? जवाब : हाथ का निशान चेहरा होगा और कलेक्टिव लीडरशिप में हम चुनाव लड़ेंगे। पार्टी आलाकमान और चुने हुए विधायक मुख्यमंत्री का चयन करेंगे। फिलहाल तो मैं इतना कह सकता हूँ कि हर नेता, हर कार्यकर्ता पूरी शिद्दत से पार्टी की सत्ता वापसी के लिए प्रतिबद्ध है। हम सब एक है और साथ में सब मजबूत है। सवाल : आप मैनिफेस्टो कमिटी के चेयरमैन है। किन मुद्दों को शामिल किया जायेगा मैनिफेस्टो कमेटी में ? जवाब : हम हर निर्वाचन क्षेत्र के महत्वपूर्ण मुद्दों को इसमें शामिल करेंगे। हर वर्ग के मुद्दे इसमें शामिल होंगे, चाहे वो कर्मचारी हो, बागवान हो, महिलाएं हो, बुजुर्ग हो, युवा हो या कोई और। एक बात मैं और कहना चाहता हूँ, कांग्रेस सच की राजनीति करती है। हमारा मैनिफेस्टो भाजपा की तरह झूठ का पुलिंदा नहीं होगा, जो वादा करेंगे उसे पूरा भी करेंगे। सवाल : आखिरी सवाल आपके अपने निर्वाचन क्षेत्र को लेकर है। चुनाव को लेकर कितने आश्वस्त है आप ? जवाब : मंत्री रहते हुए मैंने 463 करोड़ के काम किये थे और उन्हीं के फीते अब तक भाजपाई काट कर अपना समय काट रहे है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर जी ने पहला शिलान्यास ट्रांसपोर्ट नगर का किया था, साढ़े चार साल में उनसे एक ईंट तक नहीं लगी। हमारे सरकार के कार्यकाल में शामती बाईपास का अधिकांश निर्माण कार्य पूरा हो गया था, जो थोड़ा सा बचा था वो भी इनसे नहीं हो पाया। ये बोल बच्चनों की सरकार है और जनता इन्हें पहचान चुकी है। वर्तमान में भी मैंने हर ब्लॉक, हर पंचायत, हर गांव, हर वार्ड के विकास में हरसंभव सहयोग किया है। मैं दिखावे की राजनीति नहीं करता, जो मैंने किया है वो जनता देख रही है और निश्चित तौर पर फिर कांग्रेस विजयी होगी।
बीते दिनों डिप्टी सीएलपी लीडर बनने के बाद शिलाई विधायक हर्षवर्धन चौहान अपने क्षेत्र में पहुंचे तो उत्साहित समर्थकों ने उन्हें भावी मुख्यमंत्री करार देते हुए जमकर नारेबाजी की। निसंदेह पांच बार के विधायक हर्षवर्धन कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार है और कांग्रेस के आधा दर्जन से ज्यादा भावी मुख्यमंत्रियों में एक नाम उनका भी है। इधर हर्षवर्धन को पार्टी ने प्रमोट किया तो उधर इसी दौरान हाटी समुदाय को लेकर भाजपा ने बड़ी जीत हासिल कर ली। दशकों से लंबित हाटी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने की मांग पर पार्टी ने एक सकारात्मक कदम बढ़ाया। यदि आचार सहिंता लगने से पहले भाजपा इस मुद्दे पर निर्णायक स्थिति में पहुंच सकी तो, निसंदेह इस मुद्दे का सीधा इम्पैक्ट इस बार के चुनाव में दिखेगा। ऐसे में कद बढ़ने के बावजूद हर्षवर्धन के लिए चुनावी डगर कठिन हो सकती है। गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय दर्जा मिलने को लेकर कई दशकों से हाटी समुदाय के लोग संघर्ष कर रहे है। चुनावी फिजा के समय ही नेताओं द्वारा इस मुद्दे को खूब हवा दी जाती है, लेकिन नतीजों के बाद कुछ नहीं होता। ये मसला 154 पंचायतों से सीधे जुड़ा है। इसके दायरे में शिलाई विधानसभा क्षेत्र की सभी पंचायतें आती है, यानी इस बार के चुनाव में शिलाई सीट पर इसका पूरा इम्पैक्ट देखने को मिल सकता है। चुनाव से पहले यदि इसकी नोटिफिकेशन जारी हो जाती है तो भाजपा के लिए हाटी का मुद्दा संजीवनी साबित हो सकता है। कांग्रेस का गढ़ रही है शिलाई सीट : इतिहास पर नज़र डाले तो 1972 से लेकर 1985 तक शिलाई सीट पर कांग्रेस का ही कब्ज़ा रहा है। 1990 में सत्ता परिवर्तन हुआ और जनता दल के जगत सिंह नेगी ने कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान को हरा कर शिलाई सीट पर कब्ज़ा किया। 1993 से 2007 तक कांग्रेस के हर्षवर्धन चौहान ने इस सीट पर सत्ता का सुख भोगा। 2007 के चुनाव में तो भाजपा के बलदेव तोमर की जमानत तक जब्त हुई। पर 2012 के चुनाव आए तो भाजपा ने फिर बलदेव तोमर पर भरोसा जताया और तोमर ने हर्षवर्धन चौहान को परास्त कर शिलाई सीट पर कमल खिलाया। इसके बाद 2017 के चुनाव में हर्षवर्धन चौहान ने फिर जीत दर्ज कर शिलाई सीट कांग्रेस की झोली में डाली।
प्रतिभा सिंह को प्रदेश कांग्रेस की कमान मिलने के साथ ही अर्की निर्वाचन क्षेत्र के सियासी समीकरण भी बदलने के आसार है। उपचुनाव में पार्टी ने सुखविंद्र सिंह सुक्खू के करीबी और 2012 में पार्टी प्रत्याशी रहे संजय अवस्थी को अपना उम्मीदवार बनाया था। इसके बाद होलीलॉज के करीबी रहे राजेंद्र ठाकुर ने अपने समर्थकों सहित पार्टी छोड़ दी थी। हालांकि ठाकुर ने बतौर निर्दलीय चुनाव तो नहीं लड़ा लेकिन पार्टी के लिए काम भी नहीं किया। तब से अब तक ठाकुर कांग्रेस से बाहर है। पर अब प्रतिभा सिंह की ताजपोशी के बाद जानकार मानते है कि राजेंद्र ठाकुर की जल्द पार्टी में वापसी संभव है। हालांकि अब तक खुद ठाकुर इस विषय पर खुलकर नहीं बोल रहे लेकिन होलीलॉज से उनके नजदीकी जगजाहिर है। एक पक्ष ये भी है कि राजेंद्र ठाकुर आगामी विधानसभा चुनाव में मैदान में उतरना चाहते है। अर्की में फिलवक्त संजय अवस्थी का टिकट कटना मुमकिन नहीं लगता और ऐसे में जाहिर है ठाकुर यदि कांग्रेस में आ भी गए तो भी उन्हें टिकट नहीं मिलेगा। सो ठाकुर किसी अन्य राजनीतिक विकल्प पर विचार कर सकते है या फिर निर्दलीय भी ताल ठोक सकते है। बहरहाल, ठाकुर के अगले कदम पर सबकी निगाहें टिकी है। भाजपा को कम आंकना ठीक नहीं .... अर्की उपचुनाव में भाजपा की स्थिति ठीक नहीं थी। पार्टी का एक बड़ा तबका प्रत्याशी के चयन से नाखुश था और ये नाराजगी जमीनी स्तर पर साफ दिख रही थी। इस पर ये स्व. वीरभद्र सिंह का निर्वाचन क्षेत्र है तो सहानुभूति भी खूब दिख रही थी। शुरुआती दौर में तो लग रहा था कि भाजपा की हार का अंतर दस हज़ार के आसपास भी रह सकता है। पर अंतर रहा करीब 3200 का। ऐसे में यदि भाजपा एकजुट होकर चुनाव लड़े तो कांग्रेस की राह आसान नहीं होगी। इसी के चलते राजेंद्र ठाकुर की भूमिका इस चुनाव में अहम् हो सकती है।
- टिकट के लिए मजबूत हुआ मुसाफिर का दावा एक बार फिर प्रदेश कांग्रेस की कमान होलीलॉज को सौंप दी गई है। प्रतिभा सिंह तो प्रदेश अध्यक्ष बनी ही है, वीरभद्र सिंह के करीबी रहे कई नेताओं को भी पार्टी ने अहम पदों पर जिम्मेदारी दी है। इस फेरबदल ने कई नेताओं की सुस्त होती दिख रही सियासत को भी चुस्त कर दिया है। ऐसा ही एक नाम है गंगूराम मुसाफिर का। पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से रिकॉर्ड सात बार विधायक रहे मुसाफिर वीरभद्र सिंह के खासमखास सिपाही रहे हैं। गंगूराम मुसाफिर लगातार बीते तीन चुनाव हार चुके है और इस बार उनके टिकट को लेकर संशय की स्थिति है। पर अब उन्हें प्रदेश कांग्रेस कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया गया है। ऐसे में ये तय है कि इस बार भी टिकट के लिए उनका दावा मजबूत रहने वाला है। गंगूराम मुसाफिर ने 1982 से लेकर 2007 तक के विधानसभा चुनाव में लगातार सात बार जीत दर्ज की। 1982 में मुसाफिर ने एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा और जीता, लेकिन 1985 से वह कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। वह मंत्री के अलावा हिमाचल विधानसभा के स्पीकर भी रह चुके हैं। पर 2012 के विधानसभा चुनाव में मुसाफिर को भाजपा के सुरेश कश्यप से 2805 वोटों से हार मिली। 2017 में कांग्रेस ने फिर मुसाफिर को मैदान में उतारा लेकिन जनता ने उन्हें फिर नकार दिया। इसके बाद 2019 के उपचुनाव में भी कांग्रेस ने मुसाफिर पर भरोसा जताया लेकिन मुसाफिर जीतने में असफल रहे। लगातार तीन चुनाव हारने के बाद और दयाल प्यारी की एंट्री से भी इस बार मुसाफिर की राह आसान नहीं दिख रही थी, विशेषकर वीरभद्र सिंह के निधन के बाद। उधर, क्षेत्र में एक तबका दयाल प्यारी को टिकट देने का हिमायती दिख रहा था, लेकिन अब बदले राजनीतिक समीकरणों के बाद गंगूराम मुसाफिर फिर टिकट की रेस में बाजी मार सकते है। मुश्किल हो सकती है दयाल प्यारी की राह : दयाल प्यारी लम्बे समय तक भाजपा में रही लेकिन जब भाजपा में 2019 में उन्हें टिकट नहीं दिया तो वे निर्दलीय चुनाव लड़ी। वे जीत नहीं सकी लेकिन चुनाव में अपनी दमदार मौजूदगी जरूर दर्ज करवाई। उनका भाजपा में कई नेताओं के साथ छत्तीस का आंकड़ा रहा है और शायद इसी के चलते उनकी भाजपा में घर वापसी नहीं हुई। इस बीच 2021 में वे कांग्रेस में शामिल हो गई। इसके बाद से ही मुसाफिर विरोधी गुट उन्हें टिकट देने की हिमायत कर रहा है। पर अब होलीलॉज और मुसाफिर के मजबूत होने के बाद दयाल प्यारी की राह मुश्किल हो सकती है।
अगर सत्ता मिली, तो दिलचस्प होगा चुनाव के बाद का चुनाव सियासी जुदाई का दंश झेल रहे होलीलॉज के निष्ठावानों में एक नई ऊर्जा का प्रवाह होता दिखाई दे रहा है। हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव नजदीक देख बीते दिनों कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी और लोकसभा सांसद प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया है। दरअसल, वर्तमान परिवेश में कांग्रेस के पास वीरभद्र सिंह की विरासत पर भरोसा करने के अलावा कोई विकल्प भी नहीं दिख रहा था। विशेषकर उपचुनाव में वीरभद्र सिंह के नाम का असर साबित होने के बाद तो ये तय था कि पार्टी आलाकमान जो भी निर्णय लेगा उसमें होलीलॉज को तवज्जो मिलेगी, और हुआ भी ऐसा ही। हालांकि प्रदेश की सरदारी संभालने के लिए महत्वाकांक्षी नेताओं की फेहरिस्त लम्बी थी और इनमें कई दमदार नेता शामिल थे। ऐसे में पार्टी में अंतर्कलह की स्थिति पैदा न हो इसके लिए पार्टी के अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी महत्वपूर्ण पद सौंपे गए है। मुकेश अग्निहोत्री का नेता प्रतिपक्ष के लिए पद बरकरार रखा गया, तो सुखविंद्र सिंह सुक्खू को चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपी गई। अलबत्ता अन्य वरिष्ठ नेताओं को भी अहम् जिम्मेदारियां देकर संतुलन साधने का प्रयास किया गया है, पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि नई कार्यकारिणी में भी वीरभद्र कैंप की मौजूदगी अधिक दिखती है। यानी वीरभद्र सिंह के नाम का असर और रसूख बरकरार दिख रहा है। कांग्रेस की नई कार्यकारिणी में शामिल चारों कार्यकारी अध्यक्ष वीरभद्र सिंह के समर्थक माने जाते है। चम्बा से कांग्रेस के वरिष्ठ नेता हर्ष महाजन होलीलॉज के करीब है और सिर्फ वे कई बार वीरभद्र सिंह के चुनाव प्रभारी भी रह चुके है। कहते है कि साल 2012 के विधानसभा चुनाव में वीरभद्र सिंह को मुख्यमंत्री बनाने में हर्ष महाजन का सबसे बड़ा योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त पवन काजल, राजेंद्र राणा और विनय कुमार भी वीरभद्र सिंह के समर्थक रहे है। पवन काजल तो वीरभद्र सिंह के पसंदीदा नेताओं में से एक थे और उन्हें कांग्रेस में लाने वाले भी वीरभद्र सिंह ही थे। पिछले लोकसभा के दौरान वीरभद्र ने स्वयं फील्ड पर उतर कर उनके लिए वोट भी मांगे थे। वहीं शिलाई विधानसभा क्षेत्र से विधायक हर्षवर्धन चौहान को विधानसभा में डिप्टी सीएलपी लीडर बनाया गया है। हर्षवर्धन चौहान शिलाई विधानसभा क्षेत्र से चौथी बार विधायक बने हैं। वह पूर्व वीरभद्र सरकार में मुख्य संसदीय सचिव भी रह चुके हैं। वे वीरभद्र के करीब न सही लेकिन उनसे दूर भी नहीं है। पच्छाद विधानसभा क्षेत्र से वीरभद्र सिंह के पक्के समर्थक रहे जीआर मुसाफिर को एक बार फिर प्रदेश कांग्रेस कमेटी में उपाध्यक्ष बनाया गया है। गंगूराम मुसाफिर पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरभद्र सिंह के खासमखास सिपाही रहे हैं। चीफ व्हिप बनाए गए जगत सिंह नेगी, सीनियर वाइस प्रेजिडेंट इंद्र दत्त लखनपाल और कुल्लू से विधायक सुंदर सिंह ठाकुर भी इसी खेमें के माने जाते है। इन सभी के अलावा कार्यकारिणी में शामिल कई अन्य नेता भी वीरभद्र सिंह के करीबी रहे है जिसमें आशा कुमारी, मुकेश अग्निहोत्री, आशीष बुटेल और सुधीर शर्मा के नाम शामिल है। यहाँ ये जहन में रखना भी जरूरी है कि वर्तमान में मुकेश अग्निहोत्री की अपनी लॉबी है, कई विधायक उनके समर्थक है। पर इसका मतलब ये भी नहीं अग्निहोत्री होलीलॉज से दूर हो गए है। ये सियासत है, आपस में मिली भगत से बड़े मुकाम हासिल किये जा सकते है। इसमें कोई संशय नहीं कि अगर कांग्रेस सत्ता में लौटी तो चुनाव के बाद का चुनाव बेहद दिलचस्प होगा।
' हिमाचल में तीसरे मोर्चे या पार्टी का कभी कोई अस्तित्व नहीं रहा'..जब से आम आदमी पार्टी मैदान में उतरी है, भाजपा -कांग्रेस के कई नेता एक सुर में ये ही सियासी राग अलाप रहे है। पर ये सत्य नहीं है। 1998 के चुनाव में तीसरी पार्टी ही किंगमेकर थी। तब हिमाचल विकास कांग्रेस की वजह से भाजपा सरकार बनी और कांग्रेस ने पांच साल सत्ता विरह भोगा। 1998 के बाद अब पहली बार हिमाचल प्रदेश में कोई तीसरी पार्टी दमखम से मैदान में उतरती दिख रही है। आम आदमी पार्टी का दावा है कि सरकार उनकी बनेगी, सियासत में ऐसे दावे सभी करते है सो आप भी कर रही है। ये अलग बात है कि आप के पास फिलवक्त वो जमीनी संगठन नहीं दिख रहा जो उसे कांग्रेस -भाजपा के मुकाबले में लाकर खड़ा कर दें। पर असल सवाल ये है कि 'किंग' न सही क्या आम आदमी पार्टी 'किंग मेकर' बन सकती है। क्या जो 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस ने किया था वैसा आप कर पायेगी। इसका जवाब तो आने वाला समय ही देगा लेकिन ये तय है कि आप को हल्के में लेना कांग्रेस -भाजपा दोनों को भारी जरूर पड़ सकता है। ऐसे किंग मेकर बने थे पंडित सुखराम : 1993 में प्रचंड बहुमत के साथ कांग्रेस प्रदेश की सत्ता में लौटी और वीरभद्र सिंह ने तीसरी बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। सरकार का कामकाज ठीक ठाक था और प्रदेश में वीरभद्र सिंह सरकार के खिलाफ कोई एंटी इंकम्बेंसी नहीं थी, अपितु कुछ हद तक प्रो इंकम्बैंसी जरूर दिख रही थी। पर कांग्रेस के भीतर सब कुछ ठीक नहीं था। दरअसल पंडित सुखराम और वीरभद्र सिंह की महत्वकांक्षाएं पहले से ही टकराती आ रही थी। 1982 में जब ठाकुर राम लाल को बदलने का वक्त आया था तो पार्टी में वीरभद्र सिंह को पंडित सुखराम पर तवज्जो दी गई थी। फिर 1990 में वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में पार्टी हारी तो पंडित सुखराम को आस थी कि अगली मर्तबा मुख्यमंत्री का ताज उनके सिर सजेगा। पर ऐसा हुआ नहीं और 1993 में भी वीरभद्र सिंह ही मुख्यमंत्री बने। हालांकि तब सांसद रहे पंडित सुखराम को केंद्र की नरसिम्हा राव सरकार में टेलीकॉम मंत्री का पद दिया गया था। मंत्री रहते पंडित जी ने मंडी का खूब विकास किया लेकिन 1996 में उन पर टेलीकॉम घोटले का आरोप लगा और उसके बाद कांग्रेस से उनकी राह जुड़ा हो गई। 1998 आते - आते पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस का गठन किया और उनकी पार्टी में कई कांग्रेसी विधायक और नेता भी जुड़े गए जिनमें महेंद्र सिंह और रामलाल मारकंडा सहित कई बड़े नाम थे। पार्टी पुरे दमखम से लड़ी और माहौल कुछ ऐसा बना कि विधासभा कि लड़ाई त्रिकोणीय हो गई। जब नतीजे आएं तो पंडित जी की पार्टी सत्ता में तो नहीं आई पर किंगमेकर की भूमिका में जरूर आ गई। त्रिशंकु विधानसभा में पांच सीटें हिमाचल विकास कांग्रेस ने जीती और उनके बगैर सरकार का गठन मुमकिन नहीं था। पंडित जी ने वीरभद्र सिंह के साथ न जाकर प्रेम कुमार धूमल के नेतृत्व वाली भाजपा गठबंधन सरकार को समर्थन दिया। गठबंधन की ये सरकार बनी भी और पहली बार हिमाचल में पांच साल गठबंधन की सरकार चली भी। 23 सीटों पर तह कांटे का मुकाबला : 1998 के विधानसभा चुनाव में काँटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इनमें से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी जिसमें तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस ने सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। तब यदि हिमाचल विकास कांग्रेस न होती तो 1998 में वीरभद्र दूसरी बार रिपीट कर जाते। इससे पहले 1985 में उन्हीं के नेतृत्व में आखिरी बार हिमाचल में कोई सरकार रिपीट हुई थी। बगैर चेहरे के नहीं बनेगी 'आप' की बात ! पंडित सुखराम हिमाचल की सियासत का वो नाम है जो किसी परिचय का मोहताज नहीं। हिमाचल विकास कांग्रेस का चेहरा खुद पंडित सुखराम थे। जबकि आम आदमी पार्टी अब तक अरविन्द केजरीवाल के चेहरे पर आगे बढ़ रही है। प्रदेश का कोई ऐसा चेहरा पार्टी के साथ नहीं है जो पंडित सुखराम जैसा सियासी वजन रखताहो। मज़बूत हिमाचली चेहरे का न होना आप की सबसे बड़ी कमजोरी है और जानकार मानते ही कि यदि चेहरा न मिला तो इस बार के चुनाव में आप की भूमिका "वोट कटवा" से ज्यादा शायद न रहे। पंजाब में पार्टी दस साल की मेहनत के बाद सत्ता में लौटी है, पर हिमाचल में ढंग से काम करते अभी जुमा - जुमा चार दिन हुए है।
बैठकों का दौर जारी है और उम्मीद कायम। रणनीतिकार प्रशांत किशोर की कांग्रेस में एंट्री पर राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले तमाम लोगों की निगाहें टिकी है, विशेषकर कांग्रेस के निष्ठावान अब आशावान दिख रहे है। उम्मीद है कि अगर प्रशांत की एंट्री हो गई तो शायद आवश्यक बदलाव की राह भी खुल जाएं। दरअसल ये सर्वविदित है कि कांग्रेस में टॉप टू बॉटम बदलाव जरूरी है, पर पार्टी आलाकमान मानो वक्त काट रहा है। ऐसे में खबरें सामने आ रही है कि प्रशांत किशोर ने पार्टी को पुर्नजीवित करने का ब्लूप्रिंट पेश किया है और जल्द पार्टी इस पर आगे बढ़ सकती है। खासबात ये है कि इसमें उन राज्यों को लेकर भी विशेष योजना है जिनमें इस साल के अंत में या अगले साल विधानसभा चुनाव है। इसी वर्ष के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव है, तो अगले साल कर्नाटक, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश जैसे बड़े राज्यों में चुनाव है। हिमाचल प्रदेश में पार्टी संगठन में बदलाव के कयासों के बीच पार्टी आलाकमान और रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बीच हो रही मैराथन बैठकों पर सबकी निगाहें टिकी है। अब प्रशांत और कांग्रेस के बीच बात बनी तो ये तय है कि हिमाचल में भी संभावित बदलाव प्रशांत किशोर के हिसाब से होंगे। शायद ये ही कारण है कि अब तक हिमाचल में पार्टी ने कोई बड़ा निर्णय नहीं लिया है जबकि चुनाव में मात्र कुछ माह ही शेष है। वीरभद्र फैक्टर अब भी असरदार : उपचुनाव में कांग्रेस के शानदार प्रदर्शन का एक बहुत बड़ा कारण स्व. वीरभद्र सिंह के प्रति सहानुभूति भी था। वीरभद्र सिंह के निधन के बाद जिस तरह का जनसैलाब उमड़ा था वैसे शायद ही कभी देखने को मिला हो। अब भी वीरभद्र सिंह के नाम का असर प्रदेश में दिखता है। वीरभद्र सिंह के पुत्र विक्रमादित्य सिंह वर्तमान में विधायक है, तो वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह सांसद है। कुछ क्षेत्र विशेष में तो इस परिवार के प्रति लोगों का लगाव स्पष्ट दिखता है। ऐसे में जानकार मानते है कि सत्ता वापसी के लिए होलीलॉज को विशेष तवज्जो मुमकिन है। पर वंशवाद इसमें रोड़ा है। अब इसे लेकर प्रशांत किशोर की क्या सोच रहती है ये देखना रोचक होगा, बशर्ते पहले प्रशांत किशोर की एंट्री तो हो।
एंटी इंकम्बेंसी साधने के लिए चेहरे बदल देना भाजपा की सियासी प्रयोगशाला का नया पैंतरा है। पिछले वर्ष गुजरात के निकाय चुनाव से शुरू हुआ ये प्रयोग बदस्तूर जारी है। इसके बाद एंटी इंकम्बेंसी भांपते हुए पार्टी ने गुजरात में मुख्यमंत्री सहित समस्त कैबिनेट बदल दी, तो उत्तराखंड में चुनाव से पूर्व दो बार मुख्यमंत्री को बदल डाला। बेशक हिमाचल प्रदेश में जयराम सरकार को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर कोई सत्ता विरोधी लहर नहीं दिख रही है और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की सरल और ईमानदार छवि अब तक उनकी ढाल बनी हुई है, लेकिन कई मंत्रियों और विधायकों के लिए जमीनी स्तर पर असंतोष की स्थिति से इंकार नहीं किया जा सकता। ऐसे में जानकार मानते है कि पार्टी कई मंत्रियों और विधायकों के टिकट काटने से भी गुरेज नहीं करेगी। टिकट आवंटन से पहले बकायदा कई सर्वे होंगे और जिसकी रिपोर्ट ठीक नहीं, उसे टिकट नहीं। ऐसे में कई मंत्रियों और विधायकों को झटका लग सकता है। माना जा रहा है कि कई विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी नए चेहरों पर दाव खेल सकती है। उपचुनाव में गलत टिकट आवंटन का खामियाजा भुगत चुकी भाजपा आगामी विधानसभा चुनाव में फूंक - फूंक कदम रखेगी। तब तीनों विधानसभा क्षेत्र हो या मंडी संसदीय क्षेत्र, पार्टी के टिकट आवंटन पर हर जगह सवाल उठे। अर्की में पार्टी का बड़ा खेमा रतन सिंह पाल के विरोध में था लेकिन पार्टी इसे भाप नहीं पाई। फतेहपुर में 2017 में बगावत कर चुनाव लड़ने वाले बलदेव ठाकुर को टिकट देकर कृपाल परमार को नाराज किया, तो जुब्बल कोटखाई में परिवारवाद के नाम पर दस साल पार्टी में लगा चुके चेतन का टिकट काटने की भूल कर दी। वहीँ मंडी संसदीय क्षेत्र में तो ऐसा लगा मानो चुनाव खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ही लड़ रहे हो। ऐसे में विधानसभा चुनाव में पार्टी सुनिश्चित करना चाहेगी कि टिकट वितरण में कोई चूक न हो। अधिकारी - पत्रकार भी कतार में : आगामी विधानसभा चुनाव में कई अधिकारी और पत्रकार भी सियासत में किस्मत आजमाते दिख सकते है। विशेषकर भाजपा टिकट के लिए इनमें से कई चाहवान है। कई अधिकारी - पत्रकार तो अब ग्राउंड में भी दिखने लगे है। वहीँ चुनावी बेला में कई और चेहरे पैराशूट से मैदान में उतर सकते है। 2017 में भाजपा ने आईजीएमसी के डॉक्टर राजेश कश्यप को सोलन से मैदान में उतारा था, अब फिर आईजीएमसी के एक डॉक्टर को लेकर कयास लग रहे है।
6 अप्रैल को मंडी में हुए हिट रोड शो के बाद 23 अप्रैल का दिन कांगड़ा में रैली के लिए मुकर्रर था। स्थान चुना गया शाहपुर। आप का दावा था कि इस बार रैली सुपरहिट होगी। माहौल ऐसा जमेगा कि भाजपा -कांग्रेस के पैर के नीचे से जमीन खिसक जाएगी। हालांकि आप के तरकश में न तो हिमाचल प्रदेश का कोई बड़ा सियासी चेहरा था और सच कहे तो जमीनी स्तर पर भी प्रबंधन बेहतर नहीं दिख रहा था। फिर भी तीर निशाने पर लगा। हालाँकि शुरूआती दौर में खाली कुर्सियां दिखी तो लगा कि आप को अति आत्मविश्वास ले बैठा। पर सूरज चढ़ते चढ़ते माहौल भी बनने लगा और पंडाल खचाखच भर गया। इससे एक दिन पहले यानी 22 अप्रैल को भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने भी कांगड़ा के नगरोटा बंगवा में रोड शो व रैली कर चुनावी हुंकार भरी थी। सियासी नजर से परखे तो नड्डा के कार्यक्रम की टीआरपी एवरेज थी, न कमाल और न बुरा। ऐसे में जाहिर है आप पर भी दबाव था। पर बगैर मजबूत जमीनी संगठन के भी आप का आयोजन बेहतर रहा। ये न सिर्फ भाजपा के लिए, बल्कि कांग्रेस के लिए भी आई ओपनर है। अलबत्ता अभी तो आप के पास प्रदेश में मजबूत चेहरा नहीं हैं, यदि चेहरा मिल गया तो दोनों दलों के लिए मुश्किल तय होगी। नेताओं को केजरीवाल का निमंत्रण : हिमाचल में आप के पास चेहरा नहीं है और कांगड़ा की रैली में भी कोई बड़ा सियासी चेहरा पार्टी में शामिल नहीं हुआ। ये आप के सामने बड़ी चुनौती है। केजरीवाल भी इस बात को जानते है और इसीलिए मंच से भाजपा-कांग्रेस के नेताओं को आप ज्वाइन करने का निमंत्रण दे गए। टू दी पॉइंट बोले केजरीवाल : मंडी के कार्यक्रम की तरह ही कांगड़ा में भी अरविन्द केजरीवाल टू दी पॉइंट बोले। शिक्षा,स्वास्थ्य, सड़क, रोजगार, भ्रष्टाचार और बिजली के मुद्दों पर दिल्ली मॉडल की खूबियां बताई और फ्री बिजली के मुद्दे पर जयराम ठाकुर को नकलची बताकर सीधा निशाना भी साध गए।
आगाज ठीक है, पर बेहतर हो सकता था। जानकार मान रहे है कि हिमाचल की सियासत के दुर्ग कहे जाने वाले कांगड़ा में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा का चुनावी उद्घोष पूरे शबाब में नहीं दिखा। विशेषकर जब अगले ही दिन अरविंद केजरीवाल की जनसभा में भी कमोबेश उतनी ही भीड़ उमड़ी, तो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी के प्रबंधन पर सवाल उठना तो लाजमी है। हिमाचल प्रदेश में कुल 7792 बूथ है और हर बूथ पर भाजपा के त्रिदेव ( बूथ पालक, बूथ अध्यक्ष, पन्ना प्रमुख) है। जमीनी संगठन भी मजबूत है और संसाधनों के लिहाज से भी पार्टी ताकतवर। दूसरी तरफ हिमाचल में जुम्मा -जुम्मा चार दिन पहले आई आम आदमी पार्टी, जिसके पास न संगठन है और न ही प्रदेश में गहरी सियासी जड़ें। अब राजनैतिक आयोजनों के बाद अगर दोनों की तुलना करनी पड़े तो भाजपा के लिए ये सोचने का संदर्भ जरूर है। यहाँ ये जहन में रखना जरूर आवश्यक है कि एक माह के अंदर हिमाचल में ये नड्डा का दूसरा रोड शो था और इसके बाद भी उनके दौरे हिमाचल में जारी रहेंगे। स्पष्ट है भाजपा मिशन रिपीट में कोई कमी नहीं छोड़ना चाहती। वहीँ जगत प्रकाश नड्डा के लिए तो हिमाचल प्रदेश जीतना प्रतिष्ठता का सवाल भी है क्यों कि ये उनका गृह राज्य है। बहरहाल इस बात के लिए भाजपा की तारीफ जरूर करनी होगी कि पार्टी प्रो एक्टिव दिख रही है और ये खूबी ही भाजपा को सम्भवतः अन्य पार्टियों से अलग बनाती है। नड्डा के अलावा मई में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह सहित कई अन्य केंद्रीय मंत्री हिमाचल प्रदेश का रुख करेंगे। वहीं जून में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बिलासपुर में एम्स का उद्घाटन करने आएंगे। कांग्रेस को बदलना होगा गियर : कांगड़ा की सियासत में अगर बात कांग्रेस की करें तो अधिकांश निर्वाचन क्षेत्रों में फिलहाल पार्टी की गतिविधियां लगभग शून्य ही है। इसे कांग्रेस की विफलता ही कहेंगे कि मौजूदा समय में वो चर्चा से भी गायब है। पर कांग्रेस के काडर को हल्का लेने की भूल नहीं की जा सकती। हाल फिलहाल तो हिमाचल प्रदेश में मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही संभावित है, बाकी राजनीति में कुछ भी मुमकिन है।
विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कसौली निर्वाचन क्षेत्र के समीकरण बदल चुके है । दरअसल लंबे अरसे तक भाजपा में विभिन्न दायित्व संभाल चुके हरमेल धीमान अब आम आदमी पार्टी में शामिल हो चुके है। हरमेल धीमान जाने - माने समाजसेवी है और कई वर्षों के जमीनी स्तर पर काम कर रहे है। हरमेल भाजपा में भी टिकट के दावेदार थे और जानकार ये तय मान रहे है कि आगामी चुनाव में वे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार होंगे। उनके साथ उनके काफी समर्थक भी अब आप में शामिल हो रहे है। पर दिलचस्प बात ये है कि बीते दिनों कई कांग्रेसी विचारधारा के लोग भी आप में शामिल हुए है। इनमे युवा इंटक के नेता भी शामिल है। वहीँ माना जा रहा है कि आगामी दिनों में भाजपा -कांग्रेस से और कई लोग आप का दामन थाम सकते है। यानी दोनों पार्टियों से खफा असंतुष्ट नेता - कार्यकर्ताओं का मेल हरमेल के साथ मुमकिन है। इनके साथ आने का कितना लाभ आप और हरमेल को मिलता है, ये देखना रोचक होने वाला है। बहरहाल ये तय है कि कसौली में इस बार मुकाबला आमने -सामने का नहीं बल्कि त्रिकोणीय होने जा रहा है। कसौली वीआईपी निर्वाचन क्षेत्र है क्यों कि यहाँ से प्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री डॉ राजीव सैजल विधायक है। डॉ सैजल पिछले दो चुनाव हारते- हारते बचे है और लाज़मी है कि अब मंत्री होने के चलते क्षेत्र के लोगों की अपेक्षाएं भी उनसे बढ़ी है। ऐसे में ये बदले समीकरण उनकी परेशानी में इजाफा कर सकते है। वहीँ पिछले दो चुनाव में डॉ सैजल को कड़ी टक्कर देने वाले विनोद सुलतानपुरी इस बार प्रो एक्टिव जरूर है लेकिन क्या वे इस बार भीतरघात साध पाते है या नहीं, ये देखना भी रोचक होगा। फिलवक्त हरमेल धीमान लाइम लाइट में है। उनका चुनाव लड़ना भी तय है और जिस आक्रमकता के साथ वे मैदान में उतर चुके है वो डॉ सैजल और सुल्तानपुरी दोनों के लिए खतरे की घंटी है। दोनों नेताओं को ये जहन में रखना होगा कि हरमेल के साथ न सिर्फ आप के समर्थक होंगे बल्कि दोनों तरफ के असंतुष्ट भी उन्हें मजबूत कर सकते है। बहरहाल चुनाव में काफी वक्त है और हर दिन नए समीकरण बनते बिगड़ते रहेंगे।
दल कोई भी हो लेकिन जीत हमेशा मिली। कभी अंतर कम रहा तो कभी ज्यादा, पर महेंद्र सिंह ठाकुर का परचम निरंतर धर्मपुर विधानसभा क्षेत्र में लहराता रहा है। ठाकुर अब तक सात चुनाव जीते है, तीन भाजपा से, एक कांग्रेस से, एक हिमाचल विकास कांग्रेस से, एक लोकतांत्रिक मोर्चा से और एक बार निर्दलीय। दल बेशक बदलते रहे लेकिन जनता का भरोसा अब तक महेंद्र सिंह पर बरकरार रहा है। हालांकि पिछले तीन चुनाव वे भारतीय जनता पार्टी से ही जीते है। अब विधानसभा चुनाव से पहले उन्हें लेकर फिर कयासों का बाजार गर्म है। बहरहाल सियासत में कयास लगते रहते है लेकिन ठाकुर फिलवक्त भाजपा में ही है और जयराम सरकार के शक्तिशाली मंत्रियों में शुमार है। पर इस मर्तबा उनके लिए टिकट की राह शायद आसान न रहे। दरअसल बीते कुछ समय से महेंद्र सिंह बेवजह के विवादों से घिरे रहे है। परसेप्शन पॉलिटिक्स के पैमाने पर ये विवाद उनकी राह का रोड़ा बन सकते है। चर्चा वैसे ये भी है कि महेंद्र सिंह अपने बेटे रजत ठाकुर को आगे करने की इच्छा रखते है किन्तु वंशवाद के नाम पर दस साल पार्टी में लगा चुके चेतन बरागटा का टिकट काटने वाली भाजपा रजत को टिकट दें, ऐसा मुश्किल लगता है। इस पर भाजपा के युवा नेता नरेंद्र अत्री भी टिकट के दावेदारों में है। अत्री के साथ भाजपा का एक बड़ा तबका दिख रहा है और निश्चित तौर पर टिकट की दौड़ में वे महेंद्र सिंह को टक्कर देते दिख रहे है। उधर कांग्रेस को इस सीट पर अंतिम बार 1993 में जीत मिली थी और दिलचस्प बात ये है कि तब कांग्रेस उम्मीदवार थे महेंद्र सिंह ठाकुर। इसके बाद हुए पांच चुनाव में कांग्रेस ने महेंद्र सिंह के आगे पानी नहीं मांगा। बीते तीन चुनाव पर नज़र डाले तो 2007 में पार्टी यहाँ दस हज़ार वोट से हारी। 2012 में पार्टी ने बेहतर किया और ये अंतर करीब एक हजार वोट का रह गया, पर 2017 में फिर बढ़कर करीब दस हजार पहुंच गया। तीनों मर्तबा पार्टी के कैंडिडेट थे चंद्रशेखर। अब चंद्रशेखर की हार की हैट्रिक के बाद मुमकिन है कि पार्टी यहाँ से उम्मीदवार बदलने पर मंथन करें। कई दावेदार मैदान में दिख भी रहे है, पर कोई ऐसा नहीं जो फिलवक्त मजबूत स्थिति में हो। हालाँकि चुनाव में अभी वक्त है और समीकरण बदलते देर नहीं लगती। भूपेंद्र और आप को लेकर कयास : भाजपा और कांग्रेस के अलावा तीसरा मोर्चा भी धर्मपुर में कई मर्तबा कामयाब रहा है। 1998 में हिमाचल विकास कांग्रेस यहाँ से चुनाव जीती तो 2003 में लोकतांत्रिक मोर्चा को जीत मिली। हालांकि दोनों बार महेंद्र सिंह ही प्रत्याशी थे। 2017 के विधानसभा चुनाव नतीजों पर नजर डाले तो यहाँ करीब दस प्रतिशत वोट सीपीआईएम को मिला था और उम्मीदवार थे तब जिला परिषद सदस्य रहे भूपेंद्र सिंह। बीते जिला परिषद चुनाव में सज्जाओपिपलू वार्ड से मंत्री महेंद्र की बेटी वंदना गुलेरिया मैदान में थी और उनके सामने कांग्रेस और सीपीआईएम ने भूपेंद्र सिंह को साझा उम्मीदवार बनाया था। हालाँकि भूपेंद्र जीत न सके पर टक्कर कड़ी दी। अब आम आदमी पार्टी के मैदान में आने के बाद इन्हीं भूपेंद्र सिंह पर निगाहें टिकी है। कयास लग रहे है कि भूपेंद्र आप का दामन थाम सकते है, हालांकि उनकी तरफ से अब तक ऐसा कोई संकेत नहीं दिया गया है। पर जानकार मानते है कि यदि ऐसा होता है तो यहाँ त्रिकोणीय मुकाबला देखने को मिलेगा।
Kangra, the nerve center of Himachal Pradesh politics and the largest district in the state, has turned into a battleground for the ruling Bharatiya Janata Party and Aam Admi Party, while the faction-ridden main rival party - Congress is still lying low. today in his second visit to his home state in less than a fortnight, BJP national president JP Nadda led a roadshow before addressing a rally at Nagrota Bagwan in Kangra. The BJP rally and roadshow were conducted just before the Aam Aadmi Party national convener and Delhi chief minister Arvind Kejriwal’s rally at Shahpur in the district. Kangra is the district that paves the way for the power of Himachal Pradesh. Out of the 68 MLAs of Himachal, 15 come from the Kangra district. Nadda, who is beaming with confidence after BJP’s win in four states, is aware that winning assembly elections in his home state of Himachal is crucial not only for the party but for him too. He has fully turned his focus towards the hill state, where the Saffron Party is facing internal challenges and will have to battle anti-incumbency as well. Today hitting out at congress JP Nadda said that the Congress party has always snatched the rights of Himachal, they never gave what Himachal should have got. Whereas the BJP has always protected the rights of Himachal. He said that Congress was the party that took away the special category status from Himachal Pradesh in the year 1987. He said that BJP has done work for the country while Congress party workers waste their time talking about casteism, communalism, and nepotism. He said Jai Ram Thakur's government is an accountable government. Kangra gave Himachal its first non-Congress chief minister when BJP formed the government under the leadership of Shanta Kumar in 1977. However, infighting may hurt BJP in the district, where former minister Ramesh Dhawala and state organization secretary Pavan Rana are at daggers drawn. However, BJP has refuted any assertion of a threat to the party.
The Shimla civic body elections are crucial for all political parties in the state as the polls are being seen as a precursor to the assembly elections which are scheduled later this year. The Aam Aadmi Party (AAP) has decided to contest the upcoming Shimla municipal corporation (MC) elections only if they are held on party symbols, says the party’s state in-charge Satyendar Jain. In a press briefing, Stayender Jain said, that AAP will contest the Shimla MC polls only if it is held on party symbols. But, from what we have learned, the incumbent BJP government is not keen on holding the election on party symbols. It is likely that the MC elections will be held on the basis of candidates. If that happens, AAP will not contest the civic polls. Civic polls in Shimla are likely to be held in May as the current BJP-led civic body’s tenure is slated to end on June 2. Shimla has 41 wards, of which 21 are reserved for women, 17 for the general category, and four for the Scheduled Caste (SC) category. "AAP will not contest because then the BJP will take away all our winning candidates. By now, the AAP has reached a state where our party’s symbol - the broom - has gained significant popularity. Without any party symbol, why would anybody vote for the AAP? At present, our strength in Shimla is based more on the party symbol, the name of AAP, and (party chief) Arvind Kejriwal than any candidate whom we would have otherwise chosen,” he said.
हिमाचल में सियासत सुलग चुकी है मगर कांग्रेस अब भी बुझी-बुझी दिख रही है। एक तरफ भाजपा मिशन रिपीट के लिए अभी से भरपूर ताकत झोंक रही है, तो आम आदमी पार्टी भी पांव मजबूत करने को जोर आजमाइश कर रही है। वहीं कांग्रेस इसी असमंजस में है कि चुनावी मैदान में किस की लीडरशिप में उतरे। फिलवक्त तो हाल -ए- कांग्रेस कुछ ऐसा है कि दिग्गजों की दिलचस्पी विधानसभा चुनाव से ज्यादा प्रदेश अध्यक्ष के चयन में प्रतीत हो रही है। खुल कर कोई कुछ बोल नहीं रहा और कसर कोई कुछ छोड़ नहीं रहा। ये महारथी इसी गुणा भाग में लगे है कि अध्यक्ष पद पर किसके आने-जाने, रहने या न रहने से उनके सियासी भविष्य पर क्या असर हो सकता है। इसी व्यस्तता में शायद विधानसभा चुनाव की हलचल भी पार्टी को सुनाई नहीं दे रही है। ये अलग बात है कि धरातल स्थिति से परे नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा परवान पर है और पांच साल में सत्ता परिवर्तन की सियासी थ्योरी के भरोसे पार्टी आशावान। वो कहते है ना, "मन के लड्डू छोटे क्यों, छोटे हैं तो फीके क्यों.." इस बार विधानसभा चुनाव का रण निश्चित तौर पर कठिन होना है, बावजूद इसके कांग्रेस अभी तक फुल ऑन एक्शन मोड में नहीं दिख रही। वहीं एक महीने पहले हिमाचल में सक्रिय हुई आम आदमी पार्टी सत्तासीन भाजपा सरकार को घेरने में आगे है। पलटवार करते हुए भाजपा भी आम आदमी पार्टी की टांग खींच रही है, और इन दोनों के वाक्युद्ध की बीच कांग्रेस का जिक्र भी मुश्किल हो रहा है। हालांकि कांग्रेस के कुछ नेता जरूर अपने स्तर पर मोर्चा संभाले हुए है, लेकिन सब अलग -अलग। सत्ता वापसी के लिए पार्टी को जिस सामूहिक और सशक्त प्रयास की दरकार है, वो अब तक लगभग नदारद दिख रहा है। प्रदेश में भाजपा के बड़े नेता ग्राउंड पर है। खुद राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा हिमाचल में हुंकार भर चुके है। गुटबाजी के बावजूद पार्टी कार्यकर्त्ता जोश में दिख रहे है। इसी तरह आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल एक पखवाड़े में प्रदेश में दूसरा रोड शो करने जा रहे है। पार्टी का कुनबा तेजी से बढ़ रहा है और अब तो कोंग्रेसियों के बाद भाजपाई भी आप में शामिल हो रहे है। वहीं कांग्रेस अब तक सुस्त है, मानो किसी सियासी मुहूर्त का इन्तजार हो। प्रदेश प्रभारी राजीव शुक्ला की अगुवाई में महंगाई के खिलाफ हुए हल्ला बोल को छोड़ दिया जाए तो अब तक खानापूर्ति ही होती दिखी है। इतिहास तस्दीक करता है कि अब तक हिमाचल में दो ही मुख्य राजनीतिक दलों का बोलबाला रहा है और वो है भाजपा और कांग्रेस, मगर ये भी सत्य है की अगर कांग्रेस ने जल्द गियर न बदला तो इतिहास बदलते समय नहीं लगेगा। वीरभद्र के फेस पर लड़े पिछले आठ विधानसभा चुनाव : 1985 से लेकर साल 2017 तक हुए आठ विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के नेतृत्व में लड़े थे। मौटे तौर पर कांग्रेस में मुख्यमंत्री के चेहरे को लेकर कभी कोई भी संशय देखने को नहीं मिला। कभी संशय हुआ भी तो वीरभद्र सिंह ने समय रहते सारी शंकाएं दूर कर दी, कभी तेवर दिखाकर तो कभी शक्ति प्रदर्शन से। ये पहली दफा है जब कांग्रेस बिना वीरभद्र सिंह के चुनाव के रण में उतरेगी। निसंदेह पार्टी के पास अब भी उनका विकल्प नहीं दिख रहा। तब महंगाई से बड़ा कारण था सहानुभूति कांग्रेस ने उपचुनाव में बेहतर प्रदर्शन किया था। पार्टी कहती हैं कि जनता ने महंगाई और प्रदेश सरकार के खिलाफ वोट किया था। मगर हकीकत ये है कि उस चुनाव में वीरभद्र सिंह के लिए सहानुभूति फैक्टर ने कांग्रेस की राह आसान की। दूसरा भाजपा ने टिकट आवंटन में बड़ी गलतियां की थी, जिसकी गुंजाईश विधानसभा चुनाव में नहीं दिखती। यदि महंगाई इतना बड़ा फैक्टर हैं तो हाल ही में पांच राज्यों के चुनाव में ये फैक्टर क्यों नहीं चला। कांग्रेस को विवेचना करना होगा कि महंगाई एक मुद्दा जरूर हैं लेकिन सिर्फ महंगाई के मुद्दे पर चुनाव नहीं जीता जा सकता। अन्य जनहित के मुद्दों को लेकर भी पार्टी को हर विधानसभा क्षेत्र में उतरना होगा। तो दूल्हा तो ढूंढना ही होगा ! हिमाचल प्रदेश कांग्रेस में नेतृत्व परिवर्तन की अटकलों के बीच अब नई खबर ये भी है कि कांग्रेस सामूहिक नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ सकती है। कांग्रेस की वर्तमान स्थिति देखें तो महत्वाकांक्षी नेताओं के बीच आपसी सेटलमेंट करवाने में जुटी हाईकमान के लिए ये एक सेफ फैसला हो सकता है। मगर सवाल ये है कि क्या कांग्रेस बिना मुख्यमंत्री के चेहरे के चुनाव में बेहतर कर पाएगी ? याद रहे ये वो ही कांग्रेस है जो भाजपा को बिन दूल्हे की बारात कहा करती थी। माहिर मानते हैं कि सत्ता के रंग से हाथ पीले करने हैं तो कांग्रेसी बारात को दूल्हा तो ढूंढना ही होगा।
हिमाचल की सियासत के सबसे बड़े किले काँगड़ा को फतेह करने के लिए भाजपा और आप ने रोड मैप तैयार कर लिया है। आबादी के साथ -साथ सियासी रसूख के लिहाज से भी सबसे बड़े जिले काँगड़ा में सियासी फ़िज़ा गरमाने लगी है। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविन्द केजरीवाल काँगड़ा का रुख करने वाले है। दरअसल काँगड़ा वो जिला है जो हिमाचल की सत्ता की राह को प्रशस्त करता है। हिमाचल के 68 विधायकों में से कुल 15 जिला कांगड़ा से चुनकर आते है। कहते है जिसने काँगड़ा जीत लिया उसका बेड़ा पार हुआ, और यही कारण है कि आप और भाजपा मिशन कांगड़ा पर निकल पड़े हैं। पिछले आठ विधानसभा चुनाव के नतीजों पर निगाह डाले तो जिसे कांगड़ा ने चाहा सरकार उसी की बनी। पिछले चुनाव में भी यहाँ भाजपा को 11 सीटें मिली थी और सरकार भी उसी की बनी। अब भाजपा अपने इस किले को बचाने के लिए मुस्तैद हैं तो आप सेंधमारी के लिए पूरी तरह तैयार। 22 अप्रैल को नगरोटा बगवां में जगत प्रकाश नड्डा का रोड शो है, तो इसके अगले दिन यानी 23 अप्रैल को अरविंद केजरीवाल की धर्मशाला में जनसभा होगी। जाहिर हैं वार पलटवार भी होंगे और सियासी ताप भी खूब बढ़ने वाला हैं। वहीं इस जोर आजमाईश और दम की नुमाईश में कांग्रेस अभी कहीं नहीं दिख रही। निगाहें कांग्रेस पर भी होगी, ये देखना रोचक होगा कि भाजपा और आप के इन आयोजनों के मुकाबले पार्टी क्या करती हैं और कब करती हैं। कांग्रेस के कई नेताओं के पाला बदलने के कयासों में कांगड़ा से भी एक बड़ा नाम इन दिनों चर्चा में हैं, अब ये भाजपा में जाते हैं या आप में या कांग्रेस में ही रहेंगे, ये देखना भी रोचक होगा। 'आप' को चाहिए दमदार चेहरा : 6 अप्रैल को मंडी में हुआ अरविन्द केजरीवाल और भगवंत मान का रोड शो कई मायनों में सफल रहा था और कई कसौटियों पर असफल। पार्टी ठीकठाक भीड़ इक्कठा करने में तो सफल हो गई थी लेकिन किसी बड़े नेता के पार्टी में शामिल होने के कयास सिर्फ कयास ही रह गए थे। ऐसे में कांगड़ा में आप की कोशिश रहेगी कि कुछ दमदार हिमाचली चेहरो को पार्टी में शामिल कर माहौल बनाया जा सके। यदि ऐसा नहीं होता हैं तो बगैर मजबूत स्थानीय चेहरे के पार्टी लम्बा दौड़ पायेगी, ऐसा नजदीक भविष्य में तो मुश्किल लगता है। जयराम जानते हैं, माइनस कांगड़ा मिशन रिपीट नहीं संभव बीते कुछ माह में खुद मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने कांगड़ा में मोर्चा संभाला हुआ हैं। लगातार मुख्यमंत्री कांगड़ा के दौरे कर रहे हैं और अमूमन हर निर्वाचन क्षेत्र पर उनकी कृपा बरसी हैं। जयराम जानते हैं कि माइनस कांगड़ा मिशन रिपीट संभव नहीं हैं और जाहिर हैं कांगड़ा को साधने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते। खुद मुख्यमंत्री जमीनी स्तर के पदाधिकारियों से संवाद साधे हुए हैं। जो शांता कुमार और प्रेम कुमार धूमल नहीं कर पाएं वो करने का दावा जयराम ठाकुर कर रहे हैं। 'ब' से बेहतर 'ब' से बदलाव : पिछली सरकार में स्वर्गीय जीएस बाली और सुधीर शर्मा जिला कांगड़ा में कांग्रेस के प्रमुख चेहरे रहे हैं। बाली अब रहे नहीं और सुधीर के खिलाफ पार्टी के भीतर ही कुछ असंतोष हैं। वर्तमान जिला संगठन भी छाप छोड़ने में कामयाब नहीं दिखा रहा। जानकार मानते हैं कि पार्टी को कांगड़ा में बेहतर करना हैं तो बदलाव करना होगा। आशीष बुटेल, भवानी पठानिया सहित कई ऐसे चेहरे हैं जो नेतृत्व करने में सक्षम दिखते हैं। इनमें से किसी को दायित्व और शक्ति दिए जाने की जरुरत हैं।
काँगड़ा जिला का इंदौरा विधानसभा क्षेत्र पंजाब के साथ सटा है। यहाँ लम्बे समय तक भाजपा का राज़ रहा है । इंदौरा से पूर्व में निर्दलीय विधायक रहे मनोहर धीमान भले ही भाजपा के समर्थक है, लेकिन भाजपा द्वारा उन्हें आज तक टिकट नहीं दिया गया । 2012 में मनहोर धीमान ने निर्दलीय चुनाव लड़ा और जीत भी हासिल की । भाजपा द्वारा इतने लम्बे समय तक टिकट न दिए जाने व अन्य विषयों को लेकर फर्स्ट वर्डिक्ट ने उनसे चर्चा की । पेश है बातचीत के कुछ अंश............ सवाल : आप लंबे समय तक भाजपा के साथ रहे हैं और 2012 में आप निर्दलीय विधायक चुनकर आए, लेकिन उसके बावजूद भी 2017 में पार्टी द्वारा आपको टिकट नहीं दिया गया, क्या कारण मानते हैं? जवाब: ऐसा कुछ भी नहीं है, यदि 2017 चुनाव की बात करे तो उस दौरान पार्टी के द्वारा मुझे आदेश दिया गया कि आप पार्टी के लिए कार्य कीजिये और महिला कोटे में मौजूदा विधायक को टिकट दी गई थी। उस दौरान जब मैंने नॉमिनेशन भरा था तो मेरे साथ भारी संख्या में क्षेत्र के लोग थे। उस समय के प्रदेश अध्यक्ष सतपाल सत्ती वहां पहुंचे और उन्होंने सब कुछ अपनी आंखों से देखा। उन्होंने हाईकमान को इसकी रिपोर्ट भी प्रेषित की। पार्टी ने मुझे इसके बावजूद इतना बड़ा सम्मान दिया है उसके लिए मैं पार्टी का धन्यवाद करता हूं। मैं पार्टी के हाईकमान को भी आश्वस्त करता हूं कि जो भी कार्य मुझे दिया जाएगा मैं उसका निर्वहन करुंगा। सवाल : 2012 से 2017 तक आप विधायक थे। क्षेत्र में ऐसे कौन से कार्य है जिन्हें आप के समय में शुरू किया गया था। क्या वह अभी भी सुचारु रूप से चल रहे है या कुछ ऐसे भी है जो बंद हो चुके है ? जवाब:मैंने विधायक रहते यहां की जनता को जो सबसे बड़ी सुविधा दी थी वह था एसडीएम कोर्ट। यहाँ के कुछ क्षेत्रों के लोगो को यदि एसडीएम कार्यालय जाना होता था तो उन्हें रात को नूरपुर में रहना पड़ता था और अगले दिन अपना कार्य करना होता था। मैं मानता हूँ कि यह इस क्षेत्र के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है। मैं जनता का भी धन्यवाद करता हूं कि उन्होंने मुझे बतौर निर्दलीय विधायक चुना और मैंने भी पूरा प्रयास किया कि लोगो की उम्मीदों पर खरा उतर सकूँ और जनता ने भी आज तक उस बात को याद रखा है। जब मैं विधायक था तो मैंने कई कार्य किए थे, उसमें छौंज खंड का एक प्रोजेक्ट था जिसकी लम्बाई 26 किलोमीटर है और इसकी लागत 190 करोड की थी। इसके अलावा एक और ऐसा प्रोजेक्ट है जो इस इलाके के लिए वरदान साबित हुआ है। इंडस्ट्रियल एरिया डाक बराड़ा के पास हमने इंडस्ट्री लगाई थी और कई लोगों को उसमे रोज़गार मिला है। सवाल : वर्तमान विधायक द्वारा करवाए गए कार्यों से क्या आप सहमत हैं? जवाब: सरकार की ओर से जो स्कीमें चली है उसको लेकर अच्छा कार्य हो रहा है। जो विधायक की कार्यशैली है उसके मुताबिक वह अच्छा कार्य कर रही है। ये तो जनता बताएगी की कार्य हुआ है या नहीं। सवाल : क्या मनोहर धीमान आगामी विधानसभा चुनाव में चुनाव लड़ेंगे या नहीं? जवाब: मैं पिछले चुनाव में सिटिंग एमएलए था। 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं ने मुझे आश्वस्त किया कि इस बार आप टिकट की दौड़ से बाहर रह गए हैं तो आप मौजूदा विधायक का समर्थन करे और उन्हें विजयी बनाए। हमने भारतीय जनता पार्टी के शीर्ष नेताओं का सम्मान करते हुए उनको जिताया और जो हाईकमान फैसला करेगा वह सर्पोपरि होगा। सवाल : यदि फिर से आपको टिकट नहीं दी जाती है तो क्या बतौर आज़ाद उम्मीदवार चुनाव लड़ेंगे ? जवाब: आजाद लड़ने की तो नौबत नहीं आएगी, मैं पार्टी के टिकट पर ही चुनाव लडूंगा। सवाल : पंजाब में हाल ही में चुनाव हुए हैं और आम आदमी पार्टी की शानदार जीत हुई है। इसके बाद हिमाचल पर भी इसका असर होता दिख रहा है। इंदौरा की यदि बात की जाए तो इंदौरा बिल्कुल पंजाब के साथ सटा क्षेत्र है। आपको क्या लगता है कि आम आदमी पार्टी का इंदौरा पर क्या असर होगा ? जवाब: हिमाचल में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है और सरकार द्वारा बहुत अच्छे कार्य हुए है। संयोग यदि हम देखे तो पंजाब में हमारी दोनों ओर भारतीय जनता पार्टी की सीटें आई है। मुझे नहीं लगता कि यहां पर झाड़ू का कोई असर होगा। मुझे भी पंजाब के मुकेरियां जिला में जिम्मेवारी दी गयी थी जहाँ का परिणाम बहुत अच्छा रहा है। वहां के विधायक जंगी लाल महाजन बहुत अच्छे अंतर से जीते हैं। उन दोनों सीटों का प्रभाव हमारे विधानसभा क्षेत्र में पड़ेगा और मुझे लगता है कि झाड़ू का हिमाचल में कोई रोल नहीं है। लोग जरूर आम आदमी पार्टी में जा रहे हैं, हमें भी हाल ही में पता चला कि हमारे विधानसभा क्षेत्र के भी कुछ लोग "आप" में शामिल हुए है। कांग्रेस से जो रुष्ट लोग हैं वो ही आम आदमी पार्टी में जा रहे हैं, भारतीय जनता पार्टी का कोई भी व्यक्ति आम आदमी पार्टी में शामिल नहीं हुआ है और ना ही कोई होगा। सवाल : आगामी विधानसभा चुनाव नजदीक है और भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए किस तरह कि तैयारियां की जा रही है ? जवाब: यदि मैं व्यक्तिगत तौर पर अपनी बात करूं तो मैं सुबह घर से निकलता हूं और घर-घर, गांव-गांव जाकर भारतीय जनता पार्टी की नीतियों को लोगो तक पहुंचा रहा हूँ। मैं प्रदेश और केंद्र सरकार की सभी नीतियों का लोगो के बीच में प्रचार प्रसार कर रहा हूँ। लोगों के दुख सुख में शामिल हो रहा हूँ। हम लोगों का मन भी पढ़ रहे हैं और लोगों को जागरूक भी कर रहे हैं कि मोदी है तो मुमकिन है। यह सब बातें लोगों के मन में है और लोग बढ़-चढ़कर भारतीय जनता पार्टी से जुड़ रहे हैं और अगला चुनाव यहाँ से भाजपा ही जीतेंगे।
आगामी विधानसभा चुनाव की उलटी गिनती शुरू हो चुकी है और कई नेताओं के माथे पर अब चिंता की लकीरे खींची हुई है। टिकट मिलने के लिए अब कुछ नेता एक्टिव हो गए है, तो कुछ सुपर एक्टिव। टिकट किसे मिलेगा ये तो आने वाला समय ही तय करेगा, बहरहाल हाल ऐ इंदौरा भी कुछ ऐसा ही दिख रहा है। यहाँ गुटबाजी और अंतर्कलह के कारण भाजपा की मुश्किलें बढ़ती नज़र आ रही है, तो कांग्रेस में भी चेहरे को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। वहीँ अब आम आदमी पार्टी भी हिमाचल की 68 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान कर चुकी है, ऐसे में यहाँ के राजनैतिक समीकरण भी बदल सकते है। इस बार इंदौरा में दिलचस्प मुकाबला तय है। इंदौरा में पिछले दो चुनाव की बात करे तो 2012 के विधानसभा चुनाव में निर्दलीय मनोहर लाल धीमान ने जीत हासिल की थी और दूसरे नंबर पर कांग्रेस उम्मीदवार कमल किशोर थे, जबकि तीसरे स्थान पर बीजेपी उम्मीदवार रीता धीमान रही। उस समय मनोहर लाल धीमान कांग्रेस एसोसिएट विधायक रहे लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव आते ही करीब छः माह पूर्व ही मनोहर भाजपा में शामिल हो गए। तब मनोहर धीमान ने भाजपा से टिकट की मांग की थी लेकिन भाजपा ने पिछले उम्मीदवार यानी रीता धीमान पर ही दांव खेला और किसी तरह भाजपा मनोहर को मना कर अंतर्कलह साधने में भी सफल रही। नतीजन कांग्रेस के कमल किशोर को हरा कर रीता धीमान ने इस सीट पर जीत दर्ज की। मनोहर, रीता या कोई और : पर इस बार इंदौरा में भाजपा की डगर कठिन हो सकती है। पिछली बार यहाँ मनोहर धीमान भाजपा से टिकट की मांग कर रहे थे, तब पार्टी के कई बड़े नेताओं ने उन्हें मना कर जैसे तैसे भगवां लहराया। अब फिर विधानसभा चुनाव दस्तक दे रहे है और मनोहर धीमान फिर टिकट की कतार में है। अब यदि भाजपा फिर रीता धीमान को टिकट देती है तो मनोहर धीमान का क्या रुख होता है, ये देखना रोचक होगा। माना जा रहा है कि मनोहर इस बार चुनाव लड़ने के मूड में है, पार्टी टिकट पर या टिकट के बगैर। हालांकि खुद मनोहर अब तक इस विषय पर खुलकर नहीं बोल रहे है। दूसरी ओर विधायक रीता धीमान का दावा भी टिकट के लिए कमतर नहीं होगा, पर उनकी राह आसान नहीं दिख रही। दो चुनाव हार चुके है कमल किशोर : उधर कांग्रेस में फिलवक्त चेहरे को लेकर ही स्थिति स्पष्ट नहीं है। कांग्रेस के कमल किशोर को इस बार टिकट मिलना मुश्किल दिख रहा है। कमल किशोर लगातार कांग्रेस पार्टी के प्रत्याशी के रूप में दो चुनाव हार चुके है। 2012 के विधानसभा चुनाव में कमल निर्दलीय मनोहर धीमान के खिलाफ चुनाव हार गए थे। 2017 के चुनाव में भी पार्टी ने कमल किशोर को ही टिकट दिया लेकिन तब भी भाजपा की उम्मीदवार रीता धीमान ने कमल किशोर को हरा दिया। लगातार दो चुनाव हारने के बाद इस बार पार्टी कमल किशोर पर मेहरबान होगी या किसी नए चेहरे को मैदान में उतारेगी, ये तो आने वाला समय ही बताएगा। वायरल हुआ रीता के खिलाफ गुस्से वाला वीडियो : विद्याक रीता धीमान से जनता पूरी तरह संतुष्ट नहीं दिख रही। सोशल मीडिया पर उनकी एक जनसभा का वीडियो भी इन दिनों खूब वायरल हुआ है जिसमें एक युवक खुलकर उनके खिलाफ बोल रहा है। हालांकि रीता के पास गिनाने के लिए कई उपलब्धियां भी है। बहरहाल रीता के पास उपलब्धियां ज्यादा है या उनके खिलाफ अंसतोष, ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा।
हिमाचल प्रदेश में इस वर्ष के अंत तक विधानसभा चुनाव होने है और अभी से ही सियासी पारा चढ़ने लगा है। मौजूदा सरकार मिशन रिपीट का दावा कर रही है तो वहीं विपक्ष सत्ता वापसी को लेकर जमीन मजबूत करने में जुटी है। इसी बीच आरोप प्रत्यारोप भी जमकर हो रहे है। वहीं बीते दिनों विधायक आशा कुमारी ने कहा कि मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर को अहंकार हो गया है और प्रदेश की जनता इसका जवाब उन्हें जरूर देगी। आशा कुमारी ने कहा है कि कांग्रेस पार्टी लगातार कार्य कर रही है और अपनी पार्टी को मजबूत करने में जुटी है, लेकिन मुख्यमंत्री का यह कहना है कि कांग्रेस कहीं दिखाई नहीं दे रही है। मुख्यमंत्री को बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना का रोल अदा नहीं करना चाहिए। आशा कुमारी ने कहा है कि मुख्यमंत्री चार राज्य में हुए चुनाव के बाद मिशन रिपीट के सपने देख रहे हैं, यह तो प्रदेश की आम जनता तय करेगी कि किसे मिशन रिपीट करवाना है या फिर किसी सत्ता में लाना है यह जनता का काम है। भाजपा को अहंकार में रहने की आवश्यकता नहीं है. बड़े-बड़ों के अहंकार जनता तोड़ देती है, हमारी मुख्यमंत्री को सलाह है कि ज्यादा अहंकार अच्छा नहीं होता है।
हिमाचल प्रदेश देवभूमि है और शांतिप्रिय राज्य है। हिमाचल के सवर्णीय विकास में हर एक व्यक्ति का अपनी भूमिका है अपना सहयोग है। हिमाचल में आम आदमी पार्टी के नेताओं का स्वागत है। वे हिमाचल के लोगों का विश्वास जीतें, हमें आपत्ति नहीं है, लेकिन यहां आकर हमारे नेताओं का अपमान करने की कोशिश करें उनका तिरस्कार करें तो यह बर्दाश्त नहीं होगा। किसी भी तरह की बयानबाजी करने से पहले हिमाचल का इतिहास पढ़ लें। यह बात विधायक विक्रमादित्य सिंह ने बीते दिनों आप के रोड शो पर प्रतिक्रिया देते हुए कही। उन्होंने कहा कि प्रदेश के विकास में पूर्व मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, प्रेम कुमार धूमल व शांता कुमार का अहम योगदान रहा है। हिमाचल आकर यह कहना कि पूर्व के नेताओं ने कोई कार्य नहीं किया है, इसकी निंदा करते हैं। वहीं कांग्रेस पार्टी छोड़ कर आप में शामिल हो रहे कार्यकर्ताओं को लेकर विक्रमादित्य ने कहा कि आम आदमी पार्टी में हारे नेता शामिल हो रहे हैं। आप के पास ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जिसका अपना कोई वजूद है, जिसका अपना जनाधार है। हिमाचल में केवल वीरभद्र सिंह मॉडल ही चलेगा। कांग्रेस ने प्रदेश का समान विकास करवाया है और आगे भी इसी तरह काम करेंगे। कांग्रेस के पास मजबूत नेतृत्व है और एकजुटता के साथ चुनाव लड़ेंगे, जीतेंगे और हिमाचल प्रदेश का विकास करवाएंगे।
हिमाचल में अढ़ाई वर्षो से फ़ौज में भर्ती नहीं हुई है और युवाओं का सरकार के प्रति विश्वास उठता जा रहा है। यह बात बीते दिनों बड़सर के विधायक इंद्रदत्त लखनपाल ने कही। उन्होंने कहा कि हर वर्ष 50 से 60 हज़ार फौजी सेवानिवृत्त होकर घर आते हैं, जिनकी भरपाई हर रेजिमेंट को तुरंत चाहिए होती है। ऐसे में पिछले ढाई वर्ष में देश के फौजी भाइयों पर अतिरिक्त कार्य का दबाव है। हमारे युवा जो फ़ौज में भर्ती के लिए दिन रात पसीना बहा कर तैयारी करते हैं, उनके प्रति सरकार का यह रवैया अनुचित है.। इस समय फ़ौज में डेढ़ लाख पद के आसपास रिक्त हैं। उन्होंने कहा कि यदि इसी प्रकार से लम्बे समय तक इस पर रोक रही और भर्ती नहीं होगी तो नुक्सान केवल इन युवाओं का नहीं, देश का भी होगा। उन्होंने कहा कि इस संदर्भ में सरकार का तर्क था कि कोरोना आपदा है इसलिए भर्ती नहीं करवाई। चुनाव करवा लिए, बच्चों के एग्जाम करवा लिए, जनसभाओं को संबोधित कर लिया, जीत के जश्न मना लिए लेकिन भर्ती नहीं करवा पाए क्यूंकि कोरोना था। इन झूठे राष्ट्रभक्तों को मेजर जनरल यश मोर की बातें बहुत चुभेंगी, लेकिन सुननी चाहिए।
हिमाचल प्रदेश में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव होना प्रस्तावित हैं। ऐसे में दोनों राजनैतिक दल अपनी जमीन को मजबूत करने में जुटे है और आप ने हिमाचल की सियासत में उबाल ला दिया है। वहीं बीते दिनों भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर के हिमाचल दौरे के बाद सियासी हलचल तेज़ हो गयी है। बीते दिनों नड्डा ने शिमला में विधानसभा से पीटरहॉफ तक रोड़ शो किया और पीटरहॉफ में जनसभा कर कार्यकर्ताओं में नया जोश भरकर विरोधी पार्टियों पर जमकर निशाना साधा। जेपी नड्डा ने कहा कि बीजेपी चार राज्यो में फिर से स्थापित हुई है। मोदी की नीतियों ने समाज के अंतिम पायदान पर खड़े लोगों के आंसू पोछे है। कांग्रेस की यूपी में 399 में से 387 सीटों पर जमानत जब्त हुई है। वन्ही आप की सभी सीटों पर जमानत जब्त हुई है। उन्होंने कहा कि यूपी उत्तराखंड में सरकार हमारी है अब हिमाचल की बारी है। कांग्रेस ने प्रदेश में लंबे समय तक शासन किया और जनता का हक छीना है। केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद हिमाचल का हक मिला है। केंद्र की स्कीमों में 90:10 का रेशों अब हिमाचल को मिल रहा है। हिमाचल को बीजेपी ने देने का कॉंग्रेस ने लेने का काम किया। पांच सालों में प्रदेश में 6384 किलोमीटर सड़के बनी है। नड्डा ने कहा कि जयराम शरीफ है बोलते कम है काम ज्यादा करते हैं। वैक्सीनेशन में हिमाचल जयराम ठाकुर के नेतृत्व में नम्बर एक पर आया। नड्डा ने जयराम सरकार की उपलब्धियों की जमकर तारीफ की।उन्होंने कहा कि प्रदेश में विकास के नए आयाम स्थापित हुए है। मोदी ने देश मे राजनीति की संस्कृति बदल दी है। यूक्रेन से 23 हजार बच्चों को सकुशल देश वापिस लाया है। दूसरी बीमारियों के टिक्के में दशकों लग जाते थे तो मोदी के नेतृत्व में 9 महीने में कोरोना का टीका तैयार किया गया है।अब हिमाचल में फिर से बीजेपी का परचम लहराना है। विरोधी पार्टियों के पास न नेता है न नेतृत्व न ही नियत। हमारे पास नेता भी है नेतृत्व भी है। हमे अपने कामों को जनता तक ले जाना है। रिवाज टूटेगा और मिशन रिपीट होगा : जयराम ठाकुर वहीं मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने मिशन रिपीट को लेकर कहा कि भाजपा विश्व की सबसे बड़ी पार्टी बनी है जो पार्टी में कार्यकर्ताओं के महत्व, सम्मान व समर्पण के कारण हुआ और इसके लिए कार्यकर्ता के रूप में अपने संघर्ष से उठे नड्डा के प्रयासों से संभव हुआ है। छोटा राज्य होने के बावजूद केन्द्रीय मंत्रिमंडल में अनुराग ठाकुर को महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है और प्रधानमंत्री का हिमाचल के लिए अपनापन हमेशा रहा। हिमाचल प्रदेश ने भी अनेक प्रकार से संघर्ष कर विकास किया। मुख्यमंत्री ने कहा कि अब देश में भाजपा ने सरकार रिपीट नहीं होने का रिवाज बदल दिया है और आने वाले समय में हिमाचल में भी भाजपा सरकार बनाएगी और इतिहास रचेगी। उन्होंने कहा कि अबकी बार नड्डा के नेतृत्व में सरकार रिपीट करेंगे और इसके लिए हर संभव मेहनत करेगे।
इंदौरा विधानसभा क्षेत्र में कई वर्षों से भाजपा का राज रहा है। एक लम्बे समय से यहाँ कांग्रेस जीत दर्ज़ नहीं कर पाई है। पूर्व में कांग्रेस से 2012 और 2017 में प्रत्याशी रहे कमल किशोर से फर्स्ट वर्डिक्ट द्वारा कांग्रेस के बुरे प्रदर्शन और स्थानीय मुद्दों को लेकर चर्चा की गई। पेश है बातचीत के कुछ अंश...... सवाल : आप इंदौरा से पिछले 2 चुनाव लड़ चुके है और दोनों ही चुनाव आप नहीं जीत पाए, आपसे जानना चाहेंगे की आप क्या कारण मानते है कि इंदौरा में कांग्रेस अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पाई है? जवाब : इंदौरा विधानसभा क्षेत्र से लंबे समय तक कांग्रेस का प्रत्याशी नहीं जीत पाया है इसके कई कारण है। सबसे बड़ा कारण यह है कि आज से 15 साल पहले जब बोधराज यहां से विधायक थे तो ऐन मौके पर उनका टिकट काट दिया गया था, जिस कारण कांग्रेस पार्टी यहां से कोई भी प्रत्याशी नहीं उतार पाई। लंबे समय तक क्षेत्र खाली रहा और उसके बाद मुझे टिकट मिला, लेकिन बदकिस्मती से उस समय हम चुनाव नहीं जीत सके। यहां से भारतीय जनता पार्टी के ही एक प्रत्याशी जिन्हे भाजपा द्वारा 2012 में टिकट नहीं दिया गया था, उन्होंने बतौर आज़ाद उम्मीदवार चुनाव लड़ा और जीत दर्ज़ की। उस दौरान भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी को केवल दस हज़ार वोट मिले और मुझे साढ़े 14 हज़ार वोट मिले थे। 2012 में कांग्रेस की सरकार बनी और आज़ाद प्रत्याशी कांग्रेस सरकार में एसोसिएट मेंबर बन गए, लेकिन उन्होंने एसोसिएट मेंबर बनने के बाद कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को प्रताड़ित किया। उसके बाद हमने 5 साल लगातार मेहनत की और लोगों के बीच गए। हम लोगों के छोटे-मोटे काम करते रहे। फिर 2017 के चुनावों में मुझे यहां से टिकट मिला, लेकिन उस समय भी बदकिस्मती से हमारे कुछ कार्यकर्ताओं ने भितरघात किया जिस कारण मैं कुछ वोटों से चुनाव हार गया। मैं लगातार जनता के बीच हूं, जनता की सेवा कर रहा हूं। मैं यह भी बता देना चाहूंगा कि इंदौरा में कांग्रेस के मत ज्यादा है। यहाँ ज्यादा वोटर कांग्रेस विचारधारा के हैं लेकिन ऐन मौके पर हमारे कुछ लोग अपनी पार्टी की विचारधारा छोड़कर दूसरे लोगों के साथ अपने किसी मतलब के लिए चले जाते हैं। इस कारण कांग्रेस को हार का मुँह देखना पड़ता है। सवाल : इंदौरा कांग्रेस में गुटबाजी देखने को मिल रही है, क्या आपको नहीं लगता कि आने वाले विधानसभा चुनाव में यह पार्टी के लिए गंभीर समस्या बन सकती है ? जवाब : इंदौरा विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के कार्यकर्ता एकजुट है और कांग्रेस में कोई भी गुटबाज़ी नहीं है, लेकिन कुछ ऐसे महत्वकांक्षी कार्यकर्ता है जो रातो रात विधायक बनना चाहते हैं या बड़े आदमी बनना चाहते हैं। इन लोगों को कहीं न कहीं भारतीय जनता पार्टी के लोगों की शय होती है। इस कारण हम इसे गुटबाजी का नाम नहीं दे सकते और ना ही यहाँ गुटबाजी है। हमारे यहां करण सिंह पठानिया जो हमारे कोषाध्यक्ष है, वीरेंद्र सिंह मनकोटिया जो हमारे ब्लॉक प्रधान है, इसके अलावा पूर्व ब्लॉक प्रेसिडेंट है, हम सब एक साथ है और इकठ्ठे कार्य कर रहे हैं। हम सब पार्टी का कार्य कर रहे हैं और यहाँ गुटबाजी की कोई गुंजाइश नहीं है। सवाल : क्या मौजूदा विधायक के कार्यों से आप संतुष्ट है? जवाब : कुछ दिनों पहले सोशल मीडिया पर टाडा पंचायत का एक वीडियो वायरल हुआ था। टाडा पंचायत से मौजूदा विधायक को काफी संख्या में वोट मिले थे, लेकिन वहां के युवा संतुष्ट नहीं है । वीडियो में युवाओं ने कहा कि विधायक साढ़े 4 साल के बाद क्षेत्र में गई है। इस कारण लोग काफी निराश है । जहां तक अन्य कार्यों की बात है तो जिस स्तर पर कार्य होने चाहिए थे वह कार्य नहीं हो पाए हैं। अभी भी 90% सड़कों का बुरा हाल है। मैं मानता हूं कि जो पुरानी दो-चार सड़के है उन्हें ठीक किया गया है, लेकिन वह भी टूटना शुरू हो गई है। हाल ही में मंड क्षेत्र का एक वीडियो वायरल हुआ था। उक्त सड़क पर ₹12 करोड़ का खर्च हुआ लेकिन वह सड़क पूरी नहीं हुई। उक्त सड़क की डीपीआर अलग थी और मौके पर स्थिति कुछ और ही थी। इसलिए लोग पूरी तरह से हताश है और निराश है। जहाँ तक बेरोजगारी का सवाल है तो आज तक क्षेत्र के युवा बेरोज़गार है। एक भी व्यक्ति को रोजगार नहीं दिया गया है, उल्टा जो हमारे युवा फैक्ट्रियों में लगे हुए थे उनको निकाल दिया गया और उनके साथ अभद्र व्यवहार भी किया गया, लेकिन सरकार का इस ओर कोई ध्यान नहीं है। युवा बेरोज़गार है और वह सरकार का पूरी तरह से विरोध कर रहे है। सवाल : क्या आगामी विधानसभा चुनाव में कमल किशोर चुनाव लड़ेंगे ? जवाब : यदि कांग्रेस पार्टी मुझे टिकट देती है तो मैं निश्चित तौर पर दमखम से चुनाव लडूंगा और जीतूंगा भी। मैं अपनी दावेदारी भी पेश करूँगा क्योंकि मैं यहाँ से पुराना प्रत्याशी भी रहा हूँ और मैं कुछ ही वोटों से हारा था। इसी के साथ मैं हिमाचल प्रदेश कांग्रेस एससी डिपार्टमेंट का महासचिव हूँ। मैं लोगों के बीच भी जा रहा हूं, लोगों के हर सुख दुख में भी शामिल हो रहा हूँ, लोगों के बीच में ही हूँ। यदि कांग्रेस पार्टी मुझे टिकट देती है तो मैं निश्चित तौर पर चुनाव लडूंगा। सवाल : पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनने के बाद हिमाचल में भी लोग आम आदमी पार्टी का रुख कर रहे हैं। इसी के साथ पंजाब के साथ सटी विधानसभाओं में इसका ज्यादा प्रभाव देखने को मिल रहा है। कांग्रेस के कई लोग आम आदमी पार्टी का रुख कर रहे हैं। आपको क्या लगता है क्या इंदौरा में आम आदमी पार्टी प्रभाव डाल पाएगी ? जवाब : जहां तक पंजाब का सवाल है तो पंजाब में आपसी खींचतान की वजह से कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा था। इसी वजह से पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बन पाई है, लेकिन हमारे हिमाचल में ऐसा नहीं है। हमारे हिमाचल की राजनीति और पंजाब की राजनीति में बहुत फर्क है। मुझे नहीं लगता कि हिमाचल प्रदेश में इनके दो या चार विधायक भी जीत पाएंगे और जहां तक इंदौरा का सवाल है तो इंदौरा से आम आदमी पार्टी में कोई भी नहीं गया है। यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र में कोई भी किसी भी पार्टी में जा सकता है, कोई भी किसी को भी वोट डाल सकता है, उस पर किसी का कोई भी दबाव नहीं होता है। सवाल : इंदौरा में विकास की बड़ी-बड़ी बातें निकल कर आती है, सोशल मीडिया पर भी इसकी काफी चर्चा रहती है। कहा जाता है कि इंदौरा में अथाह विकास हुआ है। क्या विकास हुआ है? जवाब : जब 2017 में भाजपा की सरकार प्रदेश में बनी थी तो मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर यहां पर आए थे और इंद्रपुर में उन्होंने एक बड़ी रैली की थी। इसमें उनके द्वारा यह घोषणा की गई थी कि यहां पर एक मिनी सचिवालय बनाया जाएगा। इस सरकार का कार्यकाल समाप्त होने वाला है, लेकिन अभी तक मिनी सचिवालय का यहाँ पर कोई नामोनिशान तक नहीं है। यह बिल्कुल झूठ बोलने वाली सरकार है, जुमलों की सरकार है। सबसे पहले तो यहाँ मिनी सचिवालय बनना चाहिए ताकि सारे दफ्तर एक ही ईमारत के अंदर हो और लोगों को इसकी सुविधा मिले। जितने भी कार्य हुए है वह सब गुणवत्ता के आधार पर बिल्कुल शून्य है। मैंने पहले भी कहा था और अब भी कहता हूँ कि जितने भी कार्य हो रहे हैं वह बिल्कुल सबस्टैंडर्ड है। हाल ही में बडूखर में एक पुली टूट गयी थी जिसे बने हुए 6 महीने भी नहीं हुए थे। इस पुली पर लगभग 2 से 3 लाख का खर्चा हुआ था। इसके साथ ही कुछ दिनों पहले मंड क्षेत्र में भी एक पुली टूटी गयी थी। जितने भी कार्य हो रहे हैं वह बिल्कुल सब स्टैंडर्ड कार्य है, उसमे बिल्कुल भी गुणवत्ता नहीं है। ऐसे कार्यों से लोग परेशान है और निराश है। सवाल : इंदौरा विधानसभा क्षेत्र अवैध खैर कटान और अवैध माइनिंग होने कि भी आशंका जताई जाती है, इसे लेकर क्या कहेंगे? जवाब : खैर कटान की जहां तक बात की जाए तो वह सभी सरकार के ठेकेदार है और सरकार के लोग है जो यह कटान कर रहे है। यदि कोई स्थानीय व्यक्ति उन पर एफआईआर करवा दें तो उस पर कोई भी सुनवाई नहीं होती है। यह सब कार्य सरकार के ही आदमी करवाते हैं। आज तक जितनी भी सरकारें आई है उन में से यह पहली सरकार है जिसमें सबसे ज्यादा जंगल काटे गए हैं। जहां तक अवैध खनन का प्रश्न है तो यहां पर क्रेशर इंडस्ट्रीज काफी है। बहुत से ऐसे क्रेशर मालिक है जो बिल्कुल ठीक ढंग से कार्य कर रहे है। वह लोग अपनी ही जमीन से माइनिंग करते हैं और अच्छे तरीके से कार्य करते है, लेकिन कुछ ऐसी फर्में भी है जो भाजपा के लोगों की है, उनके लोग खनन करते हैं और यह उनके ही क्रेशर है।
चर्चा तो खूब हुई लेकिन कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष के नाम का पर्चा नहीं निकला। बात दरअसल ये है कि कांग्रेस आलाकमान पंजाब में हुई दुर्गति के बाद जल्दबाजी में कोई निर्णय लेना नहीं चाहता। इधर हिमाचल कांग्रेस में असमंजस की स्थिति है। प्रदेश अध्यक्ष आज बदलेगा, कल बदलेगा, चार दिन में बदलेगा या नहीं बदलेगा, जितने मुँह उतनी बात। क्या नेता और क्या कार्यकर्ता, सब के सब असमंजस में है। कई नेताओं के निष्ठावान अपने आका के प्रमोशन के इन्तजार में है, तो उधर वर्तमान अध्यक्ष कुलदीप राठौर भी आश्वस्त दिख रहे है। जानकार मान रहे है कि ये स्थिति कांग्रेस के लिए अच्छी नहीं है और बेहतर ये होगा कि पार्टी आलाकमान कुछ तो फरमान दे। अलबत्ता कम से कम ये तो स्पष्ट हो कि बदलाव होगा भी या नहीं। ग्राउंड रिपोर्ट की बात करें तो पूर्व अध्यक्ष सुखविंद्र सिंह सुक्खू और नेता प्रतिपक्ष मुकेश अग्निहोत्री के समर्थक तो आशावान है ही, होलीलॉज के निष्ठावान भी प्रतिभा सिंह के नाम को आगे बढ़ा रहे है। सुक्खू निसंदेह ऐसे नेता है जिनके समर्थक हर निर्वाचन क्षेत्र में है और बतौर अध्यक्ष काम करने का उनका अनुभव भी उनक दावा मजबूत करता है। पर होलीलॉज ( वीरभद्र परिवार ) उनके नाम पर सहमत हो, ये मुश्किल लगता है। उपचुनाव में होलीलॉज का तिलिस्म सबने देखा है और ऐसे में आलाकमान को संतुलन सुनिश्चित करना होगा। उधर, प्रतिभा सिंह के नाम पर भी कई नेताओं को आपत्ति होगी, सो ये निर्णय भी आलाकमान के लिए मुश्किल भरा हो सकता है। वहीँ मुकेश अग्निहोत्री होलीलॉज के करीबी भी है और काफी हद तक संतुलन साध कर भी चल रहे है। पर उन्हें नेता प्रतिपक्ष के साथ-साथ प्रदेश कांग्रेस की सरदारी भी मिले, ये भी होता नहीं दिखता। ऐसे में माहिर मान रहे है कि यदि बदलाव हुआ तो संभवतः सुक्खू को नेता प्रतिपक्ष का ताज देकर अग्निहोत्री को प्रदेश की कमान दी जा सकती है। क्या इस फॉर्मूले पर आगे बढ़ेगी कांग्रेस ? नगर निगम चुनाव में कॉंग्रेस्स का प्रदर्शन ठीक ठाक रहा था और उपचुनाव में तो कांग्रेस ने क्लीप स्वीप कर दिया। बावजूद इसके क्या राठौर को हटाया जाना चाहिए, ये बड़ा सवाल है। दरअसल प्रदेश अध्यक्ष होने के बावजूद जमीनी स्तर पर राठौर की मजबूत पकड़ नहीं दिखती। पर राठौर का किसी गुट में न होना उनके पक्ष में जाता है। ऐसे में मुमकिन है कांग्रेस राठौर को न बदला जाएँ, बल्कि कांग्रेस संसदीय क्षेत्रवार कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त करने के फार्मूला पर आगे बढ़े।
आहिस्ता-आहिस्ता आम आदमी पार्टी पैर जमाने की कवायद में जुटी है और रफ्ता -रफ्ता ही सही हिमाचल प्रदेश के राजनीतिक समीकरण भी बदलते दिख रहे है। अभी भाजपा -कांग्रेस की दूसरी व मुख्यतः तीसरी पंक्ति के नेता आप में जा रहे है, लेकिन माहिर मान रहे है कि यदि पहली पंक्ति में सेंध लगती है तो माहौल बदलते भी शायद देर न लगे। बहरहाल आम आदमी पार्टी कांग्रेस को ज्यादा नुक्सान पहुंचाएगी या भाजपा को, इसको लेकर भी राय बंटी हुई। पर इतना तय है कि आप फैक्टर को नकारना दोनों को भारी पड़ सकता है। प्रदेश में राजनैतिक दलों के निष्ठावान वोटर्स के अलावा फ्लोटिंग वोट प्रदेश में सत्ता की राह प्रशस्त करता है। इस फ्लोटिंग वोट में एंटी इंकम्बैंट और प्रो इंकम्बैंट वोट के अलावा बदलाव चाहने वाला वोटर भी होता है। ये दरअसल वो वोटर है जो सरकार से नाराज़ तो नहीं होता लेकिन वोट बदलाव के लिए करता है। इसके अतिरक्त एक तबका, माहौल और सियासी हवा देखकर मतदान करता है। संभवतः दोनों ही पार्टियों का काडर वोट एकाएक आप की तरफ न खिसके लेकिन आप इस फ्लोटिंग वोट में सेंध लगाकर कांग्रेस -भाजपा का खेल जरूर बिगाड़ सकती है। एंटी इंकम्बैंट वोट की बात करें तो 1990 में कांग्रेस के खिलाफ लहर थी जिसका लाभ भाजपा गठबंधन को मिला, जबकि 1993 में भाजपा सरकार के खिलाफ लहर चली और कांग्रेस सत्तासीन हुई। इसके बाद इतनी प्रचंड एंटी इंकमबैंसी वेव प्रदेश में नहीं दिखी है। हाँ 2003 में जरूर भाजपा गठबंधन सरकार के प्रति कुछ नारजगी दिखी थी, जिसका लाभ कांग्रेस को हुआ। वहीं 1998 में वीरभद्र सरकार को लेकर प्रो इंकम्बैंसी दिख रही थी, लेकिन पंडित सुखराम ने हिमाचल विकास कांग्रेस बनाकर कांग्रेस को झटका दे दिया। तब काँटे के मुकाबले में 23 सीटें ऐसी थी जहाँ जीत - हार का अंतर दो हज़ार वोट से कम था। इन से 14 सीटें कांग्रेस हारी थी और तीन सीटों पर तो उसे हिमाचल विकास कांग्रेस से सीधे मात दी थी। इसके अलावा कई सीटें ऐसी थी जहाँ कांग्रेस की हार का अंतर बेशक दो हज़ार वोट से अधिक था लेकिन पार्टी का खेल हिमाचल विकास कांग्रेस ने ही बिगाड़ा था। ये आंकड़ें इस बात की तस्दीक करते है की यदि हिमाचल विकास कांग्रेस न होती तो 1998 में वीरभद्र दूसरी बार रिपीट कर जाते। ऐसे में आप को हल्के में लेने की भूल करना दोनों ही पार्टियों को महंगा पड़ा सकता है। बीते तीन चुनाव पर नज़र डाले तो प्रदेश के अधिकांश क्षेत्रों में फ्लोटिंग वोट न तो सरकार के खिलाफ मुखर दिखा है और न ही समर्थन में, पर तीनों मर्तबा प्रदेश ने बदलाव के लिए वोट किया है। यानी वोटर की खामोशी सत्ता पर भारी पड़ती आ रही है। मौजूदा समय में जयराम सरकार को लेकर भी न एंटी इंकम्बेंसी दिख रही है और न ही प्रो इंकम्बैंसी। ऐसे में यदि बदलाव के लिए वोट होता है और आप उसमे सेंध लगाती है तो लाभ भाजपा को हो सकता है। वहीँ हवा और माहौल के हिसाब से चलने वाला न्यूट्रल वोटर दोनों पार्टियों को ठेंगा दिखा सकता है। आप के गुड गवर्नेंस मॉडल से यदि ये वोटर प्रभावित हुआ तो भाजपा का मिशन रिपीट भी खटाई में पड़ सकता है। कई सीटों पर दिखता है कांटे का मुकाबला : 1998 से लेकर 2017 तक हुए पांच विधानसभा चुनाव पर नजर डाले तो काफी सीटें ऐसी है जहाँ जीत -हार का अंतर दो हज़ार वोट से भी कम रहा है। 1998 में 23, 2003 में 10, 2007 में 16 , 2012 में 15 और 2017 में 18 सीटें ऐसी थी जहाँ नजदीकी मुकाबला रहा। ऐसे में आप के आने से 1998 की तरह ही ऐसी सीटों की संख्या बढ़ सकती है। हालांकि इसका लाभ किसे होगा और हानि किसे, ये देखना रोचक होगा।
दमखम या दम 'कम', अरविन्द केजरीवाल और भगवंत मान के मंडी में हुए रोड शो के बाद फिलवक्त ये बड़ा सवाल है। क्या आम आदमी पार्टी ने भरपूर दमखम दिखाया या दम की नुमाईश में कुछ गुंजाईश रह गई। इस सवाल के जवाब में कई के अरमान टिके है तो कई के भविष्य का ब्लूप्रिंट इससे तय होना है। ब्लॉकबस्टर, हिट या फ्लॉप.. हिमाचल के सियासी पटल पर आप की पहली पिक्चर का कलेक्शन कैसा रहा, ये अहम सवाल है जिसका जवाब सभी ढूंढ रहे है। कहते है मंडी में सियासत कभी ठंडी नहीं होती, ये तो एक सत्य था ही मगर अब एक तथ्य ये भी है कि आम आदमी पार्टी की दस्तक के बाद से सियासी खिचड़ी में रोमांच का तड़का भी लग गया है, जिसका प्रभाव समूचे हिमाचल पर पड़ा। आप ने भाजपा कांग्रेस की धुकधुकी भी बढ़ाई और जनता के दिल तक पहुँचने की कोशिश भी की। हाथ में तिरंगा, सर पर आम आदमी पार्टी की टोपी और ज़बान पर इंकलाब ज़िंदाबाद के नारे लिए आप के समर्थक मंडी पहुंचे। आम आदमी पार्टी के रोड शो में एकत्रित जन सैलाब उम्मीद से ज़्यादा था मगर दावों से कम। हिमाचल की सियासत में आप की एंट्री ज़बरदस्त हुई मगर ये और बेहतर हो सकती थी। उधर, जैसा अपेक्षित था विरोधयों की प्रतिक्रिया भी वैसे ही आई। वैसे तो कांग्रेस और भाजपा दोनों कभी एक सी बात करते नहीं, किन्तु आप की रैली को लेकर दोनों की प्रतिक्रिया एक जैसी रही, दोनों ने इस रैली को फ्लॉप शो करार दिया। हालांकि लोकतंत्र में कौन हिट है और कौन फ्लॉप, ये जनता तय करती है, नेता नहीं। तो कुछ और बात होती ... आप की एंट्री से हिमाचल की सियासत हाई ज़रूर हुई है मगर एक आध सियासी स्टंट और होते तो शायद बात कुछ और होती। कयास लगाए जा रहे थे कि रोड शो के दिन कांग्रेस और भाजपा के कुछ और बड़े चेहरे पार्टी में शामिल हो सकते है, और दोनों पार्टियां इस बात को लेकर चिंतित भी थी। पर ऐसा कुछ हुआ नहीं। पार्टी के पास अब भी कोई बड़ा चेहरा नहीं है। यूँ तो आप आम आदमी को ही अपना बड़ा चेहरा मानती है मगर बिना फेस के पार्टी के राह आसान नहीं होगी। अब तक जिन नेताओं ने आप का दामन थामा है उनमे कोई भी ऐसा नहीं दिखता जिसके चेहरे पर पार्टी आगामी चुनाव में उतर सके। ये संगरूर नहीं है ... समर्थकों को सम्बोधित करते हुए भीड़ देख कर पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने कहा की मुझे लोगों का हुजूम देख कर ये प्रतीत हो रहा है की मैं मंडी नहीं संगरूर में ये रोड शो कर रहा हूँ। पर आप को जल्द समझना होगा कि मंडी, संगरूर नहीं है और हिमाचल भी पंजाब या दिल्ली नहीं है। हिमाचल में लोकल फैक्टर काफी अहम है और आप को यहाँ बेहतर करना है तो पहले हिमाचल से कनेक्ट करना होगा। पार्टी सिर्फ दिल्ली और पंजाब के मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव नहीं जीत सकती, पार्टी में हिमाचल के बड़े चेहरों का होना बेहद ज़रूरी है।
हिमाचल प्रदेश में इस साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। अभी तक इस बात पर संशय बना हुआ था कि पार्टी किसके चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। लेकिन अब भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा ने साफ कर दिया है कि हिमाचल में सीएम फेस कोण होगा। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा आगामी विधानसभा चुनाव जयराम ठाकुर के नेतृत्व में ही होगा। उन्होंने कहा कि हिमाचल में मुख्यमंत्री को बदलने की कोई संभावना नहीं है। जयराम ठाकुर की अध्यक्षता में सरकार बेहतर काम कर रही है और आगे भी करते रहेंगे। जेपी नड्डा ने कहा कि जयराम ठाकुर की सरकार बेहतरीन कार्य कर रही है। कुछ दिनों से विरोधी राजनीतिक दलों की ओर से हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री बदलने की चर्चाओं को हवा दी जा रही थी। इस बीच रविवार को जेपी नड्डा ने इस संबंध में बड़ा ऐलान कर दिया। हिमाचल प्रदेश में इस साल के अंत में विधानसभा चुनाव प्रस्तावित हैं। जेपी नड्डा ने कहा कि भाजपा बदलाव करती रहती है 10 से 15 प्रतिशत सीटों पर विधायकों की टिकटें बदलती रहती हैं। उत्तर प्रदेश में भी ऐसा ही किया है हिमाचल में भी यह बदलाव होगा तो कोई ऐसी बड़ी बात नहीं है। भाजपा अपनी रणनीति अपने हिसाब से तय करती है और चुनावों में उसे लागू भी करती है। 2022 के चुनाव में भाजपा हिमाचल में जीत हासिल करेगी। सरकार ने जो काम किए हैं, उन्हें लेकर लोगों के बीच जाएंगे।
मंत्री रहते हुए सुधीर शर्मा ने धर्मशाला के हक की आवाज हमेशा बुलंद की। स्मार्ट सिटी मिलने की बारी आई तो धर्मशाला तो तरजीह मिली, नगर निगम की बारी आई तो भी धर्मशाला को तरजीह मिली। विकास हुआ भी और दिखा भी, पर 2017 के चुनावी इम्तिहान में सुधीर फेल हो गए। फिर 2019 के उपचुनाव का मौका आया तो सुधीर मैदान में ही नहीं उतरे और नतीजन कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई। नगर निगम चुनाव में भी कांग्रेस पिट गई। अब फिर विधानसभा चुनाव का काउंटडाउन शुरू है और सुधीर शर्मा मैदान में है। पर इस बीच उन्हें लेकर कई तरह की चर्चाएं आम है। इनमें क्या हकीकत है और क्या फ़साना, फर्स्ट वर्डिक्ट मीडिया ने खुद सुधीर शर्मा से जाना। सुनैना कश्यप ने सुधीर शर्मा से विशेष बातचीत की, कई तीखे सवाल किये और सुधीर ने बेबाकी से अपना पक्ष रखा। पेश है बातचीत के मुख्य अंश ... सवाल : 2019 के उपचुनाव में मैदान में क्यों नहीं उतरे आप ? जवाब : देखिये 2019 का जब उपचुनाव आया तो उस दौरान कई तरह की बाते थी। उस दौरान मेरा स्वास्थ्य ठीक नहीं था और इस बारे में मैंने हाईकमान को भी बताया था और स्वास्थ्य कारणों के चलते मैं उपचुनाव नहीं लड़ पाया। उस समय परिणाम जो भी रहे हो कांग्रेस पार्टी ने अपनी तरफ से पूरी ताकत झोंकी थी लेकिन जो सत्तारूढ़ दल होता है कई बार उसका वर्चस्व रहता है। तब सरकार भी नई थी और इसीलिए परिणाम हमारे अनुकूल रहे। सवाल : सबके मन में एक ही सवाल है, क्या सुधीर शर्मा आगामी विधानसभा चुनाव लड़ेंगे और लड़ेंगे तो कहाँ से लड़ेंगे ? जवाब : देखिये बहुत सारी चर्चाएं रहती है, कोई कहता है कही से लड़ेंगे कोई कहता है हमारे निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे। मैं ये समझता हूँ कि ये जनता का प्यार है, लेकिन मैं बार-बार चुनाव क्षेत्र बदलने के पक्ष में नहीं हूँ। पहले भी 2012 में जब मैं धर्मशाला आया तो बैजनाथ चुनाव क्षेत्र आरक्षित हुआ। उस दौरान भी पार्टी ने सीट रिज़र्व होने के कारण मुझे धर्मशाला भेजा, मैं अपनी मर्ज़ी से यहाँ नहीं आया था। चुनाव से 15 दिन पहले मुझे पार्टी आलाकमान ने यहाँ भेजा ,तब से लेकर यहीं हूँ और अब तो जीवन के अंत तक यहीं रहना है। इस बार का चुनाव भी मैं धर्मशाला से ही लडूंगा। सवाल : कुछ नेताओं के साथ सोशल मीडिया पर आपकी भी तस्वीरें वायरल हो रही है कि आने वाले समय में ये नेता आम आदमी पार्टी का दामन थाम सकते है। इनका सरदार भी आपको ही बताया जा रहा है। क्या कहेंगे इस बारे में ? जवाब : देखिये आज सोशल मीडिया का जमाना है और ऐसी कई चीज़े सामने आती रहती है। आपको पता होगा की पुरानी पत्रकारिता में भी कार्टून बनाया करते थे और हमारे देश में बहुत से ऐसे कार्टूनिस्ट है जिन्होंने विश्व स्तर पर काम किया है। अब मिम्स का जमाना है तो ऐसे ही किसी ने व्यंग के लिए कुछ बना कर वायरल किया होगा, लेकिन ऐसा कुछ नहीं है। मैं तो कांग्रेस में ही हूँ, शुरू से ही कांग्रेस में रहा हूँ तो कांग्रेस के अलावा तो कहीं जाने का सवाल ही पैदा नहीं होता। सवाल : राष्ट्रीय स्तर पर यदि कांग्रेस की बात की जाए तो आंतरिक लोकतंत्र की मांग लगातार उठ रही है। संगठन में बदलाव की बात की जा रही है। क्या कहेंगे ? जवाब : देखिये आंतरिक लोकतंत्र को तो कांग्रेस पार्टी ने कभी भी नहीं रोका। आपको याद होगा जब पिछला चुनाव हुआ तो सबसे पहला इस्तीफा राहुल गाँधी जी ने दिया, उन्होंने कहा की मैं इस्तीफा दे रहा हूँ आप अपना अध्यक्ष चुनिए। सभी पार्टी के लोगो को कहा गया और इसके बाद निर्णय उन पर छोड़ा गया। जब कोई राय नहीं बनी तो कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में सोनिया गाँधी जी आई। अब जल्द ही अधिवेशन होने जा रहा है उसमें जिसको भी चुनेगी पार्टी वो सर्वमान्य अध्यक्ष होगा और उसके साथ सब चलेंगे। कांग्रेस पार्टी ही ऐसी पार्टी है जिसमें अध्यक्ष चुने जाने की प्रक्रिया ब्लॉक ,जिला, प्रदेश और फिर राष्ट्रीय स्तर तक चलती है। हमारी पार्टी द्वारा सदस्यता अभियान भी चलाया गया, उसके बाद अब संगठन की चुनावी प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और राष्ट्रीय स्तर से लेकर जिला व ब्लॉक स्तर के चुनाव परिणाम सामने आ जायेंगे। सवाल : ओक ओवर का रास्ता कांगड़ा से होकर जाता है। कांगड़ा से मुख्यमंत्री हो इसे लेकर लम्बे समय से सुबुगाहट होती रही है। स्व बाली जी तो खुलकर इसकी हिमायत करते रहे। आपका क्या मत है ? जवाब : देखिये ये बात ठीक है कि काँगड़ा सबसे बड़ा जिला है हिमाचल प्रदेश का, लेकिन ये कह देना कि मुख्यमंत्री काँगड़ा का ही होना चाहिए, ऐसा नहीं है। मुख्यमंत्री तो प्रदेश का बनेगा और वो बनेगा जिसके साथ चुने हुए विधायक हो और पहली बात ये है कि वो 35 का आंकड़ा तो प्राप्त कर ले। 15 से तो नहीं बन जायेगा। 15 से ही बनना होता तो पहले ही बन जाता, इसके लिए पहले 35 का आंकड़ा चाहिए फिर बहुमत होगा और बहुमत के बाद चुने हुए विधायकों की राय होगी और वो राय पार्टी नेतृत्व के समक्ष रखी जाएगी। उसके बाद जिसको सक्षम समझेंगे, उसे मुख्यमंत्री बनाया जायेगा। प्रदेश सरकार चलना भी इतना आसान काम तो नहीं है, कर्ज में हम लोग डूबे हुए है। जो लोग आज सोचते है कि हम सत्ता में आ जायेंगे जीत करके और फिर सरकार में बैठ जायेंगे, तो प्रदेश को चलाना आसान बात नहीं है। आपको कर्मचारियों को तनख्वाह तक देने के लिए कर्ज लेना पड़ता है तो आप किस तरह से प्रदेश को आत्मनिर्भर बना पाएंगे, क्या प्रोग्राम्स होंगे, पॉलिसी होगी, ये सब जहाँ में रखना होगा। क्षमता को लेकर नेतृत्व का निर्णय होगा। सवाल : धर्मशाला की अगर बात करें तो आप मैदान में उस तरह नहीं दिख रहे, इस पर आपकी अपनी पार्टी के कई लोग ही आपको घेरने में लगे है। चूक कहाँ हो गई ? जवाब : ऐसा नहीं है कि सक्रियता कम हुई है। कोरोना महामारी का आप समय देखे तो कोरोनाकाल में जो काम हुआ वो सबसे ज़्यादा धर्मशाला के अंदर हुआ और हमने किया। घर -घर तक दवाईयां पहुंची, राशन पहुंचा, पका हुआ भोजन पहुँचाया। यहाँ तक कि पशुओं के लिए चारा भी उस समय पंजाब से नहीं आ पा रहा था, वो हमने पहुँचाया। कई बार राष्ट्रीय स्तर की भी कई जिम्मेवारियां रहती है जिनके चलते बाहर रहना पड़ता है, तो समय इतना नहीं दे पाते। लेकिन जब भी धर्मशाला में होता हूँ तो सक्रियता पूरी है। धर्मशाला की भी यदि बात करे तो ये बहुत बड़ा निर्वाचन क्षेत्र है, इसमें न केवल बाजार का हिस्सा शामिल है बल्कि ग्रामीण इलाके इससे भी चार गुना ज़्यादा बड़े है। ग्रामीण इलाकों में जायेंगे तो पता चलता है कि कितना विकास हुआ है, किसने किया है, किसने नहीं किया है और कौन कितना सक्रिय है। मेरा ये मानना है कि ये केवल एक परसेप्शन तैयार करने का प्रयास किया जा रहा है और जो ये लोग करते है मैं ये समझता हूँ कि चुनाव तो आ ही रहे है, दो- दो हाथ सभी को आज़मा लेने चाहिए। प्रजातंत्र में कोई किसी को नहीं रोकता है। सवाल : चलिए कांगड़ा की राजनीति पर आते है। नए ज़िलों को बनाने की मांग है, इस पर आपकी क्या राय है ? जवाब : मेरा ये मानना है कि आज संचार का युग है, आप जितने प्रशासनिक यूनिट्स को कम करेंगे उतना बेहतर होगा। उस समय ज़्यादा प्रशासनिक कार्यालयों को खोला जाता था, जिलों को तोड़ा जाता था जब लोगों वहां तक पहुंचने में दिक्कत आती थी। आज वर्क फ्रॉम होम का कॉसेप्ट आ गया है। कोरोना ने हमें इतना कुछ सिखाया है। आज दुनिया में आप कही भी अपने डिप्टी कमिश्नर को आप रीच आउट कर सकते है। सभी चीज़े ऑनलाइन हो गयी है। मेरा मानना है कि नए ज़िले बनने से प्रदेश पर वित्तीय बोझ अधिक होगा। जो पैसा हम प्रदेश के विकास के लिए इस्तेमाल कर सकते है उसे ऐसे सफ़ेद हाथी पर खर्च करने में कोई समझदारी नहीं है। तो मैं नए जिले बनाने के पक्ष में नहीं हूँ। सवाल : धर्मशाला आपकी कर्मभूमि रही है। ये बताये सेंट्रल यूनिवर्सिटी को लेकर आपकी निजी राय क्या है ? जवाब : देखिये जब इसकी घोषणा हुई थी तो धर्मशाला के इंद्रुनाग में इसके निर्माण के लिए जगह देखी गयी थी, तब देहरा का कोई नाम नहीं था। बाद में उस जगह को कंस्ट्रक्शन के लिए उपयुक्त नहीं पाया गया। इसके बाद ये कहा गया कि कुछ कैंपस को देहरा ले जाते है और कुछ को यहाँ ही बनाया जायेगा, क्योंकि उतनी जगह नहीं थी। फिर सरकार बदली, मैं यहाँ से नया- नया विधायक था, मंत्री भी रहा तो हमने नई भूमि देखी जो उपयुक्त है। अब फिर उस जगह की फिसिबिल्टी पर सवाल है। अब कुछ देहरा में बनाने जा रहे है और कुछ धर्मशाला में। हमें तो देहरा से भी कोई विरोध नहीं है। मेरा मानना ये है कि आप एक साथ दोनों जगह कार्य शुरू करे। एक बात और कहूंगा कि इस मुद्दे को मुझसे जोड़ा जाता है लेकिन ये मुद्दा तो मेरा था ही नहीं। 2006 में इसकी घोषणा हुई थी और तब में बैजनाथ से विधायक था। इस विषय पर जब एक बार निर्णय हो चुका है तो राजनीतिक लाभ लेने के लिए इसे मुद्दा बनाये जाना इतने बड़े संस्थान के साथ अन्याय है। सवाल : पिछली सरकार में आपको नंबर दो माना जाता था, लगता था कि सुधीर शर्मा ही वीरभद्र सिंह के सबसे करीब है। पर अगर अब हम सियासी चश्मे से देखे तो आप हॉली लॉज के उतने करीब नहीं दिख रहे। क्या ऐसा है ? जवाब : ऐसा नहीं है, ये प्रश्न आप वहां भी पूछ सकते है। देखिये राजनीति की बात अलग है लेकिन हम लोग एक परिवार है और कोई भी निर्णय हो कोई भी फैसला राजनीति में हो तो एक परिवार की तरह साथ में रह कर हम उस पर विचार करते है और आगे बढ़ते है। हाल ही में मंडी लोकसभा का जो उपचुनाव था, उस दौरान भी मैं वहीँ था और वो चुनाव हम जीते भी। ये बेहद ख़ुशी की बात है कि प्रतिभा सिंह जी मंडी से सांसद है। विक्रमादित्य सिंह युवा नेता है और पूरे प्रदेश की अपेक्षाओं का और वीरभद्र सिंह जी की लिगेसी का भार उनके कन्धों पर है। वे बड़ी संजीदगी से उसे निभा रहे है और अच्छी बात है कि कांग्रेस के अंदर अगली जनरेशन में भी इस तरह की लीडरशिप निकल कर आ रही है। मैं मानता हूँ कि ये हमारी पार्टी के लिये अच्छा है।
अपनी डफली अपना राग..फिलवक्त ये ही धर्मशाला कांग्रेस की ग्राउंड रियलिटी है। यूँ तो कांग्रेस के पास न नेतृत्व की कमी है और न ही कांग्रेस के काडर पर कोई संशय, पर हावी अंतर्कलह से पार्टी की स्थिति सहज नहीं दिख रही। जैसे - जैसे विधानसभा चुनाव नजदीक आ रहे है टिकट दावेदारों की संख्या में भी इजाफा हो रहा है। इस फेहरिस्त में पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा, पूर्व मेयर देवेंद्र जग्गी और 2019 के उपचुनाव में पार्टी प्रत्याशी रहे विजय करण के नाम प्रमुख है। वहीं एक ख़ास नाम और है, वो है चंद्रेश कुमारी का। बीते दिनों सियासत में पचास साल पूरे हुए तो मैडम चंद्रेश ने पत्रकार वार्ता में ये कहकर कई चाहवानों की नींद उड़ा दी कि यदि आलाकमान चाहेगा तो वे चुनाव लड़ने को तैयार है। ये अलग बात है कि उसके बाद से चंद्रेश लगभग असक्रिय दिखी है। सिलसिलेवार बात करें तो पूर्व मंत्री सुधीर शर्मा से ही धर्मशाला कांग्रेस की चर्चा शुरू होना लाजमी है। 2012 में जब बैजनाथ सीट आरक्षित हुई तो सुधीर शर्मा ने धर्मशाला को कर्मभूमि बना लिया। चुनाव से महज 15 दिन पहले उन्हें धर्मशाला से प्रत्याशी बनाया गया, बावजूद इसके उन्होंने शानदार जीत दर्ज की। कांग्रेस की सरकार बनी और सुधीर मंत्री बन गए, वो भी दमदार। तब उन्हें वीरभद्र सिंह के बाद सबसे ताकतवर मंत्री माना जाता था। सुधीर के कार्यकाल में धर्मशाला में विकास भी खूब हुआ। चाहे स्मार्ट सिटी चुनने की बारी आई या नगर निगम बनाने की, धर्मशाला को तरजीह मिली। पर इस बीच जो लोग कभी सुधीर की परछाई लगते थे, वो ही रुस्वा होते गए। विधानसभा चुनाव आते -आते माहौल कुछ ऐसा बदला कि सुधीर खुद चुनाव हार गए। किशन कपूर के सांसद बनने के बाद 2019 के उपचुनाव में सुधीर शर्मा ने सेहत का हवाला देकर चुनाव लड़ने से इंकार कर दिया। तब चुनावी रण में एंट्री हुई विजय करण की। विजय करण ने जोर तो खूब लगाया लेकिन उन्हें विजय नसीब नहीं हुई। हालात ये रहे कि निर्दलीय चुनाव लड़ रह राकेश चौधरी दूसरे स्थान पर रहे और कांग्रेस की जमानत जब्त हो गई। जाहिर है कि विजय करण को कांग्रेस का भी पूरा साथ नहीं मिला। बहरहाल विजय करण ये कहकर टिकट की दावेदारी पेश कर रहे है कि जब बड़े -बड़े पीठ दिखा गए थे तब उन्होंने चुनाव लड़ा। पर विजय की राह आसान जरा भी नहीं दिख रही। वहीं धर्मशाला नगर निगम के पूर्व मेयर देवेंद्र जग्गी भी चुनाव लड़ने में रूचि दिखा रहे है और वे भी टिकट के दावेदार होने वाले है। सुधीर ने लगाया अटकलों पर विराम : धर्मशाला में कांग्रेस आलाकमान का टिकट रुपी आशीर्वाद किसको मिलता है ये तो आने वाला वक्त ही बताएगा। बहरहाल सुधीर का दावा मजबूत जरूर लग रहा है। सुधीर निर्वाचन क्षेत्र बदलने की अटकलों को भी सिरे से खारिज कर चुके है और धर्मशाला से चुनाव लड़ने का ऐलान भी। सुधीर ये भी खुलकर कह रहे है कि वे कांग्रेस में थे, है और रहेंगे। उधर, उनके विरोधी लामबंद होते दिख रहे है और बाहरी कार्ड को भी खूब हवा दी जा रही है। इस अंतर्कलह पर विराम लगाए बिना धर्मशाला में कांग्रेस की राह मुश्किल जरूर होगी।


















































